हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारीके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆

☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

देश के स्वतंत्रता संग्राम में महाकौशल क्षेत्र का विशेष महत्व रहा है जिसमें अंग्रेज सरकार की रीति – नीति विरोधी उग्र जनसभाओं, प्रदर्शनों के साथ – साथ सम्पूर्ण क्षेत्र में देशभक्ति की वैचारिक लहर का प्रवाह निरंतर बनाए रखने में जबलपुर का योगदान अभूतपूर्व था। जबलपुर के उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में जिन्होंने मैदानी आंदोलनों के साथ ही अपने देशभक्ति पूर्ण साहित्य सृजन से आम आदमी को आंदोलन से जोड़ने का काम किया उनमें सेठ गोविन्द दास एवं सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ ही पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी का नाम प्रमुखता से शामिल है जिन्हें लोग सम्मान से “गोविंदगुरु” कहते थे। एक गीत में उनके तेवर देखिए –

“नवयुग की वह क्रांति चाहिए !

जो साम्राज्यों पर मानव की विजय गुंजाए।

उनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं था। वे अपनी किशोरावस्था में ही अपने देश को गुलाम बनाने वाली सत्ता के खिलाफ खड़े हो गए थे। उनके आत्म कथ्य के अनुसार –

जब मैं कक्षा आठवीं का छात्र था तभी स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा लेकर उसकी क्रांतिकारी गतिविधियों की एक किशोर इकाई बन गया था। मैंने मई सन 1931 में सिहोरा जाकर सर्वप्रथम सत्याग्रह में भाग लिया। अध्यक्ष थे एड. पं. लल्लू लाल मिश्रा। मैंने और मेरे मित्र जबलपुर के श्री हरगोविंद व्यास ने “भारत में अंग्रेजी राज्य” जप्तशुदा साहित्य पढ़कर ब्रिटिश हुकूमत का कानून तोड़ा। पं. मिश्रा उसी रात गिरफ्तार करके जबलपुर जेल भेज दिए गए और कम उम्र होने के कारण हम दोनों मित्रों को थाने ले जाकर बेतों से पीटा गया और हिरन नदी के उस पार जबलपुर रोड पर छोड़ दिया गया।

पं. गोविंदगुरु के कथन अनुसार – “मैं उन दिनों की बहुचर्चित एवं लोकप्रिय “राष्ट्रीय बालचर संस्था”, “नेशनल ब्वायज स्काउट्स” का एक संस्थापक सदस्य रहा हूं। हरिजन आंदोलन में गांधी जी के मध्यप्रदेश दौरे के समय मैंने जबलपुर और फिर करेली जाकर बालचर के रूप में सेवाएं दी हैं तथा त्रिपुरी कांग्रेस के समय भी मैं एक स्वयं सेवक के रूप में सेवारत रहा हूं। व्यक्तिगत सत्याग्रह के समय मुझे अप्रैल 1941 में दो माह का सश्रम कारावास दिया गया और मैं नागपुर जेल भेज दिया गया।”

भारत छोड़ो आंदोलन में 9 अगस्त 1942 को पं. गोविंद प्रसाद तिवारी के सभी वरिष्ठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी साथी गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए थे और नगर में स्वतंत्रता संग्राम के संचालन का भार उनके कंधों पर आ गया जिसे उन्होंने वीरांगना सुभद्रा कुमारी चौहान के मार्गदर्शन में संचालित किया। 12 अगस्त को सुबह सुभद्रा जी गिरफ्तार कर ली गईं और आधी रात को पं. गोविंदगुरु को भी गिरफ्तार कर जबलपुर जेल भेज दिया गया जहां उन्हें डेढ़ वर्ष तक कारावास की सजा भोगना पड़ी।

जेल से वापस आने के बाद उन्होंने एक निजी शाला में शिक्षक के रूप में कार्य प्रारम्भ कर दिया और स्वतंत्रता के बाद अपना पूरा जीवन शिक्षा, साहित्य और समाज को समर्पित कर दिया। वे देश की प्रगित के लिए जितना आवश्यक नव – निर्माणों को मानते थे उतना ही आवश्यक नागरिकों के आर्थिक उन्नयन और व्यक्तित्व के विकास को भी मानते थे।

उल्लेखनीय है कि 1960 में जब आचार्य विनोबा जी का जबलपुर में आगमन होना तय हुआ और उनके रहने संबंधी व्यवस्था पर विचार – विमर्श हुआ तब गोविंदगुरु ने उन्हें राइट टाउन मैदान में घास और बांस की कुटी बनाकर उसमें ठहराने का प्रस्ताव रखा जिसे सर्वमान्य किया गया और विनोबा जी व उनके दो सचिवों के लिए तिवारी जी के नेतृत्व में सुंदर कुटियों और एक उद्यान का निर्माण कराया गया। अपनी इस आवास व्यवस्था को देख कर विनोबा जी प्रफुल्लित हो उठे। उन्होंने इसकी तुलना पंचवटी में सीता – राम की पर्ण कुटी से की। इसी प्रवास में विनोबा जी ने जबलपुर को “संस्कारधानी” कहा।

गोविंदगुरु जिस शाला में शिक्षक थे उसके उद्यान में उन्होंने 20×20 फुट के क्षेत्र में सीमेंट से बना भारत का नक्शा कुछ इस तरह बनवाया जिसमें सारे प्रमुख पर्वत, नदियां और झीलें बनी थीं। उत्तर दिशा में पानी छोड़ने की व्यवस्था थी जहां से नदियों के उद्गम स्थल तक सुराख थे, जब पानी छोड़ा जाता सभी नदियां प्रवाहित होने लगातीं, झीलें भर जातीं। नक्शा देखने मात्र से विद्यार्थियों को भारत की भौगोलिक स्थिति का ज्ञान हो जाता। उन्होंने अपने विद्यार्थियों को जीवन में कर्म और सादगी का महत्व बताया।

