हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 20 ☆ बन पाया न कबीर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “बन पाया न कबीर…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 20 ☆ बन पाया न कबीर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

 लाख जतन कर

 हार गया पर

 बन पाया न कबीर।

 

 रोज धुनकता रहा जिंदगी

 फिर भी तो उलझी

 रहा कातते रिश्ते- नाते

 गाँठ नही सुलझी

 तन की सूनी

 सी कुटिया में

 मन हो रहा अधीर।

 

 गड़ा ज्ञान की इक थूनी

 गढ़े सबद से गीत

 घर चूल्हे चक्की में पिसता

 लाँघ न पाया भीत

 अपने को ही

 रहा खोजता

 बनकर मूढ़ फकीर।

 

 झीनी चादर बुनी साखियाँ

 जान न पाया मोल

 समझोतों पर रहा काटता

 जीवन ये अनमोल

 पढ़ता रहा

 भरम की पोथी

 पढ़ी न जग की पीर।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ‘अ’ से अटल-☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

पुनर्पाठ-

? संजय दृष्टि – ‘अ’ से अटल- ??

(अटलबिहारी वाजपेयी जी के महाप्रयाण के बाद लिखा आलेख।) 

अंततः अटल जी महाप्रयाण पर निकल गये। अटल व्यक्तित्व, अमोघ वाणी, कलम और कर्म से मिला अमरत्व!

लगभग 15 वर्षों से सार्वजनिक जीवन से दूर, अनेक वर्षों से वाणी की अवरुद्धता, 93 वर्ष की आयु में देहावसान और  तब भी अंतिम दर्शन के लिए जुटा विशेषकर युवा जनसागर। ऋषि व्यक्तित्व का प्रभाव पीढ़ियों की सीमाओं से परे होता है।

हमारी पीढ़ी गांधीजी को देखने से वंचित रही पर हमें अटल जी का विराट व्यक्तित्व  अनुभव करने  का सौभाग्य मिला। इस विराटता के कुछ निजी अनुभव मस्तिष्क में घुमड़ रहे हैं।

संभवतः 1983 या 84 की बात है। पुणे में अटल जी की सभा थी। राष्ट्रीय परिदृश्य में रुचि के चलते इससे पूर्व विपक्ष के तत्कालीन नेताओं की एक संयुक्त सभा  सुन चुका था पर उसमें अटल जी नहीं आए थे।

अटल जी को सुनने पहुँचा तो सभा का वातावरण देखकर आश्चर्यचकित रह गया। पिछली सभा में आया वर्ग और आज का वर्ग बिल्कुल अलग था। पिछली सभा में उपस्थित जनसमूह में मेरी याद में एक भी स्त्री नहीं थी। आज लोग अटल जी को सुनने सपरिवार आए थे। हर परिवार ज़मीन पर दरी बिछाकर बैठा था।  अधिकांश परिवारों में माता, पिता, युवा बच्चे और बुजुर्ग माँ-बाप को मिलाकर दो पीढ़ियाँ  अपने प्रिय वक्ता  को सुनने आई थीं। हर दरी के बीच थोड़ी दूरी थी। उन दिनों पानी की बोतलों का प्रचलन नहीं था। अतः जार या स्टील की टीप में लोग पानी भी भरकर लाए थे। कुल जमा दृश्य ऐसा था मानो परिवार बगीचे में सैर करने आया हो। विशेष बात यह कि भीड़, पिछली सभा के मुकाबले डेढ़ गुना अधिक थी। कुछ देर में मैदान खचाखच भर चुका था। सुखद विरोधाभास यह भी  कि पिछली सभा में भाषण देने वाले नेताओं की लंबी सूची थी जबकि आज केवल अटल जी का मुख्य वक्तव्य था। अटल जी के विचार और वाणी से आम आदमी पर होने वाले सम्मोहन का यह मेरा पहला प्रत्यक्ष अनुभव था।

