हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 275 ⇒ चमचों का संसार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चमचों का संसार।)

?अभी अभी # 275 ⇒ चमचों का संसार… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ऐसा कोई घर नहीं, जिसके किचन में थाली, कटोरी और चम्मच नहीं। चमचा, चम्मच का अपभ्रंश है। हमारे हाथों के अलावा चम्मच ही आधुनिक युग की वह वस्तु है, जो हमारे सबसे अधिक मुंह लगी है। जो लोग आज भी भारतीय पद्धति से भोजन करते हैं, वे चम्मच को मुंह नहीं लगाते। उसके लिए तो उनके हाथों के पांच चम्मच ही काफी हैं।

मनुष्य के अलावा ऐसा कोई प्राणी नहीं, जो भोजन में चम्मच का प्रयोग करता हो। कुछ पक्षियों की तो चोंच ही इनबिल्ट चम्मच होती है। जाहिर है, उनके तो हाथ भी नहीं होते। लंबी चोंच ही चम्मच, और वही उनका मुंह भी। उनका दाने चुगने का अंदाज, और चोंच से मछली का शिकार देखते ही बनता है।।

आप गिलहरी को देखिए। यह आराम से दो पांवों पर बैठ जाती है, और बिल्कुल हमारी तरह आगे के दोनों पांवों को हाथ में कनवर्ट कर लेती है। जब इच्छा हुई, मुंह से खा लिया, जब मन करा, हाथों से मूंगफली छीलकर खा ली।।

बच्चों को अक्सर दवा पिलानी पड़ती है। उसकी मात्रा चम्मच से ही निर्धारित होती है। घर में आपने किसी को चाय पर बुलाया है। ट्रे में जब चाय सर्व होती है, तो बड़े अदब से पूछा जाता है, शकर कितने चम्मच ? जो शुगर फ्री होते हैं, उनका चम्मच से क्या काम।

जो काम उंगलियां नहीं कर सकतीं, वे काम चम्मच आसानी से कर लेते हैं। नमक, मिर्च और हल्दी तो ठीक, लेकिन कढ़ाई में घी तेल तो चम्मच से ही डालना पड़ेगा। टेबल स्पून, आजकल एक माप हो गया है, जिससे मात्रा का अंदाज हो जाता है।।

अंग्रेज अपने साथ टेबल मैनर्स क्या लेकर आए, हम भी जमीन से टेबल कुर्सी पर आ गए। पहले अंग्रेजों को देहाती भाषा में म्लेच्छ कहा जाता था। वे हर चीज कांटे छुरी से खाते थे।

हमसे तो आज भी मसाला दोसा छुरी कांटे से नहीं खाया जाता। अपना हाथ जगन्नाथ।

जो पंगत में, पत्तल दोनों में भोजन करते हैं, वे कभी चम्मच की मांग ही नहीं करते। दाल चावल का तो वैसे भी हाथ से ही खाने का मजा है। कौन खाता है खीर चम्मच से, वह तो कटोरियों से ही पी जाती हैं। केले के पत्तों पर मद्रासी भोजन जिस स्टाइल में खाया जाता है, उसमें भोजन का पूरा रसास्वादन लिया जा सकता है।।

लोग अक्सर चाट दोने में ही खाते हैं। अब दही बड़ा तो हाथ से नहीं खा सकते उसके लिए भी लकड़ी का चम्मच उपलब्ध होता है। हम गराडू वाले तो टूथ पिक से ही कांटे, चम्मच का काम ले लेते हैं।

चम्मच को अंग्रेजी में स्पून कहते हैं। इसी स्पून से स्पून फीडिंग शब्द बना है, जिसका शुद्ध हिंदी में मतलब रेवड़ियां बांटना ही होता है। आजकल रेवड़ियां खुली आंखों से बांटी जाती हैं, क्योंकि इन्हीं रेवड़ियों की बदौलत ही तो पांच साल में लॉटरी खुलती है।।

साहब का चमचा ! जो किसी की जी हुजूरी करता हो, उसके आगे पीछे घूमता हो, सब्जी लाने से कार का दरवाजा खोलने तक सभी काम करता हो, साहब के हर आयोजन में सबसे पहले नजर आ जाता हो, यानी बुरी तरह से मुंह लगा हो, तो आप उसे चमचा ही तो कहेंगे।

राजनीति बड़ी बुरी चीज है। सौ चूहे खाकर जब बिल्ली हज पर जा सकती है, तो फिर हम तो इंसान हैं। कल तक हम भी किसी के चमचे थे, आज बगुला भगत बन बैठे हैं। बस कोई अच्छी मछली फंस जाए, तो बात बन जाए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry – ☆ Locks of Superstition… ☆ Hemant Bawankar ☆

Hemant Bawankar

☆ Locks of Superstition… ☆ Hemant Bawankar ☆

In Verona

Juliet’s balcony,

below the balcony,

Juliet’s statue

and

behind the statue

hung in the grill

countless locks.

The old town of Bamberg

in the heart of the city

Regnitz river’s bridge

and

countless locks

hanging

on the fence of the bridge cables.

 

Under the bridge

on the cool surface of the river Regnitz

duck pairs

disport

unaware

of superstition

of modern western culture.

 

There is an illusion

that

locks that hung off the way

will make

their matches

‘unbreakable’

‘everlasting’.

 

I heard that –

often

locks are hung

and

relations are broken

Juliet remains the same

and

Romeos are changed.

 

Though,

we are not an exception

we are too

somewhat superstitious.

We do also visit

Temple -Mosque

Church – Gurudwara

shrines of the prophets.

 

Knowingly or unknowingly

we also prayed

and tied threads

for our posterity

for their safety

with this hope

that – if

children are well

and well survived

then

not only couples

none can break

the homes.

(This poem has been cited from my book The Variegated Life of Emotional Hearts”.)

© Hemant Bawankar

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 258 ☆ व्यंग्य – सुपारी लाखों की ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – सुपारी लाखों की)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 258 ☆

? व्यंग्य – सुपारी लाखों की ?

