हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # 3 ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

श्री यशोवर्धन पाठक

 

☆ कहाँ गए वे लोग # 3 ☆

डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री यशोवर्धन पाठक

(24.10.38- 27.02.24)

यादों में सुमित्र जी

आज जब मैं अपने अजातशत्रु अग्रज सुमित्र जी को शब्दों के माध्यम से अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूं तो मेरे मानस पटल पर  मेरी पांच दशक की साहित्यिक यात्रा की वे सारी मधुर स्मृतियां जीवंत हो उठीं हैं जो मेरे स्मृति कोष में अमूल्य धरोहर बन गई हैं। इस सुदीर्घ यात्रा में वे  हमेशा मेरा संबल बने रहे। संरक्षक, दिशा दर्शक और मार्ग दर्शक के ‌रूप में मुझे हमेशा अपने सिर पर उनका वरदहस्त होने का अहसास होता रहा। उन्होंने मुझे न तो कभी थकने दिया और रुकने दिया, निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते रहे। मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं नहीं है कि मैं अपनी पांच दशक की साहित्यिक यात्रा में आज जिस मुकाम पर पहुंच सका हूं, सुमित्रजी  के आशीर्वाद के बिना मैं उसकी  कल्पना भी नहीं कर सकता था। मेरे स्मृति कोष की किताब के हर पृष्ठ पर सुमित्रजी के अमिट हस्ताक्षर हैं।

सुमित्रजी मेरे पूज्य पिताजी स्व. पं.भगवती प्रसाद पाठक के बहुत बड़े प्रशंसक थे। पिताजी के साथ शिक्षा, साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्रों में पिताजी के योगदान ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था। कालांतर में स्थानीय नवीन दुनिया समाचार पत्र में साहित्य संपादक के रूप में सुमित्रजी ने मेरे अग्रज हर्षवर्धन, सर्वदमन और प्रियदर्शन जी के मार्गदर्शक सहयोगी की भूमिका का निर्वाह किया। इसी अवधि में मेरे जीवन में वह दुर्लभ क्षण आया जब मुझे उन्होंने जीवन भर के लिए अपने मोहपाश में जकड़ लिया। 1977 में अपने अनुजवत् मित्र  राजेश पाठक प्रवीण  के साथ मिलकर जब मैंने ‘उदित लेखक संघ’ संस्था की नींव रखी तो सुमित्रजी जी ही मुख्य परामर्शदाता और मार्गदर्शक थे। इस संस्था का प्रथम आयोजन स्थानीय जानकीरमण महाविद्यालय के सभागार में हुआ था जिसमें विशिष्ट अतिथि के रूप में हम लोगों ने स्व हरिकृष्ण त्रिपाठी और सुमित्रजी को आमंत्रित किया था। उस अविस्मरणीय  ऐतिहासिक आयोजन से ही राजेश पाठक प्रवीण ने कार्यक्रम संचालन के क्षेत्र में अपना पहला कदम रखा और आज एक कुशल संचालक के रूप में उनकी ख्याति इस महादेश की सीमाओं को भी पार कर चुकी है। राजेश पाठक का कुशल मंच संचालन आज हर साहित्यिक सांस्कृतिक आयोजन की सफलता की गारंटी बन चुका है। मेरे समान ही राजेश पाठक प्रवीण भी यह मानते हैं कि आज वे जिस मुकाम पर हैं वहां तक पहुंचने में सुमित्रजी का प्रोत्साहन और मार्गदर्शन हमेशा उनका संबल बना है।

