(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – किताबों के सफों में भोपाल…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 223 ☆
आलेख – किताबों के सफों में भोपाल…
दुनियां की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना का साक्षी रहा है अपना भोपाल. भोपाल देश के साथ १५ अगस्त १९४७ को आजाद नहीं हुआ था. स्त्री शक्ति की कितनी ही बातें आज होती हैं किन्तु अपना भोपाल वह है जहां बरसों पहले बेगमों का शासन रहा है वे बेगमें जो युद्ध कला जैसे घुड़सवारी और हथियार चलाने में भी दक्ष थीं. भोपाल में लगभग 170 सालों तक बेगम शासकों का शासन रहा है. बेगम शासकों ने भोपाल बटालियन की स्थापना की थी. यह सेना पहली गैर यूरोपीय सेना थी जो युद्ध लड़ने के लिए फ्रांस गई थी. अपने भोपाल की इस बटालियन को प्रथम विश्वयुद्ध में विक्टोरिया क्रॉस और स्वतंत्रता के बाद के काल में निशान-ए-हैदर का सम्मान दिया गया था. ये सारे रोचक तथ्य आज की पीढ़ी को पुस्तों से ही मिल सकते हैं. पर किताबों के सफों पर भोपाल की चर्चा उतनी नहीं मिलती जितनी होनी चाहिये. अंग्रेजी में लिखी गई किताब है ‘निजाम-ए-भोपाल मिलेट्रीज ऑफ भोपाल स्टेट, ए हिस्टॉरिकल पर्सपेक्टिव” इसके लेखक हैं लेफ्टिनेंट जनरल मिलन नायडू. भोपाल के सैन्य इतिहास पर लिखी गई उनकी यह किताब भोपाल वासियों के लिए एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज है.
अंग्रेजी की ही एक और पुस्तक है “फाइव पास्ट मिडनाइट इन भोपाल: द एपिक स्टोरी ऑफ द वर्ल्ड्स डेडलीएस्ट इंडस्ट्रियल डिजास्टर” विदेशी लेखकों डोमिनिक लैपिएरे और जेवियर मोरो की 1984 की भोपाल आपदा पर आधारित यह किताब १९८४ की भयावह गैस त्रासदी को शब्द चित्रों में बदलने का मार्मिक काम करती है. अमेरिकी फर्म यूनियन कार्बाइड के रासायनिक कीटनाशक, सेविन के आविष्कार का वर्णन पुस्तक में मिलता है , जिसमें मिथाइल आइसोसाइनेट और α-नेफ्थॉल का उपयोग किया गया था. यही मिथाइल आइसोसाइनेट गैस भोपाल की त्रासदी बनी थी जिसमें असमय हजारों लोगों की भयावह मृत्यु हुई थी. इस किताब से आज की पीढ़ी को ज्ञात हो सकता है कि कैसे तत्कालीन रेलवे स्टेशन मास्टर ने त्वरित बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुये एक ट्रेन को भोपाल स्टेशन पर रुकने से रोक कर हजारों यात्रियो की जान बचाई थी.
हिन्दी में लिखी गई ओम प्रकाश खुराना की महत्वपूर्ण किताब है “भोपाल हमारी विरासत”. भोपाल से सम्बंधित लगभग सभी विषयों पर संक्षिप्त जानकारी, शोधकर्ताओं व् राजनीतिज्ञों के लिए पठनीय सामग्री इस किताब में मिलती है. पर्यटकों के लिए यह जानकारी से भरपूर पुस्तक है. इसमें भी गैस त्रासदी का सजीव वर्णन किया गया है. नगर का विकास, भोपाल की बोली, यहां की गंगा जमुनी तहजीब, खान पान और त्योहारों का ब्यौरा भी किताब में मिलता है.डॉo नुसरत बानो रूही की मूलतः उर्दू में लिखी गई किताब है “जंगे आज़ादी में भोपाल”. इसका हिन्दी तर्जुमा किया है शाहनवाज़ खान ने. किताब स्वराज संस्थान भोपाल से छपी है. 1930 से लेकर 1949 तक की समयावधि में जंगे आज़ादी में भोपाल के हिस्से के बारे में दुर्लभ और प्रामाणिक जानकारी प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी खान शाकिर अली खान ने दी है जिसे डा नुसरत बानो ने लिपिबद्ध किया है. ” भोपाल सहर.. बस सुबह तक” सुधीर आज़ाद की फिक्शन बुक है. जिसमें उन्होने
एक हादसे की ज़मीन पर मार्मिक प्रेम कहानी बुनी है. भोपाल गैस त्रासदी लेखक की संवेदनाओं में कहीं गहरी उतरती हुई अनुभूत होती है और लेखक ने हर मुमकिन तरीक़े से इस पर काम किया है.
