मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “बोल बच्चन” – लेखक : श्री रूपेश दुबे – अनुवादिका – सौ. मंजुषा सुनीत मुळे ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

?पुस्तकावर बोलू काही?

☆ “बोल बच्चन” – लेखक : श्री रूपेश दुबे – अनुवादिका – सौ. मंजुषा सुनीत मुळे ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

पुस्तक            : बोल बच्चन 

लेखक            : रुपेश दुबे

अनुवाद          : सौ. मंजुषा मुळे

प्रकाशक        : मेहता पब्लिशिंग हाऊस, पुणे 

पृष्ठे                : १८८

मूल्य              : रु. २५०/_

यशाची शिखरं गाठत जावं आणि तिथे कायम टिकून  रहाव असं कुणाला वाटत नाही ? पण यश मिळवणं  सोपं असतं का ? त्याचा पाठलाग  करताना, ध्येय गाठताना अपयश आलं तर ? यशाचा मार्ग  सोडून  द्यायचा की खंबीरपणे  पुढे जायचं ?

सौ. मंजुषा सुनीत मुळे

या सगळ्या प्रश्नांची उत्तर  द्यायचा पारंपारिक  मार्ग  म्हणजे उपदेश करणे. पण उपदेश ऐकून घेणार कोण ? त्यामुळे तेच कडू औषध आवडत्या गोड पदार्थांबरोबर दिल तर ? औषध सहज पचनी पडेल ना? नेमका हाच विचार  श्री. रूपेश दुबे यांनी केला आहे.

श्री रुपेश  दुबे यांनी सुमारे वीस वर्षे टेलिकॉम कंपनीत  व्यवस्थापन क्षेत्रात  उच्च पद भूषवून आता ते स्वतःचा व्यवसाय  करत आहेत. ‘बोल बच्चन  ‘ हे हिंदी भाषेतील पुस्तक  त्यांनी लिहीले आहे. या पुस्तकाचा अनुवाद मराठीत सौ. मंजुषा मुळे यांनी केला आहे. हे अनुवादित  पुस्तक  अलिकडेच  वाचून झाले. त्या पुस्तकाविषयी थोडसं.

काय आहे या  पुस्तकात ? 

अनुभवातून आलेले शहाणपण, सकारात्मकता आणि मनोरंजन यांचा सुरेख  संगम म्हणजे हे पुस्तक. यशाचा मार्ग  दाखवणारा आणि अपयश पचवायला शिकवणारा मार्गदर्शक म्हणून  या पुस्तकाकडे पाहता येईल. मग इथे बच्चन  म्हणजे अभिताभ बच्चन यांची काय  संबंध असे वाटणे स्वाभाविक  आहे. पण सुरुवातीला म्हटल्याप्रमाणे कटू औषध  पचवण्यासाठी, त्यावर गोड आवरण लावण्यासाठी बच्चनजींना आमंत्रित केलं गेलं आहे. अमिताभ बच्चन  माहित नाहीत असा माणूस सापडणे विरळाच. त्यांचे चित्रपट  व त्यातील भूमिका या तर प्रचंड गाजल्याच पण त्यांचे अनेक संवाद रसिकांना तोंडपाठ  आहेत. त्यांच्यासाठी गायली गेलेली गीतेही लोकप्रिय  झाली आहेत. याच लोकप्रियतेचा फायदा उठवून आपण जर काही सांगितले तर लोक सुरूवातीला उत्सुकतेपोटी आणि मग अधिक रस घेऊन वाचू लागतील असा विश्वास  वाटल्यामुळेच  लेखकाने हे तंत्र अवलंबले आहे. अमिताभजी यांनी  प्रत्यक्ष  जीवनात अनेक वेळेला अपयश पचवून यशाचे शिखर  गाठले आहे. चित्रतटातील  त्यांच्या बहुसंख्य  भूमिका या संघर्षमय आहेत. त्यामुळे त्यांच्या तोंडून आलेले उद्गार, त्यांचे संवाद  वाचकाला अधिक जवळचे वाटतात व मनाला जाऊन भिडतात.