सुमित्रजी तपस्वी, मनस्वी, यशस्वी साहित्यकार थे। उन्होंने चालीस से अधिक कालजयी कृतियों का सृजन किया। उन्हें उनकी सुदीर्घ साहित्य साधना के लिए देश विदेश में अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से विभूषित किया गया। संस्कारधानी के बहुसंख्य साहित्यकारों की कृतियों के लिए आशीर्वचन और भूमिकाएं लिखकर सुमित्रजी ने उन्हें गौरवान्वित किया। किसी भी पुस्तक के लिए सुमित्रजी की कलम से लिखी गई भूमिका उस पुस्तक पर सुमित्रजी की मुहर मानी जाती थी। सुमित्रजी की मुहर मतलब उस पुस्तक की सफलता की गारंटी। लगभग दो दशक पूर्व प्रकाशित मेरे प्रथम व्यंग्य संग्रह ‘ जांच पड़ताल ‘ की सफलता भी सुमित्रजी की मुहर ने पहले ही सुनिश्चित कर दी थी। सुमित्रजी लंबे समय तक हिंदी पत्रकारिता से जुड़े रहे। संस्कारधानी से प्रकाशित सांध्य दैनिक जयलोक के संपादक के रूप में सुमित्रजी ने हिंदी पत्रकारिता को नयी दिशा प्रदान की। जबलपुर जिला पत्रकार संघ में भी उन्होंने महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का  हुए कुशलता पूर्वक निर्वहन किया। वास्तविक अर्थों में सुमित्रजी अपने आप में एक संपूर्ण संस्था थे जिसके अंदर संवेदनशील कवि, विद्वान लेखक, सजग पत्रकार, शिक्षाविद, प्रखर वक्ता आदि सब एक साथ समाए हुए थे।

सुमित्रजी  सैकड़ों साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं के संरक्षण और मार्गदर्शक और नयी पीढ़ी के साहित्यकारों के लिए प्रेरणास्रोत  थे। संस्कारधानी में कला साहित्य की अनूठी संस्था पाथेय कला अकादमी के संस्थापक थे। सुमित्रजी साहित्य जगत का वट वृक्ष थे जिसकी शाखाएं दूर दूर तक फैली हुई थीं। उनका अपना एक युग था। सुमित्रजी के देहावसान ने उस युग का अवसान कर दिया है। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि सुमित्रजी साहित्य जगत में एक ऐसा शून्य छोड़कर  गए हैं  जिसे  सुमित्रजी ही पुनर्जन्म लेकर भर सकते हैं।

© श्री यशोवर्धन पाठक

संपर्क – डॉ. मिली गुहा हॉस्पिटल के पीछे, गुप्तेश्वर, जबलपुर, फोन – 0761-2341338, 9407059752

संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य- संस्मरण ☆ डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जी का 42 वर्ष पूर्व लिखित पत्र – मेरी धरोहर ☆ हेमन्त बावनकर ☆

डॉ राजकुमार तिवारी सुमित्र जी का 42 वर्ष पूर्व लिखा पत्र – मेरी धरोहर

इस ईमेल के युग में आज कोई किसी को पत्र नहीं लिखता। किन्तु, श्रद्धेय डॉ सुमित्र जी का वह हस्तलिखित प्रथम पत्र आज भी मेरे पास सुरक्षित है। यह साहित्यिक एवं प्रेरणादायी पत्र 42 वर्ष पूर्व गुरुतुल्य अग्रज का आशीर्वाद एवं मनोभावनात्मक सन्देश मेरी धरोहर है। इस पत्र के प्रत्येक शब्द मुझे सदैव प्रेरित करते हैं।

प्रिय भाई हेमन्त,

पत्र लिखना मुझे प्रिय है किन्तु बहुधा अपना यह प्रिय कार्य नहीं कर पाता और कितने ही परिजन रूठ जाते हैं। लोगों से मिलना और विविध विषयों पर बातें करना ही मेरी संजीवनी है किन्तु इस कार्य में भी व्यवधान आ जाता है। संत समागम हरि मिलन, तुलसी ने दुर्लभ बताए हैं। फिर भी जीवन को अनवरत यात्रा मानकर चलता जा रहा हूँ।

