हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 220 ☆ कविता – “कोहरे में” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता“कोहरे में”)

☆ कविता – कोहरे में☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

कोहरे की 

चादर ओढ़कर 

अभी अभी

पहुंचा हूँ गाँव।

गाँव में

सब चलता है

मौसम खराब 

होने से

किसी पर कोई

असर नहीं होता।

धूप कभी

दिखती छुपती

नहाने चली जाती

धनिया गोबर से

भरा तसला लिए

कोहरे में कहां

गुम हो जाती।

सरसों के फूल

धुले धुले से

लगते दूर से  

कोहरे की चादर

फेंककर 

अलसाई सी

जग गई है धरती।

मेहमान बनकर

आता है कोहरा

कोहरे में किसान

सब्जी लेकर

निकल पड़ता है

बाजार की ओर

क्योंकि मेहमान 

बनकर आता है 

कोहरा

गांव की ओर।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 252 ⇒ अपर, मिडिल, लोअर बर्थ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अपर, मिडिल, लोअर बर्थ।)

?अभी अभी # 252 ⇒ अपर, मिडिल, लोअर बर्थ… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आजादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, तिलक कह तो गए हैं, लेकिन क्या हमारा हमारे अपने जन्म पर भी अधिकार है। यह तो आपके संचित पुण्यों का फल है, जैसे संचित कर्म, वैसा बर्थ, यानी जन्म। अगर हम पैदा ही नहीं हुए होते, तो हमारा कैसा अधिकार और कैसा संचित पुण्य फल।

चलिए, अब तो पैदा हो भी गए, तो बर्थ कौन सी मिली ? यहां भी वही घिसा पिटा जवाब, कोई सुनवाई नहीं, कोई विकल्प नहीं।

जैसी बर्थ मिली, उसमें ही एडजस्ट कर लो। क्या किसी से बर्थ एक्सचेंज कर सकते हैं, बिल्कुल नहीं ! यह कोई रेलवे की बर्थ नहीं है, अगर लोअर है तो लोअर ही रहेगी और अगर मिडिल है तो मिडिल। अपर वाली तो लागों को बड़ी मुश्किल से मिलती है। बर्थ मिल गई नसीब से, ईश्वर का धन्यवाद करो, और जीवन यात्रा शुरू करो।।

ठीक है, दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा। एक बार येन केन प्रकारेण पैदा हो गए, बर्थ हासिल कर ली, अब हमारा पुरुषार्थ और जुगाड़ अपना काम करेगा। जोड़ तोड़ में हम किसी से कम नहीं।

क्या आपने सुना नहीं ! हिम्मते मर्दा, तो मददे खुदा। एक बाद जिंदगी की गाड़ी में बैठ गए, उसके बाद हम अपनी मर्जी अनुसार, कभी यात्रियों से मीठा बोलकर, अनुनय विनय और बनावटी आंसू के सहारे सीट हासिल कर सकते हैं तो कभी कभी टीसी से सेटिंग और मुट्ठी गर्म करके ही अपना उल्लू सीधा कर ही लेते हैं।।

हम यह भी जानते हैं कि यात्रा पूरी होते ही हमारी भी बर्थ खाली होनी है, लेकिन जब तक हम जिंदा हैं, अपनी बर्थ पर किसी को नहीं बैठने देंगे।

यह भी सच है कि जीवन चलने का नाम है। एक यात्रा पूरी होते ही इंसान फिर किसी दूसरे सफर पर निकल पड़ता है।

एक ही जीवन में कितनी यात्राएं कर ली हमने। कभी ट्रेन में अपर बर्थ मिली तो कभी लोअर। जब तक उम्र थी, सब पुरुषार्थ कर लिया, और एडजस्ट भी कर लिया।।

उम्र के इस पड़ाव में अच्छा भला इंसान भी शैलेंद्र बन बैठता है। जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां। जब उम्र ही काम नहीं कर रही तो कैसा सफर और कैसी बर्थ। सब अपर और मिडिल क्लास की हेकड़ी निकल जाती है। भैया, लोअर बर्थ हो, तो ही अब तो सफर करेंगे।

कायदे कानून छोड़ दो। जितना पैसा लगे, लगने दो, अगर लोअर बर्थ मिल गई तो कम से कम सफर तो आसानी से कट जाएगा। अगले जन्म में फिर से भगवान से अपर बर्थ मांग लेंगे। बहुत गौ सेवा की है, दान पुण्य किए हैं इस जनम में। बस लोअर बर्थ कन्फर्म होते ही ;

सवेरे वाली गाड़ी से

चले जाएंगे।

कुछ ले के जाएंगे

कुछ दे के जाएंगे।।

मेहमान कब रुके हैं

कैसे रोके जाएंगे ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  3

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 162 ☆ # विधुर का जीवन # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# विधुर का जीवन #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 160 ☆

☆ # विधुर का जीवन #

सुबह सुबह पार्क की बेंच पर

वह बैठा रहता है

मुझे देख मुस्कुरा कर

गुड़ मार्निंग कहता है

उसकी चेहरे की झुर्रियों में

गजब की उष्मा है

आंखों पर मोटे ग्लास का

चश्मा है

अधपके काले सफेद बाल हैं 

लंगड़ाते हुए उसकी चाल है

सबसे गर्म जोशी से

हाथ मिलाता है

अपने दर्द को भूलकर

खूब खिलखिलाता है

मैंने एक दिन पूछा-

भाई! क्या हाल है ?