बिदा होते हुये सहज ही किसी भी मेहमान को सुपारी प्रस्तुत किये जाने की परंपरा हमारी संस्कृति में है। बड़े प्रेम से सरौते से काट कर हाथ की गदेली में सुपारी दी ली जाती रही है। कच्ची सुपारी, सिकी सुपारी, खाने से लेकर पूजा अनुष्ठान तक, सुपारी के कई तरह के प्रयोग होते हैं। सुपारी को तांबूल फल की श्रेणी में गिना जाता है। पूजा पाठ में पंडित जी सहंगी सुपारियों से नवग्रह बनाने की क्षमता रखते हैं। विवाह में सोने, चांदी जड़ित सुपारी वर को देने की परंपरा भी हैं। आयुर्वेद में भी सुपारी से कई तरह के रोगों के उपचार किये जाते है। वास्तु विशेषज्ञ भी सुपारी का इस्तेमाल कई सारे उपाय के लिए करते हैं। सुपारी से पान पराग माउथ फ्रेशनर और गुटखा बनाकर करोड़ो के वारे न्यारे हो रहे हैं। सुप्रसिद्ध फिल्मी हीरो इन गुटखों के विज्ञापन करते नजर आते हैं। हर शहर में किसी चौराहे का कोई न कोई पान कार्नर दुनियां भर की चर्चाओ का प्रमुख सेंटर होता है। यहां कान खोलकर खड़ा संवाददाता सरलता से अखबार के सिटी पेज का अगले दिन का पन्ना तैयार कर सकता है। खासकर बोल्ड लेटर में छपने वाले बाक्स न्यूज में तो निश्चित ही किसी न किसी पान सेंटर का ही योगदान होता है। साहित्यिक अभिरुचि के लेखको, कवियों को पान सेंटर कई कहानियों प्लाट मुफ्त ही प्रदान कर देते हैं। कुछ जीवंत प्रेम कथायें भी नुक्कड़ के इन्ही ठेलों के गिर्द रच जाती हैं। सुपारी का पौधा आकर्षक होता है इसकी खेती से वर्षों तक मुनाफा होता है। रींवा में तो सुपारी पर कार्विंग कर तरह तरह की कलाकृतियां बनाई जाती हैं। अस्तु, सुपारी का कारोबार कईयों को रोजगार देता है।

इस तरह की सारी आम लोगों की सुपारी हजारों की ही होती है। किन्तु भाई लोगों की सुपारी लाखों की होती है। जिसमें वास्तविक सुपारी नदारत होती है। वर्चुएल रूप से भाई लोगों के गैंग किसी को उठा लेने के लिये, किसी को उड़ा देने के लिये लाखों की सुपरी लेते हैं। आधी रकम लेकर भाई के हेडक्वार्टर पर डील फाइनल कर दी जाती है। फिर भाई वारंट निकाल देता है। वर्क किसी गुर्गे को एसाईन हो जाता है। और काम निपटते ही  सुपारी की तय शुदा कीमत अदा कर दी जाती है। पोलिस के सायरन बजाती गाड़ियों के चक्कर लगते हैं। घटना स्थल की फोरेंसिक जांच की जाती है। साक्ष्य जुटाने के लिये घटना का पुनः नाट्य रुपांतर किया जाता है। टी वी चैनलों, अखबार के क्राईम रिपोर्टरों को फिर पान सुपारी की गुमटियों, खोंखों पर हो रही सुगबुगाहट से क्लू मिलते हैं। पोलिस के मुखबिर सुपारी चबाते खबरें तलाशते हैं। चंद सिक्कों की फिजिकल सुपारी लाखों की वर्चुएल सुपारी के अपराधों के राज खोलने में बड़ी भूमिका निभाती है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 192 ☆ गीत – फूल भी मसले गए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 193 ☆

☆ गीत – फूल भी मसले गए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

हम अकेले चल रहे हैं

जिंद़गी की राह में।

गीत मैं कितने लिखूँगा

वेदना से और अपने

अश्रुओं का अर्घ्य देकर

पूर्ण होते कहाँ सपने

 *

तप रहे आज भी हम

एक अन्तर्दाह में।

हम अकेले——-।।

 *

चल पड़ी पगडंडियाँ हैं

हर तरफ से बस शहर में

सच नहीं वे जानती हैं

खुशी मिलती गाँव-घर में

 *

दिन दुखों का बोझ ढोते

रैन कटती आह में।

हम अकेले——-।।

 *

छोड़ कर कर्तव्य – पालन

लग गए हैं होड़ में सब

कुछ पलटकर जोड़ते हैं

प्रेम में देखो गणित अब

 *

फूल भी मसले गए हैं

तालियों की वाह में।

हम अकेले——-।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #33 ☆ कविता – “इश्क तू कर…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 33 ☆

☆ कविता ☆ “इश्क तू कर…☆ श्री आशिष मुळे ☆

(सूफी रॅप)

