हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जाता साल / आता साल ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – जाता साल / आता साल  ? ?

(आज 2023 विदा ले चुका है। 2024 दहलीज़ पर पदार्पण कर चुका है। इस परिप्रेक्ष्य में ‘जाता साल’ व ‘आता साल’ पर कुछ वर्ष पहले वर्ष पूर्व लिखी दो रचनाएँ साझा कर रहा हूँ। आशा है कि इन्हें पाठकों से अनुमोदन प्राप्त होगा।)

[1] – जाता साल

करीब पचास साल पहले

तुम्हारा एक पूर्वज

मुझे यहाँ लाया था,

फिर-

बरस बीतते गए

कुछ बचपन के

कुछ अल्हड़पन के

कुछ गुमानी के

कुछ गुमनामी के,

कुछ में सुनी कहानियाँ

कुछ में सुनाई कहानियाँ

कुछ में लिखी डायरियाँ

कुछ में फाड़ीं डायरियाँ,

कुछ सपनों वाले

कुछ अपनों वाले

कुछ हकीकत वाले

कुछ बेगानों वाले,

कुछ दुनियावी सवालों के

जवाब उतारते

कुछ तज़ुर्बे को

अल्फाज़ में ढालते,

साल-दर-साल

कभी हिम्मत, कभी हौसला

और हमेशा दिन खत्म होते गए

कैलेंडर के पन्ने उलटते और

फड़फड़ाते गए………

लो,

तुम्हारे भी जाने का वक्त आ गया

पंख फड़फड़ाने का वक्त आ गया

पर रुको, सुनो-

जब भी बीता

एक दिन, एक घंटा या एक पल

तुम्हारा मुझ पर ये उपकार हुआ

मैं पहिले से ज़ियादा त़ज़ुर्बेकार हुआ,

समझ चुका हूँ

भ्रमण नहीं है

परिभ्रमण नहीं है

जीवन परिक्रमण है

सो-

चोले बदलते जाते हैं

नए किस्से गढ़ते जाते हैं,

पड़ाव आते-जाते हैं

कैलेंडर हो या जीवन

बस चलते जाते हैं।

[2] आता साल

शायद कुछ साल

या कुछ महीने

या कुछ दिन

या….पता नहीं;

पर निश्चय ही एक दिन,

तुम्हारा कोई अनुज आएगा

यहाँ से मुझे ले जाना चाहेगा,

तब तुम नहीं

मैं फड़फड़ाऊँगा

अपने जीर्ण-शीर्ण

अतीत पर इतराऊँगा

शायद नहीं जाना चाहूँ

पर रुक नहीं पाऊँगा,

जानता हूँ-

चला जाऊँगा तब भी

कैलेंडर जन्मेंगे-बनेंगे

सजेंगे-रँगेंगे

रीतेंगे-बीतेंगे

पर-

सुना होगा तुमने कभी

इस साल 14, 24, 28,

30 या 60 साल पुराना

कैलेंडर लौट आया है

बस, कुछ इसी तरह

मैं भी लौट आऊँगा

नए रूप में,

नई जिजीविषा के साथ,

समझ चुका हूँ-

भ्रमण नहीं है

परिभ्रमण नहीं है

जीवन परिक्रमण है

सो-

चोले बदलते जाते हैं

नए किस्से गढ़ते जाते हैं,

पड़ाव आते-जाते हैं

कैलेंडर हो या जीवन

बस चलते जाते हैं।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद ☆ संपादक की कलम से …. शुक्रिया 2023 ☆ श्री जयप्रकाश पाण्डेय ☆

ई-अभिव्यक्ति -संवाद

प्रिय मित्रो,

यह ई-अभिव्यक्ति परिवार ( ई- अभिव्यक्ति – हिन्दी/मराठी/अंग्रेजी) के परिश्रम  एवं आपके भरपूर प्रतिसाद तथा स्नेह का फल है जो इन पंक्तियों के लिखे जाने तक आपकी अपनी वेबसाइट पर 5,43,755+ विजिटर्स अब तक विजिट कर चुके हैं।

? संपादक की कलम से …. शुक्रिया 2023  ? श्री जयप्रकाश पाण्डेय  ?

