हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ “आंदोलनों और विमर्शों से कुछ लोग चर्चित जरूर हुए” – श्रीमति नासिरा शर्मा ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4। यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार। हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष। दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ परिचर्चा ☆ “आंदोलनों और विमर्शों से कुछ लोग चर्चित जरूर हुए” – श्रीमति नासिरा शर्मा ☆ श्री कमलेश भारतीय  

-कमलेश भारतीय

आंदोलनों और विमर्शों से कुछ लोग चर्चित जरूर हुए

हरियाणा में साहित्य की बात बहुत ध्यान से सुनते हैं : नासिरा शर्मा

प्रसिद्ध लेखिका नासिरा शर्मा का कहना है कि चाहे कहानी आंदोलन रहे या फिर स्त्री या दलित जैसे विमर्श इनसे हिंदी साहित्य को तो फायदा नहीं हुआ लेकिन कुछ लोग इनके सहारे चर्चित जरूर हो गये। नासिरा शर्मा ने उपन्यास, कथा, रिपोर्ताज, बाल लेखन, संस्मरण और अनुवाद अनेक क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। हाल ही में राजकमल प्रकाशन से इनका उपन्यास ‘अल्फा बीटा गामा’ आया है और चर्चित हो रहा है।

मूल रूप से नासिरा शर्मा जिला रायबरेली के मुस्तफ़ाबाद से हैं और उन्हें गर्व है कि ऊंचाहार रेल का नाम उनके गांव के कारण ही रखा गया। इनकी स्नातक की शिक्षा इलाहबाद में हुई। फिर शादी हो जाने पर वे अपने पति प्रो रामचंद्र शर्मा के साथ इंग्लैड चली गयीं और तीन वर्ष तक एडनबरा में बिताने के बाद वापिस आने पर जेएनयू में पाच वर्ष की पर्शियन में एमए की। इसके बाद स्वतंत्र लेखन शुरू किया और पत्रकारिता भी।

– साहित्य में रूचि कैसे?

– पूरा परिवार साहित्यिक रूचि रखता है और इसी के चलते मेरी रूचि भी साहित्य में होना स्वाभाविक था।

– शुरूआत किस विधा से की?

– कथा लेखन से। फिर अन्य विधाओं में रूचि बढ़ती गयी।

– कितनी पुस्तकें आ गयीं अब तक?

– पचास के आसपास। इनमें चौदह उपन्यास, दस कथा संग्रह, लेख, संस्मरण, रिपोर्ताज, बाल लेखन आदि भी हैं तो अनुवादित साहित्य भी है।

– जो प्रमुख सम्मान मिले उनके बारे में बताइए।

– सन् 2016 का साहित्य अकादमी सम्मान, सन् 2019 का व्यास सम्मान और महात्मा गांधी हिंदी संस्थान से सन् 2012 में सम्मान सहित अनेक सम्मान/पुरस्कार।

– आपने अनेक विधाओं में लिखा तो कौन सी विधा में सबसे ज्यादा सुकून मिलता है?

– सभी विधाओं में सुकून मिलता है क्योंकि मैं एक लेखक हूं और लेखक के अपने कई रंग होते हैं।

– कोई फिल्म या नाटक बना आपकी रचनाओं पर?

– हरियाणा के राजीव रंजन ने मेरी कहानी पर ‘अपनी कोख’ नाटक तैयार करवाया जिसे दिनेश खन्ना ने निर्देशित किया और बहुत बार खेला गया। अनेक टीवी फिल्में भी बनी मेरी रचनाओं पर। ‘अपनी कोख’ नाटक के हरियाणा में तीन सौ से ऊपर शोज हुए जो एक प्रकार से कीर्तिमान कहा जा सकता है। यह नाटक भ्रूण हत्या पर है और लोग इसे देखते रोये बिना न रहते थे।

– कथा आंदोलनों और स्त्री/दलित जैसे विमर्शों से क्या हुआ?

