(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – परिवर्तनशील सोच।)
बिल्ली को खिड़की पर देखकर मुझे बड़ी चिढ़ जाती और गुस्सा भी आता था।
बचपन में मेरे पड़ोस में रहने वाली दादी की बात याद आ जाती कि बिल्ली कहती थी कि मेरे मालिक की आंख फूट जाए जिससे मैं सारा दूध पी सकूं कुत्ता बहुत वफादार होता है वह मालिक की उम्र लंबी करने की दुआ मांगता है इसलिए कुत्ते को रोटी दिया करो बेटा।
इस दादी मां की बात मुझे हमेशा याद रहती और मुझे पता नहीं क्यों बहुत गुस्सा आता था क्योंकि वह चूहा भी खाती थी। मैं उस पर पानी डालती और हमेशा भागती रहती थी वह भी मुझे बहुत गुस्से से देखती थी। ऐसा लगता था उसकी बड़ी-बड़ी आंखें मुझे खा जाएंगी।
मैंने कभी बिल्लियों को एक रोटी भी नहीं दी मन में एक अजीब सी घृणा सी थी। मैंने कभी उसे एक रोटी नहीं दी मुझे ऐसा लगता था कि यह बिल्ली रोज मुझे चिढ़ाने आती है। आज मुझे पता नहीं क्यों इसे देखकर बहुत दया आ रही है और इसकी म्याऊं म्याऊं में एक अजीब सा दर्द है। इसकी आंखों में आंसू भी है। रोटी बनाते-बनाते उसे बड़े ध्यान से देख रही थी। वह और दिन की अपेक्षा बहुत दुबली भी नजर आ रही थी। उसका पेट भी पिचका था और इस तरह रोटी को लालची नजरों से देख रही थी। उसे देखकर मुझे बहुत दया आई और मैंने उसे एक रोटी दे दी जिसे उसने तुरंत लपक कर एक क्षण में खा लिया। फिर मैंने उसे दूसरी रोटी दी उसे लेकर वह चली गई। सच में वक्त के साथ इंसान और उसकी सोच बदलती है समय बहुत बलवान होता है। वक्त के साथ सोच को भी परिवर्तनशील करना चाहिए।
☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-१० ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
(षोडशी शिलॉन्ग)
प्रिय पाठकगण,
आपको हर बार की तरह आज भी विनम्र होकर कुमनो!(मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)
फी लॉन्ग कुमनो!(कैसे हैं आप?)
आपकी प्रतिक्रियाओं ने मुझे सचमुच बहुत कुछ दिया है! मित्रों, हमने जो थोड़ा बहुत मेघालय देखा, उसकी महिमा पिछले नौ भागों में मैंने बखान की है, परन्तु हमारी यह यात्रा ११ दिनों की थी, इसलिए हम फिर मेघालय यात्रा करेंगे यह तो निश्चित है ही! मेघालय की नयनाभिराम स्मृतियाँ संजोकर लिखा हुआ यह दसवाँ और आगे के भाग मैंने खास करके षोडश वर्षीय, नवयौवना के सामान यौवन से लहराते और महकते शिलॉन्ग यानि, इस मेघालय की राजधानी के लिए आरक्षित कर रखे थे| हमने मुंबई से आसामकी राजधानी गुवाहाटी का सफर हवाई जहाज से किया। उज्ज्वलने (मेरा जमाई) मेघालय के संपूर्ण प्रवास हेतु कॅब बुक की थी| हवाई अड्डेपर आसामका एक ड्राइवर अजय हमारे स्वागत के लिए हाज़िर था| उसके साथ हमने अगले ११ दिन अत्यंत आनंद से प्रवास किया| कभी घमासान बारिश का आक्रमण, कभी कोहरे का गहरा गलीचा, कभी तंग गलियारे, कभी घुमावदार मोड़, तो कभी हमारी देरी, इन सब को धैर्यपूर्वक सहते हुए अजय अविरत गाडी चला रहा था, यातायात के सभी नियमों का सख्ती से पालन करते हुए! वह बड़े ही प्रेमपूर्वक हमारे साथ संवाद कर रहा था और कहाँ क्या देखने लायक है, इस बारे में सूचना और मार्गदर्शन भी कर रहा था| किसी भी पर्यटन स्थल के निकट पहुँचते ही मुझे तो वह “नानी आप ये कर सकता है/ नहीं कर सकता” यह प्यार भरी चेतावनी देता था। हम समूचे सफर में मधुर गीत (बंगाली या आसामी) सुनते गए| उन्हींमें से एक गाना था भूपेन हजारिका का बहुत ही मीठा तथा श्रवणीय ऐसा “ओ गंगा”! हम सबको वह बहुत ही भाया! हमारे पसंदीदा इस गाने का वीडियो आखरी में जोड़ा है| हमने गुवाहाटी से शिलॉन्ग को जाते जाते भूपेन हजारिका के सुंदर स्मारक को देखा|
शिलॉन्ग भारत के मेघालय राज्य की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है| इसके अलावा शिलॉन्ग पूर्व खासी हिल्स जिले का प्रशासकीय केंद्र है| १९६९ तक यह शहर संयुक्त आसाम प्रांत की राजधानी था| १९७२ साल में मेघालय स्वतंत्र राज्य के रूप में प्रस्थापित होने के बाद यहीं शहर मेघालय की राजधानी बना और आसाम की राजधानी गुवाहाटी के एक उपनगर दिसपूर में स्थानांतरित की गई| आज शिलॉन्ग मेघालय की आर्थिक, सांस्कृतिक तथा वाणिज्य राजधानी है| २०२४ में इस शहर की लोकसंख्या है अंदाजन ५०८०००, यहीं लोकसंख्या २०११ में अंदाजन १४३००० इतनी थी| यहाँ के लगभग ४७ प्रतिशत निवासी ख्रिश्चन धर्मीय तथा ४२ प्रतिशत निवासी हिंदू हैं| यहाँ की अधिकृत भाषा अंग्रेजी है और खासी, जैंतिया तथा गारो इन स्थानिक भाषाओँ को राजकीय दर्जा दिया गया है|
खासी और जैंतिया हिल्स यह भूभाग पारंपारिक काल से खासी जनजाति के आधिपत्य में था| यहाँ की राजधानी सोहरा (चेरापुंजी) हुआ करती थी| परंतु सिल्हेट से आसाम तक रास्ता निर्माण करने हेतु ईस्ट इंडिया कंपनी को यहाँ की जमीन की आवश्यकता महसूस हुई| इसके कारण युद्ध हुआ और ब्रिटिशों का पलड़ा भारी रहा| १८३३ साल में यह भूभाग ब्रिटिशों ने जीत लिया। परंतु चेरापुंजी यह स्थान सुविधाजनक न होने से ब्रिटिशों ने १८६० के दशक में शिलॉन्ग शहर की स्थापना की| १८७४ में ब्रिटिश सरकार ने नवनिर्वाचित आसाम प्रांत की स्थापना की तथा शिलॉन्ग आसाम की राजधानी का शहर बन गया| यहाँ के पहाड़ी प्रदेश व् सौम्य मौसम के कारण ब्रिटिशों को यह शहर पूर्व के स्कॉटलँड जैसा प्रकृतिसंपन्न और सुंदर लगता था| मात्र एक लोकप्रिय पर्यटनस्थल होने के बावजूद यहाँ मार्गिकाओं और रेल्वेमार्गों का विकास नहीं हो पाया, इसलिए शिलॉन्ग की प्रगति मंदगति से होती रही|