उनके द्वारा रचित प्रकाशित कृतियों में प्रमुख हैं – गांधी गीत (गीत संग्रह), तरुणाई के बोल, अभियान गीत, विश्व शांति के साम गान, भावांजलि (सभी काव्य संग्रह), वीरांगना दुर्गावती (खंड काव्य), रक्ताभ भोर (किशोर काव्य संग्रह) एवम सीमा के प्रहरी।

सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई उनके विषय में कहते हैं – “स्व. गोविंद प्रसाद तिवारी जिन्हें हम “गोविंदगुरु” कहते थे हमारी साहित्यिक पीढ़ी के अग्रज थे। मुझ जैसे रचनाकारों को उनका स्नेह और प्रोत्साहन प्राप्त था। वे निश्छल और भावुक व्यक्ति थे।”

ख्यातिलब्ध कवि रामेश्वर शुक्ल “अंचल” कहते हैं – “हम लोगों के “गोविंदगुरु” कवि और मनुष्य दोनों रूपों में श्रेष्ठ और प्यार की वस्तु हैं। कवि का ओज और माधुर्य दोनों गुणों पर उनका समान अधिकार है।

“गीतांजलि” के अनुगायक पद्मभूषण पं. भवानी प्रसाद तिवारी उनकी कविताओं पर अपना अभिमत देते हुए कहते हैं – “कवि के मन में जिस क्रांति की पदचाप मुखरित हो चुकी है वह साम्राज्यवाद के ध्वंस के लिए गति ग्रहण करती है।

समाज में व्याप्त भूख, गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, शोषण, हिंसा, सांप्रदायिकता आदि को देखकर वे न सिर्फ तड़प उठते थे वरन उसका पूरी शक्ति से विरोध करते हुए समाधान भी सुझाते थे। मेरे पिताश्री स्व. डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव “गोविंदगुरु” के प्रिय साहित्यिक मित्रों में शामिल थे। मैं उन्हें चाचा कहता था, मेरा सौभाग्य है कि मुझे इतने सहज, सरल, विद्वान देश भक्त का पितृ तुल्य स्नेह और आशीर्वाद मिला। उन्हें सादर श्रद्धांजलि।

श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Weekly Column ☆ Witful Warmth#6 – The Drama of Exit Polls ☆ Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’ ☆

Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Dr. Suresh Kumar Mishra, known for his wit and wisdom, is a prolific writer, renowned satirist, children’s literature author, and poet. He has undertaken the monumental task of writing, editing, and coordinating a total of 55 books for the Telangana government at the primary school, college, and university levels. His editorial endeavors also include online editions of works by Acharya Ramchandra Shukla.

As a celebrated satirist, Dr. Suresh Kumar Mishra has carved a niche for himself, with over eight million viewers, readers, and listeners tuning in to his literary musings on the demise of a teacher on the Sahitya AajTak channel. His contributions have earned him prestigious accolades such as the Telangana Hindi Academy’s Shreshtha Navyuva Rachnakaar Samman in 2021, presented by the honorable Chief Minister of Telangana, Mr. Chandrashekhar Rao. He has also been honored with the Vyangya Yatra Ravindranath Tyagi Stairway Award and the Sahitya Srijan Samman, alongside recognition from Prime Minister Narendra Modi and various other esteemed institutions.

Dr. Suresh Kumar Mishra’s journey is not merely one of literary accomplishments but also a testament to his unwavering dedication, creativity, and profound impact on society. His story inspires us to strive for excellence, to use our talents for the betterment of others, and to leave an indelible mark on the world. Today we present his satire Isolation Station: Life in a Village the World Forgot

☆ Witful Warmth # 6 ☆

☆ Satire ☆ The Drama of Exit Polls ☆ Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

As the dust settles on yet another election season in India, it is time for the country to reflect on the absurdity that is exit polls. These so-called surveys have become a staple in the Indian political landscape, with news channels and media outlets eagerly awaiting the results to predict the outcome of the elections. But are these exit polls really as accurate as they claim to be, or are they just a big, fat joke that we all fall for every time?

Exit polls in India are like that one friend who always promises to come to your party but never shows up. They claim to have all the answers, to know exactly how many seats each party will win, and to have the pulse of the nation at their fingertips. But when the actual results come out, they are often left red-faced and looking like a bunch of clowns who couldn’t predict the weather, let alone the outcome of an election.

The funny thing about exit polls is that they are based on a sample size of just a few thousand people. That’s right, a few thousand people out of a population of over a billion are supposed to represent the entire country’s voting behaviour. It is like asking a few cows in a field what they think of the stock market and then claiming to have the inside scoop on the next big investment opportunity.

But wait, it gets even better. These exit polls are often conducted by news channels and media outlets that have a vested interest in the outcome of the elections. So, it is as if the fox is guarding the henhouse, with the results of the exit polls conveniently aligning with the agendas of the channels that are conducting them. It is like asking a used car salesman to give you an unbiased opinion on which car to buy – you are going to end up with a lemon every time.

And let’s not forget the time and effort that goes into analyzing and dissecting these exit polls. Political pundits come out of the woodwork to pontificate on what the results mean, who will win, who will lose, and why the country is on the brink of either utopia or dystopia based on a handful of survey responses. It is like playing a game of Russian roulette with the fate of the nation, except instead of a gun, you have a bunch of talking heads spouting nonsense on TV.

© Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Contact : Mo. +91 73 8657 8657, Email : [email protected]

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 380 ⇒ दिनदहाड़े… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दिनदहाड़े।)

?अभी अभी # 380 ⇒ दिनदहाड़े? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सुनने में यह शब्द अजीब भले ही लगे, लेकिन इसका मतलब सब जानते हैं। अक्सर दोपहर और शाम के स्थानीय समाचार पत्रों में ऐसी खबरें अधिक प्रकाशित होती हैं। ये खबरें सनसनीखेज होती हैं, जिनमें दिनदहाड़े लूट, हत्या, डाका और नकबजनी जैसी आपराधिक घटनाएं शामिल होती हैं।

ईश्वर ने रात सोने के लिए बनाई हैं, फिर भी आसुरी शक्तियां रात को ही उत्पात करती हैं, लेकिन जब ये शक्तियां दिन में भी अपनी काली करतूतों से बाज नहीं आती, तो प्रचंड अग्निपुंज आदित्य नारायण का मन बड़ा क्षुब्ध हो जाता है, दिन अपनी वेदना किससे कहे, उसका दिल ऐसे कुकृत्यों को देख दहाड़ उठता है, और हम लाचार ऐसी दिनदहाड़े घटनाओं को फटी आंखों से देखते रह जाते हैं। शायद इसी को कलयुग कहते हों।।

व्याकरण का ऐसा कोई नियम नहीं है, किस शब्द का कब, कहां और कैसे प्रयोग किया जाए। दिनदहाड़े शब्द में प्रमुख दिन है। जो शब्द प्रचलन में आ गया, वह हमें भा गया। अगर भरी दोपहर में कोई आपसे घर मिलने आए, तो आप यही कहेंगे न, अरे भरी दोपहरी में कैसे कष्ट किया, आइए, थोड़ा सुस्ताइए, ठंडा गरम लीजिए। क्या आप यह कह सकते हैं, दिनदहाड़े कैसे तशरीफ लाए। अगर कह भी दिया, तो इसमें क्या गलत है।

जो काम दिनदहाड़े हो रहे हैं, उनको हम स्वीकार क्यों नहीं करते। क्यों हमने दिनदहाड़े शब्द को गलत अर्थ में ही स्वीकार किया है। और अगर किया भी है, तो आप खुलकर उसका दिनदहाड़े प्रयोग क्यों नहीं करते।।

दुनिया में हर काम आपकी मनमर्जी से नहीं होते। दिनदहाड़े लूट चल रही है, आप क्या कर सकते हैं।

दिनदहाड़े इतनी गर्मी पड़ रही है, आप स्वीकार क्यों नहीं करते। हमारी आज की परिभाषा तो यही है, जो भी काम दिन में चल रहा है, वह दिनदहाड़े चल रहा है, और धड़ल्ले से चल रहा है। सही गलत का फैसला करने वाले आप कौन होते हैं।

आईआईटी और आईआईएम में मोटिवेशन स्पीच, और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के साथ साथ ध्यान और पूजा अर्चना के कोर्स भी रखे जाएंगे, क्योंकि एक निरुत्तर योगी आज वहां इसका लाइव डिमॉन्सट्रेशन (सजीव प्रदर्शन) कर रहा है। ध्यान रात में किया जाए, अथवा दिनदहाड़े चमत्कार तो साक्षात् नजर आ ही जाता है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 180 ☆ # “नौतपा” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “नौतपा”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 180 ☆

☆ # “नौतपा” #

पृथ्वी की कोमल काया

सूर्य की ऊष्मा भरी किरणों से

जब लिपट जाती है

और प्रणय निवेदन करने

धीरे धीरे करीब आती है

तब चारों तरफ

गर्मी की लहर

बहने लगती है

हर जीव जंतु, पशु-पक्षी

बेजान वस्तुएं भी

त्राहि त्राहि करने लगती है

उफान पर होता है आवेग

दोनों के मिलन का

काया जल जाती है

पर नामोनिशान नहीं

होता जलन का

नौ दिन तक

यह प्रणय लीला

चलती है

भीषण गर्मी

ज़मीं और आसमान को

छलती है

तभी

उनके प्रणय का अंकुर

अंकुरित होता है

नभ में

शुभ्र मेघों की जगह

स्याह मेघों का

झुंड विचरित होता है

नभ में और धरती पर

हर्षोल्लास का

उन्माद का

अदभुत दृश्य दिखता है

जिसे देखकर ही

प्रेम में विव्हल कवि

कालिदास मेघदूत लिखता है

हर कोई

पृथ्वी पर

हम और आप

तपता हुआ हर कण

हर क्षण

जल की बूंद बूंद को

तरसता है

तब नभ से

बूंदों के रूप में

प्रेम रस बरसता है

धन्य हो जाती है धरती

उन्माद में चीत्कार है करती

सृष्टि पर यौवन आता है

अपनी गोद नव अंकुर से है भरती

 

नौतपा सिर्फ भीषण गर्मी नहीं

यह नवपल्लवित

जीवन का आभास है

चाहे नौ पल का हो

नौ दिन का हो

या नौ ——- का हो

नौतपा कुदरत का

खुशियों भरा अहसास है /

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – सबको गले लगाना है… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता सबको गले लगाना है…’।)

☆ कविता – सबको गले लगाना है… ☆

(रिटायर्ड भाइयों के लिए – एक कविता)

अभी भ्रमित ना होना राही,

अभी नहीं रुक जाना है,

अभी तो केवल पथ बदला है,

 अब आगे बढ़ते जाना है,

सूरज बनकर नभ में छाए,

 कभी नहीं विश्राम किया,

 कर्मशील और लगन शीलता,

 साथ सभी के काम किया,

 कर्म पथ के शूल हटाकर

 पथ पर फूल बिछाना है,

अभी तो केवल पथ बदला है,

 अब आगे बढ़ते जाना है,

शिवजी की बारात के जैसे,

 भांति भांति के लोग मिले,

 कुछ तो गला काटने आए,

 कुछ आकर के गले मिले,

  सारी बातें बिसरा कर,

  सबको गले लगाना है,

 अभी तो केवल पथ बदला है,

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ निवारा… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ निवारा☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