शुक्रिया उन लोगों का,

जो हमसे प्यार करते है..

क्योंकि

उन लोगों ने हमारा दिल,

बड़ा कर दिया..

 

शुक्रिया उन लोगों का,

जो हमारे लिए परेशान हुए..

क्योंकि

वो हमारा बहुत ख्याल रखते है..

    

शुक्रिया उन लोगों का,

जो हमारी जिंदगी में शामिल हुए,

और हमें ऐसा बना दिया,

जैसा हमने सोचा भी नही था..

जय प्रकाश पाण्डेय (संपादक – ई-अभिव्यक्ति – हिन्दी)

[email protected]

कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता

एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों…

दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियाँ हमें हमारे जीवन और कर्म को नई दिशा प्रदान करती है।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 239 ⇒ उंगलियों का अंकगणित… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उंगलियों का अंकगणित।)

?अभी अभी # 239 ⇒ उंगलियों का अंकगणित… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैं जब सुबह सोकर उठता हूं, तो अपने ही हाथों का दर्शन कर, दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ता हूं, और अपने गर्म हाथों से अपने चेहरे को कोमल स्पर्श द्वारा, एक मां की तरह सहेजता हूं, दुलारता हूं, और ईश्वर का स्मरण करता हूं ;

कराग्रे वसते लक्ष्मी:

करमध्ये सरस्वती।

करमूले तू गोविन्द:

प्रभाते करदर्शनम्।।

ये हाथ अपनी दौलत है, ये हाथ अपनी किस्मत है।

हाथों की चंद लकीरों का

बस खेल है सब तकदीरों का।

जिसे हम हस्त कहते हैं, वही अंग्रेजी का palm है, और हस्तरेखा अथवा Palmistry एक विज्ञान भी है। हमारे जगजीतसिंह तो फरमाते हैं ;

रेखाओं का खेल है मुकद्दर

रेखाओं से मात खा रहे हो।

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

क्या गम है जिसको छुपा रहे हो।।

रेखा को ही लकीर भी कहते हैं। हम आज हाथों की नहीं, उंगलियों की लकीरों की बात करेंगे। अगर हमारी पांच उंगलियां नहीं होती, तो क्या हमारा हाथ पंजा कहलाता, क्या हम मुट्ठी बांध और खोल पाते। हमारे हाथ में पांच उंगलियां हैं, जिनमें अंगूठा भी शामिल है।

ज्योतिष का क्या है, हाथों की चंद लकीरें पढ़, शुभ अशुभ के तालमेल के लिए सारे नग उंगलियों की अंगूठी में ही तो आते हैं।

उधर अंगूठे का ठाठ देखो, और thumb impression देखो। नृत्य की मुद्रा, और योग में भी मुद्रा का महत्व उंगलियों की उपयोगिता को सिद्ध करता ही है, इन्हीं उंगलियों पर लोग नाचते और नचाते भी हैं।।

क्या कभी आपने आपकी उंगली पर गौर किया है। हमारी उंगलियों का भी अजीब ही गणित है। हर उंगली में तीन आड़ी लकीरें हैं। यानी ये लकीरें एक उंगली को तीन बराबर हिस्सों में बांटती है। आप चाहें तो इन्हें खाने भी कह सकते हैं। लेकिन मेरे दाहिने हाथ का अंगूठा यहां भी सबसे अलग है, उसमें तीन नहीं चार खाने हैं।

आपने कभी उंगलियों पर हिसाब किया है ! अवश्य किया होगा। लोग तो छुट्टियाँ भी उंगलियों पर ही गिन लेते हैं। सप्ताह में सात दिन हमने उंगलियों पर ही याद किए थे और दस तक की गिनती भी।

