(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #240 ☆
☆ बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “भोर का संदेश…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 64 ☆ भोर का संदेश… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – वादा
अपनी समस्याएँ लिए प्रतीक्षा करता रहा वह। उससे समाधान का वादा किया गया था। व्यवस्था में वादा अधिकांशतः वादा ही रह जाता है। अबकी बार उसने पहले के बजाय दूसरे के वादे पर भरोसा किया। प्रतीक्षा बनी रही। तीसरे, चौथे, पाँचवें, किसीका भी वादा अपवाद नहीं बना। वह प्रतीक्षा करता रहा, समस्या का कद बढ़ता गया।
आज उसने अपने आपसे वादा किया और खड़ा हो गया समस्या के सामने सीना तानकर।…समस्या हक्की-बक्की रह गई।..चित्र पलट गया। उसका कद निरंतर बढ़ता गया, समस्या लगातार बौनी होती गई।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “लोग नेक कहते हैं…“)
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)
We present his awesome poem ~ Let’s walk together… ~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “छाता और बरसात…“।)
अभी अभी # 432 ⇒ छाता और बरसात… श्री प्रदीप शर्मा
उधर आसमान को पता ही नहीं कि सावन आ गया है, लोग बेसब्री से बारिश का इंतजार कर रहे हैं और इधर एक हम हैं जो पंखे के नीचे बैठकर छाते की बात कर रहे हैं। याद आते हैं वे बरसात के दिन, जब उधर आसमान से रहमत बरसती थी और इधर हम बंदूक की जगह छाता तानकर उसका सामना करते थे। आज हमने सीख लिया, जब रहमत बरसे, तो कभी छाता मत तानो, बस रहमत की बारिशों में भीग जाओ।
जब हमारा सीना भी छप्पन सेंटीमीटर था, तब हम भी बरसती बारिश में सीना तानकर सड़क पर निकल जाते थे, क्योंकि तब घर में कोई नहीं था, जो हमारे लिए बिनती करता, नदी नारे ना जाओ श्याम पैंया पड़ूं। तबीयत से भीगकर आते थे, मां अथवा बहन टॉवेल लेकर हमारा इंतजार करती थी, कपड़े बदलो, और गर्मागर्म दूध पी लो।।
तब कहां आज की तरह सड़कों पर इतनी कारें और दुपहिया वाहन थे। इंसान बड़ी दूरी के लिए साइकिल और कम दूरी के लिए ग्यारह नंबर की बस से ही काम चला लेता था। शायद ही कोई ऐसा घर हो, जिसमें तब छाता ना हो। खूंटी पर टोपी, कुर्ते के साथ आम तौर पर एक छाता भी नजर आता था, काले रंग का। जी हां हमने तो पहले पहल काले रंग का ही छाता देखा था।
एक छाते में दो आसानी से समा जाते थे, और साथ में आगे छोटा बच्चा भी। उधर बच्चा बड़ा हुआ, उसके लिए भी एक बेबी अंब्रेला, यानी छोटा छाता।
अपने छाते से बारिश का सामना करना, तब हमारे लिए बच्चों का ही तो खेल था।
छाता भी क्या चीज है, खुलते ही छा जाता है, हमारे और बरसात के बीच, और छाते से छतरी बन जाता है। एक थे गिरधारी, जिन्होंने अपनी उंगली पर इंद्रदेव को नचा दिया था, छाते की जगह पर्वत ही उठा लिया था।
कलयुग में गलियन में गिरधारी ना सही, छाताधारी ही सही।।
समय के साथ, साइकिल की तरह छाते भी लेडीज और जेंट्स होने लग गए।
रंगबिरंगे फैशनेबल छाते, जापानी गुड़िया और मैं हूं पेरिस की हसीना ब्रांड छाते। हमें अच्छी तरह याद है, छातों में ताड़ी होती थी, जिससे बटन दबाते ही छाता तन जाता था और काले मोट कपड़े पर शायद धन्टास्क लिखा रहता था।
छाता कभी आम आदमी का उपयोग साधन था। कामकाजी संभ्रांत पुरुष डकबैक की बरसाती, हेट और गमबूट पहना करते थे, जेम्स बॉन्ड टाइप। कामकाजी महिलाओं के लिए भी लेडीज रेनकोट उपलब्ध होते थे। हर स्कूल जाने वाले बच्चे के पास बारिश के दिनों में बरसाती भी होती थी।।
समाज में एक तबका ऐसा भी है, जो पन्नी(पॉलिथीन) ओढ़कर ही बारिश का सामना कर लेता है। हमने कई बूढ़ी औरतों को गेहूं की खाली बोरी ओढ़कर जाते देखा है।
आज भी छाते की उपयोगिता कम नहीं हुई है। जो पैदल चलते हैं, उनकी यह जरूरत है। जो कार में चलते हैं, उन्हें भी बरसते पानी में, कार में बैठते वक्त और उतरते वक्त छाते का सहारा लेना ही पड़ता है।।
क्या विडंबना है, नीली छतरी वाले और हमारे बीच भी एक छतरी। रहमत बरसा, लेकिन छप्पर तो मत फाड़। कुंए, नदी, तालाब, पोखर, लबालब भरे रहें, लेकिन हमारे सब्र के बांध की परीक्षा तो मत ले। अब तो हमें तेरी तारीफ के लिए बांधे पुलों पर भी भरोसा नहीं रहा, बहुत झूठी तारीफ की हमने तेरी अपने स्वार्थ और खुदगर्जी की खातिर। हमें माफ कर।।
छाते का एक मनोविज्ञान है, एक छाते में दो प्रेमी बड़ी आसानी से समा जाते हैं।
प्रेम भाई बहन का भी हो सकता है और पति पत्नी का भी। साथ में भीगना भी, और भीगने से बचना भी, तब ही तो प्रेम छाता है। किसी अनजान व्यक्ति को भीगते देख उसे अपनी छतरी में जगह भी वही देगा, जिसके दिल में जगह होगी। हर इंसान तो नेमप्लेट लगाकर नहीं घूम सकता न ;
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – ताक झांक।)
माँ अच्छा हुआ जो मैं आपके साथ तीर्थ में जगन्नाथ पुरी आई।
बहुत कुछ देखने और सीखने को मिल रहा है। देखो माँ जो हमारे साथ ट्रेन में महिला थी उसे सब लोग सहयात्री कैसे बुरा भला बोल रहे हैं। देखो जरा इसे, अपने अंधे पति को लेकर आई है क्या जरूरत है इसको…।
माँ ये लोग मंदिर की लाइन में दर्शन के लिए खड़े हैं लेकिन बुराई कर रहे हैं।
माँ ! उस महिला के पास चलते हैं।
उसे देखकर बहुत हिम्मत मिलती है ।
आप यहां खड़े रहो मैं उसे अपने साथ यहां पर बुला लेती हूँ।
नमस्कार पहचाना हम आपके सामने वाली सीट पर बैठे ट्रेन में बैठे थे।
हां पहचाना।
देखो न लोग कैसे कह रहे हैं?
