श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 76 – पानीपत… भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

रामचरित मानस और तुलसी के मर्यादा पुरुषोत्तम राम हमारे आराध्य हैं. रामचरित मानस का नियमित पाठ या चौपाइयों का सामान्य जीवन में अक्सर उल्लेख हमारी दादियों और माताओं द्वारा अक्सर किया जाता रहा है. राम का चरित्र और उनके आदर्श हमारे DNA में है, संस्कारों में रहे है. बाद में दूरदर्शन में अस्सी के दशक में रामायण धारावाहिक के प्रसारण और फिर 2020 के कोविड काल में इस अमर महाकाव्य के पुन: प्रसारण ने हमारी उम्र के हर दौर में इसे देखने, सुनने और गुनने का अवसर प्रदान किया है. राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे, परम शक्तिशाली थे पर साथ ही दया, विनम्रता और शालीनता के गुणों की पराकाष्ठा से संपन्न थे. उनसे भयभीत होना संभव ही नहीं था, वे आश्वस्ति के प्रतीक थे. उनका अनुकरण शतप्रतिशत करना तो खैर असंभव के समान ही था पर उनकी नैतिकता हमें सदैव आश्वस्त करती आई है. यही तो कर्मकांड से परे वास्तविक धर्म है जिसे हमारी आस्था ने सनातन रखा है. “जाहे विधि राखे राम, ताहे विधि रहिये” भी हमारी मानसिक सोच रही है.

पानीपत सदृश्य मुख्य शाखा के हमारे मुख्य प्रबंधक में वाकपटुता तो नहीं थी पर सज्जनता और बैंकिंग का ज्ञान पर्याप्त था. उनकी सहजता और शालीनता धीरे धीरे स्टाफ के आकर्षण का केंद्र बनती गई और फिर शाखा के अधिकतर स्टाफ शाखा के कुशल परिचालन में आगे बढ़कर हाथ बटाने लगे. जब किसी का व्यक्तित्व भयभीत न करे तो यह गुण भी साथ में काम करने वालों को आकर्षित करता है. कभी कभी ऐसा भी होता है कि भयभीत करने वाले निर्मम प्रशासक अपने भय और चापलूसी का माहौल तो बना लेते हैं पर ऐसे में सहजता और मोटिवेशन लुप्त हो जाते हैं टीम तो यहां भी नजर आती है पर वास्तव में ये थानेदार और चापलूसों का कॉकस ही कहलाता है. पर इन सबसे परे, इस शाखा में धीरे धीरे ऐसे लोग जुड़ते गये जो हुक्मरानी और चापलूसी दोनों से घृणा करते थे. सशक्त कारसेवक थे पर किसी के डंडे से डरकर परफार्म नहीं करते थे. मिथक के अनुसार, आग में जलकर राख हो जाना और फिर उसी राख से उठकर पुन:जीवन पाने वाले पक्षी को फिनिक्स कहा जाता है. तो यही फिनिक्स का सिद्धांत शाखा में अस्तित्व में आया जिसे निकट भविष्य में आडिट इंस्पेक्शन, वार्षिक लेखाबंदी और Statutory Audit का सामना करना था. और सामना करना था अनियोजित, आकस्मिक फ्राड का जो इंस्पेक्शन के आगमन पर ही संज्ञान में आया. शाखा में बनी इस टीम भावना ने हर संकट पर विजय पाई, फ्राड की गई राशि की शतप्रतिशत वसूली की, इंस्पेक्शन में वांछित अंक पाये, डिवीजन अपग्रेड हुई, लेखाबंदी संपन्न हुई और बाद में सावधिक अंकेक्षण का विदाउट एम. ओ. सी. का लक्ष्य भी कुशलता पूर्वक प्राप्त किया. कोई भी बैंक और कोई भी शाखा किसी की बपौती नहीं होती, हर किसी की मेहनत से चलती है. वो हुक्मरान जो ये समझते हैं कि बैलगाड़ी हमारे कारण चल रही है वो वास्तविकता से परे किसी लोक में भ्रमण करते रहते हैं और उनका भरम, बैलगाड़ी के नीचे चलने वाले प्राणी के समान ही होता है जिसे लगता है गाड़ी सिर्फ और सिर्फ़ उसके पराक्रम से चल रही है.

 जैसाकि होता है, सद्भावना और सद व्यवहार की भावना इन मंजिलों को पाकर आगे बढ़ रही थी, लोग इस सामूहिक प्रयास की सफलता से खुश थे, वहीं मुख्य प्रबंधक जी इसे अपना स्वनिर्धारित टारगेट प्राप्त करना मानकर अपने अगले लक्ष्य की दिशा में सोचने लगे. होमसिकनेस उन्हें हमेशा सताती रही और यह भावना, उनकी हर भावना पर भारी पड़ जाती थी.

आगे क्या हुआ यह अगले अंक में प्रस्तुत करने का प्रयास रहेगा. कहानी “पानीपत “का कैनवास काफी बड़ा है. उद्देश्य पानीपत के युद्ध में बनी परिस्थितियों का हूबहू बखान करना है. हर घटना, हर बदलाव के लिये परिस्थितियां उत्तरदायी होती हैं, मनुष्य तो निमित्त मात्र ही पर्दे पर आते हैं और अपना रोल निभाते हैं. जो हुआ शायद वैसा होना ही पूर्वनिर्धारित था. मैं ऐसा मानता हूँ कि “पानीपत” आप सभी पढ़ रहे हैं और बहुत ध्यान से पढ़ रहे हैं, यही एक लेखक के लिये सबसे बड़ा पुरस्कार है. धन्यवाद. 

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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