(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – तुम न होते तो, हम किधर जाते…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 39 – तुम न होते तो, हम किधर जाते… ☆ आचार्य भगवत दुबे
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हृदय और आत्मा…“।)
अभी अभी # 273 ⇒ हृदय और आत्मा… श्री प्रदीप शर्मा
Heart and Soul
यह तो सभी जानते हैं कि सभी प्राणियों में एक आत्मा होती है, जिसमें परमात्मा का वास होता है। हमारा क्या है, हम तो जो नहीं जानते, उसको भी मान लेते हैं। अच्छी बातों पर समझदार लोग व्यर्थ बहस और तर्क वितर्क नहीं किया करते।
लेकिन हमारी आत्मा तो यह कहती है भाई जो आपको स्पष्ट दिखाई दे रहा है, पहले उसको मानो और हमारा हृदय भी इससे सहमत है। इसलिए सबसे पहले हम रूह की नहीं, दिल की बात करेंगे। दिल और हृदय दोनों में कोई खास अंतर नहीं।
दिल में हमारे प्यार और मोहब्बत होती है और हृदय में प्रभु के लिए प्रेम। जो दिल विल और प्यार व्यार में विश्वास नहीं करते, वे फिर भी अपने हृदय में मौजूद प्रेम से इंकार नहीं कर सकते।।
धड़का तो होगा दिल, किया जब तुमने होगा प्यार। आप प्यार करें अथवा ना करें, दिल का तो काम ही धड़कना है, जिससे यह साबित होता है, कि दिल अथवा हृदय का हमारे शरीर में अस्तित्व है।
दिल के तो सौदे भी होते हैं। दिल टूटता भी है और दुखता भी है। दिल के मरीज भी होते हैं और दिल का इलाज भी होता है। दिल के डॉक्टर को ह्रदय रोग विशेषज्ञ, heart specialist अथवा कार्डियोलॉजिस्ट भी कहते हैं।।
आत्मा हमारे शरीर में विराजमान है, लेकिन दिखाई नहीं देती। जो अत्याधुनिक मशीनें शरीर की सूक्ष्म से सूक्ष्मतम बीमारियों का पता लगा लेती है, वह एक आत्मा को नहीं ढूंढ निकाल सकती।
आत्मा विज्ञान का नहीं, परा विज्ञान का विषय है।
लेकिन विज्ञान से भी सूक्ष्म हमारी चेतना है जो हर पल हमारी आत्मा को अपने अंदर ही महसूस करती है। हमारी आत्मा जानती है, हम गलतबयानी नहीं कर रहे।
हमारा हृदय कितना भी विशाल हो, इस स्वार्थी जगत में घात और प्रतिघात से कौन बच पाया है। इधर हृदयाघात हुआ और उधर एंजियोग्राफी, एंजियोप्लास्टी अथवा बायपास सर्जरी। लेकिन आत्मा के साथ ऐसा कुछ नहीं होता। जो नजर ही नहीं आ रही, उसकी कैसी चीर फाड़। नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि।।
लेकिन जहां चित्त शुद्ध होता है, वहां हृदय में रोग और विकार का नहीं, परमात्मा का वास होता है। हमने भी अपने हृदय में किसी की मूरत बसा रखी है, बस गर्दन झुकाते हैं और देख लेते हैं। लेकिन हमारी स्थिति फिर भी राम दूत हनुमान के समान नहीं।
लंका विजय के पश्चात् जब राम, लखन और माता सीता अयोध्या पधारे तो सीताजी ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को मोतियों का हार भेंट किया। कण कण में अपने आराध्य प्रभु श्रीराम के दर्शन करने वाले बजरंग बली ने मोतियों के हार को भी उलट पलट कर और तोड़ मरोड़कर अपने आराध्य के दर्शन करना चाहे लेकिन जब सफल नहीं हुए, तो उन्होंने माला फेंक दी। जिसमें मेरे प्रभु श्रीराम नहीं, वह वस्तु मेरे किस काम की।।
आगे की घटना सभी जानते हैं। कैसी ओपन हार्ट सर्जरी, केसरी नंदन ने तो हृदय चीर कर हृदय में विराजमान अपने आराध्य श्रीराम के सबको दर्शन करा दिए। यानी हमारे हृदय में जो आत्मा विराजमान है, वही हमारे इष्ट हैं, और वही परमात्मा हैं। हाथ कंगन को आरसी क्या।
बस कोमल हृदय हो, चित्त शुद्ध हो, मन विकार मुक्त हो, तब ही आत्मा की प्रतीति संभव है। जब कभी जब मन अधिक व्यथित होता है, तब आत्मा को भी कष्ट होता है। और तब ही तो ईश्वर को पुकारा जाता है ;
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)
We present his awesome poem ~ Heart over Mind… ~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.