यहाँ आए ख्रिश्चन मिशनरियों ने इस भाग में ख्रिश्चन धर्म का प्रसार किया| साथ ही बच्चों की शिक्षा हेतु स्कूल शुरू किये| इस भाग को प्रकृति की अनमोल विरासत का वरदान है। ब्रिटीश उपनिवेशवाद की विरासत का संदेश देनेवाले घरों की रचना तथा कॅफे में बजाया जाने वाला संगीत यह इस शहर की अलग विशेषता है| यहाँ पर्यटन के दृष्टिकोण से हर जगह प्रकृति की सम्पन्नता दृष्टिगोचर होती है| यह प्रदेश सुन्दर तो है ही, साथ ही प्रदूषणमुक्त भी है| शिलॉन्ग पहाड़ी के उतरन पर बसा हुआ है| यहाँ के शिलॉन्ग व्यू पॉइंट से आप समूचा शहर देख सकते हैं| आसमान में फैला हुआ घना कोहरा और उसमें खोया हुआ शिलॉन्ग शहर अलग ही अनुभूती देकर जाता है| (हम यह पॉईंट देख नहीं पाए, क्यों कि उस वक्त वह बंद किया गया था)
शिलॉन्ग हवाईअड्डा शहर से ३० किलोमीटर उत्तर में स्थित है| यहाँ से दिल्ली, कोलकाता, साथ ही ईशान्य के दिमापूर, गुवाहाटी, सिलचर, इम्फाल, अगरतला इत्यादि प्रमुख शहरों के लिए सीधी विमान यात्रा उपलब्ध है| राष्ट्रीय महामार्ग क्रमांक ६ शिलॉन्ग को गुवाहाटी और अन्य महत्वपूर्ण शहरों के साथ जोड़ता है | दुर्भाग्य से आज भी शिलॉन्ग भारतीय रेल के नक़्शे पर नहीं है| परन्तु भविष्य में गुवाहाटी से मेघालय रेलमार्ग का निर्माण होगा यह आशा की जा रही है| आज की तारीख में गुवाहाटी रेल्वे स्टेशन शिलॉन्ग से १०५ किलोमीटर दूर है|
मित्रों, अब हम शिल्लोन्ग के(अर्थात हमने देखे हुए) सुन्दर स्थलों का सफर करेंगे!
उमियम सरोवर (Umiyam Lake)
शिलॉन्गकी ओर जाने वाले हमारे रास्ते पर एक अति लावण्यमय, जैसे किसी चित्रप्रतिमा को बड़े प्रयास और प्रेम से चित्रित किया हो, ऐसा उमियम सरोवर दिखाई दिया| मानवनिर्मित होकर भी उसका प्राकृतिक नैसर्गिक सरोवर समान भासमान होने वाला सौंदर्य बिलकुल अनायास ही सिनेमास्कोपिक और फोटोजेनिक था! कहीं भी कैमरा फिक्स कीजिये और क्लिक करिये, उस चित्र की मोहिनी मन मोहने लगेगी ही! दीवाना बनाने वाले इस सरोवर को घेरा है, वृक्षलताओं की हरितिमा और विशाल पूर्व खासी पर्वत श्रृंखलाओंने! शिलॉन्ग के मध्यबिंदु से यह स्थल १६ किलोमीटर दूर है| उमियम नदीको पाट कर बनाया हुआ यह विशाल और विलक्षण मानवनिर्मित आरस्पानी (आईने की तरह दमकता) सरोवर देखते ही हम उस पर लुब्ध हो बैठे! स्थानीय लोग इसे “बडापानी” कहते हैं| अगर आप सैरसपाटे के लिए गाँव से बाहर जाना चाहते हैं, तो यह जगह उसके लिए एकदम सही है! इसीलिये यहाँ पर्यटकों का कभी खत्म न होने वाला जमघट लगा रहता है, खास कर छुट्टियों के दिनों में! यहाँ का सूर्यास्त नयनाभिराम नारंगी, गुलाबी और लाल रंगों की आभा बिखेरते हुए रंगावली अंकित करने के पश्चात ही ही रात्रि के आगोश में विराम लेता है! बारिश के बाद के विहंगम इंद्रधनुषी रंग देखना है तो यहीं रुकिए, क्योंकि, ये सारे रंग इस सरोवर में अपना राजसी रुप निहारते रहते हैं!
हम यहाँ पहुंचे तो देखा कि हरित पन्नों की माला में जैसे नीलम गूंथा हो, वैसे ही सदाहरित वनश्री में यह सरोवर चमक रहा था| आकाश के बदलते रंग इस जलाशय के जल के रंगों को भी बदल रहे थे। कभी धवल, कभी नीलकांती, तो कभी मेघवर्णम शुभांगम! मैं तो इस परिसर में जैसे खो गई| मित्रों, आप भी यहाँ ऐसे ही खो जाएंगे! यहाँ का नौकानयन यानि इस जल की नीलिमा को निकट से देखने का स्वर्णिम अवसर ही समझिये, अर्थात यह अपरिहार्य ही है! नौकानयन करते हुए हमारी नौका (मोटरबोट) छोटे से शंकू के आकार के पन्नों जैसे प्रतीत होने वाले द्वीपों को घेरा डालते हुए विहार कर रही थी| हमारा भाग्य अच्छा था, क्योंकि, हमें ले जाने वाली नौका का ईंधन बीच में ही ख़त्म हो गया और उसके आने तक हम आसपास के सौंदर्य का आनंद लेते रहे, जैसे कोई बोनस मिला हो! वह आये ही नहीं यह आशा कर रहे थे, कि वह आ ही गया! इस सरोवर में वॉटर स्पोर्ट्स की सुविधा भी उपलब्ध है (kayaking, boating, water cycling, scooting, canoeing इत्यादि)| अर्थात इसके लिए आसमान और सरोवर का शांत और सौम्य रहना आवश्यक है! आप को अगर ऐसा कुछ भी नहीं करना है, तो मजे से चहलकदमी करें और बस इस खूबसूरत क्षेत्र को देखने का आनंद लें! अगर हो सके तो इस झील के पास किसी होटल में ठहरें और प्रकृति की सुंदरता का जी भर कर आनंद अनुभव करें|
मित्रों, अगले भाग में शिलाँग में और उसके आसपास चहल कदमी करेंगे! तब तक थोड़ा इन्तजार करना होगा!
आज की मुलाकात बस इतनी!
तो अभी के लिए खुबलेई! (khublei)यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!)
टिप्पणी
*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें व्यक्तिगत हैं!
*गाने और विडिओ की लिंक साथ में जोड़ रही हूँ| (लिंक अगर न खुले तो, गाना/ विडिओ के शब्द यू ट्यूब पर डालने पर वे देखे जा सकते हैं|)
“ओ गंगा तुमी” अल्बम-“गंगोत्सव”
गायक और संगीतकार: भूपेन हजारिका
(इसी गाने का हिन्दी संस्करण भी यू ट्यूब पर उपलब्ध है|)
The Sounds of Meghalaya – #GOLDEN by MEBA OFILIA | Meghalaya Tourism Official
☆ अखेरचा हा तुला दंडवत…! ☆ श्री विश्वास देशपांडे ☆
उगवतीचे रंग
अखेरचा हा तुला दंडवत…!