ए बंदेया तू देख इधर

ना जा तू इधर उधर

सुन कान खोल के

जरा ठंडा कर जिगर

मोह माया में है फंसा

दिल को ना दुखी कर

 *

जो जो तू समझा

वोह एक कहानी

असलियत समझो तो

है तेरी कुर्बानी

 *

वो तुझे चलाते हैं 

झूठी रोशनी दिखाते हैं 

ना है उनके पास

अल्ला या राम

झुकाना है तुमको

बस यही काम

ख़ुदा तो ख़ुदा है

बाकी सब नाम

नाम से क्या होगा

जब अंदर भरा काम

 *

आंखों का तेरा बस

चश्मा उसने बदला है

जो भी सब चलता था

वही सब चलता है

कहेंगे तुझे देख

दुनियां कितनी बदली है

कुछ नहीं बदला

बस तरीक़े तेरे बदले है

 *

उस टाइम में भी

झगड़े होते थे

पत्थर से लोग

लड़ाई करते थे

आज तुझे चॉइस है

किससे तुझे मरना है

बंदूक से मरना है या

संदूक में घुटना है

बदलनी है ये सूरत

तो इसका एक इलाज

खोलो प्यार के रास्ते

हो जन्नत का लिहाज़

 *

खुद को भी प्यार कर

खुद की भी रिस्पेक्ट कर

उसको भी प्यार कर

उसकी भी रिस्पेक्ट कर

 *

बाबा बुलेशाह हो

या अमीर मेरा यार

हो मीरा बाई

या रूमी दर्याकार

हो कबीर या हो

शम्स सूफिकार

इनकी नज़र में

बस प्यार ही प्यार

इश्क़ के बिना

है जिंदगी बीमार

इन्होंने कही

बात असली मेरे यार

 *

इश्क़ कर मीरेया

इश्क़ तू कर

चाहे आसमां

या दर्या से कर

फूलों से कर तू

पौधों से कर

इंसान से कर तू

कायनात से कर

जवानी में कर

चाहें बुढ़ापे में कर

इश्क़ से कर मीरेया

इश्क़ तू कर

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #160 – बाल कथा – “घमंडी सियार” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अति सुंदर बाल कथा – घमंडी सियार)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 160 ☆

☆ बाल कथा- घमंडी सियार ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

उस ने अपने से तेज़ दौड़ने वाला जानवर नहीं देखा था. चूँकि वह घने वन में रहता था. जहाँ सियार से बड़ा कोई जानवर नहीं रहता था. इस वजह से सेमलू समझता था कि वह सब से तेज़ धावक है.

एक बार की बात है. गब्बरू घोड़ा रास्ता भटक कर काननवन के इस घने जंगल में आ गया. वह तालाब किनारे बैठ कर आराम कर रहा था. सेमलू की निगाहें उस पर पड़ गई. उस ने इस तरह का जानवर पहली बार जंगल में देखा था. वह उस के पास पहुंचा.

“नमस्कार भाई!”

“नमस्कार!” आराम करते हुए गब्बरू ने कहा, “आप यहीं रहते हो?”

“हाँ जी,” सेमलू ने जवाब दिया, “मैं ने आप को पहचाना नहीं?”

“जी. मुझे गब्बरू कहते हैं,” उस ने जवाब दिया, “मैं घोड़ा प्रजाति का जानवर हूँ,” गब्बरू ने सेमलू की जिज्ञासा को ताड़ लिया था. वह समझ गया था कि इस जंगल में घोड़े नहीं रहते हैं. इसलिए सेमलू उस के बारे में जानना चाहता है.

“यहाँ कैसे आए हो?”

“मैं रास्ता भटक गया हूँ,” गब्बरू बोला.

यह सुन कर सेमलू ने सोचा कि गब्बरू जैसा मोताताज़ा जानवर चलफिर पाता भी होगा या नहीं? इसलिए उस नस अपनी तेज चाल बताते हुए पूछा, “क्या तुम दौड़भाग भी लेते हो?”

“क्यों भाई , यह क्यों पूछ रहे हो?”

“ऐसे ही,” सेमलू अपनी तेज चाल के घमंड में चूर हो कर बोला, “आप का डीलडोल देख कर नहीं लगता है कि आप को दौड़ना आता भी होगा?”

यह सुन कर गब्बरू समझ गया कि सेमलू को अपनी तेज चाल पर घमंड हो गया है इसलिए उस ने जवाब दिया, “भाई!  मुझे तो एक ही चाल आती है. सरपट दौड़ना.”

यह सुन कर सेमलू हंसा, “दौड़ना! और तुम को. आता भी है या नहीं? या यूँ ही फेंक रहे हो?”

गब्बरू कुछ नहीं बोला. सेमलू को लगा कि गब्बरू को दौड़ना नहीं आता है. इसलिए वह घमंड में सर उठा कर बोला, “चलो! दौड़ हो जाए. देख ले कि तुम दौड़ सकते हो कि नहीं?”

“हाँ. मगर, मेरी एक शर्त है,” गब्बरू को जंगल से बाहर निकलना था. इसलिए उस ने शर्त रखी, “हम जंगल से बाहर जाने वाले रास्ते की ओर दौड़ेंगे.”

“मुझे मंजूर है,” सेमलू ने उद्दंडता से कहा, “चलो! मेरे पीछे आ जाओ,” कहते हुए वह तेज़ी से दौड़ा.

आगेआगे सेमलू दौड़ रहा था पीछेपीछे गब्बरू.

सेमलू पहले सीधा भागा. गब्बरू उस के पीछेपीछे हो लिया. फिर वह तेजी से एक पेड़ के पीछे से घुमा. सीधा हो गया. गब्बरू भी घूम गया. सेमलू फिर सीधा हो कर तिरछा भागा. गब्बरू ने भी वैसा ही किया. अब सेमलू जोर से उछला. गब्बरू सीधा चलता रहा.

“कुछ इस तरह कुलाँचे मारो,” कहते हुए सेमलू उछला. मगर, गब्बरू को कुलाचे मारना नहीं आता था. ओग केवल सेमलू के पीछे सीधा दौड़ता रहा.

“मेरे भाई, मुझे तो एक ही दौड़ आती है. सरपट दौड़,” गब्बरू ने पीछे दौड़ते  हुए कहा तो सेमलू घमंड से इतराते हुए बोला, “यह मेरी लम्बी छलांग देखो. मैं ऐसी कई दौड़ जानता हूँ.” खाते हुए सेमलू ने तेजी से दौड़ लगाईं.

गब्बरू पीछेपीछे सीधा दौड़ता रहा. सेमलू को लगा कि गब्बरू थक गया होगा, “क्या हुआ गब्बरू भाई? थक गए हो तो रुक जाए.”

“नहीं भाई, दौड़ते चलो.”

सेमलू फिर दम लगा कर दौड़ा. मगर, वह थक रहा था. उस ने गब्बरू से दोबारा पूछा, “गब्बरू भाई! थक गए हो तो रुक जाए.”

“नहीं. सेमलू भाई. दौड़ते चलो.” गब्बरू अपनी मस्ती में दौड़े चले आ रहा था.

