(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – ऐसा भी सूखा-
रात के 2:37 का समय है। अलीगढ़ महोत्सव में कविता पाठ के सिलसिले में हाथरस सिटी स्टेशन पर कवि मित्र डॉ. राज बुंदेली के साथ उतरा हूँ। प्लेटफॉर्म लगभग सुनसान। टिकटघर के पास लगी बेंचों पर लगभग शनैः-शनैः 8-10 लोग एकत्रित हो गए हैं। आगे की कोई ट्रेन पकड़नी है उन्हें।
बाहर के वीराने में एक चक्कर लगाने का मन है ताकि कहीं चाय की कोई गुमटी दिख जाए। शीतलहर में चाय संजीवनी का काम करती है। मित्र बताते हैं कि बाहर खड़े साइकिल रिक्शावाले से पता चला है कि बाहर इस समय कोई दुकान या गुमटी खुली नहीं मिलेगी। तब भी नवोन्मेषी वृत्ति बाहर जाकर गुमटी तलाशने का मन बनाती है।
उठे कदम एकाएक ठिठक जाते हैं। सामने से एक वानर-राज आते दिख रहे हैं। टिकटघर की रेलिंग के पास दो रोटियाँ पड़ी हैं। उनकी निगाहें उस पर हैं। अपने फूडबैग की रक्षा अब सर्वोच्च प्राथमिकता है और गुमटी खोजी अभियान स्थगित करना पड़ा है।
देखता हूँ कि वानर के हाथ में रोटी है। पता नहीं ठंड का असर है या उनकी आयु हो चली है कि एक रोटी धीरे-धीरे खाने में उनको लगभग दस-बारह मिनट का समय लगा। थोड़े समय में सीटियाँ-सी बजने लगी और धमाचौकड़ी मचाते आठ-दस वानरों की टोली प्लेटफॉर्म के भीतर-बाहर खेलने लगी। स्टेशन स्वच्छ है तब भी एक बेंच के पास पड़े मूंगफली के छिलकों में से कुछ दाने वे तलाश ही लेते हैं। अधिकांश शिशु वानर हैं। एक मादा है जिसके पेट से टुकुर-टुकुर ताकता नन्हा वानर छिपा है।
विचार उठा कि हमने प्राणियों के स्वाभाविक वन-प्रांतर उनसे छीन लिए हैं। फलतः वे इस तरह का जीवन जीने को विवश हैं। प्रकृति समष्टिगत है। उसे व्यक्तिगत करने की कोशिश में मनुष्य जड़ों को ही काट रहा है। परिणाम सामने है, प्राकृतिक और भावात्मक दोनों स्तर पर हम सूखे का सामना कर रहे हैं।
अलबत्ता इस सूखे में हरियाली दिखी, हाथरस सिटी के इस स्टेशन की दीवारों पर उकेरी गई महाराष्ट्र की वारली या इसके सदृश्य पेंटिंग्स के रूप में। राजनीति और स्वार्थ कितना ही तोड़ें, साहित्य और कला निरंतर जोड़ते रहते हैं। यही विश्वास मुझे और मेरे जैसे मसिजीवियों को सृजन से जोड़े रखता है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)
We present his awesome poem ~ O’ Dear Moon… ~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मैं और मेरा अहं…“।)
अभी अभी # 272 ⇒ मैं और मेरा अहं… श्री प्रदीप शर्मा
मेरा मैं अ अनार से शुरू होता है और अस्मिता अहंकार पर जाकर खत्म होता है। यह मैं ही मेरा अहं है, कभी मीठा आम, कभी खट्टी इमली है, तो कभी जड़ से ही मीठी ईख। यह अहं कभी मेरा है, तो कभी उसका ! इसी अहं के कारण मैं कई बार उल्लू बना हूँ, औरत का एक अहंकारी मालिक बना हूँ, और जब भी अंगूर खट्टे दिखे हैं, एक साधारण इंसान दिखा हूँ। कहने को यह अहं मात्र एक स्वर है, लेकिन यह एक लालच है, भुलावा है, भटकाव है, ईश्वर का एक ऐसा प्रतिबंधित व्यंजन है, जिसे चखने में सुख ही सुख है।
जिसे हम हिंदी में, मैं कहते हैं, वह संस्कृत का अहं है। जिन्हें संस्कृत नहीं आती, उनका भी अहं इतना बढ़ जाता है कि वे स्वयं को अहं ब्रह्मास्मि मान बैठते हैं। भ्रम को ब्रह्म मानने की भूल अच्छे अच्छे लोग कर डालते हैं।।