प्रियेला निर्दयी आता कशाला काय मागावे

तिचे काळीज दगडाचे तिथे तू नाव कोरावे

*

कशाला थांबतो येथे तुला ती टाळते आहे

तिच्यासाठी तुझे काही खुलासे नीट मांडावे

*

मनाचे पाखरू झाले फिरे आभाळ वाटेने

उगी जाळ्यात आशेच्या कशाला व्यर्थ गुंतावे

*

नको ती गोडवी स्वप्ने नको त्या फालतू आशा

भ्रमाच्या काळनिद्रेला खरे ते सत्य सांगावे

*

मनाचे वादळी वारे सुखाना‌ घेवुनी गेले

जसे आहे तसे जगणे मिठीने घट्ट बांधावे

*

नको थांबायला कोठे ढगांच्या सावली खाली

निवारा शोधताना ही छळाशी सख्य जोडावे

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 176 ☆ वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 176 ? 

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

नारे फक्त लावल्या गेले 

वन मात्र उद्वस्त झाले..०१

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे…

अभंग सुरेख रचला

आशय भंग झाला..०२

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

झाडांबद्दलची माया 

शब्द गेले वाया..०३

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

वड चिंच आंबा जांभूळ

झाडे तुटली, तुटले पिंपळ..०४

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

संत तुकारामांची रचना 

सहज पहा व्यक्त भावना..०५

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

तरी झाडांची तोड झाली

अति प्रगती, होत गेली..०६

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

निसर्ग वक्रदृष्टी पडली 

पाणवठे लीलया सुकली..०७

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

पाट्या रंगवल्या गेल्या 

कार्यक्रमात वापरल्या..०८

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

वृक्षारोपण झाले

रोपटे तडफडून सुकले.. ०९

*

वृक्षवल्ली आम्हां सोयरे

सांगणे इतुकेच आता 

कोपली धरणीमाता..१०

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो किनारा… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆

सुश्री संगीता कुलकर्णी

? विविधा ?

☆ तो किनारा… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆

प्रत्येकाच्या आयुष्यात रंगांची उधळण  होतेच असं नाही आणि ” तो किनारा प्रत्येकाला मिळतोच असंही नाही…

आयुष्याच्या कोणत्या किनाऱ्यावरून आपण आयुष्याकडे बघत आहोत यावरून आयुष्याची रंगत ठरत असावी असे मला वाटते.. काहींना अशा किनाऱ्यावरून आपलं आयुष्य खूप रंगीबेरंगी दिसतं असावं तर काहींना धवल काहींना काळं तर काहींना राखाडी… ज्यांना आयुष्य  छान रंगीबेरंगी दिसतं ना अशी माणसं भाग्यवान… !!  आयुष्याला रंग देणारे, त्यात रंग भरणारे व रंग जपून ठेवणारे  विरळचं…!!

आपल्या प्रत्येकाच्या आयुष्याला अनेक किनारे असतात. आपला किनारा कोणता? हे आपल्याला शोधावं लागतं तर काही किनारे मागे सोडून आपल्याला पुढे चालावचं लागतं. … ” त्या”

किनाऱ्यापाशी आपल्याला कितीही थांबावसं वाटलं तरी नाही जमतं तर काही किनारे  आपल्याला सोडून ही  जातात. मग उरतो आपण एकटेचं.. तसं जर पाहिलंत तर आपण सगळेचं आपापल्या परीने एकटे असतो पण आयुष्याच्या या वादळात आपल्याला असा एखादा किनारा गवसतो की जो आपला असतो

आपल्यासाठीचं असतो.. .आपल्या आयुष्यात येणा-या वादळात तो आपल्याला घट्ट धरून ठेवतो. येणाऱ्या लाटांच्या प्रवाहात तो आपल्याला वाहून जाऊ देत नाही… घट्ट धरून ठेवतो…असे किनारे मिळायला भाग्य लागतं…मग आपण आपला एकटेपणा विसरतो हळूहळू.. … मग  आपण ” त्या ” किनाऱ्यावर जाऊन आपण त्याचेच होऊन जातो. त्याच्या कुशीत विसावतो हासतो रडतो मनं मोकळ करतो आणि आपण विसरून ही जातो की आपल्या “त्या” किनाऱ्याला मर्यादा ही आहेत. त्याची ही सहनशक्ती आहे. मग मनाला प्रश्न पडतो की…आपली किती वादळे त्याने पचवावी? आपल्याला त्याने किती काळ वाचवावं ?

आपला असणारा हा “जीवलगसखा एकटेपणा ” किती वेळ लांब राहणार आपल्या पासून नाही का ?….

किनारा थकतो आणि हळूहळू सुटून जातो आपल्या हातून…आपल्याही नकळत…. मग पुन्हा आपण एकटेचं उरतो.. आपलेच आपल्यासाठी आणि आपला एकटेपणा आपल्यासाठीच..

किनारा सुटण्याचं दु:ख तर असतचं पण त्याने आयुष्य तर थांबत नाही ना आपलं ? आपण जगतचं राहतो किंबहुना जगावचं लागतं म्हणा ना .. लांब असतो ” तो”  किनारा … मात्रं तो साक्षीला असतो.. येतो कधीतरी आपल्याला सावरायला… आणि कधीतरी आपण ही विसावतो त्याच्याजवळ… मन शांत होईपर्यंत..

“तो “असतो तोपर्यंत  सत्याला उराशी घेऊन एकटेपणाला सोबत घेऊन आणि” त्या”  किनाऱ्याकडे नजर ठेवून आपण जगत राहतो..जगतचं राहतो…!!

