(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “अकिंचन की शक्ति…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 151 ☆
☆ अकिंचन की शक्ति… ☆
लक्ष्य साधते हुए सीढ़ी दर सीढ़ी बढ़ते जाने के लिए दृढ़ निश्चयी होना बहुत आवश्यक होता है। अधिकांश लोग आया राम गया राम की तरह केवल समय पास करना जानते हैं। उन्हें कुछ करना- धरना नहीं रहता वो तो हो हल्ला करते हुए हल्ला बोल में शामिल होकर अपनी पहचान को बनाए रखने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। वैचारिक दृष्टिकोण के बिना जब कोई भी तथ्य प्रस्तुत करो तो वो प्रभावी नहीं होता है। आजकल एंकर भी मजे लेते हुए बात को जिस बिंदु से शुरू करते हैं उसी पर बिना निष्कर्ष निकाले समाप्त करना चाहते हैं, जिससे उनका नियमित कार्यक्रम सुचारू रूप से चलता रहे। एक मुद्दे पर एक दिन तो क्या एक वर्ष तक खींचा जा सकता है। घोषणा पत्र महज घोषणा बन कर रह जाए तभी तो सफलता है। नीतियों के साथ चलना कोई नयी बात नहीं होती किन्तु बिना सिर- पैर की बातों से भी अपने आपको चर्चा का बिंदु बनाए रखना कोई आसान कार्य नहीं है। माना एक सिक्के के दो पहलू होते हैं। पर खोटे सिक्के का क्या किया जाए। इनसे जेब में खनखनाहट होगी या नहीं ये तो भुक्तभोगी ही बता सकता है।
ऐसे लोग जिनको साफ तौर पर कह दिया जाता है, जाओ यहाँ से…। अपना मुह बंद रखो, तुम्हें कोई सुनना नहीं चाहता। वही आगे चलकर खींचतान करते हुए नए- नए विचार रखते हैं जिन्हें अमलीजामा पहनाने वाला विजेता का ताज धारण कर लेता है।
भले ही बाल की खाल क्यों न निकालनी पड़े, बिना मतलब की बातों पर चर्चा होते रहनी चाहिए।लोगों को केवल मनोरंजन से मतलब रहता है। जब देश में पूछ परख कम हो तो विदेशों की यात्रा करें, वहाँ सब कुछ चलेगा, भाषा की भी कोई बाध्यता नहीं रहती, इसी बहाने आपको देश में मीडिया कव्हरेज मिलने लगती है। अब तो अधिकांश लोग धरना प्रदर्शन की जगह सात समंदर पार जाकर ढूंढ रहे हैं।
खैर ये सब तो चलता रहेगा, अपना अस्तित्व किसी भी तरीके से बना रहे, इसका ध्यान अवश्य रखिए।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए
अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi short story “~ या क्रियावान..~”. We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)
श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना
संजय दृष्टि – या क्रियावान..
बंजर भूमि में उत्पादकता विकसित करने पर सेमिनार हुए, चर्चाएँ हुईं। जिस भूमि पर खेती की जानी थी, तंबू लगाकर वहाँ कैम्प फायर और ‘अ नाइट इन टैंट’ का लुत्फ लिया गया। बड़ी राशि खर्च कर विशेषज्ञों से रिपोर्ट बनवायी गयी। फिर उसकी समीक्षा और नये साधन जुटाने के लिए समिति बनी। फिर उपसमितियों का दौर चलता रहा।
उधर केंचुओं का समूह, उसी भूमि के गर्भ में उतरकर एक हिस्से को उपजाऊ करने के प्रयासों में दिन-रात जुटा रहा। उस हिस्से पर आज लहलहाती फसल खड़ी है।
Seminars and discussions were held on developing productivity in barren land. Campfires and ‘A Night in a Tent’ were enjoyed by pitching tents on the land to be cultivated. A huge amount of money was spent and a report was made by the experts. Then a committee was formed to review it and collect the new resources. Then the cycle of sub-committees and the teams formation continued.
On the other hand, a group of earthworms, descending into the womb of the same land, engaged day and night in efforts to make that part fertile.