मैं ही मेरा अस्तित्व है। बच्चा जब पैदा होता है तो उसकी मुट्ठी बंद होती है, क्योंकि उस समय पूरी दुनिया उसकी मुट्ठी में होती है। जैसे जैसे मुट्ठी खुलती जाती है, इस दुनिया का रहस्य भी खुलता जाता है। हर चीज बच्चे के लिए मेरी होती है। अगर उसने ज़िद करके चाँद की माँग कर दी, तो माँ एक थाली में ही सही, चाँद धरती पर लाने पर मजबूर हो जाती है। बाल हनुमान की तो पूछिये ही मत ! सूरज उनकी मुट्ठी में नहीं, सीधा मुँह में।
दुनिया मेरी मुट्ठी में ! आदमी बड़ा होता जाता है, मुट्ठी खोलता है, और सब कुछ समेटने में लग जाता है। उसे सब कुछ मेरा ही मेरा अच्छा लगने लगता है। मेरा घर, मेरी बीवी, मेरे बच्चे। मेरा जो भी है, तेरे से अच्छा है, बेहतर है, सुंदर है, तेरे से अधिक टिकाऊ है। मेरा-तेरा, तेरा-मेरा ही अहंकार और आसक्ति की जड़ है। यह जड़ ही उसे समझदार, बुद्धिमान और व्यावहारिक बनाती है। महत्वाकांक्षा के रथ पर सवार हो वह सफलता के मार्ग पर सरपट भागता है। स्वार्थ का चाबुक गति को और वेगमान बना देता है।।
सफलता का सोपान ही अहं की संतुष्टि और सफलता की प्राप्ति अहं की पराकाष्ठा है। मान-मर्यादा, पद लालसा, भौतिक उपलब्धि, और पद-प्रतिष्ठा अहं के पोषक-तत्व हैं, जिन्हें कृत्रिम सरलता, आडम्बर और बड़प्पन से अलंकृत अर्थात गार्निश किया जाता है।
यह अहं ही इंसान को ऊपर उठाता है, और फिर नीचे भी गिराता है। जब तक मनुष्य ऊँचाई पर रहता है, उसे गिरने का भय नहीं रहता। ऊँचाई की हवा और सुख में वह नीचे की सभी वस्तुओं और लोगों को भूल जाता है। जब उसका अहं ईश्वर की ऊंचाइयों को भी पार कर जाता है, तो उसका पतन का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। वह एकदम नीचे आ गिरता है। धरती उसे मुँह छुपाने नहीं देती और पाताल तक उसके चर्चे मशहूर हो जाते हैं।।
यह मैं एक मन भी है, चित्त भी है और बुद्धि और विवेक भी ! मुझ में ईश्वर है, इसकी प्रतीति ही चित्त-शुद्धि है। जिसका चित्त शुद्ध है, उसे केवल मुझ में ही नहीं, सब में उस ईश्वर के दर्शन होंगे। प्राणी-मात्र में ईश्वर-तत्व का आभास ही संतत्व है, ईश्वरत्व है।
निर्मल मन, जन सो मोहि पावा
मोहि कपट छल छिद्र न भावा
निर्मल मन ही वास्तविक मैं है
जहाँ छल कपट के लिए कोई
स्थान नहीं। जो राम जी के प्यारेहैं,
उनके हृदय में हमेशा राम ही विराजते हैं।
वहाँ अस्मिता, अहंकार और काम-क्रोध का प्रवेश वर्जित है।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता – “क्यों भागें अब लड़कियां”।)
☆ कविता – “क्यों भागें अब लड़कियां” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता ‘तिरंगे में लिपटे बेटे की माँ…’।)
☆ कविता – तिरंगे में लिपटे बेटे की माँ… ☆
देश की सीमा पर ,शहीद बेटे को, तिरंगे में लिपटा देख कर,मां की आखों से आंसू नहीं गिरते, वो एकटक अपने शहीद बेटे को तिरंगे में लिपटा देखती रहती है, मां की अभिव्यक्ति……
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# दिल और दिमाग#”)
हे आपल्याशी निगडित आहे. आपल्या मनाची ताकद खूप मोठी आहे हे आपण खूप वेळा ऐकतो. आता ती मिळवायची कशी? वाढवायची कशी?
हे बघू या.