उनकी उदारता और अनुशासन का दूसरा अनुभव जल्दी ही मिला। महाविद्यालयीन जीवन के जोश में किसी विषय पर उन्हें एक पत्र लिखा। लिफाफे में भेजे गये पत्र का उत्तर पोस्टकार्ड पर उनके निजी सहायक से मिला। उत्तर में लिखा गया था कि पत्र अटल जी ने पढ़ा है। आपकी भावनाओं का संज्ञान लिया गया है। मेरे लिए पत्र का उत्तर पाना ही अचरज की बात थी। यह अचरज समय के साथ गहरी श्रद्धा में बदलता गया।

तीसरा प्रसंग उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद का है। बस से की गई उनकी पाकिस्तान यात्रा के बाद वहाँ की एक लेखिका अतिया शमशाद  ने प्रचार पाने की दृष्टि से कश्मीर की ऐवज़ में उनसे विवाह का एक भौंडा प्रस्ताव किया था। उपरोक्त घटना के संदर्भ में तब एक कविता लिखी थी। अटल जी के अटल  व्यक्तित्व के संदर्भ में उसकी कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं-

मोहतरमा!

इस शख्सियत को समझी नहीं

चकरा गई हैं आप,

कौवों की राजनीति में

राजहंस से टकरा गई हैं आप..।

कविता का समापन कुछ इस तरह था-

वाजपेयी जी!

सौगंध है आपको

हमें छोड़ मत जाना,

अगर आप चले जायेंगे

तो वेश्या-सी राजनीति

गिद्धों से राजनेताओं

और अमावस सी व्यवस्था में

दीप जलाने

दूसरा अटल कहाँ से लाएँगे..!

राजनीति के राजहंस, अंधेरी व्यवस्था में दीप के समान प्रज्ज्वलित रहे भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी जी का नाम अजर रहेगा, अमर रहेगा।

आज अटल जी की पुण्यतिथि है। उनकी स्मृतियों को सादर नमन।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – अटल स्मृति – कविता -☆ गीत नया गाता था, अब गीत नहीं गाऊँगा ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

(युगपुरुष कर्मयोगी श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की ही कविताओं से प्रेरित उन्हें श्रद्धा सुमन समर्पित।)

☆ गीत नया गाता था, अब गीत नहीं गाऊँगा ☆

स्वतन्त्रता दिवस पर

पहले ध्वज फहरा देना।

फिर बेशक अगले दिन

मेरे शोक में झुका देना।

नम नेत्रों से आसमान से यह सब देखूंगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

स्वकर्म पर भरोसा था

कर्मध्वज फहराया था।

संयुक्त राष्ट्र के पटल पर

हिन्दी का मान बढ़ाया था।

प्रण था स्वनाम नहीं राष्ट्र-नाम बढ़ाऊंगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

सिद्धान्तों की लड़ाई में

कई बार गिर पड़ता था।

समझौता नहीं किया

गिर कर उठ चलता था।

प्रण था हार जाऊंगा शीश नहीं झुकाऊंगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

ग्राम, सड़क, योजनाएँ

नाम नहीं मांगती हैं।

हर दिल में बसा रहूँ

चाह यही जागती है।

श्रद्धांजलि पर राजनीति कभी नहीं चाहूँगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

काल के कपाल पे

लिखता मिटाता था।

जी भर जिया मैंने

हार नहीं माना था।

कूच से नहीं डरा, लौट कर फिर आऊँगा।

गीत नया गाता था अब गीत नहीं गाऊँगा।

© हेमन्त  बावनकर

पुणे 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “१५ अगस्त – स्वतन्त्रता दिवस 🇮🇳” ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ “१५ अगस्त – स्वतन्त्रता दिवस 🇮🇳” ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

मेरे प्रिय देशबंधुओं और बहनों,

आप सभी को ७६ वें स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ! 🙏🇮🇳💐

१५ अगस्त २०२३ को भारत की आजादी के ७६ साल पूरे होने पर यह कहना होगा कि, हमारा देश 76 साल का युवा बन गया है। जिन युवा स्वतंत्रता सेनानियों ने परतंत्र की बेड़ियों, उत्पीड़न और यातनाओं का अनुभव किया है और जो स्वतंत्रता संग्राम में जी-जान से लड़ रहे हैं, वे अब अधिकतर नब्बे और शतक की उम्र के होंगे। इन गिने चुने प्रत्यक्षदर्शियों को छोड़कर ज्यादातर लोग यह नहीं जानते कि जिस आजादी का हम आनंद ले रहे हैं, वह अनगिनत स्वातंत्र्यसैनिकों के बहाये खून का परिणाम है। कुछ नाम तो निश्चित रूप से नेताओं के हैं, अधिकांश गुमनाम रह गए, जिनके लिए मुझे महान मराठी कवि कुसुमाग्रज के शब्द याद आते हैं:

अनाम वीरा, जिथे जाहला तुझा जीवनान्त

स्तंभ तिथे ना कुणी बांधला, पेटली ना वात! 