–  दलित व स्त्री हमेशा साहित्य के फोकस में रहे हैं लेकिन बाद में इन्हें विमर्शों का हिस्सा बना दिया गया जो दुखद है। कुछ लोगों को फोकस मिला। नारे की तरह रहे ये विमर्श। यह हमेशा होता है। कुछ लोगों का भला हुआ। आंदोलन से जुड़ने से चर्चा मिली।

– क्या महिला लेखन /पुरूष लेखन की बात सही है?

– नही। मैं हमेशा से इस तरह की खानाबंदी के खिलाफ रही हूं।

– हरियाणा के बारे में आपके क्या अनुभव हैं?

– मै हरियाणा बहुत घूमी और अनेक स्कूल कालेजों में जाने का अवसर मिला। मेवात में मेरे पति रामचंद्र शर्मा ने गांव गोद ले रखा था तो मेवात जाने का अवसर भी बहुत बार मिला। भगवान् दास मोरवाल व पारूथी जी सहित अनेक रचनाकारों से परिचय भी है। भगवान् दास मोरवाल ने न केवल उर्दू सीखी बल्कि बहुत मेहनत से उपन्यास लिखे। आपसे भी दिल्ली में रेणु हुसैन के कथा संग्रह के विमोचन पर परिचय हुआ। हरियाणा के लोग साहित्य के प्रति बहुत उत्सुकता रखते हैं और बहुत ध्यान से सुनते हैं। ‘हरिभूमि’ में मेरी अनेक रचनाओं को प्रमुखता से प्रकाशित किया जाता रहा।

– नयी पीढ़ी को क्या गुरुमंत्र देना चाहेंगीं?

– बस। लिखते रहो। अच्छे से अच्छा लिखने की कोशिश करते रहो।

– आगे क्या योजना है?

– अभी तो उपन्यास आया है – अल्फा बीटा गामा। आगे देखते हैं नया।

हमारी शुभकामनाएं नासिरा शर्मा को। आप इस नम्बर पर प्रतिक्रिया दे सकते हैं : 9811119489

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कविता ☆ श्री अमरजीत कौंके की आठ मूल पंजाबी कविताएँ ☆ भावानुवाद – डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆

डॉ जसप्रीत कौर फ़लक

☆ कविता ☆ श्री अमरजीत कौंके की आठ मूल पंजाबी कविताएँ  ☆  भावानुवाद – डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक 

डॉ. अमरजीत कौंके

(डॉ.अमरजीत कौंके  पंजाबी साहित्य के आकाश पर ध्रुव तारे की तरह चमकता हुआ नाम है जिसकी रोशनी में पंजाबी साहित्य मालामाल हुआ है। उनकी रचनाएँ प्रेम के सरोकारों को नए दृष्टिकोण से परिभाषित करती हैं। उनकी कविता की विशेषता  है कि यह पाठक से बड़ी ख़ामोशी से हम – कलाम होते  हुए उस की रूह में उतर जाती है ।पंजाबी भाषा में उनका विशेष पाठक वर्ग है।उनकी इन चुनिंदा पंजाबी कविताओं का अनुवाद हिंदी पाठकों को भी अनुभूति करेगा। उनके पास लेखन प्रक्रिया का जो अनुभव है उनकी रचनाओं में वो स्पष्ट देखा जा सकता है। साहित्य समाज का दर्पण होता है उनकी कविताएँ भी इस यथार्थ को सार्थक करती हैं- यह भावपूर्ण रचनायें संकलन में संकलित कर के गौरवान्वित हूँ।)

