हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 39 ⇒ कृत्रिम बुद्धिमत्ता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कृत्रिम बुद्धिमत्ता।)  

? अभी अभी # 39 ⇒ कृत्रिम बुद्धिमत्ता? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हमने साधारण और असाधारण बुद्धि के लोग तो देखे थे, सामान्य और विशिष्ट की भी हमें पहचान थी, लेकिन असली और नकली की पहचान कहां इतनी आसान थी। जिसे आज आर्टिफिशियल कहा जाता है, हम कभी उसे बनावटी और कृत्रिम ही तो कहा करते थे। प्राकृतिक और सामान्य जीवन में तब कहां कृत्रिमता का स्थान होता था। गुरुदत्त ने कागज़ के फूल में यह भोगा है। असली फूल और शुद्ध जल का आज भी इंसाफ के मंदिर में कोई विकल्प नहीं है।

बनावटी हंसी, इमिटेशन के नाम पर आर्टिफिशियल ज्वेलरी, बनावटी चेहरे और बनावटी मुस्कान वैसे भी हमें एक कृत्रिम जीवन जीने को मजबूर कर रही है। ।

हमारी पीढ़ी किताबों से पढ़ी, पाठ्य पुस्तकों से पढ़ी, कुंजी, गैस पेपर, गाइड और नकल से नहीं। मेरे एक मित्र ने कॉलेज में अंग्रेजी विषय तो ले लिया, लेकिन अंग्रेजी में उसका हाथ तंग था। अच्छे खासे पहलवान थे, एक दिन हमें घेर लिया, आप कब फ्री हो, अंग्रेजी की इस किताब की गाइड नहीं छपी है, किसी दिन बैठकर इसे शुद्ध हिंदी में समझा दें। वे सबको शुद्ध हिंदी में ही समझाते थे, हमने भी उन्हें शुद्ध हिंदी में समझा दिया, वे परीक्षा की वैतरिणी अन्य कृत्रिम संसाधनों की सहायता से आखिर पार कर ही गए। वे आगे जाकर वकील बने और हम बैंक के बाबू ! इसे कहते हैं आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का कमाल।

हम कितने ओरिजनल थे कभी, औलाद नहीं हुई, नीम हकीम, मंदिर, मन्नत, ताबीज, गंडे, टोटके और व्रत उपवास क्या नहीं किए और अगर ईश्वर को मंजूर नहीं था, तो किसी बच्चे को गोद ले लिया, उसे अपने बच्चे जैसा प्यार दिया, लेकिन कभी कृत्रिम गर्भाधान और टेस्ट ट्यूब बेबी की ओर रुख नहीं किया। पहले यशोदा भी मां होती थी, आजकल सरोगेट मदर भी होने लग गई। ।

पहले बच्चे ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरुकुल जाते थे, गुरु सेवा करते थे, उनकी सेवा ही गुरु दक्षिणा होती थी, गुरु का गुण देखिए, गुरु गुड़ और सत्शिष्य शक्कर निकल आता था। कितने खुश होते हैं हमारे जीवन को संवारने वाले पुराने शिक्षक, जिनके ज्ञान के झरने में स्नान कर आज की पीढ़ी विश्व में उनका नाम रोशन कर रही है।

अंग्रेजी एक ऐसी भाषा है जो आपको आसानी से प्रभावित कर देती है। आर्टिफिशियल शब्द डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप और शाइनिंग इंडिया की तरह इतना प्रचलित हो गया है, कि इसके आगे सामान्य, नैसर्गिक, और असली शब्द बौने नजर आने लगे हैं। चार्ल्स शोभराज और नटवरलाल से लगाकर किंगफिशर तक, शुरू से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का ही तो राज रहा है। जब घी सीधी उंगली से नहीं निकलता, तो उंगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है। साइबर क्राइम का जमाना है, आर्डिनरी इंटेलिजेंस इनका कोई इलाज नहीं। ।

हमारे टीवी, मोबाइल, लैपटॉप और गूगल सर्च सब आर्टिफिकल इंटेलिजेंस ही तो है। संसार को आगे बढ़ना है, तो रोबोट को चौराहे पर खड़ा होना ही है। अ, आ, इ, ई और abcde सब आजकल a और i पर आकर रुक गए हैं। आज की दुनिया आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की दुनिया है, इसे कृत्रिम बुद्धिमत्ता कहकर जलील ना करें। कभी a कहीं का असिस्टेंट होता था, वह भी आजकल आर्टिफिशियल हो गया है। ।

बहुत ही जल्द विश्व का कोई विश्वविद्यालय जब मास्टर ऑफ एंटायर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की डिग्री प्रदान करेगा, तब विपक्ष के कलेजे में ठंडक पहुंचेगी। अगर हिम्मत है तो जाओ और चैलेंज करो एंटायर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की डिग्री को, यू आर्टिफिशियल देशभक्त और असली देशद्रोही विपक्ष। ।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 138 ☆ गीत: कोई अपना यहाँ… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  गीत: कोई अपना यहाँ)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 138 ☆ 

गीत: कोई अपना यहाँ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

मन विहग उड़ रहा,

खोजता फिर रहा.

काश! पाये कभी-

कोई अपना यहाँ??

*

साँस राधा हुई, आस मीरां हुई,

श्याम चाहा मगर, किसने पाया कहाँ?

चैन के पल चुके, नैन थककर झुके-

भोगता दिल रहा

सिर्फ तपना यहाँ…

*

जब उजाला मिला, साथ परछाईं थी.

जब अँधेरा घिरा, सँग तनहाई थी.

जो थे अपने जलाया, भुलाया तुरत-

बच न पाया कभी

कोई सपना यहाँ…

*

जिंदगी का सफर, ख़त्म-आरंभ हो.

दैव! करना दया, शेष ना दंभ हो.