☆ “कि आप शुतरमुर्ग बने रहें” – श्री शांतिलाल जैन ☆ पुस्तक चर्चा – श्री शशिकांत सिंह ’शशि’ ☆
पुस्तक : कि आप शुतरमुर्ग बने रहें
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर
पृष्ठ संख्या : 160 पृष्ठ
मूल्य : 200 रु
☆ सत्ता से सवाल करती रचनाएं – श्री शशिकांत सिंह ’शशि’ ☆
बतौर पाठक मैं मानसिक ऊर्जा और वैचारिक बहस के लिए साहित्य पढ़ना पसंद करता हूं। उन लेखकों को पढ़ना पसंद करता हूं जो सत्ता से सवाल करते हैं जिनकी कलम मशाल बनकर जलना चाहती है। विशेषकर व्यंग्य साहित्य में मुझे हमेशा वही रचनाएं पसंद आती हैं जो सत्ता को कठघरे में खड़ी करें। दुर्भाग्य यह है कि आजकल विसंगति के नामपर साहित्यिक पुरस्कार, और साहित्यिक गुटबाजियों को ही विषय बनाकर ज्यादातर लिखा जाता है क्योंकि ऐसी रचनाएं आसानी से छप जाती हैं चूंकि रोज छपना है इसलिए छपनीय रचनाएं लिखी जाती हैं। ऐसे में यदि कोई ऐसा संग्रह हाथ में आ जाये जिसकी हर रचना मन को ऊर्जा से भर दे तो मन आनंद से भर उठता है। शांतिलाल जैन साहब नई पीढ़ी के लेखकों में मेरे पसंदीदा लेखक हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि मेरी सूची बहुत लंबी है, उसमें से एक नाम हैं बल्कि मेरी सूची में तीन या चार नाम हैं उसमें से एक हैं श्री शांतिलाल जैन। उनके नवीनतम् संकलन ’कि आप शुतरमुर्ग बने रहें की चर्चा यहां की जा रही है।
श्री शांतिलाल जैन
सबसे पहले बात करते हैं शीर्षक की हम जानते हैं कि शुतरमुर्ग तूफान देखकर रेत में सिर छिपा लेता है क्योंकि वह रेत का सामना नहीं कर सकता। नहीं करना चाहता। वह संदेश तो यह देना चाहता है कि वह तूफान के मुकाबले में खड़ा है लेकिन ऐन मौके पर रेत में सिर छिपा लेता है। ठीक उसी तरह जिस तरह व्यंग्य लिखने के नाम पर अभिव्यक्ति के खतरों से बचने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाते हैं लेखक। मंचों पर ताल ठोककर सिंह गर्जना करने वाले महामानव कलम हाथ में लेते ही मेमने की गति को प्राप्त हो जाते हैं और संपदकों की पसंद की रचनाएं लिखने लगते हैं। जो तुझको हो पसंद वही बात कहेंगे। बहरहाल, इस संकलन में पचास से अधिक रचनाएं संकलित हैं जो वर्त्तमान में व्याप्त अधिकांश विसंगतियों की पड़ताल करते हैं। राजनीति, धर्म, समाज, अर्थव्यवस्था, नई तकनीक, नई पीढ़ी, मोबाईल, सरकारी भोंपूवाद, प्रशासन, तमाम विषयों पर चिंतनजनित व्यंग्य रचनाएं दी हैं शांतिलाल जी ने।
’कि आप शुतरमुर्ग बने रहें’ में आरामपसंद मध्यमवर्ग का पलायनवाद है जो चाहता तो है कि भगत सिंह जन्म लें लेकिन पड़ोसी के घर में। वह शब्दों का वीर है, समर का नहीं, हर चुनौती का मंुह छुपाकर सामना करता है। ’नलियबाखल से मंडीहाउस’ में गोबर के गणेश बनने की कथा है। रम्मू जो अखबार के हॉकर थे अखबार के मालिक बनकर, मीडियाहाउस चलाने लगते हैं, अगले वर्ष उनके संसद में जाने की पूरी संभावना है। गुण ? उनका अच्छी तरह चिल्लाने की क्षमता। ’अब आपकी नदी आपके द्वार’ में नगर की गंदगी का काव्यमय चित्रण है तो ’भाईसाहब हमारा नंबर कब आयेगा’ में एक सज्जन डॉक्टर के दुर्जन सहयोगी की बदतमीजी से आहत मरीज की व्यथा है।