रविवार दि ६फेब्रुवारी २०२२ चा दिवस उजाडला आणि सकाळी सकाळी अघटित अशी बातमी कानावर पडली. गानसम्राज्ञी लतादीदी गेल्या. अवघा देश शोकसागरात बुडाला. जे स्वर ऐकत सकाळ व्हायची त्या स्वरांची संध्याकाळ झाला होती. गानसूर्य अस्ताला गेला. जणू दिवसातले, नव्हे जगण्यातलेच चैतन्य कोणीतरी काढून घेतले होते. संपूर्ण दिवसच उदासवाणा झाला होता. दिनकर मावळला आणि लतादीदी पंचत्वात विलीन झाल्या. सूर निमाले.
कविवर्य भा रा तांबेंचं एक गीत लतादीदींनी गाऊन अजरामर केलं आहे. ‘ मावळत्या दिनकरा, अर्घ्य तुज जोडून दोन्ही करा…’ दीदींच्या रूपाने हा गानसूर्य मावळला होता. याच गाण्यात सुंदर ओळी आहेत
जो तो वंदन करी उगवत्या
जो तो पाठ फिरवी मावळत्या
रीत जगाची ही रे सवित्या
स्वार्थपरायणपरा.
उगवत्या सूर्याला वंदन करणे आणि मावळत्या सूर्याकडे पाठ फिरवणे ही जगाची रीतच आहे. पण हा गानसूर्य अस्ताला गेल्यावर जगाने आपली ही रीत बदलली. या मावळत्या दिनकराला डोळे भरून बघण्यासाठी माणसांनी दाटी केली. घराघरात टीव्हीसमोर बसून या मावळत्या दिनकराचे अनेकांनी दर्शन घेतले. मुंबईत लोकांची दाटी आणि घराघरातील लोकांच्या डोळ्यात अश्रूंची दाटी. प्रत्येकाला जणू आपल्याच घरातील कोणीतरी गेल्यासारखे वाटले. गानसम्राज्ञी, गानसरस्वती, गानकोकिळा यासारखी कितीही विशेषणे तुम्ही लावा, ‘ लता ‘ याच नावाने प्रत्येकाच्या हृदयात घर केले होते. ही ‘ लता ‘ प्रत्येकाच्या मनात अशी रुजली होती की ‘ तिचा वेलू गेला गगनावरी…’ स्वर्गापर्यंत हा वेलू जाऊन पोहोचला. बहुधा स्वर्गलोकीच्या देवांनी, गंधर्वांनी तिला सांगितलं असावं की आता बस झालं पृथीवर लोकांना रिझवणं. खूप प्रतीक्षा करायला लावलीस आम्हाला. आता आम्हालाही तू हवी आहेस.
त्या सुरांची जादूच अशी अनोखी होती. सोन्याच्या तारेसारखा लवचिक, मुलायम आवाज ! खरं तर या आवाजाला उपमाच नाही. दीदी दिसायला तुमच्या आमच्यासारख्याच. पण जेव्हा त्या गायला लागत तेव्हा त्या गळ्यातून गंधार बाहेर पडे. सरस्वतीची वीणा झंकारत असे, श्रीकृष्णाची बासरी स्वरांचे रूप घेऊन प्रकट होई. सकाळी भूपाळी, भजन, भक्तिगीतं म्हणून हा आवाज उठवायचा, संकटात आधार होऊन धीर द्यायचा, ‘ ऐ मेरे वतन के लोगो…’ म्हणत राष्ट्रभक्ती जागवायचा. ‘ सागरा प्राण तळमळला… ‘ या शब्दांनी अंगावर रोमांच उभे करायचा. ‘ मोगरा फुलला ‘, ‘ आनंदवनभुवनी ‘ यासारख्या गीतांनी एका वेगळ्याच आनंदरसाची बरसात करायचा. श्रीरामचंद्र कृपालू, बाजे रे मुरलीया बाजे सारखी गाणी वेगळ्या विश्वात घेऊन जायची. रात्रीच्या वेळी हा आवाज अंगाई गाऊन निजवायचा. दुसऱ्या शब्दात सांगायचे तर ‘ जेथे जातो तेथे तू माझा सांगाती…’ असलेला हा आवाज होता. ( उगवतीचे रंग )
एक मुलगी नऊ दहा वर्षांची असल्यापासून श्रोत्यांसमोर गायला सुरुवात करते. पितृछत्र हरपल्यावर हीच चौदा पंधरा वर्षांची कोवळी पोर मोठी होऊन आपल्या घराची, भावंडांची काळजी घेते. दैवी सूर तर तिच्या गळ्यात असतोच. पण आपल्या मेहनतीने ती त्या सुरांना सौंदर्य प्राप्त करून देते. मिळेल तिथून शिकत जाते. शाळेत फारसे न गेलेली ही मुलगी पुढे स्वतःच्या बळावर शिकत जाते. पुस्तके वाचते तशीच माणसे वाचते. त्या सगळ्यातून जीवनाचे धडे घेते. स्वतःची तत्वे, नैतिक अधिष्ठान या गोष्टींशी कधीही तडजोड करत नाही. मिळेल त्या संगीतकाराकडून शिकत जाते. पण आयुष्यात आलेल्या या सगळ्या संकटांनी ती करपून जात नाही. तिचं आयुष्य म्हणजे जणू आनंदयात्री ! संगीत, प्रवास, क्रिकेट, खाणं आणि खाऊ घालणं, नर्म विनोद, नकला या सगळ्या सगळ्या गोष्टींचा आनंद तिने लुटला. लोकांनाही भरभरून दिला. तिच्या सुरांचं झाड अखेरपर्यंत बहरतच राहिलं. साडेसात दशकं हे झाड गात होतं, बहरत होतं आणि ‘ आता विसाव्याचे क्षण…’ उपभोगत होतं !
संत कबीर म्हणतात
कबीरा जब हम पैदा हुए जग हंसे हं रोये
ऐसी करनी कर चलो, हम हंसे जग रोये ।।
दीदी अशीच करणी करून गेल्या. अवघं जग हळहळलं. राष्ट्रध्वज अर्ध्यावर आले. एका भारतरत्नाला अखेरचं वंदन करण्यासाठी पंतप्रधान आणि अवघे मान्यवर अंत्यदर्शनाला आले. ‘ जीवन कृतार्थ होणं ‘ ते अजून वेगळं काय असतं ! जगावं तर असं जगावं आणि मरावं तर असं मरावं !
आता दीदी देहानं आपल्यात नाहीत. पण त्यांचे सूर चिरंतन आहेत. ते सदैव आपली साथ करत राहतील. ‘ नाम गम जायेगा, चेहरा ये बदल जायेगा, मेरी आवाज ही पहचान हैं , गर याद रहे. ‘ तेव्हा दीदी ‘ अखेरचा हा तुला दंडवत…! ‘
आपल्याला दर वेळी प्रमाणे आजही लवून कुमनो! (मेघालयच्या खास खासी भाषेत नमस्कार, हॅलो!)
फी लॉन्ग कुमनो! (कसे आहात आपण?)