इस उम्र में यह ऊर्जा  

वाकई कमाल है

वह बोला-

क्या कहें

किससे कहें

अपने दुःख हैं 

बेहतर है खुद ही सहें 

साहब –

बीमार पत्नी

कुछ साल पहले चल बसी

छिन गई तबसे हमारी हंसी

बहू बेटों के साथ रहते हैं

क्या कहें

क्या क्या सहते हैं

तीन बहू बेटों ने

मेरे दिन-रात

ऐसे बांटा है

नाश्ता, लंच, डिनर

फिर लंबा सन्नाटा है

साहब –

अगर पहले पति मर जायें

तो परिवार के साथ

पत्नी रम जाती है

परंतु पहले अगर पत्नी मर जाये

तो आदमी की जिंदगी

थम जाती है

लगता है कि 

उधारी की

जिंदगी जी रहा हूँ 

हंसते हंसते

अकेलेपन का

जहर पी रहा हूँ 

साहब –

पत्नी बिना बुढ़ापा

कांटों भरी शैय्या है

विधुर का जीवन तो

 बिन मांझी की नैया है  /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ मेरी सच्ची कहानी – अनुशासन… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा अनुशासन…’।)

☆ लघुकथा – अनुशासन… ☆

फौज के सख्त अनुशासन ने उन्हें कठोर बना दिया था. वो मेजर थे.  एक अभियान में भाग लेते समय बारूदी विस्फोट में, उनके हाथ का पंजा उड़ गया था.  बहुत दिन अस्पताल में भरती रहे. दिव्यांग होने पर फौज से सेवा निवृत होने के बाद, इस शहर में स्कूल के प्राचार्य बने थे. कठोर, अनुशासन से और उनके सख्त स्वभाव से उनकी शहर में अलग पहचान बन गई थी. 10.30 बजे स्कूल में प्रार्थना शुरू होती थी. समय पर सभी शिक्षक और विद्यार्थी पहुंचने लगे थे, क्योंकि मेन गेट उस समय बंद कर दिया जाता था. किसी को भी इस के बाद प्रवेश नहीं. शिक्षक जो नहीं आ पाते थे, उनकी छुट्टी काउंट हो जाती थी.

राम नरेश स्कूल का प्यून था, जो गेट बंद कर देता था, पीयूष शहर के विधायक का पुत्र था, उद्दंड था, पैसों का बहुत घमंड करता था,  ड्रग्स भी लेता था, शिक्षकों की इज्जत भी नहीं करता था, कोई भी उसके पिता के भय से, उससे कुछ नहीं कहता था, सब डरते थे. अक्सर देर से ही आया करता था.  रामनरेश भी उससे डर कर गेट खोल दिया करता था. पर आज तो खुद प्राचार्य गेट के पास थे. पीयूष गेट के बाहर था,  वह गेट खोलने के लिए चिल्ला रहा था, प्राचार्य सुकेश ने उससे कहा,  जाओ,  आज तुम्हारी छुट्टी कल अपने पिताजी को लेकर आना, तब प्रवेश मिलेगा, पीयूष भड़क गया. प्राचार्य को धमकी देने लगा, तुम्हें सस्पेंड कर दूंगा, ट्रांसफर करा दूंगा, मुझे जानते नहीं हो, प्राचार्य ने गेट खुलवाया और खुद बाहर निकल कर उसे पकड़ कर स्कूल में अंदर ले आए, और अपने कमरे में ले जाकर अच्छी तरह से पिटाई कर दी, और कहा, खड़े रहो यहां, आप शिक्षक का सम्मान भूल गए हो, मुझे याद दिलाना पड़ेगा, किसी ने पीयूष के पिताजी को खबर कर दी, वो गुस्से में स्कूल आ गए और प्राचार्य के कमरे में आ गए.

प्राचार्य जी कैसे हिम्मत हो गई आपकी मेरे बेटे पर हाथ उठाने की, आप जानते नहीं, यह मेरा बेटा है, विधायक रामशरण का बेटा.

प्राचार्य सुकेश ने कहा,  मैं बच्चों को पढ़ाते या सुधारते समय उनके पिता की हैसियत नहीं देखता, प्रलय और निर्माण शिक्षक की गोद में पलते हैं. मेरे लिए सभी बच्चे पुत्रवत हैं, यह उद्दंड हो रहा था, इसलिए इसका उपचार किया है, और दवा तो थोड़ी कड़वी होती ही है.

विधायक, ने सारी बात समझी, और कहा,  सर हमारे लाड़ प्यार ने इसे बिगाड़ दिया हैं, अब आप हैं तो आपके संरक्षण में ये सुधर जाएगा, मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है, बस कृपा बनाए रखियेगा, कभी निवास पर पधारिए सर और विधायक जी उठ कर चले गए.

पीयूष को भी अपनी गलती समझ आ गई,  उसने प्राचार्य जी के चरण छुए, और अपनी गलती की माफी मांगी.और भविष्य में गलती की पुनरावृत्ति न करने का कहा.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ झाडं… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ झाडं☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

आजवर उच्यपदस्थ म्हणून मिरवणाऱ्या भामट्यांनो आता तुम्ही खरेच जागे व्हा

बांडगुळांसारखे अधांतरी जगणं सोडून

जरा झाडाबुडीच्या संस्कारक्षम मातीवर या

 

 म्हणजे कळेल तुम्हाला जगवणाऱ्या मुळांची कशी असते दशा आणि कोणती असते दिशा

 

 आम्ही मूळं होऊन जगवलाय डवरलेला समाज वृक्ष

 प्रसन्नतेने डुलणारा डवरणारा निसर्ग नियमांचे पालन करून

 

 मूळं, खोड, फांद्या, फुलं, फळं हे अवयवच आमचे

एकजिन्सी होऊन मातीच्या मांडीवर हसत खेळत ताठ मानेने उभे आहोत

 आणि तुम्ही ऐतखाऊ होऊन अधिपत्य गाजवायला कसे काय आलात रे तिथं अचानक

 

आजवर तुम्ही ज्ञानाचे पोशिंदे म्हणूनच वावरलात

 केलात घात आमचा

 आम्हाला मातीत गाडून

 पण आम्ही कुजणारे नाही वाढणारे आहोत

 हे कसं काय विसरलात ?