पर मुझे जिस रचना ने सबसे अधिक अपनी ओर आकर्षित किया वह है ’बहिष्कृत सेब और परित्यक्त केला संवाद’ जैसी कलात्मक रचना जिसमें केला और सेब दोनों को कचरे में फेंक दिया जाता है। सेब इसलिए मुसलमां हो गया है क्योंकि उसे एक मुसलमान बेच रहा था और केला इसलिए हिंदू हो गया क्योंकि उसे एक हिन्दू बेच रहा था। खरीदने वालों ने उन्हें दूसरे धर्म की अमानत समझकर कचरे में फंेक दिया। उनके संवाद में जो गहराई है वह हमारे आज के समाज की हकीकत है। हम जो मंदिर-मस्जिद के नारे में फंसकर अपने असली रंग में आ गये हैं। अपने अंदर छुपे धार्मिक पशु को आवारा छोड़ दिया है जिसको मर्जी काट ले। अंत में सेब सोच रहा है कि मानव सभ्यता आदम और हव्वा के जमाने में लौट जाये अर्थात रिवाईंड कर जाये तो अच्छा है जब कोई धर्म नहीं था।
एक शानदार रचना है -’प्रतिध्वनियों में गुम सच’ कमाल की कला साधी गई है इस रचना में। हम मीडिया को कोसते हैं लेकिन यह रचना उनकी पीड़ा को भी स्वर देती है। ईको पाइंट की मजबूरी है कि जो भी शिला पर चढ़कर बोलेगा उसका ईको करेगा लेकिन वह सारा सच जानता है। जब शिला पर आकर एक आदमी चीखता है कि ’मैने ’रिश्वत नहीं ली’तो इको पाईंट उसी पंक्ति को इको करता है लेकिन वह जानता है कि यह आदमी बहुत बड़ा रिश्वतखोर है। लेखक की सहानुभूति देखिये-’ईको पाईंट की मजबूरी ठहरी साहब। उसे वही दोहराना पड़ता है जो सत्ता की शिला पर खड़े लोग कहें। कई सारे ईको पाईंटस हैं हमारे देश में। ईका पांईट्स वही रहते हैं शिला पर चढ़ने वाले पांच साल में बदल जाते हैं।’ यह एक गहरे चिंतन से उपजी रचना है। जो दिखता है वह है नहीं, और जो है वह आप देख नहीं रहे। ’लक्ष्मी नहीं बेटी आई है’ इस रचना में लेखक इस बात का विरोध करता है कि बेटी को लक्ष्मी क्यों कहा जाये ? वह मनुष्य है उसे मनुष्य रहने दिया जाये। एक रचना में अलीबाबा सिमसिम के आगे खड़े हैं लेकिन पासवर्ड भूलगये हैं। पासवर्ड याद आये तो धन निकले। धन निकले तो अलीबाबा अपने घर जायें पत्नी के फोन आ रहे हैं। यंत्रीकरण के युग की तल्ख सच्चाई उकेरती रचना है। तकनीक हमारे लिए जितनी सुविधाएं पैदा करती है उतरी ही परेशानियां भी।
एक कमाल की रचना है -’कानून के हाथ’ जिसमें कानून की बेचारगी सामने आती है। पंक्ति देखिये कि ’कानून के हाथ लंबे हैं, प्रशासन के और लंबे और शासन के लंबेस्ट।’ लेखक की पीड़ा यह है कि बुलाडोजर ही अब सारे फैसले करने लगे हैं। न अपील होगी, न वकील, न दलील, न विधि, न विधि द्वारा स्थापित अदालतें। आदमी का धर्म देखकर जिस प्रकार बुलडोजरें न्याय करने लगी हैं उसका विराध करने का साहस बहुत कम लेखकों ने दिखाया है।
तात्पर्य यह कि विषय चयन में श्री शांतिलाल जैन साहब सुरक्षित कोना नहीं ढूंढ़ते। न मनोरंजन के नाम पर सत्ता के वंदनवार सजाने लगते हैं। सीधे-सीधे सवाल करते हैं। उनके विषय कभी ’हल्के-फुल्के’ नहीं होते। यही कारण है कि मेरे जैसा पाठक जो विषय की गंभीरता को देखकर किताब उठाता है पूरी किताब पढ़ता चला जाता है। हो सकता है कि सत्ता सेवी लोगों को शांतिलाल जी की रचनांए न पचें क्योंकि उनके लिए इस रामराज्य में व्यंग्यकारों का काम बस एक दूसरे को कोसना और मसखरी करना रह गया है। तो, विषय की गहराई भी है लेखक के पास, केवल समस्या परोसने भर के लिए नहीं लिखते। सुधार की संभावनाओं को भी दिखाते हैं। समाधान का पक्ष भी उनकी रचनाओं में झलकता है। यह कहना कि छोटी रचनाओं में विषय के साथ न्याय नहीं हो सकता। ठीक नहीं है, कम से कम शंातिलाल जी की रचनाओं को देखकर तो यही लगता है। कम शब्दांें में विषय की पूरी पड़ताल की जा सकती है बशर्ते शब्दों की जलेबी न बनाई जाये।
अनावश्यक रूप से कहीं भी कलाकारी दिखाने का मोह लेखक में नहीं दिखता। न बेवजह पंचलाईन, न जबरदस्ती का हास्य, न निरर्थक संवाद, बस सधी हुई और तपी हुई शब्दसाधना। पंच प्रेमी सज्जनों को एकदम से निराशा भी नहीं होगी। कुछ पंक्तियां देखिये-