अर्थात –  हे अनाम वीर, जहाँ तुम्हारे जीवन का अंत हुआ, वहाँ न किसीने विजयस्तम्भ बाँधा, न ही वहाँ कोई चिराग रोशन हुआ। 

इस स्वतंत्रता दिवस का ‘समारोह’ बाकी सभी से क्यों और कैसे अलग है? हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने १५ अगस्त १९४७ को शून्य प्रहर को तिरंगा फहराया था| उनका विश्व प्रसिद्ध भाषण हर जगह उपलब्ध है। उसका एक वाक्य मुझे हमेशा याद आता है। नेहरूजी ने कहा था, ‘आज रात १२ बजे जब पूरी दुनिया सो रही होगी, भारत एक नया स्वतंत्र जीवन शुरू करेगा।’ शुरुआती कुछ सालों में इस नवोन्मेष में प्रगति का आलेख तेजी से ऊपर चढ़ते रहा| लेकिन इस तेजी का ज्वार जल्द ही थम सा गया| इस आशावाद पर भरोसा करना कठिन था कि, स्वतंत्रता सभी समस्याओं का समाधान कर देगी। नई बहू को जब तक घर की जिम्मेदारी नहीं मिलती तब तक वह बहुत जिज्ञासु रहती है। ‘मुझे राज्य तो मिल जाने दो, फिर देखना मैं क्या करती हूं’, कभी दिल में तो कभी होठों पर ये शब्द लाने वाली यहीं बहू, जिम्मेदारी का अहसास होते ही सास के जैसे कब व्यवहार करने लगती है, इसका उसे स्वयं भी पता नहीं चलता! यहीं बात बाद में शासकों को भी समझ में आ गई। 

मित्रों, जब हम अपनी स्वतंत्रता के प्रति इतने सचेत हैं, तो कहीं हम दूसरों की स्वतंत्रता को रौंद तो नहीं रहे हैं? क्या इसका एहसास करना ज़रूरी नहीं है? एक रोजमर्रा का उदाहरण! सड़क के दोनों और जो छोटीसी जगह बनी होती है, उसे ‘फुटपाथ’ कहा जाता है, अच्छी तरह से रंग दिया हुआ वगैरा होने के कारण, पैदल चलने वालों को बहुत आसानी से इसके दूर से ही दर्शन हो जाते हैं। लेकिन भीड़-भाड़ वाले समय में इस जगह पर स्कूटर, मोटरसाइकिल आदि वाहनों का चतुराई से छिना हुआ कब्जा होता है। अफ़सोस, बेचारे कार वालों के लिए यह थोडीसी संकीर्ण सी रहती है! अब पैदल चलने वालों को कहाँ और कैसे चलना है, इसकी सीख कौन दे? संक्षेप में, ‘मेरी स्वतंत्रता तो मेरी है ही और तुम्हारी भी मेरी है’! संविधान ने मुझे जो अधिकार दिया है, वैसे ही वह दूसरों को भी दिया है, यह सामाजिक चेतना और राष्ट्रीय चेतना कैसे आएगी, इस पर गंभीरता से विचार करना होगा!

