(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके “माँ के बुने हुए स्वेटर से…”।)
☆ तन्मय साहित्य #212 ☆
☆ माँ के बुने हुए स्वेटर से… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “आदमी…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 36 ☆ आदमी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रेम
“सुबह का धुँधलका, गुलाबी ठंड, मंद बयार, उसकी दूधिया अंगुलियों की कंपकंपाहट, उमनगोट-सा पारदर्शी उसका मन, उसकी आँखों में दिखती अपनेपन की झील, उसके शब्दों से झंकृत होते बाँसुरी के सुर, उसके मौन में बसते अतल सागर, उसके चेहरे पर उजलती भोर की लाली, उसके स्मित में अबूझ-सा आकर्षण, उसकी…”
“.. पहला प्रेम याद हो आया क्या?” किसीने पूछा।
“…दूसरा, तीसरा, चौथा प्रेम भी होता है क्या?” उत्तर मिला।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चाॅंद और चाॅंद…“।)
अभी अभी # 247 ⇒ चाॅंद और चाॅंद… श्री प्रदीप शर्मा
चाॅंद को देखो जी ! आपने बदली का चांद तो देखा ही होगा, घूंघट के चांद के अलावा कुछ लोग ईद के चांद भी होते हैं, लेकिन इसके पहले कि हम चौथे चांद का जिक्र करें, जरा अपने सर पर हाथ तो फेर लीजिए, कहीं यह चौथा चांद आपके सर पर ही तो नहीं।
हम जब छोटे थे, तो सबके सर पर बाल होते थे। लोग जब हमारे सर पर प्यार से हाथ फेरते, तो बड़ा अच्छा लगता था। हमारे बाल बड़े होते तो कटवा दिए जाते थे, और दीदी के बाल जब बड़े होते थे, तो उसकी चोटी बनाई जाती थी। हम उसको दो चोटी वाली कहकर चिढ़ाते थे। डांट भी पड़ती थी, मार भी खाते थे।।
बालों को अपनी खेती कहा गया है। हम जब गंजों को देखते थे, तो सोचा करते थे, इनके बाल कहां चले गए। इस मासूम से सवाल का तब भी एक ही जवाब होता था, उड़ गए। लेकिन तब भी हम कहां इतने मासूम थे। क्योंकि हमने तो सुन रखा था नया दौर का वह गाना, उड़े जब जब जुल्फें तेरी। यानी उनकी तो जुल्फ उड़े, और हमारे बाल। वाह रे यह कुदरत का कमाल। उधर सावन की घटा और इधर पूरा सफाचट मैदान।
कल चमन था, आज एक सहरा हुआ, देखते ही देखते ये क्या हुआ ! हम रोज सुबह जब आइना देखते हैं, तो अपने बाल भी देखते हैं। पुरुष काली घटाओं और रेशमी जुल्फों का दीवाना तो होता है, लेकिन खुद बाबा रामदेव की तरह लंबे बाल नहीं रखना चाहता। खुद तो देवानंद बनता फिरेगा और देवियों में साधना कट ढूंढता फिरेगा।।
चलिए, पुरुष तो शुरू से ही खुदगर्ज है, महिलाएं ही हमेशा आगे आई हैं और पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलते चलते बहुत आगे निकल गई हैं। उनके बाल छोटे लेकिन कद बहुत ऊंचा हो गया है। आज का सामाजिक दायित्व और बढ़ती चुनौतियां उससे यह कहती प्रतीत होती हैं ;
जुल्फें संवारने से
बनेगी ना कोई बात।
उठिए, किसी गरीब की
किस्मत संवारिये।।
ईश्वर इतना निष्ठुर भी नहीं !