’आज वे विचार भी उसी शिद्दत से बेच लेता है जिस शिद्दत से कभी खटमलमार पावडर बेचा करता था।’
’बिना जमीर की पत्रकारिता करने की उसने एक नयाब नजीर कायम की है।’
’स्मार्ट फोन एक नहीं दो ले लीजिये, रोजगार नहीं दे पायेंगे।’
’कुछ आत्माएं संसार कभी नहीं छोड़तीं। अब नीरो को ही ले लीजिये,दो हजार बरस पहले बादशाह हुये थे रोम में, मगर आत्मा आज तक देश दर देश भटक रही है।
’अब आदमी के कान की सीमाएं होती हैं जनाब, जब डंका बज रहा हो, तो तूतियो का स्वर सुनाई नहीं देता।।
’सुल्तान को अपने नाम का डंका बजवाने का जुनूं ऐसा है कि अपन के मुल्क की दवा अपन की रियाया को देने से पहले गैर मुल्कों को दे डाली।
कला और कथ्य दोनों में कमाल का संतुलन और भाषा की रवानगी के बावजूद कहीं-कहीं नये शब्द बनाने के जुनून से परेशानी हो रही थी। अंग्रेजी के शब्दों को हिन्दी में मिलाकर नये शब्द आजकल बनाते हैं लोग लेकिन वह भाषा को कमजोर करती है (ऐसा मुझे लगता है जरूरी नहीं कि मुझे सही लगे)। साहित्य से समाज शब्द और भाषा सीखता हैं अतः लेखक को मंुबइया भाषा के मोह में या जैसा बोलेंगे वैसा लिखेंगे की लालच मंे वही तो को वोईच, बहुत को भोत, जैसे प्रयोग से बचना चाहिए (ऐसा मुझे लगता है जरूरी नहीं कि मुझे सही लगे)। मैं लेखन में स्तरीय शब्द प्रयोग का हिमायती रहा हूं। लेखक की जिम्मेवारी समाज को भाषा की शिक्षा देने की भी है। पर, ऐसे प्रयोग बहुत कम हैं अधिकांश रचनाओं में विषय के अनुसार शब्द प्रयोग हैं।
अंत में बात इतनी ही कि मुझे यह सकंलन पढ़कर मानसिक संतुष्टि हुई। पुस्तक के प्रकाशक हैं-बोधि प्रकाशन, जयपुर। सुंदर पुस्तक है। कीमत है दो सौ रुपये जो आज के समय को देखते हुये ठीक ही है। एक सौ साठ पन्नों की किताब दो सौ में सौदा बुरा नहीं है। कम से कम पढ़कर आपको भी लगेगा कि लेखक के पास रीढ़ की हड्डी है जिसका आजकल नितांत अभाव चल रहा है।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री रामनारायण सोनी जी द्वारा रचित काव्य संग्रह – “विद्युल्लता” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 155 ☆
☆ “विद्युल्लता… ” (काव्य संग्रह)– श्री रामनारायण सोनी ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
कृति चर्चा
पुस्तक चर्चा
कृति विद्युल्लता (काव्य संग्रह )
कवि रामनारायण सोनी
चर्चा विवेक रंजन श्रीवास्तव
☆ पुस्तक चर्चा – श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद… विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
कविता न्यूनतम शब्दों में अधिकतम की अभिव्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ संसाधन होती है। कविता मन को एक साथ ही हुलास, उजास और सुकून देती है। नौकरी और साहित्य के मेरे समान धर्मी श्री रामनारायण सोनी के कविता संग्रह विद्युल्लता को पढ़ने का सुअवसर मिला। संग्रह में भक्ति काव्य की निर्मल रसधार का अविरल प्रवाह करती समय समय पर रची गई सत्तर कवितायें संग्रहित हैं। सभी रचनायें भाव प्रवण हैं। काव्य सौष्ठव परिपक्व है। सोनी जी के पास भाव अभिव्यक्ति के लिये पर्याप्त शब्द सामर्थ्य है। वे विधा में पारंगत भी हैं। उनकी अनेक पुस्तकें पहले ही प्रकाशित हो चुकी हैं, जिन्हें हिन्दी जगत ने सराहा है। सेवानिवृति के उपरांत अनुभव तथा उम्र की वरिष्ठता के साथ रामनारायण जी के आध्यात्मिक लेखन में निरंतर गति दिखती है। कवितायें बताती हैं कि कवि का व्यापक अध्ययन है, उन्हें छपास या अभिव्यक्ति का उतावलापन कतई नहीं है। वे गंभीर रचनाकर्मी हैं।