इस यात्रा में तुम्हारा नाम मिला, तुम मिले। सुख मिला। प्रभु की प्रेरणा ही थी कि तुम्हारे पिताश्री द्वारा मैंने मिलने का सन्देश पहुंचाया। एक कौतूहल था। तुमसे भेंट हुई प्रतीक्षा को पड़ाव मिला। तुम्हारा लेखन देखा पढ़ा लगा कि संभावनाएं अंकुरा रही हैं।

मुझे लगा कि तुम गद्य में लेख, व्यंग्य और कथा लिख सकते हो। छंदमुक्त कविता लिखने की  क्षमता भी तुममें है।  तुम्हारा लेखन पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि तुम नौसिखिये हो या कि हिन्दी तुम्हारी मातृभाषा नहीं है। यही लगता है कि तुम्हें भाषा का पर्याप्त ज्ञान है, लेखन का पर्याप्त अभ्यास है। ये तो ऊपरी बातें हैं सबसे बड़ी बात यह है कि संवेदना की शक्ति और जीवन की दृष्टि तुम्हारे पास है।

चुभता हुआ सत्य – एक श्रेष्ठ कथा है। सैनिक जीवन, सैनिक के पारिवारिक जीवन के अनछुए पक्ष को, पीड़ा को, तुमने संयमित ढंग से उद्घाटित किया है। कथा मन को गीला और मस्तिष्क को सचेत करती है।

सैनिक जीवन के विविध पक्षों का शब्दांकन करना देश और साहित्य के हित में होगा। संभव हो तो कथाओं के अतिरिक्त सैनिक जीवन पर उपन्यास भी लिखना चाहिए। एक दो उपन्यास कभी देखे पढे थे किन्तु वे काल्पनिक से थे।

एक सुझाव और देना चाहूँगा – ताकि तुम्हारी क्षमता का पूरा लाभ साहित्य को मिल सके – हिन्दी से अङ्ग्रेज़ी और अङ्ग्रेज़ी से हिन्दी रूपांतर पर भी ध्यान दो। यानि अन्य लेखकों की रचनाओं का रूपांतर। मराठी से भी काफी कुछ लिया दिया जा सकता है।

मेरा पूरा सहयोग तुम्हें प्राप्त होता रहेगा।

एक बात और – आलोचना प्रत्यालोचना के लिए न तो ठहरो, न उसकी परवाह करो। जो करना है करो, मूल्य है, मूल्यांकन होगा।

हमें परमहंस भी नहीं होना चाहिए कि हमें यश से क्या सरोकार।  हाँ उसके पीछे भागना नहीं है, बस।

हार्दिक स्नेह सहित

सुमित्र

13 जुलाई 1982

112, सराफा, जबलपुर

(यह एक संयोग ही है कि आज से 42 वर्ष पूर्व मेरी पहली कहानी चुभता हुआ सत्य” डॉ॰  राजकुमार तिवारी सुमित्र जी द्वारा दैनिक नवीन दुनिया, जबलपुर की साप्ताहिक पत्रिका तरंग के प्रवेशांक में 19 जुलाई 1982 को प्रकाशित हुई थी। यह कहानी मेरी उपन्यासिका का एक अंश मात्र थी जो अस्सी-नब्बे के दशक के परिपेक्ष्य में लिखी थी।)

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कविता ? ?

चलो,

कुछ न करें

और रचें एक कविता,

सुनो,

कुछ न करने से

क्या रची जा सकती है

एक कविता..?

भगीरथ के

अथक परिश्रम से

पृथ्वी पर उतरी थी गंगा;

साठ हजार कुदालों के

स्वेद-कणों से

धारा बन बही थी गंगा,

अनुभूति की निर्मल

भगीरथी जब

सरस्वती होती है;

कविता,

मन-मस्तिष्क से

काग़ज़ पर

अवतरित होती है,

कविता,

कर्मठता की उपज है,

कर्म, निरीक्षण

और चिंतन-मनन की समझ है,

तो फिर तुम्हीं कहो,

कुछ न करते हुए

कैसे रची जा सकती है

एक कविता..?

