हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आजिज़ी का न उतारे कभी तन से ज़ेवर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “आजिज़ी का न उतारे कभी तन से ज़ेवर“)

✍ आजिज़ी का न उतारे कभी तन से ज़ेवर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

हिन्द में आना फ़रिश्तों का लगा रहता है

जर्रे ज़र्रे में यहाँ नूरे खुदा रहता है

बंद मजलूम को हर आदमी का दर होता

सिर्फ़ भगवान का दर सबको खुला रहता है

सिर्फ बातें नहीं जो उन पे अमल भी करता

सबकी नजरों में वो इंसान बड़ा रहता है

आजिज़ी का न उतारे कभी तन से ज़ेवर

तब बुलंदी पे कोई शख़्स बना रहता है

सर्फ सोडा न डिटर्जेट से वो धुल पाया

दाग बदनामी का जो दोस्त लगा रहता है

टाट टेरीन फलालीन या मलमल पहना

जो गधा होता है हर हाल गधा रहता है

इल्म उंसका है बड़ा ठोस तजुर्बे का अरुण

ज़िन्दगीं के जो मदरसे का पढ़ा रहता है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 110 ⇒ || पा ठ… || ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पा ठ…।)  

? अभी अभी # 110 ⇒ || पा ठ… || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

पाठ को हम सबक भी कह सकते हैं। जिंदगी का पहला पाठ हम मां से ही सीखते हैं, क्योंकि हमारा पहला शब्द मां ही होता है। सीख का अंत नहीं, सबक की कोई सीमा नहीं, जो अखंड चले, वही वास्तविक पाठ है।

पठन पाठन ही तो पाठ है, जिसे सीखने के लिए हमें पाठशाला भी जाना पड़ता है। पाठ तो बहुत दूर की बात है, मास्टर जी पहले हमें पट्टी पढ़ाते थे।

एक, दो, तीन, चार, भैया बनो होशियार। पढ़ने लिखने के लिए पहले लिखना पड़ता था, जब हम लिखा हुआ पढ़ने लग जाते थे, तब हम पुस्तक में से पाठ पढ़ते थे। उसे ही सबक याद करना कहते थे। बिना पट्टी पढ़े, पाठ याद नहीं होता था। इसे ही अभ्यास कहते थे।।

पुस्तक में कई पाठ होते थे, जिसे हम बाद में lesson कहने लग गए। पढ़ने का अभ्यास बढ़ता चला गया, पाठ अध्याय होते चले गए, चैप्टर पर चैप्टर खुलते चले गए, हम सीखते चले गए। जिस तरह ज्ञान की कोई सीमा नहीं, सीखने का भी कभी अंत नहीं।

सीखने का असली अध्याय तब शुरू होता है, जब जीवन में स्वाध्याय प्रवेश करता है। जब पढ़े हुए को ही बार बार पढ़ा जाता है, तब वह पाठ कहलाता है। किसी भी धार्मिक ग्रंथ का नियमित पाठ पारायण कहलाता है। नित्य आरती और नित्य पाठ स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान के ही अंग हैं।।

कुछ ज्ञानी पुरुष इतने अनुभवी हो जाते हैं कि उन्हें तो कोई पाठ नहीं पढ़ा सकता, उल्टे वे ही दूसरों को पट्टी पढ़ाना शुरू कर देते हैं। हम पर परमात्मा और सदगुरु की इतनी कृपा हो कि हमारा विवेक जाग्रत हो और हम ऐसे लोगों से दूर रहें।

जिन्दगी इम्तहान भी लेती है और सबक भी सिखलाती है। कोई आश्चर्य नहीं, जीवन के किस मोड़ पर, जिंदगी की किताब का एक नया अध्याय खुल जाए, और हमें एक और नया पाठ पढ़ना पड़े। सीखने की भी कहीं कोई उम्र होती है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 76 – पानीपत… भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 76 – पानीपत… भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