एक असा सिद्धांत आहे, सृष्टीची निर्मिती झाली त्या वेळी ऊर्जा भरपूर होती. पण त्याला ठराविक आकार नव्हता. ज्यावेळी एकेक जीव निर्माण होऊ लागला त्यावेळी त्या ऊर्जेला आकार मिळाला.
ही ऊर्जाच प्रत्येकाला जिवंत ठेवते. आपण म्हणतो विज्ञान खूप प्रगत आहे. पण सगळ्याच गोष्टी त्यातून निर्माण होत नाहीत. जसे रक्त हे द्यावेच लागते. अशा काही गोष्टी शरीरच निर्माण करु शकते. एकच ऊर्जा प्रत्येकाला जिवंत ठेवते. हाच मोठा चमत्कार आहे. याला आपण विविध नावाने ओळखतो. देव, निसर्ग शक्ती, दैवी शक्ती, वैश्विक शक्ती या पैकी कोणतेही नाव देतो. या शक्ती मध्ये अफाट ताकद असते. याच ऊर्जेचा आपण एक अंश आहोत. जसे आपण घरात विविध उपकरणे वापरतो. फॅन,ट्यूब,मिक्सर पण या उपकरणांना एकच शक्ती चालवते ती म्हणजे वीज. याच प्रमाणे आपल्या सर्वांना एकच ऊर्जा चालवत असते.
ज्यावेळी आपण जन्माला येतो त्यावेळी त्या ऊर्जेच्या जवळ असतो.
याचा अनुभव आपण लहान मुलांमध्ये घेतो. पण आपण जसे मोठे होतो तसे विविध अनुभव, विकार, अहंकार या मुळे या ऊर्जे पासून दूर जातो. आपल्याला सर्वांनी ओळखावे, आपण सगळ्यात उठून दिसावे असे वाटते. त्या साठी खूप धडपड करतो. या मुळे त्या ऊर्जे पासून अधिकच दूर जातो. कारण माझे अस्तित्व नष्ट होईल की काय अशी भीती असते. मग त्यातून केविलवाणी धडपड सुरु होते. कधीकधी ती हास्यास्पद होते. हे का होते तर आपण व ही ऊर्जा यात अंतर पडते व स्वतःला सिद्ध करण्यातून ते अंतर वाढतच जाते.
आणि मनाला त्रास होतो. हे अंतर कमी झाले तरच ती ऊर्जा वाढते व कार्यक्षम होते. या साठी स्वतःचे निरिक्षण, परीक्षण करणे व स्वतःची क्षमता वाढवणे आवश्यक असते. या साठी आपण स्वतः बरोबर राहणे आवश्यक असते. या साठी सर्वात उत्तम उपाय मौन आहे. मौनात सुरुवातीला अनेक विचारांचे जणू युद्धच होते. पण हळूहळू ते शांत होते. आणि या शांत मनात जे सकारात्मक ऊर्जेचे तरंग उठतात ते जग व्यापून टाकतात. म्हणजेच आतील व बाहेरील ऊर्जा यातील अंतर कमी होऊ लागते.
हे अंतर कमी होणे या साठी मन शांत होणे आवश्यक असते. त्या साठी पुढील गोष्टी आपल्याला करायच्या आहेत.
१) दोन वेळा मेडिटेशन करणे
स्वतः बरोबर राहण्यासाठी विचारांना शांत करावे लागते त्या साठी मेडिटेशन आवश्यक आहे. सलग ४० दिवस रोज दोन वेळा मेडिटेशन केले तर मानसिक ताकद प्रचंड वाढते. आपल्या समस्या दूर होतात. आपल्याला सूचना ( इंट्युशन ) मिळतात. आपण निरोगी होतो.
२) निसर्गात जाऊन निसर्गाची प्रशंसा करणे. निसर्ग चमत्कार लक्षात घेणे.
आपण बऱ्याच गोष्टी जन्मापासून बघत असतो. जसे वारा, पाऊस, फुले, ऊन, सुगंध पण त्या कडे फार लक्ष देत नाही. हे सगळे जागरूकतेने बघावे. त्याचे कौतुक करावे. गवतावर चालावे, झाडाला मिठी मारावी, झऱ्यात नदीत वाहत असलेल्या पाण्यात पाय सोडावेत. ऊन अंगावर घ्यावे. वारा भरून घ्यावा. निसर्गाशी एकरूप व्हावे. यातून आपल्याला निसर्गशक्ती मिळते.
३) आज किमान तास कोणा विषयी पूर्वग्रह ठेवणार नाही.