मूल पंजाबी कविता- डॉ. अमरजीत कौंके

अनुवादक- डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

(१) कविता की ऋतु

 जब भी कविता की ऋतु आई

 तेरी यादों के कितने मौसम

अपने साथ लाई

*

मैं कविता नहीं

जैसे तुझे ही लिखता हूँ

मेरे पोरों

मेरे नैनों

मेरे लहू में

तेरा अजब-सा नशा चढ़ता है

अजीब सा ख़याल

हैरान करने वाला

पता नहीं कहाँ से हो फूटता है

*

 तू अचानक से मेरे पास आप बैठती

तेरी नज़र

मेरी कविता का एक-एक शब्द

किसी पारखू की तरह

टनका के देखती

मेरी आँखों में

तेरा मुस्कुराता चेहरा आता

मेरे पास शब्दों की

बारिश करता

और मैं किसी बच्चे की तरह

शब्दों को उठा-उठा कर

पंक्ति में सजाता

*

कहीं भी हो चाहे

कितने ही दूर

असीम अनंत दूरी पर

*

परन्तु कविता की ऋतु में

तू सदैव

मेरे पास-पास होती।

*

(२) कैसे आऊँ

मेरी चेतना

हज़ार टुकड़ों में बँटी पड़ी हैं

मेरी स्मृतियों में

अतीत के कितने ग्रह

उपग्रह के

टुकड़े तैर रहे हैं

मेरे अन्दर

कितने जन्मों की धूल उड़ती

मेरे जंगलों में

कितनी डराती, आकर्षित करतीं

आवाज़े तैरती

मेरे समुन्दर में कितने ज्वार-भाटे

खौलते पानियों का संगीत

*

मैं चाहता हुआ भी

इन्हीं आवाज़ों

शोर संगीत बवण्डरों से

मुक्त नहीं हो सकता मैं

अपनी यादों की तख़्ती तो

कितनी लकीरों

कटी-बँटी शक्लें

*

मैं जानता हूँ

पर मेरी दोस्त!

मैं बचपन की कच्ची उम्र से

हज़ार टुकड़ों में बँटा

बिखरा

स्वयं ब्रहमण्ड में बिखरे

अपने टुकड़े

चुनने की कोशिश कर रहा हूँ

*

मैं पूरे का पूरा

तेरा

सिर्फ़ तेरा बन के

तेरे पास कैसे आऊँ…?