बिंदु आगे बढ़े, सिंधु में जा मिले-

कैद कर ना सके,

कोई नपना यहाँ…

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२-५-२०१२, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्य की दुनिया ☆ प्रस्तुति – श्री कमलेश भारतीय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्य की दुनिया – श्री कमलेश भारतीय  🌹

(साहित्य की अपनी दुनिया है जिसका अपना ही जादू है। देश भर में अब कितने ही लिटरेरी फेस्टिवल / पुस्तक मेले / साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाने लगे हैं । यह बहुत ही स्वागत् योग्य है । हर सप्ताह आपको इन गतिविधियों की जानकारी देने की कोशिश ही है – साहित्य की दुनिया)

☆ मंटो और मोहन महर्षि की याद

यह सप्ताह प्रसिद्ध लेखक, फिल्म पटकथाकार और पत्रकार सआदत हसन मंटो और प्रसिद्ध रंगकर्मी मोहन महर्षि की याद में बीता। जहां मंटो का जन्मदिन था , वहीं मोहन महर्षि हमसे विदा हो गये। मंटो का जन्म समराला(पंजाब) के निकट हुआ और फिर उन्होंने मुम्बई में छह वर्ष बिताये और पाकिस्तान बनने पर भारत छोड़कर चले गये। अपने खुलेपन से लिखने के कारण अनेक मुकद्दमे और परेशानियां भी झेलीं लेकिन वे कहते थे कि क्या करूं, यह समाज ही अश्लील है और मेरी कहानियां इसी समाज से आती हैं। वैसे देश विभाजन का दर्द वे सह नहीं पाये थे और टोबा टेक सिंह जैसी मार्मिक कहानी लिखी थी और इसके नायक की तरह दो दी बार मंटो को भी मेंटल अस्पताल भर्ती होना पड़ा था। इस कहानी पर आधारित नाटक बहुत बार मंचित किया गया। इनके तीन बेटियां ही हैं जिन्हें कुछ वर्ष पूर्व पंजाब के समराला के निकट गांव में आमंत्रित कर सम्मानित किया गया था। मंटो की कहानियां और विभाजन पर इनकी लघुकथाएं कमाल की हैं।

जहां तक रंगकर्मी मोहन महर्षि की बात है वे मूल रूप से राजस्थान से थे लेकिन पंजाब विश्वविद्यालय के इंडियन थियेटर डिपार्टमेंट में उन्होंने न जाने कितने रंगकर्मियों को रंगकर्म में प्रशिक्षित किया। खुद भी फिल्म में काम किया। धर्मवीर भारती के खंड काव्य नाटक अंधा युग का मंचन भी अविस्मरणीय है। ऐसे रंगकर्मी का जाना बहुत बड़ी क्षति है। मंटो व मोहन महर्षि दोनों को नमन्।

बिलासपुर में बंसीराम शर्मा जयंती : हिमाचल के बिलासपुर में लेखक संघ द्वारा लोकसाहित्य के पुरोधा डाॅ बंशीधर शर्मा की जयंती के अवसर पर ऑनलाइन साहित्यिक संगोष्ठी आयोजित की गयी। इसमें डाॅ बंशीधर की किन्नौर लोक साहित्य , संस्कृति के क्षेत्र में किये गये कार्यों का उल्लेख किया गया। कार्यक्रम में बहुभाषी काव्य गोष्ठी भी आयोजित की गयी। एक जेबीटी शिक्षक से डाॅ बंशीधर  हिमाचल कला व संस्कृति अकादमी के सचिव पद तक पहुंचे। कार्यक्रम की अध्यक्षता डाॅ अनेक राम सांख्यान ने की जबकि संचालन रविंद्र कुमार आर्य ने किया।

प्रवासी रचनाकारों का काव्य संग्रह : गीतांजलि बहुभाषी साहित्यिक समुदाय की ओर से ऋषिकेश में ‘हरपल बसंत रचते हैं’ काव्य संग्रह का विमोचन किया गया। इस दो दिवसीय संगोष्ठी मे इसका लोकार्पण उत्तराखंड के राज्यपाल लेफ्टिनेंट कर्नल गुरमीत सिंह ने किया। पूर्व केंद्रीय शिक्षा मंत्री रहे रमेश कुमार पोखरियाल निशंक, डाॅ योगेन्द्र नाथ अरूण , डाॅ रजनीश शुक्ल ने इसकी भूरि भूरि प्रशंसा की। इस संकलन की परिकल्पना डाॅ कृष्ण कुमार ने की जबकि संपादन डाॅ रश्मि खुराना ने किया है। काव्य संकलन में इंग्लैंड में रह रहे 29 कवियों की रचनायें संकलित हैं। डाॅ रश्मि खुराना को बधाई।

सतीश कश्यप का नया स्वांग कृष्णा : हरियाणा के प्रसिद्ध लोककलाकार व रंगकर्मी डाॅ सतीश कश्यप को आप दादा लखमी फिल्म और काॅलेज कांड में नेगेटिव रोल में  देख चुके हो। वैसे वे स्वांग के लिये हरियाणा ही नहीं देश विदेश में जाने जाते हैं और अब उन्होंने नये स्वांग कृष्णा का मंचन किया है हिसार के राधाकृष्ण मंदिर में। सबसे बड़ी बात कि यह स्वांग संस्कृत में है। यह स्वांग गीता और ऋषभ गांधार पर आधारित हैं। स्वयं सतीश कश्यप इसमें कृष्ण की भूमिका में हैं जबकि कुलदीप खटक अर्जुन की भूमिका में हैं। पंडित प्रीतपाल ने इसका मधुर संगीत दिया है और सह निर्देशक हैं संगीत में नरेश सिंघल। नगाड़े पर राजेश हैं।

इनके अतिरिक्त संगीत में स्वर दिये हैं – विभोर, रोली भारद्वाज और संजना कश्यप ने। ये कृष्ण की गोपियों की भूमिका में भी रहीं ! इसकी अवधि एक घंटे की है। सतीश कश्यप को नये स्वांग के लिये बहुत बहुत बधाई।