रोज उगवणारा नवा सूर्य देतोय नवी ऊर्जा आम्हाला

त्यानं आपली पिलावळ पेरली आहे आमच्या मातीत

तीच तर आता तरारून वाढते आहे

 नवे क्षितीज कवेत घेऊन

त्यांनी केलाय ज्ञानाचा मुलुख पादाक्रांत

मुळांचा उद्धार करण्यासाठी

 

 आता होतील मूळं मजबूत

 वाढेल समाजवृक्ष पुन्हा

बळकट होऊन

पिलावळीतील ग्रह गोल तारे सुद्धा करतील तुमचा खात्मा

सगळ्याच प्रकारची झाडं

निकोप होऊन वाढावीत म्हणून

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 156 ☆ हे शब्द अंतरीचे… अंगणात माझ्या… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

 

?  हे शब्द अंतरीचे # 156 ? 

☆ हे शब्द अंतरीचे… अंगणात माझ्या…! ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆/

अंगणात माझ्या उभा तो प्राजक्त

सुगंध त्याचा दरवळे नित आसमंत  १

त्याचा प्रश्न सदैव एकच असतो

एकटाच का बरे तू नेहमी असतो    २

नाही कुणी तुला जीव लावणारे

तुझ्यावरी पंचप्राण ते ओवळणारे   ३

नाही का तुझ्या हृदयात कोणी

प्रेमळ हृदयाची जीवन-सांगिनी    ४

प्रेम कधीच नाहीका तुला कुणावर झाले

का कुणीच नाही तुझ्यावर कधी प्रेम केले   ५

हास्य करतो मी फक्त तेव्हा त्या क्षणाला

बोलूच काय मी या चित्तचोर प्राजक्ताला   ६

हृदयात वसते माझ्या अनामिक एक ती

जिच्या साठी जगतो मी दिन आणि राती  ७

तिचे प्रेम लाभेल मनीं आस आहे

तिचे सौख्य लाभेल मी अश्वस्थ आहे   ८

येईल कधीतरी ती आहे विश्वास माझा

आरे प्राजक्ता तू फक्त दे रे साथ माझा… ९

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विरोध विरहित दिवस… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

🔅 विविधा 🔅

विरोध विरहित दिवस… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

निसर्ग नियम १

विरोध विरहित दिवस

आपल्याला राग का येतो?

▪️ आपल्या मनाविरुद्ध काही घडले.

▪️ समोरची व्यक्ती आपल्या मनाप्रमाणे वागली नाही.

▪️ आपल्या हातात नसलेल्या गोष्टी घडल्या.

▪️ गैरसमज झाले.

▪️ चुकीच्या गोष्टी घडल्या.

या सारखी बरीच कारणे असतात.

अशा वेळी आपल्याला राग येतो. मग त्या वरची प्रतिक्रिया व्यक्त केली जाते.ती कशी असते?

राग, चिड, संताप, विरोध, नैराश्य याचे परिणाम काय होतात हे आपण अनुभवतो.काही वेळेस बदला घेण्याची भावना तीव्र होते.त्यात आपलीच मानसिकता बिघडते.

आपले हास्य मावळते.

विचार शक्ती कमी होते.कधी कधी नात्यात दुरावा निर्माण होतो.

आपली प्रचंड ऊर्जा खर्च होते.आपले अंतस्त्राव बदलतात.कधी कधी खरे कारण समोर आल्यावर आपला राग व्यर्थ होता हे लक्षात येते.पण त्यावेळी वेळ निघून गेलेली असते.

हे सगळे थांबवणे आपल्याच हातात असते.आपण या गोष्टी निसर्गातून शिकू शकतो.राग,चिड,नैराश्य यावर दीर्घ श्वसन,पाणी पिणे,अंक मोजणे हे उपाय आहेतच.पण असे उपाय करण्याची वेळ येऊच नये म्हणून काही गोष्टी करु शकतो.काही निसर्ग नियम आचरणात आणू शकतो.

निसर्ग कधीही बदला घेत नाही. म्हणून तो नुकसान झाले तरी सर्व शक्तिनीशी पुन्हा बहरतो,फुलतो व आनंद देतो.

आपण पण आठवड्यातून एक दिवस  असा ठरवून घेऊ.तो म्हणजे विरोध विरहित दिवस या दिवशी काही छोट्या छोट्या कृती करु या.

या दिवशी पुढील वाक्ये मनाशी ठरवून घ्यायची व त्या प्रमाणे वागायचे.

१) मी विश्वाला व आजूबाजूच्या लोकांना स्वातंत्र्य प्रदान करते/करतो.

प्रत्येकाला आपल्या मनाप्रमाणे वागण्याचे स्वातंत्र्य असते.त्यांची मते पण त्यांच्या दृष्टीने योग्य असतात.थोडक्यात म्हणजे त्या दिवशी इतरांना न रागावता त्यांची बाजू समजून घ्यायची.

२) माझे मत मी व्यक्त करेन पण सिद्ध करणार नाही.

माझे मत व्यक्त करायचे पण तेच कसे बरोबर आहे हे इतरांना समजावत बसायचे नाही.किंवा त्यांनी त्या मताशी सहमत व्हावे असा आग्रह धरायचा नाही.

३) दुसऱ्याचे मत ऐकेन पण विरोध करणार नाही.