Today, that part of land has a flourishing crop on it..!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गधा, घोड़ा और खच्चर“।)
अभी अभी # 58 ⇒ गधा, घोड़ा और खच्चर… श्री प्रदीप शर्मा
एक गधा एक घोड़ा कहावत।घोड़ा एक उच्च नस्ल का प्राणी है, मनुष्य जब उसकी सवारी करता है तब वह घुड़सवार कहलाता है। शादी के वक्त जीवन में एक बार तो हर दूल्हा घोड़ी चढ़ता ही है। यह सुख गधे के नसीब में नहीं। कोई समझदार इंसान गधे की सवारी नहीं करता ! कोई दूल्हा भूल से भी कभी एक गधी पर चढ़ तोरण नहीं मारता।
आखिर घोड़े गधे में फ़र्क होता है ! लेकिन यह भी सनातन सत्य है कि अगर गधे के सींग नहीं होते, तो घोड़े के भी नहीं होते। अगर गधा घास खाता है, तो घोड़ा कोई बिरयानी नहीं खाता। दोनों के एक एक पूँछ होती है। हाँ गधा हिनहिना नहीं सकता और सावन के घोड़े को सब जगह हरा नहीं दिखता।।
घोड़े को अश्व भी कहते हैं और महालक्ष्मी में घोड़े की ही रेस होती है, गधों की नहीं। इतिहास गवाह है कि पुराने ज़माने के राजाओं की सेना में युद्ध के लिए घोड़े, हाथी, और अश्व-युक्त रथ होते थे, लेकिन किसी भी सेना में गधे को स्थान नहीं मिला। जब कि यह कछुए जितना स्लो भी नहीं।
अंग्रेज़ घोड़ों की सवारी ही नहीं करते थे, उस पर बैठ पोलो भी खेलते थे। अंग्रेज़ चले गए, पोलोग्राउण्ड छोड़ गए। सेना में आज भी अच्छी नस्ल के घोड़ों की उपयोगिता है। बीएसएफ की ही तरह एसएएफ की बटालियन भी होती है, जिसे अश्ववाहिनी भी कहते हैं।।
गधे और घोड़े के बीच की एक नस्ल होती है, जिसे खच्चर कहते हैं। आप इसे दलित अश्व भी कह सकते हैं। यूँ तो गधे और खच्चर दोनों पर समान रूप से सामान लादा जा सकता है, लेकिन खच्चर पहाड़ों पर आसानी से बोझा ढो सकता है। गधा इसीलिए गधा रह गया कि वह कभी पहाड़ नहीं चढ़ा।।
जो खच्चर पहाड़ों पर बोझा ढो सकता है, वह सैलानियों और तीर्थ यात्रियों को भी सवारी के लिए अपनी आपातकालीन सेवाएं प्रस्तुत कर सकता है। पहाड़ पर यह खच्चर कई लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाता है। तराई से पहाड़ों पर आवश्यक सामग्री पहुँचाने का काम ये खच्चर ही करते हैं।
मनुष्य बड़ा मतलबी इंसान है ! घोड़े और खच्चर को तो उसने अपना लिया लेकिन गधे को नहीं अपनाया। यहाँ तक तो चलो ठीक है। लेकिन जो इंसान भी उसके काम का नहीं, उसे भी गधा कहने में उसे कोई संकोच नहीं।
लेकिन वह यह भूल जाता है कि मतलब पड़ने पर गधे को ही बाप बनाया जाता है, घोड़े को नहीं।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – भोजन वैविध्य…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 215 ☆
व्यंग्य – भोजन वैविध्य…
इस देश में लोग चारा खा चुके हैं. दो प्रतिशत कमीशन ने पुल, नहरे और बांध के टुकड़े खाने वाले इंजीनियर बनाए हैं । सर्कस में ट्यूब लाइट और कांच, आलपीन खाते मिल ही जाते हैं । रेलवे स्टेशन पर बच्चे नशे के लिए पंचर जोड़ने का सॉल्यूशन चाव से खाते हैं ।
मंत्री, अफसर बाबू रुपए खाते हैं ।
