(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “अगर कोई पूछे बता दो …”।)
ग़ज़ल # 85 – “अगर कोई पूछे बता दो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
☆ कथा कहानी ☆ उसका घना साया… भाग-२ – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆
(बारात घर जाने के बजाय मुंबई हॉस्पिटल में…. नई नवेली दुल्हन… मैं… इमरजेंसी वार्ड के बाहर… दवाइयॉं, खून, इंजेक्शन, एक्सरे, स्कैन, शब्द मैं सुन रही थी… सुन्न मन और दिमाग से। बीच में पता नहीं कब किसी के साथ जाकर कपड़े बदल आई थी। ) ….अब आगे
सुहागरात…कितने सुनहरे ख्वाब देखे थे मैंने! एक सह- जीवन की प्यार भरी शुरुआत! वैसे भी जयंत बहुत कोमल मन का… सुमधुर वाणी का धनी… प्यारी बातों से परायों को भी अपना करने वाला! मेरे मन पर तो उसके शब्द मोहिनी का जादू आरुढ था। पहले भी ‘हमारे’नए फ्लैट को घर बनाने के लिए, सजाने-धजाने के लिए वहाॅं मैं कई बार गई थी। वहॉं कभी मुझे अकेली को काम करती छोड़कर वह अपने काम पर चला जाता था। कभी-कभी वह वहाॅं मौजूद रहता था, मदद करने के बहाने। सच बताऊॅं तो उस वक्त थोड़ासा शक, थोड़ा सा डर मन में रहता ही था। अगर वह बहुत पास आ जाय तो? शादी को अभी महीना ही बचा है। उसके रॅशनल थिंकिंग, धार्मिक कर्मकांडों का विरोध वगैरह बातों की मैं आदी हो चुकी थी। पर मेरी मध्यमवर्गीय मानसिकता के संस्कार मुझे डराते रहते थे। अगर उसने शादी के पहले ही मुझसे फिजिकल कांटेक्ट की बात की तो? …. लेकिन वह डर बेकार था। वह बहुत ही सज्जन लड़का था। एक बार मजाक में उसने मुझे बांहों में लेकर इतना जरूर कहा था। “देखो यह बेड़ भी इंतजार कर रहा है, बिल्कुल मेरी तरह… सात जून का …अपनी सुहागरात का !
सात जून की रात को तो हमें एक दूसरे के बाहूपाश में होना चाहिए था। इतने सारे दिनों का इंतजार खत्म होने वाला था। पर दुर्भाग्य से आज सात जून को जयंत आईसीयू में, और मैं अभागन हॉस्पिटल के किसी कोने में एक कुर्सी पर बेबस!
वह बेचारा अंदर तड़प रहा होगा, बर्दाश्त कर रहा होगा। मैं भगवान को हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रही थी। उसके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना कर रही थी।
आठ दस दिन ऐसे ही निकल गए। सिर्फ एक अच्छी बात यह हो गई, उसको आईसीयू से स्पेशल रूम में लाया गया। वह खतरे से बाहर निकला था। लेकिन हम सब डरे हुए ही थे। ऐसे में ही एक दिन मम्मी हॉस्पिटल में ही फटाक से बोल पड़ीं “शुरू से ही इसमें कोई खोट होगी, जभी तो दहेज नहीं लिया। “
जयंत ने यह सुना तो नहीं? मैं बहुत टेंशन में थी।
पर लोगों के मन में इस तरह का ख्याल भी आ सकता है, यह बात उसके मन में भी आई होगी।
एक दिन पापा से बोला, “आप विश्वास रखिए…. सच में मुझे कोई भी बीमारी नहीं थी। शायद आप लोगों को लग सकता है कि मैंने आपको धोखा दिया। ” “जयंत जी, कृपया इस तरह सोच कर दुखी मत होइए। आपके बारे में हम ऐसा सोच भी नहीं सकते। मन शांत रखिए। डॉक्टर इतनी कोशिश कर रहे हैं। आप जल्दी स्वस्थ, निरोगी हो जाओगे। “पापा ने उसे समझाया।
