(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हंसने का मौसम…“।)
अभी अभी # 323 ⇒ हंसने का मौसम… श्री प्रदीप शर्मा
जिस तरह प्यार का मौसम होता है, उसी तरह हंसने का मौसम भी होता है। होली के मौसम को आप हंसी खुशी का मौसम कह सकते हैं, क्योंकि प्यार का सप्ताह, यानी वैलेंटाइन्स वीक तो, कब का गुजर चुका होता है। होली पर जो पानी बचाने की बात करते हैं, और दिन भर एसी में पड़े रहते हैं, वे परोक्ष रूप से हंसी खुशी और मस्ती घटाने की ही बात करते हैं।
हंसना सबकी फितरत में नहीं। जिन्हें कब्ज़ होती है, वे खुलकर हंस भी नहीं सकते। हंसने से भूख भी बढ़ती है, और पाचन शक्ति भी। चिकित्सा विज्ञान ने अनिद्रा का निदान तो नींद की गोलियों में तलाश लिया लेकिन अवसाद का उनके पास कोई इलाज नहीं। घुट घुटकर, घूंट घूंट पीना और यह गीत गुनगुनाना ;
हंसने की चाह ने
इतना मुझे रुलाया है।
कोई हमदर्द नहीं,
दर्द मेरा साया है।।
होली का मतलब है, ठंड गई, गर्मी आई। होली का एक मतलब और है, ठंडाई। ठंडाई पीसी जाती है, मिक्सर में नहीं, सिल बट्टे पर, और वह भी उकड़ू बैठकर। पिस्ता, बादाम, केसर, खसखस, इलायची, काली मिर्च, और मगज के बीजों को पीसकर जब दूध और शकर में मिलाया जाता है, तब जाकर बनती है ठंडाई। अगर ठंडाई पीसी जाती है, तो विजया घोटी जाती है। आयुर्वेदिक औषधि भांग को ही विजया कहते हैं। असली विजयादशमी तो कायदे से होली ही है।
भांग को शिव जी की बूटी भी कहा जाता है। ठंडाई और भांग के गुणगान का हंसने और खुलकर हंसने से बहुत गहरा संबंध है। विजया पाचक तो है ही, इससे खुलकर दस्त भले ही ना लगें, लेकिन हंसी ऐसी खुलती है कि बंद होने का नाम ही नहीं लेती।।
जो लोग बिना बात के भी हंस लेते हैं, इसमें उनकी अपनी कोई विशेषता नहीं, यह विजया का ही प्रभाव होता है। आश्चर्य होता है उन लोगों पर, जो हंसने के लिए लाफ्टर क्लब जॉइन करते हैं। अधिक व्यंग्य कसने वाले और कसैला व्यंग्य लिखने वाले न जाने क्यों हास्य रस से परहेज़ करते नजर आते हैं। इन्हें तो हंसने वालों पर भी हंसी नहीं, रोना आता है।
भांग यानी विजया आपको बिना बात के हंसने की गारंटी देती है। वैसे आज के राजनीतिक परिदृश्य में, जब पूरे कुएं में ही भांग पड़ी हो, तब हंसने के लिए, अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता। रमजान की अजान की तरह और विष्णु सहस्त्रनाम की तरह जब आकाशवाणी की तरह पूरी कायनात में एक ही आवाज गूंजती है, तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हें गारंटी दूंगा, तो नर तो क्या, किसी खर को भी बरबस हंसी छूट जाती होगी।।
लोग पहले होली के इस मौसम में बुरा नहीं मानते थे, लेकिन अब मौसम न तो प्यार का है और न ही हंसने का। इंसान की नफरत और बदले की आग ने, मौसम को भी बेईमान कर दिया है।
प्रेम और हंसी खुशी बाज़ार से खरीदी नहीं जाती। रोते हुए बच्चे को हंसाने का फार्मूला बहुत पुराना हो गया। हंसी खुशी और मस्ती की पाठशाला का पहला पाठ खुद पर ही हंसना है, दूसरों पर हंसना नहीं, उन्हें भी हंसाना है।
नफरत के बीज की जगह अगर जरूरत पड़े तो प्रेम और हंसी खुशी का, विजया का पौधा लगाएं।
मित्रता हो अथवा दोस्ती हो, पहले घुटती है, और उसके बाद ही छनती है। मौका और दस्तूर बस हंसने और मस्ती छानने का है। अगर आप हंसना, मुस्कुराना, खिलखिलाना और ठहाके लगाना भूल गए हैं, तो शिवजी की बूटी की शरण में आएं। आप नॉन स्टॉप हंसते रहेंगे, यह विजया की गारंटी है।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – लंदन से 6 – ये जो कुछ “ई” है वह ही सदा साथ है !