*

(३) मीलों तक अंधेरा

मैं जिस रोशनी में बैठा हूँ

मुझे यह रोशनी

मेरी नहीं लगती

इस बनावटी जैसी चाँदनी की

कोई भी किरण

पता नहीं क्यों

मेरी रूह में

नहीं जगती

*

जगमग करता

आँखों को चकाचौंध करता

यह जो चहु-ओर फैला प्रकाश है

अंदर झाँक के देखूं

तो मीलों तक अंधेरा है

कभी जब सोचता हूँ बैठ कर

तो महसूस यूँ होता

कि असल में

अंतर्मन  तक फैला

अंधेरा ही मेरा है

*

मेरे अंदर

अंधेरे में

मुझे सुनता

अक्सर होता विरलाप जैसा

मेरे सपनों को लिपटा

जो संताप जैसा

यह प्रकाश को बना देता

मेरे लिए एक पाप जैसा

*

 यह जगमगाती रोशनी

यह जो चहु-ओर प्रकाश है

अंदर झाँक के देखूं

तो मीलों तक अंधेरा है…।

*

(४) उदासी

छू कर नहीं देखा

उसे कभी

पर सदा रहती वह

मेरे नज़दीक – नज़दीक

उसकी परछाईं

*

सदा दिखती रहती मुझे

आस-पास

जब भी

मैं अपने गिर्द कसा हुआ  वस्त्र

थोड़ा ढीला करता

अपना पत्थर सा शरीर

थोड़ा सा नरम करता

*

वह अदृश्य सी

मेरे जिस्म में प्रवेश करती

मुझे कहती-

क्यों रहता है दूर मुझ से

क्यों भागता है डर के

मैं तो आदि-काल से तेरे साथ हूँ

मैं तो हमेशा तेरे साथ रहूँगी

वह मेरे जिस्म में फैलती

चलने लगती मेरे अंदर

*

मेरे भीतर

सोई हुई सुरों को जगाती

अतीत की धूल उठाती

मुझे अजीब संसार में

ले जाती

*

जहाँ से कितने-कितने दिन

लौटने के लिए

कोई राह न पाता

मैं फिर लौटता आख़िर

वर्तमान के

भूल-भुलैया में खोता

पर उसकी परछाईं

सदा दिखती रहती मुझे

क़रीब-क़रीब

सदा रहती वह

मेरे आस-पास…।

*

(५ ) पहला प्यार नहीं लौटता

पंछी उड़ते

जाते हैं दूर दिशाओं में

लौट आते हैं

आखिर शाम ढलने पर

फिर अपने

घोंसलों में

*

गाड़ियाँ जातीं

लौट आतीं

स्टेशनों पर

लंबी सीटी बजातीं

*

ऋतुएँ जातीं

फिर लौट आतीं

दिन चढ़ता

छिपता

फिर चढ़ता

*

बर्फ पिघलती

नदियों में जल बहता

समुद्रों से पानी

भाप बनकर उड़ता

बादल बनता

फिर पहाड़ों की

चोटियों पर

बर्फ बनकर चमकता

उड़ती आत्मा

अन्तरिक्ष में भटकती

फिर किसी शरीर में

प्रवेश करती

*

सब कुछ जाता

सब कुछ लौट आता

*

नहीं लौटता

इस ब्रह्मांड में

तो सिर्फ़

पहला प्यार नहीं लौटता

*

एक बार खो जाता

तो मनुष्य

जन्मों जन्म

कितने जन्म

उसके लिए

भटकता रहता…..।

*

(६) तब पूरी होगी दुनिया

मेरे बिना

अधूरी है दुनिया तेरी

*

तेरे हाथों में फूल हैं

माथे पर सूरज

तेरे सिर पर मुकुट है

तेरे पैरों के नीचे

सारी दुनिया की दौलत

तेरे चेहरे पर

चाँदनी नृत्य करती है

तेरे बालों में

सतरंगी चमकती हैं

पर तेरी आँखों में

भरे बादलों की

उदासी कहती है

कि मेरे बिना

अधूरी है दुनिया तेरी

*

पास कायनात है

भले ही मेरे भी

मेरे पोरों में थरथराते शब्द

होंठों पर महकता संगीत

मेरी भी आँखों में

कितनी धूप चमकती है

कितनी हवाएँ

चीर कर गुज़रती हैं मुझे

कितने समन्दर मेरे पैरों को

छू कर गुज़रते हैं

*

पर मेरे शब्दों से उदित होता

उदास संगीत बताता है

कि तेरे बिना

अधूरी है दुनिया मेरी

*

हम आदि-अनंत से

एक दूसरे बिना अधूरे

धरती ग्रहों-नक्षत्रों की तरह

घूमते एक दूसरे के लिए

एक होने के लिए

तरस रहे हैं

*

हम

जो अधूरे हैं

एक दूसरे बिना

*

हम मिलेंगे

तब पूरी होगी

दुनिया हमारी।

*

(७) बचपन-उम्र

स्कूल के एक कोने में

कुर्सी पर बैठा

आधी छुट्टी में

छोटे छोटे बच्चे भागते

देख रहा हूँ

*

नाचते कूदते

भागते दौड़ते

एक दूसरे को पकड़ते

फिर एक दूसरे से लड़ते

भगवान जैसे चेहरे इनके

बेफिक्र दुनियादारी से

अपनी अजब सी

दुनिया में

घूम रहे हैं

*

इनको देखकर

अचानक मैं

अपने अंदर खो जाऊं

छोटी उम्र वाले

भोले बचपन का

द्वार खटखटाऊं

*

पर मेरा बचपन

जैसे कोई काँटों वाली झाड़ी

जहां कहीं भी हाथ लगाऊं

काँटे ही काँटे

*

काँटों से

मासूम जैसे पत्ते बिंधते जाते

बचपन जैसे कोई डरावनी चीज़

डरते डरते लौट आऊं

सामने खेलते

नाचते कूदते

बच्चों को देखूं

*

पर मुझे कहीं भी

ऐसा बचपन मेरा

याद ना आए

बचपन की कोई याद मीठी

मेरे मन की तस्वीर पर

बन ना पाए

मेरा बचपन

जैसे कोई डरावनी चीज़

*

और लोग कहते हैं

कि बचपन की ये उम्रा

फिर कभी ना आए…..