दुसऱ्याचे मत जरी चुकीचे असेल तरी ऐकून घ्यायचे.पण ते कसे चुकीचे आहे हे पटवून देण्याचा किंवा सिद्ध करण्याचा हट्ट करायचा नाही. एखादी व्यक्ती २+२=८ म्हणाली तरी फक्त ऐकायचे.

थोडक्यात घडणाऱ्या सगळ्या गोष्टींचा स्वीकार करायचा.

४) आजचा दिवस सर्वोत्तम होता.

५) आजच्या दिवसा साठी खूप खूप आभार.

यातील वरील पाच वाक्ये घोकायची.व मनापासून अमलात आणायची.आणि तो दिवस कसा गेला, त्या दिवसात काय काय घडले,मनस्थिती कशी झाली.हे सगळे अनुभव लिहून ठेवायचे.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

हिलिंग, मेडिटेशन मास्टर, समुपदेशक.

सांगवी, पुणे

📱 – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ औक्षवंत हो… डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? काव्यानंद ?

☆ निशाशृंगार… डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆

☆ – औक्षवंत हो – डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆

काजळ घेउनिया नयनीचे तीट लावते तुला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला।।ध्रु।।

 

पहिली बेटी ही धनपेटी म्हणती दांभिक सारे

आदिशक्ती तू माझ्या पोटी कौतुक मजला न्यारे

जीवन माझे सार्थ जाहले उधाण आनंदाला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला।।१।।

 

सीता तू अन् तूच द्रौपदी तूच जिजाऊ माता

गार्गी बनुनी विदुषी होई तारी या भारता

सुनीता राणी अवकाशाची धन्य मानवी बाला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला।।२।।

 

कृतघ्न किती हा मानव झाला तुझ्या जीवावर घाला

वाढविते तू वंशा, निर्घृण तुझाच वैरी झाला

तेजस्विनी हो, सौदामिनी हो,लखलखती  तू ज्वाला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला।।३।।

 

पत्नी जरी तू एका क्षणाची माता तू कालाची

संस्काराचे सिंचन करिते सरस्वती ज्ञानाची

गर्भपात ना कधी घडावा अभय मिळू दे तुला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला ।।४।।

 

 – डॉ. निशिकांत श्रोत्री.(निशिगंध)

काव्यनन्द

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते

   रमन्ते  तत्र देवता:।।

पिढ्यानुपिढ्या जपलेलं हे सुंदर विचारांचं, सुसंस्काराचं सुभाषित.  पण प्रत्यक्ष जगताना, अवतीभवतीची पीडित स्त्री जीवनं  पाहताना मनात नक्कीच येतं की सुभाषितं ही फक्त कागदावर. समाज मनावर ती कोरली आहेत का? खरोखरच नारी जन्माचा सोहळा होतो का? स्त्री आणि पुरुष यांचा  दोन व्यक्ती म्हणून विचार करताना सन्मानाच्या वागणुकींचं  पारडं नक्की कुणाकडे झुकतं? आजही एकतरी मुलगा हवाच ही मानसिकता कमी झालेलली नाही. पण जिच्या उदरातून हा वंशाचा दिवा जन्म घेतो तिचा मात्र सन्मान होतो का?

“ तुम्हाला दोन मुलीच?”

 या प्रश्नांमध्ये दडलेला,” मुलगा नाही?” हा प्रश्न बोचरा नाही का?

 अनेक शंका उत्पन्न करणारे असे प्रश्नही असंख्य आहेत. सुधारलेल्या समाजाची व्याख्या करतानाही हे प्रश्न सतत भेडसावत असतातच आणि याच पार्श्वभूमीवर औक्षवंत हो ही डॉक्टर निशिकांत श्रोत्री यांची गीतरचना माझ्या वाचनात आली आणि मी खरोखरच हे काव्य वाचून प्रभावित झाले. त्याचे मुख्य कारण म्हणजे या काव्याचा उगम एका पुरुष मनातून व्हावा याचे मला खूप समाधान आणि तितकेच अप्रूपही वाटले.

हे गीत  वाचल्यावर प्रथमतःच मनासमोर उभी राहते ती प्रेमस्वरूप, वात्सल्य सिंधू आईच. ज्या मातेने नऊ महिने स्वतःच्या उदरात एक गर्भ मोठ्या मायेने  वाढविलेला असतो त्याला जन्म देताना मातृत्वाच्या भावनेने ती ओथंबलेली असते, मग ते मातृत्व मुलाचं की मुलीचं हा प्रश्नच उरत नाही.  कुशीत जन्मलेल्या बाळाची ती आणि तीच फक्त माताच असते.

 काजळ घेऊनिया नयनीचे तीट लाविते तुला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला ।ध्रु।।

नुकत्याच सोसलेल्या प्रसूती वेदना ती क्षणात विसरलेली आहे आणि जन्मलेल्या आपल्या कन्येला हातात घेताना प्रथम तिच्या मुखातून उद्गार निघतात,” माझ्या डोळ्यातल्या काजळांचं तीट तुला लावते बाळे,  औक्षवंत हो! दीर्घायुषी हो! हाच आशीर्वाद मी तुला देते.”

या ध्रुपदाच्या  दोन ओळींमध्ये अनेक अर्थ दडलेले आहेत. हा एका नुकतंच मातृत्व लाभलेल्या आईने जन्मलेल्या अथवा तिच्या गर्भात वाढत असणाऱ्या स्त्रीअंकुराला दिलेला आशीर्वाद तर आहेच.  पण औक्षवंत हो म्हणताना कुठेतरी तिच्या मनात भय आहे की माझ्या या  मुलीच्या जन्माचा सन्मान होईल का? तिच्यावर कधी अशी वेळ येऊ नये की तिला अर्धवटच हे जगणं सोडून द्यावं लागेल कारण सद्य समाजाविषयी ती कुठेतरी मनोमन साशंक आहे.