©  सुश्री संगीता कुलकर्णी 

लेखिका /कवयित्री

ठाणे

9870451020

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ आता तरी सावरा रे… कवी – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? काव्यानंद ?

☆ आता तरी सावरा रे… कवी – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆

कधी कधी मनाची अस्वस्थता इतकी टोकदार असते की अशावेळी कुणी सोबत असण्यापेक्षा एकटेपणातच डुबून जाणं अधिक सुखाचं वाटतं  किंवा आपल्या भोवतालचं जग हे किती ढोंगी, फसवं आहे याची जाणीव झाल्यामुळे या सर्वांपासून दूर राहण्यातच मन:शांती आहे अशा तऱ्हेची एक एकाकी मानसिकता बनते.  शिवाय, “माझं मीच पाहून घेईन” माझं यश माझं अपयश याचं काय करायचं ते मी बघेन.” अशा तऱ्हेचा   कणखर  कल मनाचा  त्याच  क्षणी होतो.  माननीय सुहास पंडित  हे अशाच प्रकारचा  विचार त्यांच्या, आता तरी सावरा रे या कवितेतून मांडत आहेत. मला ही कविता फारच आवडली आणि या कवितेत दडलेले अर्थ शोधण्याचा मी प्रयत्न केला आणि आपण सर्वांनी याचा रसास्वाद घ्यावा असे वाटले म्हणून हा लेखन प्रपंच.

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

☆ आता तरी सावरा रे ☆

मी किती अस्वस्थ आहे शांतविण्या येऊ नका

दाह आहे अंतरीचा  लेप वरचे लावू नका.

*

निसटले जे यश तयाला निश्चये मिळवेन मी

दूर माझा गाव गेला तरी  तो पुन्हा गाठेन मी

*

शब्द  साधे बोलतो तरी का बरे ते बोचती

फूल  वेचायास गेलो काटेच सारे टोचती

*

कष्टणारा कष्टतो अन् पाहती सारे मजा

मूर्ख  सुखी लोळतो अन् शहाणा भोगी सजा

*

थांबवा हे खेळ फसवे लाज थोडी बाळगा रे

तोल ढळत्या या भूमीला, आता तरी सावरा रे

 – सुहास  रघुनाथ  पंडित  .सांगली.

ही संपूर्ण कविता वाचल्यानंतर  कवितेतला विषाद प्रकर्षाने जाणवतो. विचारातून विषाद आणि विषादातून सत्याकडे जाण्याचा एक अदृश्य प्रवास या कवितेत अनुभवायला मिळतो आणि या विषयातलं वास्तव मनाला भिडतं. वाचकालाही ते विचार करायला लावतं.

मी किती अस्वस्थ आहे शांतविण्या येऊ नका

दाह आहे अंतरीचा लेप वरचे लावू नका…

कवी म्हणतात,” माझी अस्वस्थता का आणि किती आहे हे तुम्हाला कळणारच नाही किंबहुना ती कळून घेण्याची क्षमता तुमच्यात आहे का याबद्दलच मी साशंक आहे.  माझ्या अंतरात पेटलेली ही धग आहे आणि ती तुमच्यापर्यंत कशी पोहोचेल?  तुमचे शब्द, तुमचे सांत्वन हे वरवरचे आहे आणि ते लटके आहे.  त्यात कुठल्याही खऱ्या भावनांचा अंश नाही म्हणूनच सांगतो जरी मी अत्यंत अस्वस्थ असलो तरी माझी समजूत घालण्याचा प्रयत्न करू नका.  तुमच्या या सांत्वनपर शब्दलेपनाने माझ्या अंतःकरणातला जाळ निवणार नाही. त्यापेक्षा मला एकटेच राहू द्या. LEAVE ME ALONE.”

लेप वरचे लावू नका ही काव्यपंक्ती खूपच लक्षवेधी आहे. लोक  मुखवटे घालून आपल्या आजूबाजूला फिरत असतात. अधरी एक आणि उदरी एक अशी त्यांची दुहेरी वृत्ती असते आणि या लोकांच्या बेगडीपणामुळेही कवी कमालीचे अस्वस्थ आहेत.

निसटले जे यश तयाला निश्चये  मिळविन मी

दूर माझा गाव गेला तरी पुन्हा गाठेन मी

अपयशाने सर्वसामान्य माणूस खचतो. काही क्षणाची निराशा जीवनात येते ही. कधी ते नैराश्य जगण्या बोलण्यातून व्यक्त होते आणि भोवतालची माणसं सहानुभूतीपूर्वक काही सल्ले देतात तर काही असेही महाभाग असतात की ते नैराश्यात अधिक भर घालतात त्यापेक्षा हे काही नकोच.

“माझ्या निराश मनाला मी सावरेन. जे निसटले ते पण स्वबळाने, जिद्दीने मी मिळवेन. स्वप्नभंगाचं दुःख पचवून, देअर इज ऑलवेज अ नेक्स्ट टाईम असा विचार बाळगून जे दुभंगलं ते सांधण्याचा प्रयत्न करेन.”

दूर माझा गाव गेला तरी पुन्हा गाठेन मी  ही ओळ रूपकात्मक आहे. इथे माझा गाव यात माझ्या  स्वप्नांचा गाव म्हणजेच माझी स्वप्नं असा अर्थ अभिप्रेत असावा आणि त्या दृष्टीने कवी म्हणतात की,” एक ना एक दिवस मी माझे स्वप्न पूर्ण करेनच.”