रामचरित मानस और तुलसी के मर्यादा पुरुषोत्तम राम हमारे आराध्य हैं. रामचरित मानस का नियमित पाठ या चौपाइयों का सामान्य जीवन में अक्सर उल्लेख हमारी दादियों और माताओं द्वारा अक्सर किया जाता रहा है. राम का चरित्र और उनके आदर्श हमारे DNA में है, संस्कारों में रहे है. बाद में दूरदर्शन में अस्सी के दशक में रामायण धारावाहिक के प्रसारण और फिर 2020 के कोविड काल में इस अमर महाकाव्य के पुन: प्रसारण ने हमारी उम्र के हर दौर में इसे देखने, सुनने और गुनने का अवसर प्रदान किया है. राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे, परम शक्तिशाली थे पर साथ ही दया, विनम्रता और शालीनता के गुणों की पराकाष्ठा से संपन्न थे. उनसे भयभीत होना संभव ही नहीं था, वे आश्वस्ति के प्रतीक थे. उनका अनुकरण शतप्रतिशत करना तो खैर असंभव के समान ही था पर उनकी नैतिकता हमें सदैव आश्वस्त करती आई है. यही तो कर्मकांड से परे वास्तविक धर्म है जिसे हमारी आस्था ने सनातन रखा है. “जाहे विधि राखे राम, ताहे विधि रहिये” भी हमारी मानसिक सोच रही है.

पानीपत सदृश्य मुख्य शाखा के हमारे मुख्य प्रबंधक में वाकपटुता तो नहीं थी पर सज्जनता और बैंकिंग का ज्ञान पर्याप्त था. उनकी सहजता और शालीनता धीरे धीरे स्टाफ के आकर्षण का केंद्र बनती गई और फिर शाखा के अधिकतर स्टाफ शाखा के कुशल परिचालन में आगे बढ़कर हाथ बटाने लगे. जब किसी का व्यक्तित्व भयभीत न करे तो यह गुण भी साथ में काम करने वालों को आकर्षित करता है. कभी कभी ऐसा भी होता है कि भयभीत करने वाले निर्मम प्रशासक अपने भय और चापलूसी का माहौल तो बना लेते हैं पर ऐसे में सहजता और मोटिवेशन लुप्त हो जाते हैं टीम तो यहां भी नजर आती है पर वास्तव में ये थानेदार और चापलूसों का कॉकस ही कहलाता है. पर इन सबसे परे, इस शाखा में धीरे धीरे ऐसे लोग जुड़ते गये जो हुक्मरानी और चापलूसी दोनों से घृणा करते थे. सशक्त कारसेवक थे पर किसी के डंडे से डरकर परफार्म नहीं करते थे. मिथक के अनुसार, आग में जलकर राख हो जाना और फिर उसी राख से उठकर पुन:जीवन पाने वाले पक्षी को फिनिक्स कहा जाता है. तो यही फिनिक्स का सिद्धांत शाखा में अस्तित्व में आया जिसे निकट भविष्य में आडिट इंस्पेक्शन, वार्षिक लेखाबंदी और Statutory Audit का सामना करना था. और सामना करना था अनियोजित, आकस्मिक फ्राड का जो इंस्पेक्शन के आगमन पर ही संज्ञान में आया. शाखा में बनी इस टीम भावना ने हर संकट पर विजय पाई, फ्राड की गई राशि की शतप्रतिशत वसूली की, इंस्पेक्शन में वांछित अंक पाये, डिवीजन अपग्रेड हुई, लेखाबंदी संपन्न हुई और बाद में सावधिक अंकेक्षण का विदाउट एम. ओ. सी. का लक्ष्य भी कुशलता पूर्वक प्राप्त किया. कोई भी बैंक और कोई भी शाखा किसी की बपौती नहीं होती, हर किसी की मेहनत से चलती है. वो हुक्मरान जो ये समझते हैं कि बैलगाड़ी हमारे कारण चल रही है वो वास्तविकता से परे किसी लोक में भ्रमण करते रहते हैं और उनका भरम, बैलगाड़ी के नीचे चलने वाले प्राणी के समान ही होता है जिसे लगता है गाड़ी सिर्फ और सिर्फ़ उसके पराक्रम से चल रही है.

 जैसाकि होता है, सद्भावना और सद व्यवहार की भावना इन मंजिलों को पाकर आगे बढ़ रही थी, लोग इस सामूहिक प्रयास की सफलता से खुश थे, वहीं मुख्य प्रबंधक जी इसे अपना स्वनिर्धारित टारगेट प्राप्त करना मानकर अपने अगले लक्ष्य की दिशा में सोचने लगे. होमसिकनेस उन्हें हमेशा सताती रही और यह भावना, उनकी हर भावना पर भारी पड़ जाती थी.