बिना शरद जोशी की पुस्तक “राग भोपाली” की बात किये किताबों के पन्नो पर उकेरे गये भोपाल की तस्वीर अधूरी रह जायेगी. विशिष्ट व्यंग्यकार शरद जोशी ने बड़ा समय भोपाल में गुजारा है. लिहाजा भोपाल के विषय में समय समय पर लिखे गए उनके कई व्यंग्य लेख इस पुस्तक में समेटे गये हैं. भोपाल की पहाड़ियों पर लहराती गजल के दुष्यंत कुमार के शेर हैं ” सामान कुछ नहीं है फटे-हाल है मगर, झोले में उस के पास कोई संविधान है. फिस्ले जो उस जगह तो लुढ़कते चले गए, हम को पता नहीं था कि इतनी ढलान है “. बहरहाल भोपाल के बृहद अतीत पर और बहुत कुछ लिखा गया होगा, पर जो लिखा गया है उससे बहुत ज्यादा लिखा जाना चाहिये. क्योंकि भावी पीढ़ीयों के लिये किताबें ही होती हैं जिसे हम छोड़ जाते हैं.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुक्तिबोध“।)
अभी अभी # 114 ⇒ मुक्तिबोध… श्री प्रदीप शर्मा
बोध जानकारी को कहते हैं, ज्ञान को कहते हैं। जो बंधन में जकड़ा है, जब तक उसे इस बात का अहसास नहीं हो, कि मुक्ति भी एक अवस्था है, जो स्वाभाविक और सनातन है, तब तक वह मुक्त होने की सोच भी नहीं सकता। कोल्हू का बैल हो अथवा तांगे में जुतने वाला घोड़ा, उनका प्रारब्ध नियत है, वे हमेशा जुतने के लिए तत्पर रहते हैं, सृष्टि के चक्र की तरह उनका भी एक जीवन चक्र होता है, जिसमें कोई अप्रत्याशित नहीं घटता, रोज सुबह होती है, शाम होती है, जिंदगी यूं ही तमाम होती है। कहीं कोई घटना नहीं, उमंग नहीं, उत्साह नहीं, आशा निराशा, शिकवा शिकायत, मलाल नहीं। आप चाहें तो इसे समर्पित आत्म समर्पण भी कह सकते हैं। शायद इसी में उसकी मुक्ति लिखी हो।
अब हम एक आजाद पंछी को लेते हैं, जिसके जन्म से ही पर हैं, परवान है, ऊंची उड़ान है। उसकी मां उसे उड़ना सिखाती है, वह उड़ेगा नहीं तो जिंदा कैसे रहेगा, अपना पेट कैसे भरेगा। एक उड़ती चिड़िया कभी आपके पास नहीं फटकती, उसे केवल दाने की तलाश रहती है। यही दाना कभी कभी उसके लिए जी का जंजाल बन जाता है जब कोई बहेलिया उसे अपने जाल में फांस लेता है। वह मुक्त होने के लिए, आजाद होने के लिए बैचेन होती है फड़फड़ाती है, उसके प्राण छटपटाते हैं। ।
जीव की भी यही अवस्था है। कहीं वह कोल्हू का बैल है तो कहीं किसी के जाल में फंसा हुआ एक आजाद पंछी। कहीं नियति ने उसे बांध रखा है और कहीं वह अपने स्वभावगत संस्कारों के कारण संसार के जंजाल में उलझा पड़ा है। जब तक उसे आत्म बोध नहीं होता, तब तक मुक्तिबोध कैसे संभव है।
यह आत्म बोध और मुक्तिबोध आखिर क्या बला है और बोध क्यों जरूरी है। हम पढ़े लिखे समझदार, बुद्धिमान, आजाद खयाल उड़ते हुए पंछी हैं। हमारे भी अरमान हैं, उमंग है, आशा, उत्साह, सुनहरे सपने और महत्वाकांक्षा है, इसमें आत्मबोध और मुक्तिबोध का क्या काम। अनावश्यक रूप से जीवन को जटिल और दूभर क्यों करना। जिन्हें आत्मबोध हो गया क्या वे मुक्त हो गए। ।