अगर वह पुरुष के सर के बाल उड़ा रहा है तो क्षतिपूर्ति स्वरूप उसे दाढ़ी और मूंछ भी तो प्रदान कर रहा है। अक्सर पहलवान गंजे और मूंछ वाले होते हैं। और दाढ़ी की तो पूछिए ही मत, आजकल तो दाढ़ी ही मर्द की असली पहचान है। क्यों ऐश्वर्या और अनुष्का और कल की गुड्डी और आज की बूढ़ी जया जी, कि मैं झूठ बोलिया? अजी कोई ना।
कहने की आवश्यकता नहीं, लेकिन खुदा अगर गंजे को नाखून नहीं देता तो स्त्रियों को भी दाढ़ी मूंछ नहीं देता। बस अपने चांद से चेहरे पर लटों को उलझने दें। यह पहेली तो कोई भी सुलझा देगा।।
कहते हैं, अधिक सोचने से सर के बाल उड़ने शुरू हो जाते हैं। बात में दम तो है। सभी चिंतक, विचारक, दार्शनिक, वैज्ञानिक संत महात्मा इसके ज्वलंत प्रमाण हैं।
गंजे गरीब, भिखमंगे नहीं होते, पैसे वाले और तकदीर वाले होते हैं। जब किसी व्यक्ति का ललाट और खल्वाट एक हो जाता है, तो वहां प्रसिद्धि की फसल पैदा होने लगती है। तबला दिवस तो निकल गया, मेरा नाती फिर भी मेरी टक्कल पर तबला बजाता है। लगता है, मेरे भी दिन फिर रहे हैं। सर पर मुझे भी सफाचट मैदान नजर आने लगा है। मैं पत्नी को बुलाकर कहता हूं, तुम वाकई भागवान हो।
सर पर बाल रहे ना रहे, बस ईश्वर का हाथ सदा सर पर रहे।।
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “ये रोशनी से नहाए भवन है बेमानी…“)
ये रोशनी से नहाए भवन है बेमानी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “शेर, बकरी और घास…“। )
☆ आलेख # 90 – शेर, बकरी और घास… ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
बचपन के स्कूली दौर में जब क्लास में शिक्षक कहानियों की पेकिंग में क्विज भी पूछ लेते थे तो जो भी छात्र सबसे पहले उसे हल कर पाने में समर्थ होता, वह उनका प्रिय मेधावी छात्र हो जाता था और क्लास का हीरो भी. यह नायकत्व तब तक बरकरार रहता था जब तक अगली क्विज कोई दूसरा छात्र सबसे पहले हल कर देता था. शेष छात्रों के लिये सहनायक का कोई पद सृजित नहीं हुआ करता था तो वो सब नेचरली खलनायक का रोल निभाते थे. उस समय शिक्षकों का रुतबा किसी महानायक से कम नहीं हुआ करता था और उनके ज्ञान को चुनौती देने या प्रतिप्रश्न पूछने की जुर्रत पचास पचास कोस दूर तक भी कोई छात्र सपने में भी नहीं सोच पाता था. उस दौर के शिक्षक गण होते भी बहुत कर्तव्यनिष्ठ और निष्पक्ष थे. उनकी बेंत या मुष्टि प्रहार अपने लक्ष्यों में भेदभाव नहीं करता था और इसके परिचालन में सुस्पष्टता, दृढ़ता, सबका साथ सबकी पीठ का विकास का सिद्धांत दृष्टिगोचर हुआ करता था. इस मामले में उनका निशाना भी अचूक हुआ करता था. मजाल है कि बगल में सटकर बैठे निरपराध छात्र को बेंत छू भी जाये. ये सारे शिक्षक श्रद्धापूर्वक इसलिए याद रहते हैं कि वे लोग मोबाइलों में नहीं खोये रहते थे. पर्याप्त और उपयुक्त वस्त्रों में समुचित सादगी उनके संस्कार थे जो धीरे धीरे अपरोक्ष रूप से छात्रों तक भी पहूँच जाते थे. वस्त्रहीनता के बारे में सोचना महापाप की श्रेणी में वर्गीकृत था. ये बात अलग है कि देश जनसंख्या वृद्धि की पायदानों में बिनाका गीत माला के लोकप्रिय गीतों की तरह कदम दरकदम बढ़ता जा रहा था. वो दौर और वो लोग न जाने कहाँ खो गये जिन्हें दिल आज भी ढूंढता है, याद करता है.