*

(८) बस के सफर में

बस के सफर में

मेरे से अगली सीट पर

बैठी हुई थी एक औरत

साथ पति उसका

गोद में बच्चा खेलता

छोटा सा

ममता के साथ भरी वह औरत

उस छोटे से बच्चे को

बार-बार चूम रही थी

*

मासूम उसके चेहरे से

छुआ रही थी ठोड़ी अपनी

उसके अंदर से उभर रही थी

भरी-भरी ममता

उभर रहा था उसके अंदर से

ममता का प्यार

*

मेरे मन में

युगों-युगों से दबी हुई

जगी हसरत

मेरे मन में सदियों से सोया

आया ख़याल

काश कि इस औरत की

गोद में लेटा

छोटा सा बच्चा मैं होता

*

काश कि यह औरत

मेरी माँ होती।

कवि – डॉ. अमरजीत कौंके  

भावानुवाद –  डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

संपर्क – मकान न.-11 सैक्टर 1-A गुरू ग्यान विहार, डुगरी, लुधियाना, पंजाब – 141003 फोन नं – 9646863733 ई मेल – jaspreetkaurfalak@gmail.com

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #251 – 136 – “ज़िन्दादिली से जीता हैं ज़िंदगी को…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल ज़िन्दादिली से जीता हैं ज़िंदगी को…” ।)

? ग़ज़ल # 136 – “ज़िन्दादिली से जीता हैं ज़िंदगी को…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

जिसके माथे पर चोट का निशान है,

यह आदमी एक मुकम्मल बयान है।

*

यायावरी उसकी गुल खिलाएगी ज़रूर,

उसके कदम बिजली नज़र में जहान है।

*

यह  दूसरों जैसा शख़्स दिखता तो है,

यारों पे मगर यह दिल से मेहरबान है।

*

ज़िन्दादिली से जीता हैं ज़िंदगी को,

ज़िंदगी जी लेना उसका अरमान है।

*

पुट्ठी इकलंगा धोबीपछाड़ मारता है,

वो मिट्टी से जुड़ा देशी पहलवान है।

*

उसके पास दिमाग़ तो दूसरों जैसा है,

परंतु ज़माने के हिसाब से शैतान है।

*

वो भी फिसला कठिन डगर पर कई दफ़ा,

मगर उसकी कामयाबी अजीमुश्शान  है।

*

दिखता भले ही आतिश होशियार चतुर,

ख़ुद को  जन्म से  समझता नादान है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लेखन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – लेखन ? ?

नित जागरण,

नित रचनाकर्म,

किस आकांक्षा से

इतना सब लिखा है?

उसकी नादानी हँसा गई

उहापोह याद दिला गई,

पग-पग पर, दुनियावी

सपनों से लड़ा है,

लेखक तो बस

लिखने के लिए बना है!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 27 अगस्त से 9 दिवसीय श्रीकृष्ण साधना होगी। इस साधना में ध्यान एवं आत्म-परिष्कार भी साथ साथ चलेंगे।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है ॐ कृष्णाय नमः 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ युद्ध ☆ डॉ प्रेरणा उबाळे ☆

डॉ प्रेरणा उबाळे

☆ कविता – युद्ध ☆  डॉ प्रेरणा उबाळे 

दो खड्ग

दो मन

दो विचार

दो आचार

भयाक्रांत पुष्प

तारामंडल तमग्रस्त 

अपरिचित अपराजेय 

घटित अघटित

म्यान नियंत्रण

तोड़ समाप्त

खींच बाहर

खनक खनक….