और हाँ,

बिना अनुभव के

कैसी पढ़ी और समझी

जा सकती है कविता..?

© संजय भारद्वाज  

(संध्या 7:10 बजे, दि. 2.6.2016)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 179 – “धुंध लपेटे शाल, उलहने…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  धुंध लपेटे शाल, उलहने...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 179 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “धुंध लपेटे शाल, उलहने...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

ऐसे कोहरे में ठिठुरन से

सूरज भी हारा

दिन के चढ़ते चढ़ते कैसे

लुढ़क गया पारा

 *

जमें दिखे गाण्डीव

सिकुड़ते सब्यसाचियों के

धुंध लपेटे शाल, उलहने

सहें चाचियों के

 *

चौराहे जलते अलाव भी

लगते बुझे बुझे

और घरों की खपरैलें

तक लगीं सर्वहारा

 *

हाथ सेंकने जुटीं

गाँव की वंकिम प्रतिभायें

जो विमर्श में जुटीं

लिये गम्भीर समस्यायें

 *

वृद्धायें लेकर बरोसियाँ

दरवाजे बैठीं

शांति पाठ के बाद पढ़

रहीं ज्यों कि कनकधारा

 *

लोग रजाई कम्बल

चेहरे तक लपेट निकले

लगें फूस से ढके फूल के

हों सुन्दर गमले

 *

आसमान से नीचे तक

है सुरमई अँधियारा

धुँधला सूरज दिखता

नभ में लगे एक तारा

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

03-01-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ – Enigmatic Illusion… – ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his awesome poem ~ Enigmatic Illusion… ~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.  

☆ Enigmatic Illusion… ?

Apparently, life itself is an illusion…

–more realistic than the existence…

–a reflection of enigmatic virtual mind…!

Exposing man’s frailty and weaknesses,

falling for the detrimental effects

of luring tenacity of the ever-tempting illusion,

For, illusion knows no bounds,

swallowing the inherent vulnerability of

the human sensory impulses,

especially, targeting one’s eyes..

But, must not, one should blame the illusion,

Man treading cautiously and attempting

to complete the earthly sojourn,

must have strike a balance between the

illusionary senses and the stark ground realities.!

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 300 ⇒ महात्मा और मोबाइल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “महात्मा और मोबाइल।)

?अभी अभी # 300 ⇒ महात्मा और मोबाइल? श्री प्रदीप शर्मा ?

आत्मा तो अदृश्य है, उसे किसने देखा है, लेकिन महात्मा को तो आप देख भी सकते हैं, और छू भी सकते हैं। अगर महात्मा का संधि विच्छेद किया जाए तो वह महान आत्मा हो जाता है। आत्मा छोटी और बड़ी भी होती है, हमें मालूम न था। एक महात्मा की आत्मा कितनी महान हो सकती है, हम तो सोच भी नहीं सकते।

ईश्वर तो खैर निरंजन, निराकार है, फिर भी सब उसे ही ढूंढ रहे हैं, जब कि ईश्वर तुल्य कई महान आत्माएं हमारे आसपास विचरण कर रही हैं, जिनमें से कुछ अगर आपको ईश्वर का पता बता सकती हैं, तो कुछ में हो सकता है, साक्षात ईश्वर ही विद्यमान हो।।

ऐसा माना जाता है कि एक महात्मा ईश्वर के अधिक करीब होता है और शायद इसीलिए हर जिज्ञासु और मुमुक्षु महात्मा द्वारा बताए मार्ग पर चलना चाहता है। इधर उसने ध्यान लगाया और उधर वह ईश्वर से जुड़ा। कवि की तरह भी वह कहीं आता जाता नहीं है, फिर भी उसकी पहुंच रवि से भी आगे तक रहती है।