जब हम स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं तो यह एक ‘इव्हेंट’ क्यों बन जाती है? लाउडस्पीकर कुछ निहित देशभक्ति के गीत प्रसारित करता रहता है। कभी-कभी छोटे-छोटे बच्चे स्कूलों में जाकर “आज़ादी” के बारे में भाषण दे रहे होते हैं, जो उनकी उम्र से काफी ‘बढ़चढ़’ कर होते हैं| उनकी स्मृति-शक्ति एवं शिक्षकों तथा अभिभावकों की कड़ी मेहनत की सराहना करना अति स्वाभाविक होना चाहिए! लेकिन साथ ही सम्बंधित बड़े बुजुर्गों का कर्तव्य होना चाहिए कि वे इन मासूम बच्चों को उस तालियाँ कमाने वाले भाषण का पूरा मतलब समझाएं! फिर यह तोते की तरह रटने की क्रिया से ऊपर उठकर वास्तव रूप में देशभक्ति होगी| कौन जाने इन्हीं में से कोई लड़का या लड़की राष्ट्रसेवा का व्रत लेकर सेना में भर्ती होने का सपना देखने लगे!

 अंत में यहीं विचार मन में आता है, ‘इस देश ने मुझे क्या दिया?’ जिन्हें बार-बार यह सवाल परेशान करता है, वें ‘मैं देश को क्या दे रहा हूं?’ इस एक प्रश्न का उत्तर स्वयं को अत्यंत ईमानदारी से दें! बच्चे को शिक्षा देते समय माता-पिता उस पर केवल ५ से १० प्रतिशत ही खर्च करते हैं, बाकी सारा खर्च समाज वहन करता है। अगर हम याद रखें कि हमारे देश के गुमनाम नागरिक हमारी प्रगति में कितनी भागीदारी निभा रहे हैं, तो हमें कुछ हद तक इस आज़ादी की कीमत पता चल जाएगी!

 फिर एक बार आजके पावन अवसर पर सबको अनेक बधाइयाँ,

 धन्यवाद आपका! 🙏🇮🇳💐

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

दिनांक १५ ऑगस्ट २०२3

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आजकल लोग गुनहगार के है साथ खड़े… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “आजकल लोग गुनहगार के है साथ खड़े“)

✍ आजकल लोग गुनहगार के है साथ खड़े ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

याद पतझड़ में बहारों के जमाने आये

हिज़्र में ख्वाब मुझे तेरे सुहाने आये

 

नाम के जनता के सेवक है सिर्फ कहने  को

नौकरी में जो लगे धौंस दिखाने आये

 

अब सियासत भी बनी पेट को भरने जरिया

देश हित भूल सभी माल कमाने आये

 

झूठ के नाम पे हकलाती कभी तेरी ज़ुबाँ

किसकी संगत में तुझे इतने बहाने आये

 

आजकल लोग गुनहगार के है साथ खड़े

लोग वो और जो थे पहले बचाने आये

 

धर्म मेरा वो बताएं मैं उसका वंदा हूँ

मेरे घर लोग जो भी आग लगाने आये

 

ऐ अरुण उससे ग़ज़ल की ही ज़ुबानी कह दो

हाल रह जाएगा वरना जो सुनाने आये

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 127 ⇒ जीवन संगीत… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जीवन संगीत।)  

? अभी अभी # 127 ⇒ जीवन संगीत? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जीवन है मधुवन ! जिस वन में मधु भी हो और मधुर संगीत भी हो, कल्पना का तो कोई अंत नहीं, जीवन में झिलमिल सितारों का आंगन भी हो, रिमझिम बरसता सावन भी हो, तो क्यों न बृज की भूमि पर ही चला जाए। वहां मधुवन में राधिका भी है और गिरधर की मुरलिया भी। बाल गोपाल और छोटी छोटी गैया जहां हो तो क्या जीवन संगीतमय नहीं हो जाए।

सुना है, सुर के बिना, जीवन सूना है, और सुर के सात स्वर होते हैं, जब कि प्रेम तो सिर्फ ढाई अक्षर का ही होता आया है। मोहन की मुरली की तान छिड़ती है

तो कानों में मानो शहनाई गूंजने लगती है। सबसे ऊंची प्रेम सगाई। मीरा लोक लाज छोड़ती है, तो राधा के तो मानो प्राण ही उस मुरलिया में बसे हों।।

लेकिन हमारे जीवन में आज कहां गंगा, जमना और वृंदावन की गलियां हैं। हमारे जीवन में भी बाल लीला होती है, रास लीला होती है, हमारे भी बचपन के साथी थे। हम भी धूप और धूल में खेले हुए हैं। लेकिन नियति हमें भी हमारी ब्रज की भूमि से दूर धर्मक्षेत्र और कर्मक्षेत्र के महासमर में प्रविष्ट करवा ही देती है।

हम इस जीवन समर में बिना सारथी के अर्जुन हैं, बिना द्रोणाचार्य के एकलव्य हैं। हममें ही कभी दुर्योधन प्रकट हो जाता है तो कभी शकुनि। हमने भी धर्मराज बन यहां कई दांव खेले हैं, कई बार द्रोपदी हारी भी है तो कई बार उस नाथों के नाथ श्रीनाथ ने हमारी द्रोपदी की लाज भी बचाई है।।

जीवन में हमें भी सांदीपनी जैसे गुरु भी मिले हैं और कई सुदामा से मित्र भी, लेकिन बस अफसोस यही, हममें सदा कृष्ण तत्व का अभाव रहा। बचपन में हो सकता है, हमने भी माखन ना सही, बिस्किट के पैकेट से बिस्किट चुराया हो, दाऊ भैया की जेब से कभी पांच का नोट भी निकाला हो, लेकिन कृष्ण की तरह हम भी आज अपनी सभी बाल लीलाएं छोड़, बीवी बच्चों के साथ सुख में जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

हमारे जीवन में आज रस भी है और संगीत भी। पंडित जसराज, भीमसेन जोशी, पंडित कुमार गंधर्व, लता रफी और जगजीत कभी तानसेन की याद ताजा कर देते हैं तो कभी स्वामी हरिदास की।

एक अदना सा भजन गायक विनोद अग्रवाल, जब आंख मूंद कृष्ण को, हे गोविन्द हे गोपाल को अंसुअन जल से अश्रु भिगोकर हमें गोविंद की गली पहुंचाता है, तो काल की मर्यादाएं समाप्त हो जाती हैं। पिया मिलन की प्यास अधूरी नहीं रह जाती, प्यास पूरी हो जाती है, जब श्री हरी कीर्तन में भाव समाधि में प्रकट हो जाते हैं। यह गूंगे का गुड़ है। न बहरे को सुनाई देता है और न अंधे को दिखाई देता है।।

जीवन में सिर्फ देखा जाता है, कुछ दिखाया नहीं जाता। अनुभव, महसूस किया जाता है, उसका बखान नहीं किया जाता। जो प्रज्ञा चक्षु हैं केवल वे ही अधिकारी होते हैं उस लीला के महिमामंडन और गुणगान के। नर सत्संग से क्या से क्या हो जाए। डोंगरे महाराज की कथा जिसने सुनी, वह तर गया। समझिए भव सागर से उतर गया।

दुख दर्द तो जीवन में होंगे ही। जरा प्राचीन संतों के कष्ट देखें, महान व्यक्ति कांटों की राह पर ही जीवन में आगे बढ़े हैं फिर भी उन्होंने दुनिया को ज्ञान का संदेश ही दिया है, सत्य ने हमेशा उनका साथ दिया है। आज इनका संदेश भी शायद कुछ इस प्रकार का ही हो ;

तुम आज मेरे संग हंस लो

तुम आज मेरे संग गा लो।

और हंसते गाते, इस जीवन की

उलझी राह संवारो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 79 – पानीपत… भाग – 9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 79 – पानीपत… भाग – 9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

हॉलीवुड के सुप्रसिद्ध निर्देशक जेम्स केमरून की हिट फिल्म थी टाइटैनिक. उसका एक दृश्य बहुत हृदयस्पर्शी था. जब जहाज डूब रहा होता है तब डूबते टाइटैनिक जहाज के कप्तान बजाय भागने के, जाकर अपने नियंत्रण कक्ष में बैठ जाते हैं. ये संदेश था कि कैप्टन अंत तक अपने जहाज के साथ होता है. जिम्मेदारियां, लोगों के कर्मक्षेत्र का हिस्सा होती हैं जिन्हें निभाना खुद की पसंद नहीं बल्कि अनिवार्य होता है. युद्ध चाहे कारगिल का हो या महाभारत का, युद्ध में वापस जाने का विकल्प योद्धाओं के पास होता नहीं है. जब परम वीर चक्र विजेता विक्रम बत्रा कारगिल युद्ध में अभूतपूर्व शहादत की ओर बढ़ते हैं तो ये किसी मैडल के लिये नहीं होता. किन्हीं कारणों से पराजित को दिया गया अभयदान, आत्मविश्वास तोड़ने वाला दान ही होता है जिसके साथ शर्मिंदगी जीवनपर्यंत झेलनी पड़ती है. हर व्यक्ति को यह अधिकार होता है कि वह अपनी क्षमताओं का आकलन करते हुये ही बड़े उत्तरदायित्वों को स्वीकारने की प्रतिस्पर्धा का प्रत्याशी बने. अवसरवादिता से किसी व्यक्ति को कोई भी संस्था उपकृत नहीं करती. अभिमन्यु अपने अधूरे ज्ञान के बावजूद द्रोणाचार्य द्वारा रचित चक्रव्यूह में चले गये क्योंकि उनका मनोबल, युद्ध से पीछे हटने की इजाज़त नहीं दे रहा था.

मनचाहे स्थानों और मनचाहे असाइनमेंट मिलने का वचन किसी पदोन्नति में नहीं मिलता. पर अगर ये लगे कि गल्ती तो हो ही गई है और जो असाइनमेंट वहन करना पड़ रहा है उसे पूरा करना खुद के बस की बात नहीं है तो विकल्प क्या है? जुगाड़ करके वहाँ से पतली गली पकड़ के निकल जाना या फिर अक्षमता स्वीकारने का साहस दिखाकर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का रास्ता पकड़ना. एक व्यवहारिक गली और भी है कि इंतजार करना कि जिनका टाइटैनिक है वो खुद विकल्प ढूंढ ही लेंगे. अगर टाइटैनिक किसी की व्यक्तिगत संपत्ति है तो वो तो कप्तान बदलने में देर नहीं करेगा पर संस्थागत निर्णय, हमेशा देर से अवगत होने और फिर विलंब से निर्णय होने की परंपरागत प्रक्रिया में बंधे होते हैं. उनके पास भी योग्य पात्र का चयन और उपलब्धता की समस्या बनी रहती है इसलिए स्थानापन्न याने ऑफीशियेटिंग का विकल्प ज्यादा प्रयुक्त होता है.

पदोन्नति का महत्वपूर्ण घटक अंक आधारित मूल्यांकन है जो अधिकतर शतप्रतिशत या 95 से 99 अंक पाये व्यक्ति को ही सफलता का पात्र बनाता है. क्या इस प्रकरण में इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि शतप्रतिशत अंक पाना, मूल्यांकन रहित ऐसी औपचारिकता बन गई है जो सिर्फ संबंधों और सबजेक्टिव ओपीनियन के आधार पर अमल में लाई जाती है??? व्यवहारिक और वैयक्तिक आंतरिक शक्तियों और दुर्बलताओं का कोई आकलन नहीं होता. शायद संभव भी न हो जब तक कि ऐसा मौका न आये. हर जगह सब कुछ या कुछ भी धक नहीं पाता, कभी कभी कुछ प्रकरणों में ये साफ साफ दिख जाता है.

पानीपत सदृश्य शाखा के मुखिया का, सारे दरवाजे खटखटाने के बाद भी मनमाफिक अनुकंपा नहीं मिलने से, मन बदलते जा रहा था. हर सुबह “ये शाखा मेरे बस की नहीं है” के साथ शुरु होती और अपनी इस भावना को वो अपने निकटस्थ अधिकारियों से शेयर भी करते रहे. उनके पास ऐसी टीम थी जो उनका मनोबल मजबूत करने के साथ साथ संचालन में भी अतिरिक्त ऊर्जा के साथ काम करती रही. इस जटिल शाखा में काम और कस्टमर्स का दबाव, किसी को भी आराम करने की सुविधा का लाभ उठाने की अनुमति नहीं देता था. यहाँ पर कुछ बहुत ही एक्सट्रा आर्डिनरी स्टाफ थे जिनकी कार्यक्षमता और काम सीखने की ललक प्रशंसनीय थी. लोन्स एंड एडवांसेस पोर्टफोलियो बेहद प्रतिभाशाली प्राबेशनरी अधिकारियों, ट्रेनी ऑफीसर्स और मेहनती अधिकारियों से सुसज्जित था. आज प्रायः सभी सहायक महाप्रबंधक/उपमहाप्रबंधक जैसे वरिष्ठ पदों पर कार्यरत हैं. शाखा से उसी अवधि के लगभग एक वर्ष बाद ही, सात युवा अवार्ड स्टाफ, सहायक प्रबंधक के रूप में पदोन्नत हुये. शाखा स्तर पर कभी ऐसा मनमुटाव या मतभेद नहीं था जो प्रबंधन को तनावग्रस्त करे. ऐसे कर्मशील लोग होने के बावजूद, उनकी ये खूबियाँ मुखिया की उदासीनता और तनाव को दूर नहीं कर पा रही थी. उन्होंने अपनी मंजिल “स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति” की तय कर ली थी और वो इसी दिशा में शनैः शनैः बढ़ रहे थे.