तो प्रिय पाठको, उस दौर की ही एक क्विज थी जिसके तीन मुख्य पात्र थे शेर, बकरी और घास. एक नौका थी जिसके काल्पनिक नाविक का शेर कुछ उखाड़ नहीं पाता था, नाविक परम शक्तिशाली था फिर भी बकरी, शेर की तरह उसका आहार नहीं थी. (जो इस मुगालते में रहते हैं कि नॉनवेज भोजन खाने वाले को हष्टपुष्ट बनाता है, वो भ्रमित होना चाहें तो हो सकते हैं क्योंकि यह उनका असवैंधानिक मौलिक अधिकार भी है. )खैर तो आदरणीय शिक्षक ने यह सवाल पूछा था कि नदी के इस पार पर मौजूद शेर, बकरी और घास को शतप्रतिशत सुरक्षित रूप से नदी के उस पार पहुंचाना है जबकि शेर बकरी का शिकार कर सकता है और बकरी भी घास खा सकती है, सिर्फ उस वक्त जब शिकारी और शिकार को अकेले रहने का मौका मिले. मान लो के नाम पर ऐसी स्थितियां सिर्फ शिक्षकगण ही क्रियेट कर सकते हैं और छात्रों की क्या मजाल कि इसे नकार कर या इसका विरोध कर क्लास में मुर्गा बनने की एक पीरियड की सज़ा से अभिशप्त हों. क्विज उस गुजरे हुये जमाने और उस दौर के पढ़ाकू और अन्य गुजरे हुये छात्रों के हिसाब से बहुत कठिन या असंभव थी क्योंकि शेर, बकरी को और बकरी घास को बहुत ललचायी नज़रों से ताक रहे थे. पशुओं का कोई लंचटाइम या डिनर टाईम निर्धारित नहीं हुआ करता है(इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि मनुष्य भी पशु बन जाते हैं जब उनके भी लंच या डिनर का कोई टाईम नहीं हुआ करता. )मानवजाति को छोडकर अन्य जीव तो उनके निर्धारित और मेहनत से प्राप्त भोजन प्राप्त होने पर ही भोज मनाते हैं. खैर बहुत ज्यादा सोचना मष्तिष्क के स्टोर को खाली कर सकता है तो जब छात्रों से क्विज का हल नहीं आया तो फिर उन्होंने ही अपने शिष्यों को अब तक की सबसे मूर्ख क्लास की उपाधि देते हुये बतलाया कि इस समस्या को इस अदृश्य नाविक ने कैसे सुलझाया. वैसे शिक्षकगण हर साल अपनी हर क्लास को आज तक की सबसे मूर्ख क्लास कहा करते हैं पर ये अधिकार, उस दौर के छात्रों को नहीं हुआ करता था. हल तो सबको ज्ञात होगा ही फिर भी संक्षेप यही है कि पहले नाविक ने बकरी को उस पार पहुंचाया क्योंकि इस पार पर शेर है जो घास नहीं खाता. ये परम सत्य आज भी कायम है कि “शेर आज भी घास नहीं खाते”फिर नाव की अगली कुछ ट्रिप्स में ऐसी व्यवस्था की गई कि शेर और बकरी या फिर बकरी और घास को एकांत न मिले अन्यथा किसी एक का काम तमाम होना सुनिश्चित था.
शेर बकरी और घास कथा: आज के संदर्भ में
अब जो शेर है वो तो सबसे शक्तिशाली है पर बकरी आज तक यह नहीं भूल पाई है कि आजादी के कई सालों तक वो शेर हुआ करती थी और जो आज शेर बन गये हैं, वो तो उस वक्त बकरी भी नहीं समझे जाते थे. पर इससे होना क्या है, वास्तविकता रूपी शक्ति सिर्फ वर्तमान के पास होती है और वर्तमान में जो है सो है, वही सच है, आंख बंद करना नादानी है. अब रहा भविष्य तो भविष्य का न तो कोई इतिहास होता है न ही उसके पास वर्तमान रूपी शक्ति. वह तो अमूर्त होता है, अनिश्चित होता है, काल्पनिक होता है. अतः वर्तमान तो शेर के ही पास है पर पता नहीं क्यों बकरी और घास को ये लगता है कि वे मिलकर शेर को सिंहासन से अपदस्थ कर देंगे. जो घास हैं वो अपने अपने क्षेत्र में शेर के समान लगने की कोशिश में हैं पर पुराने जमाने की वास्तविकता आज भी बरकरार है कि शेर बकरी को और बकरी घास को खा जाती है. बकरी और घास की दोस्ती भी मुश्किल है और अल्पकालीन भी क्योंकि घास को आज भी बकरी से डर लगता है. वो आज भी डरते हैं कि जब विगतकाल का शेर बकरी बन सकता है तो हमारा क्या होगा.