आपण आपले अनुभव, इतरांनी केलेली वर्तणूक, देवाण घेवाण अशा अनेक कारणांनी प्रत्येकाला एक किंवा अनेक लेबल्स लावून टाकतो. त्या मुळे कोणतीही व्यक्ती, वस्तू, प्राणी किंवा कोणीही समोर आले तरी प्रथम आपण लावलेले लेबल समोर येते. हेच आपल्याला दूर ठेवायचे आहे. सर्वांकडे नवीन दृष्टीने बघायचे. भूतकाळ, त्यातील घटना, भूतकाळात घडलेले विसरून जायचे. आणि पुढे काय होईल या विचारला दूर ठेवायचे. जितके जास्त विचार तितक्या जास्त अडचणी. म्हणून सगळ्यांकडे त्रयस्थपणे बघायचे व वागायचे.
वरील तीन गोष्टींचा अवलंब करुन आपण आपल्यातील क्षमता वाढवू शकतो.
तरुण वयात, उमेदीच्या काळात स्वतःची महत्त्वाकांक्षा, इच्छाशक्ती आणि क्षमता यावर ठाम विश्वास असतो. अशावेळी काही भरीव कामगिरी, समाजोपयोगी काही मोठे कार्य करण्याची उर्मी असते. पण अशावेळी समाजातील नकारात्मक प्रवृत्तींचा विरोध, अडथळे यांचा सामनाही करावा लागतो. शेवटी स्वप्न अर्धवट सोडायची देखील वेळ येते. अशा काही चांगलं करू पाहणाऱ्यांचा संघर्ष डॉ. निशिकांत श्रोत्री यांनी ” आत्मविश्वास ” या त्यांच्या कवितेत मांडला आहे. आज आपण या कवितेचा रसास्वाद घेणार आहोत
मुक्तछंदातील प्रथम पुरुषी एकवचनातील ही कविता पूर्ण रूपकात्मक आहे. अतिशय कर्तबगार, महत्त्वाकांक्षी तरुणासाठी रंगीबेरंगी पिसांच्या देखण्या पक्षाचे रूपक योजले आहे. त्या पक्षाच्या वर्णनातून त्या महत्वाकांक्षी तरूणाचे यथार्थ वर्णन केलेले आहे. पक्षी मोठ्या अभिमानाने आपली डौलदार मान वळवून आपल्या रंगीत पिसांकडे पहातो. त्यांच्या बळकटपणाचे त्याला फार कौतुक वाटते. आपल्या पिसांचा त्याला फार अभिमान वाटतो.
तसाच कवी तरुण सळसळत्या उत्साहाचा आहे. चांगले शिक्षण घेतले. मनात जबरदस्त इच्छाशक्ती आहे. आपल्या क्षमतांवर विश्वास असणारा तो ‘काय करू आणि काय नको ‘ अशी त्याची अवस्था आहे. त्याच्या वागण्या बोलण्यात आपल्या प्राविण्याने, क्षमतांमुळे एक प्रकारचा रुबाब दौल आहे. त्याच्या कृतीतून ती ऐट, अभिमान डोकावतो हे डौलदार मान वळवणे या शब्दातून व्यक्त होते. असा तो आपल्याशी भरभरून बोलतो आहे.
झेपावलो… विस्तीर्ण आकाशी
विसंबून त्या पंखांच्या बळावर
मनात आकांक्षा
विजिगीषु गगनभरारीची….
… ब्रम्हांडाला याची गवसणी घालायची
कवीने विस्तीर्ण आकाशात झेप घेतली. त्याला आपल्या क्षमतांवर, कार्यकर्तृत्वावर अतूट विश्वास होता. त्यांच्या भरवशावरच त्यांनी या ब्रम्हांडाला गवसणी घालण्यासाठी, कोणत्याही परिस्थितीत जग जिंकण्याच्या जबरदस्त महत्वाकांक्षेने गगनभरारी घेतली. सर्वसमावेशक असे काहीतरी मोठे भव्यदिव्य करण्याचे त्याचे ध्येय होते. त्यासाठी त्याने ही झेप घेतली होती.
घेताना वेध शब्दजाचा
जाणवली त्याची अथांगता
अन् तरीही असहायता ?
क्षितिजाला गवसणी घालून
आपल्या कवेत सामावण्याच्या
एका केविलवाण्या प्रयत्नाची
गगनभरारी तर घेतली खरी पण या विस्तीर्ण आकाशाची अथांगता अनुभवल्यावर अवघे क्षितिज आपल्या कवेत घेण्याचे प्रयत्न केविलवाणे वाटू लागले आणि असहाय्यता जाणवू लागली.