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 270 ☆
व्यंग्य – ये जो कुछ “ई” है वह ही सदा साथ है !
पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं च धनम् |
कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ||
अर्थ – यह है कि पुस्तक में रखा ज्ञान तथा दूसरे के हाथ में दिया गया धन, ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम के नहीं होते
यह चाणक्य के समय की बात थी, जो तब शाश्वत सत्य रही होगी।
अब इस नीति में अमेंडमेंट की आवश्यकता है। मोबाइल हाथ में हो, और इंटरनेट हो तो गूगल का ज्ञान और ई बटुए का धन ही नहीं, ई मेल में पड़े रिफरेंस, डिजिटल डाक्यूमेंट, फोटो गैलरी के फोटो, कांटेक्ट लिस्ट के नंबर, एड्रेस, बैंक एकाउंट, सब कुछ काम का होता है। बल्कि यूं कहना ज्यादा सही है की जो कुछ “ई” है, आज वह ही सोते, जगते, उठते बैठते, घर बाहर, हर कहीं सदा साथ होता है।
देश विदेश की यात्रा करते हुए न तो सारे सहेजे हुए फिजिकल डाक्यूमेंट्स और न ही एल्बम तथा विजिटिंग कार्ड्स होल्डर लेकर चल पाते हैं न ही पास बुक और चैक बुक किसी काम आते हैं।
आवश्यकता इंस्टेंट होती है, तब ई डाक्यूमेंट्स एक सर्च पर खुल जाते हैं। दुनियां में कहीं भी हों नेट बैंकिंग ही रूपयो के लेन देन में काम आती है। खुल जा सिम सिम के जप की तरह पासवर्ड डालते ही एप ओपन हो जाते हैं और वह सब जो “ई” है न वह सेवा में हाजिर मिलता है। याददाश्त में पासवर्ड गुम भी हों तो मोबाइल आपका चेहरा देखकर खुल जाता है और स्कैनर पर फिंगर प्रिंट्स लगाते ही आप मनचाही वेबसाइट खोल पाते हैं।
मुझे तो लगता है कि ” ई ” ईश्वर सा ही है जो सर्व व्यापी है। ईश्वर की कल्पना स्वर्ग में होने की है। स्वर्ग की परिकल्पना बादलों के पार कहीं आकाश में की गई है। ये जो सदा साथ रहने वाला “ई” है वह भी क्लाउड स्टोरेज में रहता है। आप कहीं भी हों, क्लोज सर्किट कैमरों की मदद से घर दफ़्तर जहां चाहें पहुंच जाते हैं। कैमरों के क्लाउड स्टोरेज से घर बाहर के बीते हुए पल भी फिर फिर देख सकते हैं।
इधर जूम या गूगल पर वर्चुअल सेमिनार खत्म होता है और क्लिक करते ही ई सर्टिफिकेट जनरेट होकर मेल बाक्स में हाजिर हो जाता है।
हर चैट बोट पर कोई ई सहायक ईवा, दिया, सिया, 24 घंटे सेवा में समर्पित है।
ई वीजा, ई पासपोर्ट, ई सर्टिफिकेट, ई कामर्स, ई पत्रिका, ई अखबार, ई बुक्स, ई राइटिंग, और ई रेटिंग, ई वोटिंग वगैरह वगैरह है। जमाना ई का है, पर ई डेटिंग से जनरेटेड दिल की अहसासी फाइल अभी भी भौतिक स्पर्श की ही भूखी है।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
☆ बाल साहित्यकार ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” मैथिली शरण गुप्त सम्मान से सम्मानित – अभिनंदन ☆
लखनऊ, 27 मार्च 2024: इंटीग्रेटेड सोसाइटी ऑफ मीडिया प्रोफेशनल्स लखनऊ द्वारा आयोजित सातवें वार्षिक कार्यक्रम में नीमच के बाल साहित्यकार ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” को उनकी साहित्यिक सेवा के लिए मैथिली शरण गुप्त सम्मान से सम्मानित किया गया। यह कार्यक्रम 10 जनवरी 2024 को सांगली, महाराष्ट्र में आयोजित किया गया था।
ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” हिंदी साहित्य के एक प्रख्यात बाल साहित्यकार हैं। उन्होंने बच्चों के लिए अनेक कहानियां, कविताएं और उपन्यास लिखे हैं। उनकी रचनाओं में राष्ट्रीय गांधीवाद के प्रवाह से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया गया है।