आपल्या प्रतिसादाने मला खरंच खूप काही दिलंय! मित्रांनो, आम्ही जे थोडके मेघालय बघितले त्याची महती मागील सात भागात गायली, मात्र आमचा प्रवास ११ दिवसांचा होता, त्यामुळे आम्ही परत मेघालय बघणार हे निश्चित आहेच! हा मेघालायच्या नयनरम्य आठवणी जपत लिहिलेला आठवा आणि पुढील भाग मी खास करून षोडश वर्षीय, नवयौवनेसम तारुण्याने सळसळत्या अशा शिलॉन्ग या मेघालयच्या राजधानी करता राखून ठेवले होते. आम्ही मुंबई ते आसामची राजधानी गुवाहाटी येथील प्रवास विमानाने केला. उज्ज्वलने (माझा जावई) मेघालयच्या संपूर्ण प्रवासासाठी कॅब बुक केली होती. विमानतळावर आसामचा एका ड्रायव्हर अजय आमच्या स्वागताला हजर होता. त्याच्या सोबत आम्ही नंतरचे १० दिवस अतिशय आनंदाने प्रवास केला. कधी धो धो पावसाचे आक्रमण, कधी धुक्याची रजई, कधी अरुंद गल्ल्या, कधी वेडीवाकडी घाटाची वळणे, तर कधी आमची दिरंगाई, हे सर्व अत्यंत धीराने सहन करत अजय अविरत गाडी चालवत होता, वाहतुकीचे सर्व नियम कडकपणे पाळीत! आमच्याशी प्रेमाने संवाद साधत कुठे काय बघण्यासाखे आहे, या बाबत तो सूचना आणि मार्गदर्शन देखील करीत होता. मला तर तो कुठलेही प्रेक्षणीय स्थळ आले की “नानी आप ये कर सकता है/ नहीं कर सकता” अशी प्रेमळ ताकीदच द्यायचा. संपूर्ण प्रवासात आम्ही नादमधुर अशी गाणी (बंगाली आणि आसामी) ऐकत गेलो. त्यातीलच एक गाणे होते भूपेन हजारिका यांचे अत्यंत गोड आणि श्रवणीय असे “ओ गंगा”! आम्हा सर्वांना आवडलेल्या या गाण्याची ध्वनिफीत शेवटी दिलेली आहे. आम्ही गुवाहाटी ते शिलॉन्गला जाता जाता भूपेन हजारिका यांचे सुंदर स्मारक बघितले.
शिलॉन्ग ही भारताच्या मेघालय राज्याची राजधानी आणि तेथील सर्वात मोठे शहर आहे. याशिवाय शिलॉन्ग पूर्व खासी हिल्स जिल्ह्याचे प्रशासकीय केंद्र आहे. १९६९ पर्यंत हे शहर संयुक्त आसाम प्रांताची राजधानी होते. १९७२ साली मेघालय हे स्वतंत्र राज्य म्हणून प्रस्थापित झाल्यावर हेच शहर मेघालयच्या राजधानीचे शहर बनले व आसामची राजधानी गुवाहाटीमधील एक उपनगर दिसपूर येथे हलवण्यात आली. आज शिलॉन्ग मेघालयची आर्थिक, सांस्कृतिक व वाणिज्य राजधानी आहे. २०२४ मध्ये या शहराची लोकसंख्या आहे सुमारे ५०८०००. हीच लोकसंख्या २०११ साली सुमारे १४३००० इतकी होती. येथील सुमारे ४७ टक्के रहिवासी ख्रिश्चन धर्मीय तर ४२ टक्के लोक हिंदू आहेत. इंग्लिश ही येथील अधिकृत भाषा असून खासी, जैंतिया व गारो ह्या स्थानिक भाषांना राजकीय दर्जा देण्यात आला आहे. खासी व जैंतिया हिल्स हा भूभाग पारंपारिक काळापासून चेरापुंजी येथे राजधानी असलेल्या खासी जमातीच्या अखत्यारीखाली होता, परंतु सिल्हेट ते आसाम दरम्यान रस्ता बांधण्यासाठी ईस्ट इंडिया कंपनीला येथील जमिनीची आवश्यकता भासू लागली. ह्यावरून झालेल्या युद्धात ब्रिटिशांची सरशी झाली व १८३३ साली हा भूभाग ब्रिटिशांनी जिंकला. परंतु चेरापुंजी हे ठिकाण सोयीचे नसल्यामुळे ब्रिटिशांनी १८६० च्या दशकात शिलॉन्ग शहराची स्थापना केली. १८७४ मध्ये ब्रिटिश राजवटीने नवनिर्वाचित आसाम प्रांताची स्थापना केली व शिलॉन्ग आसामची राजधानीचे शहर बनले.
या भागाला निसर्गाचा बहुमोल वारसा लाभलेला आहे. येथील डोंगराळ भाग व सौम्य हवामानामुळे ब्रिटीशांना हे शहर पूर्वेकडील स्कॉटलँडसारखे निसर्गसंपन्न आणि सुंदर वाटायचे. मात्र एक लोकप्रिय पर्यटनस्थळ असून देखील येथे रस्ते व रेल्वेमार्गांचा विकास होऊ शकला नाही, म्हणून शिलॉन्गची प्रगती संथ गतीने होत राहिली. १८ व्या शतकामध्ये येथे आलेल्या ख्रिश्चन मिशनऱ्यांनी या भागात ख्रिश्चन धर्माचा प्रसार केला व मुलांच्या शिक्षणासाठी शाळा सुरू केल्या. ब्रिटीश वसाहतवादाचा वारसा सांगणारी घरांची रचना, हॉटेल व कॅफे मध्ये वाजवले जाणारे संगीत ही या शहराची वेगळी वैशिष्टये आहेत. पर्यटनाच्या दृष्टीने ठायी ठायी निसर्गाची लयलूट असलेला अत्यंत संपन्न असा हा प्रदूषणमुक्त प्रदेश आहे. शिलॉन्ग हे डोंगर उतारावर वसलेले आहे. येथील शिलॉन्ग व्यू पॉइंट वरून आपण संपूर्ण शिलॉन्ग शहर पाहू शकतो. आकाशात पसरलेले प्रचंड धुके आणि त्या धुक्यात हरवलेले शिलॉन्ग हे शहर वेगळीच अनुभूती देऊन जाते. (आम्ही हा पॉईंट बघू शकलो नाही कारण तेव्हां तो बंद करण्यात आला होता)
शिलॉन्ग विमानतळ शहराच्या ३० किलोमीटर उत्तरेस स्थित आहे. येथून दिल्ली, कोलकाता तसेच ईशान्येकडील दिमापूर, गुवाहाटी, सिलचर, इम्फाल, आगरताळा इत्यादी प्रमुख शहरांसाठी थेट विमानसेवा उपलब्ध आहे. राष्ट्रीय महामार्ग क्रमांक ६ शिलॉन्गला गुवाहाटी तसेच इतर महत्वाच्या शहरांसोबत जोडतो. दुर्दैवाने आजही शिलॉन्ग भारतीय रेल्वेच्या नकाशावर नाही. मात्र भविष्यात गुवाहाटी ते मेघालय रेल्वेमार्ग बांधला जाईल अशी आशा आहे. आजच्या घडीला गुवाहाटी रेल्वे स्टेशन शिलॉन्ग पासून १०५ किलोमीटर दूर आहे.
मित्रांनो, आता आपण शिल्लोन्ग येथील (अर्थातच आम्ही बघितलेली) प्रेक्षणीय स्थळे बघू या!