सेमलू दौड़तेदौड़ते थक गया था. उसे चक्कर आने लगे थे. मगर, घमंड के कारण, वह अपनी हार स्वीकार नहीं करना चाहता था. इसलिए दम साधे दौड़ता रहा. मगर, वह कब तक दौड़ता. चक्कर खा कर गिर पड़ा.

“अरे भाई! यह कौनसी दौड़ हैं?” गब्बरू ने रुकते हुए पूछा.

सेमलू की जान पर बन आई थी. वह घबरा गया था. चिढ कर बोला, “यहाँ मेरी जान निकल रही है. तुम पूछ रहे हो कि यह कौनसी चाल है?” वह बड़ी मुश्किल से बोल पाया था.

“नहीं भाई, तुम कह रहे थे कि मुझे कई तरह की दौड़ आती है. इसलिए मैं समझा कि यह भी कोई दौड़ होगी,” मगर सेमलू कुछ नहीं बोला. उस की सांसे जम कर चल रही थी. होंठ सुख रहे थे. जम कर प्यास लग रही थी.

“भाई! मेरा प्यास से दम निकल रहा है,” सेमलू ने घबरा कर गब्बरू से विनती की, “मुझे पानी पिला दो. या फिर इस जंगल से बाहर के तालाब पर पहुंचा दो. यहाँ रहूँगा तो मर जाऊंगा. मैं हार गया और तुम जीत गए.”

गब्बरू को जंगल से बाहर जाना था. इसलिए उस ने सेमलू को उठा के अपनी पीठ पर बैठा लिया. फिर उस के बताए रास्ते पर सरपट दौड़ाने लगा, कुछ ही देर में वे जंगल के बाहर आ गए.

सेमलू गब्बरू की चाल देख चुका था. वह समझ गया कि गब्बरू लम्बी रेस का घोडा है. यह बहुत तेज व लम्बा दौड़ता है. इस कारण उसे यह बात समझ में आ गई थी कि उसे अपनी चाल पर घमंड नहीं करना चाहिए. चाल तो वही काम आती है जो दूसरे के भले के लिए चली जाए. इस मायने में गब्बरू की चाल सब से बढ़िया चाल है.

यदि आज गब्बरू ने उसे पीठ पर बैठा कर तेजी से दौड़ते हुए तालाब तक नहीं पहुँचाया होता तो वह कब का प्यास से मर गया होता. इसलिए तब से सेमलू ने अपनी तेज चाल पर घमंड करना छोड़ दिया. 

 –0000–

 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-11-2021

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जखमा उरात माझ्या… ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर☆

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ‘जखमा उरात माझ्या…’ ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆

ते शब्द बोचणारे  जखमा उरात माझ्या

आभाळ दाटलेले हे काळजात माझ्या

*

चंद्रास लागलेला तो डाग पाहुनी मी

दाटे  मनात शंका का अंतरात माझ्या

*

वठतात वृक्ष सारे जेव्हा ऋतू बदलतो

हा खेळ प्राक्तनाचा येते मनात माझ्या

*

आशा जरा न उरली नाही उमेद आता

सुकली फुले कशाला या अंगणात माझ्या

*

देवा तुला स्मरावे हा एक मार्ग आता

ही आर्तता मनीची आहे सुरात माझ्या

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ “रोझ डे…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ “रोझ डे…🌹” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट

कोणत्याही दोन पिढ्यांमध्ये उत्सव साजरा करण्याच्या पद्धतीत फरक हा आपोआपच पडत जातो. त्यालाच आपण “जनरेशन गँप”असं म्हणतो. प्रत्येक पिढीतील लोकांना आपल्या पुढील पिढी जास्त सुखी, स्वतंत्र आहे असं वाटतं असतं.प्रत्येक व्यक्तीचे आपल्या स्वतःच्या पिढीला खूप सोसावं लागलं हे ठाम मतं असतं.आपल्याला पुढील पिढीपेक्षा खूप जास्त तडजोडी कराव्या लागतात असं प्रत्येकालाच वाटतं असतं हे विशेष.

फेब्रुवारी महिन्याची सुरवातच मुळी कडाक्याची थंडी संपलेली असते आणि उन्हाळ्याची काहीली अद्याप सुरवात झालेली नसते ,असा तो हा हवाहवासा, गुलाबी, प्लिझंट वाटणारा काळ.त्यातच फेब्रुवारी सात पासून ते चौदा फेब्रुवारी पर्यंत व्हँलेंटाईन वीक,प्रेमाचा साक्षात्कारी सप्ताह, व्हँलेंटाईन बाबाचा उत्सवच जणू.त्यामुळे हा आठवडा नव्या तरुणाई साठी वा कायम मनाने तरुणाई जपून असणाऱ्या व्यक्तींसाठी पर्वणीच.

ह्या आठवड्यातील पहिला दिवस म्हणजे “रोझ डे”. पिढीपिढीत खूप झपाट्याने फरक पडत चाललाय.आमच्या पिढीपर्यंत तरी काँलेजमधे वा तरुणपणात मुलंमुली एकमेकांशी बोलले तर नक्कीच काहीतरी शिजतयं हे समजण्याचा काळ.त्यामुळे हे व्हँलेंटाईन वगैरे तर आमच्या कल्पनेच्या पार पलीकडले.त्यामुळे ह्या रोझ डे ची संकल्पनाच मुळी प्रत्येक पिढीत वेगळी. देवपूजेसाठी का होईना पण आजोबा परडी भरून गुलाबाची फुलं तोडून आणतं हाच आजीचा रोझ डे. एखादं झाडावरचं फूल हळूच बाबा फ्लावरपाँटमध्ये वा टेबलवर ठेवायचे,अर्थातच बाकी कुणाला नाही कळले तरी आईला फक्त कळायचे किंवा गुलकंदासाठी आणलीयं फुलं असं दाखवायचे तोच आईचा रोझ डे. पुढे खूपच हिम्मत असली तरी काँलेजमध्ये ती यायच्या आत तिच्या बेंचवर गुलाबाचे फूल वा फुलाचे ग्रिटींग कार्ड लपून ठेवून जायचे हा आमच्या पिढीचा रोझ डे किंवा जास्तीत जास्त एखादा गुलाब हस्तेपरहस्ते तिच्यापर्यंत पोहोचविणारा आमच्या पिढीचा रोझ डे.आणि गुलाबाचा वापर केवळ बुके आणि रोझ डे साठीच हा विचार मानणारी हल्लीची पिढी.