साभार – श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क – 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी द्वारा साहित्य की दुनिया के कुछ समाचार एवं गतिविधियां आप सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का सामयिक एवं सकारात्मक प्रयास। विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सोबत (भुजंगप्रयात)… ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर☆

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सोबत (भुजंगप्रयात)… ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆

नको रे लपंडाव खेळू असा तू

नको भावनांना दुखावू असा तू

 

ढगाआड चंद्रासवे तारकांना

किती कष्ट होती तया शोधताना

 

किती घेतल्या आणभाका मिळोनी

अजूनी मनी ठेविल्या मी जपोनी

 

कुठे सर्व गेली तुझी प्रीतवचने

तुझ्यावीण माझे अधूरेच असणे

 

जळावीण मासा तडफडे जसा रे

विनासंग माझी तशी ही दशा रे

 

सदा मी जगावे तुझ्या सोबतीने

हसावे रडावे तुझ्या संगतीने

 

असू देत ध्यानी तुझी साउली मी

तुला साथ देणार दर पाउली मी

 

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ भाग्यरेषा… ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆

श्री सुहास सोहोनी

? कवितेचा उत्सव ?

🌳 भाग्यरेषा… 🌳 श्री सुहास सोहोनी ☆

ना पुष्प लगडले

कधीहि फांदीवर

मग यावे कैसे

मधूर फळ रुचकर

खरखरीत पाने

हिरवट मळकट  दिसती

खोडावर खवले

दृष्टीसही बोचती —

 

वृक्षांच्या गर्दित

मीहि एकला वृक्ष

सामान्य कुळातिल

करावया दुर्लक्ष

संगोपन होण्या

कधीच नव्हतो पात्र

मोजतो जन्मभरि

दिवस आणखी रात्र —

 

ना मिळे भव्यता

पिंपळ वटवृक्षाची

ना सुंदरता ती

कदंब वा बकुळीची

भरगच्च दाटि ना

फांद्यांवर पर्णांची

ना पिले खेळती

अंगावर पक्षांची —

 

परि भाग्य लाभले    

भरुन काढण्या उणे

अन् देवदयेने सुदैव

झाले दुणे

मन तृप्त होउनी

न्हाले संतोषात

मज जन्म लाभला

पवित्र देवराईत !! —

 

© सुहास सोहोनी

रत्नागिरी

दि. १९-०३-२०२३.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ शततंत्रवीणेचा सम्राट ☆ श्री मिलिंद रतकंठीवार ☆

?विविधा ?

☆ शततंत्रवीणेचा सम्राट ☆ श्री मिलिंद रतकंठीवार ☆

असे म्हणतात, कि संतूर हे वाद्य इराण आणि मेसोपोटेमिया या भूभागात विकसित झाले. परंतु जेंव्हा संतूर या शब्दाचा वेध घेतलाअसता, असे दिसून येते कि संतूर हा शब्द भारतीय लोकसंगीतात शततंत्रीवीणा या नावाने प्रचलित होता आणि अपभ्रंशाने त्याचे नाव संतूर म्हणून रूढ झाले.

अक्रोडाच्या झाडापासून तयार केलेले हे संगीत वाद्य सर्व साधारणपणे  समलंब चौकोनी आकाराचे असते.  या वाद्याची ओळख वैश्विक स्तरावर नेण्याचे श्रेय हे नि:संशय पंडित शिवकुमार शर्मा यांचेकडे जाते. पंडितजींची जन्मभूमी जम्मू काश्मीर आहे.. पण कर्मभूमी सारे विश्व आहे. आज त्यांची इहलोकाची यात्रा पुरी झाली. शिवकुमार शर्मा यांचे जसे संतूर वर प्रभुत्व आहे तसेच तबल्यावर देखील प्रभुत्व होते.

भारतीय शास्त्रीय संगीताचे धडे त्यांनी त्यांचे पिताश्री यांचेकडून गिरवले आणि शिवकुमार यांनी त्यांचे, गॉड गिफ्ट असलेले चिरंजीव राहुल यांना, तो वारसा प्रदान केला. शास्त्रीय संगीताच्या बाबतीत मी काही फार मोठा जाणकार नाही.. परंतु सिलसिला या चित्रपटातील गाणी आणि संगीत यांची भुरळ मला जी पडली, ती अमीट अशीच आहे. सिनेमातील सर्वच गाणी आगळी वेगळीच होती, त्यांना एक नवाच गंध होता. तेंव्हापासून सुरु झालेला हा सिलसिला रसिकांच्या मनात असाच आजन्म राहील हे निश्चित.

पंडित शिव ( कुमार शर्मा ) आणि हरी (प्रसाद चौरासिया ) या व्दयीला सिलसिला चित्रपटाने सिने संगीतकार म्हणून एक स्वतंत्र, विशेष असे स्थान, रसिकांच्या मनात मिळाले. तसे सिने संगीतकार म्हणून त्यांनी फार सिनेमांना संगीत दिले, अश्यातला भाग नाही. परंतु वरील सिनेमे वगळता व्ही शांताराम यांच्या “झनक झनक पायल बाजे” या चित्रपटात एका प्रसंगासाठी देखील त्यांनी पार्श्वसंगीत दिलेले होते.

शिवकुमार शर्मा , हरिप्रसादजी चौरासिया आणि गिटार वादक ब्रिजभूषण काबरा यांचे सह “कॉल ऑफ द व्हॅली” नामक अल्बम केला. त्याने शास्त्रीय संगीत विश्वात त्यांचे स्थान अढळ झाले. तत्पश्चात “व्हेन टाइम स्टुड स्टील”, “हिप्नॉटिक संतूर”, “ए सब्लाईम ट्रान्स”, “द ग्लोरी ऑफ स्ट्रिंग्ज”, “द फ्लो ऑफ टाइम” “द इनर पाथ” इत्यादी रसिकाला शाश्वतअनुभूती प्रदान करणारे, शुद्ध हिंदुस्थानी अल्बम रसिकांच्या भेटीला आले आणि पसंतीला उतरले. भारत सरकारने, त्यांच्या ह्या प्रतिभेची नोंद घेत राष्ट्रीय नागरी पुरस्कारांच्या क्रमवारीतील द्वितीय अर्थात पद्मविभूषण आणि चतुर्थ अर्थात पद्मश्री पुरस्कार देऊन त्यांचा यथोचित गौरव देखील केला.