लेखकाने या पुस्तकात  यशाची १८ सूत्रे सांगितली आहेत. प्रत्येक  सूत्र सांगण्यासाठी एक एक प्रकरण लिहिले आहे. या प्रकरणाला त्यांनी बच्चनजींचे प्रसिद्ध  गीत किंवा संवाद  शिर्षक  म्हणून वापरले आहे. तेच शिर्षक  का ठेवले आहे याचा उहापोह  केला आहे. आपल्या प्रत्यक्ष जीवनात ते कसे लागू पडते हे उदाहरणे देऊन रंजकतेने पटवून दिले आहे. बोधकथेला  तात्पर्य  सांगावे त्याप्रमाणे लेखाच्या शेवटी लेखकाने  चौकटीमध्ये एक अर्थपूर्ण  असे वाक्यही दिले आहे. या वाक्याव्यतिरिक्त  लेखातील अनेक वाक्ये सुभाषिताप्रमाणे वापरावीत अशी आहेत. त्यामुळे प्रत्येक लेख ज्ञान आणि  मनोरंजन यांनी परिपूर्ण  असा आहे.

फक्त  एक उदाहरण  पाहू. एका लेखाचं नाव आहे ‘ देखा एक ख्वाब  ‘. अमिताभ बच्चन  यांच्या सिलसिला या चित्रपटातील एका गीताचे सुरुवातीचे बोल. या गीताचा आधार घेऊन लेखकाने स्वप्न  आणि सत्य यात असणारी तफावत कशामुळे असते त्याची कारणे शोधली आहेत. वास्तविकता काय असते त्याची जाणीव करून दिली आहे. मेहनतीशिवाय स्वप्ने पुरी होत नसतात. असामान्य  यश मिळवणारी माणसं स्वप्नही असामान्य  बघतात. उच्च बुद्धिमत्ता आणि कठोर परिश्रम 

यामुळे ते स्वप्न  पूर्ण  करू शकतात. शेवटी वर उल्लेख  केल्याप्रमाणे एका चौकटीत लिहीतात ” स्वप्न  बघा, मोठी मोठी स्वप्नं बघा आणि ती पूर्ण  करण्यासाठी स्वतःचा विचार, सामर्थ्य आणि सकारात्मकता या सगळ्या गोष्टींना एकाच दिशेने म्हणजे अर्थातच  तुमच्या ध्येयाच्या दिशेने कार्यान्वित  करा. “

अशाप्रकारे लेखाची मांडणी करून अठरा लेखांमधून यशाची अठरा सूत्रे सांगितली आहेत.

हे पुस्तक  आपण मराठीतून  वाचतो. पण सौ. मंजुषा मुळे यांनी अनुवाद  करताना वापरलेली भाषा इतकी नैसर्गिक  वापरली आहे की हा अनुवाद  आहे असे वाटतच नाही. मराठीत वेगळ्या विषयावरचे पुस्तक  आणल्याबद्दल  त्यांना मनःपूर्वक  धन्यवाद.

सर्वांनीच, विशेषतः युवकांनी हे पुस्तक  आवर्जून  वाचावे असे वाटते. आयुष्याची जडण घडण करण्यासाठी ते नक्कीच  उपयुक्त  ठरेल.  

पुन्हा एकदा अनुवादकर्त्या सौ. मंजुषा मुळे यांना धन्यवाद !

पुस्तक परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #216 ☆ यह भी गुज़र जाएगा… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख यह भी गुज़र जाएगा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 216 ☆

☆ यह भी गुज़र जाएगा

‘गुज़र जायेगा यह वक्त भी/ ज़रा सब्र तो रख/ जब खुशी ही नहीं ठहरी/ तो ग़म की औक़ात क्या?’ गुलज़ार की उक्त पंक्तियां समय की निरंतरता व प्रकृति की परिवर्तनशीलता पर प्रकाश डालती हैं। समय अबाध गति से निरंतर बहता रहता है; नदी की भांति प्रवाहमान् रहता है, जिसके माध्यम से मानव को हताश-निराश न होने का संदेश दिया गया है। सुख-दु:ख व खुशी-ग़म आते-जाते रहते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। मुझे याद आ रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं अर्थात् समयानुसार दिन-रात, हालात व मौसम के साथ फूल व पत्तियों का बदलना अवश्यंभावी है। प्रकृति के विभिन्न उपादान धरती, सूर्य, चंद्रमा, तारे आदि निरंतर परिक्रमा लगाते रहते हैं; गतिशील रहते हैं। सो! वे कभी भी विश्राम नहीं करते। मानव को नदी की प्रवाहमयता से निरंतर बहने व कर्म करने का संदेश ग्रहण करना चाहिए। परंतु यदि उसे यथासमय कर्म का फल नहीं मिलता, तो उसे निराश नहीं होना चाहिए;  सब्र रखना चाहिए। ‘श्रद्धा-सबूरी’ पर विश्वास रख कर निरंतर कर्मशील रहना चाहिए, क्योंकि जब खुशी ही नहीं ठहरी, तो ग़म वहां आशियां कैसे बना सकते हैं? उन्हें भी निश्चित समय पर लौटना होता है।