सारी कवितायें पढ़ने के बाद मेरा अभिमत है कि शिल्प और भाव, साहित्यिक सौंदर्य-बोध, प्रयोगों मे किंचित नवीनता, अनुभूतियों के चित्रण, संवेदनशीलता और बिम्ब के प्रयोगों से सोनी जी ने विद्युल्लता को कविता के अनेक संग्रहों में विशिष्ट बनाया है। आत्म संतोष और मानसिक शांति के लिये लिखी गई ये रचनायें आम पाठको के लिये भी आनंद दायी हैं। जीवन की व्याख्या को लेकर कई रचनायें अनुभव जन्य हैं। उदाहरण के लिये “नेपथ्य के उस पार” से उधृत है … खोल दो नेपथ्य के सब आवरण फिर देखते हैं, इन मुखौटों के परे तुम कौन हो फिर देखते हैँ। जैसी सशक्त पंक्तियां पाठक का मन मुग्ध कर देती हैं। ये मेरे तेरे सबके साथ घटित अभिव्यक्ति है।
संग्रह से ही दो पंक्तियां हैं … ” वाणी को तुम दो विराम इन नयनों की भाषा पढ़नी है, आज व्यथा को टांग अलगनी गाथा कोई गढ़नी है। ” मोहक चित्र बनाते ये शब्द आत्मीयता का बोध करवाने में सक्षम हैं। रचनायें कवि की दार्शनिक सोच की परिचायक हैं।
रामनारायण जी पहली ही कविता में लिखते हैं ” तुम वरेण्य हो, हे वंदनीय तुम असीम सुखदाता हो …. सौ पृष्ठीय किताब की अंतिम रचना में ॠग्वेद की ॠचा से प्रेरित शाश्वत संदेश मुखर हुआ है। सोनी जी की भाषा में ” ए जीवन के तेजमयी रथ अपनी गति से चलता चल, जलधारा प्राणों की लेकर ब्रह्मपुत्र सा बहता चल “।
यह जीवन प्रवाह उद्देश्य पूर्ण, सार्थक और दिशा बोधमय बना रहे। इन्हीं स्वस्ति कामनाओ के साथ मेरी समस्त शुभाकांक्षा रचना और रचनाकार के संग हैं। मैं चाहूंगा कि पाठक समय निकाल कर इन कविताओ का एकांत में पठन, मनन, चिंतन करें रचनायें बिल्कुल जटिल नहीं हैं वे अध्येता का दिशा दर्शन करते हुये आनंदित करती हैं।
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
☆ ‘स्वरलता’ – बाँध प्रीती फूल डोर…. भूल जाना ना ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆
प्रिय पाठक गण,
नमस्कार!
लता मंगेशकर, जिनका ‘बस नाम ही काफी था’, उनके सुरों की जादूभरी आवाज के दीवानों के लिए! ६ फरवरी २०२४ को उन्हें गुजरे २ वर्ष हो जायेंगे। उस गंधर्वगायन को इस तारीख़ से कुछ लेना देना नहीं है| उनकी मनमोहक सुरीली स्वरमधुरिमा आज वैसी ही बरक़रार है| जैसे स्वर्ग के नंदनवन के रंगबिरंगे सुमनों की सुरभि कालजयी है, वैसे ही लता के स्वरों की मधुरिमा वर्षों तक महक रही है और हमारे दिलों के गुलशन को इसी तरह आबाद करती रहेगी| उसके गाए एक गाने में यह बात क्या खूब कही गई है, ‘रहें ना रहें हम महका करेंगे, बन के कली बन के सबा बाग़े वफ़ा में’ (फिल्म ‘ममता’, सुन्दर शब्द-मजरूह सुल्तानपुरी, लुभावना संगीत-रोशन)|
हमारी कितनी ही पीढ़ियाँ फिल्म संगीत के इतिहास की साक्षी बनकर देखती आई उसके बदलाव को, मात्र एक बात बदली नहीं, वह थी गायन के अमृतमहोत्सव को पार करने वाली लता की आवाज की गूंज| इसी स्वर ने हमें बचपन में लाड़ दुलार से लोरी गाकर सुनाई, यौवन की दहलीज पर प्रणयभावना को प्रकट करने के स्वर दिए, बहन की प्रेमभरी राखी का बंधन दिया| इतना ही नहीं मनोरंजन के क्षेत्र में जिस किसी प्रसंग में स्त्री के जिस किसी रूप, स्वभाव और मन की कल्पना हम कर सकते थे, वह सब कुछ इस स्वर में समाहित था| श्रृंगार रस, वात्सल्य रस, शान्त रस, आदि की भावनाओंको लता के स्वरों का जब साथ मिलता तो वे शुद्ध स्वर्ण में जड़े कुंदन की भांति दमक उठते!