तुलसीदास जी तो कह भी गए हैं, बड़े भाग, देवताओं को भी दुर्लभ, मानुस तन पायो ! हम भी खुश, धरती पर ही स्वर्ग पा लिया ! लेकिन नहीं, फिर कोई ज्ञान दे गया। यह संसार तो माया है। सच्चा सुख तो स्वर्ग में है जिसके लिए सच बोलना पड़ता है, माता पिता की और गाय की सेवा करनी पड़ती है। दान पुण्य करोगे तो स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
हम भी समझ गए। न तू जमीं के लिए है न आसमां के लिए। तेरा वजूद है, सिर्फ दास्तां के लिए। जितने पुण्य कमाए हैं, उतना ही स्वर्ग मिलेगा। पैसा खत्म तो खेल भी खत्म। मुक्ति का मार्ग केवल आत्म बोध है, मुक्ति बोध है। ।
क्या है यह मुक्ति की बीमारी, किससे मुक्त होना है हमें, अपने आपसे या अपने परिवार से, अथवा इस संसार से। क्या बिना आत्म बोध के मुक्तिबोध संभव नहीं। और अगर हमें मुक्तिबोध हो भी गया, तो इससे हमें क्या फ़ायदा। हम जीवन में वहीं कुछ इन्वेस्ट करते हैं, जहां कुछ फायदा हो। शेयर मार्केट वाले हैं, दूर की सोच रखते हैं।
ये आत्मबोध और मुक्तिबोध के बारे में सुना बहुत है, सोचा भी है, थोड़ा बहुत इसमें भी इन्वेस्ट कर दें, शायद अगले जन्म में काम आ जाए। कोई अच्छी कंसल्टिंग एजेंसी हो, कोई भरोसे वाला दलाल हो, तो जो भी कंसल्टेशन, कमीशन अथवा दलाली होगी, हम देने के लिए तैयार हैं। आत्मबोध के बारे में जो ज्यादा नहीं पढ़ा, हां, थोड़ा बहुत मुक्तिबोध के बारे में जरूर पढ़ा है। वैसे हम बड़े जिज्ञासु, मुमुक्षु और ज्ञान पिपासु भी हैं, जहां हमारा फायदा होता है, उधर का रुख कर ही लेते हैं।।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक शिक्षाप्रद बाल कथा –“स्वच्छता के महत्व”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 146 ☆
☆ बाल कथा – “स्वच्छता के महत्व” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
एक बार की बात है, लिली नाम की एक छोटी लड़की थी जिसे साफ-सुथरा रहना पसंद नहीं था। वह अक्सर नहाना छोड़ देती थी और दिन में केवल एक बार अपने दाँत ब्रश करती थी। उसकी माँ उसे हमेशा बाथरूम का उपयोग करने के बाद हाथ धोने के लिए याद दिलाती थी, लेकिन लिली आमतौर पर भूल जाती थी।
एक दिन, लिली पार्क में खेल रही थी जब वह गिर गई और उसके घुटने में खरोंच आ गई। वह बैंडेड लेने के लिए घर गई, लेकिन उसकी माँ ने देखा कि उसके हाथ गंदे थे।
“लिली,” उसकी माँ ने कहा, “तुम्हें अपने घुटने पर बैंडेड लगाने से पहले अपने हाथ धोने होंगे। रोगाणु कट में प्रवेश कर सकते हैं और इसे बदतर बना सकते हैं।”
“लेकिन मैं ऐसा नहीं करना चाहती,” लिली ने रोते हुए कहा। “मेरे हाथ साफ़ हैं।”
“नहीं, वे नहीं हैं,” उसकी माँ ने कहा। “आप अपने नाखूनों के नीचे सारी गंदगी देख सकते हैं।”
लिली अनिच्छा से बाथरूम में गई और अपने हाथ धोए। जब वह वापस आई तो उसकी मां ने उसके घुटने पर पट्टी बांध दी।
“देखो,” उसकी माँ ने कहा। “वह इतना बुरा नहीं था, है ना?”