पानीपत में अभी बहुत कुछ बाकी है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कोसळा… ☆ सौ. गौरी गाडेकर ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? इंद्रधनुष्य ?

☆ कोसळा… आणि वैशाली नाईक ☆ सौ. गौरी गाडेकर

मोह वीज कडाडते

गडगडाट क्रोधाचा

अन सैराट चालला

काम मत्सर लोभाचा

 

धो धो घनू बरसला

मनसांदीकोपऱ्यात

शुचिर्भूत अभिषेक

मनअंतर्गाभाऱ्यात

 

गेले वाहुनिया पार

द्वेष राग नि विषाद

मन शुद्ध नि निखळ

अस्तित्वाला घाली साद

 

उसंतला तो पाऊस

झालं सारं शांत शांत

षड्रिपूही झाले नष्ट

झालं आयुष्य निवांत

 

पुन्हा दाटला पाऊस

पंचमहाभुतां साद

झाली सुरू बरसात

पुरं अस्तित्व झिम्माड

 

परमात्मा नि आत्म्याचा

आज मिलनसोहळा

कशी झेलू देहावरी

पावसाचा हा कोसळा

© सौ. गौरी गाडेकर

संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 195 ☆ भेटीगाठी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 195 ?

☆ भेटीगाठी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

काही भेटीगाठी…

असतात सुखाच्या..निखळ आनंदाच्या !

पन्नास वर्षानंतर..

भेटलो शाळेच्या प्रांगणात !

 

आणि आठवले शाळेचे,

फुलपंखी दिवस..

भुर्रकन उडून गेलेले !!

 

किती बरं झालं असतं ?

असं झालं असतं तर…

किती बरं झालं असतं…

तसं झालं असतं तर…

क्षणभर चमकून गेले

हे विचार…

 

नियतीने बहाल केलेले…

हे गाठीभेटीचे क्षण

किती अनमोल,

या जर तर च्या

गुंत्यात न अडकता…

 

मनमुक्त घेतलेल्या…

त्या आनंदाची

शाल पांघरून,

मिरवत रहावं,आयुष्यभर

गाठीभेटीच्या गोड क्षणांसह !

कारण घडून गेलेलं

खोडून टाकता येत नाही,

हे ही…आणि ते ही !

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेच्या उत्सव ☆ आठवणी… ☆ सौ. जयश्री पाटील ☆

सौ. जयश्री पाटील

? कवितेच्या उत्सव ?

☆ आठवणी… ☆ सौ. जयश्री पाटील ☆

आठवणी कशा

येतात कोठून

मनावर हळू

फुंकर घालून

 

पिंगा घालतात

फेर धरतात

सभोवती अशा

नाच नाचतात

 

मनाच्या तळाशी

घट्ट बिलकुल

बसतात खोल

डोहात रुतून

 

जखमे वरली

खपली उडते

भळभळत ती

उघडी पडते

 

असंख्य घटना

येतात दाटून

अलगत येते

पाणी डोळ्यातून

 

सुखद काहीशा

मऊ मखमली

मोरपीस जणू

फिरतसे गाली

 

क्षण आनंदाचे

येतात जीवन

जाता येतील का

सोबत घेऊनी

© सौ. जयश्री पाटील

विजयनगर.सांगली.

मो.नं.:-8275592044

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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