हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 139 ☆ क्यों?… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  “क्यों?”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 139 ☆ 

☆ क्यों? ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

अघटित क्यों नित घटता हे प्रभु?

कैसे हो तुम पर विश्वास?

सज्जन क्यों पाते हैं त्रास?

अनाचार क्यों बढ़ता हे विभु?

कालजयी क्यों असत्-तिमिर है?

क्यों क्षणभंगुर सत्य प्रकाश?

क्यों बाँधे मोहों के पाश?

क्यों स्वार्थों हित श्वास-समर है?

क्यों माया की छाया भाती?

क्यों काया सज सजा लुभाती?

क्यों भाती है ठकुरसुहाती?

क्यों करते नित मन की बातें?

क्यों न सुन रहे जन की बातें?

क्यों पाते-दे मातें-घातें?

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

९-२-२०२२, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 46 ⇒ नून बिन सब सून… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नून बिन सब सून।)  

? अभी अभी # 46 ⇒ नून बिन सब सून? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आज का कान्वेंटी ज्ञान,नून को गुड आफ्टरनून वाला नून और सून को कम सून वाला सून भले ही समझ ले, लेकिन जिन्होंने मुंशी प्रेमचंद का नमक का दारोगा पढ़ा है,और जिन्हें गांधीजी के नमक सत्याग्रह की जानकारी है,वे नून तेल का महत्व अच्छी तरह से जानते हैं । सून भी सूना का ही अपभ्रंश है, नमक बिना भी कहीं इंदौर का नमकीन बना है ।

कहने को हमारे शरीर में सभी आवश्यक तत्व मौजूद हैं,लेकिन ज़िंदा रहने और स्वस्थ रहने के लिए हमें नमक का सहारा लेना ही पड़ता है । अधिक नमक के हानिकारक परिणामों से पूरी तरह से परिचित होते हुए भी हमारे जीवन में नमक का एक अहम स्थान है ।।

कल मेरा गला खराब हो गया था,मुंह से बोल नहीं निकल रहे थे । थोड़ा हल्दी नमक से गरारा किया,तो गला खुला । भोजन में अगर चुटकी भर नमक न हो,तो भोजन स्वादिष्ट नहीं बनता । जो पहले किसी का नमक खा लेते थे,वे नमक का कर्ज अदा करते थे । आजकल सिर्फ नमक की कीमत अदा करते हैं । सलीम जावेद पहले संवाद लेखक हुए हैं, जिन्होंने फिल्म शोले में गब्बर सिंह के मुख से एक स्वास्थ्य संबंधी संदेश इस तरह प्रसारित किया ;

सरदार ! मैंने आपका नमक खाया है ।
तो ले,अब, बीपी की, गोली खा ।।

इस धरती पर केवल इंसान ही ऐसा प्राणी है जो कपड़े पहनता है,और भोजन पकाकर खाता है । शेर जंगल का राजा है,फिर भी नंगा रहता है, और अपने हाथ से शिकार करता है,और बिना पकाए,नून तेल ,पुष्प ब्रांड मसाले बिना ही खा लेता है । कैसी डायनिंग टेबल और शाही थाली । जब कि एक आम आदमी सूट बूट पहनकर जेब में एक 500 का नोट रख बढ़िया सी होटल में शाही पनीर और बिरयानी खाकर मूंछ और पेट पर हाथ फेर लेता है । शेर फिर भी शेर है, और आदमी,बेचारा आदमी ।

आप चाहे किसी भी चीज का अचार डालो, अथवा ज़िन्दगी भर पापड़ बेलो, नून बिन सब सून । बिना तेल का, बिना मिर्ची का,अचार तो बन सकता है,लेकिन बिना नमक के नहीं । जिस तरह आज मुलायमसिंह की कहीं दाल नहीं गल रही, बिना नमक के कभी अचार भी नहीं गलता ।।

नमक तो नमक होता है,नमक से हड्डियां गलती भी हैं, और मजबूत भी होती है । आप किसी का भी नमक खाएं, कम ही खाएं । क्योंकि नमक का कर्ज भी अदा करना पड़ता है । आप मिर्ची तो खा भी सकते हो,और किसी को लगा भी सकते हो,लेकिन नमक किसी को नहीं लगाया जाता । जले पर नमक छिड़क ना हमें पसंद नहीं । हल्दी की रस्म तो सुनी है,कभी नमक की रस्म नहीं सुनी ।

वैसे खाने में नमक मिर्ची की जोड़ी भाई बहन की जोड़ी लगती है । सिका हुआ भुट्टा हो तो नमक, नींबू से काम चल जाता है । जाम और जामुन पर अगर नमक मिर्ची नहीं बुरकी हो,तो मज़ा नहीं आता । दही बड़ा तो गार्निश ही नमक मिर्ची और भुने हुए जीरे के साथ होता है ।।