कथा जारी रह सकती है पर इसके लिये भी शेर, बकरी और घास का सुरक्षित रूप से बचे रहना आवश्यक है.
☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-६ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
(मेघजल से सरोबार चेरापूंजी (सोहरा) और भी कुछ कुछ)
प्रिय पाठकगण,
आज भी फिरसे कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)
फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)
डॉकी नदी पर बांग्ला देशवासी नौकाओंको, यानि मोटर बोटों को देखने के बावजूद मुझे हमारी चप्पा चप्पा चलने वाली नौका अधिक सुखकारक लगी! क्योंकि प्रकृति की हरीतिमा और नीलिमा को और गौर से देखने का और इस स्वर्गसुख को और अधिक क्षणों के लिए अनुभव करने का सौभाग्य मिला| मित्रों, आप भी नौका नयन करने का मौका मिले तो कभी कभी मोटर बोटों की स्पीड को नकारते हुए मन्द-मन्द, मद्धिम चाल से चप्पू चलने वाले नाविकों की नावों में बैठने का स्वर्गसुख अवश्य महसूस करें! इस नौकाविहार की स्मृतियाँ संजोकर हम बढे चेरापूंजी की ओर!
मेघजलसुंदरी चेरापुंजी! (यहाँ की जनजातियों में सोहरा नाम से ही प्रसिद्ध!)
मेघालय को भेंट देते समय नयनरम्य चेरापुंजी पर्यटकों का आकर्षण रहना ही है, ऐसी है इसकी ख्याति! शिलाँग से ५६ किलोमीटर अंतर पर स्थित यह स्थान यानि अनगिनत झरने, कभी कोहरे में खोया हुआ तो कभी कोहरे के तरल होने पर हमें दर्शन देता हुआ! यहाँ वर्षभर जलधरों की मर्जी के अनुसार और उनकी लय पर थिरकती हुई जलधाराओं का नृत्य जारी रहता है! वृक्षवल्लरियों की हरितिमा में पुष्पों की कढ़ाई से समृद्ध शाल ओढ़े हुए पर्वतों के प्राकृतिक सौंदर्य से निखरा रोमांचक चेरापुंजी(सोहरा)! यह स्थान समुद्र तल से १४८४ मीटर ऊंचाई पर है| जगत में सर्वाधिक वर्षा होने वाले स्थान के रूप में प्रसिद्ध चेरापुंजीने सर्वाधिक वर्षा को झेलने के रिकॉर्ड समय समय पर दर्ज किये हैं, गुगल गुरु इसकी जानकारी देते रहते हैं!
अब इस गांव के नाम के बारे में बताती हूँ| करीबन १८३० वर्ष के दशक में अंग्रेजों ने सोहरा को उनका प्रादेशिक मुख्यालय बनाया था, उन्हें इसमें स्कॉटलंड की छबि नजर आ रही थी| वर्षा का पानी और कोहरा इस छोटे से गांव को ढंक लिया करता था, इसलिए उन्होंने इस गांव को “पूर्व का स्कॉटलंड” ऐसी उपाधि दे डाली| मात्र उन्हें इसके नाम का उच्चारण करने में बहुत परेशानी होती थी! फिर क्या, सोहरा का चेहरा/चेरा बना| किन्हीं बंगाली नौकरशाहों उसमें पुंजो (यानि झुंड) यह और परिशिष्ट जोड़ा और गांव का नामकरण “चेरापुंजी” हुआ| चेरापुंजी का दूसरा अर्थ है संतरे का गांव| परन्तु जाहिर था कि खासी लोगों को यह बदलाव मंजूर नहीं था, इस नाम के खातिर काफी आंदोलन किये गए| स्थानीय लोग इस गांव को सोहरा ही कहते हैं| आश्चर्य की बात यह है कि, यहाँ इतनी अधिक वर्षा के रहते भी स्थानीयों को पेयजल की कमी महसूस होती है| मित्रों यहाँ पर भी मातृसत्ताक पद्धति है, स्त्रियों को स्वातंत्र्य है तथा उन्होंने विविध क्षेत्रों में अपना स्थान निर्माण किया है, शिक्षा और आर्थिक स्वातंत्र्य ही खासी स्त्रियों के सक्षमीकरण होने का मूल कारण है!