किसी सह भोज में लोगो की प्लेट देख लें, लगता ही नहीं की ये अपने खुद के पेट में खा रहे हैं, और पेट की कोई सीमा भी होती है ।
घर जाकर एसिडिटी से भले निपटना पड़े पर सहभोज का आनंद तो ओवर डोज से ही मिलता है। बाद में हाजमोला प्रायः लोगो को लेना होता होगा ऐसा मेरा अनुमान है। मेरे जैसे दाल रोटी खाने वाले भी रसगुल्ला तो 2 पीस ले ही लेते हैं।
पीने के भी उदाहरण तरह तरह के मिलते हैं । लोग पार्टियों में जबरदस्ती पिलाने को शिष्टाचार मानते हैं । पिएं और होश में रहें तो मजा नहीं आता । हर बरस जहरीले मद्य पान से सैकड़ों जानें जाती हैं । पुरानी शराब का सुरूर गज़ल लिखवा सकता है।
आशय यह की खाने पीने की विविधता अजीबो गरीब है ।
कोई मांसाहारी हैं तो कोई शाकाहारी, कोई केवल अंडे खाने वाला सामिष भोजन लेता है तो कोई मंगलवार, शनिवार छोड़कर बाकी दिन नानवेज खा सकता है। नानवेज न खाने वाले भी डंके की चोट पर नानवेज चुटकुले सुनते सुनाते हैं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल साहित्य – “यात्रा वृतांत– दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 140 ☆
☆ “यात्रा वृतांत– दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
जैसे ही मिट्ठू मियां को मालूम हुआ कि मैं, मेरी पत्नी और पुत्री प्रियंका पशुपतिनाथ मंदिर मंदसौर और एलोरा की तर्ज पर बना मंदिर धर्मराजेश्वर देखने जा रहे हैं वैसे ही उसने मुझसे कहा, “मालिक! मैं भी चलूंगा।”
मगर मेरा मूड उसे ले जाने का नहीं था। मैंने स्पष्ट मना कर दिया, “मिट्ठू मियां! मैं इस बार तुम्हें नहीं ले जाऊंगा।”
मिट्ठू मियां कब मानने वाला था। मुझसे कहा, “मुझे पता है नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर देखने जाते वक्त बहुत परेशानी हुई थी।” यह कह कर उसने मेरी ओर देखा।
मैं कुछ नहीं बोला तो उसने कहा, “मैं कैसे भूल सकता हूं कि आप हवाई अड्डे के अंदर कैसे मुझे ले गए थे। वह तरकीब मुझे याद है,” उसने कहा, “हवाई जहाज में आप मुझे हैण्डबैग में भरकर ले गए थे। वहां मेरा जी बहुत घबराया था। मगर मैं चुप रहा। मुझे हवाई जहाज की यात्रा करना थी।”
“हां मुझे मालूम है,” मैंने कहा तो मिट्ठू मियां बोला, “इस बार मैं चुप रहूंगा। आप जैसा कहोगे वैसा करूंगा। मगर आपके साथ जरूर चलूंगा,” उसने तब तक बहुत आग्रह किया जब तक हम जीप लेकर चल न दिए।
मैं उसका आग्रह टाल न सका। झट से ‘हां’ में गर्दन हिला कर सहमति दे दी।
तब खुश होकर मिट्ठू मियां हमारी जीप में सवार हो गया। मगर, उसे जीप बहुत धीरे-धीरे चलती हुई लग रही थी। वह बोला, “आप जीप थोड़ी तेज चलाइए। मैं आपकी जीप के साथ उड़ता हूं। देखते हैं कि कौन तेज चलता है?” कह कर मिट्ठू मियां उड़ गया।
मैंने उसकी बात मान ली और जीप तेज चला दी। मगर मिट्ठू बहुत तेज उड़ रहा था। वह जीप से कहीं आगे निकल गया। इस तरह हम नीमच से निकलकर 55 किलोमीटर दूर मंदसौर यानी दशपुर पहुंच गए।
यहां शिवना नदी के किनारे पशुपतिनाथ का मंदिर स्थित है। जिसके अंदर चमकते हुए तांबे की उग्र चट्टान को तराश कर बनाई गई अष्टमुखी शिव प्रतिमा के हमने दर्शन किए। यह मूर्ति 11.25 फीट ऊंची तथा 64065 किलो 525 ग्राम वजनी पत्थर से निर्मित है। इसमें जीवन की आठों दिशाओं को शिव के मुखमंडल द्वारा दर्शाया गया है।