*

खनक खनक

टूट टूट

रक्त रक्त

सिक्त आसक्त

पवित्र अपवित्र

खनक खनक …

*

छल कपट

नाश विनाश

साम दाम

दंड भेद

बाहू युद्ध

बुद्धि युद्ध

शक्ति युद्ध

भाव युद्ध

नेत्र युद्ध

मौन युद्ध

खनक खनक …

*

लहू लुहान

श्वास आह

उर मस्तिष्क

ध्वस्त विध्वस्त

युद्ध परास्त

नाद अनहद

पुकार सत्य

खड्ग अंत

खनक खनक …

*

तार छेड

तृप्त स्वर

लय सुर

ताल गति

प्रेम विशुद्ध

निरीह अबाध

*

स्व युद्ध

आत्म युद्ध

तन तर्पण

मन तर्पण

स्नेह अर्पण

अहं अर्पण 

श्री शिव

श्री सत्

श्री चरण

श्री सरन

झंकार नुपुर

अनुनाद ब्रह्म

*

नवनिर्माण

कर विहान

हो श्रेयस 

हो प्रेयस 

समस्त गगन

गूँज अनुगूँज

वर्धिष्णु 

त्रिलोचन

वर्धिष्णु 

आत्मज्ञान

■□■□■

© डॉ प्रेरणा उबाळे

23 अगस्त 2024

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत्त), शिवाजीनगर,  पुणे ०५

संपर्क – 7028525378 / preranaubale2016@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 460 ⇒ धर्मपत्नी पर व्यंग्य ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “धर्मपत्नी पर व्यंग्य।)

?अभी अभी # 460 ⇒ धर्मपत्नी पर व्यंग्य? श्री प्रदीप शर्मा ?

वैधानिक चेतावनी – पति पत्नी के बीच हँसी मजाक और नोक झोंक आम है, लेकिन पत्नी की हँसी अथवा उसका मजाक उड़ाना गलत है। अपनी धर्मपत्नी पर व्यंग्य लिखने के गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।

हंसना सेहत के लिए अच्छा है। कोई एक हास्य कवि पद्मश्री सुरेंद्र शर्मा हैं, जो खुद गंभीर होकर अपनी ही घराड़ी, यानी घर वाली की हंसी उड़ाते हैं, और श्रोताओं से दाद बटोरते हैं। काका हाथरसी ने भी अधिकतर हास्य के कारतूस काकी पर ही छोड़े हैं। इन दोनों की पत्नियों को आपने कार्टून के रूप में ही देखा होगा, कभी पत्नी के रूप में नहीं। हम इसे हास्य बोध नहीं मानते। हां, कभी एक डा.सरोजनी प्रीतम हुआ करती थी, जिनकी हंसिकाएं भी अधिकतर महिलाओं पर ही केंद्रित होती थी और पुरुषों पर कम।

व्यंग्य एक गंभीर विधा है और इसका उपयोग पति पत्नी के नाजुक संबंधों पर नहीं किया जा सकता। विसंगति पर तो व्यंग्य लिखा जा सकता है, लेकिन जो धर्मपत्नी अथवा जीवन संगिनी है, उस पर व्यंग्य लिखना, ना केवल टेढ़ी खीर है, अपितु बड़ी हिम्मत का काम है।।

जिस तरह डायन भी एक घर छोड़ देती है, हर व्यंग्यकार अपनी धर्मपत्नी को छोड़ आन गांव पर व्यंग्य लिख सकता है। उसकी व्यंग्य दृष्टि राजनीति, धर्म, भ्रष्टाचार, लाल फीताशाही और समाज और विश्व में होने वाली सभी घटनाओं पर पड़ सकती है, लेकिन उसकी पास की दृष्टि जवाब दे जाती है, जब उसकी धर्मपत्नी पास होती है।

और तो और कुछ ऐसे व्यंग्यकार जिन्होंने गृहस्थी का स्वाद ही नहीं चखा, वे भी इस मामले में फूंक फूंक कर कदम रखते हैं।

उनकी तर्क की खान और उनके व्यंग्य बाणों में इतनी ताकत कहां, जो अपनी कलम की धार किसी के घरेलू मामले की ओर भी कर दे।।

अव्वल तो पति की मात्रा ही छोटी होती है, और पत्नी की बड़ी। वजन में भी अक्सर पत्नियां, पति की तुलना में भारी ही होती है।

पति अगर हॉफ तो पत्नी बैटर हॉफ। वैसे आम तौर पर तो हास्य कवि ही मोटे देखे गए हैं, व्यंग्यकार तो बस, किसी तरह ठीकठाक ही होते हैं। अगर कहीं गलती से पत्नी दुबली और वे मोटे निकल गए, तो व्यंग्य की सुई भी पति की ओर ही घूम जाती है।

वैसे हम अगर शब्द बाण और व्यंग्य बाणों की चर्चा करें, तो पत्नी के शब्द अचूक रामबाण होते हैं, जिसके आगे कोई भी धुरंधर धनुर्धर, व्यंग्यकार, धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में अपने शस्त्र त्याग शरणागत हो जाता है। पत्नी द्वारा निष्काम व्यंग्य की गीता का श्रवण पाठ सुनने के बाद ही, पति कलम उठाता है। धर्मपत्नी पर केवल प्रेम वर्षा ही संभव है, व्यंग्य बाण के लिए पूरा जगत पड़ा है।।

धर्मपत्नी पर व्यंग्य लिखना अंगारों पर फूंक फूंक कर कदम रखने से भी अधिक जोखम भरा काम है। जब घर में चूल्हा नहीं जलता तब धर्मपत्नी अपने व्यंग्यकार पति की छपी रचनाएं जला जलाकर चाय गर्म करती है। बड़ी अलबेली होती है, व्यंग्यकार के घर की सरकार। यह एक ऐसी सरकार होती है, जो सिर्फ तारीफ और प्रशंसा के बल पर ही चलती है। यहां व्यंग्य सिर्फ चूल्हा जलाने के ही काम आता है।

कभी कभी गंगा उल्टी भी बहने लगती है, जब ऊंट पहाड़ के नीचे आता है, और घर की पत्नी ही व्यंग्य में डूबी कलम उठा लेती है। तब पतिदेव को घर गृहस्थी के सभी काम दफ्तर के काम की तरह ही करने पड़ते हैं। क्योंकि सैंया कोतवाल नहीं, यहां सजनी व्यंग्यकार जो हो जाती है। पत्नी तो रूठकर मायके जा सकती है, पति तो बेचारा सिर्फ दफ्तर ही जा सकता है।।

व्यंग्यकार की कलम और धर्मपत्नी की जुबां के बीच जब भी युद्ध हुआ है, कलम हमेशा नतमस्तक हुई है। वास्तव में कुछ ना कहने की छटपटाहट ही तो व्यंग्य को जन्म देती है। कालिदास हो अथवा तुलसीदास, सबकी महानता के पीछे उनकी पत्नी का ही तो हाथ है।

आदमी संत, सन्यासी अथवा एक अच्छा व्यंग्यकार यूं ही नहीं बन जाता। जब हर सफल व्यक्ति के पीछे एक महिला का हाथ होता है, तो क्या एक व्यंग्यकार की सफलता का श्रेय उसकी पत्नी नहीं ले सकती। पत्नी की जली कटी सुनने के बाद जो व्यंग्य में पैनापन आता है, वह देखते ही बनता है। धर्मपत्नी की तारीफ से बड़ा कोई व्यंग्य नहीं। जो व्यंग्यकार अपनी बीवी से करे प्यार, वह उसकी तारीफ से कब करे इंकार।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 128 ☆ ।। मां शारदे की वंदना ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 128 ☆

