English Literature – Poetry ☆ – Wish I could… – ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his awesome poem ~ Wish I could… ~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.  

Wish I could… ?

You always kept floating

in my teary eyes only,

Wish you’d dived deep into

my fathomless heart, too..!

*

Eversince I set course, my eyes

kept counting the milestones

Wish I had my sights fixated

on the destination, too..!

*

Oh! I’ve got these fragrant

flowers from a benefactor

Wish you had seen my bed

full of deadly thorns, too..!

*

I welcomed the bouquets

offered by my friends

Wish I could see the dagger

Hidden in the flowers, too..!

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 305 ⇒ मां की कविता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मां की कविता।)

?अभी अभी # 305 ⇒ मां की कविता? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मां पर कविता लिखना बड़ा आसान है, मां एक बहती हुई नदी है, जिसे लोग रेवा, नर्मदा अथवा गंगा, अलकनंदा और कालिंदी के नाम से भी जानते हैं। मां का उद्गम ममता से है। बच्चों का पालन पोषण करती, उनकी प्यार की प्यास बुझाती, आंसुओं को अपने में समेटे, सागर में जा मिलती है, जिससे सागर का जल भी खारा हो जाता है। मां का त्याग और समर्पण ही सीपी में सिमटा मोती है। सरिता का जल और मां के दूध में कोई फर्क नहीं, दोनों ही सृष्टि की जीवन रेखा हैं।

मैने मां का बचपन नहीं देखा, मेरा बचपन मां के साथ जरूर गुजरा है। काश, बुढ़ापा भी मां के साथ ही कटता, लेकिन फागुन के दिन चार रे, होली खेल मना ! जितना जीवन मां की छत्र छाया में गुजरा, वह फागुन ही था, जितनी होली होनी थी हो ली। अब होने को कुछ नहीं बचा।।

मां जब फुर्सत में होती थी, हम बच्चों को नदी की एक कविता

सुनाती थी, जो वह बचपन से सुनती चली आई थी। मां का सारा दर्द उस कविता में बयां हो जाता था। पूरी कविता मेरी प्यारी छोटी बहन रंजना के सौजन्य से प्राप्त हुई, जो उम्र में छोटी होते हुए भी, आज मुझे अपनी मां का अहसास दिलाती रहती है। मेरी मां एक तरफ, महिला दिवस एक तरफ।

आज बस, मां की कविता, मां स्वरूपा नदी को ही समर्पित ;

कहो कहाँ से आई हो,

गर्मी से घबराई हो,

आओ – आओ मेरे पास,

पानी पिओ बुझा ओ प्यास,

बैठो कुछ सुस्ता ओ तुम

अपना हाल सुनाओ तुम,

मुझसे सुन लो मेरा हाल,

देखो मेरी टेढ़ी चाल,

मुझे नदी सब कहते हैं,

दुःख – सुख मुझमें रहते हैं,

विन्ध्याचल में पैदा हुई,

पहले दुबली – -पतली रही,

गोद झील ने मुझको लिया,

उसने बड़ा सहारा दिया,

वहाँ बहुत दिन तक मैं रही,

बड़ी हुई तब आगे बढ़ी,

जब आयी प्यारी बरसात

कुछ मत पूछो मेरी बात,

उमड़ – घुमड़ बरसे घनघोर,

बेहद मुझमें आया जोर,

घर से निकली बाहर चली,

ऊंचे से नीचे को ढली,

धूमधाम से बहती चली,

गहरा शोर मचाती चली,

पेड़ बहुत से फूले फले,

झुक – झुक के मुझसे आ मिले,

अब मुश्किल है एक ही ओर,

पहले किया न उस पर ग़ौर,

वह भी तुम्हें सुनाती हूँ

आखिर मै पछताती हूँ,

अब समुद्र में गिरना है

नहीं वहाँ से फिरना है,

अब मिटता है मेरा नाम

अच्छा बहनों तुम्हें प्रणाम…

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 105 ☆ ।। मुक्तक।। – ।।माँ,बहन,बेटी,पत्नी नारी तेरे रूपअनेक।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 105 ☆

☆ ।। मुक्तक।। – ।।माँ,बहन,बेटी,पत्नी नारी तेरे रूपअनेक।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

माँ से ही सवेरा और माँ से ही होती    रात है।

माँ की ममता और प्यार अनमोल   सौगात है।।

माँ पास में तो खुशी है दुनिया जहान  की।

माँ स्पर्श सुखद मानो प्रथम किरण प्रभात है।।

[2]

बेटियाँ  हरदम माँ बाप पर प्यार लुटाती हैं।

बेटियाँ एक नहीं दो वंशों का उद्धार कराती हैं।।

नारी जगतजननी है वो सृष्टि की रचनाकार।

प्रभु का बन प्रतिरूप बेटी जग में आती है।।

[3]

हर रिश्ते के मूलआधार में बेटी होती है।

अपनों की खुशी लिएअपना सुख खोती है।।

दो घरों में बराबर प्यार बाँटती है हर बेटी।

त्याग मूरत बेटी हर दुख में पहले रोती है।।

[4]

नसीब वालों के आंगन में सुंदर बेटी दिखती है।

भाग्यवालों कोही जन्म में पुत्री मिलती है।।

ईश्वर का अवतारऔर उपहार होती हैं बेटियाँ।

किस्मत वालोंआंगन में यह कली खिलती है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 167 ☆ हे सदा शिव शंभु शंकर, दुखहरण मंगल करण ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक अप्रतिम रचना  – “हे सदा शिव शंभु शंकर, दुखहरण मंगल करण..। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘हे सदा शिव शंभु शंकर, दुखहरण मंगल करण ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 हे सदा शिव शंभु शंकर, दुखहरण मंगल करण