अश्या यशस्वी विश्वमान्य संगीतकाराची भेट घेणे हे अशक्यप्राय होते. त्यांच्या पुणे भेटीचा कार्यक्रम असल्याचे कळताच मी पद्मश्री विजय घाटे यांचेशी संपर्क साधून त्यांची भेट निश्चित केली. पद्मश्री विजय घाटे यांचे देखील मी रेखाचित्र काढून त्यांची स्वाक्षरी मिळवली होती, तेंव्हापासून त्यांचा वरदहस्त मला सतत लाभत आहे.

एक मोठ्ठा कार्यक्रम, पुण्यात जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम येथे आयोजित केलेला होता. रसिकांच्या प्रचंड गर्दीत त्यांची भेट घेणे अशक्यच होते. मी आणि माझा मित्र सुनील दामले आम्ही दोघे कार्यक्रमाच्या स्थानी दाखल झालो. पोलिसांची एखाद दुसरी बाचाबाची वगळता आम्ही सुखरूप त्या अतिथी कक्षाच्या बाहेर पोहोचलो. पण तेथून सन्माननीय पद्मश्री विजय घाटे यांचेशी संपर्क होईना. थोड्या प्रतिक्षे पश्चात खुद्द पदमश्री विजय घाटेंचा निरोप आला तेंव्हा मात्र आमचा जीव जणू भांड्यातच पडला आणि आम्हाला कॅमेरा आणि रेखाचित्रासह आत जाण्याची अनुमती मिळाली. आम्ही अत्यंत विजयी चर्येने अतिथींच्या कक्षात पोहोचलो. मी दबकत दबकत, अंग चोरून एका कोपऱ्यात उभा होता. शिवकुमारजींनी मला त्यांचे शेजारी बसण्याची अनुमती खुणेने दिली… मी बिचकत बिचकत त्यांचे शेजारी बसलो. माननीय विजय घाटेंनी माझा परिचय एक आर्टिस्ट म्हणून करून दिला. एका आंतरराष्ट्रीय ख्यातीच्या पद्मश्रीने विभूषित असलेल्या कलाकाराने, माझा परिचय दुसऱ्या पदमश्री पदमविभूषण इत्यादी सन्मानाने विभूषित आंतरराष्ट्रीय ख्यातीच्या कलाकाराला करून दिला हे माझ्या दृष्टीने अत्यंत गौरवास्पद होते. मला ह्या प्रथितयश कलाकारांच्या सोबतीला बसण्याचे सद्भाग्य लाभले, हे अभिमानास्पदच होते.

पंडितजींचे व्यक्तिमत्व अत्यन्त लोभस असे होते.. काश्मिरी सौंदर्य, चकचकीत त्वचा, मार्दव स्वर, सभ्य, सुसंस्कृत,  संभाषण मला अतिशय भावले. पंडितजींच्या प्रस्तुतीकरणाला थोडा अवकाश होता आणि त्यामुळे मला अपेक्षेपेक्षा अधिक अवधी मिळणार होता.

मी पुनश्च माझा त्रोटक परिचय करून दिला.. छंदासंबंधी सांगताच,

” बहोत खूब.. ” असे म्हणून माझी पाठ थोपटली.

” कुछ परेशानी तो नही हुई ना ? “ त्यांनी विचारले..

त्यावर मी नकार दिला..

” फोटोग्राफर तो बहोत आते है, लेकिन ऐसा मौका वीरलाही मिलता है.. “ पंडितजी उत्तरले. मी काढलेले पोर्ट्रेट त्यांनी उंचावून बघितले. त्यांना ते पोर्ट्रेट आवडले.

” मेरे बाल बनानेमे कोई दिक्कत तो नही आई ना ? “ त्यांनी त्यांच्या वैशिष्ट्यपूर्ण केसांवरून हात फिरवीत विचारले.

त्यांनी माझ्या वर्मावर जणू बोट ठेवले. खरेच शिवकुमार शर्माजी, झाकीर हुसेन, एपीजे अब्दुल कलाम इत्यादींचा चेहेरा चितारणे तुलनात्मक दृष्ट्या एकवेळ सोप्पे पण त्यांची गुंतागुंतीची केश रचना पेन्सिलने रेखाटणे एक दिव्य मला वाटते.

” सर दिक्कत तो आई .. “ मी प्रांजळपणे बिचकत बिचकत म्हणालो.

त्यावर ते हसत म्हणाले, ” फिर भी आपकी कोशिश अच्छी रही… है ना घाटेजी ? “ त्यांनी माननीय विजय घाटे यांना उद्देशून विचारले. त्यांनी रेखाचित्रवर स्वाक्षरी केली.

त्यावर मी म्हटले,  “सर उनके बाल भी वैसे हि है.. “ यावर सगळे खो खो हसले. एवढी खेळीमेळीची भेट होईल हे मला कदापि वाटले नाही..

हि माणसे खरोखरच मोठी असतात, विनम्र असतात, पण बरेचदा चहापेक्षा किटली अधिक गरम असते असेही अनुभव येतात..

मी त्यांचे चरण स्पर्शिले.. आणि विजयी मुद्रेने बाहेर पडलो.

हा प्रसंग देखील माझ्या मनाच्या कप्प्यात कोरल्या गेला.. आज त्यांना श्रद्धांजली अर्पण करतांना हा प्रसंग आठवून डोळे पाणावतात..

© श्री मिलिंद रथकंठीवार

रेखाचित्रकार, पुणे.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ खिचडी – भाग – १  ☆ प्रा. बी. एन. चौधरी ☆

प्रा. बी. एन. चौधरी

(प्रा. बी. एन. चौधरी (लेखक / कवी / गझलकार / समिक्षक / व्यंगचित्रकार / पत्रकार) यांचे ई – अभिव्यक्ती समूहातर्फे स्वागत आणि या पुरस्काराबद्दल हार्दिक अभिनंदन.)