आणि म्हणूनच कदाचित तिला आपल्या बाळीला कुणाचीही नजर लागू नये,सर्व दुष्ट शक्तीपासून तिचे रक्षण व्हावे याकरिता डोळ्यातले काजळरुपी तीट लावावेसे वाटत आहे.

 पहिली बेटी ही धन पेटी म्हणती दांभिक सारे

आदिशक्ती तू माझ्या पोटी कौतुक मजला न्यारे

जीवन माझे सार्थ जाहले उधाण आनंदला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला ।१।

“म्हणताना म्हणतात हो सारे, पहिली बेटी धनाची पेटी असते. पण ओठावर एक आणि मनात एक असणारे हे सारेच ढोंगी आहेत. पण मी मात्र तुझी आई आहे. माझ्या उदरी जणू काही तुझ्या रूपानने आदीमायेनेच जन्म घेतला आहे याचा मला सार्थ अभिमान आहे. तुझ्या जन्माने माझी कूस पावन झाली, माझ्या जीवनाची सार्थकता झाली आणि या माझ्या आनंदाला पारावरच नाही. सुखी दीर्घायुष्याचे सगळे मार्ग तुझ्यासाठी मुक्त असावेत हेच माझे आशीर्वचन आहे.”

आशीर्वादाऐवजी कवीने योजलेला आशीर्वचन हा शब्द मला खूपच भावला.  जन्मापासूनच तिने आपल्या कन्येचा योग्य प्रतिपाळ करण्याचा जणू काही वसा घेतला आहे. तिने तसे स्वतःला वचनबद्ध केले आहे असे या शब्दातून व्यक्त होते.

 सीता तू आणि तूच द्रौपदी तूच जिजाऊ माता

 गार्गी बनुनी विदुषी होईल तरी या भारता

 सुनीता राणी अवकाशाची धन्य मानवी बाला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला।२।

मुलगी झाली म्हणून त्या मातेला कणभरही कमीपणा वाटत नाही. उलट ती त्या जन्मलेल्या निरागस स्त्री अंशात सीता, द्रौपदी, जिजाऊ माता, विदुषी गार्गी, अगदी अलीकडच्या युगातली अंतराळ वीरांगना सुनीता विल्यमलाच पहात आहे. अशा अनेक गौरवशाली स्त्री व्यक्तिमत्त्वांची तिला आठवण होते आणि आपली ही बालिका ही एक दिवस अशीच दैदिप्यमान कर्तुत्वशाली व्यक्ती असेल असे सुंदर स्वप्न ती पाहते आणि त्या क्षणी पुन्हा पुन्हा ती तिला औक्षवंत हो, कीर्तीवंत हो ,यशवंत हो असे आशिष देत राहते.

कृतघ्न किती हा मानव झाला तुझ्या जीवावर घाला

वाढविते तू वंशा निर्घुण तुझाच वैरी झाला

तेजस्विनी हो सौदामिनी हो लखलखती हो ज्वाला

 औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला।३।

मनातल्या ममतेच्या,वात्सल्येच्या वेगाबरोबरच त्या नुकत्याच, या जगात जन्म घेतलेल्या स्त्री जीवाला दुष्ट, संहारी समाजापासून सावध करण्याचेही भान बाळगते. खरं म्हणजे स्त्री ही सृजनकर्ती, जगाची निर्मिती प्रमुख. तिच्याच उदरातून कुळाचा वंश जन्म घेतो. तिच्याशिवाय ज्याचा जन्मच अशक्य आहे तिचाच मात्र तो वैरी बनतो आणि तिची निर्घृण हत्या करण्यास पुढे सरसावतो. ही केवढी विसंगती आहे!  पण तरीही ही धीरोदत्त माता आपल्या हातातल्या त्या निष्पाप, अजाण, कोवळ्या कळीला समर्थ, सक्षम करण्यासाठी म्हणते,”तू नको कसले भय बाळगूस. तू  मूर्तिमंत तेज हो, थरकाप उडवणारी चपला (वीज) हो, गगनाला भिडणारी लखलखती ज्वाला हो.

तेजस्विनी सौदामिनी ज्वाला हे तीनही शब्द तळपणाऱ्या व्यक्तिमत्त्वासाठीच आहेत. कवीने या तीन शब्दांची औचित्यपूर्ण गुंफण केली आहे. आईच्या मनातले समर्थ, बलवान, धारदार विचार ते सुंदरपणे व्यक्त करतात.

 पत्नी जरी तू एक क्षणाची माता तू कालाची

संस्काराचे सिंचन करते सरस्वती ज्ञानाची

 गर्भपात ना कधी घडावा अभय मिळू दे तुला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला ।४।

स्त्री जन्माविषयी असेच म्हणतात ना? क्षणाची पत्नी आणि अनंत कालची माता.  किती सार्थ आहे हे भाष्य! मातृत्व ही अशी भावना आहे किंवा अशी भाववाचक संज्ञा आहे की जिचा काल अनंत आहे. ज्या क्षणापासून तिच्या उदरात गर्भ रुजतो त्या क्षणापासून ते तिच्या जीवनाच्या अंतापर्यंत ती केवळ आणि केवळ माताच असते. स्वतःच्या उदरातून जन्माला आलेल्या तिच्याच अंशाच्या सुखासाठी, स्वास्थ्यासाठी ती अविरत झटत असते. या काव्यामधली ही माता म्हणूनच त्या अंशाला तिच्या जन्माचं महत्त्व पटवून देते. तिला संस्काराचे सिंचन करणारी सरस्वती, ज्ञानदा म्हणून संबोधते आणि निस्सिमपणे एक आशा मनी बाळगते की कळी उमलण्यापूर्वीच  खुडली न जावो. केवळ “मुलीचा गर्भ” हे निदान होताच तिची गर्भातच हत्या कधीही न होवो. आणि म्हणूनच या ठिकाणी औक्षवंत हो या आशीर्वाचनाला खूप व्यापक असा अर्थ लाभतो.