जयंत की जिद की वजह से शादी के पहले हमारी जन्मकुंडली भी नहीं मिलाई थी। दस लोग, दस बातें ! शायद लड़की मांगलिक होगी उसकी भाभी उनके किसी परिचित को कह रही थी। मंगल के प्रभाव से यह हो रहा होगा। मुझे लग रहा था कि मैं चिल्ला चिल्ला के सबको बता दूं कि मैं मांगलिक नहीं हूॅं।
शादी के बाद हमारा दस दिन के लिए ऊटी जाने का प्रोग्राम था। खूबसूरत ऊटी में घूमना फिरना, एक दूजे के लिए जीना, एक दूसरे के अधिक समीप आना यह तो हमारा सपना था। जिंदगी की शुरुआत हम एक अलग ही खुशी और आनंद से करने वाले थे। पर वे दस दिन तोअस्पताल में डॉक्टरों के गंभीर चेहरे… दवाइयों की बदबू… जिंदगी को मौत की छांव में देखकर आये हुए मानसिक तनाव… इसीमें बिताने पड़े। लग रहा था एक बार हॉस्पिटल से छुट्टी हो जाए तो फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा। मैं जयंत को संभालूॅंगी, उसके हेज-परहेज का ख्याल रखूंगी। सेवा करूंगी। जिंदगी इतनी बड़ी होती है। अभी तो शुरुआत है, आगे जाकर इन दस दिनों की याद भी नहीं आएगी। पर तब यह कहाॅं मालूम था कि यह यादों की छाॅंव मेरा पूरा जीवन व्याप्त करेगी।
जयंत एक निडर पत्रकार था। एक प्रसिद्ध अखबार का अब सहायक संपादक बन गया था। लेकिन दफ्तर में बैठकर काम करना उसको मंजूर नहीं था। किसी भी महत्वपूर्ण घटना को वह वहाॅं जाकर ही कवर करता था। राजनीतिक उठापटक, सामाजिक आंदोलन, शिक्षा, अर्थकारण ऐसे विषयों पर उसकी अभी व्यंगात्मक शैली में लिखी गई ‘प्रकाश किरण’ इस शीर्षक के तहत प्रकाशित होने वाली लेखमाला बहुत ही लोकप्रिय हो गई थी। शादी के पहले मैं भी उसकी पाठक थी। मुझे वह लेखमाला बहुत पसंद थी। बल्कि मुझे उससे प्यार हो गया था। उसका प्रसिद्ध लेखक मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार कर रहा है, यह मुझे एक सपने के समान लगता था।
जयंत की बीमारी के चलते वह लेखमाला बंद हो गई क्योंकि उसको बेडरेस्ट की बहुत जरूरत थी। लेकिन जैसे ही वह घर आया, धीरे-धीरे उसके फ्रेंड सर्कल का घर आना… उनकी गपशप… चर्चायें…बहस बाजी….और चाय नाश्ता खाना-पीना फिर से शुरू हो गया। वह खुश रहने लगा। उसके स्वास्थ्य में सुधार हो रहा था। लेकिन डॉक्टर ने दी हुई बेड- रेस्ट की हिदायत को वह अनसुना करने लगा। मेरा कर्तव्य मैं अच्छी तरह से निभा रही थी। इसलिए मैं चिंतित हो गई, डर गयी। मैं उसे बाहर जाने से, ऑफिस के चक्कर लगाने से, रोकने का प्रयास करती थी। पर प्यार से “बेबी, सोना, गुड्डोरानी कहकर अपनी मीठी मीठी बातों में वह मुझे इस तरह उलझाता कि उसके लिए चिंता जताना मेरी कितनी बेवकूफी है यह बात वह हंसते-हंसते सिद्ध कर देता। इसी दौरान संघटित मजदूर संघ के नेताओं ने राष्ट्रीय हड़ताल घोषित कर दी। जगह-जगह पर सभा, रैलियां, धरना प्रदर्शन का दौर शुरू हुआ। उल्टी-सीधी बयानबाजी शुरू हो गई। मालिक, मजदूर नेतागण, विरोधी पक्ष नेता, मजदूर- सब की आपबीती, राज्य सरकार का बीच-बचाव, इतना सब घटित होता देख आराम करते रहना या सिर्फ ऑफिस में बैठे रहना जयंत के लिए असंभव था। उसके अखबार के संपादक जी ने भी उसको सिर्फ थोड़ा बहुत ऑफिस वर्क करने की सलाह दी थी। उन्होंने बताया था फिल्ड वर्क करने के लिए जर्नलिज्म किए हुए नवोदित संवाददाताओं