कवीच्या मनाने सर्वांच्या उद्धारासाठी काहीतरी मोठे समाजकार्य करण्याचे ठरवून मनाने भरारी घेतली होती. पण त्याची विस्तीर्ण कार्यकक्षा, त्यासाठी करावे लागणारे प्रचंड कार्य, नियोजन यांचा आवाका बघून कवीला थोडी असहाय्यता जाणवू लागली. त्यासाठी आपले प्रयत्न अपुरे पडतील का असेही वाटू लागले.
हबकलो क्षणभर
नजरेच्या कवेपेक्षाही विस्तीर्ण
जीवनाच्या दर्शनाने
तरी आत्मविश्वास मात्र
आशेची कास धरून होता
पंखांमधल्या ताकतीची…
….. त्यांच्यावरच्या अभेद्य कवचाची
आपल्या दृष्टीच्या आवाक्यापेक्षाही विस्तीर्ण अंतरिक्ष म्हणजेच आपले अफाट कार्यक्षेत्र पाहून कवी थबकलाच. पण क्षणभरच. आपल्याला हे कार्य जमेल की नाही असेही क्षणभर त्याला वाटले. पण तेही क्षणभरच. कारण त्याचा आपल्या कर्तृत्वावर, क्षमतांवर, निर्णयावर गाढ विश्वास होता. त्यामुळेच हे कार्य आपण निश्चितपणे करू शकू ही ठाम आशा तो मनात बाळगून होता.
क्षण आला वज्रासारखा
निष्ठूरपणे भेदून टाकायला जेव्हा
मनाचाच आत्मविश्वास
साहजिकच नजर वळली
पंखांकडे, पिसांकडे
अन त्या अभेद्य कवचाकडे
पकडून ठेवायला निसटणारा आत्मविश्वास
कुणीही आपल्या स्वतःसाठी, कुटुंबासाठी काही वेगळे करत असेल तर त्याचे कुणाला सोयरसुतक नसते. पण तो जर दुसऱ्यांसाठी, समाजासाठी काही उदात्त हेतूने चांगले कार्य करू पहात असेल तर मात्र काही विघ्नसंतोषी माणसे त्याच्या मार्गात आडवी येतात. त्याला यश मिळू नये म्हणून ते छुपी कारस्थाने करून त्याच्या मार्गात अडथळे निर्माण करतात. तो स्वतःच मनाने खचून हे कार्य थांबवेल असे त्यांना वाटत असते. त्यासाठी आत्मविश्वास ढळेल अशी परिस्थिती ते निर्माण करतात .पण आपला आत्मविश्वास शाबूत ठेवण्यासाठी तो आपल्या क्षमता, मनोनिग्रह, आपले नियोजन यासर्व गोष्टी पुन्हा पुन्हा पडताळून पहातो आणि आपल्या मार्गावर चालायचा प्रयत्न करतो.
मात्र जेव्हा का दिसले ते काळे ढग
त्याच्यावर स्वार
भेदक सौदामिनी
अन त्यावर बसून
खवटपणे वेडावणारे
खत्रुड डोमकावळे
तेव्हा मात्र धास्तावलो
जेव्हा त्याने पाहिले, आपल्या विरुद्ध समाजातील नकारात्मक प्रवृत्तींनी डोके वर काढले आहे. अशा नकारात्मक प्रवृत्तींना खतपाणी घालून त्यांचे उदात्तीकरण करण्याचा कुटील उद्योग काहीजण करत आहेत. अशी माणसे स्वतःचे महत्त्व शाबूत ठेवण्यासाठी आणि समाज एकत्र येऊ नये म्हणून काहीही करून समाजात फूट पाडत आहेत. चांगल्याच्या पायात खोडा घालणे हाच त्यांचा उद्देश बघून तो धास्तावून गेला.
इथे काळे ढग म्हणजे समाजातील या नकारात्मक प्रवृत्ती, त्यांचे झगमगते उदातीकरण म्हणजे भेदक सौदामिनी आणि आपले समाजातले महत्त्व, ताकद कमी होऊ नये म्हणून कुठल्याही गैरमार्गाचा बिनधास्त वापर करणारे आपमतलबी लोक म्हणजे डोमकावळे या रूपकांमधून कवीने समाजातील या दुष्प्रवृत्तींचे अचूक वर्णन केलेले आहे.