“नहीं,” लिली ने स्वीकार किया। “लेकिन मुझे अभी भी हाथ धोना पसंद नहीं है।”
“मुझे पता है,” उसकी माँ ने कहा। “लेकिन साफ़ रहना ज़रूरी है। रोगाणु आपको बीमार कर सकते हैं, और आप बीमार नहीं होना चाहते हैं, है ना?”
लिली ने सिर हिलाया. “नहीं,” उसने कहा। “मैं बीमार नहीं पड़ना चाहता।”
“तो फिर तुम्हें अपने हाथ धोने होंगे,” उसकी माँ ने कहा। “हर बार जब आप बाथरूम का उपयोग करते हैं, खाने से पहले और बाहर खेलने के बाद।”
लिली ने आह भरी। “ठीक है,” उसने कहा. “मेँ कोशिश करुंगा।”
और उसने किया. उस दिन से, लिली ने अपने हाथ अधिक बार धोने का प्रयास किया। यहां तक कि वह दिन में दो बार अपने दांतों को ब्रश करना भी शुरू कर दिया। और क्या? वह बार-बार बीमार नहीं पड़ती थी।
एक दिन लिली अपनी सहेली के घर पर खेल रही थी तभी उसने अपनी सहेली के छोटे भाई को गंदे हाथों से कुकी खाते हुए देखा। लिली को याद आया कि कैसे उसकी माँ ने उससे कहा था कि रोगाणु तुम्हें बीमार कर सकते हैं, और वह जानती थी कि उसे कुछ करना होगा।
“अरे,” उसने अपनी सहेली के भाई से कहा। “आपको उस कुकी को खाने से पहले अपने हाथ धोने चाहिए।”
छोटे लड़के ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। “क्यों?” उसने पूछा।
“क्योंकि तुम्हारे हाथों पर कीटाणु हैं,” लिली ने कहा। “और रोगाणु आपको बीमार कर सकते हैं।”
छोटे लड़के की आँखें चौड़ी हो गईं। “वास्तव में?” उसने पूछा।
“हाँ,” लिली ने कहा। “तो जाओ अपने हाथ धो लो।”
छोटा लड़का बाथरूम में भाग गया और अपने हाथ धोये। जब वह वापस आया, तो उसने बिना किसी समस्या के अपनी कुकी खा ली।
लिली को ख़ुशी थी कि वह अपने दोस्त के भाई की मदद करने में सक्षम थी। वह जानती थी कि स्वच्छ रहना महत्वपूर्ण है, और वह खुश थी कि वह दूसरों को भी स्वच्छता के महत्व के बारे में सिखा सकती है।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ “वाढती लोकसंख्या आणि मराठी साहित्य…भाग-2” ☆ श्री वि. दा.वासमकर☆
(सारांश सतराव्या शतकामध्ये रामदास स्वामींनी घरामध्ये पोरवडा वाढविण्याचे दुष्परिणाम अत्यंत परखडपणे वर्णन केले आहेत.)
आता ग. दि. माडगूळकरांची ‘आकाशाची फळे’ या कादंबरीचा विचार करूया. ग. दि. माडगूळकर हे मराठी साहित्यविश्वाला गीतकार, पटकथाकार, आणि ‘गीतरामायण’ या अजरामर काव्यग्रंथाचे निर्माते म्हणून परिचित आहेत. किंबहुना ‘गीतरामायणा’च्या निर्मितीने त्यांना आधुनिक वाल्मिकी म्हणून समाजात आदराचे स्थान प्राप्त झाले आहे. त्यांची ‘आकाशाची फळे’ ही कादंबरी त्यांच्या पद्य साहित्याइतकीच महत्त्वाची आहे या कादंबरीचा आशय लोकसंख्या वाढीचा दुष्परिणाम वर्णन करणारा आहे. ही कादंबरी 1960 मध्ये प्रकाशित झाली. आणि 1961 मध्ये या कादंबरीचे महत्त्व जाणून प्रपंच हा सिनेमा मराठी मध्ये निघाला आणि तो महाराष्ट्र सरकारने गावोगावी मोफत दाखविला.