सुख, विभव, आनंद-दायक, शांतिप्रद प्रभु तवचरण।।

कामना तव कृपा की ले नाथ हम आये शरण

आशुतोष अपारदानी कीजिये सुख दुख हरण।।1।।

 *

हृदय की सब जानते हो भक्त के, भगवान तुम

तुम्हीं संरक्षक जगत के प्राणियों के प्राण तुम।।

विधि न मालूम अर्चना की भावना के हैं सुमन

नेह आलोकित हृदय है, धवल हिम सा शुद्ध मन।।2।।

 *

तमावृत हर पथ जगत का मोह के अंधियार से

बढ़ रहे हैं कष्ट नित नव स्वार्थ के विस्तार से।।

है भयावह रात काली, कहीं न दिखती है किरण

तव कृपा की कामना ले हैं बिछे पथ में नयन।।3।।

 *

दीजिये वर ‘’कल’’ बने सत्यं शिवं शुभ सुंदरम

मन में करूणा का उदय हो, क्लेश, प्रभु हो जायें कम।।

अश्रु- जल कर सके उठती द्वेष- लपटों का शमन

विनत तव चरणों में शंकर हमारा शत शत नमन।।4।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ महिला दिनानिमित्त… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी ☆

प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

? कवितेचा उत्सव ?

महिला दिनानिमित्त… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

अनेक नाती तुझ्यात गुंतती

कुंठित होते मती

नाही शोभा ह्या जगला नाही

कोणती गती

 

सुगंध जसा दरवळवा

भिजत जाते माती

भाव भावनांचा बांधून झुला

शब्द शब्द  पाझरती

 

सर्व काही सोडून  येशी

तृषार्थ त्या पणती

कळीची हे फुल होती

गंध बंध उमलती

 

तुझ्यामुळे शक्य सखे

जगात जीव जगती

प्रेम ज्योती रात तेवती

उजळीत त्या वाती

 

तुझे समर्पण ते मी पण

देहाचे तर्पण

चंदन काया झिजे संसारी

नसे कर्ते पण

 

ज्योत वात फुले फुलवात

 वारा तो स्नेहात

उजळे पणती तमोगुणाची

 सूर्य अन चंद्रात

© प्रो डॉ प्रवीण उर्फ जी आर जोशी

ज्येष्ठ कवी लेखक

8 मार्च 24

नसलापुर  बेळगाव

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ – बदललेली नाती…– ☆ सौ. अलका ओमप्रकाश माळी ☆

सौ. अलका ओमप्रकाश माळी

?  विविधा ?