बहुत काम आती हैं ये उंगलियां जब कागज कलम नहीं होता।।

जब आज की तरह मोबाइल और कैलकुलेटर नहीं था, तब सब्जी का हिसाब उंगलियों पर ही किया जाता था। दूध के हिसाब के लिए तो कैलेंडर जिंदाबाद।

इन उंगलियों का उपयोग मंत्र जपने के लिए भी किया जा सकता है। आपके एक हाथ की उंगलियों में देखा जाए तो पंद्रह मनके हैं, यानी दो हाथ में तीस। याद है बच्चों को एक से सौ तक की गिनती भी इसी तरह सिखाई जाती थी। रंग बिरंगे प्लास्टिक के मोती एक स्लेटरूपी तार के बोर्ड में पिरो दिए जाते थे।

क्या क्या याद नहीं किया जा सकता इन उंगलियों पर, मत पूछिए। अभी कितने बजे हैं, रात के सिर्फ दो। यानी सुबह होने में, और उंगलियों पर गिनती शुरू, तीन, चार, पांच, छः, यानी बाप रे, चार घंटे कैसे कटेंगे। फिर कोशिश करते हैं, शायद आंख लग जाए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 218 ☆ चिंतन – “विपक्ष की भूमिका में व्यंग्यकार” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक चिंतनीय आलेख – “विपक्ष की भूमिका में व्यंग्यकार”)

☆ चिंतन – “विपक्ष की भूमिका में व्यंग्यकार☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

हमें ऐसा लगता है कि व्यंग्य कभी भी कहीं भी हो सकता है बातचीत में, सम्पादक के नाम पत्र में, कविता और कहानी आदि में भी। व्यंग्य लिखने में सबसे बड़ी सहूलियत ये है कि “जैसे तू देख रहा है वैसे तू लिख”।

समसामयिक जीवन की व्याख्या उसका विश्लेषण  उसकी सही भर्त्सना एवं विडम्बना के लिए व्यंग्य से बड़ा कारगर हथियार और कोई नहीं। समाज में फैली विषमता, राजनीति में व्याप्त ढकोसला, भ्रष्टाचार, दोगलापन आदि सहन नहीं होता तो व्यंग्य लिखा जाता है। जो गलत या बुरा लगता है उस पर मूंधी चोट करने व्यंग्य बाण छोड़े जाते हैं और कहीं न कहीं से लगता है कि व्यंग्यकार की कलम ईमानदार, नैतिक और रुढ़ि विरोधी को नैतिक समर्थन दे रही है। इसलिए हम कह सकते हैं कि व्यंग्य साहित्य की ही एक विधा है।

साहित्य में व्यंग्य की पहले शूद्र जैसी स्थिति थी, कहानीकार, कवि आदि व्यंग्य को तिरस्कृत नजरों से देखते थे, पत्रिकाएं व्यंग्य से परहेज़ करतीं थीं, पर अब व्यंग्य का दबदबा हो चला है परसाई ने लठ्ठ पटककर व्यंग्य को ऊपर बैठा दिया है, व्यंग्य की लोकप्रियता को देखकर आज कहानीकार, कवि जो व्यंग्य से चिढ़ते थे ऐसे अधिकांश लोग व्यंग्य की शरण में आकर अपना कैरियर बनाने की ओर मुड़ गए हैं।