शब्द साधे बोलतो तरी का बरे ते बोचती

फूल वेचावयास गेलो काटेच सारे टोचती

कवीच्या मनात खंत आहे. ते म्हणतात,”खरं म्हणजे लोकांच्या या दुनियेत ना मी स्वतःला सिद्धच करू शकलो नाही. लोकही माझ्या विचारापर्यंत पोहोचू शकले. कुणीच मला खऱ्या अर्थाने समजून घेण्यास सफल झालेले नाहीत.  माझ्या साध्या बोलण्याचाही विपर्यास केला जातो.मला समजत नाही  त्यातून नकारात्मक अर्थ काढून ते टोचणारे का ठरावेत? वास्तविक मला फुलं वेचायची असतात पण माझ्या वाटेला मात्र काटेच येतात.. असे का? “

फुले वेचावयास गेलो काटेच सारे टोचती ही ओळ  रूपकात्मक आहे. ज्याचे  चिंतावे भले  तो म्हणे आपलेच खरे

“काहीतरी चांगलं पेरण्याचा मी प्रयत्न करतो पण ते सारं फुकाचं ठरतं. करायला जातो एक पण घडतं मात्र भलतंच.”

कष्टणारा कष्टतो अन् पाहती सारे मजा

मूर्ख सुखी लोळतो आणि शहाणा भोगी सजा…

कवीच्या मनात असे नकारात्मक विचार येण्यास कारणीभूत आहे  सद्य परिस्थिती हे निश्चितच.  आजकाल जीवनात खरोखरच कष्टांना मोल राहिलेलं नाही. कष्ट करणारी व्यक्ती समाजात हास्याचा नाहीतर उपहासाचा  विषय होतो.

“फुका कष्टतो तू लेका” असे शब्दांचे फटकारे त्याला मारले जातात.

हे कडवं वाचताना कवीच्या मनातले विचार वाचक वाचू शकतो. केल्या कष्टाची अथवा कामाची दखल घेतली जात नाही. पुरेशी दाद मिळत नाही, ॲप्रिसिएशन हे तर फारच दूर राहिलं पण कित्येक वेळा आपल्या श्रमाचे श्रेय कोणीतरी दुसराच घेऊन जातो आणि आपण मात्र त्याच खड्ड्यात राहतो.  ज्याला अक्कल नाही, उमज नाही तो राज्यपदावर सहज बसतो आणि शहाणा मात्र न केलेल्या अपराधाची  शिक्षा भोगतो.

कवी सुहास पंडितांनी केलेलं हे भाष्य म्हणजे ज्वलंत वस्तुस्थिती आहे. यात नकारात्मकता  असली  तरी त्यात एक दारुण सत्य, वास्तव, दडलेलं आहे. कुणाही जागृत,संवेदनशील मनाच्या माणसाला याची चीड येणं, विषाद वाटणं हे अत्यंत स्वाभाविक आहे.

थांबवा हे खेळ  फसवे  लाज थोडी बाळगा रे

तोल ढळत्या या भूमीला आता तरी सावरा रे…

हा शेवटचा चरण म्हणजे  कवीच्या संपलेल्या सहनशक्तीचा परिपाक आहे. भोवतालचा बदललेला माणूस,  त्याची घसरलेली मूल्ये, नीती, बेरडपणा ढोंगीपणा, खोटेपणा, मतलबीपणा, आत्मकेंद्रीतपणा, मूळातच हरवलेली विश्वासार्हता, सडलेली सारी यंत्रणा आणि त्यात भरडलेली अस्सल माणूसकी पाहून कवीचं मन रक्तबंबाळ झालं आहे.  त्याच्या मूल्याधिष्ठित, तत्त्वप्रेमी मनाला या सर्वांशी जुळवून घेणे आता अशक्य झाले आहे आणि त्याचाच उद्रेक झाला आहे आणि त्यामुळेच त्याच्या मुखातून असे उद्गार बाहेर निघतात,

“अरे षंढा! हे फसवे खेळ आता तरी थांबव. थोडी तरी लाज बाळग. सद् सद् विवेकबुद्धीला विचारून पहा आणि तुला याची जाणीव आहे का तुझ्या या मायाजालात तूच गुंतत चालला आहेस. जागा हो माणसा! जागा हो! डोळे उघड.”

तोल ढळत्या या भूमीला आता तरी सावरा रे यातही एक सुंदर रूपक आहे. भूमीचा तोल ढळतोय म्हणजे साऱ्या विश्वातच नैतिकतेची पातळी ढळलेली आहे, खालावलेली आहे. एक अनाचार, अनागोंदी सर्वत्र माजलेली आहे. या दोन ओळीत मला साऱ्या जगात चाललेला मानवतेचा संहार जाणवतो. सत्तेसाठी होणारी युद्धे, बळी तो कान पिळी हा जंगलचा कायदा बोकाळलेला दिसतोय हे पाहून कवीचं मन अत्यंत उद्विग्न होतं आणि त्या क्षणी त्याला एकच जाणवतं, ज्यांच्यामुळे ही  परिस्थिती निर्माण झाली आहे ती सावरण्याचं कामही  आता त्यांचंच आहे.बूमरँग सारखी  त्यांची स्थिती झाली आहे म्हणूनच कवी त्यांना म्हणतो,” “आता तरी सावरा रे.. अजून वेळ गेलेली नाही.  या मानवी जीवनात शांती, समृद्धी, एकोपा, समता, बंधुता आणि खऱ्या भावनांची, सहानुभूतीची पेरणी व्हायला हवी.”

अशी सुंदर संदेश देणारी खोल, गंभीर अर्थ उलगडवणारी  सुरेख काव्यरचना. हे वैयक्तिक विषादातून निर्माण झालेलं काव्य असलं तरी एक जळजळीत वास्तव मांडणारं आहे.

येऊ नका— लावू नका, मिळवेन मी— गाठीन मी, बोचते— टोचते, मजा— सजा ही काफियत मनातल्या उद्रेकाच्या भावनांना चांगलीच अधोरेखित करते. ही संपूर्णपणे नियमात रचलेली गझल नसली तरी या रचनेला गझलेचा बाज जाणवतो. वाचताना वाचक कवीच्या भावनांशी तितक्याच आवेशाने जोडला जातो हे या काव्यरचनेचे संपूर्ण यश आहे असे मला वाटते.