एक संसारी अगर संसार में उलझा रहता है तो महात्मा ईश्वर द्वारा उसे प्रदत्त शुभ कार्य में। वह तो वीरान जंगल में रहकर भी सातों लोकों की यात्रा अपने ध्यान धारणा और समाधि के दौरान कर लेता है फिर भी जन जन के कल्याण के संकल्प के कारण उसे हम जैसे क्षुद्र संसारी जीवों के संपर्क में रहना पड़ता है और इसी कारण हमें अपने आसपास इतने मठ, आश्रम और महात्माओं की कुटियाएं नजर आती हैं।।

आप इन्हें ईश्वर के दूत कहें अथवा मैसेंजर, केवल हमारे आत्मिक उत्थान के लिए ही तो इन्होंने यह देह धारण की है। हम इतने पहुंचे हुए भी नहीं कि बिना आधुनिक संसाधनों के इन तक पहुंच भी पाएं। मजबूरन हमारी ही सुविधा के खातिर इन्हें भी आजकल गाड़ी घोड़े और मोबाइल जैसे माध्यमों से भी जुड़ना पड़ता है।

आप अगर अपने पुरुषार्थ अथवा सांसारिक कर्तव्य में अनवरत व्यस्त हैं, तो टीवी और सोशल मीडिया पर इनके कथा प्रवचन सुन सकते हैं, फोन से संपर्क कर इनके आश्रमों में सत्संग हेतु जा सकते हैं, दान अनुदान द्वारा इनकी सेवा कर पुण्य प्राप्त कर सकते हैं। ये आजकल इतने डिजिटल हो गए हैं कि चुटकियों में आप इनके बैंक खातों में अपनी सेवा भेंट ट्रांसफर कर सकते हैं।।

हर महात्मा का आजकल अपना आश्रम है, अपने शिष्य हैं और अपनी वेबसाइट है। दंड कमंडल के साथ, झोले में एक अदद मोबाइल आम है। साधु, संत और महात्मा का भेद तो कब का मिट चुका है।

प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी की तर्ज पर प्रभु जी हम शिष्य तुम स्वामी।

ईश्वर के नेटवर्क से हमारे मोबाइल का संपर्क कोई महात्मा ही करवा सकता है। भिक्षा, दीक्षा और दान दक्षिणा आजकल सब ऑनलाइन उपलब्ध है। आप भी ट्राई करें, किसी महात्मा का मोबाइल। हो सकता है, बात बन जाए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ भैय्या ले चल हमको… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता भैय्या ले चल हमको…’।)

☆ कविता – भैय्या ले चल हमको… ☆

भैय्या ले चल,हमको,

बाबुल की नगरिया में,

गोद में मां की बचपन बीता,

घर की गैल डगरिया में,

मां का आंचल छूटा जबसे,

तपते रहे दुपहरिया में,

भैय्या ले चल हमको,

बाबुल की नगरिया में,

सुख दुख हमने जहां बिताए,

काटे दिन और रतियाँ,

देर रात तक खत्म नहीं

होती थीं मां की बतियां

भैय्या ले चल,,,

सूना होगा घर का आंगन,

सूनी सब दीवारें,

सूनी सूनी आंखों से,

बाबुल राह निहारें,

भैया ले चल हमको,,

झूला आम की डार पे अब,

किसने डाला होगा,

कौन झूलता होगा उसमे,

कौन निराला होगा,

भैय्या ले चल हमको,,

गैय्या भी तो हार से आकर,

मुझको तकती होगी,

याद में मेरी,आंखों से

गंगा  बहती होगी,

भैय्या ले चल हमको,,

सावन आया,सारी सखियां,

मायके आई होंगी,

रचा के मेंहदी हाथों में सब,

बाट जोहती होंगी,

भैया ले चल हमको,,,,

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 167 ☆ # मधुमास # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# मधुमास  #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 167 ☆