मित्रों, आप की तरह मेरे जीवन में भी लता के स्वरों का स्थान ऐसा है, मानों सात जन्मों का कभी न टूटने वाला रिश्ता हो! लता के जीवन चरित्र के बारे में इतना कुछ लिखा और पढ़ा गया है कि, अब पाठक गण कहेंगे, “कुछ नया है क्या?” मैं लता के करोड़ों चाहने वालों में से एक हूँ, कुछ साझा करुँगी जो इस वक्त लता की स्मृति में सैलाब की भाँति उमड़ने वाली मेरे मन की भावनाएं हैं| पिछले दिनों लता के दो गानों ने मुझे भावविभोर होकर बार बार सुनने पर विवश किया और मन की गहराई तक झकझोरा| आश्चर्य की बात है कि, इन दोनों ही फिल्मों। के गीत शुद्ध हिंदी शब्दों की पराकाष्ठा के आग्रही गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्माजी ने लिखे और अभिजात संगीत दिया महान संगीतकार ‘स्वरतीर्थ’ सुधीर फडकेजी ने|
१९५२- कोलकत्ता का अनूठा मिश्र संगीत महोत्सव-जब लता को उस्ताद बड़े गुलाम अली खां जी के पहले गाना पड़ा!
इस ४ रातों के मिश्र संगीत महोत्सव में मिश्र अर्थात ध्रुपद-धमार, टप्पा-ठुमरी के साथ साथ फिल्मी संगीत भी शामिल किया गया था| एक रात को लता का और भारतीय शास्त्रीय संगीत के महान गायक उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब का गायन था| लेकिन आयोजकों ने लता को उस्ताद साहब से पहले गाने के लिए क्रम दिया| यह संगीत समारोह के नियमों के हिसाब से उस्तादजी की तौहीन थी| लता यह खूब जानती थी, इसलिए उसने आयोजकों को ऐसा करने से मना किया और जब वे नहीं माने तो उसने सीधे उस्ताद साहब से ही शिकायत की और कहा कि मैं ऐसा नहीं कर सकती| यह सुनते ही खां साहब जोर से हंसे और उससे कहने लगे, ‘अगर तुम मुझे बड़ा मानती हो तो, मेरी बात मानो और तुम ही पहले गाओ|’ और फिर यादगार बन गई वह कोलकत्ता की शाम!
लता ने उनकी बात मान तो ली, लेकिन उसने अपनी हिट फिल्मों के गानों से परहेज किया| उसने चुना एक मधुरतम गीत, जो राग जयजयवंती में बंधा था| वर्ष १९५१ की ‘मालती माधव’ नामक फिल्म का वह गीत था, ‘बाँध प्रीती फूल डोर, मन ले के चित-चोर, दूर जाना ना, दूर जाना ना…’| पंडित नरेन्द्र शर्मा के भावभीने बोलों को मधुरतम संगीत से संवारा था सुधीर फड़केजी ने! इस गाने का असर ऐसा हुआ कि, दर्शक इस संगीत की डोर से उस शाम बंधे के बंधे रह गए| दर्शक तो दर्शक, उस्तादजी भी लता की गायकी के कायल हो गए|
बाद में जब बड़े खां साहब मंच पर आए तो उन्होंने लता को ससम्मान मंच पर बैठा लिया तथा उसकी खूब तारीफ की| अब तक जो गाना मशहूर नहीं हुआ था, वह उस दिन हिट हो गया! दोस्तों, मैंने इस गाने के बारे में ज्यादा कुछ सुना नहीं था| लेकिन जब से यह ध्यानपूर्वक सुना है, तबसे अब तक उसके जादू से उबर नहीं पाई हूँ| लता का यह गाना यू ट्यूब पर उपलब्ध है (और सुधीरजी की आवाज में भी!) । आप भी लता के इस अनमोल गाने का लुफ्त जरूर उठाइये और मेरे साथ आप भी यह सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि, ‘मालती माधव’ फिल्म की एकमात्र स्मृति रहा यह गाना चला क्यों नहीं?