ह्या आठवड्यातील सात फेब्रुवारी हा पहिला दिवस,” रोझ डे “.हा दिवस ह्या पिढीतील तरुणाईच्या जगतातील महत्त्वाचा दिवस तर आधीच्या पिढीच्या मते दिखाऊ प्रेम दर्शविणारी नसती थेऱ असल्याचा दिवस.

जर रोझ डे साजरा करण्याची संकल्पना सरसकट आपल्यात असती तर वेगवेगळ्या वयोगटातील, पिढीतील लोकांच्या मनात रोझ डे बद्दलचे निरनिराळे विचार काय असते वा आजच्या भाषेत हा “इव्हेंट”आपण कसा साजरा केला असता ह्या कल्पनाविलासाची एक झलक पुढीलप्रमाणे.

1…..शाळकरी रोझ डे

गुलाब दिला किंवा मिळाला तरच खूप प्रेम असतं हे मानण्याचं हे अल्लड वयं.

2…..महाविद्यालयीन रोझ डे

जगातील सगळ्यात चांगले आणि खरे प्रेम आपल्याच वाट्याला आले, त्याच्याकडूनच गुलाब मिळाला वा त्यालाच गुलाब दिला असं मानणारं हे वयं आणि प्रेम.

3…..नवविवाहितांचा रोझ डे

गुलाब आणला नाही तर फुरगटून बसायचे आणि आणला तर ह्याची चांगली प्रँक्टीस आहे वाटतं ,हे ओळखणारं प्रेम.

4…..चाळीशीतील रोझ डे

गुलाब आणल्यानंतर वरवर हे आपलं वय राहिलं का असे म्हणणारे पण मनातून,आतून मात्र खूप सुखावणारे प्रेम.

5…..पन्नाशीतील रोझ डे

आणलेला गुलाब बघून ,बरं झालं देवाला वहायला फूल झालं हे मानणारं वयं वा प्रेमं.

6…..साठीतील रोझ डे

त्या गुलाबाच्या थेरापेक्षा जर्रा बर वागायला लागा,मग रोझ डे पावेल हे मानणारं वयं वा प्रेम.

7…..सत्तरीतील रोझ डे

नुसत्या नजरेतूनच गुलाबजल छिडकून ख-या गुलाबाची गरजही न भासणारं हे वयं किंवा प्रेम.

8…..नंतरचा शेवटपर्यंतचा रोझ डे

आता च्यवनप्राश आणि त्याबरोबर ह्या गुलाबाचा गुलकंद करुन खायला घातला पाहिजे, जरातरी डोकं थंड राहायला मदतच होईल हे मानणारं वयं आणि प्रेम.

तर अशा ह्या व्हँलेंटाईन वीकमधील पहिल्या दिवसाच्या रोझ डे ला भरभरून शुभेच्छा.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सुलु आणि नंदू … – भाग-२ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ सुलु आणि नंदू … – भाग-१ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

(एवढ्यात नंदूची आई किचन मधून बाहेर आली.) –इथून पुढे –

आई -चलात का चलात… मला चालणार नाही, ती कुठल्या जातीची मुलगी आमच्या घरात राहू शकत नाही.

आजोबा – आम्ही कधी जातीचा विचार केला नाही, ज्याला गरज आहे त्याच्या शिक्षणासाठी मदत करणे हा आमचा खरा धर्म. वरच्या जातीचा खालच्या जातीचा उल्लेख करणे आमच्या घराण्याला शोभत नाही.

आई – पण माझ्यावर माझ्या माहेरी तसे संस्कार झाले त्याचे काय?

आजोबा चिडून म्हणाले ” अशा संस्कारामुळे समाजाचे आणि देशाचे नुकसान होते आहे ‘

असे मोठ्याने बोलून आजोबा घराबाहेर पडले.

नंदूच्या बाबाच्या बँकेत शिपाई होता, त्याची बायको त्याचा डबा घेऊन बँकेत द्यायची.  नंदूच्या बाबानी तिला बोलावून घेतले आणि सुलुची राहायची व्यवस्था तिच्याकडे केली. त्यामुळे सुरू चा रोज जाण्या-येण्याचा त्रास वाचला आणि ती शहरातच राहू लागली.

नंदू अकरावीच्या क्लासला जात होती, क्लासच्या शिक्षकांचे नोट्स  सुलु ला दाखवत होती, अकरावी बारावीत सुद्धा सुलु वर्गात पहिली आली. त्या काळात बारावीनंतर मेडिकलला प्रवेश मिळत होते.

  नंदूचे आजोबा पुन्हा तिच्या मागे राहिले, आपल्या सुनेच्या रोशाकडे दुर्लक्ष करून सुलु ला मेडिकल ला पाठवायचा चन्ग त्यांनी बांधला, पैशाची गरज होती.

एक दिवस सकाळीच ते त्यांच्या विभागात निवडून आलेल्या जिल्हा परिषद सदस्याच्या घरी गेले, एवढी प्रतिष्ठित व्यक्ती आपल्या घरी आले म्हणून तो सदस्य गडबडला.

नंदूचे आजोबा – मी तुमच्यकडे एका मुलीच्या शिक्षणा साठी मदत मागूक इलंय, माझ्या नातीसाठी न्हय, आमच्या गावाततली सुभाष मेस्त्रीच्या मुलीक मेडिकल कडे ऍडमिशन मिळतली, लहानपणा पासून हुशार मुलगी, आता पर्यत चो खर्च कसो तरी केलो पण हो मोठो खर्च आसा, चार वर्षाची फी आणि हॉस्टेल आणि इतर खर्च, एक गरीब कुटुंबातील मुलगी डॉक्टर झाली तर समाजाचो फायदो आसा, तुमी त्या मुलींसाठी काय मदत करशात?