पाठक अब कहानी के पहले व्यंग्य पढ़ना चाहता हैं, क्योंकि आम आदमी समाज में फैली विषमता, राजनीति में व्याप्त ढकोसला, भ्रष्टाचार, दोगलापन, पाखण्ड और केंचुए की प्रकृति के लोगों के चरित्र को देखकर हैरान हैं,जो पाठक व्यक्त नहीं कर पाता है वह व्यंग्य पढ़कर महसूस कर लेता है। व्यंग्य समाज को बेहतर से बेहतर बनाने की सोच के साथ काम करता है। इसीलिए माना जाता है कि समाज और साहित्य में  व्यंग्य की भूमिका बहुत महत्व रखती है।जब लोकतंत्र को खत्म करने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ताले लगाए जाते हैं, प्रेस और मीडिया बिक जाते हैं तो व्यंग्य और व्यंग्यकार की भूमिका अहम हो जाती है।  व्यंग्यकार अपने व्यंग्य से जनता के बीच चेतना जगाने का काम करता है,समाज में जाग्रति फैलाता है और विपक्ष की भूमिका में नजर आता है, पर इन दिनों नेपथ्य में चुपचाप कुछ यश लोलुप, सम्मान के जुगाड़ू लोग शौकिया व्यंग्यकारों की भीड़ इकट्ठी कर चरवाहा बनकर भेड़ें हांक रहे हैं और व्यंग्य को फिर शूद्र बनाने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं, उन्हें समाज और सामाजिक सरोकारों से मतलब नहीं है वे पहले अपने नाम और फोटो से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने में तुले हैं,समाज और साहित्य के लिए ये स्थितियां घातक हो सकतीं हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ मेरी सच्ची कहानी – विचारणीय… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘विचारणीय…’।)

☆ लघुकथा – विचारणीय… ☆

मच्छरों की आपातकालीन बैठक बुलाई गई थी, उसमें विभिन्न प्रकार के मच्छर थे, एनाफ्लीस मच्छर, क्यूलेक्स मच्छर, एडीज मच्छर,जीका वायरस का मच्छर, डेंगू बुखार का मच्छर और भी कई प्रकार के मच्छर थे,जो आदमियों से परेशान हो गए थे, सभी भिन भिन कर रहे थे,आपस में बातें कर रहे थे,शोरगुल था, तभी एक बुजुर्ग मच्छर खड़ा हुआ, उसने कहा, कृपया शांत हो जाएं,आज की बैठक,आपके लिए,अपनों के लिए ही बुलाई गई है, पहले हमसे बचने के लिए, आदमी, हमसे बचाव के लिए मच्छरदानी लगा लेता था, फिर कुछ दिन बाद दवाइयां लगाने लगे कई कंपनियों की, फिर ऑल आउट,वगैरह जला देते थे, जिससे हम भाग जाते थे, परंतु अब उन्होनें नया काम किया है, मॉस्किटो नेट का जो रैकेट होता है,उसको बिजली से चार्ज करते हैं और जिससे जल कर हमारी मृत्यु हो जाती है,बहुत दुखदाई है, इससे बचाव के क्या साधन अपना सकते हैं, हमें विचार करना है, सभी मच्छर विचार कर रहे थे, पर कोई सुझाव नहीं सूझ रहा था.

तब एक बुजुर्ग मच्छर खड़ा हुआ, उसने कहा, सच है, आदमी हमें देख लेता है,और हम पर वार करता है, हमें जला देता है,मार देता है, परंतु आपको एक बात बताऊं, आदमी में अहम बहुत होता है,इस अहम के कारण खुद को नहीं देखता, आसपास देखता है, दूसरों को देखता है,खुद को नहीं देखता, आवश्यकता है कि मच्छर उससे कपड़ों से चिपके, आदमी अपने पास नहीं देखेगा,मच्छर सुरक्षित रहेंगे, क्योंकि आदमी अपने अहम के कारण खुद को नहीं देखता है, सभी लोगों ने तालियां बजा कर सुझाव का स्वागत किया.

और इनके सामने मनुष्य की एक कमजोरी आ गई ,अहम के कारण व्यक्ति अपने आप को नहीं देखता, अपने आसपास नहीं देखता,हमेशा दूसरों को देखता है,दूसरों के पास क्या है, यही देखता है,खुद के पास क्या है,नहीं देखता.