इंटीग्रेटेड सोसाइटी ऑफ मीडिया प्रोफेशनल्स लखनऊ द्वारा उन्हें यह सम्मान उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए प्रदान किया गया है। सम्मान स्वरूप उन्हें शील्ड, प्रमाण पत्र और प्रतीक चिन्ह प्रदान किया गया।
यह सम्मान नीमच के लिए गर्व का विषय है। ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” की साहित्यिक सेवाओं के लिए उन्हें यह सम्मान मिलना निश्चित रूप से एक प्रेरणा है।
सम्मान के बारे में:
संस्था: इंटीग्रेटेड सोसाइटी ऑफ मीडिया प्रोफेशनल्स लखनऊ
कार्यक्रम: सातवां वार्षिक कार्यक्रम
स्थान: सांगली, महाराष्ट्र
दिनांक: 10 जनवरी 2024
सम्मान: मैथिली शरण गुप्त सम्मान
सम्मानित: ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
कारण: साहित्यिक सेवा
सम्मान स्वरूप: शील्ड, प्रमाण पत्र, प्रतीक चिन्ह
ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” की साहित्यिक सेवाएं: बच्चों के लिए अनेक कहानियां, कविताएं और उपन्यास लिखे हैं। राष्ट्रीय गांधीवाद के प्रवाह से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है
यह सम्मान नीमच के लिए गर्व का विषय है। ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” की साहित्यिक सेवाओं के लिए उन्हें यह सम्मान मिलना निश्चित रूप से एक प्रेरणा है।
💐 ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ जी को इस विशिष्ट उप्लब्धि के लिए हार्दिक बधाई 💐
≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
‘तो’ म्हणजे अर्थातच देव..! त्याची माझ्या मनात नेमकी कधी प्रतिष्ठापना झाली हे नाही सांगता यायचं. की कशी झाली असेल हे मात्र सांगता येईल. ‘देव’ ही संकल्पना माझ्या मनात कुणीही जाणीवपूर्वक,अट्टाहासाने रुजवलेली नाहीये. ती आपसूकच रुजली गेली असणार. दत्तभक्त आई-वडील, घरातले देवधर्म, नित्यनेम, शुचिर्भूत वातावरण, हे सगळं त्याला निमित्त झालं असणारच. पण रुजलेला तो भाव सर्वांगानं फुलला तो कालपरत्त्वे येत गेलेल्या अनुभूतीमुळेच!
हे रुजणं, फुलणं नेमकं कधीपासूनचं याचा शोध घेता घेता मन जाऊन पोचतं ते मनातल्या सर्वात जुन्या आठवणीपर्यंत.मी दोन अडीच वर्षांचा असेन तेव्हाच्या त्या काही पुसट तर काही लख्ख आठवणी. आम्ही तेव्हा नृसिंहवाडीला होतो. वडील तेथे पोस्टमास्तर होते. सदलगे वाड्याच्या भव्य वास्तूच्या अर्ध्या भागात तेव्हा पोस्ट कार्यालय होतं. आणि आमच्यासाठी क्वार्टर्सही.वडील आणि आई दोघांचंही नित्य दत्तदर्शन कधीच चुकायचं नाही. रोजच्या पालखीला आणि धुपारतीला वडील न चुकता जायचे.बादलीभर धुणं आणि प्यायच्या पाण्यासाठी रिकामी कळशी बरोबर घेऊन आई रोज नदीवर जायची. धुतलेल्या कपड्यांचे पिळे आणि भरलेली कळशी घेऊनच ती पायऱ्या चढून वर आली की आधी दत्तदर्शन घ्यायची आणि मग उजवं घालून परतीची वाट धरायची.आम्ही सर्व भावंडे तिची वाट पहात दारातच ताटकळत उभे असायचो.त्या निरागस बालपणातली अशी सगळीच स्मृतिचित्रं आजही माझ्या स्मरणात मला लख्ख दिसतात.त्यातलं एक चित्र आहे आम्हा भावंडांच्या ‘गोड’ हट्टाचं! पोस्टातली कामं आवरून वडील आत येईपर्यंत आईने त्यांच्या चहाचं आधण चुलीवर चढवलेलं असायचं. तो उकळेपर्यंत आई देवापुढे दिवा लावून कंदील पुसायला घ्यायची.अंधारून येण्यापूर्वी कंदील लावला की रात्रीच्या जेवणासाठी स्वयंपाकाची तयारी सुरू करायची. तोवर चहा घेऊन देवाकडे जाण्यासाठी वडिलांनी पायात चप्पल सरकवलेल्या असायच्या.