आगे क्या हुआ यह अगले अंक में प्रस्तुत करने का प्रयास रहेगा. कहानी “पानीपत “का कैनवास काफी बड़ा है. उद्देश्य पानीपत के युद्ध में बनी परिस्थितियों का हूबहू बखान करना है. हर घटना, हर बदलाव के लिये परिस्थितियां उत्तरदायी होती हैं, मनुष्य तो निमित्त मात्र ही पर्दे पर आते हैं और अपना रोल निभाते हैं. जो हुआ शायद वैसा होना ही पूर्वनिर्धारित था. मैं ऐसा मानता हूँ कि “पानीपत” आप सभी पढ़ रहे हैं और बहुत ध्यान से पढ़ रहे हैं, यही एक लेखक के लिये सबसे बड़ा पुरस्कार है. धन्यवाद. 

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विनवणी ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? कवितेचा उत्सव ? 

🙏 विनवणी ! 🙏 श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

खळ नाही तुझ्या आभाळा

अविरत धरलीस धार,

केलास इरशाळवाडीमधे

तूच भयंकर कहर !

 

घे उसंत आता जराशी

नदी नाल्या आले पूर,

ओल्या दुष्काळाचे सावट,

करू लागले मनी घर !

 

धीर सुटे बळीराजाचा

पाणी डोळ्याचे खळेना,

उघड्या डोळ्यांनी पाहे

पेरणीच्या शेताची दैना !

 

कर उपकार आम्हावर

पुन्हा एकदा विनवितो,

भाकर तुकडा लेकरांचा

सांग कशास पळवतो ?

सांग कशास पळवतो ?

© प्रमोद वामन वर्तक

दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 192 ☆ आम्ही विद्याधामीय… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे… ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 192 ?

☆ आम्ही विद्याधामीय… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

दिवस विद्याधामचेआठवणीत ठेवायचे

वर्षे झाली पन्नासच हेच गाणे म्हणायचे

हेडसरांचा दराराआठवतोय आजही

प्रार्थना आणि प्रतिज्ञा, शोधतो आहे ती वही

काळ सुखाचा शाळेचा, तेव्हा नसते कळत

अभ्यासू ,हुषार ,मठ्ठ एका रांगेत पळत

 या शाळेच्या छायेतून गेलो जेव्हा खूप दूर

दोन्ही डोळ्यांच्या काठाशी दाटलेला महापूर

शाळा मात्र नेहमीच होती सदा धीर देत

सा-याच संकटातून पुढे पुढे पुढे नेत

भेटीची ही अपूर्वाई कैक वर्षानंतरची

लक्षात ठेऊ नेहमीआम्ही सारे विद्याधामी

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “वेगळा पाऊस…” ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “वेगळा पाऊस…” ☆ सौ राधिका भांडारकर 

आजचा पाऊस जरा वेगळा

काहीसा खट्याळ लडीवाळ

हळुच कानाशी कुजबुजणारा

फारच उनाड पण मधाळ..

 

आजचा पाऊस जरा वेगळा

हळुच जाऊन पानांवर बसला

गार वार्‍याशी बोलता बोलता

थेंबाथेंबाने धरणीला चुंबत राहला…

 

आजचा पाऊस जरा वेगळा

पडू की नको पडू भावनांचा

हळुहळु होता आरंभाला

नंतर झाला वर्षाव धारांचा…

 

आजचा पाऊस जरा वेगळा

रानावनात स्वैरपणे हिंडला

चातकाच्या  चोचीत ओघळला

अन् मोराचा पिसारा फुलवला..

 

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ झाडं… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

?विविधा ?