? जीवनरंग ?

☆ खिचडी – भाग – १  ☆ प्रा. बी. एन. चौधरी

(साहित्य संस्कृती मंडळ, बऱ्हाणपूर, म. प्र. आयोजित अ.भा. कमलबेन गुजराती मराठी कथा लेखन स्पर्धेतील प्रथम पुरस्कार प्राप्त कथा)—- 

प्रगती विद्यामंदिर विद्यार्थ्यांनी फुलून गेले होते. वर्गा वर्गात विद्यर्थ्यांचा चिवचिवाट सुरु होता. सकाळची शाळा भरुन बराच वेळ झाला होता. घड्याळात ९ वा ४० मिनिटं झाली. मधल्यासुटीची वेळ झाली, तशी शिपायाने दिर्घ बेल दिली. धरणाची दारं उघडावी आणि पाण्याची लाट बाहेर पडावी तसं मुलांनी क्रिडांगणाकडे धाव घेतली. शाळेत एकच गलका झाला.  

क्रिडांगणावर एका कोप-यात शालेय खिचडी वाटप सुरु होती. विद्यार्थ्यांनी रांगा लावून आपापल्या डब्यात, ताटलीत खिचडी घेतली. सारे खिचडी खायला रांगा करुन बसले. काहींनी घरुन जेवणाचा डबा आणला होता. ते एकमेकांशी वाटावाटी करुन जेवण करु लागले. खोड्या, मस्करी करत मुलांची अंगत पंगत रंगात आली होती. त्याच गर्दीत सातवीचा सुभाष कावरा बावरा होत चिमणीने दाणे टिपावे तसा खिचडीचे बारीक, बारीक घास तोंडात टाकत होता. मित्रांची नजर चुकवत त्याने कसंतरी जेवण उरकलं. डबा बंद केला. आणि तो हात धुवायला पाण्याच्या टाकीवर गेला. हात धुवन ते त्याने आपल्या चड्डीलाच पुसले. गुपचूप,  गुपचूप तो त्याच्या वर्गाकडे गेला. मुलांवर लक्ष ठेवून असलेल्या क्रिडाशिक्षक पाटील सरांच्या नजरेतून ही गोष्ट सुटली नाही. सारी मुलं आता कुठं जेवायला बसली असतांना सुभाषचं असं लवकर उठणं त्यांना संशयास्पद वाटलं. ते त्याच्या मागोमाग गेले.  सुभाष घाबरा घुबरा होत त्याच्या वर्गातून बाहेर पडत होता. पाटील सरांच्या मनात शंका आली. काही दिवसांपासून वर्गा वर्गातून मधल्या सुटीत मुलांच्या दप्तरातून पैसे, पेन, वस्तू चोरीला जात असल्याच्या तक्रारी वाढल्या होत्या. शाऴेतीलच कुणी विद्यार्थी हे काम करत असेल असा सर्व शिक्षकांचा कयास होता. ही गोष्ट पाटील सरांच्या लक्षात आली. ते सावध झाले. त्यांना असल्या भुरट्या चो-या कोण करत असावा याचा आता अंदाज आला होता. ते सुभाषवर बारकाईने लक्ष ठेवून एका कोप-यात थांबले.

सुभाष वर्गातून बाहेर पडला तेव्हा त्याच्या हातात एक कापडी पिशवी होती. तिच्यात त्याने काही लपवले होते. आपल्याला कुणी पहात नाही नं हे बघत तो शाळेच्या मेन गेट जवळ गेला. ते बंद होते. त्याने छोट्या गेटचं दार हळूच उघडलं आणि तो शाळेबाहेर पडला. पाटील सर त्याला न दिसता त्याचा पाठलाग करत होते. सुभाष शाळेबाहेर पडला तसा त्याने सुटकेचा निश्वास टाकला. पिशिवीकडे आनंदाने बघत, तिला छातीशी लावत त्याने धुम ठोकली.

पाटील सरांना त्याच्या सा-या हालचालींवरुन तोच ह्या छोट्या छट्या चो-या करत असावा याची खात्री पटली. त्याच्या पिशवित मुलांच्या चोरलेल्या वस्तू असतील असे त्यांना वाटले. सुभाषला रंगेहाथ पकडावं असा मनाशी निश्चय करुनच ते ही त्याच्या मागोमाग जावू लागले. सुभाषने आता वेग घेतला होता. त्याला जणू घबाडच हाती लागलं होतं. त्यात त्याला कुणीही बाहेर पडतांना पाहिलं नाही याचाही आनंद दडला होता. झपझप चालता चालता तो आता पळायला लागला. शाळेपासून निघून तो शिवाजी महाराजांच्या पुतळ्यापर्यंत पोहचला. मुख्य रस्ता ओलांडत त्याने नगरपालीकेकडे मार्चा वळविला. आणि आता तो नव्याने वसलेल्या संजय नगरच्या झोपडपट्टीकडे जावू लागला. त्याच्या पायांना गती आली होती. तो याच झोपडपट्टीत रहात होता.

पाटील सर मनातल्या मनात खुष होते. ते शाळेत चो-या करणारा चोर सापडल्याच्या आनंदात होते. सुभाषच्या पिशवित इतर मुलांच्या वस्तू, पैशे असतील अशी त्यांची खात्री झाली होती. त्याला रंगे हात पकडून त्याच्या पालकांकडे तक्रार करावी असा मानाशी विचार करत ते चालण्याचा वेग वाढवून चालत होते. त्यांना सुभाषची पार्वभूमी आठवली.