की भर्ती की हुई है। वे लोग ही सभा, सम्मेलन, रैलियां कवर करेंगे, और जयंत का काम रिपोर्ट, महत्वपूर्ण व्यक्तियों के साक्षात्कार को अच्छी तरह से संपादित करना, यही रहेगा। लेकिन जयंतनेअपनी बीमारी को बहुत हल्के में लिया। बेड रेस्ट तो वह करना ही नहीं चाहता था। संपादक जी का कहना भी उसने नहीं माना, भैयाजी जी की बातों को सुना अनसुना कर दिया। और बेवजह अपने शरीर पर अत्याचार करता रहा। हड़तालऔर प्रदर्शन हिंसक हो रहा था। जिससे मेरी चिंता, फिकर बढ़ती जा रही थी। “तुम इतना परिश्रम मत करो” मैं रोते-रोते उससे विनती करने लगी थी। लेकिन उसने मेरी एक न मानी। उसके अंदर के पत्रकारिता का जुनून उसे आराम करने नहीं दे रहा था। उसका चिड़चिड़ापन भी बढ़ता जा रहा था ‘ मेरे काम में तुम टांग मत अड़ाओ’ मुझे वह गुस्से से कहने लगा था। मैं अच्छा खासा हूॅं, कुछ नहीं होगा मुझे। ‘ यह उसका जवाब होता था। जब भी देखो श्रमिकों की खस्ता हालत और श्रमिक नेताओं द्वारा किया जाने वाला उनका शोषण… इस तरह के विषय पर उसकी बातें होती रहती थीं। सभा सम्मेलन, चर्चाएं , मोर्चा, इसमें वह रात- दिन की, गर्मी की, भूख- प्यास की परवाह न करते हुए जाता रहा।
क्रमशः…
मूल मराठी कथा (त्याची गडद सावली) –लेखिका: सौ. उज्ज्वला केळकर
हिन्दी भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे
माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem “त्रिकाल महादेव”. We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “फुटपाथ और पार्किंग“।)
अभी अभी # 106 ⇒ फुटपाथ और पार्किंग… श्री प्रदीप शर्मा
बोलचाल के कुछ शब्दों के हम इतने अभ्यस्त हो चुके होते हैं कि उनकी भाषा हमें अपनी ही भाषा लगने लगती है। एक भाषा आम होती है जिसमें स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, स्टेशन और लाइब्रेरी भी शामिल है। वहां भाषा विवाद और भेद बुद्धि काम नहीं करती। जो आपसी संवाद कायम करे, वही भाषा कहलाती है।
कभी हमारा शहर भी एक आदर्श शहर था, यहां सड़कें थीं, फुटपाथ थे। आज जब यही महानगर, स्मार्ट सिटी बनता हुआ, स्वच्छता के सातवें आसमान पर कदम रख रहा है, तब यहां का आम नागरिक आज ट्रैफिक जाम और पार्किंग जैसी समस्याओं से जूझ रहा है। ।
हमारे यहां पहले चौराहों का सौंदर्यीकरण होता है और उसके कुछ समय पश्चात् ही वहां ब्रिज निर्माण और मेट्रो का काम शुरू हो जाता है। कितनी बार इन सड़कों का मेक अप करना पड़ता है, शहर की सुंदरता और स्वच्छता को कायम रखने के लिए।
होते हैं कुछ लोग, जो बार बार घरों को रेनोवेट करते हैं, हर तीन साल में कार बदलते हैं।
आज के व्यस्ततम शहर में जब आम आदमी पैदल चल ही नहीं सकता तो फुटपाथ का क्या औचित्य ! लेकिन नगर विकास की कुछ मान्यताएं हैं, कुछ शर्तें हैं, यातायात की कुछ मजबूरियां हैं, जिनके कारण फुटपाथ का होना भी जरूरी है।
निकल पड़े हैं, खुली सड़क पे, अपना सीना ताने! भला ये कहां का ट्रैफिक सेंस। ।