इस अद्भुत मूर्ति को देखकर मिट्ठू मियां के मुंह से निकल पड़ा, “मालिक! यह तो नेपाल के पशुपतिनाथ की चार मुखी मूर्ति से बहुत बड़ी व अद्भुत मूर्ति है।”
मैं भी चकित था, “वाकई! बहुत अद्भुत मूर्ति हैं,” कहते हुए मैंने मिट्ठू मियां को कैमरा दिया। वह उसे लेकर ऊंचा उड़ गया। उसने मंदसौर के पशुपतिनाथ के 111 फीट ऊंचे मंदिर का बहुत ऊंचाई से हमें दर्शन करा दिए।
इस अद्भुत मंदिर को देखकर मैं, मेरी पत्नी और बेटी- हम सब बहुत खुश हुए। हम कई फोटो लिए। वे बहुत ही सुंदर आए थे।
चूंकि हमें यहां से 122 किलोमीटर दूर चंदवासा जाना था। यह मंदसौर जिले की शामगढ़ तहसील में स्थित है। यहीं से धमनार और वहां की गुफाएं 3 किलोमीटर दूर पड़ती है। यह स्थान शामगढ से मंदिर 22 किलोमीटर दूर है। इस कारण हमने जीप स्टार्ट की ओर चल दिए। ताकि समय से हम दर्शनीय स्थान पर पहुंच सकें।
मिट्ठू मियां को उड़ने की आदत थी। वह जीप के साथ-साथ उड़ता जा रहा था। वह हमसे रेस लगा रहा था। मगर हर बार हम हार जाते थे। क्योंकि मिट्ठू मियां हवा में सीधा उड़ रहा था। हम भीड़ भरे रास्ते और सड़क पर चल रहे थे। इस कारण हम उससे पीछे रह जाते।
इस तरह मिट्ठू मियां से रेस लगाते हुए हम जैसे ही शामगढ़ से चंदवासा पहुंचे मिट्ठू मिया ने उड़ते-उड़ते ही कहा, “मालिक! मुझे धर्मराजेश्वर का अद्भुत मंदिर दिखाई दे रहा है।”
मैंने मिट्ठू मियां को बुलाकर उसे कैमरा पकड़ा दिया। वह ड्रोन कैमरे की तरह कैमरा लेकर उड़ पड़ा। जैसे हम धमनार पहुंचे वैसे ही धर्मराजेश्वर मंदिर को देखकर चकित रह गए।
चंदन गिरी की पहाड़ियों की एक चट्टान को तराश कर यह शिव मंदिर बनाया गया था। इस मंदिर को 104 गुणा 67 फीट लंबाई-चौड़ाई और 30 मीटर की गहराई को एक चट्टान को तराश कर यानी खोद कर बनाया गया था। यह दृश्य ऊंचाई से बहुत अद्भुत लग रहा था।
किसी चट्टान को ऊपर से तराश कर खोदते जाना, साथ ही उसे मुख्य मंदिर के साथ साथ-साथ सात लघु मंदिर की शक्ल में उभारना, अद्भुत कला कौशल का काम है। इस तरह एक चट्टान को तराश कर बनाए जाने वाले मंदिर या गुफा को शैल उत्कीर्ण शैली या शैल वास्तुकला कहते हैं। यह बहुत ही वैज्ञानिक और बुद्धिमत्ता का काम है।
मिट्ठू मियां इस मंदिर के ऊपर उड़ते हुए बोला, “वाह! यह मंदिर एलोरा के कैलाश मंदिर की तरह तराश कर बनाया गया अद्भुत मंदिर है।”
तब अचानक मेरे मुंह से निकल गया, “इस मंदिर व एलोरा के कैलाश मंदिर में कुछ तो अंतर होगा?” मेरे यह कहते ही मिट्ठू मियां एक शिलालेख के पास पहुंच गया।
वहां पर जो शिलालेख उत्कीर्ण था, उससे पता चला कि एलोरा का कैलाश मंदिर दक्षिण भारतीय द्रविड़ शैली से निर्मित वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। वही दशपुर का धर्मराजेश्वर का यह शिव मंदिर उत्तर भारतीय नागरी शैली का उत्कृष्ट नमूना है। दोनों ही मंदिरों में बारीक पच्चीकारी, भित्ति चित्र, भित्ति पर उकेरी गई मूर्तियां तथा द्वार मंडप, सभा मंडप, अर्धमंडप, गर्भगृह, कलात्मक शिखर, मुख्य द्वार पर निर्मित भैरव व भवानी की प्रतिमा के अद्भुत दर्शन होते हैं।