☆ झाडं… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

वादळासोबत उडू न जाणारी झाडंच मातीत घट्ट पाय रोवून उभी रहातात सावधपणे. डवरतात.फळाफुलानी बहरतात. भुकेल्याची तहान भूक शमवण्यात स्वतः ला धन्यमानतात. पांथस्थाना देतात सावली. पाखरांना देतात आधार.मातीलाही आपल्या मुळाशी बांधून ठेवतात आपलीशी करून आपल्याशी. परिसराला नसती शोभाच  नाही तर ऐश्वर्यसंपन्न ही बनवतात आपल्या परीने . विश्वासाने त्यांच्या कडे बघणाराच्या मनातील आनंद , हर्षोल्लास द्विगुणित करतात .आपल्या जागेवर अटल राहून. ती असता स्थितप्रज्ञ. अबोल. तुम्हाला नसतं त्याच कसलंच निमंत्रण. गरजवंतालाच जावलागतं  त्यांच्या कडे .तुम्ही गेलात त्यांच्याकडे तर ती करतनाहीत तुमचा आव्हेर. कशालाच ती  विरोध नाहीत करत. तुम्हाला हव ते घ्याही म्हणत नाहीत आणि नाही ही म्हणत नाहीत. माणसान असलच झाड बनाव आपलं सर्वस्व दान करणार.

परोपकाराच प्रतीक बनाव. मार्गदर्शक बनाव. झाडाच्या जगण्याचा आदर्श घ्यावा. जन्मावं, वाढावं, तगावं, माणसांच्यासाठी. तेव्हा सगळा समाजच संपन्न होईल, निरागस, निर्मळ, परोपकारी. माग कळेल झाडांची ममता आणि महानता. पण त्यासाठी मातीशी अतूट नाळ जोडावी लागते. देण्यातला आनंद लूटण्यआलआ शिकावं लागतं.

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘लिव्ह – इन…’ ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

सुश्री प्रणिता प्रशांत खंडकर

? जीवनरंग ❤️

☆ ‘लिव्ह – इन…’ ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

सुमनमावशी बाहेर व्हरांड्यात मोबाईलवर बोलत होत्या. बेलचा आवाज आला, म्हणून त्या कुठल्या रूमची बेल वाजली हे बघायला वळल्या, तेवढ्यात ते काका त्यांच्याकडेच येताना दिसले. 

“पॉट द्यायचा होता जरा पेशंटला “, ते म्हणाले आणि व्हरांड्यात थांबले. 

“हो हो”, म्हणत मावशी लगबगीने तिकडे गेल्या. नंतर मावशी खोलीबाहेर आल्या आणि काकांना आत जायला त्यांनी खुणावलं. एवढ्यात बहुतेक त्यांचा मुलगा आणि नात आले. ” बाबा, आईचा नाश्ता झालाय ना? तुम्ही हा गरम गरम उपमा खाऊन घ्या. आज जरा उशीरच झाला मला. ही छकुली पण लवकर उठून बसली आज. मग तिच्यामुळे सविताला कामं आवरायला वेळ झाला थोडा.” तो म्हणाला. 

“अरे, असू दे. तुमची धावपळ मला कळत नाही का?;शिवाय सविता सकाळी सहाला उठून इथून घरी जाते. त्यानंतर सगळं करणार ना?” काका म्हणाले.   

आत्ताच ज्यांना पाॅट द्यायला त्या गेल्या होत्या, त्या सिंधुताईंचे हे मिस्टर आणि हा मुलगा असावा, असा सुमनताईंचा अंदाज ! सिंधुताईंना कंपवाताचा त्रास होता. मेंदूला रक्तपुरवठा नीट न झाल्याने, या आजारात स्नायू कडक, शिथील होतात. माणसाला शरीराचा तोल सांभाळता येत नाही. ‘डोपामाईन’, सारख्या गोळ्यांनी थोडा आजार नियंत्रित होतो. पण गोळीचा परिणाम पाच-सहा तासच टिकतो. आणि   गोळीचा प्रभाव कमी होऊ लागला की पेशंटचे हाता-पायाचे स्नायू आपली लवचिकता घालवून बसतात. 

पहाटे बाथरूमला जाताना सिंधूताईंच्या बाबतीत नेमकं हेच घडलं होतं. त्या तोल जाऊन पडल्या. कमरेच्या डाव्या बाजूचं हाड मोडलं. डोक्याला खोक पडल्यामुळे पाच टाके घालावे लागले. हातालाही मुकामार लागला होता. पण त्यांची घरची माणसं अगदी प्रेमानं करत होती त्यांचं. 