उमियम सरोवर (Umiam lake)
आम्ही शिलॉन्गच्या वाटेवर असतांना एक अतीव लावण्यमय, जणू काही चित्रप्रतिमेप्रमाणे निगुतीने घडवलेले असे उमियम सरोवर बघितले. मानवनिर्मित असूनही त्याचे नैसर्गिक सरोवरासारखेच भासमान होणारे सौंदर्य अगदी विनासायास सिनेमास्कोपिक अन फोटोजेनिक असे! कुठंही कॅमेरा फिक्स करा अन क्लिक करा, त्या चित्राची मोहिनी मन मोहणारच! या वेड लावणाऱ्या सरोवराला वेढलंय हिरव्यागार वनश्री अन विशाल पूर्व खासी पर्वतशृंखलांनी! शिलॉन्गच्या मध्यबिंदू पासून हे स्थळ १६ किलोमीटर अंतरावर आहे. उमियम नदीला बांध घालून हे विशाल आणि विलक्षण मानवनिर्मित आरस्पानी सरोवर बघताच आम्ही त्यावर लुब्ध झालो. स्थानिक लोक याला “बडापानी” म्हणतात. सहलीसाठी गावाबाहेर जायचंय ना, मग त्यासाठी हे ठिकाण एकदम सही! म्हणूनच इथे पर्यटकांची धो धो गर्दी असते, खास करून सुट्टीच्या दिवशी! इथला सूर्यास्त नयनाभिराम नारिंगी, गुलाबी अन लाल रंगांची उधळण करीत रंगावली रेखितच रात्रीच्या कुशीत विराम पावतो! पावसानंतरचे विहंगम इंद्रधनुषी रंग बघावे ते इथेच, कारण हे सर्व रंग या सरोवरात स्वतःचे राजस रुपडे न्याहाळत असतात!
आम्ही जेव्हा इथे पोचलो तेव्हा बघितले की, हिरव्याकंच पाचूंच्या माळेत नीलम गुंफला जावा तसे हिरव्यागार वनश्रीत हे सरोवर चमकत होते. आकाशाचे बदलते रंग या जलाशयाच्या जलाचे रंग देखील बदलत होते. कधी धवल, कधी नीलकांती, तर कधी मेघवर्णम शुभांगम! हरखून गेले मी या परिसरात. मित्रांनो, तुम्ही सुद्धा असेच हरवून जाल इथे! इथले नौकानयन म्हणजे या जलाच्या निळाईचे सौंदर्य जवळून पाहण्याची सुवर्णसंधी, अर्थातच हे अपरिहार्य! नौकानयन करतांना आमची नौका(मोटरबोट) इवलाल्या शंकूच्या आकाराच्या पाचूंच्या बेटांना वेढा घालीत विहार करीत होती. आमचे नशीब जोरावर होते, कारण आम्हाला नेणाऱ्या नौकेचे इंधन मधेच संपले आणि ते येईपर्यंत बोनस मिळावा तसे आम्ही भोवतालचे सृष्टी सौंदर्य न्याहाळीत बसलो. ते येऊ नये असे वाटत असतांनाच आले! या सरोवरात वॉटर स्पोर्ट्सची सुविधा देखील आहे (kayaking, boating, water cycling, scooting, canoeing इत्यादी). अर्थात यासाठी आभाळ व सरोवर शांत अन सौम्य असणे आवश्यक! आपल्याला यापैकी काहीच करायचे नसेल तर मजेत फेरफटका मारत या रम्य परिसराचं नुसतंच आनंददायी निरीक्षण करीत राहा! आपणास शक्य असल्यास या सरोवराजवळील हॉटेलमध्येच मुक्काम करा, अन निसर्ग शोभेचा मनसोक्त अनुभव घ्या.
पुढील भागात शिलॉन्गमध्ये आणि त्याच्या आसपास फेरफटका मारू या!
तोवर जरा दम धरा मंडळी! आत्तापुरते आवरते!
खुबलेई! (khublei) म्हणजेच खास खासी भाषेत धन्यवाद!)
टीप – *लेखात दिलेली माहिती लेखिकेचे अनुभव आणि इंटरनेट वर उपलब्ध माहिती यांच्यावर आधारित आहे. इथले फोटो व्यक्तिगत आहेत
इयत्ता दुसरीतील सुलु आणि नंदू घरी निघाल्या. दोघींच्या हातात परीक्षेचे रिझल्ट होते, सुलु वर्गात पहिली आली होती आणि नंदू जेमतेम पास झाली होती. पण सुलु आणि नंदू यांना त्याची जाणीव नव्हती. ओढ्यातील पाण्यात खेळत, एकमेकांवर पाणी उडवत त्या घरी निघाल्या.
ओढा संपल्या संपल्या मेस्त्रीची आळी लागायची, सर्व मेस्त्रीची घर, घराच्या छप्पर दुरुस्तीचे काम करणारे मेस्त्री. सुलु मातीच्या, जुन्या घरात शिरली तेंव्हा आई ओढ्यावर कपडे धुवायला गेली होती, मोठया दोन बहिणी जंगलात लाकडे गोळा करायला गेल्या होत्या, सुलु च्या आईने चुलीवर पेज शिजवून ठेवली होती, त्या मडक्यातील पेज भांड्यात ओतून सुलु पेज जेऊ लागली.
नंदूची आई नंदूची वाटच बघत होती, नंदू गावातील सुस्थितीतील मुलगी, तिचे बाबा बँकेत तालुक्याच्या गावी नोकरीला होते, आजोबा प्रतिष्ठित माणूस, गोरगरिबांच्या उपयोगी पडणारे, गरिबांचा कनवाळा असलेले. नंदूची आई रत्नागिरीतील शहरात राहिलेली, तिचे माहेरचे सगळे शिकलेले.
नंदू ने दुसरीचे मार्कलिस्ट आईच्या हातात दिले, नंदूची आई चिडली, तिने नंदूच्या पाठीत दोन धपाटे घातले. नंदूच्या रडण्याचा आवाज ऐकून तिचे आजी आणि आजोबा धावून आले.
आजोबा – अग का मारतेस तिला?
आई – मार्क बघा तिचे, अशी बशी पास झाली आहे, एवढा मी अभ्यास घेते तरी हिच्या अभ्यासात सुधारणा नाही, माझ्या भावाची बहिणीची मुले किती हुशार, पण हिचे या खेड्यात राहून नुकसान होते आहे.
आजोबा –मग ती मेस्त्रीची सुलु कसे मार्क मिळविते? तिचा वर्गात पहिला नंबर आला आहे.
आई – मला माझ्या मुलीची काळजी आहे, या खेड्यात राहून तिचे नुकसान होणार, नाहीतरी तिच्या बाबांची नोकरी तालुक्याच्या गावीच आहे, तेव्हा यांना सांगणार आपण आता तालुक्याच्या गावी बिऱ्हाड करू, त्याशिवाय नंदूच्या अभ्यासात प्रगती होणार नाही.”
नंदूची आजी काहीतरी सांगायला जात होती, पण आजोबांनी हात दाखवून तिला गप्प केले, नाहीतरी हल्ली नंदूची आई सतत आम्ही तालुक्याच्या गावी बिऱ्हाड करणाऱ्याचे तुंतून वाजवत होती.
संध्याकाळी नंदूचे बाबा आल्यानंतर नंदूच्या आईने नंदूचे मार्क दाखवले, आणि आता शहरात जाण्याशिवाय मार्ग नाही तेव्हा शहरात बिऱ्हाड करायचे आहे असे निक्षुन सांगितले. नंदूच्या आईला काहीतरी समजावत होते, पण आजोबा म्हणाले” मिलिंद, नंदुच्या आईचे जर असे मत असेल की शहरात गेल्यावर तिची प्रगती होईल, तर होऊ दे तिच्या मनासारखे.
अशा रीतीने जून महिन्यात नंदूच्या बाबांनी शहरात बिऱ्हाड केले. नंदू शहरात जाताना सुलू च्या घरी जाऊन सुरूला मिठी मारून खूप रडली. सुलु ने तिची समजूत घातली, नंदू म्हणाली अधून मधून मी घरी येतच असणार तेव्हा आपण भेटू.