हम चेरापुंजी यहाँ के क्लीफ साइड होम स्टे (cliffside home stay) में कुल दो दिन रहे| इस घर की मालकिन है अंजना! उनके पति का देहांत होने के बाद उन्होंने आत्मबल के बलबूते बच्चों को बड़ा किया| अत्यंत कर्तव्यदक्ष, समर्पित और आत्मविश्वास से भरपूर इस अंजना की मैं प्रशंसक बन गई हूँ| उनका होम स्टे है काँक्रीट का, घर की दीर्घा और खिड़की से चेरापूंजी के मेघाच्छादित तथा कोहरे के आलिंगन में बद्ध क्षेत्र का अद्भुत नजारा देख नैनों की प्यास बुझ गई! अलावा इसके, उन्होंने जब एक रात को खुद बड़ी मेहनत और चाव से पकाया हुआ गरमागरम खाना हमें परोसा, तो वह हमारे लिए “खासमखास” मेहमाननवाजी ही हो गई! प्रिय अंजना, कितने धन्यवाद दूँ तुम्हें! मात्र दो दिनों के लिए आए हम जैसे पर्यटकों के लिए तुम्हारी यह आत्मीयता भला कैसे भूल सकूंगी मैं!
मित्रों, चेरापुंजी की वर्षा का प्रमोद कुछ निराला ही है! कुछ ठिकाना न रहना, यहीं उसका स्थायी भाव है| हमने थोडेसे बून्दनीयों के बूँद झेलने के बाद रेनकोट पहना कि यह अदृश्य होगा और धूप को देखकर छाता या रेनकोट के बगैर बाहर आए तो यह बेझिझक बरसेगा| मेहमानों को कैसे मज़ा चखाया, ऐसा इसका बर्ताव! पाठकों, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे पुणे की वेधशाला से इसने स्पेशल कोर्स किया होगा! हम यहाँ दो दिन ही थे, उसमें हमने सेव्हन सिस्टर्स फॉल्स (Nohsngithiang Falls/Mawsmai Falls) देखे| सप्तसुरों के समान दुग्धधवल धाराओं को पूर्व खासी पर्वतश्रृंखला से गिरते हुए देखना यानि दिव्यानुभव! १०३३ फ़ीट से कल कल बहते ये जलप्रपात भारत के सर्वाधिक ऊंचाई से गिरने वाले झरनों में से एक हैं! मौसमयी गांव से १ किलोमीटर दूरी पर इनकी झूमती और लहराती मस्ती देखनी चाहिए वर्षा ऋतु में ही, याद रहे, बाकी दिनों में ये थोड़े मुरझाये से रहते हैं! हम खुशकिस्मत थे इसलिए हमें यह प्राकृतिक शोभा देखने को मिली| नहीं तो यौवन के दहलीज़ पर खड़ी सौंदर्यवती “घूंघट की आड़ में” जैसे अपना मुखचंद्र छुपाती है वैसे ही ये जलौघ घनतम कोहरे की आड़ में छुप जाते हैं और बेचारे पर्यटक निराश होते हैं| कोहरे की ओढ़नी की लुकाछिपी का अनुभव हमने भी कुछ कालावधि के लिए लिया! (यू ट्यूब का एक विडिओ शेअर किया है)
कॅनरेम झरना(The Kynrem Falls) पूर्व खासी पर्वत आईएएस जिले में,चेरापुंजी से १२ किलोमीटर अंतर पर है| थान्गखरांग पार्क के अंदर स्थित यह झरना ऊंचाई में भारत के सकल झरनों में ७ वे क्रमांक पर है| क्यनरेम झरना त्रिस्तरीय झरना है| उसका जल 305 मीटर(१००१ फ़ीट) की ऊंचाई से गिरता है! (इसका विडिओ लेख के अंतमें शेअर किया है)
प्रिय पाठकों, अगले प्रवास में हम चेरापुंजी और मेघालय के और कुछ स्थानों का अद्भुत प्रवास करेंगे| तैयारी में रहें!!!