मेरे पति की पहले आंखें थी धीरे-धीरे आंखों में कुछ रोग हो गया और उनकी दृष्टि चली गई मेरी नजर से वह दुनिया देखते हैं। वे देख नहीं सकते पर महसूस तो सब कुछ करते हैं।
बच्चे तो सब बाहर चले गए हैं लेकिन नौकरी कर रही थी। दोनों बच्चे खुश हैं। नाम के लिए दो बेटे हैं।
हम उनके लिए भर हैं। हम उनके लिए बोझ हैं ।
मैं गवर्नमेंट स्कूल में टीचर थी। अब रिटायर हो गई हूं घर में बैठकर अकेले क्या करूंगी?
हम दोनों तीर्थ यात्रा पर निकले है। क्या मुझे जीने का हक नहीं ?
रीमा ने धीरे से कहा-
बिल्कुल है आंटी।
चलिये आंटी आप मां के और मेरे साथ वहां पर खड़े हो जाइए तो हम चारों एक साथ रहेंगे।
काश! एक बिटिया होती दो बेटे नहीं..,
और वह रोने लगते हैं।
आंटी मेरे भी पिताजी नहीं है।
मां ने मुझे मुश्किल से पाला है मैं उनके साथ रहती हूं।
अब मैं छुट्टी में उनके साथ घूमती फिरती रहती हूं।
जीवन है तो क्यों ना हम हॅंस कर जिये।
बेटा तुमने बहुत अच्छी बात कही चलो अब हमारी यात्रा और अच्छी हो जाएगी हम लोग भगवान के दर्शन करते।
बहन जी आपकी बेटी बहुत प्यारी है।
लेकिन लगता है आजकल की दुनिया में लोगों के पास बहुत समय है, दूसरों की जिंदगी में ताक-झांक करने का…।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी।)
☆ कथा-कहानी # 112 – जीवन यात्रा : 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
मां और पिता के 100% सुरक्षाकवर शिशु वत्स की यात्रा को आगे बढ़ने से नहीं थाम सकते क्योंकि जीवन सिर्फ संरक्षित होकर आगे बढ़ते जाने का नाम नहीं है,ये तो विधाता की योजनाबद्ध प्रक्रिया है जिसमें उसका अगला पड़ाव होता है भिन्नता,सामंजस्य, उत्सुकता,अपने जैसा कोई और भी होने का अहसास.शिशु के व्यक्तित्व के अंकुरित होने की अवस्था. और ये इसलिये आ पाती है कि अब प्रविष्ट होते हैं भाई और बहन, बहुत थोड़े से आयु में बड़े और साथ ही पेट्स भी. ये कहलाते हैं हमजोली जो अपने साथ लाते हैं खिलंदड़पन. अब सिर्फ खिलौने से काम नहीं चलने वाला बल्कि साथ खेलने वाला भी अपनी ओर खींचता है और ये काम तीनों ही बहुत सहजता और सरलता से करते हैं. पेट्स भी समझ जाते हैं कि ये हमारे जैसा ही है, हमारा मालिक नहीं बल्कि हमजोली है जिसका रोल न तो सिखाने का है न ही अनुशासित करने का बल्कि ये तो खेल खेल में अनजाने में वह सिखा जाने वाला है जो प्रतिस्पर्धा के साथ जीतने का गर्व या हारने पर फिर जीतने की कोशिश करना सिखाता है और खास बात भी यही है कि यहां जीत घमंडमुक्त और हार निराशा मुक्त होती है. हर खेल का प्रारंभ हंसने से और अंत भी हंसने से ही होता है. पेट्स भी खेल के आनंदरस में बाल खींचने या कान उमेठने की पीड़ा उसी तरह भूल जाते हैं जैसे जन्म देने की खुशी में प्रसवपीड़ा.
यही बचपन है, यही बालपन है और यही संपूर्ण रामायण का बालकांड भी.