हमारे शहर का प्रशासन और नगर निगम वाहनों की संख्या और यातायात की असुविधा भले ही कम नहीं कर सकता हो, लेकिन शहर के पूरे मोहल्लों और कॉलोनियों में उसने सुंदर फुटपाथ का जाल जरूर बिछा दिया है। शहर की प्रमुख कॉलोनियों में लोगों के घरों के बाहर सड़क के साथ आप एक फुटपाथ भी देख सकते हैं। लेकिन यह फुटपाथ भी चलने के लिए नहीं बना। यहां रहवासी अपनी कारें पार्क करने लगे हैं। अपने ही घर के सामने फुटपाथ पर अपनी कार। इसे ही तो कहते हैं अपनी सरकार।
बड़ा सपना होता था कभी अपना घर बनाने का। एक बंगला बने न्यारा। बंगले के साथ कार का भी सपना जुड़ा रहता था। कार के लिए बाकायदा गैरेज बनाया जाता था, ताकि हर मौसम में उनकी कार सुरक्षित रहे। तब शहर में इतनी खुली ज़मीन आसानी से उपलब्ध हो जाती थी। आज भी कुछ पुराने घरों में कार के दर्शन गैरेज में किए जा सकते हैं। ।
समय का फेर देखिए, जगह कम होती गई, मकान छोटे होते चले गए, दोपहिया और चौपहिया वाहनों की तादाद दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती ही चली गई और एक स्थिति ऐसी आ गई कि शहर में धड़ाधड़ ऑटो गैरेज खुलने लगे। जो कल के कार सेंटर थे, वे सर्विस सेंटर कहलाने लगे। आजकल कार भी सर्विस पर जाती है, जब वह घर में नहीं होती।
आज का फुटपाथ, चलने के लिए नहीं बना। कर्जा करके बड़ी मुश्किल से घर बनाया, फर्नीचर खरीदा, कर्जे पर ही कार खरीदी, कार हमें जान से प्यारी है, पूरे घर की सवारी है, लेकिन उसके लिए अलग से घर बनाने की हमारी हैसियत नहीं। टाउनशिप हो या कोई पॉश कॉलोनी, कार तो घर के बाहर फुटपाथ पर ही पार्क की हुई मिलेगी। अगर आज घर में गैरेज जितनी जगह अतिरिक्त होती तो क्या हम वह किराए से नहीं उठा देते। एटीएम वाले तो दो गज जमीन से ही काम चला लेते हैं। ।
आजकल हमने भी एक ऐसा चश्मा बना लिया है, जिससे हमें कहीं गरीबी नजर नहीं आती। हर घर के बाहर एक कार खड़ी है, फुटपाथ कहीं चलने लायक नहीं। बाजारों में तो आप फुटपाथ छोड़िए, सड़कों पर भी नहीं चल सकते। जो आदमी इतना व्यस्त है, क्या वह समस्याग्रस्त भी हो सकता है। उसे तो बस बहना है, विकास के बहाव में, विज्ञापनों का बाजारवाद आपको महंगाई से भी बचाए रखता है। एमेजॉन, फ्लिपकार्ट और बिग बास्केट चौबीस घण्टे आपकी सेवा में हाजिर है। ऑनलाइन पेमेंट में पैसा कहां जेब से जाता है। वैसे भी ईश्वर ने बहुत दिया है।
रहवासी एरिए में, घर के बाहर बने फुटपाथ अथवा सड़क पर कार रखना कोई अतिक्रमण नहीं, कानूनी जुर्म नहीं, आम नागरिक की मजबूरी है। रात दिन आपकी कार आपकी निगरानी में रहे, सुरक्षित रहे, हम तो यही प्रार्थना कर सकते हैं। बस अन्य लोगों की सुविधा का भी खयाल रखें, तो सोने में सुहागा।
पार्किंग की समस्या का कोई विकल्प हो या ना हो, दूसरी कार का संकल्प लोग फिर भी ले ही लेते हैं। ।
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित “गायत्री मंत्र…” का हिन्दी छंद बद्ध भावानुवाद । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कविता – “गायत्री मंत्र …” हिन्दी छंद बद्ध भावानुवाद ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
कितीतरी लेखक दारिद्र्यातून जात असताना, लोकांची टीका सहन करत, करत एक दर्जेदार सिद्ध लेखक म्हणून नावारूपाला येतात. अशा अनेकांपैकी जॉर्ज ऑरवेल याचे नाव अग्रक्रमाने घ्यावे लागेल.