शहरात आल्यावर नंदूच्या आईने नंदूचे नाव कलासात घातले तसेच चांगले शाळेमध्ये नाव घातले, पण नंदूची तिसरीतही प्रगती दिसेना, चौथी स्कॉलरशिप साठी नंदूच्या आईने नंदूसाठी खूप प्रयत्न केले, पण चौथी स्कॉलरशिप नंदूला खूप कमी मार्क मिळाले, खेडेगावात राहून सुलु ने स्कॉलरशिप मिळवली.
नंदूच्या आजोबांनी शिक्षणाधिकाऱ्यांना बोलावून सुलु चा सत्कार केला, नंदूच्या आईला आजोबांचा फार राग आला. तिने रागाने नंदूच्या आजोबांनाविचारले
नंदूची आई – तुमच्या नातीला स्कॉलरशिप मध्ये एवढे कमी मार्क असताना, तुम्ही त्या गावातल्या सुलु चा सत्कार का घडवून आणलात? तुम्हाला तुमच्या नातीचें मार्क बघून वाईट नाही का वाटले?
आजोबा – माझ्या नातीला जर चांगले मार्क मिळाले असते तर मला त्याचा खूप आनंद झाला असता, पण तिला ते मिळाले नाहीत, खेडेगावात राहून कसलेही क्लास न करता सुलु ने स्कॉलरशिप मिळवली याचा पण मला खूप आनंद आहे. यापुढे पण मी तिच्या मागे असणार. तिला चांगले शिक्षण मिळावे म्हणून मी तिला प्रोत्साहन देत राहणार.
नंदूच्या आईचा जळफळात झाला, तिने आपल्या नवऱ्याला पण सांगण्याचा प्रयत्न केला, पण नंदूच्या बाबांनी पण तिच्याकडे दुर्लक्ष केले.
दहावी परीक्षेतही नंदू कशीबशी पास झाली उलट मेस्त्रीची सुलु जिल्ह्यात दुसरी आली, परत एकदा नंदूचे आजोबा तिच्या पाठी उभे राहिले, सुलुच्या आई बाबांना पटवून सुलूला तालुक्याच्या गावी अकरावी बारावी साठी पाठविले.
दहावी जेमतेम पास झालेली नंदू पण त्याच शाळेमध्ये अकरावीसाठी आली, पुन्हा नंदू आणि सुलु एका बेंचवर बसू लागल्या, सुलु गावातून st ने जाऊ लागली, पण गावातून फक्त जाणाऱ्या दोन एसटी बसेस होत्या, त्यामुळे सुलूची पंचायत होऊ लागली, संपले की दुपारी चार वाजेपर्यंत गावी जाण्यासाठी गाडी नव्हती. त्यामुळे उपाशी सुलु एसटी स्टँडवर एसटी ची वाट पहात बसू लागली.
नंदूच्या आजोबांच्या हे लक्षात आले, ते आपल्या मुलाच्या बिऱ्हाडी आले आणि आपल्या मुलाला म्हणाले
आजोबा –अरे मिलिंद, त्या मेस्त्रीच्या सुलु चो वेळ st ची वाट बघण्यात जाता, पाच नंतर ता दमान घरात पोचता, अशाने तेचो अभ्यास कसो व्हतलो, तसा नंदू आणि सुलु लहानपणापासून मैत्रिणी, आता एका वर्गात असत एका बेंचवर बसतात,तेव्हा सुलु हय तुमच्या कडे रवान शाळेत गेला तर…
मी आणि बायको, आमच्या अनुक्रमे ५ आणि ३ वर्ष वयाच्या लेकरांना घेऊन, सामानाने गच्च भरलेली ट्रॉली ढकलत तेवढ्याच गच्च भरलेल्या मॉलमध्ये बिलिंग काऊंटरकडे मार्गक्रमण करत होतो, आणि ते मगाचचे आजोबा परत आमच्याशी बोलायला आले होते.
तशी आजच्या संध्याकाळची सुरुवात काही फारशी चांगली झाली नव्हती.
आज शुक्रवार होता. दिवसभर ऑफिसमध्ये काम करताना लोकांच्या डोळ्यासमोर संध्याकाळी सुरू होणाऱ्या वीकएंडची रम्य दृश्यं तरळत होती, मला मात्र सोमवारी एक अर्जंट प्रेझेन्टेशन होतं, घरी गेल्यावरही तेच काम घेऊन बसायला लागणार होतं हे जाणवत होतं. मुलांना मॉलमध्ये नेण्याचं प्रॉमिस केलं होतं, पण त्यांना काहीतरी थाप मारून टाळायचं, हेही ठरवलं होतं.
पण घरी पोचलो आणि कळलं की माझ्या सासूबाईंची प्रकृती थोडी बिघडली होती, nothing serious, पण त्या आणि माझे सासरे उद्या इथे आमच्या घरी येणार होत्या. त्यांना घेऊन हॉस्पिटलमध्ये जाऊन डॉक्टरांना दाखवणं, तपासण्या करून घेणं अशी कामं होती.
सासू सासरे येणार म्हणून आणि बाकीचीही वाणसामान आदि खरेदी होती, बायकोला एकटीला ते सगळं सामान आणणं जमलं नसतं. त्यामुळे न सुटके मला आल्यापावली परत बाहेर पडावं लागलं. या घटनेला दोन तास होऊन गेले होते, आणि आत्ता आम्ही खरेदी संपवून मॉलमधून निघण्याच्या मार्गावर होतो.
आमची खरेदी चालू असताना एक t shirt, बर्म्युडा घातलेले मॉडर्न आजोबा लेकरांना बघून आमच्याजवळ आले. त्यांची नातवंडं अमेरिकेत असतात, या दोघांना बघून त्यांना त्यांची आठवण आली, म्हणून ते आवर्जून या दोघांशी गप्पा मारायला आले.
आज आमच्या मुलांचा सौजन्य-सप्ताह चालू होता बहुतेक. या नव्या आजोबांशी त्या दोघांनी छान गप्पा मारल्या, त्यांच्याबरोबर हसले – खेळले, enjoy केलं. मुलांना टाटा करून आजोबा त्यांच्या खरेदीला निघून गेले.
आणि आत्ता आम्ही निघत असताना ते परत आले होते.
” यंग मॅन, हे सोनेरी दिवस पुन्हा येणार नाहीत,” ते माझ्याशी बोलत होते, ” मला कल्पना आहे की तुमच्या करीअरच्या दृष्टीने ही महत्त्वाची वर्षे आहेत, खूप कामं असतील, पण या लेकरांची ही वयं पुन्हा गवसणार नाहीत. मी पण कॉर्पोरेट कल्चरमध्ये काम केलं आहे, ती धावपळ – ती रॅट रेस काय असते हे मीही अनुभवलं आहे….. एकदा माझ्या मुलीला तिच्या बाहुल्यांसाठी डॉल हाऊस बनवायचं होतं. शाळेचा प्रोजेक्ट वगैरे नव्हता, तिलाच तिच्यासाठी हे करायचं होतं. मला नेहमीप्रमाणे काहीतरी deadline होतीच.