☆ – बदललेली नाती…– ☆ सौ. अलका ओमप्रकाश माळी ☆

बदललेली नाती…नात्यांचं नवं स्वरूप

खरं तर मानवाची जसजशी प्रगती होत गेली तशी मनुष्य प्राणी समाजप्रिय प्राणी म्हणून ओळखला जाऊ लागला.. समाजव्यवस्था, कुटुंबव्यवस्था, नाती गोती हे मनुष्य जीवनाचे अविभाज्य घटक बनले.. रानावनात भटकणारा माणूस वस्ती करून राहू लागला.. वाड्या, वस्त्या, मग गावं, शहरं बनत गेली.. आई वडील, बहिण भाऊ, नवरा , बायको अशी कित्येक नाती जोडली गेली.. पण पूर्वी असलेली नाती प्रगती बरोबरच बदलत गेली.. पितृसत्ताक पद्धती मध्ये स्त्रियांना दुय्यम स्थान मिळत होत पण आज स्त्रियांनी स्वतःला अस सिद्ध केलंय की नात्यांच्या परिभाषा ही आपोआप बदलल्या..पूर्वी घरी वडिलधारी माणसं किंवा बाबा, काका ह्यांना घरात एक वेगळाच दर्जा होता.. त्यांचा धाक कुटुंबावर होता..घरात बाबांचे पाऊल पडताच अख्खं घर शांत होत होत.. अर्थात ती आदरयुक्त भिती होती अस म्हणू शकतो आपण.. हळुहळू कुटुंब व्यवस्था विभक्त होत गेली आणि हे चित्र बदललं..स्त्रिया ही बाहेर पडू लागल्या..मोकळा श्वास घेऊ लागल्या.. जीवनशैली बदलली..डोक्यावरचा पदर खांद्यावर आला,.. आणि पुन्हा एकदा नात्यांची परिभाषा बदलली.. नवऱ्याला हाक मारताना अहो.. जाऊन अरे आलं.. नावाने हाक मारण्याची पद्धत सुरू झाली..अहो बाबा चा अरे बाबा झाला.. नात्यांमधील भिती जाऊन ती जागा मोकळीक आणि स्वतंत्र विचारांनी घेतली.. जिथे तिथे मैत्री चा मुलामा लावून नवीन नाती बहरू लागली.. सासू सुनेचे नातं बदललं.. सुना लेकी झाल्या,.. नणंद भावजय मैत्रिणी.. दिर भाऊ.. जाऊ -बहिण.. अशी नाती जरी तीच असली तरी बघण्याचा दृष्टिकोन बदलला… अर्थात प्रत्येक नात्याचा आधार असतो तो म्हणजे विश्वास.. हा विश्वास डळमळीत झाला की नाती विद्रूप रूप घेतात.. विकृत बनतात..नात कसं असावं तर धरणी च आणि अवकाशाचे आहे तस.. मातीचं पावसाशी आहे तस.. निसर्ग आणि जीव सृष्टीच नात.. ज्यात फक्त देणं आहे.. त्याग आहे समर्पण आहे.. नात कसं असावं तर राधेचं कृष्णाचं होत तसं.. प्रेम, त्याग, समर्पण आणि दृढ विश्वास असलेलं.. नात मिरा माधव सारखं.. ज्यात फक्त त्याग आहे तरी ही प्रेमाने जोडलेलं बंध आहेत.. नातं राम लक्ष्मण सारखं असावं.. एकाने रडलं तर दुसऱ्याच्या डोळ्यात पाणी आणणारं.. नात भरत आणि रामा सारखं असावं जिथे बंधुप्रेम तर आहेच पण त्याग आणि समर्पण जास्त आहे..कुंती पुत्र कर्णा सारखं असावं..ज्यात फक्त हाल अपेष्टा, उपेक्षा असूनही निस्सीम प्रेम आणि त्यागाच प्रतीक असणारं.. नात्यांमध्ये प्रेम, विश्वास, मायेचा ओलावा, एकमेकांची काळजी घेण्याची वृत्ती, त्याग, समर्पण, निस्वार्थ असेल तर अशी नाती अजरामर बनतात.. हल्ली मात्र हे चित्र बदलत चाललं आहे.. सोशल मीडियाचा अती वापर.. प्रगतीच्या नावाखाली चाललेले अनेक घोटाळे.. ह्या सगळ्यात बाजी लागते आहे ती नात्यांची.. एकमेकांमध्ये स्पर्धा येणं.. आदर कमी होणं आणि जे नात आहे त्यापेक्षा दुसऱ्याची अपेक्षा लोभ मनात ठेवणं ह्याने नात्यांचं स्वरूपच बदलत  चाललं आहे .. सोशल मीडिया, इंटरनेट ह्या गोष्टींचा अती वापर आणि नात्यांमध्ये येणारा दुरावा  काळजी करण्यासरखा झाला आहे.. काही नाती फक्त समाजासाठी असतात.. फोटो पुरते किंवा असं म्हणू की व्हॉटसअप स्टेटस पुरती मर्यादित राहिलेली असतात.. त्या नात्यांमधल प्रेम विश्वास ह्याला कधीच सुरुंग लागलेला असतो… आणि ही परिस्थिती खरच विचार करायला लावणारी आहे.. शेवटी एवढच म्हणावंस वाटतं की कुठलं ही नातं असुदे ते नात समोरच्या व्यक्तीवर लादलेलं नसावं.. त्याच ओझ नसावं..नात्यांमध्ये स्वतंत्र विचार.. एकमेकांबद्दल आदर.. मायेचा ओलावा.. प्रेम.. आणि समोरच्याच्या चेहऱ्यावर सतत आनंद ठेवण्यासाठी चाललेली धडपड असेल तर कुठलेच नातं संपुष्टात येणार नाही.. कुठल्याच नात्याला तडा जाणार नाही… विश्वास हा नात्यांमधला मुख्य दुवा आहे.. आणि जिथे विश्वास, त्याग, समर्पणाची भावना आहे तिथे प्रत्येक नातं म्हणजे शरदाच चांदणं.. मोग-याचा बहर.. आणि मृद्गंधाचा सुगंधा सारखं निर्मळ आणि मोहक आहे ह्यात शंका नाही.. 

नात्यांचे रेशीम बंध असावेत..

बंधन, ओझ नसावं..

गुंतलीच कधी गाठ तर पटकन सैल होणारी असावी..

नात्यांचा बहर हा सिझनल नको..

तर बारमाही फुलणारा असावा…

नुसतच घेण्यात काय मिळवावं..

थोड कधी द्यायला ही शिकावं..

विश्वास आणि त्याग समर्पण

प्रत्येक नात्याच एक सुंदर दर्पण..

एकमेकांना दिलेला वेळ ही अमूल्य भेट आहे..

आदर आणि मायेने फुलणारं नात ग्रेट आहे..

नात्यात बसल्या जरी गाठी..

त्या सोडवण्याची कला ही असावी..

कधी नमत घेऊन तर कधी नमवण्याची ताकत ही असावी..

नातं जपणं एक फॉर्म्यालिटी नसावी..

हृदयातून हृदयापर्यंत पोचणारी मायेची हाक असावी..

नातं नको स्टेटस पुरतं जपलेलं..

नातं असुदे मनातून मनापर्यंत पोहचलेले…

© सौ. अलका ओमप्रकाश माळी

मोब. 8149121976

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘भान…’ – भाग – 2 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

?जीवनरंग ?

 ☆ ‘भान…’ – भाग – 2 ☆ श्री आनंदहरी 

(ऑफीसातले काम घरी घेऊन यावे तसे ती त्याच्या आठवणीची फाईल घरी घेऊन येऊ लागली होती. हातातली कामं झटपट आटपून ती त्या फाईलमध्ये डोके खुपसून बसू लागली होती.) – इथून पुढे. .

अचानक एका रविवारी स्वप्नील घरी आला. त्याला असं अचानक समोर पाहून ती गडबडली.

क्षणभर आनंद लपवावा कि गडबड लपवावी या संभ्रमात ती त्याला ‘ या ‘ म्हणायचं ही विसरली.