सुभाष हा संजयनगरच्या झोपडपट्टीत राहणा-या झेंडू हमालाचा मुलगा. झेंडूला दारु, गांजा, सट्ट्याचं व्यसन होतं. दिवसभर पोती वाहणं. गाडी लोटणं हे त्याचं कष्टाचं काम. कष्ट विसरण्यासाठी दारु आली. त्यात इतर व्यसनं व्यसनं लागली. त्याचा शेवट क्षय रोग होवून मृत्यूत झाला. त्याच्या  मागे त्याची बायको कमला गावात भंगार, रद्दी, प्लॅस्टिक गोळा करायची. नव-यामागे तिच्यावर संसाराचा भार आला होता. अशिक्षित, निराधार कमलाला संजयनगरवाले जुजबी मदत करत होते. आपल्या मुलानं शिकावं अशी तिची खूप इच्छा. म्हणून ती मुलाला नियमित शाळेत पाठवत होती. त्याला वह्या, पुस्तकं, इतर साहित्याची तजविज करत होती. वेळोवेळी शिक्षकांना भेटत होती. तोच हा सुभाष आज पाटील सरांच्या नजरेत चोर ठरला होता. सुभाष असे उपद्व्याप करेल याची त्यांना पुसटशीही अपेक्षा नव्हती. मात्र, गरीबी माणसाला काहीही करायला लावू शकते याची त्यांना कल्पना होती. या विचारात तेही संजयनगर पर्यंत पोहचले.

सुभाष आता त्याच्या खोपटा जवळ पोहचला होता. खोपटाचं दार बंद होतं. त्याची आई घरी नव्हती. ती  पहाटेच भंगार गोळा करायला निघून गेली असावी. त्याने बाहेर लावलेलं पत्र्याचं दार लोटलं….. आपल्या मागे कुणी नाही हे पहात तो घराचं दार उघडून आत गेला. पाटील सरही पत्र्याचं दार लोटून आत आले. तेथले वातावरण पाहून त्यांना सुभाषच्या गरीबीची खात्री पटली. तेथे पडलेल्या भंगार, प्लॅस्टीक, रद्दीच्या ढिगा-याची त्यांना किळस आली. त्यांनी खिश्यातून रुमाल काढत तो नाकाला लावला. त्यांची भिरभिरती नजर सुभाषला शोधत होती. तोच त्यांचं लक्ष आतल्या दाराकडे गेलं. तिथं सुभाष होता. तो आत काय करतोय हे पाहण्यासाठी त्यांनी  हळूच आत डोकावलं.

– क्रमशः भाग पहिला 

©  प्रा.बी.एन.चौधरी

संपर्क – देवरुप, नेताजी रोड, धरणगाव जि. जळगाव. ४२५१०५. (९४२३४९२५९३ /९८३४६१४००४)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “जागतिक मातृदिन —” ☆ श्री कचरू चांभारे ☆

श्री कचरू चांभारे

? मनमंजुषेतून ?

☆ “जागतिक मातृदिन —” ☆ श्री कचरू चांभारे ☆

दयादातृत्वाला जिथं सीमा नसते तिथे मातृत्व जन्माला येते….. 

 महिन्याचा दुसरा रविवार जागतिक स्तरावर मातृदिन म्हणून साजरा करण्यात येतो. आईसाठी एक दिवस या संकल्पनेतून अमेरिकेन राष्ट्राध्यक्ष वुड्रो विल्सन यांनी १९१४ पासून मातृदिनाची सुरुवात केली.त्यापूर्वी ॲना ही सामाजिक कार्यकर्ती आपल्या आईच्या ऋणाचा उतराई होण्याचा भाग म्हणून मातृदिन साजरा करत होती.पुढे हीच संकल्पना रूजली व जगभर पसरली.

आपल्या देशात ‘आई ‘ या भावनेला भावनिक व सांस्कृतिक असे द्विमितिय महत्व असले तरी प्रत्यक्षात आईपण चौफेर व्यापलेलं आहे.  शारीरिक व मानसिक अशा दोन्ही पातळीवर आईचे महत्व आहेच. निसर्गानं सजीवाला स्व-वंश चालविण्यासाठी व टिकविण्यासाठी मातृत्व ही देणगी दिलेली आहे. इतर सजीवांमध्ये फक्त जीव जन्माला घालणं व प्राथमिक स्वरूपाचं संगोपन करणं इथपर्यंतच मातृत्व मर्यादित आहे. याउलट मानवी समूहात जीवाचा जन्म व जन्माला आलेल्या जीवाचं संगोपन अन् सरतेशेवटपर्यंत संगोपन केलेल्या जीवाची काळजी वाहणं हा मातृत्वाचा तहहयात प्रवास आहे. म्हणून मानवी कुळात आई हे नारीचे शरीर नसून ,ती जन्मदात्रीप्रती आजन्म ऋण भावना आहे. कोणत्याही वयात असताना ,ठेचाळलं वा वेदनेने विव्हळणं आलं की मुखातून फक्त आई नामाचाच जयघोष होतो. कारण ‘ आई गं ‘ चा उच्चार हा वेदनेवरचं सर्वात शेवटचं औषध आहे.

बदलत्या काळात आईच्या पदरात बदल झाला असेल, आईच्या राहणीत बदल झाला असेल, काळजीही थोडी डिजिटल झाली असेल, पण आईचं काळीज आजही तेच परंपरागत मायेचं आहे. माता ही कधीच कुमाता नसते या आचंद्रसूर्य कालीन सुभाषिताला तडा देणा-या माता कधीच उदयाला येणार नाहीत .असं सुभाषितकाराचं स्वप्न होतं, पण अगदीच थोड्याफार मातांनी या सुभाषिताला छेद दिला आहे. अशा कुकर्मी मातांचं प्रमाण सागरातलं पसाभर पाणी  सडलेलं निघावं ,इतकं अल्प आहे.

सिंधुताई सपकाळ, संध्याताई /दत्ता बारगजे, दीपक नागरगोजे ,संतोष गर्जे असे कितीतरी समाजसेवक आहेत ,जे भावनिक मातृत्वाचे धनी आहेत. जन्म दिलेल्या बाळाचे संगोपन करणं हे नैसर्गिक मातृत्व आहे पण बहिष्कृत  व वंचित ,अनाथ बालकांचे मातृत्व निभावणं हे  दैवी भावनेतलं मातृत्व आहे. असं मातृत्व निभावण्याचं धाडस फारच कमी लोकांमध्ये असते. मातृ दिनी अशा नरदेही दैवी मानवांना शतदा वंदन करावे.

मातृत्व म्हणजे निर्मळ व निस्वार्थ माया. दया दातृत्वाचा किनारा नसलेला सागर म्हणजे वात्सल्य सिंधू सागर आई. अपार मायेचे दृश्य स्वरूप म्हणजे आई. लाभाच्या अंशाचा लवलेशही मनी न ठेवता,डोळ्यात वात्सल्य व उरात काळजीच्या लाटा पेलाव्यात ;त्या फक्त आईनेच. आई ही शिल्पकार म्हणून श्रेष्ठ आहेच, पण त्याहीपेक्षा ती उत्कृष्ट व्यवस्थापक व नियंत्रक सुद्धा असते. गर्भारपणात जपलेल्या जीवाशी तिची नाळ कधीच तुटत नाही. आईला आई हेच उपमान आहे. तिच्यासारखी तीच – अन्य नाही कोणी.

माझ्या आयुष्याची जडणघडण होताना आईच्या ममतेने मायाममता ,वात्सल्य ,प्रेम ,सहकार्य देणा-या माझ्या रक्तबंधनातील सर्व आप्तांचा ,आई, चुलती ,आत्या, इतर आप्तगण ,संसार रथाची भागीदार पत्नी,  मुली,समाजसेवी आदर्श कृपाछत्री गण, सुखदुःखातले वाटेकरी मित्र-मैत्रिणी, व्यावसायिक सहकारी, गुरूजन ,विद्यार्थी, सेवाभावी क्लबचा परिवार ,पाहिलेले न पाहिलेले असे  सकल मानवजन या सर्वांप्रती आजच्या या दिवशी मी कृतज्ञता व्यक्त करतो.

आपणा सर्वांस जागतिक मातृदिनाच्या हार्दिक शुभेच्छा. 

© श्री कचरू सूर्यभान चांभारे

संपर्क – मुख्याध्यापक, जि. प. प्रा. शाळा, मन्यारवाडी, ता. जि. बीड

मो – 9421384434 ईमेल –  [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “’एक्स्पायर’ व्हायच्या अगोदरच् ‘आऊटडेटेड’…” लेखक – श्री सचिन  लांडगे ☆ श्री सुनीत मुळे ☆

? मनमंजुषेतून ?

☆ “’एक्स्पायर’ व्हायच्या अगोदरच् ‘आऊटडेटेड’…” लेखक – श्री सचिन  लांडगे ☆ श्री सुनीत मुळे ☆

हळूहळू किती खर्च आपण वाढवून घेतलेत काही कल्पना आहे का? सकाळी उठल्यापासून.. “टूथपेस्ट में नमक” असायला पाहिजे, चारकोल असायला पाहिजे.. लवंग दालचिनी विलायची अजून काय काय टाकतील..! दात घासायचेत, का दातांना फोडणी द्यायचीय, काय माहिती !

आणि सगळ्याच टूथपेस्ट “डेंटिस्ट का सुझाया नंबर वन ब्रँड” असतात.. रातभर ढिशूंम ढिशूंम..

टूथब्रशच्या ब्रिसल्सवर जितके संशोधन झालेय तितके संशोधन ‘नासा’त तरी होतेय का नाही कुणास ठाऊक ! कोनेंकोनें तक पहुँचने चाहिए म्हणून मग आडवे तिडवे उभे सगळे प्रकार आहेत.. असोत बापडे.. पण त्या डेंटिस्टच्या गळ्यात स्टेथो का असतो, हे मला अजून समजलं नाही..!

आंघोळीचा साबण वेगळा, चेहरा धुवायचा वेगळा.. जेल वेगळं.. फेसवॉश वेगळं.. दूध, हल्दी, चंदन आणि बादामने अंघोळ तर क्लिओपत्राने पण केली नसेल, पण आता गरिबातली गरीब मुलगी पण सहज करतेय..

आधी शिकेकाईने पण काम भागायचं, मग शॅम्पू आला.. मग समजलं की, शॅम्पू के बाद कंडिशनर लगाना भी जरुरी हैं..

भिंतीला प्लास्टर करणं स्वस्त आहे, पण चेहऱ्याचा मेकअप फार महागात पडतो.. पण तो केलाच पाहिजे.. नाहीतर कॉन्फिडन्स लूज होतो म्हणे.. “दाग अच्छे हैं” हे इथं का नाही लागू होत काय माहिती.?!

मी “गॅस, नो गॅस” करत सगळे डिओ वापरून बघितले.. पण “टेढ़ा हैं, पर मेरा हैं” म्हणत एक पण पोरगी कधी जवळ आली नाही.. खरंच.. सीधी बात, नो बकवास..

केस सिल्की हवेत, चेहरा तजेलदार हवा, त्वचा मुलायम हवी, रंग गोरा हवा, आणि परफ्यूमचा सुगंधी दरवळ हवा बस्स.. बाकी शिक्षण, संस्कार, बॉडी लँग्वेज, हुशारी हे गेलं चुलीत..!

मला तर वाटतं, काही दिवसांतच सगळीकडे संतूर गर्ल, कॉम्प्लॅन बॉय, रॉकस्टार मॉम, आणि फेअर अँड हॅन्डसम डॅड दिसतील..

साबुनसे पण किटाणू ट्रान्सफर होतें हैं म्हणे..!!

(हे म्हणजे, कीटकनाशकालाच् कीड़े लागण्यासारखं आहे!)

आता, तुमचा साबण पण स्लो असतो.. मग काय.. धुवत रहा, धुवत रहा, धुवत रहा..

टॉयलेट धुवायचा हार्पिक वेगळा, बाथरूमसाठीचा वेगळा..! मग त्यात खुशबुदार वाटावं म्हणून ओडोनिल बसवणं आलंच.. जसं काय मुक्कामच करायचाय तिथे..