तिनं माझ्याकडे डॉल हाऊस करायला मदत करायचा हट्ट धरला. माझ्या कामाच्या व्यापात आणि घाई गडबडीत मी तिला ठाम नकार दिला, आत्ता काही अर्जंट नाहीये, नंतर करू, मी बिझी आहे वगैरे सांगितलं आणि जायला निघालो…. निघालो खरा, पण तिचा तो बिच्चारा चेहरा नजरेसमोरून हलेना. काहीतरी तुटलं आतमध्ये. आणि मी परत फिरलो…. तास दोन तासांचंच काम होतं, डॉल हाऊस पूर्ण झालं. त्याक्षणीचा तिचा तो उत्फुल्ल चेहरा आजही आठवतो. त्या दिवशी काय deadline होती, ते आठवतही नाही, पण ते डॉल हाऊस आता माझ्या मुलीच्या मुलीकडे अजूनही थाटात दिमाखात उभं आहे…. लक्षात ठेव, म्हातारपणी – निवृत्तीनंतर, ऑफिसचं अमुक काम करायचं राहिलं, तमुक काम करायचं राहिलं ही रुखरुख नसेल, पण लेकरांचं बालपण निसटून गेलं ही रुखरुख मात्र नक्की असेल.”
आजोबा निघून गेले, बायको माझ्याकडे सहेतुक पहात होती.
भगवान बुद्धांना पिंपळाच्या झाडाखाली साक्षात्कार झाला, मला गच्च भरलेल्या मॉलमध्ये, गच्च भरलेली ट्रॉली ढकलताना साक्षात्कार झाला. मी काय गमावून बसणार होतो हे ध्यानात आलं. तसं होऊ देता कामा नये हा पक्का निर्धार झाला. आणि मुलांचे हात हातात धरून त्याच निर्धाराने मी पुढे निघालो.
☆ सुमित्रेचे न परतलेले दोन राम ! – भाग – 2 ☆ श्री संभाजी बबन गायके☆
(तब्बल दोनशे किलोमीटर्सचा हा प्रवास करायला त्यांना पाच दिवस लागले…प्रभु रामचंद्रांच्या वानरसेनेलाही श्रीलंकेपर्यंत सेतू बांधायला पाचच दिवस लागले होते.) इथून पुढे —
३० ऑक्टोबरला राम-शरद अयोध्येत दाखल झाले! अयोध्येत सुमारे तीस हजार पोलिसांचा खडा पहारा होता…हत्याबंद. माणूसच काय पण पाखरूही रामजन्मभूमी परिसरात फिरकू शकणार नाही अशी पोलादी रचना केली गेली होती. तत्कालीन प्रशासन हे न्यायव्यवस्थेच्या आदेशाचे पालन करण्यात व्यग्र होते. हाती लागलेल्या कारसेवकांना प्रशासन वाहनांमध्ये कोंबून दूरवर नेऊन सोडत होते. रामजन्मभूमीस्थळी हजारोंचा जमाव जमला होता. त्यांच्यामध्ये पोलिसांच्या पहा-याची मजबूत भिंत उभी होती. पोलिसांनी अटक केलेले कारसेवक एका वाहनात भरले…ते वाहन तेथून निघणार होते तेवढ्यात एका साधूने वाहनचालकाकडून त्या वाहनाचा ताबा मिळवला आणि ते वाहन सर्व अडथळे तोडून थेट रामजन्मभूमीस्थळी पोहोचले. हे एवढ्या वेगाने घडले की काही मिनिटे पोलिसही गोंधळून गेले. या गोंधळात तोवर त्या इमारतीच्या घुमटावर कारसेवक चढलेही होते….बारीक चणीचे आणि चपळ असलेले शरदकुमार हाती भगवा ध्वज घेऊन सर्वांत आधी घुमटावर पोहोचले…बंधू राम सोबत होतेच. आणि राजेश अग्रवालही. शरदकुमारांनी घुमटावर भगवा ध्वज फडकावला…त्या स्थळावर प्रतिकात्मक अधिकार सांगणारी ती कृती होती….त्याजागी चारशे आठ वर्षांनंतर पहिल्यांदा मूळचा ध्वज फडकत होता! यंत्रणेने या सर्वांना खाली उतरवण्यात यश मिळवले आणि त्यांची रवानगी दूरवर केली.
शरद,राम,राजेश आणि अन्य सहकारी १ नोव्हेंबरला पुन्हा अयोध्येत परतले. अयोध्येतल्या एका मंदिरात रात्र काढली. दुस-याच दिवशी कार्तिक पौर्णिमा होती….२ नोव्हेंबर,१९९०! यादिवशी गंगा-यमुना स्नान घडले तर समस्त मनोकामना पूर्णत्वास जातात, अशी श्रद्धा आहे! या दिवशी देव दिवाळीही साजरी केली जाते.
रामजन्मभूमीसमोर जाऊन भजने म्हणत शांततापूर्ण मार्गाने निदर्शने करण्याचे ठरले आणि अर्थात शरद,राम,राजेश हे यात सहभागी होणारच होते. त्यांनी भल्या पहाटे शरयूगंगेत स्नान केले. घाट चढून वर आले तर रस्त्यातल्या एका दुकानात एक वस्त्रकारागीर कारसेवकांसाठी भगव्या कपाळपट्ट्या तयार करताना दिसला. राम आणि शरद यांनी एक एक पट्टी खरेदी केली. आणि पट्टीच्या मागे पेनने लिहिले….कफन! ही कृती तशी काही आधी ठरवून केलेली नव्हती…हा कदाचित प्रारब्धाचा एक संकेतच असावा !
योजनेनुसार अयोध्येतील एका गल्लीतून एक गट नियोजित स्थळी पोहोचण्यासाठी भजने गात निघाला. पोलिसांनी अडवले तर रस्त्यातच बसून राहायचे, अशी साधारण योजना होती. भर दुपारची वेळ. एका मठवजा इमारतीतून शरदकुमार आणि रामकुमार नुकतेच बाहेर पडले होते…शांतपणे चालत येत होते. तेवढ्यात पोलिसांनी गोळीबार करायला सुरूवात केली. एका गोळीने रामकुमारच्या मस्तकाचा वेध घेतला…क्षणार्धात तो रक्ताच्या थारोळ्यात कोसळला. ते पाहताच शरदकुमार रामकुमारकडे धावला…लक्ष्मण रामामागे धावला तसा….शरदकुमार त्याच्यापाशी खाली बसला…आणि दुस-याच क्षणी त्याच्याही शरीराचा वेध दुस-या एका गोळीने घेतला! दोघेही जागीच गतप्राण झाले! गल्लीत प्रचंड गदारोळ उठला.
पोलिसांनी मृतदेह वाहनांमध्ये भरून नेण्यास सुरुवात केली होती….परंतू राजेश अगरवाल यांनी त्याही स्थितीत काही व्यवस्था करून राम आणि शरद यांचे मृतदेह ताब्यात घेऊन तेथून हलवले. प्रशासनाने ते मृतदेह अयोध्येतून बाहेर घेऊन जाण्याची अनुमती दिली नाही. नंतर शरयूच्या तीरावर राजेश अग्रवाल यांनी या दोघा भावांना अग्निडाग दिला…!
इकडे कोलकात्यात हीरालाल यांच्या पत्त्यावर एक पोस्टकार्ड आले होते….बाबा आम्ही वाराणसीला पोहोचतो आहोत अशा आशयाचे…काम झाल्यावर लगेच घरी यायला निघतो…जय श्रीराम! त्यानंतरच्या सलग चार दिवशी चार पत्रं आली…पोरांनी पत्र लिहित राहण्याचे वचन पाळले होते आणि प्रत्येक मुक्कामावरून एक एक पत्र धाडले होते.एकात लिहिले होते…ताईच्या लग्नासाठी लवकरच परत येऊ !