☆ # मधुमास #

पतझड़ का मौसम बीत गया

रुत बसंत की आई है

भीनी भीनी मनमोहक सुगंध

संग संग लाई है

*

नई कोपलें फूट रही हैं

हर्षित मन को लूट रही हैं

नये नये परिधानों में सजकर

मेलों में तरूणाई जुट रही है

*

हर मन में नयी उमंग है

पुलकित सबके अंग अंग है

मादक बयार बह रही है

नयनों में लहराती नयी तरंग है

*

आम्रवृक्ष कैसे बौराये हैं

पीली पीली सरसों मन भाये है

पलाश के फूलों का सौंदर्य

जंगल में आग लगाये है

*

यह मौसम है राग रंग का

साजन-सजनी के संग का

प्रीत में डूबा यह मधुमास

है प्रणय में व्याकुल अंग अंग का

*

नये सपने, नयी आशाऐं

लेकर आया यह मधुमास

टूटे, जख्मी हुए दिलों में

जागी है जीने की आस

क्या पीड़ादायक पतझड़ की रुत

अब सचमुच बीत गई है ?

क्या उल्लासित बसंत बहार का

वाकई होगा अब एहसास ? /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्य के गुरू द्रोण : डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी – विनम्र श्रद्धांजलि ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🙏 💐 साहित्य के गुरू द्रोण : डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी – विनम्र श्रद्धांजलि 💐🙏

विगत दिवस ‘जबलपुर व्यंग्यम परिवार’ के सदस्यों द्वारा साहित्य के गुरु द्रोण डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र ” जी को भाव भीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गई।

जय नगर में आयोजित श्रद्धांजलि सभा में देश के ख्यातिलब्ध कथाकार एवं व्यंग्यकार डॉ. कुंदन सिंह परिहार ने श्री ‘सुमित्र’ जी के साथ बीते हुए समय को याद करते हुए कहा कि श्री सुमित्र जी के जाने से वह पीढ़ी समाप्त हो गई जो जबलपुर और देश प्रदेश के साहित्यकारों के व्यक्तिव और कृतित्व के इतिहास के साथ उन्होंने ख्याति लब्ध साहित्यकारों के साथ समय गुजारा था. सुमित्र जी ने नये लोगों को भरपूर प्रोत्साहन दिया और लेखकों की एक पीढ़ी तैयार की. सुमित्र जी का एक व्यंग्य संग्रह भी प्रकाशित हुआ, उन्होंने नयी पीढ़ी को व्यंग्य लिखने की प्रेरणा दी.

प्रसंगवश वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री अभिमन्यु जैन ने स्व. सुरेश सरल जी के संदर्भ में कहा कि जैसा उनका नाम है वे उतने ही सरल और सहज थे उन्होंने कहा जब व्यंग्य स्थापित होने के लिए संघर्ष कर रहा था एसे समय उन्होंने बहुत ही उत्कृष्ट व्यंग्य के साथ साथ व्यंग्य कॉलम भी लिखे.  उनके लिखे व्यंग्य से व्यंग्य लिखने वालों की एक पीढ़ी तैयार हुई.  उन्होंने महान जैन साधक संत पर विद्याधर से विद्यासागर नामक उपन्यास लिखा जिसकी पूरे देश में चर्चा हुई.  उन्होंने अनेक जैन साधु संत पर पुस्तकें लिखी हैं. स्व सुमित्र जी ने नयी पीढ़ी को व्यंग्य लिखने की प्रेरणा दी.

श्रद्धांजलि सभा – रविवार 3 मार्च 2.30 से 4.30 बजे आर्य समाज भवन, नेपियर टाउन जबलपुर 👉 https://www.youtube.com/live/MrWWSEmoTp0?si=Cd5YwOdmbjvJbCn6 

वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री यशोवर्धन पाठक जी ने कहा मैं उनके कारण ही लेखक बना. व्यंग्यकार पत्रकार श्री प्रतुल श्रीवास्तव जी ने उनकी सरलता की चर्चा करते हुये उनके व्यक्तित्व और समाज को दिय अवदान को रेखांकित किया. कवि व्यंग्यकार श्री सुरेश विचित्र जी एवं कहानी-व्यंग्यकार रमाकांत ताम्रकार ने उनके साथ अपने अपने अनुभव साझा किए.