नमक की महिमा जितनी मुंह में पानी लाती है, मात्रा बढ़ जाने पर आजकल बी पी भी उतना ही बढ़ाती है । स्वास्थ्य के रखवाले,नमक के पीछे हाथ धोकर पड़ गए हैं । आयोडीन गया भाड़ में,अगर स्वस्थ रहना हो,तो सेंधा नमक का ही सेवन करें ।

मुझे याद है,खड़े नमक और खड़ी मिर्ची से मां मेरी नज़र उतारा करती थी । तब घरों में सिगड़ी हुआ करती थी । अंगारों पर जब नमक मिर्ची डाली जाती थी,तब अगर मिर्ची की धांस नहीं आई,मतलब नज़र लगी है,और अगर मिर्ची की धांस है,तो नज़र नहीं । जब से मां गई है,मुझे किसी की नजर ही नहीं लगी । मॉम बिन सब सून ।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “तू रात सुहानी…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ कविता ☆ “तू रात सुहानी…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

सदियों से चलकर

रूह से गुजरकर

चली लंबी ये कहानी

मै जलता दिन, तू रात सुहानी….

 

गलियों से गुजरकर

खिड़की से झांककर

खेले मुझसे वो दीवानी

मै जलता दिन, तू रात सुहानी….

 

कभी..न मिलकर

मिलके भी..मिटकर

सपनों में समझाती कहानी

मै जलता दिन, तू रात सुहानी….

 

फिर मैं भी थककर

गुजरु भीड़ में खोकर

दिखे इक चेहरा नूरानी

मै जलता दिन, तू रात सुहानी….

 

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्य की दुनिया ☆ प्रस्तुति – श्री कमलेश भारतीय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्य की दुनिया – श्री कमलेश भारतीय  🌹

(साहित्य की अपनी दुनिया है जिसका अपना ही जादू है। देश भर में अब कितने ही लिटरेरी फेस्टिवल / पुस्तक मेले / साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाने लगे हैं । यह बहुत ही स्वागत् योग्य है । हर सप्ताह आपको इन गतिविधियों की जानकारी देने की कोशिश ही है – साहित्य की दुनिया)

सपना चौधरी ने कान में हरियाणा का बढ़ाया गौरव ☆

सपना चौधरी को कान फिल्म फेस्टिवल में आमंत्रित किये जाने से हरियाणा का गौरव बढ़ गया, इसमें कोई शक नहीं। बेशक साधारण ठुमके लगाते लगाते सपना असाधारण बनती चली गयी। मामूली वीडियोज से सपना को टीवी चैनलों के न्यौते आने लगे खासकर होली के अवसर पर! फिर वह बिग बाॅस तक पहुंची। इस तरह अब सपना कान तक पहुंच गयी! सपना को अपने पिता के निधन के बाद डांस ही एक सहारा लगा जिससे वह अपने परिवार की कमाऊ बेटी बन गयी। बीच में एक गाने के विवाद में उसे पीजीआई, रोहतक दाखिल करवाना पड़ा और वह कुछ समय डिप्रेशन में रही लेकिन फिर हिम्मत बटोरकर डांस शोज करने लगी और तब से पीछे मुड़कर नहीं देखा। वैसे राजनीति में भी कदम रखने की कोशिश की और एक ही दिन में कभी प्रियंका चौधरी तो कभी मनोज तिवारी के साथ दिखी। राजनीति सपना को रास नहीं आई और वह अपनी ही दुनिया में फिर से मस्त हो गयी! सपना की हिम्मत और संघर्ष को सलाम!

रेणु हुसैन के काव्य संग्रह का विमोचन : प्रसिद्ध कवयित्री रेणु हुसैन के नवप्रकाशित काव्य संग्रह ‘घर की औरतें और चांद’ का विमोचन नयी दिल्ली के साहित्य अकादमी के रवींद्र सभागार में आयोजित किया गया। भारतीय ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक व प्रसिद्ध रचनाकार लीलाधर मंडलोई ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की तो प्रसिद्ध कवि लक्ष्मी शंकर वाजपेयी मुख्यातिथि रहे। इनके अतिरिक्त नरेश शांडिल्य, सुमन केशरी, अनिल जोशी, कमलेश भारतीय, सागर स्यालकोटी आदि ने काव्य संग्रह पर अपने विचार रखे और शुभकामनायें दीं। ममता किरण ने संचलन किया जबकि प्रारम्भ में रेणु हुसैन ने अपनी रचना प्रक्रिया के साथ साथ कुछ चुनिंदा कविताओं का पाठ किया। अनेक साहित्यकार मौजूद रहे।

केहर शरीफ का जाना : पंजाब के बलाचौर के अपने पुराने मित्र और पिछले लम्बे समय से जर्मनी में बसे केहर शरीफ हमारे बीच नहीं रहे। बीमारी के चलते इन्हें जर्मनी के अस्पताल में दाखिल किया गया था लेकिन कुछ काम न आया। पंजाबी पत्रकारिता, अनुवाद और वामपंथी विचारक के रूप में केहर शरीफ की पहचान बनी हुई थी। विदेश में रहते भी उनके आलेख पंजाबी समाचारपत्रों में आते रहते थे। अलविदा केहर शरीफ!