घटनेच्या दिवशीच कोलकात्यात बातमी पोहोचली होती….राम शरद आता आपल्यात नाहीत. कौसल्येचे राम आणि सुमित्रेचे लक्ष्मण रावणरूपी मृत्यूच्या जबड्यातून सुटून अयोध्येत परतू शकले होते…परंतू या सुमित्रेचे राम-शरद प्रत्यक्ष श्रीरामांच्या अयोध्येतून परतू शकले नाहीत. हीरालाल आणि सुमित्रा कोठारी यांच्यावर कोसळलेला वेदनेचा डोंगर अगदी महाकाय. आपल्या लेकरांच्या पार्थिव देहांचं अंतिम दर्शनही त्यांना घेता आले नाही. दोन महिन्यांवर लग्न आलेल्या बहिणीने,पौर्णिमाने मग आपला साखरपुडा मोडला आणि राममंदिर उभे राहीपर्यंत अविवाहीत राहण्याचा निर्णय घेतला…एक आनंदी कुटुंब असं मोडकळीस आलं होतं. रामकुमार आणि शरदकुमार कोठारी यांचे वडील हिरालाल आज जगात नाहीत….ते २००२ मध्ये गेले. हे जग सोडताना त्यांच्या मुखात ‘राम’ नाम होते..आणि शरद नामही! त्यांचा राम जीवनात न रेंगाळता मृत्यूच्या वनात निघून गेला होता. आणि या रामाच्या लक्ष्मणाने आपल्या भावाची सावली बनून त्याच्यासह जाणे स्वीकारले ! २०१६ मध्ये ह्या राम-शरदाची सुमित्राही पुत्रविरहाचं दु:ख हृदयात घेऊन परलोकी गेली! भावपूर्ण श्रद्धांजली !
— समाप्त —
(संबंधित विषयाबद्द्ल विविध स्रोतांमध्ये वाचलेल्या माहितीवर आधारित.)
☆ पन्नाशीच्या पुढे मानसिक गोंधळ का ?? – लेखक : अर्नाल्डो लिक्टेंस्टीन, फिजिशियन ☆ प्रस्तुती – श्री सुनीत मुळे ☆
पन्नाशीच्या पुढे मानसिक गोंधळ का ??
याची कारणे : वयाच्या तिसऱ्या टप्प्यातील मानसिक गोंधळ ……
जेव्हा जेव्हा मी डॉक्टरीच्या चौथ्या वर्षामध्ये विद्यार्थ्यांना क्लिनिकल औषध हा विषय शिकवितो, तेव्हा मी पुढील प्रश्न विचारतो:…
वृद्धांमध्ये मानसिक गोंधळाची कारणे कोणती आहेत?
— काही सुचवतात: “डोक्यात ट्यूमर”. मी उत्तर देतो: नाही !
— इतर सूचित करतात: “अल्झायमरची सुरुवातीची लक्षणे”. मी पुन्हा उत्तर देतो नाही !
त्यांच्या प्रत्युत्तराच्या प्रत्येक नकाराने, त्यांच्या प्रतिक्रिया कोरड्या पडतात.
जेव्हा मी तीन सर्वात सामान्य कारणे सूचीबद्ध करतो तेव्हा ते अधिक मोकळे होतात:….
– अनियंत्रित मधुमेह
– मूत्रमार्गात संसर्ग;
– निर्जलीकरण
हा विनोद वाटेल, परंतु तसे नाही. ५० वर्षांपेक्षा जास्त लोकांना सतत तहान जाणवणे थांबते आणि परिणामी द्रव पिणे थांबते. जेव्हा त्यांना आसपास द्रव पिण्याची आठवण करून देण्यासाठी कोणीही नसते तेव्हा ते त्वरीत डिहायड्रेट होतात. निर्जलीकरण तीव्र होते आणि संपूर्ण शरीरावर त्याचा परिणाम होतो. यामुळे अचानक मानसिक गोंधळ, रक्तदाब कमी होणे, हृदयाची धडधड वाढणे, एनजाइना (छातीत दुखणे), कोमा आणि अगदी मृत्यूसुद्धा– यासारख्या घटना घडतात.
आपल्या शरीरात आपल्याकडे पाण्याचे प्रमाण ५0% पेक्षा जास्त असते. तेव्हा द्रव पिण्यास विसरण्याची ही सवय ५0 व्या वर्षी सुरू होते. ५0 वर्षांपेक्षा जास्त वय असलेल्या लोकांकडे पाण्याचा साठा कमी असतो. हा नैसर्गिक वृद्ध होण्याच्या प्रक्रियेचा एक भाग आहे.
परंतु यामध्ये आणखी गुंतागुंत आहे. जरी ते डिहायड्रेटेड असतील, तरी त्यांना पाणी प्यावं असं वाटत नाही, कारण त्यांची अंतर्गत नियंत्रित यंत्रणा फार चांगली काम करत नाही.
निष्कर्ष:
५0 वर्षांपेक्षा जास्त वयाचे लोक सहजपणे डिहायड्रेट होतात, केवळ त्यांच्यात पाणीपुरवठा होत नाही, तर त्यांना शरीरात पाण्याची कमतरता जाणवत नाही.
५0 वर्षांपेक्षा जास्त वय असलेले लोक निरोगी दिसत असले तरी, प्रतिक्रिया आणि रासायनिक कार्यांची कमी झालेल्या कार्यक्षमतेचे कार्य त्यांच्या संपूर्ण शरीरास हानी पोहचवत असते.
तर येथे दोन सतर्कता घ्यायच्या आहेतः
१) द्रव्य पिण्याची सवय लावा. पातळ पदार्थांमध्ये पाणी, रस, चहा, नारळपाणी, दूध, सूप आणि रसाळ फळे, जसे टरबूज, खरबूज, पीच आणि अननस यांचा समावेश आहे; संत्रा आणि टेंजरिन देखील कार्य करतात. महत्वाची गोष्ट अशी आहे की, दर दोन तासांनी आपण थोडासा द्रवपदार्थ पिणे आवश्यक आहे. हे लक्षात ठेवा !
२) कुटुंबातील सदस्यांना इशारा::: पन्नाशीच्या पुढील लोकांना सतत द्रवपदार्थ द्या. त्याच वेळी, त्यांचे निरीक्षण करा. .. जर आपल्या हे लक्षात आले की ते पातळ पदार्थ नाकारत आहेत, एका दिवसानंतर दुसऱ्या दिवशीही, तर ते चिडचिडे होतील, श्वास घ्यायला त्रास होणे, शांतता व सातत्य (लक्ष)कमी होणे, हे निर्जलीकरणाची जवळजवळ निश्चितच वारंवार येणारी लक्षणे आहेत.
जर आपल्याला हे आवडले असेल तर ते सगळ्यांपर्यंत पसरविण्यास विसरू नका. आपल्या मित्रांना आणि त्यांच्या कुटूंबाला, त्यांच्यासह स्वत:साठी जाणून घेणे आणि आपल्याला निरोगी आणि आनंदी होण्यास मदत करणे आवश्यक आहे. पन्नाशीच्या पुढील लोकांसाठी हे शेअर करणे चांगले आहे !
लेखक : अर्नाल्डो लिक्टेंस्टीन, फिजिशियन.
(अर्नाल्डो लिक्टेंस्टीन (46), वैद्य, हॉस्पिटल दास क्लिनिकस येथे एक सामान्य चिकित्सक आणि साओ पाउलो (यूएसपी) विद्यापीठातील औषध संकाय येथे क्लिनिकल मेडिसिन विभागातील सहयोगी प्राध्यापक आहेत.)
संग्राहिका : श्री सुनीत मुळे
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