“मुलांनाही बरोबर घेऊन जा बरं. म्हणजे मग मला स्वैपाक आवरून, तुम्ही येईपर्यंत जेवणासाठी पानं घेऊन ठेवता येतील” आईचे शब्द ऐकताच आम्हा भावंडांच्या अंगात उत्साह संचारायचा.
“चला रेs” वडीलांची हाक येताच आम्ही आनंदाने उड्या मारत बाहेर पडायचो.त्या आनंदाचं अर्थातच देवदर्शनाची ओढ हे कारण नसायचं.त्या वयात ती ओढ जन्माला आलेलीच नव्हती. त्या आनंद, उत्साहाचं कारण वेगळंच होतं. वडिलांच्या मागोमाग आम्हा बालगोपालांची वरात सुरक्षित अंतर ठेवून उड्या मारत मारत सुरू होई.दुतर्फा पेढेबर्फीच्या दुकानांच्या रांगा आज आहेत तिथेच आणि तशाच तेव्हाही होत्या. रस्ताही आयताकृती घोटीव दगडांचा होता. ती दुकानं जवळ आली की माझी भावंडं मला बाजूला घेऊन कानात परवलीचे शब्द कुजबुजायची. मी शेंडेफळ असल्याने त्यांची हट्ट करायची वयं उलटून गेलेली आणि मी हट्ट केला तर वडील रागावणार नाहीत हा ठाम विश्वास. मग त्यांनी पढवलेली घोषणा ऐकताच नुसत्या कल्पनेनेच माझ्या तोंडाला पाणी सुटायचं.डोळे लुकलुकायचे.न राहवून आपल्या दुडक्या चालीने धावत जाऊन मी वडिलांचा हात धरून त्यांना थांबवायचा प्रयत्न करायचो.
“काय रे?”
“कवताची बलपी..”
“आधी दर्शन घेऊन येऊ. मग येताना बर्फी घेऊ.चलाs..” ते मला हाताला धरून चालू लागायचे. काय करावे ते न सुचून मी मान वळवून माझ्या भावंडांकडे पहायचो. त्यांनी केलेल्या खुणांचा अर्थ मला नेमका समजायचा. मी वडिलांच्या हाताला हिसडा देऊन तिथेच हटून बसायचो.आणि माझ्या कमावलेल्या रडक्या आवाजात..’ कवताची बलपी’ घेतलीच पायजे..’ अशा बोबड्या घोषणा देत रहायचो. वडील थांबायचे. कोटाच्या खिशात जपून ठेवलेला एक आणा न बोलता बाहेर काढायचे.’अवधूत मिठाई भांडार’ मधून कवठाची बर्फी घेऊन ती पुडी माझ्या हातात सरकवायचे. त्यांनी तो एक आणा देवापुढे ठेवायला घेतलेला असायचा हे त्या वयात आमच्या गावीही नसे. न चिडता,संतापता, आक्रस्ताळेपणा न करता, कसलेही आढेवेढे न घेता माझा हट्ट पुरवणाऱ्या वडिलांच्या त्या आठवणी माझ्यासाठी खूप मोलाच्या आहेत. कारण त्या ‘गोड’ तर आहेतच, पण त्याहीपेक्षा महत्त्वाचं म्हणजे त्या आठवणींना दत्तमंदिराच्या परिसराची सुरेख,पवित्र, शुचिर्भूत अशी सुंदर महिरप आहे.
देव म्हणजे काय हेच माहीत नसलेल्या वयातली ही त्याच देवाच्या देवळासंदर्भातली सर्वात जुनी आठवण! ‘त्या’ची गोष्ट सुरू होते ती त्या आठवणीपासूनच! देवाची खरी ओळखच नसणाऱ्या माझ्या त्या वयात वडिलांमागोमाग चालणाऱ्या माझ्या इवल्याशा पावलांना, जीवनप्रवासातील अनेकानेक कठोर प्रसंगात खंबीरपणे उभं रहायचं बळ ज्याच्यामुळे मिळालं ‘त्या’चीच ही गोष्ट!