‘लौ लगाती गीत गाती, दीप हूँ मैं प्रीत बाती’
दूसरा गीत है, भक्ति और प्रेमभाव से सराबोर ऐसा गाना जिसके एक एक शब्द मानों मोती की तरह दमकते है, उसपर आलम यह कि, कर्णमधुर संगीत सुधीरजी (बाबूजी) का! अब ऐसी जोड़ी का साथ मिले, तो लता के सुरबहार का एक एक तार बजेगा ही ना| ‘भाभी की चूड़ियाँ’ (१९६१) फिल्म का यह गाना था ‘लौ लगाती गीत गाती, दीप हूँ मैं प्रीत बाती’ (राग– यमन) | परदे पर एक सुहागन के रूप में चेहरे पर परम पवित्र भाव लिए मीना कुमारी! मैंने कहीं पढ़ा था कि, इस गाने पर सुधीरजी और लता ने बहुत मेहनत की और गाने के कई कई रिहर्सल हुए| सुधीरजी को इस गाने से बहुत अपेक्षाएं थीं| यह गीत सुननेवालों को खूब भायेगा, ऐसी वे आशा रख रहे थे| लेकिन हुआ आशा के ठीक विपरीत, इसी फिल्म का दूसरा गाना, जिसके प्रसिद्ध होने की साधारणसी उम्मीद थी, वह सर्वकालीन प्रसिद्ध गाना रहा| वह था, ‘ज्योति कलश छलके’! राग भूपाली पर आधारित इस गाने को शास्त्रीय संगीत पर आधारित फ़िल्मी गीतों में बहुत उच्च स्थान प्राप्त है| शायद उसकी छाया में ‘लौ लगाती’ को रसिक गणों के ह्रदय में वह जगह नहीं मिल पायी| आपसे बिनती है कि, आप यह सुमधुर गाना जरूर देखें- सुनें और उसके शांति-प्रेम-भक्तिरस का अक्षत आनन्द उठाएं|
लता की अनगिनत स्मृतियों को स्मरते हुए अभी मन में सही मायने में क्या महसूस हो रहा है, उसके लिये लता की ही ‘अमर’ (१९५४) नामक फिल्म का एक गाना याद आया| (गीत-शकील बदायुनी, संगीत नौशाद अली)
“चाँदनी खिल न सकी, चाँद ने मुँह मोड़ लिया
जिसका अरमान था वो बात ना होने पाई
जाने वाले से मुलाक़ात ना होने पाई
दिल की दिल में ही रही बात ना होने पाई…”
प्रिय पाठकगण, लता की गानमंजूषा के इन दो अनमोल रत्नों की आभा से जगमगाते स्वरमंदिर में विराजित गानसरस्वती के चरणों पर यहीं शब्दसुमन अर्पित करती हूँ|
धन्यवाद
टिप्पणी :
*लेख में दी हुई जानकारी लेखक के आत्मानुभव तथा इंटरनेटपर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है|
** गानों की जानकारी साथ में जोड़ रही हूँ| गानों के शब्दों से यू ट्यूब पर लिंक मिलेगी|
‘बांध प्रीती फूल डोर’- फिल्म -‘मालती माधव’ (१९५१) – गायिका-लता मंगेशकर, गीतकार – पंडित नरेन्द्र शर्मा, संगीतकार-सुधीर फडके
‘लौ लगाती गीत गाती, दीप हूँ मै प्रीत बाती’- फिल्म -भाभी की चूड़ियाँ (१९६१) – गायिका-लता मंगेशकर, गीतकार-पंडित नरेन्द्र शर्मा, संगीतकार-सुधीर फडके
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “भक्ति की पराकाष्ठा”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 180 ☆
🙏 लघु कथा – भक्ति की पराकाष्ठा 🙏
शहर में बसे घनी बस्ती के बीच बहुत बड़े सामुदायिक भवन में कोरोना काल के बाद से ही सुना है निरंतर भागवत कथा का आयोजन होते चला आ रहा है।
प्रति वर्ष की अपेक्षा धीरे-धीरे भक्तों की संख्या में बढ़ोतरी होते जा रही थी। भागवताचार्य भी प्रसन्न थे। उनकी भागवत कथा में प्रतिवर्ष भक्तों की संख्या बढ़ते जा रही है।
बड़े ही जोश और भाव – भक्ति से वह कथा का वाचन कर रहे थे। बीच-बीच में श्री राधे- राधे की जयकार और मनमोहन गीत- संगीत वाद्य यंत्रों के साथ सब का मन मोह रही थी।
बैठने की समुचित व्यवस्था जो वरिष्ठ जमीन पर बैठ नहीं पा रहे थे उनके लिए पंक्ति बध्द कुर्सियां व्यवस्थित थी।
दैनिक समाचार पेपर वाले भी रोज कवरेज करके प्रकाशित कर रहे थे कि आज जनमानस का सैलाब उमड़ पड़ा।
उत्सुकता वश आज समय अनुसार भागवत कथा में शामिल होने का सौभाग्य मिला। सामने पहुंचते ही गाड़ी रखते समय जल्दी-जल्दी चलते हुए बुजुर्ग माताजी को एक सज्जन पुरुष प्रवेश द्वार पर छोड़कर जाने लगा। वह कुछ परेशान सा दिख रहा था। सामने से उसका परिचित आकर बोले… उनके हाथ को भी पकड़े एक वरिष्ठ साथ में चल रहे थे।
आज लेट हो गए हो बोल उठा.. हां यार सोच सोच कर परेशान हूं कि अब कल से भागवत कथा समाप्ति की ओर बढ़ रही है। क्या करें??