तो जिल्हा परिषद सदस्य आश्चर्यचकित झाला, आतापर्यंत येणारे,आपल्या मुलासाठी किंवा नातू नातवा साठी मदत मागायचे, पण हा माणूस एका गरीब मुलींसाठी सकाळी सकाळी घरी येतो?

त्यांनी आजोबांना आमदारांना सांगून तिचा सर्व खर्च उचलण्याचा शब्द दिला, आमदार पण मुद्दाम येऊन भेटले, सुलु चें कौतुक केले आणि नंदुच्या आजोबांना नमस्कार करून गेले.

सुलुची ऍडमिशन पक्की झाली आणि अख्ख्या गावात आनंद झाला.आमदारांनी आपला शब्द पाळला, दर वर्षी नियमित पैसे पाठविले. सुलु MBBS झाली, मग एक वर्ष एंटर्नल कोल्हापूर मध्ये करून पोस्ट graduation चा अभ्यास करू लागली.

बारावी काठावर पास झालेल्या नंदूने बीएससी ला ऍडमिशन घेतले, पण पहिल्याच वर्षाला ती दोनदा नापास झाली, आणि शेवटी तिचे शिक्षण थांबले, आपल्या मुलीसाठी नंदूच्या आईने खूप प्रयत्न केले पण नंदूला अभ्यासात गती नव्हती हे खरे, नंदू ने  डीएड ला ऍडमिशन घेतली, डीएड होऊन एक वर्ष घरी बसल्यावर ती प्राथमिक शिक्षिकेच्या नोकरीला लागली. आणखी एक वर्षांनी तिचे एका हायस्कूल शिक्षकाबरोबर लग्न झाले.

त्या दरम्यानच नंदूच्या आजोबांचे निधन झाले. नंदूची आजी गावी एकटी राहू लागली.

दीड वर्षानंतर नंदूची प्रसूती जवळ आली, शहरातल्या एका डॉक्टरच्या हॉस्पिटलमध्ये तिचे नाव घातले होते. त्या काळात छोट्या शहरात सोनोग्राफी वगैरे यंत्रे आली नव्हती.

प्रसूती वेदना सुरू झाल्याबरोबर नंदूला हॉस्पिटलमध्ये ऍडमिट केले, डॉक्टरनी तपासल्यानंतर त्यांच्या लक्षात आले मुल आडवे आले आहे, सर्जरी करावी लागेल, एकतर डॉक्टर बाहेरून मागवावा लागेल किंवा किंवा जिल्हा रुग्णालयात नवीन लेडी डॉक्टर आली आहे तिच्याकडे तातडीने न्यावे लागेल. नंदूच्या बाबांनी जिल्हा रुग्णालयात नेण्याचा निर्णय घेतला. ॲम्बुलन्स वीस किलोमीटर वरील जिल्हा रुग्णालयात पोहोचली, तेव्हा नवीन लेडी डॉक्टर जवळ भरपूर पेशंट जमले होते. सिरीयस पेशंट आल्यामुळे डॉक्टरने आपली ओपीडी थांबवून पेशंटला ऑपरेशन थिएटर मध्ये घेण्यास सांगितले. त्या छोट्या हॉस्पिटलमध्ये गुंगीचे औषध पण स्वतः डॉक्टरच देणार होत्या. गुंगी देण्याची तयारी करण्यासाठी पेशंटच्या बेड जवळ आल्या, तर डॉक्टरना बेडवर दिसली त्यांची प्रिय मैत्रीण नंदू.

तशाच डॉक्टर सुलभा मिस्त्री बाहेर आल्या, बाहेर काळजीत बसलेल्या नंदूच्या आई आणि बाबांना त्यांनी वाकून नमस्कार केला. प्रत्यक्ष सुलभाला डॉक्टरच्या वेशात समोर पाहून   आश्चर्य वाटले व आनंद झाला. काही काळजी करू नका मी सर्व काही योग्य करते असं सांगून डॉक्टर मिस्त्री आत गेल्या.

तीन तासानंतर प्रसुती उत्तम पार पडून मुलगा झाला. नंदूच्या आई-बाबांना आणि नातेवाईकांना ही बातमी कळली. ते दोघे आणि नंदूचा नवरा डॉक्टर मिस्त्री ला भेटायला आले. डॉक्टरांनी त्यांना प्रसूती अवघड होती पण मी उत्तम केली काही काळजी करू नये असे सांगून निर्धास्त केले.

आणखी दोन तासांनी नंदू शुद्धीवर आली, तिच्या शेजारी तिची प्रिय मैत्रीण सुलु उभी होती, नंदू ने सुरु चा हात घट्ट पकडला.

“सुले, तुझ्यामुळे माझा पुनःर्जनम झाला ग.’.

“तसा काय नसता गो नंदू, तूझ्या माझ्या आजोबानी जन्म घेतलोवा तूझ्या पोटी, तेंचो जन्म होऊक माझो हात लागलो इतकोच ‘.

हातात हात घेऊन सुलु आणि नंदू हसू लागल्या, शाळा सुटल्यावर घरी जाताना हसायच्या तशाच, तीच मैत्री अजून तशीच,.

नंदूची आई भरलेल्या डोळ्यांनी त्यांची मैत्री अनुभवत होती.

– समाप्त –

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ संघर्षातून यशाकडे… ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆

सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

? मनमंजुषेतून ?