माझी कसोटी पहाणारे कितीतरी प्रसंग पुढे आयुष्यभर येत गेले.अर्थात या ना त्या रूपात ते प्रत्येकाच्या आयुष्यात येतच असतात. पण त्या प्रसंगातही माझ्या मनातली त्याच्याबद्दलची श्रद्धा कधी डळमळीत झाली नाही. त्या अर्थानं सगळेच प्रसंग माझी नव्हे तर त्या श्रद्धेचीच कसोटी पहाणारे होते. त्यापैकी अनेक प्रसंगात मी माझ्या मनातली ‘देव’ ही संकल्पना मुळातूनच तपासून पहायलाही प्रवृत्त झालो आणि पुलाखालून बरच पाणी वाहून गेल्यानंतरच्या आजच्या या क्षणीही त्या पाण्याबरोबर वाहून न गेलेली ती श्रद्धा तितकीच दृढ आहे !
माझ्या आयुष्यातल्या या सगळ्याच अनुभवांबद्दल लिहायला मी प्रवृत्त झालो खरा, पण हे अनुभव जगावेगळे नाहीत याची नम्र जाणीव मला आहे. तुमच्यापैकी अनेकांना ते तसे आलेही असतील.अशांना माझे हे अनुभव वाचायला नक्कीच आवडतील.जे नास्तिक असतील त्यांनी निदान हे लिहिण्यासाठी निमित्त झालेल्या माझ्या श्रद्धेमागची माझी निखळ भावना समजून घ्यावी हीच माफक अपेक्षा!
☆ वंशाचा दिवा… की पणती ?… भाग – 2 ☆ श्री सुनील शिरवाडकर ☆
(अपेक्षा होती…. म्हणावे राहुलने.. ‘दादा तुम्ही आता काही करू नका. दोघेजण आरामात रहा फ्लॅटवर.’ पण ते त्यांच्या नशिबी नव्हते.) इथून पुढे
अलीकडे खूपदा त्यांच्या मनात येई.. काय मिळवले आपण आयुष्यात?वडिलोपार्जित घर आहे ते सांभाळले फक्त. अदितीला पदवीधर केले. राहुलचे इंजिनिअर पर्यंत शिक्षण केले. दोघांची लग्ने केली. बस्स. नवीन प्रॉपर्टी करणे काही आपल्याला जमले नाही. ना एवढी शिल्लक राहिली की त्याच्या व्याजावर उरलेले आयुष्य जाईल. जी काय थोडी शिल्लक होती ती पण राहुलला देऊन बसलो.
आला दिवस घालवत होते. अशीच १०-१२ वर्षे गेली. वाडा आता खुपच मोडकळीस आला होता. त्यातल्या त्यात एक खोली शाबूत राहिली होती. तिथेच आता दोघे रहात. भद्रकालीत असलेले दुकान त्यांनी आता भाड्याने दिले होते. त्या पैशातून त्यांचा प्रपंच चालत होता. अदिती अधुनमधून थोडे पैसे देई. राहुलहि मीनुच्या नकळत पैसे देत होता. त्यांनाही त्यांचा संसार होता.. फ्लॅटचे हप्ते होते.. नीलचे शिक्षण होते. त्यांच्याकडून फार अपेक्षा करण्यात अर्थच नव्हता.
अदिती जिना चढून वर आली. जिन्याच्या फळ्या आता कधीही निसटतील अशा झाल्या होत्या. कठडे हलायला लागले होते.
“येगं.. आताच आई तुझी आठवण काढत होती” राजाभाऊ म्हणाले.
“कुठाय आई ?” तिने विचारले.
“येईल. खाली गेली आहे”.
अदितीने खोलीवर नजर टाकली. एका खोलीतील संसार. जुन्या लोखंडी टेबलवर गैसची शेगडी. त्याच्या बाजूला एक मांडणी. मांडणीवर भांडी मांडुन ठेवली होती. टेबलाच्या खाली काही डबे, ताट, वाट्या वगैरे. दुसऱ्या कोपऱ्यात लोखंडी पलंग. खरकट्या भांड्यांचा ढीग. त्याच्या वासाने अदितीला असह्य झाले.
“दादा मी एक सुचवायला आले आहे” अदिती म्हणाली.
“बोल. काय म्हणतेस?”
“तुम्हाला माहितच आहे.. इंदिरा नगरला आम्ही एक फ्लॅट घेऊन ठेवलाय.”
“मग?”
“तिथे तुम्ही रहायचं”
“अगं पण जावईबापु..?”
तेवढ्यात ललिताबाई वरती आल्या. धापा टाकीत बसून राहिल्या. राजाभाऊंनी त्यांना सांगितले.. अदिती हे असं असं म्हणतीय.
“नको गं बाई जावयाच्या घरात..”
“काही जावयाचे वगैरे म्हणू नका हं. तो फ्लॅट मी माझ्या पगारातून घेतलाय. त्याचा निर्णय मीच घेणार. आणि तसंही मी यांच्या कानावर घातले आहे”.