इसी बहाने इनको यहां चार-पांच घंटे बिठाकर चला जाता हूं। घर में आराम रहता है। दूसरा दोस्त बोल.. उठा परेशान मत हो भाई मैंने पता लगा लिया है चार किलोमीटर दूर उस मैदान पर यहां के बाद भागवत कथा होनी है।
ऐसा करते हैं एक ऑटो रिक्शा लगा देंगे और मैं और आप चार की जगह छः घंटा सबको बिठा दिया करेंगे।
अंदर जाते ही आचार्य जी अपनी कथा में श्री कृष्ण भगवान के मथुरा से चले जाने पर कैसा विलाप हो रहा है। इसका वर्णन कर रहे थे। भाव विभोर हो स्वयं आंसुओं से भरे नैनों को बार-बार पोंछ रहे थे।
पंडाल के बीच में से निकलते देखा गया। सभी महिलाओं के पास मोबाइल दिख रहा था ।
पीछे से किसी ने कहा.. यहां भी आओ तो रोना धोना ही मचा देते हैं।
भारी मन से मैं पुष्प हार लिए श्री भागवत कथा में विराजे भगवान कृष्ण के चरणों में पुष्प अर्पित कर चुपचाप बैठी ही थी कि तभी वहां आकर एक कार्यकर्ता आचार्य जी को कुछ कह.. गया। कथा में मोड़ आ गया।
आचार्य जी कहने लगे.. कल समाप्ति भंडारा के दूसरे दिन से ही छोटी बजरिया मैदान में भागवत कथा होनी है। जो माताएं, काका, दादा नहीं जा सकते उनके लिए ऑटो रिक्शा की व्यवस्था की गई है। सामुदायिक भवन तालियों से भर उठा।
चारों तरफ नजरे घूम रही थी। अब तालियों की आवाज कहां से आ रही थी। भागवत कथा में भक्तों की उपस्थिति तो समझ आ चुकी थी।
पर भक्ति की पराकाष्ठा विचाराधीन हो चुकी थी।
जय हो श्री राधे – राधे भागवत कथा में भक्तों की जय जयकार कानों को चुभने लगी थी।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 69 ☆ देश-परदेश – मृत्यु:! …शाश्वत सत्य☆ श्री राकेश कुमार ☆
मृत्यु शब्द सुनकर ही हम सब भयभीत हो जाते हैं। ये भी हो सकता है, इस टाइटल को देखकर ही कुछ लोग इस लेख तक को डिलीट कर देंगे। कुछ बिना पढ़े ही हाथ जोड़ने वाला इमोजी चिपका देंगें।
अधिकतर सभी समूहों में किसी का भी मृत्यु समाचार साझा किया जाता है, तो हमारे संस्कार हाथ जोड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। अनेक बार हम उस व्यक्ति के परिचय में भी नहीं होते हैं। अधिकतर में वो समूह के सदस्य भी नहीं होते हैं।
सदस्यों की संवेदनाएं और सहानुभूतियां उसी समूह तक ही सीमित रह जाती हैं। सड़क मार्ग में जब किसी भी धर्मावंबली की शव यात्रा हमारे मार्ग के करीब से भी गुजरती है, तो प्रायः सभी राहगीर खड़े होकर सम्मान प्रकट करते हैं। ये हमारे संस्कारों में भी हैं, दूसरा हम सब को मृत्यु से डर भी लगता है।
कल हमारे बहुत सारे समूहों में सुश्री पूनम पांडे जी का कैंसर से युवा आयु में मृत्यु का समाचार प्रेषित हुआ। हमने भी ॐ शांति, RIP जैसे चलित शब्दों से अपनी संवेदनाएं प्रकट कर शोक व्यक्त कर एक अच्छे सामाजिक प्राणी का परिचय दिया।
कुछ सदस्यों ने तो उनके सम्मान में कशीदे भी लिख दिए थे। उनको अव्वल दर्जे की सामाजिक, सर्वगुण सम्पन्न, महिला शक्ति/ अभिमान, मिलनसार, व्यक्तित्व ना जाने उनके व्यक्तित्व की तारीफ के अनेक पुल बांधे। एक ने तो उनको पदमश्री सम्मान दिए जाने की अनुशंसा भी कर दी थी।
आज जानकारी मिली की उनकी मृत्यु का झूठा समाचार व्यवसाय वृद्धि के लिए किया गया था। मृत्यु को भी पैसा कमाने का साधन बना कर, उन्होंने एक नया पैमाना स्थापित कर दिया है।
हमारे यहाँ ऐसा कहा जाता है, जब किसी के जीवित रहते हुए, अनजाने या गलती से मृत्यु का समाचार प्रसारित हो जाता है, तो उसकी आयु में और वृद्धि हो जाती हैं। हालांकि सुश्री पांडे के मामले में इस प्रकार की गलत जानकारी जान बूझकर फैलाई गई थी। शायद “जिंदा लाश” शब्द से सुश्री पूनम को प्रेरणा मिली होगी।