☆ संघर्षातून यशाकडे… ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆ 

मोबाईल शाप की वरदान हा ऐरणीवरचा प्रश्न आहे. अतिरेक झाला तर तो शाप ठरतो .पण सदूपयोग केला तर ते वरदानच असतं. नाशिकचे माजी सैनिक श्री. मेघश्याम सोनवणे सर, ह्यांच्या उत्तम उपक्रमाच्या कथा -विश्वात माझं पाऊल पडलं आणि व्हाट्सअपतर्फे अनेक हितचिंतकांच्या  ओळखी झाल्या. माणसे जोडण्याच्या छंदाला बळकटी आली. आणि माझ्यासाठी मोबाईल वरदानच ठरलं. माझ्या धाकट्या मुलानी  चि.प्रसादनी   मला  वाढदिवसाचा मोबाईल भेट दिला आणि माझ्यापुढे एक नवीन विश्व उभ केलं. ह्या विश्वात खूप चांगली माणसं मला भेटली.आणि मैत्रीचं नातं घट्ट झालं .

त्यातूनच भेट झाली रमेश साळुंखेची. माझ्या कथांवर त्याचं अभिप्रायाचं,प्रतिक्रियांचं आदान-प्रदान झालं. आणि एक दिवस त्याचा फोन आला ” ताई मला तुमच्याशी मोकळेपणी बोलावसं वाटतंय .तुम्ही बोलाल का माझ्याशी?” शब्दातला प्रामाणिकपणा, वाक्यातलं   आर्जव  आणि आवाजातलं मार्दव मनाला भिडल.कां कोण जाणे मनांत आलं काहीतरी संघर्षमय आहे, ह्या वयानी लहान असलेल्या  मुलांत . अशा ह्या आशावादी विचारांनी सम्राट असलेल्या तरुणाची आत्मकथा नक्कीच आदर्शवादी असेल असं मला वाटलं मी म्हणाले “रमेश अगदी खुल्या दिल्याने बोल.काही प्रॉब्लेम आहे का तुला?त्या स्वाभिमानी तरुणाचं रमेशचं  लगेच उत्तर आलं, ” नाही ताई प्रॉब्लेम होता. पण परमेश्वर, माझी आई सुभद्राई, माझे बाबा शिवाजीराव, माझे बंधू विक्रम आणि हितचिंतक यांच्यामुळे मी संघर्षाच्या परीक्षेत पास झालो.”  

त्याच्या बोलण्याने माझी उत्कंठा  शिगेला पोहोचली. आणि मी विचारलं, “आयुष्याच्या कुठल्या परीक्षेत  तु पास झालास? सविस्तर आणि खुल्या दिल्याने सांगशील का मला तु तुझी कहाणी ?   तुझा आदर्श मी नक्कीच जगापुढे मांडीन. मग निराश  तरुणांनाही  आशेचा किरण सापडेल. आणि तुझ्यामुळे त्यांना स्फूर्ती  मिळेल “…..  रमेशच्या आवाजात मोकळेपणा आला. त्याची कहाणी ऐकून मी  स्तंभित  झाले. परिस्थितीशी लढण्याचे सामर्थ्य ह्या इतक्या लहान वयातल्या मुलामध्ये आलं कुठून ? त्यानीच सांगितलेली त्याची ही कहाणी काळजाला हात घालणारी आहे.

ता. खटाव जि.सातारा गिरीजाशंकरवाडी येथे रमेशचं बालपण गेलं. बालपण कसलं !  हसा खेळायच्या दिवसातच त्याला लढाई द्यावी लागली . कारण तो म्हणाला,” मी अपंग आहे “ 

खटाव तालुक्यातील पश्चिमेकडच शेवटच्या डोंगर माथ्यावर वसलेलं गांव म्हणजे रमेशचं जन्मगांव. चौथीपर्यंतचं शिक्षण गावातच झालं.  वडील शिवाजीराव त्याचे  सारथी झाले. दैवाला दोष न देता रमेशच्या आई-वडिलांनी हे अवघड शिवधनुष्य पेललं.   शिवाजीरावांनी आणि त्या माऊलीने परिस्थितीवर मात करून आपल्या बाळाला वाढवलं. वडील रोज खांद्यावर बसवून आपल्या लेकराला शाळेत पोहोचवायचे. परिस्थितीशी सामना करण्याचं आयुष्याच्या शाळेतलं असे हे प्राथमिक शिक्षण घरातूनच रमेशला मिळालं होत. त्याच्या ह्या घरच्या  गुरूंना सादर प्रणाम.

रमेश पुढे म्हणाला,” मी चौथी पास झालो  खरा.,पण आता पुढे काय? पुढचं शिक्षण कसं घ्यायचं? हायस्कूल सहा कि. मी. लांब. रोज डोंगरावरून उतरून खाली  यायचं. पुन्हा डोंगर चढून घरचा परतीच्या प्रवास . पण तो करणार कसा? अक्राळ विक्राळ प्रश्नचिन्ह आ वासून समोर उभं होतं. शिक्षणाला पूर्णविराम द्यायची वेळ आली .. “ पण हा वाघाचा बच्चा लहान असूनही डगमगला नाही. मनात एकच विचार  शिक्षणाशिवाय आपल्याला गती नाही. आता थांबणे नाही. रमेशला त्रास होऊ नये म्हणून घरचे  कासाविस होऊन  त्याला विरोध करीत होते. पण म्हणतात ना, ‘आंधळ्याच्या गाई देव राखतो ‘ अगदी खरं आहे हे. कारण गावात सकाळी सातला दुधाची गाडी यायची . गाडीतली माणसं देवासारखी  मदतीला धावली. आणि त्यांच्या मदतीने रमेशचा हायस्कूल  प्रवास सुरू झाला.  रमेशच्या विस्तृत विचारांची कक्षा पाहून मी डोळे  विस्फारले.   

तो म्हणाला ” मला अपंगावर  मात करून पुढे जायचं होतं. त्यासाठी मनातल्या आशेची पावलं पुढे आणि पुढेच पडत होती. आई-वडिलांनी व इतरांनी पण खूप केलं माझ्यासाठी.  त्यांना त्रास न देता मला स्वावलंबनाचा मार्ग शोधायचा होता.  प्रयत्नांच्या अंतापर्यंतचा  आणि मनाच्या गाभाऱ्यात वसलेला परमेश्वर,मला प्रेरणा देत होता. आणि म्हणत होता ‘मी आहे  ना तुझ्या पाठीशी ! मी चालवीन तुला, आणि तुझ्या जिद्दीला, पुढे अन पुढे जाण्यासाठी.” आणि ह्या जिद्दीने दहावी ते  B. A. मुक्तविद्यापीठातून रमेश पास झाला. आणि मग  काय त्याच्या आशेला धुमारेच फुटले की हो !