जॉर्ज ऑरवेलचे मूळ नाव एरिक आर्थर ब्लेयर. 25 जून 1903 मध्ये, भारतात बंगालमध्ये मोतीहरी येथे त्याचा जन्म झाला. त्याचे वडील सिविल सर्विसेस मध्ये नोकरी करीत होते .1907 साली त्यांचे कुटुंब इंग्लंडला गेले. 1911 मध्ये ससेक्स मधील बोर्डिंग स्कूलमध्ये आणि नंतर इंग्लंडमध्ये इटन येथे ( 1917 ते 21) स्कॉलरशिप मिळवून शिक्षण घेतले तेथे त्यांना अल्डस हक्सले हे शिक्षक लाभले. आणि तेथूनच त्यांचे लेखनाला सुरुवात झाली कॉलेजमध्ये असतानाच त्यांनी वेगवेगळ्या मॅगझिन्स मध्ये लेखन करायला सुरुवात केली त्यांची पहिली कविता “awake young men of england “. हे लिहिली तेव्हा तो फक्त अकरा वर्षाचा होता. 1922 मध्ये बर्मा मध्ये भारतीय इंपिरियल पोलीस दलात डिस्ट्रिक्ट सुपरीटेंडंट म्हणून पाच वर्षे नोकरी केली. त्या काळात त्याला 650 पाउंड इतका चांगला पगार होता. पण त्याचे मन नोकरीत रमेना. वडिलांचा विरोध पत्करूनही त्याने ती नोकरी सोडली .आणि लेखक होण्याचा निर्णय घेतला. त्यानंतर दोन वर्षे त्याला खूपच दारिद्र्यावस्थेत काढावी लागली. इंग्लंडला आल्यानंतर त्याने प्रसिद्ध लेखकांचा अभ्यास केला. आणि आपले लेखन विकसित करायला सुरुवात केली. उदारमतवादी आणि समाजवादी विचारांच्या संपर्कात तो आला. आणि तेथेच त्याच्या राजनैतिक विचारांना सुरुवात झाली. इंग्लंडला परत येण्यापूर्वी तो पॅरिस मध्ये दोन वर्षे राहिला होता. 1933 मध्ये त्याचे पहिले पुस्तक ” डाऊन अँड आऊट इन पॅरिस अंड लंडन ” मध्ये त्याने आपले अनुभव लिहिले. आणि या प्रकाशानापूर्वीच त्याने आपल्या नावात बदल करून, जॉर्ज ऑरवेल या टोपण नावाने लेखन करायला सुरुवात केली. इंग्लंडला परत येण्यापूर्वी तो पॅरिसमध्ये दोन वर्षे राहिला होता .तेथे खाजगी शिक्षक, शाळा शिक्षक, पुस्तकाच्या दुकानात काम करत होता .1936 मध्ये त्याला लंके शायर आणि आणि याँर्कशायर मधील बेरोजगारी असलेल्या भागांना भेट देण्यासाठी नियुक्त केले. आणि तेथील गरीबीवर त्यांनी पुस्तक लिहिले.( The road to vighan pear 1937.) 1936 साली तो रिपब्लिकन पक्षासाठी लढण्यासाठी स्पेनला गेला . तेथे तो जखमी झाला .नंतर तो पूर्ण तंदुरुस्त झालाच नाही . दुसऱ्या महायुद्धा दरम्यान त्याने होमगार्ड मध्येही काम केले .1941 ते 43 मध्ये बी. बी .सी .साठी प्रचाराचे काम केले. पुढे 1943 साली “ट्रिब्यून”, या साप्ताहिकाचे संपादक झाले .रशियन राज्यक्रांतीवरील उपरोध प्रचूर रूपक, अनेक टीकात्मक लेखसंग्रह , स्पेन मधील यादवी युद्धाचे अनुभव आणि कादंबऱ्या असे बरेच लिखाण झाले. त्याने लिखाणात कल्पनाधारीत, तत्वनिष्ठ पत्रकारिता, समीक्षा, काव्य असे अनेक लेखन प्रकार हाताळले.