अरावली की पहाड़ियों के पास स्थित चंदन गिरी की पहाड़ियों पर यत्र तत्र बिखरी पड़ी इन भारतीय संस्कृति की विरासत और अद्भुत वास्तुकला के नमूनों को देखकर हम चकित थे। तभी मिट्ठू मियां ने हमें चेताया, “मलिक, इस मंदिर को ही देखते रहोगे या यहां की बौद्ध धर्म की अद्भुत गुफाओं के भी दर्शन करोगे।”
समय तेजी से भाग रहा था। मैंने कहा, “क्यों नहीं।” यह कहते हुए हम मंदिर से झट से बाहर निकलें। इंडियन रॉक कट आर्किटेक्चर के अद्भुत नमूने की गुफाएं देखने चल दिए।
जैसे ही टिकट लेकर हम अंदर गए वैसे ही मिट्ठू मिया ने हमें उस अद्भुत तथ्य से मुझे अवगत करा दिया। जिसकी जानकारी हमें नहीं थी।
“मालिक! एलोरा में 34 गुफाएं हैं। जिसने 5 जैन गुफाएं, 12 बौद्ध गुफाएं और 17 हिन्दू गुफाएं उल्लेखित हैं। इस तरह 34 गुफाएं बनी हुई है। मगर यहां तो 51 गुफाएं तो संरक्षित की गई है।”
“वाह!” मेरे साथ-साथ सभी ने कहा, “इसका मतलब यहां एलोरा और अजंता से ज्यादा गुफाएं बनी हुई हैं।” यह कहते हुए मैं एक गुफा के अंदर घुसा। वहां सभा मंडप, चैत्य, विहार आदि अनेक कक्ष व प्रार्थना स्थल बने हुए थे। इसके साथ अनेक कक्ष निर्मित थे। जिनमें प्राचीन समय की व्यापारी, बौद्ध भिक्षु आदि आहार-विहार के साथ देश विदेश में धर्म का प्रचार व शिक्षा-दीक्षा का कार्य किया करते थे।
इसके साथ साथ हमने अनेक गुफाओं के दर्शन किए।
चूंकि समय ज्यादा हो गया था, यह स्थान चंबल अभ्यारण्य के अंतर्गत आता है, यहां खाने-पीने व ठहरने के लिए कोई उत्तम व्यवस्था नहीं है। अतः हमें शीघ्र वापस लौट जाना पड़ा।
मगर वापस लौटते-लौटते मिट्ठू मियां ने एक अद्भुत दृश्य हमारे कैमरे में कैद करवा दिया। जिसके द्वारा हमें मालूम हुआ कि यहां तो 235 से अधिक गुफाएं बनी हुई है। मगर समय के थपेड़े व दसवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म के लोप हो जाने की वजह से ये सभी गुफाएं जंगली जानवरों की शरण स्थली बन गई थी। इस कारण कई स्थानों पर इस तरह बनी हुई गुफाओं को बाघ गुफाएं कहते हैं।
यह याद करते हुए मिट्ठू मियां हम वापस अपने घर लौट पड़े। मगर इस बार की हमारे यात्रा बहुत अद्भुत व यादगार रही थी। हमारे साथ-साथ मिट्ठू मियां और हम सभी बहुत खुश थे। कारण, सभी की गर्मी की छुट्टियाँ बहुत ही आनंददायक पर्यटन की सैर के साथ बीती थीं।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 162 ☆
☆ बाल कविता – सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’☆
आमच्या छकुलीचा १० वा वाढदिवस झाला परवा. हां हां म्हणता छकुली दहा वर्षाची झाली. काल परवा पर्यंत पिटुकली, सोनुकली होती… मलाच मी खूप मोठा झालो आहे, असं वाटलं, वयानंही आणि विचारानंही. त्यालाही दोन कारणं होती. गेल्या दहा वर्षात मुलांबरोबर त्यांच्याच वयाचे होऊन खेळता खेळता काळ कसा सरला कळलंच नाही. मुलं मोठी होत होती, आम्ही ही एक एक नवीन अनुभव घेत मोठे झालो.
दुसरं म्हणजे मला आणि नंदिताला , माझ्या पत्नीला, गेल्या दोन महिन्यात एका वेगळ्याच प्रसंगाला सामोरे जावे लागले. नवीन वर्षाची सुरुवात झाली तीच टेन्शनमध्ये. आईची तब्येतीची तक्रार होती म्हणून चेकअप साठी हाॅस्पिटलमध्ये गेली आणि पाच वर्षांपूर्वी झालेल्या ह्रदयाच्या शस्त्रक्रियेनंतर परत तेच दुखणं, आजारपण समोर ठाकलं . तिच्या ह्रदयावर परत शस्त्रक्रिया करणे गरजेचे होते. तीही ताबडतोब.
मनात खूप गोंधळ माजला. वैद्यकीय शस्त्रक्रिया, उपचार याबाबतीत नेहमीच उलटसुलट मते असतात. चहू बाजूंनी लोक अनेक सल्ले देत असतात. खूपदा सर्वच वास्तवात आणणे शक्य नसते. त्यामुळे गोंधळ, साशंकता निर्माण होते. मुख्य म्हणजे सल्ले द्यायला लोक एका पायावर तयार असतात. प्रत्यक्ष वेळ येते तेव्हा कोणीही जवळ नसतो. जवळचेही सोबतीला नसतात. हा सर्वसामान्य दुनियादारीचा अनुभव आम्हालाही आला.
मी आणि नंदितानं सगळा धीर एकवटला. आल्या प्रसंगाला सामोरे जाण्याची मनाची तयारी केली.
शस्त्रक्रियेची तारीख ठरली. मन धास्तावलं होतंच. त्याला कारणही तसंच होतं.आईचं वय, नाजुक तब्येत, दुस-यांदा शस्त्रक्रिया. एकीकडे काळजी, जबाबदारी, तर दुसरीकडे अॅडमिट करण्याचे सोपस्कार.
माझ्या ऑफिसचे माझे सहकारी सतत माझ्याबरोबर होते. रक्तपुरवठ्याची जुजबी तयारी केली होती. पण आदल्या दिवशी अठरा रक्तबाटल्यांची सोय करण्याची सूचना हाॅस्पिटलमधून देण्यात आली आणि पळापळ सुरू झाली. फोनवरून एकमेकांना निरोप सुरू झाले.
तासाभरातच चार तरूणांचा ग्रुप आला मला शोधत, ” साहेब, रक्त द्यायला आलोय.”
हाॅस्पिटलमध्ये फाॅर्म भरून रक्त घेण्याचे काम सुरू झाले. त्या चौघांचं संपता संपता आणखी दोघं आले. पाठोपाठ एका गाडीतून सहा जणांचा ग्रूप आला. सर्व जण फाॅर्म भरत होते, रक्त देत होते. मी आणि नंदिता अक्षरशः अवाक् झालो. आम्ही या शहरात नवीन होतो. रोजच्या संपर्कात येणा-यांशिवाय इतरत्र ओळखी करायला वेळच नव्हता. पण अनोळखी असूनही स्वयंस्फूर्तीनं स्वतःचं रक्त देणं, तेही कसलाही मोबदला न घेता. त्या फाॅर्म भरून घेणा-या नर्सताई मला तिथूनच हात हलवून सांगत होत्या, don’t worry, everything will be good! त्यांच्या डोळ्यांतही तेच भाव होते. मुलं घरी असल्याने नंदिता घरी चालली होती. जाताना त्या नर्सताईंना सांगायला गेली. तेव्हा त्या ” काळजी करू नका, सर्व ठीक होईल ” असं म्हणाल्या. कठीण परिस्थितीत ह्या एका शब्दाचा केव्हढा आधार वाटतो.
ज्या हाॅस्पिटलमध्ये आठ-दहा लाखांची बिलं आधी भरल्याशिवाय इलाज, उपचार सुरू होत नव्हते, तिथेच माणुसकीची ही श्रीमंती अनुभवली. शिवाय जाताना प्रत्येक जण प्रेमानं, आपुलकीनं आणि थोड्याशा प्रेमळ हक्कानं सांगत होते, ” काहीही, कसलीही गरज लागली तर लगेच फोन करा, फोन नंबर दिलाय. आम्ही आहोतच. ” जवळ जवळ रात्री १२ पर्यंत लोक रक्त द्यायला येत होते. गरजेपेक्षा जास्तच रक्त उपलब्ध झालं.
गेले चार-सहा तास हे चालू होते. मी झपाटल्यासारखा दिग्मूढ झालो होतो. जणू काही रक्तदानाचा एक सोहळा घडत होता. सगळे वातावरण परमेश्वराच्या अस्तित्वाची प्रचीती देत होते.
उद्या आईचं ऑपरेशन. पापणी मिटत नव्हती. मनात देवाचा धावा सुरू होता. नंदितानं देवाजवळ अखंड दिवा लावला होता. आम्हां दोघांना जाणवलं, ह्या सर्व मित्रांच्या रूपात ( हो, आता ते अनोळखी नव्हते, मित्र होते) देवच आमच्या बरोबर आहे.
दुसरे दिवशी ऑपरेशन व्यवस्थित झालं. डाॅक्टरनी बाहेर येऊन सांगितलं तेव्हा चार वाजले होते. दुपारनंतर अनेक रक्तदात्यांचे फोन आले आईची चौकशी करायला. आठ दहा दिवस झाले, आईची तब्ब्येतही दिवसागणिक सुधारू लागली. आईसारखा positive minded पेशंट लवकर बरा होतो. पंधरा दिवसांनी ती घरी आली.
मित्रांचे, त्या रक्तदात्यांचे आभार कसे मानू? त्यांची नावे माहीत नाहीत फक्त फोन नंबर आहेत माझ्याकडे. सर्वांना फोन करून छकुलीच्या वाढदिवसाच्या निमित्ताने बोलावले. छकुलीचे दोस्त होतेच, आमचे शेजारी, माझे ऑफिस सहकारी बोलवले होते. नर्सताईंना बोलवायला मी हाॅस्पिटलमध्ये गेलो पण त्या भेटल्या नाहीत. काऊंटरवर निरोप ठेवला. पण तो स्टाफ ” मी कोणाबद्दल बोलतोय?” अशा संभ्रमात दिसला.
फूल ना फुलाची पाकळी म्हणून सर्वांना छोटीशी सस्नेह भेट दिली. सगळ्यांना Thank you म्हणताना माझ्या मनात एक विचार होता, इतक्या निस्वार्थी आणि निरपेक्षतेने दिलेल्या मदतीच्या ऋणातून आम्ही मुक्त होऊ का? नर्स ताई आल्या. मला खूपच बरं वाटलं. आईची सगळ्यांशी ओळख करून दिली. नर्स ताईंची ओळख करून देणार होतो, पण त्या तिथे खुर्चीवर दिसल्या नाहीत.
हळूहळू सर्व लोक परतू लागले. त्यांना निरोप देता देता मी नर्सताईंना शोधत होतो. तिथे बसलेल्या एक दोघांना विचारले, त्या लाल साडी नेसलेल्या, आणि मोठ्ठं कुंकू लावलेल्या बाई गेल्या का? नंदिता पण त्या कुठे गेल्या म्हणून शोधू लागली. सेक्युरिटीला विचारले. त्यांना कळेना, कुठली लाल साडीवाली ताई? अशी कुणीच नव्हती. आम्हाला कळेना, कुठे गेल्या? त्यांनी फक्त गोड खीर खाल्याचे मी बघितले होते. पण माझ्याशिवाय आणि नंदिताशिवाय दुस-या कुणीच त्यांना बघितलेच नव्हते…असं कसं?
……
मनाला चुट्पुट लागली……
त्या बसल्या होत्या त्या खुर्चीवर आमच्या कुलदेवीचा फोटो आणि गुलाबाचं फूल होतं. ……
ते कसं तिथे आलं? त्यांना आमची कुलदेवी कशी माहीत? शेजारचे ८५ वर्षाचे आजोबा म्हणाले, “ अहो, तुमची देवीच आली असणार…. किती भाग्यवान आहात तुम्ही ! “
आम्ही निःशब्द…..
देवीनं दिलेला फोटो आणि फूल घेऊन घरी आलो. ऊर भरून आला होता देवासमोर हात जोडून दंडवत घातलं….