आता या कादंबरीचा आशय थोडक्यात पाहू. विठोबा कुंभार व पारू यांच्या कौटुंबिक जीवनाची ही कथा आहे. त्यांचा दरिद्री फटका संसार आणि सहा मुले यामुळे विठोबा कर्जबाजारी झाला आहे. आणि त्यातूनच तो आत्महत्या करतो. शहरात बरीच वर्षे राहिलेला आणि कुंभारव्यवसायाचे आधुनिक शिक्षण घेतलेला विठोबाचा भाऊ शंकर याच्यावर त्याच्या भावाच्या म्हणजे विठोबाच्या कुटुंबाची जबाबदारी येते. भावाच्या कुटुंबाला सुखी करण्यासाठी आपण लग्न करणार नाही, अशी प्रतिज्ञा तो करतो. त्यासाठी प्रचंड कष्ट उपसतो. आणि आजारी पडतो. आपल्या दिराने आपल्या सुखाचा त्याग करून आपल्या कुटुंबासाठी झिजणे हे सहन न होऊन आपल्या आजारी दिराला म्हणजे शंकरला चंपाच्या हवाली करून पारू मुलांसह दूर निघून जाते. शेवटी शंकर आणि चंपाच्या लग्नासाठी ती परत येते. इत्यादी घटना प्रसंग या कादंबरीत येतात. या कादंबरीत इतरही उपकथानके येतात आहेत. चंपा आणि तिचे वडील रामू तेली यांचे कुटुंब रामू तेल्याच्या पिठाच्या गिरणीचा आणि तेलाच्या घाण्याचा व्यवसाय आहे. तेलाच्या व्यवसायामुळे त्याचे कुंभार हे आडनाव मागे पडून तो रामू तेली म्हणूनच ओळखला जातो. आपल्या मुलीला म्हणजे चंपाला त्याने मुलासारखेच वाढवलेले असते. चंपाला शंकरबरोबर लग्न करण्याची इच्छा आहे. मात्र शंकर आपल्या भावाच्या कुटुंबासाठी लग्न करायला तयार नसतो. त्यामुळे चंपा आणि रामू तेली दोघेही कष्टी होतात. गावात जगू शिंपी आणि त्याची बायको राधा यांचे कुटुंब आहे. या दांपत्याला अपत्यहीनतेचे दुःख जाळीत असते. त्यांच्या जीवनात बाकेबिहारी या ढोंगी साधूचा प्रवेश होऊन राधा या ढोंगी साधूबरोबर पळून जाते. जगु शिंप्याला एकट्यानेच भयानक आयुष्य जगावे लागते. शंकरचा बालमित्र रघू आणि त्याची बायको सरू यांचा दारिद्री संसार हे आणखी एक छोटे उपकथानक या कादंबरीत येते. वडगावच्या बाजारातील जोशी काका, गफूर भाई हे विठोबाच्या व्यवसायातील सहकारी. यातील जोशी काकांचे मोठे कर्ज विठोबाने घेतले असून ते त्याला फेडणे अशक्य झाल्यामुळे त्याने आत्महत्या करण्याचा मार्ग पत्करला. या सर्वांच्या जोडीला शंकर आणि चंपा यांची अव्यक्त स्वरूपातील प्रेमकहाणी या कादंबरीत महत्त्वाची जागा व्यापते. मात्र कादंबरीचे शीर्षक ‘आकाशाची फळे’ हेच या कादंबरीचे सर्वात महत्त्वाचे आशयसूत्र आहे. विठोबा आणि पारूची जोडी प्रातिनिधिक स्वरूपाची आहे. त्या काळात 1960 च्या दरम्यान शिक्षणाचा प्रसार तितका झालेला नसल्यामुळे कुटुंब नियोजनाच्या बाबतीत भारतीय समाज अजून बराच मागासलेला होता. कुटुंबात वाढणारी मुलांची संख्या दारिद्र्याला कारणीभूत होते, हेच सामान्य माणसाला कळत नव्हते. उलट मुले म्हणजे देवाची देणगी, या देणगीला नकार देणे म्हणजे दैवाच्या विरोधी जाणे असा समज सार्वत्रिक होता. शिवाय देवाने जन्म दिलाय म्हणजे त्याच्या अन्नाची योजनासुद्धा देवाने केलेली असतेच. इत्यादी गैरसमज रूढ असल्यामुळे गरीब दरिद्री कुटुंबाला अपत्यांची वाढ हानिकारक असते हे समाजमनाला कळत नव्हते. याचेच प्रातिनिधिक चित्रण ग. दि. माडगूळकर यांनी या कादंबरीत विठोबा कुंभार आणि त्यांच्या कुटुंबाच्या द्वारे केले आहे.