सुमनमावशी गेले चार – पाच दिवस हे सगळं ऐकत होत्या, पहात होत्या. ‘ म्हातारा – म्हातारी लई नशीबवान आहेत. नाहीतर एवढं प्रेमानं करणारी मुलं आता कुठं बघायला मिळतात. सविता म्हणजे सूनच असेल. पण मनापासून करतेय वाटतं सासूचं.’ 

मावशीची दिवसपाळी असल्याने त्यांनी सविताला पाहिलेलं नव्हतं. एक-दोनदा बाजूच्या दुसर्‍या पेशंटचं करत असताना त्यांची सहज नजर गेली, तेव्हा तो मुलगा आपल्या आईच्या अंगावरून हात फिरवत, तिला रात्री झोप नीट झाली का, विचारत होता. तीन-साडेतीन वर्षांची  नात, तिच्या आजीजवळ काॅटवर बसण्याचा हट्ट करत होती.

दुसर्‍या दिवशी दुपारी काका त्यांना म्हणाले, ” मावशी जरा खाली जाऊन मी हिची औषधं घेऊन येतो. तोवर जरा हिच्याजवळ थांबता का?”

मग सुमनमावशींना आयती संधीच मिळाली सिंधुताईंशी गप्पा मारायची. सुमनमावशी न राहवून सिंधुताईंना म्हणाल्या, ” बाई, लय नशीबवान आहात तुम्ही ! घरची सगळी लय प्रेमानं करतात तुमचं. अवो या करोनानंतर तर माणसं येकदम दूर दूरच राहायला लागलीत आजाऱ्यापास्नं. रोज बघतोय न्हवं का आम्ही हिथं !”

“खरंय, तुमचं ! पण मावशी एक सांगू का? या करोनानंतरच मला हे कुटुंब मिळालंय सगळं !”

 “आँ ! काय म्हन्तासा?”

“अहो खरंच सांगते. हे सुधीरराव आणि माझे मिस्टर सुधाकर लहानपणापासून घट्ट मित्र. मिस्टरांच्या पोर्ट ट्रस्टच्या नोकरीमुळे आम्ही मुंबईकर झालो आणि सुधीरराव प्रोफेसर होऊन नागपुरातच राहिले ! आम्ही ऑफिस क्वार्टर्समध्ये रहात होतो. आमची दोन्ही मुलं शिकून – सवरून संसारात स्थिरावली. त्यांना मुंबईत घर घ्यायला ह्यांनीच फंडातून पैसे काढून दिले. त्यामुळे रिटायर झाल्यावर आमच्याकडे फारशी पुंजी नव्हती आणि क्वार्टर सोडावं लागलं त्यामुळे घरही नाही. यांच्या पेंशनमध्ये आमचं दोघांचं भागलं असतं. पण मुलांना आता आमची अडगळ नको होती त्यांच्या संसारात !….  सुधीररावांना हे कळलं तसं त्यांनी यांना मनवून नागपुरात बोलावून घेतलं. त्यांचा मोठा बंगला होता सहा खोल्यांचा. शिवाय मागच्या बाजूला चाळटाईप वनरूम कीचन बांधून चार भाडेकरू ठेवले होते. त्यांनी स्वतःच्या बंगल्यातल्या दोन स्वतंत्र खोल्या आम्हाला वापरायला दिल्या. बाजूलाच त्यांच्याकडे चार खोल्या. मधला दरवाजा उघडला तर एकच मोठं घर. त्यांच्या बायकोशी माझी मैत्री आधीच झाली होती. त्यांना एकच मुलगा, तो अमेरिकेत स्थायिक झालाय. आई-वडिलांशी त्याचे चांगले संबंध ! पण इथलं राजकारण आणि भ्रष्टाचारी व्यवस्थेमुळे त्याला इकडे परत यायचं नाहिये. तो यांनाच तिकडे बोलावत होता पण यांना जायचं नव्हतं.”

“आम्ही इकडे राहायला आलो आणि तीनच वर्षांंनंतर सुधीररावांची बायको वारली, ब्रेन हॅमरेजनं. त्यानंतर मग आम्ही तिघे एकत्रच राहात होतो म्हणाना ! फक्त झोपायला वेगळ्या रूममध्ये. सात-आठ वर्षांपूर्वी मला पार्किन्सनचा त्रास सुरू झाला. पण घरातलं स्वैपाकपाणी मी करू शकत होते. बाकी कामाला बाई ठेवली होतीच.”