भूतकाळात  डोकावतांना रमेश सांगू लागला, ” हायस्कूलच्या गावी जाताना दूध गाडीच्या लोकांचे माझ्यावर खूप खूप उपकार झाले आहेत. सकाळी सात वाजता दूध गाडी यायची. ते लोक मला गाडीत बसवायचे.  हायस्कूलची वेळ तर ११ ते ५:३० होती. पण  बरं का,राधिका ताई   माझी शाळा  मात्र सकाळी सात ते रात्री साडेनऊ पर्यंत असायची. कारण सकाळी माझ्या गावाकडून मला आणणारी गाडी सातला सुटायची .आणि रात्री साडेनऊला परतायची. शाळा सुटल्यावर संध्याकाळी साडेपाच ते साडेनऊ पर्यंत मी गाडीची प्रतीक्षा कऱीत बसून राहायचो. वाचन, होमवर्क, नोट्स काढणे यात वेळ  काढायचो. बसचा आवाज आला रे आला की आवराआवरीची धांदल उडायची माझी.” रमेश ची मिस्कील वृत्ती मला आवडली.

सत्कर्म करणाऱ्याला सत्पुरुष भेटतातच. माणसं मदतीला धावायची आणि बसमध्ये बसवायची. फार मोठ्ठ शिवधनुष्य पेललंय त्यानी. आणि तो दहावीची परीक्षा उत्तीर्ण झाला. पुढील शिक्षणाची मशाल त्याच्या मनात धगधगत होतीच. पण आता तर पुढे आणखी खरी सत्वपरीक्षा होती. पुढची पायरी गाठण्यासाठी  25 की. मी.कराड गावी जाणं भाग होतं. हा तर मोठा संघर्ष ! पण डोंगराएवढे आव्हान त्याला तिळाएवढं वाटलं. ‘कुणालाही त्रास न देता आयुष्य जगायचय मला.  आनंदाने आहे त्या परिस्थितीत आनंद मानूनच जगायचं’  हे सूत्र, आणि ही उमेदच त्याचं अंतिम ध्येय होतं.आणि आजही आहे .आणि ते त्यानी जिद्दीने चिकाटीने गाठलं. 

आज रमेश साळुंखे, महाराष्ट्रात एकमेव असलेल्या अशा शास्त्रीय महाविद्यालयात कराड कॉलेजमध्ये नोकरीला आहे. गेली आठ वर्षे प्रामाणिकपणे तो आपली ड्युटी बजावतोय. .   कुठल्याही परिस्थितीत समाधान मानण्याचे बाळकडू आई-वडिलांनी त्याला लहानपणीच पाजलय. आणि आहे त्या परिस्थितीतून बाहेर पडण्याचं कसब रमेशच्याही अंगात आहे. ह्याचे सगळे श्रेय, वडील शिवाजीराव आणि आई सुभद्रा यांनाच तो देतो. सुभद्रा नाव ऐकल्यावर, मला  महाभारतातील अर्जुन पत्नी व श्रीकृष्ण भगिनी,सुभद्रा आठवली. तिचा पुत्र अभिमन्यू चक्रव्यूहविद्या आईच्या गर्भातच शिकला. तसंच ह्या सुभद्रापुत्राने संघर्षातून उत्कर्ष गाठण्याची कला आईकडून, जन्माआधीच शिकून घेतली असावी नाही का? 

भावनाप्रधान रमेश म्हणतो, ” मला अभिमान नक्कीच आहे की, असे आई-वडील मला लाभले.. माझे ध्येय गाठण्यासाठी प्रत्यक्ष परमेश्वराने आपले पाय आणि मदतीचे हात मला पुरवलेत. रमेश गर्वाने सांगतोय, “आज मी घडलो आहे ते माझ्या घरच्यांमुळेच माझे वडील श्री शिवाजीराव  माझी आई सौ.सुभद्रा आणि भाऊ विक्रम यांचा माझ्या यशात सिंहाचा वाटा आहे. त्यांनी मला वाढवलं. पुढील शिक्षणाचा त्यांचा नकार मायेपोटी  होता. मला त्रास होऊ नये म्हणून त्यांची तडफड,आणि माझ्यामुळे त्यांना म्हातारपणी त्रास होऊ नये म्हणून माझी धडपड.. या मायेतूनच मला प्रेरणा मिळाली. आणि आज मी इथपर्यंत येऊन पोहोचलो. त्यांच्यापुढे मी कायम नतमस्तक आहे, आयुष्याच्या या लढाईत अनेक हितचिंतक मला मिळाले. त्यांचे आभार . जीवाला जीव देणारे  परममित्र श्री.गोरख रा, थोरवे, श्री सचिन भि.शेडगे ,आणि सागर भि शेडगे यांच्यासारखे अजूनही साथ देणारे जिवलग मित्र मला लाभले, या सगळ्यांच्या मी कायम ऋणात आहे.”

रमेश मनापासून बोलत होता.

तर मंडळी अशी आहे ही खंबीर  रमेश साळुंखे याची कथा. तुमच्या दृष्टीनेही ती स्फूर्तीदायक ठरेल.अशी आशा आहे.  सांगायला मला अतिशय आनंद वाटतोय की, रमेशने यशाची परिसीमा आणि सुखाचा कळस गाठलाय . कारण त्याच्या आयुष्यात एका सौ.तेजस्वी नावाच्या गुणी मुलीने प्रवेश केला आहे.अर्थात                16 – 2 -2023  या शुभ दिनी त्याचे शुभमंगल झाले आहे .

© सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

पुणे.  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares