डॉ जसप्रीत कौर फ़लक
☆ कविता ☆ श्री अमरजीत कौंके की आठ मूल पंजाबी कविताएँ ☆ भावानुवाद – डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆
डॉ. अमरजीत कौंके
(डॉ.अमरजीत कौंके पंजाबी साहित्य के आकाश पर ध्रुव तारे की तरह चमकता हुआ नाम है जिसकी रोशनी में पंजाबी साहित्य मालामाल हुआ है। उनकी रचनाएँ प्रेम के सरोकारों को नए दृष्टिकोण से परिभाषित करती हैं। उनकी कविता की विशेषता है कि यह पाठक से बड़ी ख़ामोशी से हम – कलाम होते हुए उस की रूह में उतर जाती है ।पंजाबी भाषा में उनका विशेष पाठक वर्ग है।उनकी इन चुनिंदा पंजाबी कविताओं का अनुवाद हिंदी पाठकों को भी अनुभूति करेगा। उनके पास लेखन प्रक्रिया का जो अनुभव है उनकी रचनाओं में वो स्पष्ट देखा जा सकता है। साहित्य समाज का दर्पण होता है उनकी कविताएँ भी इस यथार्थ को सार्थक करती हैं- यह भावपूर्ण रचनायें संकलन में संकलित कर के गौरवान्वित हूँ।)
मूल पंजाबी कविता- डॉ. अमरजीत कौंके
अनुवादक- डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक
(१) कविता की ऋतु
जब भी कविता की ऋतु आई
तेरी यादों के कितने मौसम
अपने साथ लाई
*
मैं कविता नहीं
जैसे तुझे ही लिखता हूँ
मेरे पोरों
मेरे नैनों
मेरे लहू में
तेरा अजब-सा नशा चढ़ता है
अजीब सा ख़याल
हैरान करने वाला
पता नहीं कहाँ से हो फूटता है
*
तू अचानक से मेरे पास आप बैठती
तेरी नज़र
मेरी कविता का एक-एक शब्द
किसी पारखू की तरह
टनका के देखती
मेरी आँखों में
तेरा मुस्कुराता चेहरा आता
मेरे पास शब्दों की
बारिश करता
और मैं किसी बच्चे की तरह
शब्दों को उठा-उठा कर
पंक्ति में सजाता
*
कहीं भी हो चाहे
कितने ही दूर
असीम अनंत दूरी पर
*
परन्तु कविता की ऋतु में
तू सदैव
मेरे पास-पास होती।
*
(२) कैसे आऊँ
मेरी चेतना
हज़ार टुकड़ों में बँटी पड़ी हैं
मेरी स्मृतियों में
अतीत के कितने ग्रह
उपग्रह के
टुकड़े तैर रहे हैं
मेरे अन्दर
कितने जन्मों की धूल उड़ती
मेरे जंगलों में
कितनी डराती, आकर्षित करतीं
आवाज़े तैरती
मेरे समुन्दर में कितने ज्वार-भाटे
खौलते पानियों का संगीत
*
मैं चाहता हुआ भी
इन्हीं आवाज़ों
शोर संगीत बवण्डरों से
मुक्त नहीं हो सकता मैं
अपनी यादों की तख़्ती तो
कितनी लकीरों
कटी-बँटी शक्लें
*
मैं जानता हूँ
पर मेरी दोस्त!
मैं बचपन की कच्ची उम्र से
हज़ार टुकड़ों में बँटा
बिखरा
स्वयं ब्रहमण्ड में बिखरे
अपने टुकड़े
चुनने की कोशिश कर रहा हूँ
*
मैं पूरे का पूरा
तेरा
सिर्फ़ तेरा बन के
तेरे पास कैसे आऊँ…?
*
(३) मीलों तक अंधेरा
मैं जिस रोशनी में बैठा हूँ
मुझे यह रोशनी
मेरी नहीं लगती
इस बनावटी जैसी चाँदनी की
कोई भी किरण
पता नहीं क्यों
मेरी रूह में
नहीं जगती
*
जगमग करता
आँखों को चकाचौंध करता
यह जो चहु-ओर फैला प्रकाश है
अंदर झाँक के देखूं
तो मीलों तक अंधेरा है
कभी जब सोचता हूँ बैठ कर
तो महसूस यूँ होता
कि असल में
अंतर्मन तक फैला
अंधेरा ही मेरा है
*
मेरे अंदर
अंधेरे में
मुझे सुनता
अक्सर होता विरलाप जैसा
मेरे सपनों को लिपटा
जो संताप जैसा
यह प्रकाश को बना देता
मेरे लिए एक पाप जैसा
*
यह जगमगाती रोशनी
यह जो चहु-ओर प्रकाश है
अंदर झाँक के देखूं
तो मीलों तक अंधेरा है…।
*
(४) उदासी
छू कर नहीं देखा
उसे कभी
पर सदा रहती वह
मेरे नज़दीक – नज़दीक
उसकी परछाईं
*
सदा दिखती रहती मुझे
आस-पास
जब भी
मैं अपने गिर्द कसा हुआ वस्त्र
थोड़ा ढीला करता
अपना पत्थर सा शरीर
थोड़ा सा नरम करता
*
वह अदृश्य सी
मेरे जिस्म में प्रवेश करती
मुझे कहती-
क्यों रहता है दूर मुझ से
क्यों भागता है डर के