“२०२० उजाडलं आणि फेब्रुवारी २०२० मध्ये माझ्या मिस्टरांना कोरोनानं गाठलं. खरंतर त्यांना नक्की काय झालंय हे डॉक्टरना कळण्याआधीच ते गेले. एकाच घरात  राहणाऱ्या, मी आणि सुधीररावांची परिस्थिती फार विचित्र झाली होती… हा मुलगा दिनेश मागच्या चाळीत राहायला आला २०१८ मध्ये. प्रायव्हेट कंपनीत नोकरी करून एकीकडे शिकत होता काॅमर्सला ! अडल्या वेळी सगळ्यांना मदतीला तयार असायचा. याचे आई-वडील आणि मोठा भाऊ, लांब गोंदियाजवळ होते राहायला. कोरोनाच्या पहिल्या लाटेत वडील गेले. तीनच महिन्यात भाऊही गेला. आणि त्या धक्क्याने आईचा हार्टफेल झाला. हा तर लाॅकडाऊनमुळे इकडेच अडकलेला. कामधंदाही बंद. अगदी वेडापिसा झाला होता. त्याचं सगळं कुटुंबच हरवलं ना ! त्याला माणसात आणायला आम्ही काय काय केलं ते आम्हालाच माहीत.”

“सविता, डी. एड. झालेली. सावत्र आईच्या जाचाला कंटाळून नोकरीच्या निमित्ताने घराबाहेर पडण्याची संधी शोधत होती. इंटरव्ह्यूच्या निमित्ताने आमच्या चाळीत मैत्रिणीकडे नागपुरात आली आणि लाॅकडाऊनमुळे इकडेच अडकली. मैत्रिणीचा नवरा शिक्षक प्रायव्हेट स्कूलमध्ये. शाळा बंद झाल्या. पगार नाही, जागा लहान. ते तरी हिला किती दिवस ठेवून घेणार? पैसे तर हिच्याकडेही फारसे नव्हतेच. जेमतेम परतीच्या प्रवासाएवढे. ती दोघंही पाॅझिटिव म्हणून सरकारी केंद्रात भरती झाली. ही निगेटिव्ह पण होम क्वारंटाईन ! आम्हीच डबा देत होतो तिला. बंगल्यात वर्षभराचं धान्य भरलेलं होतं म्हणून निभावलं कसंतरी !

ही छोटी जुई, दीड वर्षांची आणि तिचे आई-वडील आणि आजी तिघेही कोरोनानं गिळले. तेही मागच्या चाळीतच राहणारे. तिला सवितानंच सांभाळलं. जुईचा एकच काका. तो दुबईत. मागच्या वर्षी तो भारतात आला. पैशाचा प्राॅब्लेम नसला तरी तो काही पुतणीची जबाबदारी घ्यायला तयार नव्हता. “

“माझी तब्येतही खूप बिघडली. महिनाभर बिछान्यावरून उठता येत नव्हतं. त्यावेळी सविताच आमचं जेवणखाण सांभाळत होती. दिनेश बाकीची मदत करत होता. पडेल ते काम करत होता. आमचं एक कुटुंबच तयार झालं म्हणाना ! आपण कायम असंच एकत्र राहावं असं आम्हां सगळ्यांना वाटायला लागलं. 

आम्ही खूप चर्चा करून निर्णय घेतला. मी आणि सुधीररावांनी सोय म्हणून रजिस्टर विवाह केला. अर्थात त्यांच्या मुलाला विश्वासात घेऊन. सविता आणि जुईला एकमेकींचा लळा लागला होताच. कोरोना काळात सविता आणि दिनेश एकमेकांना चांगले परिचित झाले होते. दिनेश बी. काॅम झाला आणि सुधीररावांच्या ओळखीनं त्याला एका सी. ए. कडे अकाउंट असिस्टंटची नोकरी पण  मिळाली. त्या दोघांच्या लग्नाचा प्रस्ताव मांडला आणि त्यांनी तो स्वीकारला. सविताने तिच्या वडिलांना लग्नाविषयी कळवलं होतं, परंतु त्यांनी काहीच दखल घेतली नाही. जुईला त्यांनी दत्तक घ्यायचं ठरवलं आणि मग तिच्या काकांकडून सर्व कायदेशीर बाबी पूर्ण करून घेतल्या.”

“आता आम्ही सगळे एकत्र राहतो, एकमेकांसाठी जगतो. आजी-आजोबा, मुलगा-सून आणि नात, असं परिपूर्ण कुटुंब आहे आमचं ! अशी आहे आमची ‘लिव्ह-ईन  फॅमिली”, सुधीरराव म्हणाले.   

“अरेच्चा, तुम्ही कधी आलात, कळलंच नाही.” सिंधुताई म्हणाल्या. 

… सुमनमावशी ही सगळी कहाणी ऐकून निःशब्दच झाल्या होत्या.

© सुश्री प्रणिता खंडकर

संपर्क – सध्या वास्तव्य… डोंबिवली, जि. ठाणे.

ईमेल [email protected] केवळ वाॅटसप संपर्क.. 98334 79845.

ही कथा आवडल्यास लेखिकेच्या नावासह आणि कोणताही बदल न करता अग्रेषित करण्यास हरकत नाही.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “सामान्यांचे कंबरडे…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? मनमंजुषेतून ?

☆ “सामान्यांचे कंबरडे…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

जगात सगळ्यात ताकदवान कोणती गोष्ट असेल तर ती म्हणजे सामान्यांचे कंबरडे. हे नेहमी मोडण्यासाठीच असतं.  पेट्रोल डिझेलची भाववाढ झाली की सामान्यांचे कंबरडे मोडते.

सिलेंडर चे भाव वाढले की सामान्यांचे कंबरडे मोडते.  दर वर्षी केंद्रात आणि राज्यात अशी दोनवेळा अंदाजपत्रके म्हणजेच बजेट येतात. त्या दोन्ही वेळेला विरोधी पक्षांच्या मते सामान्यांचे कंबरडे मोडलेले असते.  तसं पाहायला गेलं तर मी एक सर्वसामान्य माणूस आहे.  पण कंबरडे हा अवयव कुठे आहे हे मला अजून समजलं नाही.  कंबर आणि त्याच्या जवळपास कुठेतरी तो असला पाहिजे कारण त्याचं नाव कंबर या नावावरून तयार झालेलं आहे असा आपला माझा सर्वसामान्य माणसाचा बाळबोध अंदाज. तर हा कंबरडे नावाचा सर्वशक्तिमान अवयव मी सर्वसामान्य असून सुद्धा मला काही अजून सापडला नाही.  बहुधा तो शरीराच्या आत कोठेतरी दडला असावा.  कारण माझी कंबर दुखते हे माझ्या आई ग ! उई ग ! वरून सगळ्यांनाच समजतं.  परंतु कंबरडं मोडतं म्हणजे काय होतं हे काही अजून मला समजलं नाही. ते मोडत असून सुद्धा पुन्हा ते कसं जोडलं जातं तेही समजत नाही. कारण एकदा मोडल्यानंतर पुन्हा मोडण्यासाठी मध्यंतरीच्या काळात ते जोडलं जाणं आवश्यक आहे.  कारण न जोडता ते पुन्हा मोडणार कसं ? त्यामुळे हा कंबरडं नावाचा अवयव कुठे असतो, तो सतत मोडून सुद्धा कसा जोडला जातो, या साऱ्या चमत्काराची फोड कुणी करत असेल तर मला हवी आहे.  बघा तुम्हाला जमतय का –  हे कबरडं कुठे आहे आणि ते कसं मोडलं आणि जोडलं जातंय हे शोधून काढायला ?

मला कळवा हं तुम्हाला समजलं तर…

© श्री सुनील देशपांडे

मो – 9657709640

email : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ “’रम डे’ ची  कथा” ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुलू साबणे जोशी ☆

सुश्री सुलू साबणे जोशी

? इंद्रधनुष्य ?

☆ “’रम डे’ ची  कथा” ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुलू साबणे जोशी 

एवढा धो धो पाऊस पडतोय. अशा वेळेस दोनच गोष्टींची निवड करणे शक्य असते – एक म्हणजे पुस्तक-वाचन आणि दुसरी म्हणजे अपेयपान !    