आता या कादंबरीतील काही विधाने पाहू. घरात पोरांचं लेंडर झाल्यामुळे सगळ्यांना एखादी गोष्ट वाटायची म्हटले तर ते अवघड होते. विठोबाची पोर सहा. त्यांना एखादी खायची गोष्ट मिळाली तर ती त्याच्यावर कशी तुटून पडतात, याचे वर्णन माडगूळकरांनी अत्यंत प्रत्ययकारी रीतीने केले आहे. ते असे – ‘गोविंदाने नारळ पाट्यावर आपटला… त्याची दोन छोटी भकले इकडे तिकडे उडाली. ती उचलण्यासाठी गोप्या आणि सद्या यांची झोंबाझोंबी झाली. दोघांच्याही हाती एकेक तुकडा आला. ते तुकडे दातांनी खरवडत आणिकासाठी ती गोविंदाच्या पाठीमागे येऊन उभी राहिली. दरम्यान गोविंदाने एक मोठा खोबळा करवंटीपासून वेगळा केला. तो दातात धरला आणि दुसरे भकल तो कंगोरा गवसून पाट्यावर आपटत राहिला. म्हातारी नुसतीच ओठाची चाळवाचाळव करीत होती. तिच्या हाती काहीच आले नव्हते. गोविंदाने उरलेले खोबरे करवंटीपासून मोकळे केले न केले तोवर उरलेली दोघे त्याच्यावर तुटून पडली. बघता बघता नारळातील खोबरे वाटले गेले. आणि नरट्या इतस्ततः झाल्या. लटलट मान हलवीत म्हातारी म्हणाली, ‘मला रे गोविंदा-‘ माडगूळकरांच्या या निवेदनातून घरात पोरवडा असला की, कशी दुरवस्था होते, याचा प्रत्यय येतो.
देवळातील हरदासाने कृष्णाष्टमीचा प्रसाद म्हणून पारूच्या ओटीत नारळ घातला. बाळकृष्णाच्या पाळण्यातील नारळ पारूच्या ओटीत आला म्हटल्यावर विठोबाच्या आजीला आनंद होतो. ती म्हणते औंदाच्या सालीबी एक परतवंडं होणार मला. आणि विठोबाचा थंडपणा पाहून ती पुढे म्हणते- असं कसं बाबा देवाची देणगी असती ती. बामनवाड्यातली शिंपीन बघ नागव्याने पिंपळाला फेऱ्या घालते. तिचा कुसवा उजवला का? कुत्री मांजर पाळती ती अन् लेकुरवाळेपनाची हौस भागून घेती ! तुज्यावर दया हाय भगवानाची .
विठोबाच्या आजीच्या तोंडात आणखीही काही विधाने माडगूळकरांनी घातली आहेत. ती अशी- १) ज्यानं चोंच दिली, त्यो चारा देईल ; २) असं म्हणू नये इटूबा. देवाघरचा पानमळा असतोय ह्यो. ३) जे जे प्वार जन्माला येतं ते आपला शेर संगती आनतं. आंब्याच्या झाडाला मोहर किती लागला हे कुणी मापतं का?; पाऊस दर साल येतो पर कुणब्याला त्याचं कौतुक असतंच का नाही !;
विठोबाच्या आजीच्या या विधानांतून मुले ही देवाची देणगी असते. त्याला नाही म्हणता येत नाही; अशी समजूत व्यक्त होते.
ग दि माडगूळकर यांनी या कादंबरीच्या शेवट करताना या कादंबरीतील एक पात्र नारायण गिरी याच्या तोंडी एक अभंग लिहिला आहे. तो असा-
हाती नाही बळ दारी नाही आड/त्याने फुल झाड लावू नये/
सारांश समर्थ रामदास आणि ग. दि. माडगूळकर यांनी आपल्या साहित्यकृतीतून लोकसंख्यावाढीचे दुष्परिणाम स्पष्ट शब्दांत वर्णिले आहेत. साहित्य या कलेत समाजमनावर परिणाम करण्याची प्रभावी शक्ती असते. या शक्तीने आपल्या देशातील जनता सुबुद्ध होऊन हा लोकसंख्यावाढीचा भस्मासुर जाळून टाकतील अशी आशा करूया !