।। मां शारदे की वंदना ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

हे मां शारदे है प्रार्थना विनम्र हम सब को ज्ञान दे।

हे वीणा वादिनी जीवन में क्या अच्छा बुरा संज्ञान दे।।

*****

विद्या की देवी  हर समस्या   के लिए ज्ञान विज्ञान दे।

हे मां सरस्वती कैसे हो यह भवसागर पार वो भान दे।।

कैसे बने सरल जीवन की कठिन राह वो अनुमान दे।

हे मां शारदे है प्रार्थना विनम्र हम सब को ज्ञान दे।

***

हे मां बागेश्वरी रहें विद्या विद्यार्थी मत हमें अभिमान दे।

कैसे करें हम सदा   रक्षा राष्ट्र की  वह स्वाभिमान   दे।।

कैसे रहें तन मन से शुद्ध मां वीणापाणी हमें वह ध्यान दे।

हे मां शारदे है प्रार्थना विनम्र हम सब को ज्ञान दे।।

*****

हे हंसवाहिनी विद्यादायनी भीतर मानवता का संचार कर।

श्वेत कमल विराजनी धैर्य बुद्धि विवेक का उपचार कर।।

मां भारती महाश्वेता देवी  उत्तम वर्तमान का वरदान दे।

हे मां शारदे है प्रार्थना विनम्र हम सब को ज्ञान दे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 192 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत – आदमी भगवान है… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण गीत  – “आदमी भगवान है…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 192 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत आदमी भगवान है ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

जानता तो है कि वह दो दिनों का मेहमान है

पर सँजो रक्खा है कई सौ साल का सामान है।

जरूरत से ज्यादा रखता और कोई दिखता नहीं

आदमी सा भी कहीं दुनियाँ में कोई नादान है !।। १ ।।

*

आदमी को अपने उपर जो बड़ा अभिमान है

व्यर्थ उसका दम्भ झूठा ज्ञान औ’ विज्ञान है ।

खुद तो डरता, दूसरों की मौत से पर खेलता ।

आने वाले पल का तक उसको नहीं अनुमान है ।। २ ।।

*

हर घड़ी जिसके कि मन में स्वार्थ का तूफान है

नष्ट करने औरों को जिसने रचा सामान है

प्रेम से अपनों के पर जो साथ रह सकता नहीं

वह ज्ञान का धनवान है इंसान या शैतान है ? ।। ३ ।।

*

काम करना कठिन है कहना बहुत आसान है

प्रेम से उंचा न कोई धर्म है न ज्ञान है।

आदमी को इससे हिलमिल सबसे रहना चाहिये

सबको खुश रख खुश रहे तो आदमी भगवान है ।। ४ ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ काही नेम नाही… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

श्री शरद कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ काही नेम नाही … ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

काही नेम नाही,

फसव्या मृगाचा.

फसवा पाऊस,

फसव्या ढगांचा.

*

कधी कृष्णमेघ,

कधी स्वच्छ हे आभाळ.

जरी चार थेंब,

तरी पाऊस सांभाळ.

*

तुझे माझे आता,

आकाश वेगळे.

वेगळा पाऊस,

वेगळे सोहळे.

*

नको करू आता,

नवी मांडवली.

लखलाभ तुला,

तुझी भातुकली.

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ टपोरी व्हायाचं… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

?  कवितेचा उत्सव ?

☆ टपोरी व्हायाचं… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

शालीन कुलीन सोड पोरी, आता तू ही टपोरी व्हायाचं

चार – पाच टपोर्‍या पोरी घेऊन झुंडीनं र्‍हायाचं ॥

*

सगळीकडे महिलांसाठी आहेच ना आरक्षण

तरी पण त्यांना सांग कुठे असते गं संरक्षण

आता तुझ्यावर अन्याय करणार्‍याला उभं तू जाळायचं

शालीन कुलीन सोड पोरी, आता तू ही टपोरी व्हायाचं ॥

*

रहा तू बिनधास्त जगात हातात अस्त्र बाळगून

महिषासूर मर्दिनी, काली पहा जरा निरखून

शिरजोर होऊ लागताचं कोणी त्याला आडवं चिरायचं 

शालीन कुलीन सोड पोरी, आता तू ही टपोरी व्हायाचं ॥

*

अन्याय करणार्‍यांना कठोर शासन होत नाही

न्यायदेवता आहे आंधळी – पांगळी

तू का नाही याचा फायदा घेत?

काढ राक्षसांच्या कोथळी

काळकोठडीत गेलीस तरी अब्रूनच रहायचं

शालीन कुलीन सोड पोरी, आता तू ही टपोरी व्हायाचं ॥

*

एक एका राक्षसाला तूच आता गाठ

झुंडीनं हल्ला चढव दाखव स्मशान घाट

कालिकेचं रूप तुझं नराधमांना दावायचं

शालीन कुलीन सोड पोरी, आता तू ही टपोरी व्हायाचं ॥

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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