*अनंत कालची माता*हा स्त्रीविषयीचा उल्लेखही खूप विस्तारित अर्थाचा आहे. आयुष्याच्या एकेका टप्यावर पती पत्नीचं नातंही नकळत बदलतं. शृंगारमय यौवनाचा भर ओसरतो आणि त्याच पतीची ती उत्तरार्धातच नव्हे तर वेळोवेळी कशी मातेच्या रुपात भासते हेही सत्य नाकारता येत नाही.मातृत्व हा स्त्रीचा स्थायी भाव आहे. ती पुत्राचीच नव्हे तर पतीचीही माता होते. असंहे मातृत्व खरोखरच अनंतकाली आहे.

 डॉक्टर श्रोत्रींना मी मनापासून वंदन करते, की या गीत रचनेतून त्यांनी स्त्रीचे महात्म्य अधोरेखित करणारा केवढा मौल्यवान संदेश समाजाला दिला आहे! भृणहत्ये विरुद्ध उभारलेलं हे एक काव्यरूपी शस्त्रच आहे.हे गीत वाचल्यावर निश्चितपणे जाणवते ते हे की हे एका कन्येची माता होणाऱ्या अथवा झालेल्या स्त्रीचे मनोगत आहे. कदाचित जन्मलेल्या कन्येशी किंवा गर्भांकुराशी होत असलेला हा एक प्रेमळ,ममतापूर्ण तरीही काहीसा भयभीत, चिंतामिश्रित संवादही आहे.. आपल्या उदरात वाढणारा गर्भ हा मुलीचा आहे असे समजल्यावर तिने सर्व समाजमान्य कल्पनांना डावलून केलेला एक अत्यंत बलशाली निर्धार आहे. तितक्याच समर्थपणे ती  तिच्या गर्भासाठी एक संरक्षक कवच बनलेली आहे.

सर्वच दृष्टीने हे गीत अर्थपूर्ण आणि संदेशात्मक आहे. मातेची महती सांगणारे आहे.

वात्सल्य रसातले तरीही वीरश्रीयुक्त असे रसाळ, भावनिक गीत आहे,

धनाची पेटी तेजस्विनी सौदामिनी ज्वाला आणि ती लखलखती या स्त्रीला दिलेल्या उपमा खूपच सुंदर वाटतात, आणि यथायोग्य वाटतात.

सारे —न्यारे” माता —भारता’ घाला— झाला— जीवाला ही यमके यातला अनुप्रास हा अतिशय डौलदार आहे.

साधी, सहज भाषा, नेमके शब्द अलंकार, वजनदार तरीही अवघड न वाटणारे सुरेख नादमय शब्द यामुळे औक्षवंत हो हे गीत मनावर एक वेगळीच जादू करते. एका वेगळ्याच भावना प्रवाहात अलगद घेऊन जाते.

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ म्हाई… – भाग-२ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ म्हाई… – भाग-२ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

(मागील भागात आपण पहिले – आपल्यासारखे शेकडो लोक रोज संस्थेत येत होते. मॅनेजरला भंडावून सोडत होते. मॅनेजर हाता पाया पडून पुढची आश्वासने देत होता.दुसऱ्या दिवशी सकाळी आठच्या एसटीने तालुक्याच्या गावी गेले. त्या संस्थेच्या मुख्य ऑफिसमध्ये जाऊन साहेबांना भेटले. आता इथून पुढे)

” साहेब मी गरीब माणूस. कारखान्यातून मिळालेली सर्व फंडाची रक्कम तुमच्या संस्थेत ठेवली. आम्हाला पेन्शन वगैरे काही नाही. आमच्या पैशांचे काय? पंधरा दिवसांवर आमच्या गावातली  “म्हाई ‘ आली. आम्ही देवीचे मानकरी. आम्हाला दरवर्षी मोठा खर्च असतो. तातडीने काहीतरी पैशाची व्यवस्था करा.

” अहो काका, इथे रोज शेकडो माणसे येऊन गर्दी करतात. सर्वांचेच पैसे अडकले. अडकले याचा अर्थ बुडाले असे नव्हे. पैसे मिळणार पण ते केव्हा ते मी सांगू शकत नाही. रिझर्व बँकेने तात्पुरते निर्बंध घातलेत. आपले चेअरमन जाऊन दिल्लीला अर्थमंत्र्यांना भेटलेत. सर्व व्यवस्थित होणार काळजी करू नका ‘.

” पण साहेब पंधरा दिवसावर आमची म्हाई आली. खर्चाला आमच्याकडे पैसे नाहीत ‘.

” हो का केव्हा आहे तुमची म्हाई?’

” या महिन्याच्या 22 तारखेला साहेब ‘. 22 तारखेला ठीक आहे, मी 22 तारीख ची तुमची व्यवस्था करतो. तुम्हाला 22 तारीख चा स्टेट बँकेचा चेक देतो. त्यादिवशी येऊन बँकेतून पैसे घेऊन जा ‘. साहेब यांनी 50 हजाराचा चेक लिहून दिला. खाली आपली जोरदार सही केली. दिपूचे बाबा खुश झाले. दुपारच्या एसटीने गावी आले. घरी आल्याबरोबर त्यांनी दिपूच्या आईला पन्नास हजाराचा चेक दाखवला. ती पण खुश झाली. आता निर्धास्तपणे 22 तारखेच्या  म्हाईची तयारी सुरु केली.