आतून दीपक येत असल्याची चाहूल लागली तशी ती सावरली आणि दारातून बाजूला होत ‘ या सर ‘ म्हणाली.

स्वप्नील सोफ्यावर विसावला तोच दीपक बाहेर आला. तिने दोघांची ओळख करून दिली आणि ती चहा करायला म्हणून, पण खरंतर स्वतःचं मन आवरा- सावरायला आत गेली. थोड्याच वेळात चहा घेऊन बाहेर आली तर त्या दोघांच्या गप्पा अगदी रंगात आल्या होत्या. सोनू स्वप्नीलच्या मांडीवर बसून त्याने आणलेला खाऊ खाण्यात गुंग झाला होता. तिला सोनूचं आश्चर्य वाटलंच पण त्याहीपेक्षा जास्त आश्चर्य स्वप्नीलचं वाटलं. काही क्षणातच तो संपूर्ण कुटुंबाचा मित्र झाला होता.

दीपक, स्वप्नील गप्पा मारत चहा घेत होते . ती तिथेच दीपकच्या शेजारी उभी होती. समोरच्या सोफ्यावर बसलेल्या स्वप्नीलची नजर अधून मधून आपल्याकडे वळतेय, क्षणभर खिळून राहतेय याची तिला जाणीव झाली होती. तिलाही स्वप्नीलला पाहत राहावे असे वाटत होते. ती पाहत ही होती. नजरेत नजर गुंतत होती.. तो शब्दांनी दीपकबरोबर बोलत होता पण सूचक नजरेने तिच्याशी बोलत होता.. तिच्या नजरेत नाराजी दिसली नाही याने तो सुखावला होता. चहा पिऊन निघताना त्याने दीपकला घरी यायचं आमंत्रण दिले.सोनूला आणि तिलाही तेच सांगितले.. तो निघून गेल्यानंतर कितीतरी वेळ ती त्याच्या नजरेतले अर्थ शोधत बसली होती… तिला उमजले होते तरीही..तिला ठाऊक होते तरीही.

ऑफिसमधले तांतडीचे काम पूर्ण करेपर्यंत तिला खूपच उशीर झाला होता. सारे ऑफिस तर केव्हाच रिकामे झाले होते .काही काळ तिला कामात मदत करून नंतर स्वप्नील काहीतरी दुसरे, त्याचे स्वतःचे काम करत होता. शिपाई त्यांचे काम संपायची आतुरतेने वाट पाहत होता कारण त्यांचं काम संपल्यावर ऑफिसला कुलूप लावून बरेच लांब असणाऱ्या त्याच्या घरी जायला त्याला उशीर होत होता. 

“ मॅडम, झालं काय तुमचं काम ? “

“ हो. संपले. आलेच मी पाच मिनिटात..” 

ती वॉशरूम कडे गेली.

“ सर, तुमचे?”

स्वप्नील ‘ झालेच’ म्हणत टेबलावरची फाईल कपाटात ठेवू लागला होता.

तिने टेबलाजवळ येऊन दीपकला कॉल केला आणि पर्स घेऊन बाहेर पडली. स्वप्नील दारातच उभा होता. दोघेही आपापल्या बाईक वरून  बोलत निघाले. तिच्या घराकडे वळण्याच्या वळणावर निरोप घेण्यासाठी तिने बाईक उभी केली. स्वतःची बाईक उभी करून तो तिच्या जवळ आला. हॅंडेलवरच्या हातावर घट्ट हात ठेवत तो  म्हणाला,

“ मला तू खूप आवडतेस .आय लव्ह यू . मला तू हवी आहेस. “

ती क्षणभर अवाक झाली, अगदी क्षणभरच.. पुढच्याच क्षणी ती जणू या क्षणाचीच आतुरतेने वाट पाहत असल्यासारखी आणि तो क्षण हातातून निसटून जाऊ नये असे वाटत असल्यासारखी ती झटकन म्हणाली,

“ मीही . मलाही तुम्ही हवे आहात..”

क्षणभर ती त्याच्या डोळ्यात पाहत राहिली आणि पुढच्याच क्षणी त्याला ‘ बाय ‘ म्हणून  निघून गेली. तिच्याकडून आलेल्या अपेक्षित उत्तराने सुखावलेला तो स्वतःच्या कानावर विश्वास नसल्यासारखा दिग्मूढ होऊन काही क्षण तिच्या पाठमोऱ्या आकृतीकडे, त्या गडद अंधारात फारसे काही दिसत नसतानाही तिच्या गाडीच्या दूर जाणाऱ्या टेललॅम्पकडे,तो दिसत होता तोवर पाहत राहिला आणि नंतर भानावर येऊन स्वतःची बाईक चालू करून घराकडे निघाला.

हे सारे तिला अपेक्षित आणि हवंहवंसं वाटत असले तरी ती षोडश वर्षीया असल्यासारखी तिचं काळीज धडधडत होतं. आपला श्वासोश्वास वाढलाय असे तिला वाटू लागलं. तिने घराच्या थोडं अलीकडे बाईक उभी केली. दीर्घ श्वास घेतला. उगाचच  चेहरा, गळा रुमालाने पुसला आणि स्वतःला सावरून घरात प्रवेश केला. दीपक, सोनू घरी आलेले होतेच.. त्या दोघांकडे न पाहताच गडबडीने टेबलवर पर्स टाकून ‘ आलेचं ‘ म्हणत वॉशरूम मध्ये शिरली.