कुठलाही कवी कविता रचतो तेव्हां त्याच्या मनातले विचार वाचकाला जसेच्या तसे उमजतीलच हे संभाव्य नाही.

इतकं सारं लिहिल्यानंतर मला क्षणभर असेही वाटले की विकासाची धुंदी चढलेल्या माणसामुळे पर्यावरणाची जी  प्रचंड हानी होत आहे त्यामुळे तर कवीचं मन या ठिकाणी अस्वस्थ झालेलं आहे का? आणि कुठल्याही प्रकारची विकासास पोषक ठरणारी समर्थनं त्याला आता ऐकायचीच नाहीत? एकाच विचाराने कवी घेरलेला आहे की आता हे

भूमीला ओरबाडणारं विकासयंत्र थांबलंच पाहिजे.  पृथ्वीचा तोल सांभाळलाच पाहिजे.

थोडक्यात ही कविता श्र्लेषात्मक आहे.

अनेकार्थी आहे. म्हणूनच interesting आहे वाचकहो!

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ स्वप्न ☆ श्री सुनील शिरवाडकर ☆

श्री सुनील शिरवाडकर

? जीवनरंग ❤️

☆ स्वप्न ☆ श्री सुनील शिरवाडकर

साडेदहा वाजता पूजा दुकानात आली, तेव्हा बाळुने नुकतेच दुकान उघडले होते. बाळु दुकानाची साफसफाई करत होता. दोन तीन वर्षांत दुकानाने चांगलाच जम बसवला होता. पूजा मागच्याच वर्षी दुकानात कामाला लागली होती. सेल्सवुमन म्हणून. दुकान तसे छोटेसेच. शहराच्या नव्या उपनगरात. पूजा आणि अमित त्या कॉलनीतच रहात होते. संसाराची नुकतीच सुरुवात झाली होती. अमित,पूजा आणि पाच वर्षाची इशु.अमीतच्या पगारात जरा ओढाताणच होत होती, म्हणुन पूजाने नोकरी करायचे ठरवले. योगायोगाने कॉलनीमधल्याच या सराफी दुकानात पूजाला जॉब मिळाला.

सकाळचा गजर झाला. गजर बंद करून थोड्या वेळासाठी पुजा पुन्हा झोपली, तर झोपच लागून गेली. जाग आली तेव्हा साडेसात वाजले होते. घाईघाईत उठली. सगळ्यात आधी अमीतला आणि तिला चहा ठेवला आणि मग इशुला उठवायला गेली.

“इशु उठ..आधीच उशीर झालाय”

“अं….हो उठतेच”

“उठते नाही.. उठच”

खसकन तिचे पांघरूण ओढत पुजा म्हणाली. कुरकुर करत,डोळे चोळत इशु उठली आणि ब्रश करायला गेली. अमित उठलाच होता. दोघांनी चहा घेतला. नुकताच आलेला ‘लोकसत्ता’ घेऊन अमीत गैलरीत बसला. पूजाने टिफिनची तयारी सुरू केली.

काल रात्री येतानाच पुजाने भेंडी, फ्लॉवर आणला होता. सोलुन ठेवलेला मटार फ्रिजमध्ये असायचाच.इशुसाठीही भेंडी चिरायला घेतली. अमीतसाठी मटार फ्लॉवरची भाजी करायला घेतली. ते झाल्यावर पोळ्यांसाठी कणीक भिजवली.

साडेनऊ वाजता अमितचा टिफिन भरुन ठेवला आणि जरा निवांत झाली. तिला जरा उशिरा निघाले, तरी चालण्यासारखे होते.

“मम्मी, दिवाळीची सुट्टी कधी गं लागणार?”

“आहे अजुन दहा बारा दिवस.”कैलेंडरकडे नजर टाकत पुजा म्हताली.

तिला मागची दिवाळी आठवली.नोकरी लागल्यानंतरची पहिलीच दिवाळी. नको वाटली तिला दिवाळीची ती आठवण. सर्व जग दिवाळीचा सण साजरा करीत असते. आणि आपण..?

दिवसभर उभे राहुन पायात गोळे येतात. रात्री घरी जाण्याची वेळ निश्चित नाही. कसला आलाय सण?रात्री घरी येते तर इशु झोपुनच गेलेली असे. आपल्यासाठी दिवाळीची सुट्टी नाही की काही नाही.

साडेदहा वाजता इशुच्या शाळेची व्हॅन आली. तिला पोहोचवुन,कुलुप लावुन ती बाहेर पडली.किल्ल्या तळमजल्यावरील जोशी काकूंकडे दिल्या.  दुकान पायी अंतरावरच होते. त्यामुळे जाण्यायेण्याचा वेळ वाचायचा.

दुकान उघडून बाळुची साफसफाई चालू होती. जयंतशेठ बाहेरील बाकावर बसुन पेपर चाळत होते पुजा आत गेली. दुकानाच्या मागच्या खोलीतून तिने तिजोरीतुन दागिन्यांचे ट्रे काढले. त्याची चळत पुढे येऊन काउंटरवर ठेवली. तिजोरी पुन्हा लॉक करुन किल्ल्या शेठकडे दिल्या. स्टॉकबुक घेऊन सर्व आयटेम्स चेक केले, आणि सर्व माल शोकेसमध्ये लावला.

काऊंटरवर मागच्या बाजूला लक्ष्मी, गणपती, स्वामी समर्थांच्या तसबिरी होत्या त्याच्या बाजुलाच शेठजींच्या वडिलांचा मोठा फोटो. फुलाची पुडी सोडुन सर्व फोटोंना माळा घातल्या. उदबत्ती, निरांजन लावली आणि गिऱ्हाईकांकडे वळली.

एका मागून एक गिऱ्हाईक येत होते. आणि तेच पुजाला पण सोयीचे वाटत होते. एकदम दोन तीन गिर्हाईके आली की तिची तारांबळ उडे.शेठ तर फक्त गल्ल्याजवळ बसुन रहात. मोडीचे व्हैल्युएशन करणे .कोणाला काय मजुरीत सुट देणे एवढेच त्यांचे काम. बाकी सर्व पुजावरच.ती पण आता सरावाने तयार झाली होती.

दुपारी तासभर जेवणाची सुट्टी. तिला जरा मोकळा वेळ मिळे.घरी जाऊन जेवण करुन जरा वेळ अंथरुणाला पाठ टेकुन झोप घेई,की पुन्हा चार वाजता दुकानात.

संध्याकाळी मोबाईल वाजला. अमितचा फोन होता.

“हैलो पूजा.. कामात आहेस का?”

“हं..बोल तु”

“अगं माझा मित्र,तो सतीश नाही का? त्याला चेन घ्यायची आहे. तो संध्याकाळी येईल.तुमच्या दुकानात.”

“हं..बरं..बोल पटकन”

दुकानात गिर्हाईकांची गर्दी. एकिकडे मान तिरपी करुन पुजाने मोबाईल अडकवला होता.

“काही नाही गं..थोडी मजुरीत सुट वगैरे देता आली तर बघ.तसे त्याल मी सांगितले आहे म्हणून”

“ओके.. ठेवते मी फोन”

संध्याकाळी सतीश आणि त्याची बायको दुकानात आली. चांगली दोन तोळ्यांची चेन घेतली त्यांनी. सतीशच्या वाढदिवसानिमित्त त्याच्या बायकोने त्याल घेऊन दिली. दोघे खुश होऊन निघुन गेले.

रात्री घरी येताना पुजाच्या डोक्यात विचार चालु.आपणही अमीतसाठी एक चेन घ्यावी का?नाही दोन तोळ्यांची.. एक तोळ्याची तर घेऊ शकतो.मनाशीच आकडेमोड करीत ती घरी आली.

रात्री जेवण झाल्यावर तिने अमीतजवळ विषय काढला. एकदा वाटले.. सरप्राईजच द्यावे. पण तिच्याच्याने राहवेना.

“अमीत.. तुझ्या पुढच्या वाढदिवसाला मी तुला सोन्याची चेन देणार आहे. चांगली एक तोळ्याची.”

“अरे वा..पगारवाढ झालेली दिसते आहे”

“नाही रे..तो कसला पगार वाढवतोय.पण एवढी सराफी पेढीवर मी काम करतेय.आपल्यासाठी आपण काहीच सोने घेत नाही”

“मग तुझ्यासाठी बनव ना काहीतरी”

“नको.. माझ्या गळ्यात आहे मंगळसुत्र. साध्या दोर्यामध्ये गाठवलेले का होईना. नंतर पुढे मागे करीन मी गंठण.इशुला पण चेन आहे बारश्याची.तुलाच काही नाही”

“मला काय गं..मी चेन घालायला तयारच आहे, पण मला वाटते की तुझ्यासाठी काहीतरी बनव.दिवसभर एवढी सोन्याचांदीच्या दुकानात उभी असते. त्याचा तुला नाही होत मोह कधी?”

पुजाच्या डोळ्यात पाणी तरळले. बायका येतात.. सुंदर सुंदर दागिने घेतात. आरशासमोर उभे राहून दागिने घालुन बघतात, तेव्हा त्यांच्या डोळ्यातील आनंद तिला आठवला. मनाशी तुलना होई.आपल्या नशीबात कधी येणार कुणास ठाऊक?दिवसभर मौल्यवान दागिने हाताळायचे..पण आपण मात्र लंकेची पार्वतीच.कसली खंत आणि कसला खेद?आणि हा म्हणतोय..तुला मोह होत नाही का?

“जाऊ दे..मी ठरवलं आहे. आणि मी ठरवले ते मी करणारच.”

म्हणता म्हणता वर्ष गेलं.दुकानातच सोन्याची भिशी होती. ती पुजाने लावली. वर्षभरानंतर भिशीचे पैसे आणि काही वरती थोडे असे मिळुन पुजाने एक सुंदर चेन घेतली.

आजच तिच्या अमीतचा वाढदिवस होता. लाल मखमलीच्या डबीत चेन घेऊन ती निघाली.शेठना सांगुन आज ती जरा लवकरच निघाली.येताना चौकातल्या केक शॉपमधुन तिने केक घेतला. इशु आणि अमीत तिची वाटच पहात होते. फ्रेश होऊन.. कपडे बदलुन ती हॉलमध्ये आली. केक टिपॉयवर ठेवला.त्याच्या बाजुला चेनची डबी.त्यातुन चेन काढुन तिने अमीतच्या गळ्यात अडकवली.फासा पक्का केला.

” हैप्पी बर्थडे.. अमीत”..पुजा म्हणाली.

लगेच इशु  म्हणाली..

“हैप्पी बर्थडे.. पप्पा”

पुजाच्या डोळ्यात पाणी आले. आज तिने पाहीलेले एक छोटेसेच स्वप्न पूर्ण झाले होते. तिच्याकडे पाहुन अमीतही गहिवरला. छोटी इशु मात्र आळीपाळीने दोघांकडे पाहात होती.

तिला कळत नव्हते.. आज पप्पांचा वाढदिवस आहे.. तर मम्मी, पप्पा का रडताहेत?

© श्री सुनील शिरवाडकर

मो.९४२३९६८३०८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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