सोचिए जरूर…

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 160 ☆ # नववर्ष की सुबह # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# नववर्ष की सुबह #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 160 ☆

☆ # नववर्ष की सुबह #

नये साल की नई सुबह है

मुस्कुराने की वजह है

झूम रही है दुनिया सारी

खुशियां बिखरी हर जगह है

 

बागों में भंवरों की गुनगुन है

चूम रहे कलियों को चुन-चुन है

मदहोशी में हैं अल्हड़ यौवन

पायल की बजती रुनझुन है

 

नव किरणों की अठखेलियां हैं

ओस की बूंदों से लिपटी कलिया हैं

महक रही है बगिया बगिया

खुशबू लुटाती फूलों की डलिया हैं  

 

वो युगल गा रहे हैं प्रेम के गीत

लेकर बांहों में अपने मीत

आंखों के सागर में डूबे

अमर कर रहे हैं अपनी प्रीत

 

मजदूर बस्ती के वंचित परिवार

झेल रहे जो महंगाई की मार

मध्य रात्रि से देख रहे हैं

पैसे वालों का यह त्यौहार

 

नई सुबह के नए हैं सपने

कौन पराया सब हैं अपने

भेदभाव सब मिटा दो यारों

लगो प्रेम की माला जपने

 

नववर्ष में नए विचार हो

दया, करूणा और प्यार हो

कोई ना रह जाए वंचित

सब के दामन में खुशियां अपार हो /

 © श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सरणारे वर्ष मी… कवी – मंगेश पाडगांवकर ☆ प्रस्तुती – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सरणारे वर्ष मी… कवी – मंगेश पाडगांवकर ☆ प्रस्तुती – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

(वर्षाच्या निरोपाची मंगेश पाडगांवकरांची सुंदर कविता)

मी उद्या असणार नाही

असेल कोणी दूसरे

मित्रहो सदैव राहो

चेहरे तुमचे हासरे

 

झाले असेल चांगले

किंवा काही वाईटही

मी माझे काम केले

नेहमीच असतो राईट मी

 

माना अथवा नका मानु

तुमची माझी नाळ आहे

भले होओ , बुरे होओ

मी फक्त ” काळ ” आहे

 

उपकारही नका मानु

आणि दोषही देऊ नका

निरोप माझा घेताना

गेट पर्यन्त ही येऊ नका

 

उगवत्याला ” नमस्कार “

हीच रीत येथली

विसरु नका ‘ एक वर्ष ‘

साथ होती आपली

 

धुंद असेल जग उद्या

नव वर्षाच्या स्वागताला तुम्ही मला

खुशाल विसरा दोष माझा प्राक्तनाला

 

शिव्या ,शाप,लोभ,माया

यातले नको काही

मी माझे काम केले

बाकी दूसरे काही नाही

 

निघताना ” पुन्हा भेटु “

असे मी म्हणनार नाही

” वचन ” हे कसे देऊ

जे मी पाळणार नाही

 

मी कोण ? सांगतो

” शुभ आशीष ” देऊ द्या

” सरणारे वर्ष ” मी

आता मला जाउ द्या।

(संकलन माधव विद्वांस)

🙏💦🌸💦🙏

प्रस्तुती : श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क -17 16/2 ‘गायत्री’ प्लॉट नं. 12, वसंत दादा साखर कामगारभावन के पास , सांगली 416416 महाराष्ट्र

मो. 9403310170, email-id – [email protected] 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नव वर्ष… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ नव वर्ष… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

कॅलेंडर बदलतं नि वर्ष नवं येतं

सांगा बरं काय घडतं ?

बदलतात का सूर्य-चंद्र ?

 

नाही हो !सृष्टी नाही बदलत.

एक मात्र नक्कीच घडतं

बदलतं आपलं मन.

 

नवी आशा,नवोन्मेष,संकल्पांचंं दालन

भविष्याचा वेध घेण्या,एक नवं कारण

जीवनाला उभारी देतं,स्वागतोत्सुक मन

चित्तवृत्ती बदलण्याचं,ठरतं एक साधन.

 

कौटुंबिक जिव्हाळा ते वृद्धिंगत करतं

नववर्ष मनामनांना, नव्यानं सांधतं .

 

© सुश्री दीप्ती कोदंड कुलकर्णी

हैदराबाद.

भ्र.९५५२४४८४६१

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 154 ☆ नूतन वर्ष ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

 

?  हे शब्द अंतरीचे # 154 ? 