मनात विचारांचे वादळ घोंघावत होते. कुठेतरी अपराधीपणाची भावना मधूनच वीज चमकावी तशी मनात चमकत होती आणि दुसऱ्याच क्षणी लुप्त ही होत होती. सोनू जवळ आला तरी तिच्या मनात तेच ते विचार येत होते.

“ कामामुळे डोके दुखतंय फार, मी जरा पडते..”

ती दीपकला म्हणाली आणि बेडरूम मध्ये गेली.

“ डोक्याला बाम लावून चोळून डोकं चोळून देऊ का? कि डोक्याला तेल लावून मसाज करू? जरा बरं वाटेल तुला .” 

काळजी वाटून दीपक आत येऊन म्हणाला पण तिला त्याक्षणी दीपकचा स्पर्शही नकोसा वाटत होता.

“ नको काहीच. पडते मी जरा, जरा पडले की वाटेल बरं . मग उठून कुकर लावते. “

“ पड तू. कुकर नको लावू, मी सोनूला घेऊन जातो आणि पार्सल घेऊन येतो. तुलाही विश्रांती मिळेल.”

दीपक सोनूला घेऊन बाहेर पडला. ती रिलॅक्स झाली. तिला त्या क्षणी त्याच्यापासून दूर असा एकांत, एकटेपणा हवासा वाटत होता. मनात स्वप्नीलचे विचार होते. त्याचा तो स्पर्श हवासा वाटत होता. त्याला फोन करावा, त्याच्याशी बोलावे वाटत होते. तिने कितीतरी वेळा कॉल करण्यासाठी मोबाईल हातात घेतला पण करू कि नको या संभ्रमात परत बाजूला ठेवला.

एक वेगळ्याच अस्वस्थतेनं तिला घेरले होतं .

मोबाईलवर मेसेजटोन वाजला. तिने आतुरतेने मोबाईल उचलला. तिच्या अपेक्षेप्रमाणे स्वप्नीलचाच मेसेज होता.

‘ थँक्स . खूप आठवण येतेय. खूप दिवस आतल्याआत अस्वस्थ होतो. बोलावं वाटत होतंच.

खूप मिस करतोय तुला. खरे सांगू ?.. तुला पाहिल्यापासून ,भेटल्यापासून मला दुसरे काहीच सुचेनासे झालंय.खरंच….’

तिने मेसेज वाचला , एकदा ,दोनदा, तीनदा,कितीतरी वेळा. रिप्लाय केला. ‘ मलाही. खूप खूप बोलावं वाटतंय. सेम हियर ’ आणि ती विचारात गढून गेली.

तिचं भावविश्व त्या क्षणापासून ढवळून निघाले होते. त्याआधी ती, दीपक आणि सोनू असेच आनंदविश्व होते तिचे. त्यात त्याचा,स्वप्नीलचा प्रवेश झाला होता.. त्या क्षणापासून की त्याआधीच कधीतरी चोरपावलांनी त्याचा प्रवेश तिच्या मनात झाला होता हे कदाचित तिलाही सांगता आले नसते. तिच्या मनात त्याच्याबद्दलच्या विचारांचा, आठवणींचा हिंदोळा झुलत राहायचा, कधी कधी तिच्याही नकळत … 

क्रमशः भाग दुसरा

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर जि. सांगली – मो  ८२७५१७८०९९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ll अथांगाचे गमभन…ll ☆ श्री मनोज मेहता ☆

श्री मनोज मेहता

? मनमंजुषेतून ?

ll अथांगाचे गमभन…ll ☆ श्री मनोज मेहता 

मला पक्कं आठवतंय मी ५वीत होतो आणि आमच्या बंगल्यात भावाने हौसेने गुलाबाची रोपे आणून कुंडीत लावली होती, कुंड्या  मी माझा मोठा भाऊ क्रांती व सख्खा शेजारी जिवलग मित्र पूनम दुर्वे त्यावेळेस धारावी कुंभारवाड्यातून येथून टेक्सिने दादर तिथून लोकलने आणल्याचे स्मरणात आहे, सुमारे ५०/६० कुंड्यात वेगवेगळी गुलाबाची रोपे लावली होती त्याला रोज पाणी घालणे, खत घालणे, पाने खुरडणे, कीड असल्यास ती टूथब्रशच्या साहाय्याने घासून काढून रोगोर नावाचे औषध फवारायचे,  ह्यात मी बघून बघून तरबेज होत नंतर मी हेच काम करायला लागलो अन डोळ्यावर फांदी कापायची. या सगळ्याची फळे मिळण्यास सुमारे ६ महिने गेले की, मग काय एकेदिवशी सकाळी बघतो तर आख्खी गच्ची गुलाबाच्या फुलांनी डवरून गेलेली, 🤗झपकन वाटावे आपण काश्मिरात तर नाही ना ! इतका आनंद आमच्या घरातील प्रत्येकाला झाला होता. बरं तोडायची नाहीत पाकळ्या गळून गेल्या की व्यवस्थित पाहून तो भाग कापायचा. ते पाहायला डोंबिवलीकर सेलिब्रेटी यायचे. असं एक महिना सुरू राहीलं की. आणि एके दिवशी चक्क लहानशा मुलीने भल्या पहाटे डेरिंग करून ती गच्चीतील फुले हातात येतील तेव्हडी तोडली व पळाली ना शेजारच्या प्रतिभा दुर्वे काकीने सांगितले म्हणून कळले तरी.

मग मी दोन दिवसांनी घरातील कोणालाही न सांगता पहाटे उठून ती फुले व्यवस्थित कापून पिशवीत भरली आणि सकाळी बरोब्बर ७ वाजता डोंबिवली पूर्वेला रेल्वे तिकीट घराजवळ उभा राहून ती अंदाजे दोनशे गुलाबाची फुल दोन तासात विकून अभिमानाने घरी आलो.

अर्थातच समाचार झालाच कुठे गेला होतास वगैरे वगैरे…  माझे ऐकल्यावर मोठ्या भावाचा तिळपापड झाला खूप आरडाओरडा तुला अक्कल नाही दीडशहाणा आहेस ढुंगण घुवायची अक्कल नाही असो…..

त्यादिवशीच संध्याकाळी वडिलांपर्यंत बातमी आली आणि पुन्हा घरातच न्यायालय ना. त्यातून माझे वडील म्हणजे कै. कैलासचंद्र मेहता नामवंत कामगार कायदा तज्ज्ञ.

खरं म्हणजे त्यावेळेस परमपूज्य पिताश्रींसमोर बोलायचे म्हणजे चड्डीतच सुसू व्हायची ना! पण धीर एकवटून मी का ही फुलं विकली हे सांगावे लागले आणि काय सांगू तुम्हाला न्यायालयाचा निकाल चक्क माझ्या बाजूने लागला. वडिलांनी सांगितले त्याने कोणताही गुन्हा केला नाही उलट स्वावलंबाने व धाडसाने ही फुल विकली एरव्ही रोज फुकट जाण्यापेक्षा ती कोणाला कामाला आली मनोजच्या या कामाला माझ्याकडून पूर्ण परवानगी आहे. अशा प्रकारे मी गुलाबाची फुलं अभिमानाने विकू लागलो अगदी २५ पैसे, ५०पैसे, ते चक्क १ रूपायालाही विकायचो. ही गोष्ट १९७० ची हं. म्हणजे माझ्या व्यवसायाची मुहूर्तमेढ रोवली गेली म्हणा ना. इतक्या लहानवयात लोकांशी आणि मुख्य म्हणजे बायकांशी कसे बोलावे याची रीतसर शिक्षणाची गुरुकिल्ली या मुक्तविद्यापीठातून शिकायला मिळाली. कोणतीही लज्जा न बाळगता ज्याच्या त्याच्या आवडीप्रमाणे काम करू द्यावे / करावे या मताशी आजही मी पक्का ठाम आहे. माझ्या दोन्ही मुली आज त्यांच्या आवडीच्या क्षेत्रात नाव कमवतात हे पाहून मन नक्कीच प्रफुल्लीत होते.

जसा गुलाबाचा मौसम तसे माझे मुक्त दुकान जोरात असायचे, नंतर माझ्या भावाला कळून चुकले की त्याने जे त्यावेळेस ५ हजार रुपये या गुलाबाच्या वेडापायी घातले होते ते मी मिळवून तर दिलेच पुन्हा व्याजही मिळू लागले. जितके मिळत होते ते सर्व सुपूर्द करून पुन्हा शाळा – अभ्यास – खेळ यात रमून जायचो. पण मला मात्र पैशाचा व्यवहार कधीच कळला नाही त्यामुळेच कदाचित मी आजही खूप सुखी आहे. थोडक्यात काय कोणतीही लाज न बाळगता आपल्या आवडीचे काम करा ते छोटे मोठे मी कसं करू लोकं काय म्हणतील याचा कधीही विचार करू नका. आपल्या मुलांना त्यांची आवड ओळखून मोकळीक द्यावी हे नक्की. आपल्या इच्छा मुलांवर लादू नये हे कळकळीचे सांगणे. मला कडक शिस्तीचे व माझ्यावर प्रेम करत नकळत संस्कार करणाऱ्या माझ्या वडिलांना भावाला माझा विनम्र प्रणाम व नमस्कार.💓🙏💓

(ही कथा आवडल्यास लेखकाच्या नावासह आणि कथेत कोणताही बदल न करता शेअर करण्यास हरकत नाही.)

© श्री मनोज मेहता

डोंबिवली  मो ९२२३४९५०४४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ ‘परीक्षा…’ ☆ सुश्री शांभवी मंगेश जोशी ☆

सुश्री शांभवी मंगेश जोशी

? इंद्रधनुष्य ?

☆ ‘‘परीक्षा…’ ☆ सुश्री शांभवी मंगेश जोशी 

दहाएक वर्षांपूर्वी सुप्रसिध्द सिनेदिग्दर्शक शेखर कपूर यांनी लिहिलेला एक ब्लॉग मला आठवतो. 

शेखर कपूर यांनी एक भारीतला ब्लॅकबेरी फोन अमेरिकेतून खरेदी केला होता आणि काही दिवसातच त्या ब्लॅकबेरी फोनचा काही तरी टेक्निकल लोच्या झाला. आता आली पंचाईत. त्या काळात ब्लॅकबेरीची सर्व्हिस सेंटर नव्हती. अनेक मोठया दुकानात शेखर कपूरने आपला फोन दाखवला पण सगळयांनी हात वर केले. हा फोन आता अमेरिकेला कुरियरने पाठवावा लागेल आणि दुरुस्ती करता कदाचित तीसेक हजार खर्च येईल, असा सल्ला काही हायफाय एसी मोबाईल सर्विस सेंटरने दिला. डायरेक्टर साहेब तर हादरुनच गेले. ब्लॅकबेरी घेण्याचा गाढवपणा केलाच आहे तर आणखी एक गाढवपणा करुया म्हणून एकेदिवशी त्यांनी आपली कार जुहू मार्केटच्या रस्त्यावरल्या एका टपरीवजा दुकानासमोर थांबवली.

दुकानावर अस्खलित इंग्रजीत “Cellphoon reapars” अशी पाटी लिहिली होती. तरीही धाडसाने शेखर कपूर दुकानाकडे आले. त्या कळकट दुकानात हाडकुळासा ११-१२ वर्षाचा पोर मळकट, फाटकी जीन्स आणि टीशर्ट घालून उभा होता. “ ब्लॅकबेरी ठीक कर पावोगे?,” कपूर साहेबांनी त्या पोराला अविश्वासाने विचारले. 

“ बिलकुल.. क्यों नहीं,” तो फाटका पोरगा आत्मविश्वासाने म्हणाला. तो ११-१२ वर्षाचा पोर आणि त्याचा १८-१९ वर्षाचा मोठा भाऊ या दोघांनी मिळून ब्लॅकबेरीचा खराब झालेला पार्ट बदलला आणि अवघ्या पाच सहा मिनिटात फोन ठीक करुन दिला. 

“ कितना देना है ?”

“पाचसो.”

आठवडाभर वाट पाहणे आणि तीस हजाराच्या तुलनेत ही फारच छोटी रक्कम होती. त्यांनी पटदिशी पाचशेची नोट त्या पोराच्या हातात ठेवली. शेखर कपूर आपला फोन घेऊन निघत असताना आपल्या विस्कटलेल्या केसांवर हात फिरवत तो पोरगा म्हणाला, “सरजी, ब्लॅकबेरी इस्तेमाल करना है तो हाथ साफसुथरे होने चाहिये. गंदे हाथसे इस्तेमाल करोगे तो ये प्रॉब्लेम आ सकता है.” ज्यानं कदाचित मागच्या पूर्ण आठवडाभर आंघोळ केली असावी की नसावी, असा संशय यावा, असा तो फाटका पोर कपूर साहेबांना सांगत होता.

शेखर कपूर लिहितात, “ही एवढीशी फाटकी पोरं जगातील कोणतंही आधुनिक तंत्रज्ञान अवगत कसं करतात ? मला त्यांच्या डोळयांत माझ्या देशाचं भविष्य दिसत होतं. या पोरांची ही क्षमता विकसित केली पाहिजे, मला जाणवलं. ‘साहेब फोन वापरण्यापूर्वी हात स्वच्छ धुत चला’, तो पोरगा पुन्हा एकदा म्हणाला. आणि मला माझे हात खरोखरच खूप अस्वच्छ वाटू लागले.” 

तुमच्या बरबटलेल्या हातांनी तुम्ही कसं नापास करणार या पोरांना?

 जगण्याच्या भरधाव रस्त्यावरली प्रत्येक परीक्षा ही पोरं लिलया पार करताहेत. या पोरांची कोणती परीक्षा घेणार तुम्ही? कोणत्या परीक्षेच्या तराजूत त्यांना तोलणार? 

मुळात बुध्दिमत्ता म्हणजे काय, हे आपल्याला तरी कुठं नीटसं कळलंय. 

दोन प्रकारच्या बुध्दिमत्तेपासून एकशे ऐंशी प्रकारच्या बुध्दिमत्तेपर्यंत मानसशास्त्रज्ञ चकरा मारताहेत. आता तर तुमच्या निव्वळ बुध्दयांकापेक्षा भावनिक बुध्दिमत्ता अधिक महत्वाचा आहे, हे सर्व मानसशास्त्रज्ञ सांगू लागले आहेत. म्हणजे तुमच्या कोणत्याही परीक्षेतील मार्कांपेक्षा तुमचं स्वतःवरील नियंत्रण, तुमची विश्वासार्हता, कर्तव्यनिष्ठा, लवचिकता आणि कल्पकता ही अधिक महत्वाची असते कारण या साऱ्यांची गोळाबेरीज म्हणजे तुमची भावनिक बुध्दिमत्ता आहे. मानवी बुध्दिमत्ता स्वतःला कोंडून घेत नाही,खडक फोडून वाहणाऱ्या झऱ्यासारखी ती स्वतःसाठी असंख्य रस्ते तयार करते, मल्टिपल ऑप्शन्स! आणि आपण लाखो रुपये खर्च करुन पोरांना महागडया शाळेत घालतोय, वर त्यांना तेवढ्याच महागडया टयुशन्स लावतोय. पण आपण त्यांचे हात मळू देत नाही, त्यांना या अनवट रस्त्यावरुन ऊन, वारा, पावसात बेडर होऊन चालू द्यायला नाही. आपल्याला पहिल्या प्रयत्नात सारं काही हवंय, आपण त्यांना चुकू देखील द्यायला तयार नाही म्हणून तर आपली पोरं चांगलं पॅकेज मिळवताहेत पण ती एडीसनच्या चुका करत नाहीत, त्यांच्या कुंडलीत ‘युरेका योग’ नाही. आपण त्यांचा नारायण नागबळी विधी केव्हाच उरकलाय.

मन, मनगट आणि मेंदूचं नातं आपण विसरुन गेलोय. ज्ञानाचा प्रत्येक क्षण, प्रत्येक कण हा साक्षात्कार असतो पण तो आपण पोरांना इस्टंट देऊ पाहतोय, आयता, शिजवलेला. पोरांना तो पचत नाही कारण तो त्यांनी शोधलेला नाही. लालासारखी पोरं, डाव्या हातचा मळ असावा तसं ब्लॅकबेरी काय आणि आणखी कोणता फोन काय, त्याचं मर्म आत्मसात करणारी पोरं, जगणं ‘ एक्सप्लोअर’ करताहेत, जगण्याला प्रत्यक्ष भिडताहेत म्हणून *त्यांच्यात भवतालाबद्दलची आंतरिक समज निर्माण होतेय. आम्हाला ती कळत नाही, हा या पोरांचा दोष नाही. त्यांना मोजायला आपल्याकडं माप नाही, आपली फूटपट्टी मोडून पडलीय आणि नापासाचे शिक्के आपण त्यांच्यावर मारतोय. त्यांना पुन्हा पुन्हा ‘ दहावी फ’ च्या वर्गात बसवतोय कारण आपली सगळी सो कॉल्ड मेरिटोरियस पोरं ‘अ’ तुकडीत बसलीत. हातात नापासाची मार्कलिस्ट घेऊन नाऊमेद झालेली ही सारी पोरं, हे सारे लाला, भीमा, जब्या, नौशाद, जॉर्ज सारे भांबावून गेलेत. परवा दहावीचा निकाल लागला तेव्हा या साऱ्यांसाठी मी फेसबुकवर लिहलं होतं –

“ कोणतंही बोर्ड, कोणतीही परीक्षा तुम्हाला तोपर्यंत नापास करु शकत नाही जोवर तुम्ही स्वतःला नापास करत नाही. परीक्षेच्या फुटपट्टीने मोजावे, एवढे तुम्ही किरकोळ नाही आहात 

दोस्तहो …तेव्हा सर्व सो कॉल्ड नापास लोक हो, चिल …एकदम चिल! खरी परीक्षा वेगळीच आहे, तिथले विषय पण एकदम हटके आहेत… खोटं वाटत असेल तर दहावी बारावीला गटांगळया खाणाऱ्या नागराज मंजुळे, सचिन तेंडुलकर वगैरे मंडळींना विचारा …तुम्हांला ही लै मोठी नावं वाटतील पण अशी मंडळी तुम्हांला प्रत्येक गल्लीबोळात भेटतील जी बोर्डाची परीक्षा नापास झाले पण खऱ्याखुऱ्या परीक्षेत बोर्डात आले …

तेव्हा त्या परीक्षेची तयारी करा …!”

© सौ. शांभवी मंगेश जोशी

संपर्क – सुमन फेज 4, धर्माधिकारी मळा, एस्सार पेट्रोल पंपामागे, सावेडी, अहमदनगर 414003

फोन नं. 9673268040, [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ ऐका गोष्ट बाराची… लेखक : अज्ञात ☆ संग्राहक – श्री माधव केळकर ☆

?  वाचताना वेचलेले  ? 

ऐका गोष्ट बाराची — लेखक : अज्ञात ☆ संग्राहक – श्री माधव केळकर ☆

12/12/12/12/12

बारा हा प्रिय अंक…

मोजण्यासाठी द्वादशमान

पध्दती…१२ची

फूट म्हणजे १२ इंच

एक डझन म्हणजे १२ नग.

वर्षाचे महिने १२,

नवग्रहांच्या राशी १२

गुरू,शनी, मंगळ हानिकारक समजले जातात….१२ वे

तप….१२ वर्षाचे,

गुरुगृही अध्ययन….१२ वर्षे

घड्याळात आकडे…..१२,

दिवसाचे तास …..१२,

रात्रीचे तास …..१२ ,

मध्यरात्र म्हणजे रात्रीचे..१२

मध्यान्ह म्हणजे दुपारचे..१२

एखादी गोष्ट तुटली फुटली म्हणजे तिचे वाजले….१२

सकाळच्या बाजारात उरला सुरला माल १२ च्या भावात काढतात..

पूर्वी मुलीचा विवाह १२ व्या वर्षी करत..

इंग्लंडमध्ये १२ पेन्सचा १ शिलिंग

बाळाचे नामकरण १२ व्या दिवशी केले जाते

मृत व्यक्तीचे धार्मिक विधीही १२ दिवसांचे..

बलुतेदार,बारभाई,बारावाटा…सगळे १२,

बेरकी माणूस म्हणजे

१२ गावचं पाणी प्यायलेला

तसेच कोणाचेही न ऐकणारी रगेल व रंगेल व्यक्तीला १२ चा आहे असे म्हणतात.

ज्योतिर्लिंग…..१२ आहेत,

कृष्ण जन्म….रात्री १२

राम जन्म दुपारी…१२ ,

मराठी भाषेत स्वर…१२

त्याला म्हणतात…बाराखडी

१२ गावचा मुखीया,

जमिनीचा उतारा ७/१२चा

इंजिनिअरींग, मेडीकल, किंवा ईतर कोर्सेससाठी १२ वी नंतर प्रवेश

खायापिया कुछ नही , गिलास फोडा बाराना

बारडोलीचा सत्याग्रह

पळून गेला ——पो’बारा’

पुन्हा पुन्हा ——-दो’बारा’

एक गाव, १२ भानगडी

लग्न वऱ्हाडी ——— ‘बारा’ती

१२ जुलै १९६१ ला पानशेत धरण फुटले होते

आणि एक राहिलेच … १२ म्हणजे ” आता जाऊ द्या ना घरी ” असे म्हणण्याची वेळ.

अशी आहे ही १२ चीं किमया….

सर्वात महत्त्वाचे…

*MH12 अर्थात ……पुणे………….

संग्राहक : श्री माधव केळकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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