17 ऑगस्ट 1945 साली , इंग्लंडमध्ये आणि एक वर्षानंतर अमेरिकेत , त्याची ” ॲनिमल फार्म ” ही (रुपक )कादंबरी प्रकाशित झाली. 1949 मधे एक दीड वर्ष खर्च करून “1984” हे कादंबरी प्रकाशित झाली .या दोन कादंबऱ्यांनी सर्वत्र खळबळ उडवून दिली. जर्मनीचा पाडाव झाला .आणि स्टॅलिनने रशियाला वाचवले. त्याविरुद्ध लिहिण्याची कोणाची ताकद नव्हती .सरकार आणि व्यवस्थेचा भीतीचा पगडा, विचारांची घुसमट त्याने प्रकट केली आहे. ” ॲनिमल फार्म ” हे एक भाष्य आहे. संपूर्ण कादंबरी रशियन राज्यक्रांतीचे हुबेहूब रूपक आहे. झारशाही विरुद्ध होणारे रशियन बंड उत्तमरीत्या साकार केले आहे .त्याचा एकाधिकारशाहीला विरोध होता. आणि सामाजिक विषमतेबद्दल प्रचंड चिड होती .लोकशाहीशी संलग्न असलेल्या समाजवादावर त्याचा विश्वास होता. एका शेतातली प्राण्यांची राजनीतिक कथा ,पण स्टॅलिनच्या राज्यक्रांती, जनतेचा विश्वासघात ,स्वार्थीपणा यावर ही रूपकात्मक कादंबरी आहे . स्टॅलीनचा
तो टीकाकार होता. ब्रिटिश बुद्धिजीवींनी, स्टॅलीनचा उच्च आदर केलेला त्याला पटला नव्हता . त्याचे लेखन तत्त्वज्ञान हे सत्या.चा शोध घेण्याची संबंधित होते. मार्क्सवाद्यांना त्याचे लेखन पटले नाही .या कादंबरीवर त्यांनी आक्रमण केले. आणि अनेक दिवस या कादंबरीवर बंदी आली. दोन कादंबऱ्यांनी त्याला जागतिक कीर्ती मिळवून दिली. 1995 मध्ये त्याला w. H. Smith अँड penguin बुक्स ऑफ द सेंचुरी पुरस्कार मिळाला.1950 पर्यंत इंग्लंड मध्ये 25 हजार 500 आणि अमेरिकेत पाच लाख 90 हजार प्रति होत्या. या आकडेवारीवरून या पुस्तकाचे यश लक्षात येते. टाईम मॅगेझिनने इंग्रजीतील सर्वोत्कृष्ट कादंबऱ्यांपैकी एक म्हणून ती निवडली. सर्व युरोपियन भाषा, पर्शियन, आइसलैंडिक, तेलगू भाषांमध्ये या कादंबरीचे भाषांतर झाले आहे. ” ॲनिमल फार्म ” आणि ” 1984 ” या दोन प्रसिद्ध साहित्य कृतीनी विसाव्या शतकात खपाचा उच्चांक गाठला होता. राजकीय आणि सामाजिक व्यवस्थेवरील अनेक पुस्तके त्यांनी लिहिली. जॉर्ज ऑरवेलला केवळ 46 वर्षांचे इतके अल्प आयुष्य लाभले . 21 जानेवारी 1950 मध्ये लंडनमध्ये त्याचे निधन झाले.