☆ हे शब्द अंतरीचे… नूतन वर्ष ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

(पाश्चात्य परंपरेची, नवीन वर्षाची सुरुवात आज झाली…. त्या निमित्ताने ह्या काही ओळी…)

नूतन वर्षाची, सुरुवात झाली

सूर्य किरणे, प्राचिवर प्रसवली

मंजुळ स्वरात, कोकिळा वदली

नवीन वर्षाला, सुरुवात झाली

चाफा सुंदर, फुलू लागला

मोगरा सुगंधी, बहरून आला

झाले जे ते, विसरून जावे

नव्याने पुन्हा, तयार व्हावे

पुन्हा नवी दिशा, पुन्हा नवा डाव

करा सावारा-सावर, टाका आपला प्रभाव

होणारे सर्व आता, छान छान व्हावे

चांगले योग्य, तेच घडून यावे

मनोभावे करावी, प्रार्थना देवाला

सुखी ठेव बा, चालू या घडीला

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ ती वेळ निराळी होती…ही वेळ निराळी आहे… श्री अरुण म्हात्रे ☆ रसग्रहण – सुश्री तृप्ती कुलकर्णी ☆

सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

? काव्यानंद ?

☆ ती वेळ निराळी होती…ही वेळ निराळी आहे… श्री अरुण म्हात्रे ☆ रसग्रहण – सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

☆ ती वेळ निराळी होती…ही वेळ निराळी आहे… श्री अरुण म्हात्रे ☆

छातीत फुले फुलण्याची

वार्‍यावर मन झुलण्याची

ती वेळ निराळी होती…. ही वेळ निराळी आहे.

 

डोळ्यात ऋतुंचे पाणी

मौनात मिसळले कोणी

वाळूत स्तब्ध राहताना

लाटेने गहिवरण्याची

ती वेळ निराळी होती…. ही वेळ निराळी आहे.

 

तू वळून हसलीस जेव्हा

नक्षत्र निथळले तेव्हा

मन शहारून मिटण्याची

डोळ्यात चंद्र टिपण्याची …

ती वेळ निराळी होती…. ही वेळ निराळी आहे.

 

ज्या चंद्र कवडशा खाली

कुणी साद घातली ओली

मग चंद्र वळून जाताना

किरणात जळून जाण्याची

ती वेळ निराळी होती…. ही वेळ निराळी आहे.

 

पाऊस परतला जेव्हा

नभ नदीत हसले तेव्हा

कोरड्या मनाने कोणी

गावात परत येण्याची

ती वेळ निराळी होती…. ही वेळ निराळी आहे.

 

थबकून थांबल्या गाई

की जशी शुभ्र पुण्याई

त्या जुन्याच विहिरीपाशी

आईस हाक देण्याची

ती वेळ निराळी होती…. ही वेळ निराळी आहे.

 

गावाच्या सीमेवरती

जगण्याच्या हाका येती

त्या कौलारु स्वप्नांना

आयुष्य दान देण्याची

ती वेळ निराळी होती…. ही वेळ निराळी आहे.

 

हे गाणे जेव्हा लिहिले

मी खूप मला आठवले

शब्दास हाक देताना

आतून रिते होण्याची

ती वेळ निराळी होती…. ही वेळ निराळी आहे.

 – श्री अरुण म्हात्रे 

काही काही गोष्टी आपल्या समोर येण्याच्या वेळा किती अचूक असतात असं ही कविता पुन्हा पुन्हा वाचताना मला जाणवलं. वर्षाचा शेवटचा महिना   मला आठवणींचा महिना  वाटतो… वर्षभरातल्या ज्या काही घडामोडी आहेत त्या एखाद्या चित्रपटातल्या फ्लॅशबॅकप्रमाणे आपल्या नजरेसमोरून तरळत जात असतात. वर्ष आणि वय जसं उलटत जातं तसं भूतकाळाची वही भरायला सुरुवात होते.