हाताने कपडे धुणार असाल तर वॉशिंग पावडर वेगळी, मशीनने धुणार असाल तर वेगळी.. नाहीतर, तुम्हारी महँगी वॉशिंग मशीन भी बकेट से ज्यादा कुछ नहीं, वगैरे…

आणि हो, कॉलर स्वच्छ करण्यासाठी वॅनिश तर पाहिजेच, आणि कपडे चमकविण्यासाठी “आया नया उजाला, चार बुंदोवाला”.. विसरून कसं चालेल..?

“अगं पण दुधातलं कॅल्शियम त्याला मिळतं का?” हा प्रश्न तर एकदम चक्रावून टाकणारा आहे..

म्हणजे आदिमानवापासून जे जे फक्त दूध पीत आलेत ते सगळे वेडे.. आणि त्यात हॉर्लिक्स मिसळणारेच तेवढे हुशार !! ह्यांनाच फक्त दुधातलं कॅल्शियम मिळतं..

… आणि वर, मुन्ने का हॉर्लिक्स अलग, मुन्ने की मम्मी का अलग, और मुन्ने के पापा का अलग…

“इसको लगा डाला, तो लाईफ़ झिंगालाला” म्हणून मी टाटा स्काय लावलं खरं.. पण ते एचडी नाहीये.. म्हणून मग मी घरात टिव्ही बघत असलो, की लगेच दार लावून घेतो.. न जाणो, कुठूनतरी पाच-सात पोरं नाचत येतील आणि “अंकल का टिव्ही डब्बा, अंकल का टिव्ही डब्बा”.. म्हणून माझ्या ४००००च्या टिव्हीला चक्क डब्बा करतील.. याची धास्तीच वाटते..

“पहले इस्तेमाल करो, फिर विश्वास करो”च्या जमान्यात आपणच खरे इस्तेमाल होतोय..  काल घेतलेल्या वस्तू, ‘एक्स्पायर’ व्हायच्या अगोदरच् ‘आऊटडेटेड’ होताहेत.. 

माणसांचंही तसंच आहे म्हणा…. असो..

लेखक : – डॉ सचिन लांडगे

प्रस्तुती : सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ १८ एप्रिल : जागतिक वारसा दिन… लेखक : श्री संजीव वेलणकर ☆ प्रस्तुती – डाॅ. शुभा गोखले ☆

डाॅ. शुभा गोखले

? इंद्रधनुष्य ?

१८ एप्रिल : जागतिक वारसा दिनलेखक : श्री संजीव वेलणकर ☆ प्रस्तुती – डाॅ. शुभा गोखले

आपल्या पूर्वजांनी आमच्यासाठी गुहा, मंदिरे, चर्च, स्मारके, किल्ले अशा अनेक गोष्टी ठेवल्या. त्यांच्या बद्दल आस्था निर्माण करण्यासाठी आणि पुरातनगोष्टी जतन व्हाव्यात यासाठी १८ एप्रिल हा ‘जागतिक वारसा दिन’ म्हणून साजरा केला जातो. संयुक्त राष्ट्रे शैक्षणिक, वैज्ञानिक आणि सांस्कृतिक संघटना (UNESCO) त्यांच्याकडून १९७२ मध्ये केलेल्या ठरावानुसार सांस्कृतिक अथवा निसर्ग वारसा यादी निश्चित केली जाते. सध्या जगातील १ हजार ३१ स्थळे या वारसा यादीत आहेत. 

जागतिक वारसास्थळांची सर्वाधिक संख्या इटली देशात आहे.ज्यात ५१ वारसा स्थळे आहेत. चीनमध्ये ४८, स्पेनमध्ये ४४ तर फ्रान्समध्ये ४१ आहेत. भारत ३२ वारसास्थळांसह सातव्या क्रमांकावर आहे. मेक्सिको ३३ व जर्मनी ४० स्थळांसह अनुक्रमे सहाव्या व पाचव्या स्थानांवर आहेत. आशियात चीन मध्ये सर्वात जास्त स्थळे आहेत. सिंगापूरकडे फक्त सात स्थळे असूनही ते आपल्यापेक्षा जास्त पर्यटक आकर्षित करतात. १९८३ मध्ये भारतातील दोनस्थळे सर्व प्रथम या यादीत समाविष्ट केली गेली. ती म्हणजे आग्र्याचा किल्ला व अजंठ्याच्या गुंफा. आता ३२ भारतीय स्थळे त्या यादीत आहेत. त्यापैकी २५ सांस्कृतिक वारसा स्थळे आहेत तर, ७ निसर्ग स्थळे आहेत. याशिवाय आणखी ५१ स्थळांचा प्रस्ताव भारताने युनेस्कोकडे पाठवला आहे. 

अमूल्य ठेवा वारसा स्थळे घोषित करण्यामागे त्या जागांचे संरक्षण व संवर्धन करणे व पुढच्या पिढ्यांपर्यंत हा अमूल्य वारसा सुपूर्द करणे हे उद्दिष्ट आहे. त्यातून पर्यटन वाढीला चालना मिळते. त्यातून रोजगार वाढतो. देशाला बहुमूल्य परकीय चलन प्राप्ती होते. या स्थळांना जागतिक पर्यटन नकाशावर जागा मिळवून देण्यासाठी प्रयत्न करणे आवश्यक आहे. जागतिक वारसा दिना निमित्ताने पुढील पिढी पर्यंत हा समृद्ध वारसा पोहोचवायचा असेल तर प्राचीन शिलालेख, मंदिरे, मूर्ती आणि शिल्पे यांना सरंक्षण मिळणे गरजेचे आहे.

लेखक : श्री संजीव वेलणकर

पुणे, मो. ९४२२३०१७३३, संदर्भ : इंटरनेट

संकलन : श्री मिलिंद पंडित

कल्याण

संग्राहिका :  डॉ. शुभा गोखले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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