गावात सगळीकडे लगबग सुरू होती. देवीच्या देवळात झाडलोट केली गेली. देवळाला नवीन रंग दिला. देवीची पालखी तसेच भांडीकुंडी सर्व काही झकपक झाले. गावातील प्रत्येक घराघरात  म्हाईची तयारी सुरू झाली. घरांची साफसफाई झाडलोट सुरू होती.

दिपूच्या घरी दिपूच्या आईने घर वर पासून खालपर्यंत झाडलं. प्रत्येक भांड धुतलं. घरातली अंथरूण पांघरून पुन्हा टाकली. घराकडे येणाऱ्या पानंदी स्वच्छ केल्या. नोकरीनिमित्त बाहेरगावी गेलेले लोक आपल्या गावात यायला लागले. वर्षभर बंद असलेली घर उघडून साफसूफ करायला लागले. गावाला जाग आली. अनेक चाकरमानी गावात दिसायला लागले.

दिपूचे बाबा परत परत तो 50000 चेक पाहत होते.  त्या खालची ती झोकदार सही पाहत होते. 22 तारखेला सकाळी आठच्या गाडीने दिपूचे बाबा तालुक्याच्या गावी गेले. दिपूच्या घरची तशी सर्व तयारी झाली होती. फक्त घरात धान्य सामान आणि साखर वगैरे नव्हते. पैसे आले की ताबडतोब वासूच्या दुकानातून सर्व सामान आणण्याची तयारी दिपूच्या आईने केली. सामान घरात आले की ताबडतोब जेवण करायला सुरुवात करायची. दिपूच्या आईने दिपूला कागद पेन घेऊन लिहायला सांगितले. दिपूच्या आईने यादी करायला घेतली.

तांदूळ पाच किलो, गव्हाचे पीठ पाच किलो, साखर पाच किलो, वाटाणे दोन किलो, बटाटे दोन किलो, कांदे दोन किलो, गोडेतेल दोन लिटर, शेवया दोन पॅकेट, वेलची 100 ग्रॅम, गूळ दोन किलो.

दिपूच्या आईने दोन चुली तयार केल्या. चुली सारवून ठेवल्या. टिपूला मदतीला घेऊन परसातील लाकडे जमवून ठेवली. अगदी आगपेटी पण तयार ठेवली. आता पैसे आले की दुकानातून सामान आणायचे आणि रात्र 11 पर्यंत स्वयंपाक पुरा करायचा, एवढेच बाकी होते.

दिपूच्या आईने अंगण शेणाने सारवले. पानंदीपासून घरापर्यंत रांगोळी घातली. आता तिचे लक्ष येणाऱ्या एसटीवर होते. कधी एकदा पैसे हातात येतात आणि दुकानाचे मन आणतो असे तिला झाले होते.

त्यांच्या गावात एसटी नदीपलीकडे थांबत असे. टिपूच्या घरातून गाडी आल्याचा अंधुकसा आवाज येत असे. इतक्या वर्षाच्या सरावाने गाडी थांबल्याचा आणि वळण्याचा आवाज कळत असे.

दोन वाजायला आले आणि दिपूची आई आत बाहेर करू लागली. पण दुपारच्या गाडीने दिपूचे बाबा आले नाहीत. पण तिला निश्चित माहित होते चारच्या गाडीने ते येणारच. पाच वाजण्याच्या सुमारास पुन्हा तिच्या आत बाहेर सुरु झाल. साडेपाचच्या सुमारास गाडीचा आवाज आला तशी ती बाहेर येऊन उभी राहिली. लांबून तिला दिपूचे बाबा येताना दिसले. तसा तिला खूप आनंद झाला, तिने दिपूला हाक मारली  ” दिपू ती सामानाची यादी आणि पिशव्या घेऊन ये बाहेर. बाबा आले, त्यांचे कडून तीन चार हजार घे आणि  यादी घेऊन दुकानात जा. आणि सर्व सामान व्यवस्थित आण.’

” हो आई येतो, म्हणत दिपू यादी आणि पिशव्या घेऊन आला. तोपर्यंत दिपूचे बाबा घराजवळ पोहोचले होते. पण तिच्या लक्षात आले त्यांचा चेहरा पडलेला दिसत होता.

” मिळाले ना पैसे? दिपूच्या आईने विचारले. बाबा रडविले होत म्हणाले  ” नाही, बँकेत त्यांच्या अकाउंट वर पैसेच नाही ‘.

” काय? दिपूची आई रडविली होत किंचाळली.

” सकाळपासून बँकेत होतो, स्टेट बँकेच्या अकाउंट वर त्यांच्या अकाउंटला फक्त 220 रुपये होते, म्हणून परत त्या संस्थेच्या ऑफिसमध्ये गेलो. तेव्हा तेथे मॅनेजर म्हणाले  ” काळजी करू नका, आजच एक मोठा चेक पास होऊन गेला म्हणून पैसे कमी झाले. मी दोन वाजता पुन्हा पैसे भरतो. तुम्ही दोन नंतर तुमचा चेक पास करा. म्हणून न जेवता परत दोन पासून बँकेत उभा. अडीच वाजता चेक बँकेत दिला तर तो बँकेचा माणूस म्हणाला अहो या लोकांनी अनेकांना असे चेक दिलेत, सर्वांचे चेक परत गेलेत, यांच्या अकाउंटला काही रक्कम नाहीच आहे. त्यामुळे कुणाचे चेक पास झालेले नाहीत.’ मी परत या संस्थेच्या ऑफिसमध्ये गेलो तर ऑफिसला भले मोठे कुलूप. चार वाजेपर्यंत मी तेथे वाट पाहिली आणि शेवटी कंटाळून एसटी पकडली  “.