राजाभाऊंना काय बोलावे हेच कळेना. हो म्हणावे की नाही? त्यांना सुचेनासे झाले. स्वस्थ बसून राहिले.
“आणि आता ही खोली कधी खाली येईल याचा भरवसा नाही. आई अगं तुम्ही रहाता इथे.. पण आम्हाला रात्री झोप येत नाही. रात्री बेरात्री काही झालं… भिंत पडली तर कोण आहे इथे?पावसाळा तोंडावर आलाय. मी आता तुम्हाला या पडक्या वाड्यात राहु देणार नाही”.
“अगं पण…”
अदिती सगळं ठरवुनच आली होती. दुसऱ्याच दिवशी तिने टेंपो बोलावला. राहुलच्या कानावर पण घातलं. दोघा बहिण भावांनी सर्व सामान हलवले. आणि इंदिरा नगरच्या फ्लॅट मध्ये राजाभाऊ, ललिताबाईंचे नवीन आयुष्य सुरू झाले.
बाल्कनीत उभे होते राजाभाऊ विचार करत होते. आता इथे येऊन तीन वर्षे झाली होती. त्यांना इथली सवय होउन गेली होती. मोकळी जागा, भरपूर खेळती हवा. इथले आयुष्य त्यांना मानवले होते. अधुनमधून लेक जावयी, मुले सुना येत. नातवंडे सुटीत रहायला येत. शेजारच्या बिल्डिंग मध्ये योगा हॉल होता. तिथे सकाळी तासभर दोघे जात. संध्याकाळी ऊन उतरल्यावर दोघेजण गजानन महाराजांच्या मंदिरात जाऊन बसत. येताना भाजीबिजी घेऊन येत. सर्व व्यवस्थित चालले होते. पण…
…पण अलीकडे राजाभाऊंचे मन अस्वस्थ होऊ लागले होते. वारंवार मनात विचार येत. आपण या जागेत, म्हणजे मुलीच्या घरात रहाणे योग्य आहे का? सर्व आयुष्य स्वतःच्या घरात गेले, आणि आता अखेरीस या जागेत येऊन राहिलो. मनात तोच एक सल होता. आतल्या आत तगमग होई. हि बाब त्यांनी ललिताबाईंजवळ पण बोलुन दाखवली नव्हती.
तसं म्हटलं तर या विचारांना काही अर्थ नव्हता. त्यांच्याकडे दुसरा पर्याय पण नव्हता. मग आहे ते आयुष्य आनंदाने घालवायचे तर असला विचार का करत बसायचा? पटत होते त्यांना. पण डोक्यातील विचारही जात नव्हते.
आज त्यांचे लहानपणापासून चे मित्र.. चंदुकाका त्याच्याकडे आले होते. सहजच. त्यांच्याशी बोलताना राजाभाऊंनी मन मोकळे केले. मनातली व्यथा त्यांना सांगीतली.
“अरे,कसला विचार करत बसतोस राजा. मुलाची जागा.. मुलीची जागा. राहुलच्या घरी राहिला असता तर हे विचार आले असते का तुझ्या डोक्यात?का हा भेदभाव? उतार वयातील आयुष्य जरा मोकळ्या हवेशीर जागेत घालवायचे होते ना तुला? मग लेकीनेच केली ना तुझी इच्छा पूर्ण?
एकिकडे म्हणायचं.. मुलगा मुलगी भेद नको. अरे, खरं तर तु भाग्यवान. म्हातारपणात पोरं आईबापांची रवानगी वृध्दाश्रमात करतात. तुला इतकी सुंदर जागा घेऊन दिली लेकीने आणि तु दुःख करत बसतोस. म्हणे मुलगा वंशाचा दिवा…. मग मुलगी? अरे ती तर पणती ना. दिवाळीत लावतो ती. सगळा आसमंत उजळून टाकणारी. तिनेच तर तुझे हे जीवन उजळून टाकले आहे.”
बराच वेळ चंदुकाका बोलत होते. आणि तसं तसं राजाभाऊंच्या मनावर आलेलं मळभ दुर होत गेलं. त्यांना हलकं हलकं वाटु लागलं. प्रसन्नपणे त्यांनी ललिताबाईंना हाक मारली..
येस्स… मी इथेच काम करतो. ॲन्ड , आय ॲम प्राऊड ऑफ ईट.