‘आप चाह कर भी अपने प्रति दूसरों की धारणा नहीं बदल सकते,’ यह कटु यथार्थ है। इसलिए ‘सुक़ून के साथ अपनी ज़िंदगी जीएं और खुश रहें’– यह जीवन के प्रति सकारात्मक सोच को प्रकट करता है। समय के साथ सत्य के उजागर होने पर लोगों के दृष्टिकोण में स्वत: परिवर्तन आ जाता है, क्योंकि सत्य सात परदों के पीछे छिपा होता है; इसलिए उसे प्रकाश में आने में समय लगता है। सो! सच्चे व्यक्ति को स्पष्टीकरण देने की कभी भी दरक़ार नहीं होती। यदि वह अपना पक्ष रखने में दलीलों का सहारा लेता है तथा अपनी स्थिति स्पष्ट करने में प्रयासरत रहता है, तो उस पर अंगुलियाँ उठनी स्वाभाविक हैं। यह सर्वथा सत्य है कि सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है… ‘उपहास, विरोध व अंततः स्वीकृति।’ सत्य का कभी मज़ाक उड़ाया जाता है, तो कभी उसका विरोध होता है…परंतु अंतिम स्थिति है स्वीकृति, जिसके लिए आवश्यकता है– असामान्य परिस्थितियों, प्रतिपक्ष के आरोपों व व्यंग्य-बाणों को धैर्यपूर्वक सहन करने की क्षमता की। समय के साथ जब प्रकृति का क्रम बदलता है… दिन-रात, अमावस-पूनम व विभिन्न ऋतुएं, निश्चित समय पर दस्तक देती हैं, तो उनके अनुसार हमारी मन:स्थिति में परिवर्तन होना भी स्वाभाविक है। इसलिए हमें इस तथ्य में विश्वास रखना चाहिए कि यह परिस्थितियां व समय भी बदल जायेगा; सदा एक-सा रहने वाला नहीं। समय के साथ तो सल्तनतें भी बदल जाती हैं, इसलिए संसार में कुछ भी सदा रहने वाला नहीं। सो! जिसने संसार में जन्म लिया है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। इसके साथ-साथ आवश्यकता है मनन करने की… ‘ इंसान खाली हाथ आया है और उसे जाना भी खाली हाथ है, क्योंकि कफ़न में कभी जेब नहीं होती।’ इसी प्रकार गीता का भी यह सार्थक संदेश है कि मानव को किसी वस्तु के छिन जाने का ग़म नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसने जो भी पाया व कमाया है, वह यहीं से लिया है। सो! वह उसकी मिल्कियत कैसे हो सकती है? फिर उसे छोड़ने का दु:ख कैसा? सो! हमें सुख-दु:ख से उबरना है, ऊपर उठना है। हर स्थिति में संभावना ही जीवन का लक्ष्य है।  इसलिए सुख में आप फूलें नहीं, अत्यधिक प्रसन्न न रहें और दु:ख में परेशान न हों…क्योंकि इनका चोली-दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरे का पदार्पण होना स्वाभाविक है। इसमें एक अन्य भाव भी निहित है कि जो अपना है, वह हर हाल में मिल कर रहेगा और जो अपना नहीं है, लाख कोशिश करने पर भी मिलेगा नहीं। वैसे भी सब कुछ सदैव रहने वाला नहीं; न ही साथ जाने वाला है। सो! मन में यह धारणा बना लेनी आवश्यक है कि ‘समय से पूर्व व भाग्य से अधिक कुछ मिलने वाला नहीं।’ कबीरदास जी का यह दोहा ‘माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आय फल होइ’…. समय की महत्ता व प्रकृति की निरंतरता पर प्रकाश डालता है।

समय का पर्यायवाची आने वाला कल अथवा भविष्य ही नहीं, वर्तमान है। ‘काल करे सो आज कर. आज करे सो अब/ पल में प्रलय होयेगी, मूरख करेगा कब’ में भी यही भाव निर्दिष्ट है कि कल कभी आएगा नहीं। वर्तमान ही गुज़रे हुए कल अथवा अतीत में परिवर्तित हो जाता है। सो! आज अथवा वर्तमान ही सत्य है। इसलिए हमें अतीत के मोह को त्याग, वर्तमान की महत्ता को स्वीकार, आगामी कल को सुंदर, सार्थक व उपयोगी बनाना चाहिए। दूसरे शब्दों में ‘कल’ का अर्थ है– मशीन व शांति। आधुनिक युग में मानव मशीन बन कर रह गया है। सो! शांति उससे कोसों दूर हो गयी है। वैसे शांत मन में ही सृष्टि के विभिन्न रहस्य उजागर होते हैं, जिसके लिए मानव को ध्यान का आश्रय लेना पड़ता है।

ध्यान-समाधि की वह अवस्था है, जब हमारी चित्त-वृत्तियां एकाग्र होकर शांत हो जाती हैं। इस स्थिति में आत्मा-परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उसका संबंध संसार व प्राणी-जगत् से कट जाता है; उसके हृदय में आलोक का झरना फूट निकलता है। इस मन:स्थिति में वह संबंध-सरोकारों से ऊपर उठ जाता है तथा वह शांतमना निर्लिप्त-निर्विकार भाव से सरोवर के शांत जल में अवगाहन करता हुआ अनहद-नाद में खो जाता है, जहां भाव-लहरियाँ हिलोरें नहीं लेतीं। सो! वह अलौकिक आनंद की स्थिति कहलाती है।

आइए! हम समय की सार्थकता पर विचार- विमर्श करें। वास्तव में हरि-कथा के अतिरिक्त, जो भी हम संवाद-वार्तालाप करते हैं; वह जग-व्यथा कहलाती है और निष्प्रयोजन होती है। सो! हमें अपना समय संसार की व्यर्थ की चर्चा में नष्ट नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए हमें उसका शोक भी नहीं मनाना चाहिए। वैसे भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि ‘नया नौ दिन, पुराना सौ दिन’ अर्थात् ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’… पुरातन की महिमा सदैव रहती है। यदि सोने के असंख्य टुकड़े करके कीचड़ में फेंक दिये जाएं, तो भी उनकी चमक बरक़रार रहती है; कभी कम नहीं होती है और उनका मूल्य भी वही रहता है। सो! हम में समय की धारा की दिशा को परिवर्तित करने का साहस होना चाहिए, जो सबके साथ रहने से, मिलकर कार्य को अंजाम देने से आता है। संघर्ष जीवन है…वह हमें आपदाओं का सामना करने की प्रेरणा देता है; समाज को आईना दिखाता है और गलत-ठीक व उचित-अनुचित का भेद करना भी सिखाता है। इसलिए समय के साथ स्वयं को बदल लेना ही श्रेयस्कर है। जो लोग प्राचीन परंपराओं को त्याग, नवीन मान्यताओं को अपना कर जीवन-पथ पर अग्रसर नहीं होते; पीछे रह जाते हैं… ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल सकते तथा उन्हें व उनके विचारों को मान्यता भी प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए संतोष रूपी रत्न को धारण कर, जीवन से नकारात्मकता को निकाल फेंके, क्योंकि संतोष रूपी धन आ जाने के पश्चात् सांसारिक धन-दौलत धूलि के समान निस्तेज, निष्फल व निष्प्रयोजन भासती है; शक्तिहीन व निरर्थक लगती है और उसकी जीवन में कोई अहमियत नहीं रहती। इसलिए हमें जीवन में किसी के आने  और भौतिक वस्तुओं व सुख-सुविधाओं के मिल जाने पर खुश नहीं होना चाहिए और उसके अभाव में दु:खी होना भी बुद्धिमत्ता नहीं है, क्योंकि सुख-दु:ख का एक स्थान पर रहना असंभव है, नामुमक़िन है… यही जीवन का सार है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ “नादान मछलियां” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ कविता – “नादान मछलियां” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

🐟

केवल तुम से  तुम तक  है

समझो बात   सुरक्षित है।

🐠

चंदनवन की राह विकट है

सांपों से  अभिरक्षित   है।

🐟

खुद से खुद तक नहीं पहुंचा

वो दुनिया भर में चर्चित है।

🐠

जीते जी   पुतले  बनवाए

कैसे  कहें वो मूर्छित है  ।

🐟

लुटे पिटे बेबस  हैं  लाखों

पत्थर को प्यार समर्पित है।

🐠

 नादान मछलियां देख रहे हैं

 बगुले कितने      हर्षित हैं ।

🐟

 बहुरूपिए का कसूर क्या?

 वो आका से आकर्षित है।

💧🐣💧

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संतृप्त ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – संतृप्त ? ?

दुनिया को जितना देखोगे,

दुनिया को जितना समझोगे,

दुनिया को जितना जानोगे,

दुनिया को उतना पाओगे,

अशेष लिप्सा है दुनिया,

जितना कंठ तर करेगी,

तृष्णा उतनी ही बढ़ेगी,

मैं अपवाद रहा

या शायद असफल,

दुनिया को जितना देखा,

दुनिया को जितना समझा,

दुनिया में जितना उतरा,

तृष्णा का कद घटता गया,

भीतर ही भीतर एक

संतृप्त जगत बनता गया!

© संजय भारद्वाज 

(रात्रि 12:25 बजे, 16.6.2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry – ☆ Words …  on my heart’s paper boat ☆ – Hemant Bawankar ☆

Hemant Bawankar

☆ Words …  on my heart’s paper boat ☆

The mist

soft wind

a piece of sunshine

between the clouds

miles away

on foreign land

slips on

old city

old buildings

old forts, palaces

on the surface of the river

and on the lake

every afternoon

far away

up to where

goes my vision.

 

And then,

suddenly

words seem to flow,

on my heart’s paper boat

on

black road like river

far

on the turn

downhill

and

finally lost

by the lake

by the river

and

old city

old city lanes.

 

And then

suddenly shatters

earthy scent

of the homeland

in the entire

environment.

 

Words start

squirting

floating

and soaking

my heart’s paper boat

with words

to conscience

eyes

and

far on mountain slopes

a black river like roadsides

roofs of houses

and

house

where lives

a piece of my heart

under the shadow of

a piece of sun rays.

27th May, 2014

© Hemant Bawankar

 

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #217 ☆ कविता – अपना संविधान ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता अपना संविधान )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 217 – साहित्य निकुंज ☆

☆ कविता – 🇮🇳 अपना संविधान 🇮🇳 ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

 

 

संविधान जबसे बना,है गणतंत्र महान।

हमको अपने देश का, रखना होगा मान।।

संविधान देता हमें, जीने का अधिकार।

बदला हुआ राजतंत्र, हमें यही स्वीकार।।

संविधान की भावना, जिसके मन में आज।

वही कर रहा है अभी,सभी दिलों पर राज।।

कहे तिरंगा शान से, बसे देश के प्रान।

कहता गाथा देश की,दिए बहुत बलिदान।।

देश भक्ति के भाव का, करते  है गुणगान।

मिलजुल कर करते सभी, देश का सम्मान।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 263 ⇒ चांदी जैसे बाल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चांदी जैसे बाल।)

?अभी अभी # 263 ⇒ चांदी जैसे बाल… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

पहले पंकज उधास की इस ग़ज़ल पर गौर कीजिए ;

चांदी जैसा रूप है तेरा

सोने जैसे बाल।

एक तू ही धनवान है गौरी

बाकी सब कंगाल।।

यह कोई शायर है या बनिया, जो केवल अपनी प्रेयसी में सिर्फ सोना चांदी ही ढूंढता फिर रहा है। अरे भाई चांदी जैसा रूप तो फिर भी ठीक है, लेकिन सोने जैसे बाल, यह कौन सी उपमा है। रेशमी जुल्फ तो फिर भी ठीक है। वैसे आम पुरुषोचित पसंद तो काले लंबे लहराते बाल ही होती है। ऐसी चांदी सोने वाली धनवान टकसाल किसी पेशेवर जौहरी की ही हो सकती है, हम आप जैसे सादगी पसंद पारखी निगाहों की नहीं।

रूप की छोड़िए, लेकिन बाल तो काले और सफेद ही होते हैं। वैसे तो सफेद बाल में भी कोई बुराई नहीं, लेकिन न जाने क्यों, लोगों को काले बालों में जवानी नजर आती है। केश श्रृंगार पर केवल महिलाओं का ही नहीं, पुरुषों का भी बराबरी का अधिकार है। क्या कोई बताएगा, पहले ब्यूटी पार्लर आए अथवा पहले केश कर्तनालय।।

मैं बालों में सिर्फ तेल लगाता हूं, नवरत्न तेल को छोड़कर कोई सा भी, क्योंकि वह बहुत ठंडा और महंगा होता है। शैंपू, मेंहदी और हेयर डाई से मैं कोसों दूर हूं। अतः मेरे सर में जितने भी बाल हैं, वे गोरे अधिक और काले कम हैं। एक समय था, जब मैं सर में सफेद बाल ढूंढा करता था, आजकल मुझे काले बालों की तलाश है।

आज भी जब मैं चांदी जैसे सफेद घने बालों वाले सीनियर सिटीजन्स को देखता हूं, तो मुझे उनके व्यक्तित्व में वह आभा नजर आती है, जो जवानी में नदारद थी। सफेद बाल नियति है, इससे आप कब तक बच सकते हैं। लेकिन हां, अगर आपके सर पर ही चांद है, वहां फिर चांदनी को कौन पूछेगा।।

यानी कहीं चांदी तो कहीं चांद ! चांद की भी सभी कलाएं आप पुरुष के सर पर देख सकते हैं। कहीं यह मस्तक से शुरू होती है तो कहीं ठीक सहस्रार से।

सहस्रार को बोलचाल की भाषा में टक्कल भी कहते हैं। इसी टक्कल से टकला शब्द भी बना है। अफसोस, टकले और गंजे के अलावा इन चांद से मुखड़ों वालों के लिए कोई उपयुक्त शब्द नहीं। फिर भी लोग इन्हें भाग्यशाली मानते हैं। चिंतक, विचारक, संत महात्मा और साहित्यकारों की तो छोड़िए, आजकल गंजा रहना भी युवाओं का फैशन हो गया है। जब फसल ही कम हो, तो उससे तो सफाचट मैदान ही क्या बुरा है।

सेमि लिटरेट की तरह मैं आधा गंजा और आधा सफेद बालों वाला हूं, यानी आज भी मेरे सर में सफेद और काले बालों की खेती

होती है। कुछ जमीन यकीनन बंजर है, लेकिन वह दूर से नजर नहीं आती। वैसे मुझे बालों से कोई विशेष प्रेम नहीं है, फिर भी मेरी यही मंशा है कि मेरे सभी बाल चांदी जैसे हो जाएं। खिचड़ी बाल अथवा उड़ते बाल को आखिर कोई तो मंजिल मिले।।

जितने बाल हैं, उन्हें ही संवारना है, रोज सुबह आईने में बाल बनाते वक्त निहारना है। जब तक बाल हैं, केश कर्तनालय भी जाना है। सोचता हूं, कोई ऐसा हेयर डाई तलाश लूं, जो जल्द सभी बाल सफेद कर दे, इसके पहले कि सर में कैंची चलाने लायक बाल भी ना बचे।

कुछ पुरानी प्रसिद्ध अभिनेत्रियों को आज देखता हूं, तो बड़ी तसल्ली होती है। इश्क और उम्र, छुपाए नहीं छुपती, फिर इन उड़ते और सफेद बालों की इतनी चिंता क्यूं। सुना है, अधिक चिंता से बाल ही नहीं उड़ते, उम्र से पहले ही बुढ़ापा भी आ धमकता है। पचहत्तर प्लस के बाद वैसे भी माइनस कुछ नहीं बचता। या तो चांदी जैसे बाल, या पूरा चांद, सब कुछ कुबूल।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #198 ☆ मोरे मन में रम गए राम… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज भगवान श्री राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर प्रस्तुत है मोरे  मन  में  रम  गए   रामआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 198 ☆

☆ मोरे मन में रम गए राम.. ☆ श्री संतोष नेमा ☆

दर्श बिनु मोहि कहाँ विश्राम

मोरे  मन  में  रम   गए   राम

*

आज अवध में  राम बिराजे

ढोल-मृदंग    मंजीरा   बाजे

अवध  में  नाचें  चारों   धाम

मोरे  मन  में  रम  गए   राम

*

सरयू सलिला पुलकित भारी

प्राण प्रतिष्ठित अवध  बिहारी

जिनकी छवि सुंदर  अभिराम

मोरे  मन  में  रम   गए   राम

*

धर्म-ध्वजा  घर-घर  फहराएं

दीप   आरती  थाल   सजाएं 

प्रफुल्लित नगर नगर हर ग्राम

मोरे  मन  में  रम   गए   राम

*

सरयू   तीर   लगा   है   मेला

राम  भक्ति  की  सुंदर   वेला

सबको मिलता सुखद मुकाम

मोरे  मन  में  रम   गए   राम

*

सबके सफल करें प्रभु  काम

“सतोष” राम  शरण  सुखधाम

मोरे  मन  में  रम   गए   राम

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 206 ☆ एकच नाम…प्रभू श्रीराम… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 206 – विजय साहित्य ?

एकच नाम…प्रभू श्रीराम ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

गात्री रूजले, एकच नाम..

प्रभू श्रीराम, प्रभू श्रीराम…

*

आली स्वगृही, स्वप्न पाऊली

सुंदर मुर्ती रघुरायाची,

दिव्या दिव्यांची, सजे आवली

करा तयारी, सणवाराची..

आले मंदिरी, प्रभू श्रीराम..||१||

*

चरा चराला, पडे मोहिनी

राम रुपाची, दिव्य बासरी

वेदमंत्र नी, प्राण प्रतिष्ठा

नेत्री भरली, मुर्ती हासरी

घेई अयोध्या, पावन नाम..||२||

*

वेध लागले, चित्त दंगले

पुजा अर्चनी , एकच ध्यास

राम बोल हे, मनी रंगले

साध्य जाहला, दिव्य प्रवास

झाले काळीज,मंगल धाम.||३||

*

घरा घराला, आले बाळसे

गोकुळ झाले, तना मनाचे

लेणे कोरीव, शिल्प छानसे

आतष बाजी, रंग सणाचे

भाव फुलांचे,एकच दाम..||४||

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “ध्येय…” ☆ सौ विजया कैलास हिरेमठ ☆

सौ विजया कैलास हिरेमठ

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “ध्येय…” ☆ सौ विजया कैलास हिरेमठ 

खूप काही करायचं

मनात येतं आणि जातं

जमेल का आपल्याला

विचारात ते हरवून बसतं…

 

भीतीचं प्रस्थ मोठं

कृतीपुढे पडतं थिटं

आपलंच मन वागतं खोटं

चांगल्या विचाराला मागं सारतं …

 

मनात आलं की

सुरू करून पहावं

यश अपयशापलीकडे

प्रयत्नांच्या मार्गाने जावं …

 

ध्येय निश्चित करतानाच

यश आपलं ठरतं

कसं पोहचायचं तिथंवर

इतकचं पहायचं असतं…

 

मार्ग मिळतो चालता चालता

संधी वाटतो प्रत्येक अडथळा

यशापेक्षा प्रयत्नांचा काळ मोठा

अनुभवरुपी यशास नसे तोटा….

 

मोजमाप यशाचे

आपणच असते करायचे

नेहमीच परिपूर्ण असणे

कसे बरे जमायचे…?

 

आपण आपलं चालत रहावं

पाऊल एक एक टाकत रहावं

कळणार नाही आलो कुठंवर

ध्येयापलीकडेही खूप दूरवर…..

 

यशापलिकडेही चालावंच लागतं

एका यशानंतर जगणं का संपतं?

नव्या ध्येयासाठी मन पेटून उठतं

ठरवूनही तिथे मग थांबता न येतं ….

 

यश असतो एक मुक्काम

तिथे संपतं नसतं आपलं काम

ध्येय जगण्याचं सर्वात मोठं

आयुष्याच्या शेवटीच तिथं पोहचता येतं….

💞शब्दकळी विजया💞

©  सौ विजया कैलास हिरेमठ

पत्ता – संवादिनी ,सांगली

मोबा. – 95117 62351

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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