दिपूच्या बाबांचे शब्द दिपूच्या आईच्या मेंदूपर्यंत पोहोचत नव्हते. तिच्या लक्षात आले आपल्या डोळ्यासमोर अंधार येतोय. आता आपण निश्चित खाली पडणार हे तिला कळत होते.पण तिच्या मनाने उसळी घेतली.” छे छे, मला खाली पडून चालणार नाही. आपला नवरा साधा आहे. तो हातपाय गळून बसेल. आपल्याला धडपड करायलाच हवी ‘. पटकन ती सावरली. खुर्चीला धरून उभी राहिली. आईला बरं वाटत नाही हे पाहून दिपू घरात धावला आणि पाणी घेऊन आला. त्याच्या हातातला पाण्याचा ग्लास तिने तोंडाला लावला आणि घटाघटा पाणी प्यायली. दिपूचे बाबा डोकं धरून बसले. शेवटचा प्रयत्न म्हणून ती दिपूला म्हणाली  ” दिपू ही यादी घे आणि वासूच्या दुकानात दे, म्हणावं आज  म्हाई येणार आमच्याकडे,.  एवढे द्या आणि पैसे लिहून ठेवा ‘.

म्हाई – क्रमश: भाग २

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ धागेदोरे… ☆ सुश्री सुनीता पाटणकर

सौ. सुनीता पाटणकर

? मनमंजुषेतून ?

☆ धागेदोरे… ☆ सुश्री सुनीता पाटणकर ☆

धागेदोरे तीनशे पासष्ट दिवसांचे, विणतो आपण …. 

सुख दुःखाचे, प्रेमाचे, आनंदाचे,

मैत्र जोडतो, कधी फटकारतो, रुसतो, भुलतो,

कधी ताणतात, कधी सैलावतात, बंध‌ नात्याचे,

 

पौष घेऊन येतो संक्रांत,

” तिळगुळ घ्या अन् गोड बोला म्हणत.”……..

हळदीकुंकू वाण, दागिने हलव्याचे, आणि रथसप्तमी सूर्याची आराधना,

 

येई फाल्गुन .. … प्रेमरंगात रंगे रंगपंचमी,

भलेबुरे जाळायला होळी,

 

चैत्राची पालवी फुटली, गुढीपाडव्याला गुढी उभारली,

गुढी ऐक्याची, सद् भावाची, देशभक्तीची,

सुरु होतं हिंदू नववर्ष,

चैत्रागौर, हळदीकुंकू, डाळ, पन्ह, उसळ हरभऱ्याची,

 

हापूस, पायरीचे आगमन, घरोघरी आमरस पुरीचे जेवण,

वैशाखाचे रणरण ऊन,

परीक्षा,अभ्यास, सुट्टी, निकाल, धामधुम,

 

पावसाची चाहूल, रिमझिम, रिपरिप,

कृषीवलांची‌ लगबग, नांगरणी, पेरणी,

मुलांची सुट्टी संपली, शाळा, कॉलेज, रेनकोट,छत्री, पुस्तक,वह्या, गणवेश,

 

जेष्ठाचे आगमन,… ललनांची‌ वटसावित्री,

आषाढस्य प्रथम दिवसे म्हणत, येणारा मेघदूत,

निसर्गपूजा, बैलांचे कौतुक बैलपोळा.. 

 

श्रावण आला, पूजा नागोबाला…. 

सोमवारी शिवामूठ, मंगळवारी मंगळागौरी,

बृहस्पति पूजा बुधवारी, शुक्रवारी लक्ष्मी येई घरी,

शनिवारी मुंज मुलांना जेवण, रविवारी आदित्यांचे पूजन,

नारळी पौर्णिमा, रक्षाबंधन, भावाबहीणीच गठबंधन,

रोज गोडधोड … खीर, दींड, पुरणपोळी, नारळीभात, खांतोळी, पेढे,बर्फी, मेवामिठाई,

मसालेभात, कटाची आमटी, भजी, वडे डाव्या बाजूला,

 

पाठोपाठ गणराया आला … सुशोभन, रांगोळी 

गणेशाचे आगमन …. पूजा आरती,मंत्रपुष्पांजली … आली,आली मोदकांची थाळी,

 

अश्विनात विजयादशमी … लगेचच येणार दिवाळी,

आकाशकंदील, किल्ला… फराळाचा हल्लगुल्ला,

वसुबारस, धनत्रयोदशी, लक्ष्मीपूजन, पाडवा, भाऊबीज,

पाहुण्यांची लगबग, तुळशीच लग्न, घरच्या लग्नांचे मुहूर्त, “शुभमंगल सावधान”,

 

मार्गशीर्षातल्या गुरुवारी श्रद्धेने पूजन, उपवास करिती महिला,

म्हणेतो,येतो नाताळ, तो साहेबाचा … परिणाम थोडा गुलामीचा,

 

असे संपतात बारा महिने, संकल्प राहतात अधुरे,

पुन्हा नववर्ष, नित्य,नवा हर्ष, उभारी, नवे संकल्प, उत्साहाचे वारे  

 

जीवनाचं हेच असे सार … 

इंग्रजी महिन्यातच जगतो, तरी मराठे महिने जगवूया,

ते पाठ‌ करण्याचा संकल्प करुया,

 

इतकीच छोटीशी इच्छा,

….. नववर्षाच्या लक्ष लक्ष शुभेच्छा……

© सौ. सुनीता पाटणकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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