मैं तो आदि-काल से तेरे साथ हूँ
मैं तो हमेशा तेरे साथ रहूँगी
वह मेरे जिस्म में फैलती
चलने लगती मेरे अंदर
*
मेरे भीतर
सोई हुई सुरों को जगाती
अतीत की धूल उठाती
मुझे अजीब संसार में
ले जाती
*
जहाँ से कितने-कितने दिन
लौटने के लिए
कोई राह न पाता
मैं फिर लौटता आख़िर
वर्तमान के
भूल-भुलैया में खोता
पर उसकी परछाईं
सदा दिखती रहती मुझे
क़रीब-क़रीब
सदा रहती वह
मेरे आस-पास…।
*
(५ ) पहला प्यार नहीं लौटता
पंछी उड़ते
जाते हैं दूर दिशाओं में
लौट आते हैं
आखिर शाम ढलने पर
फिर अपने
घोंसलों में
*
गाड़ियाँ जातीं
लौट आतीं
स्टेशनों पर
लंबी सीटी बजातीं
*
ऋतुएँ जातीं
फिर लौट आतीं
दिन चढ़ता
छिपता
फिर चढ़ता
*
बर्फ पिघलती
नदियों में जल बहता
समुद्रों से पानी
भाप बनकर उड़ता
बादल बनता
फिर पहाड़ों की
चोटियों पर
बर्फ बनकर चमकता
उड़ती आत्मा
अन्तरिक्ष में भटकती
फिर किसी शरीर में
प्रवेश करती
*
सब कुछ जाता
सब कुछ लौट आता
*
नहीं लौटता
इस ब्रह्मांड में
तो सिर्फ़
पहला प्यार नहीं लौटता
*
एक बार खो जाता
तो मनुष्य
जन्मों जन्म
कितने जन्म
उसके लिए
भटकता रहता…..।
*
(६) तब पूरी होगी दुनिया
मेरे बिना
अधूरी है दुनिया तेरी
*
तेरे हाथों में फूल हैं
माथे पर सूरज
तेरे सिर पर मुकुट है
तेरे पैरों के नीचे
सारी दुनिया की दौलत
तेरे चेहरे पर
चाँदनी नृत्य करती है
तेरे बालों में
सतरंगी चमकती हैं
पर तेरी आँखों में
भरे बादलों की
उदासी कहती है
कि मेरे बिना
अधूरी है दुनिया तेरी
*
पास कायनात है
भले ही मेरे भी
मेरे पोरों में थरथराते शब्द
होंठों पर महकता संगीत
मेरी भी आँखों में
कितनी धूप चमकती है
कितनी हवाएँ
चीर कर गुज़रती हैं मुझे
कितने समन्दर मेरे पैरों को
छू कर गुज़रते हैं
*
पर मेरे शब्दों से उदित होता
उदास संगीत बताता है
कि तेरे बिना
अधूरी है दुनिया मेरी
*
हम आदि-अनंत से
एक दूसरे बिना अधूरे
धरती ग्रहों-नक्षत्रों की तरह
घूमते एक दूसरे के लिए
एक होने के लिए
तरस रहे हैं
*
हम
जो अधूरे हैं
एक दूसरे बिना
*
हम मिलेंगे
तब पूरी होगी
दुनिया हमारी।
*
(७) बचपन-उम्र
स्कूल के एक कोने में
कुर्सी पर बैठा
आधी छुट्टी में
छोटे छोटे बच्चे भागते
देख रहा हूँ
*
नाचते कूदते
भागते दौड़ते
एक दूसरे को पकड़ते
फिर एक दूसरे से लड़ते
भगवान जैसे चेहरे इनके
बेफिक्र दुनियादारी से
अपनी अजब सी
दुनिया में
घूम रहे हैं
*
इनको देखकर
अचानक मैं
अपने अंदर खो जाऊं
छोटी उम्र वाले
भोले बचपन का
द्वार खटखटाऊं
*
पर मेरा बचपन
जैसे कोई काँटों वाली झाड़ी
जहां कहीं भी हाथ लगाऊं
काँटे ही काँटे
*
काँटों से
मासूम जैसे पत्ते बिंधते जाते
बचपन जैसे कोई डरावनी चीज़
डरते डरते लौट आऊं
सामने खेलते
नाचते कूदते
बच्चों को देखूं
*
पर मुझे कहीं भी
ऐसा बचपन मेरा
याद ना आए
बचपन की कोई याद मीठी
मेरे मन की तस्वीर पर
बन ना पाए
मेरा बचपन
जैसे कोई डरावनी चीज़
*
और लोग कहते हैं
कि बचपन की ये उम्रा
फिर कभी ना आए…..
*
(८) बस के सफर में
बस के सफर में
मेरे से अगली सीट पर
बैठी हुई थी एक औरत
साथ पति उसका
गोद में बच्चा खेलता
छोटा सा
ममता के साथ भरी वह औरत
उस छोटे से बच्चे को
बार-बार चूम रही थी
*
मासूम उसके चेहरे से
छुआ रही थी ठोड़ी अपनी
उसके अंदर से उभर रही थी
भरी-भरी ममता
उभर रहा था उसके अंदर से
ममता का प्यार
*
मेरे मन में
युगों-युगों से दबी हुई
जगी हसरत
मेरे मन में सदियों से सोया
आया ख़याल
काश कि इस औरत की
गोद में लेटा
छोटा सा बच्चा मैं होता
*
काश कि यह औरत
मेरी माँ होती।
☆
कवि – डॉ. अमरजीत कौंके
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