तब तक के लिए फिर एक बार खुबलेई! (khublei) यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!
डॉ. मीना श्रीवास्तव
टिप्पणी
*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें और वीडियो (कुछ को छोड़) व्यक्तिगत हैं!
*गाने और विडिओ की लिंक साथ में जोड़ रही हूँ,
चेरापुंजी (सोहरा) का मेघमल्हार!
https://photos.app.goo.gl/aFDhbS2nQToY21eQ9
कॅनरेम त्रिस्तरीय झरना (Kynrem three tier Waterfalls)
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा – खूब तरक्की ।)
अमित शारदा को ऐसी नजरों से देखा रहा था जाने वह क्या करेगा?
परंतु शारदा इग्नोर करती हुई, अपने किचन के कामों में भोजन बनाने के लिए जुट जाती है। अमित को बर्दाश्त नहीं होता और वह जोर जोर से गाली देने लगता है, बेटे आकाश को अपशब्द बोलने लगता है।
शारदा ने गंभीर स्वर में कहा-
“आप स्वयं जिम्मेदार पद पर हो और जब बेटा ड्यूटी ज्वाइन करने जा रहा है तो उसे अपशब्द बोल रहे हो।”
” असहाय नजरों से देखती हुई फूट -फूट कर बच्चों की तरह रोने लगी।”
तभी आकाश अपने कमरे से बाहर आता है।
माँ कहाँ हो?
जल्दी करो मुझे एयरपोर्ट जाना है, फ्लाइट पकड़नी है।
अपने आंसू को जल्दी से पल्लू से छुपाती हूई मुस्कुराते हुए कहती है,हां मुझे पता है इसीलिए तुम्हारा नाम मैंने आकाश रखा है, तुम गगन में उड़ो।
मैं चाहती थी कि तुम एयर फोर्स में जाओ । तुम्हारे पिताजी, दादाजी और नाना जी बरसों से देश की सेवा करते रहे है। बस तुम्हारे पिताजी को ही सरकारी नौकरी करनी थी।
तुम इतना सब कुछ जानने के बाद भी क्यों रोती रहती हो? सुबह से मेरे लिए इतना नाश्ता खाना क्यों बना रही हो?
बेटा तू एक मां के दिल को नहीं समझेगा कि उसके दिल पर क्या बीतती है, तू चला जाएगा तो यह सब मैं कहां बनाती हूं, तेरे बहाने मैं भी खा लेती हूँ।
रोते हुए नम आंखों से उसका सामान पैक करती है और कहती है कि बेटा क्या करूं?
मैं तुम्हारे पास रहूंगा तो तुम मुझे भगा दोगी, अब जा रहा हूं तो उदास हो।
क्या करूं बेटा? तुम्हारे भविष्य के लिए मुझे अपने दिल पर पत्थर रखना पड़ेगा । बेटा तुम बारिश की एक बूंद की तरह रहना जो हर जगह गिरकर सबको तृप्ति करती है। आकाश चरण स्पर्श करते हुए बोलता है – मां मुस्कुराते हुए विदा करो, अपना सामान उठाकर टैक्सी की ओर जाता है।
शारदा उसे मन ही मन ढेर सारा आशीर्वाद देती है और कहती है बेटा जीवन में हमेशा आगे बढ़ो कभी अपने कदम पीछे की ओर मत रखना खूब तरक्की करो।