इस अवसर पर संस्कार धानी के व्यंग्यकार एवं जैन मुनियों पर केंद्रित साहित्य की रचना करने वाले सुप्रसिध्द श्री सुरेश सरल जी, साहित्यकार, शिक्षाविद श्री गोकर्ण नाथ शुक्ल जी तथा समाजसेविका, शिक्षाविद श्रीमती अंजलि शुक्ला के निधन पर श्रद्धांजलि अर्पित की.  इस अवसर पर जबलपुर व्यंग्यम परिवार के सर्व श्री द्वारका गुप्त,  श्री यू एस दुबे,  श्री ओ. पी.  सैनी,  श्री दया शंकर मिश्रा उपस्थित थे.  संचालन देश के प्रसिद्ध कहानी और व्यंग्य लेखक श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने किया।

🙏 ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी को विनम्र श्रद्धांजलि 🙏

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मराठी माऊली… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मराठी माऊली☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

भाषा मराठी माऊली मला कृपेची सावली

तिने लडिवाळपणे प्रजा मराठी जपली

पूर्वजांनी लेखनाने तिची खूप सेवा केली

लाख मराठी मुखांनी सिंहगर्जना ही केली…

*

ज्ञाना, तुका, नामा, एका, तिच्या भजनी लागले

सरस्वतीच्या मंदिरी दिव्य ज्ञान साठवले

ज्ञानसाठा पुरवाया झाली संस्कृत जननी

अनुवाद करण्याने भव्य तिजोरी भरली…

*

तेज लेवून स्वतंत्र नांदू लागली मराठी

भाषा भगिनींच्यासंगे तिच्या झाल्या गाठीभेटी

प्रगतीच्या वाटेवर खूप केली घोडदौड

झाली संमृद्ध संपन्न सा-या जगाने पाहिली…

*

प्रादेशिक वळणाची तिची खुमारी वेगळी

लळाजिव्हाळा जपतं दीर्घ बनली साखळी

तिच्या सामर्थ्याची आता झाली आहे परिसिमा

ज्ञान मिळवत  तिने  भारी  भरारी घेतली …

*

अध्यात्माचे अंतरंग मराठीनेच खोलले

सर्व धर्म समभाव हेच तत्व जोपासले

नीतिशास्त्र सांगताना हाच मांडला आदर्श

लोकसाहित्याची धारा साध्या शब्दात मांडली…

*

ज्ञानशाखा आळवत केली स्वतंत्र निर्मिती

जागतिक आकांक्षांची केली सारी परिपूर्ती

सर्वांगीण विकासाचा ध्यास मनात जपत

जागतिक स्तरावर तोलामोलाने वाढली…

*

ग्रंथ निर्मिती कराया थोर साहित्यिक आले

त्यांना पदरी घेवून तिने आपले मानले

आता घेतलाय वसा स्वयंस्फूर्त कर्तृत्वाचा

त्याने मराठी बाण्याची गोडी सर्वत्र वाढली…

*

आपल्याच कर्तृत्वाचा जपू आपण वारसा

जगी ध्वज फडकवू माझ्या मराठी भाषेचा

एकसंध होवूनीया लावू सामर्थ्य पणाला

तेज दाखवाया घेवू हाती मराठी मशाली…

*

आहे अंगात सर्वांच्या एक बळ संचारले

माय मराठी म्हणून मन आहे भारावले

करू मानाचा मुजरा आज मराठी भाषेला

तिच्या वैभवाची स्वप्ने आम्ही मनी साकारली…

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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