या वहीतल्या प्रत्येक पानावर वर्षभरातले अनेक प्रसंग आपल्याही नकळत लिहिले जातात… गंमत म्हणजे काही प्रसंग लिहायचं ठरवलं नसलं तरीही आपसूकच लिहिले जातात. आणि एका छोट्याशा ज्योतीनं सारा आसमंत नजरेत यावा तसे ते प्रसंग कुठल्यातरी एका छोट्याशा जाणिवेतून स्मृतीतल्या एखादा दिवस, विशिष्ट प्रहर लख्ख उजळवून टाकतात.

अरुण म्हात्रे यांच्या या कवितेत या कवीच्या स्मृतिकोषात अशाच काही आठवणी बद्ध झालेल्या आहेत. ज्या साध्या दिवसांनाही ‘विशेष पण’ बहाल करून गेल्या आहेत. प्रत्येकाचा भूतकाळ हा तसा रमणीय असतो. पण कवी हा भूतकाळ ज्या पद्धतीने बघतो ती पद्धत जास्त ‘रमणीय’ असते. कारण त्याला गेलेल्या वेळेची किंमतही माहिती आहे आणि आत्ताच्या वेळेचीही जाण असते. ऋतुंप्रमाणे बदलणाऱ्या निसर्गा इतकंच सहजपणे ऐलतीरावरून पैलतीराकडे बघण्याची ताकद कवी आत्मसात करतो, किंबहुना ते त्याचं बलस्थान असतं.

आर्तता, आत्मीयता, आत्ममग्नता आणि त्याचवेळी आत्मसमर्पणता अशा सगळ्यांच भावना तो कवितांमधून मांडत जातो. इतक्या सहज की जणू सागराच्या लाटेनं जोमाने उसळुन आपलं वेगळेपण सिद्ध करावं आणि ते लक्षात येईस्तोवर समुद्रात तितक्याच वेगाने मिसळून जावं. ‘क्षणाचा जन्म’ आणि ‘क्षणाचा मृत्यू’ इतक्या सुंदर पद्धतीने कवी मांडतो की जणू कविता ही त्याची प्रेयसी असावी आणि तिचं वर्णन करण्याची शब्दांची अहमिका लागलेली असावी.

या कवितेतील ‘ती वेळ निराळी होती… ही वेळ निराळी आहे’ या ओळीतून आपल्यालाही दोन वेळांमधला आणि दोन परिस्थिती, मनस्थिती यांतला फरक चटकन जाणवतो.

मला तर ही कविता कवितेलाच उद्देशून लिहिलीय असं वाटतं. जणू तो कवितेलाच सांगतो आहे ‘ती वेळ निराळी होती… ही वेळ निराळी आहे’. एका टप्प्यावरती आल्यावर कवीनेच आपल्या कवितांकडे तटस्थपणे बघण्याचा आणि तिच्याशी संवाद साधण्याचा प्रयत्न केला तर तो याच पद्धतीने तिच्याशी बोलेल.

घटना जेव्हा वर्तमानात घडत असतात तेव्हा प्रत्येक वेळी त्यांना अर्थ असतोच असं नाही. अनेकदा काळ उलटून गेल्यावर त्या घटनांना विशेष अर्थ प्राप्त होतो. या कवितेतल्या सगळ्या कडव्यांमधून कवीला हेच मांडायचं असावं.

येणाऱ्या नव्या वर्षाकडे आशेने पाहताना मागील वर्षातल्या अनेक बारीक बारीक गोष्टी देखील आपण आता अशाच नजरेने पाहतो आणि आपल्याला त्या तेव्हा साधा वाटलेल्या घटनाही, आता विशेष वाटतात. ही जगण्यातली गंमत कवीला खूप छान उमगलेली असते.

मला भावलेली कविता अशी आहे. तुम्हाला ती आणखीन वेगळ्या प्रकारे भावू शकते. कारण आपल्या प्रत्येकाचा भूतकाळ वेगळा आहे आणि त्याकडे पाहण्याचा दृष्टिकोनही.

©  सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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