अशा पावसात अस्सल दर्दी माणसाला व्हिस्की, बीअर, व्होडका, वाईन यातील कुठलेच पेय लागत नाही. या अस्सल दर्दी माणसाची पसंती असते एकाच पेयाला – ते म्हणजे – रम ! हा परिचित ब्रँड तुमच्या जमान्यातला असेल, पण ही ‘रम’ ब्रिटिश जमान्यात मुंबईत बनत होती, हे तुम्हाला माहीत नसेल.  आज तीच कथा मी तुम्हाला सांगणार आहे. 

१८५३ साली पहिली आगगाडी व्हिक्टोरिया टर्मिनसवरून निघाली. तेव्हा पुढचं स्टेशन होतं – भायखळा. दादर नव्हतं, कुर्ला नव्हतं, मुलुंड नव्हतं, पण एक स्टेशन होतं, ते म्हणजे भांडुप ! आश्चर्याचा धक्का बसेल, पण बाकी कुठलंही स्टेशन नव्हतं. 

आता भांडुप स्टेशन असण्याचं कारण काय?  कारण फार गंमतीदार आहे. भांडुपला गाडी थांबली, तर बरेचसे गोरे भांडुपला उतरले आणि तिथे गावात जाऊन चार-पाच पेग रम मारली आणि परत गाडीत येऊन बसले.  तेव्हा भांडुपची लोकसंख्या असून असून किती असणार? तर तीनशे, चारशे… कारण १८८१ साली जेव्हा जनगणना झाली, तेव्हा भांडुपची लोकसंख्या होती – जेमतेम पाचशे चव्वेचाळीस ! आता एवढ्या छोट्या गावात तेव्हा रम कशी बनवली जायची? …. 

त्याचं झालं असं – मुंबई जेव्हा ब्रिटीशांच्या ताब्यात आली, तेव्हा त्यांनी ल्यूक ॲशबर्नर नावाच्या माणसाला भांडुप हे गाव नाममात्र भाड्याने दिले. हा ल्यूक ॲशबर्नर ‘ बॉम्बे कुरियर ‘ नावाच्या वर्तमानपत्राचा संपादक होता. त्याला सांगितलं गेलं की, ‘ तू वर्तमानपत्र पण सांभाळायचं आणि इथे रम पण बनवायची.’ तो काय करणार बिचारा? तो अग्रलेख लिहिणार की रम बनवणार? मग त्याने एक युक्ती केली. त्याचा कावसजी नावाचा मॅनेजर होता. त्यानं त्याच्या हाती कारभार सोपवला आणि त्याला सांगितलं की, ‘ रम बनवणे तुझं काम आहे.’                                                        

तुम्हाला सांगितलं तर आश्चर्य वाटेल की, त्या काळी साडेचार लाख लिटर रम बनवली जायची आणि आख्ख्या भारतभर ब्रिटिश सैनिकांना पुरवली जायची. त्याच्यानंतर गंमत काय झाली की, मॉरिशसला स्वस्त रम तयार व्हायला लागली आणि मग भांडुपचा ‘रम’चा धंदा बंद करावा  लागला .  ‘बॉम्बे गॅझेटियर’च्या चव्वेचाळीसाव्या पानावर ल्यूक ॲशबर्नरच्या नावासकट ही माहिती उपलब्ध आहे.  

आता ही सगळी माहिती आम्हाला कुठून मिळाली? तर आमचे एक मित्र आहेत – श्री. माधव शिरवळकर. त्यांनी ” मुंबई ब्रिटिशांची होती तेव्हा…” या नावाचे पुस्तक लिहिले. त्यात अशा अनेक गंमतीजमती आम्हाला वाचायला मिळाल्या. तेव्हा आज आपल्याला माधव शिरवळकरांचेही आभार मानलेच पाहिजेत. त्यांचे हे पुस्तक आपण जरूर वाचा.

तोवर ….. “ चीअर्स ! “   

लेखक : अज्ञात. 

(https://www.instagram.com/p/Cuej5u-NBh-/) – या सूत्रधाग्यावरून (link) साभार.

संग्राहिका : सुश्री सुलू साबणे जोशी

मो – 9421053591

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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