फायनल ईयरला, कॅम्पस मधनं सिलेक्ट झालो. आता दोन वर्ष होत आलीयेत. खरंच.. कळलंच नाही, कधी दोन वर्ष संपलीयेत ती. आय.टी. ईन्डस्ट्रीत राहून सुद्धा, ही कंपनी टोटली वेगळीये. नो पाॅलीटीक्स. हेल्दी वर्क कल्चर. डेडलाईन्सचा अतिरेक नाही. कामाची कदर करणारी लोकं. चांगलं काम केलं की, पटाटा मिळणारी ईन्क्रीमेंटस्.
बाॅस… बाॅस वाटलाच नाही कधी. जस्ट लाईक एल्डर ब्रदर. चांगलं काम करवून घेणारा. चुकलात, धडपडलात, तरी पाठीशी ऊभा राहणारा. सांभाळून घेणारा. स्वतःहून काही चांगल्या टिप्स देणारा. पुढं कसं जायचं ? हार्ड वर्क पेक्षा, स्मार्ट वर्क कसं करायचं ? हातचं न राखता सांगायचा. एखादवेळी रात्र कंपनीत काढायची वेळ आलीच तर आमच्या जोडीला तोही थांबायचा.
प्रोजेक्ट सक्सेसफुली रन झाला की, सेलीब्रेशन. मनापासून. कुठंतरी महाबळेश्वर, नाहीतर लोणावळा, खंडाळा. टाॅपक्लास रिसाॅर्टमधे. सॅटरडे सन्डे. दोन दिवस फूल टू एन्जाॅय. पार्टीत आमच्याबरोबर धमाल नाचायचा सुद्धा. कूऽऽल. मन्डेपासून नव्या दमानं आम्ही नवा प्रोजेक्ट सुरू करायचो.
आमच्या ग्रुपमधे आम्ही चार पोरं आणि दोन पोरी. सगळी बॅचलर्स गँग. रूमवर टाईमपास करण्यापेक्षा, ऑफीस बरं. आम्ही जास्तीजास्त वेळ ऑफीसमधेच पडीक असायचो. खूप शिकायला मिळालं.
खरं सांगू ? मेसपेक्षा कंपनीचं कॅन्टीन बरं वाटायचं. आठवड्यातून तीनदा तरी रात्रीचं जेवण कंपनी कॅन्टीनमधेच व्हायचं. पोरींचं तसं नसायचं. सातच्या ठोक्याला त्या पळायच्या.
काहीही असो. आमचं वर्कोहोलीक असणं, बाॅसचं सगळ्यांना बरोबर घेऊन चालणं, त्याचा टॅलेन्ट, आमचं हार्डवर्क. प्रोजेक्ट डेडलाईनच्या आतच, कम्प्लीट व्हायचा. कंपनी खूष होती आमच्या टीमवर्कवर.
अचानकच. मन्डे ईव्हीनींग. बाॅस म्हणाला, “आज रात्री सगळे माझ्या घरी डिनरला या.” गेलो. ग्रुपमधल्या पोरीही होत्या.
आम्ही बैलासारख्या माना डोलावल्या. बुरा लगा. मनापासून वाईट वाटलं. आम्ही थोडं ईमोशनल झालेलो. बाॅसला हातात हात घेवून बेस्ट विशेस दिल्या. निघालो. खाली आलो.
म्रिनाल तिच्या गाडीपाशी. पोरींना ती ड्राॅप करणार होती. एकदम माझ्याकडे वळून म्हणाली. “तू त्याच एरियात राहतोस ना. चल, तुला ड्राॅप करते.”
पहिल्या दिवशीच तीनं सांगितलं. “काॅल मी म्रिनाल. जस्ट म्रिनाल.”
ती प्रचंड हुशार. तितकीच मेहनती. सतत नवीन काहीतरी शिकायच्या मागे. तीचं नाॅलेज नेहमी अपटू डेट असायचं. आमच्याबरोबरही ती ते शेअर करायची. हळूहळू आम्हालाही ती सवय लागली. शक्यतो कुणी ओव्हरटाईम करावा, असं तिला वाटत नसे. एरवीचा टाईमपास बंद झाला. सहा वाजेपर्यंत आमचं काम आवरायचं.
अर्थात पहिल्या बाॅसईतकीच ती हेल्पींग नेचरवाली. व्यवस्थित गाईड करायची. छोटी छोटी टारगेटस् ठेवायची. डे टू डे टार्गेट. आम्ही ते कम्प्लीट करायच्या मागे लागायचो. प्रोजेक्टचा लोड जाणवायचाच नाही.
बाकीचंही ती भरपूर वाचायची. एखादं चांगलं बेस्टसेलर रेफर करायची. आम्ही वाचायचो. फ्रेश वाटायचं.