विश्वास सारा
कर्तव्याच्या पंखांचा
कर्मांच्या पिसांत
आणि संस्कारांच्या कवचात
पण हे सगळंच
ठिसूळ ठरतंय
डोमकावळ्यांना मिळालेल्या
विचित्र भेसूर वरदहस्तानं
………. जाणवलं……….
मग मात्र ढेपाळलो
पंखातील शक्ती ढासळू लागली
आता भीती एकच
आत्मविश्वासाला तडा गेलेले
संस्काराच्या कवचाचे पंख
सुरक्षित नेतील का
परत घरट्यात तरी ?
कवी धास्तावला होता. तरीही त्याचा स्वतःच्या कार्यकर्तृत्वावरचा, स्वतःवरील संस्कारांवरचा विश्वास ठाम होता. पण जेव्हा कवीने हे पाहिले की, ‘ जे आपमतलबी लोक असे अडथळे आणत आहेत, लोकआंदोलन घडवून आणत आहेत त्यांना विरोध करायचं सोडून लोक त्यांनाच पाठिंबा देत आहेत आणि ज्यांच्यासाठी कवी चांगले उदात्त काही करू पाहतोय त्यालाच त्यांचा पाठिंबा मिळत नाही. त्या विरुद्ध काही केले तरी आपली ताकद कमी पडते आहे,’ तेव्हा मात्र त्याचा आत्मविश्वास पूर्ण ढेपाळला.
या सर्व नकारात्मक प्रवाहात आपण वहावत तर जाणार नाही ना कुठे, अनवधानाने प्रलोभनांना बळी तर पडणार नाही ना अशी त्याला आता वेगळीच भीती वाटू लागली. आपली तत्त्वे, आपले संस्कार यांच्या आधाराने आपण घरात तरी सुरक्षित राहू शकू की नाही अशी शंका सतावू लागली.
एखादा वेगळा उद्योग सुरू करून जम बसवलाय, चांगली संस्था सुरू केलीय अन् ती लोकप्रिय होतेय असे पाहिले की त्याला पुरते नेस्तनाबूत करण्यासाठी काही विघ्नसंतोषी माणसे कशी खोडा घालतात, त्यांच्याविरुद्ध लोकांना भडकवतात अशी उदाहरणे आपण समाजात नेहमी बघत असतो. आपल्या चांगल्या कामामुळे काही लोक यशस्वी होतात, समाज मान्यता मिळवतात हे अशा काही जणांना खटकते आणि ते त्यांना बदनाम करून त्यांच्या कामात विघ्न आणून स्वतः समाजात मोठे होतात. सतत आपले वर्चस्व कायम राखण्याचा प्रयत्न करतात.
या कवितेत रुबाबदार देखणा पक्षी म्हणजे तो ध्येयासक्त, महत्वाकांक्षी तरूण, काळे ढग म्हणजे नकारात्मक प्रवृत्ती, त्या प्रवृत्तींचे उदात्तीकरण म्हणजे भेदक सौदामिनी, समाजातले आपले महत्त्व, ताकद कमी होऊ नये म्हणून कुठल्याही गैरमार्गाचा अवलंब करणारे आपमतलबी लोक म्हणजे हे डोमकावळे या रूपकांमुळे कवीची भूमिका अचूक आणि स्पष्टपणे विशद होते.
अभेद्य म्हणजे भेदण्यास कठीण असे कवच, विजिगीषु गगनभरारी म्हणजे कोणत्याही परिस्थितीत विजयी होणार या विश्वासाने घेतलेली झेप, ब्रम्हांडाला क्षितिजाला गवसणी म्हणजे अतिशय अशक्य गोष्ट करायला धावाधाव करणे, शब्दज म्हणजे आकाश, अथांगता, व्योम म्हणजे अंतरिक्ष, वज्र म्हणजे कठोर, भेदक सौदामिनी, खत्रूड म्हणजे कृश मरतुकडे डोमकावळे यासारखे आशयघन अनोखे शब्द अचूक वापरल्याने कवितेला एक छान शब्दवैभव प्राप्त झालेले आहे. अशा रीतीने समाजोध्दार किंवा चांगली समाजसेवा करू पहाणारा आणि समाजविघातक प्रवृत्ती यांच्यातल्या संघर्षाची कहाणी डॉ. निशिकांत श्रोत्री यांनी ‘आत्मविश्वास’ या कवितेत अतिशय परिणामकारकपणे सांगितलेली आहे.