☆ किंमत… भाग – 1 … श्री श्रीपाद सप्रे ☆ प्रस्तुती – डाॅ.भारती माटे☆
‘चला, उद्या महिन्यातला दुसरा शनिवार ! सुट्टी आहे, जरा आरामात उठलं तरी चालेल.’ असा विचार करत त्याने अंथरूणावर अंग टाकलं. तिला मात्र बराच वेळ झोप नव्हती. ‘आपल्याला हे सर्व जमेल ना? सर्व नीट सुरळीत व्हायला हवं…. जमेल, न जमायला काय झालं? नव्हे…. नव्हे….जमायलाच हवं.’ विचार करता करता कधीतरी उशिरा तिला झोप लागली.
ती सकाळी जेव्हा उठली तेव्हा नवरा, मुलगा आणि सून डाराडूर झोपलेले होते. ती चहा नाश्त्याच्या तयारीला लागली. हळूहळू सर्व जण डायनिंग टेबलवर जमले. चार जणांच्या डिश बघून नवरा म्हणाला,
“आज वटपौर्णिमेचा उपास करणार नाहीस का?”
नवऱ्याचा प्रश्न साधा सरळ असला तरी तिला प्रश्नातला खवचटपणा लक्षात आला होता.
“नाही, आज एका रिसॉर्टवर जात्येय. उद्या रात्री जेऊनच येईन. मला यायला उशीर झाला तरी तुम्ही काळजी करू नका, माझ्याकडे किल्ली आहे. मी दार उघडून येईन. तुमची झोपमोड होऊ देणार नाही.”
…. अशी कशी काय ही अचानक जात्येय या विचाराने तिघांच्या तोंडातला घास तसाच राहिला होता.
आपल्या टायमिंगवर ती बेहद्द खूष झाली. नवऱ्याने अडकलेला घास पाण्याच्या घोटाबरोबर आत ढकलला. मुलाने चेहरा शक्य तितका भावनारहित ठेवला होता. ‘ ठीक आहे, हा तुमचा निर्णय आहे ‘ असं दर्शवत सुनेने किंचित खांदे उडवले.
“अगं, कुठे जाणार आहेस, काय करणार आहेस, कोणाबरोबर जाणार आहेस, काही सांगशील की नाही.”
आवाजावर नियंत्रण ठेवत नवऱ्याने विचारलं.
” पन्नासच्यावर वय असलेल्या व्यक्तींची ‘मुक्त छंद’ नावाची संस्था आहे. मी ह्या ग्रुपबद्दल कोणाकडून तरी ऐकलं होतं. हा ग्रुप महिन्यातून दोन दिवस एक रिसॉर्ट बुक करतो. ते दोन दिवस, तिथे जमलेले सर्वजण एकमेकांशी गप्पा मारतात, चर्चा करतात. अगदी वैवाहिक जीवनापासून ते साहित्य, संगीत, व्यावसायिक करिअर अशा कोणत्याही विषयावर गप्पा होतात. विषयाचे बंधन नाही. तुम्ही तुमच्या जिव्हाळ्याच्या विषयावर समविचारी पार्टनरसोबत गप्पा मारायच्या. कंटाळा आला की खायचं, प्यायचं, आराम करायचा, गाणी गायची. थोडक्यात, तुमचं मन जे म्हणेल ते करायचं. तिथे दोन सिंगल बेड असलेली बरीच कॉटेजेस आहेत. शिवाय एक दोन डॉर्मेटरीज आहेत. कॅरम, बुद्धिबळ, पत्ते असे बैठे खेळ आहेत. लायब्ररी आहे. स्विमिंग पूल, रेन डान्स, कराओके असं बरंच काही आहे.”
“समजा कॉटेजमध्ये झोपण्याचा निर्णय घेतलास आणि कोणी महिला पार्टनर मिळाली नाही तर?”
आपली अस्वस्थता लपवत नवऱ्याने विचारलं.
” तर…. खरं म्हणजे, तसा विचार केला नाही, पण अगदीच वाटलं तर डॉर्मेटरी आहेच. एवढा घाबरू नकोस रे…. तुझ्या बायकोची पन्नाशी उलटल्येय. आता कोणी उचलून पळवून नेणार नाही तिला.”