ती स्वतः खूप हेल्थ काॅन्शस होती.
जिम करायची. भरपूर वाॅक घ्यायची. गिटार वाजवायची. स्वतःला फ्रेश ठेवायची.
आम्ही काय ? काॅपी पेस्ट करायला टपलेलोच. जागरणं कमी झाली. अचरट चरबट खाणं कमी झालं. जिम सुरू झाली. आम्हीही हेल्थ काॅन्शस झालो. ऑफिसमधल्या स्मोकींग झोनच्या वार्या कमी झाल्या. ओव्हरऑल, हळूहळू ॲज अ पर्सन आम्ही डेव्हलप होत गेलो.
म्रिनाॅल वाॅज स्ट्राँग मॅग्नेटिक फिल्ड. आणि … ऑल वुई वेअर अन्डर ईन्फ्ल्युएन्स ऑफ ईट. ती सुंदर होतीच. अजून सुंदर वाटायला लागली.
वाटायचं की, आपण स्वतःला तिच्यासारखं डेव्हलप करायला हवं.
म्रिनाल वाॅज नो मोअर अ ब्युटी क्वीन. बट नाऊ शी हॅज बिकम आयडाॅल. आणि आम्ही सगळे तिला काॅपी करत होतो. तरीही छान वाटत होतं.
प्रोजेक्ट संपत आलेला. यू. ऐस. चा क्लायंट. दिवाळी दोन दिवसावर. म्रिनालनं त्याला ठणकावून सांगितलं. “दिवाळीत जमणार नाही. तुम्ही ख्रिसमसला काम करता का ? हे तसंच आहे.”
काही क्वेरीज होत्या. आज रात्री थांबावंच लागणार. म्रिनाल म्हणाली , “सगळे नकोत, कुणीतरी दोघं थांबा.”
मी आणि गार्गी तयार झालो. संध्याकाळी सहाला बाकीची लोकं गेली.
हॅपी दिवाली. आमची नाईट शिफ्ट सुरू.
रात्रीचे दोन वाजत आलेले. मी म्रिनाल आणि गार्गी. तिकडे तो राॅबर्ट. चुन चुन के प्रत्येक क्वेरीचा फडशा पाडला. टेस्टेड ओके. मिशन कम्प्लीटेड.
खरं तर खूप भूक लागलेली. असं वाटेपर्यंत म्रिनालनं तिच्या टिफीनमधली सॅन्डविचेस काढली. और मोतीचूर का लड्डू भी. मजा आली.
आम्ही तिघं निघालो. खाली आलो तर, म्रिनालचा नवरा त्याची कार घेवून आलेला. त्याच्याशी ओळख करून दिली.
तिच्यासारखाच. हुशार, हॅन्डसम. बिलकुल फॅक्टर जे नाही वाटलं. शी रिअली डिझर्व्हस् ईट.
त्याच्या गाडीतून मी रूमपर्यंत. रूमवर पोचलो. रूमपार्टनरनं विचारलं.
“साल्या, तुझं कामात लक्ष कसं लागलं ?
एवढ्या सुंदर दोन पोरी शेजारी होत्या. मी पागल झालो असतो.”
मला त्याच्या पागलपणाची कीव वाटली. खरंच.. कामात इतकं हरवलेलो. त्यांचं बाईपण कधीच विसरलेलो.
म्रिनाल दोन एक वर्ष आमच्या इथे होती. आता बरीच वर्ष बंगलोरला.
गार्गी. माय कलीग ॲन्ड नाऊ माय वाईफ. आम्हाला नेहमी म्रिनालची आठवण येते. आज जे काही थोडं फार अचिव केलंय, क्रेडिट गोज टू म्रिनाल.
आजही कुठली यंग चार्मींग लेडी दिसली की, काय वाटतं सांगू ? ही म्रिनालसारखी हुशार असेल. ती भरपूर वाचत असेल. नाहीतर गिटार वाजवत असेल. ओव्हरऑल, तिच्या सुंदर दिसण्यापेक्षाही, ती खरंच जास्त सुंदर असेल.
माझी नजर सुधारलीय. सुंदर बाईमाणूस दिसली की हल्ली माझं त्यातल्या माणसाकडे जास्त लक्ष जातं. त्या स्वच्छ नजरेला बाईपणाचा मोतीबिंदू होत नाही.
परवा एकदम म्रिनालची आठवण झाली. आठ मार्च होता. फोन केला. आम्ही दोघंही बोललो. “हॅपी वुमन्स डे, म्रिनाल.”