…. आपल्यात इतका व्रात्यपणा अचानक कुठून आला हे तिला कळत नव्हतं. तिची सून तर अवाक् होऊन पहात होतीच, पण तिच्या उत्तराने मुलाच्याही चेहऱ्यावरचे भाव बदलले होते.
“आणि मीही तुझ्याबरोबर आलो तर?”
कित्येक वर्षांनी आपला नवरा इतका पझेसिव्ह झाला आहे, हे बघून तिच्या मनात आनंदाच्या उकळ्या फुटत होत्या.
” काहीच हरकत नाही. फक्त दोन दिवस तू तुझे पार्टनर शोधून त्यांच्यासोबत रहायचं आहे. तशी त्या संस्थेची अटच आहे.”
” बाबा, तुम्ही आधी नीट विचार करा आणि निर्णय घ्या. कारण दोन दिवस अनोळखी व्यक्तींसोबत रहाणं, तुम्ही एंजॉय कराल का?”
मुलाने वास्तवाची कल्पना दिल्यावरही तो म्हणाला, ” तिथे टीव्ही असेलच ना, मी टीव्ही बघत बसेन.”
मुलाने आणि सुनेने एकाच वेळी हैराण होऊन त्याच्याकडे पाहिले. ती मात्र खाली मान घालून नाश्ता संपविण्यात मग्न होती.
“तू मजा करायला चाललीस, आमच्या जेवणा-खाण्याचे काय?” चिरक्या आवाजात नवऱ्याने अंतिम अस्त्र काढलं. तिने उत्तर न देता शांतपणे सुनेकडे पाहिले. त्या थंडगार नजरेचा सुनेने ह्यापूर्वी कधी अनुभव घेतलेला नव्हता. ती गडबडीने म्हणाली .. ” बाबा, मी आहे ना. आपण मॅनेज करू काही तरी.”
कपडे, आवडती एक दोन पुस्तकं आणि आणखी किरकोळ वस्तू भरून तिने बॅकपॅक खांद्यावर टाकली. पायात स्पोर्ट्स शूज घातले. डोळ्यावर गॉगल चढवला. घराबाहेर पाऊल टाकताना तिने विवंचना घरातच सोडल्या होत्या.
सोनचाफ्याचं फूल, पेन-नोटपॅड, कॉटेजची किल्ली देऊन सर्वांचं रिसॉर्टवर स्वागत करण्यात येत होतं. कॉटेजमध्ये बॅग ठेवून ती चहा प्यायला गेली. एका मोठ्या आमराईत चहा कॉफीची व्यवस्था करण्यात आली होती. एखाद्या झाडाखाली बसून चहा पिण्याचं सुख ह्यापूर्वी तिने कधीच अनुभवलं नव्हतं. चहापान झाल्यावर एका हॉलमध्ये सर्वांना बोलावण्यात आलं. छोट्याश्या स्टेजवर सत्तरीचे गृहस्थ आणि साधारण त्याच वयाच्या बाई उभ्या होत्या…..
” ‘मुक्त छंद’ ह्या उपक्रमात आम्ही तुमचं मनःपूर्वक स्वागत करतो. पुढचा दीड दिवस हा फक्त आणि फक्त तुमचा आहे. ह्या दीड दिवसात काय करायचं ते तुम्ही ठरवायचं आहे. जे कराल त्यातून स्वतःला ओळखण्याचा प्रयत्न करा. समविचारी मित्र मैत्रिणी शोधा. अर्थात, तसा आग्रह अजिबात नाही हं…. कारण तुम्हीच स्वतःचे ‘प्रथम मित्र’ आहात. खूप धमाल करा…..आणि बरं का, एंजॉयमेंटचंही अजीर्ण होतंय असं वाटलं तर ह्या विस्तीर्ण आमराईत कुठेही जाऊन ध्यानस्थ व्हा. वाटलं तर एखाद्या झाडाखालच्या पारावर अंग सैलावलंत तरी चालेल.”
…. आधी नुसता फेरफटका मारू, मग ठरवू काय करायचं ते, असा विचार करून तिने निरुद्देश चालायला सुरुवात केली.
— क्रमशः भाग पहिला…
लेखक – श्री श्रीपाद सप्रे
संग्रहिका : डॉ. भारती माटे
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