सदीनामा का प्रवासी साहित्य विशेषांक : जीतेंद्र जीतांशु और मीनाक्षी सांगानेरिया के संपादन में सदानीरा पत्रिका का प्रवासी साहित्य विशेषांक प्रकाशित किया गया हे। इसका विमोचन भारतीय भाषा परिषद, कोलकात्ता में किया गया। सीमित साधनों में भी इस विशेषांक को निकलने पर बधाई।

साभार – श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क – 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी द्वारा साहित्य की दुनिया के कुछ समाचार एवं गतिविधियां आप सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का सामयिक एवं सकारात्मक प्रयास। विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ भिजलेले रक्ताश्रूंनी… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ भिजलेले रक्ताश्रूंनी… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

(अष्टाक्षरी)

              भिजलेले रक्ताश्रूंनी

              जन्म मातीत गाडले

              काय होते पेरलेले

              काय हे रे उगवले !

 

              दुभंगलो ज्यांच्यासाठी

              जन्म ठेवला तारण

              समशेरींनी त्यांच्याच

              कसे काळीज विंधले !

 

              ऐन वादळाच्या वेळी

              झाले पारखे किनारे

              अनायासे तूफानांशी

              थोडे मैत्रही जूळले  !

 

              घर बांधून पाठीशी

              दिशा धुंडाळल्या दाही

              वाट शून्याचीच होती

              किती पाय रक्ताळले !

 

              झाला बेसूर झंकार

              वेदनेच्या वीणेचाही

              बंधातून हौतात्म्याच्या

              केले दुःखास मोकळे !

 

              मुशाफिर सर्वत्राचा

              जिथे तिथे आगंतुक 

              नाही भूमीस भावलो

              नाही आकाश लाभले!

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पहाटें पहाटें… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

श्री रवींद्र सोनावणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पहाटें पहाटें… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

पहाटें पहाटें मला जाग आली,

तुझी याद ओल्या, सुगंधात न्हाली   ।।ध्रु।।

 

वरी लाल आरक्त प्राची नवेली,

कुणी मुग्ध ललना, जणू लाज ल्याली,

समिरातूनी रंग शिंपीत गेली    ।।१।।

 

जरी मध्यरात्री, तुझी साद आली,

परी मंचकी, मुक्त एकांत भाळी,

असें भास ह्रदयांस, या नित्य जाळी      ।।२।।

 

झुलावे फुलारुन, वाटें कळ्यांना,

परी मर्म याचे, तुला आकळेनां,

म्हणूनच रात्र ही, निःशब्द झाली   ।।३।।

 

© श्री रवींद्र सोनावणी

निवास :  G03, भूमिक दर्शन, गणेश मंदिर रोड, उमिया काॅम्पलेक्स, टिटवाळा पूर्व – ४२१६०५

मो. क्र.८८५०४६२९९३

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “अबोल झाली घरं…” ☆ प्रा.भारती जोगी ☆

? विविधा ?

☆ “अबोल झाली घरं…” ☆ प्रा.भारती जोगी ☆

आपण एखाद्या परिचित किंवा अपरिचित घरात पाय टाकला तर कोणता अनुभव यायला हवा? त्या घरातील माणसांनी किमान “या”  असं म्हणावं!पेलाभर पाणी द्यावं.अपरिचित असू तर कोण? कुठले? अशी साधी चौकशी करावी.बरं घर म्हंटल्यावर त्या घरातील माणसांच्या बोलण्याचा, हसण्याचा, मुलांच्या ओरडण्याचा, भांडणाचा आवाज तरी कानावर पडायला नको का? पण हल्ली घरात आवाज असतो तो दूरदर्शन चा. घरं कशी अबोल झाल्यासारखी वाटतात.घरात माणसं असून ही एक वेगळीच शांतता जाणवते.या शांततेला कुठला चेहरा आहे हेही अनाकलनीय असतं.मंदीराच्या गाभा-यात जाणवणारी शांतता, ध्यान विपश्यना अशा साधनेत अनुभवायला मिळणारी शांतता,प्रचंड दडपणाखाली निर्माण झालेली शांतता किंवा एखाद्या वनराईतून संथपणे वाहणा-या नदीकाठ ची शांतता या प्रत्येक प्रसंगात, क्षणात जाणवणा-या शांततेला तिचा स्वतःचा एक चेहरा आहे, हे आवर्जून जाणवतं. पण घरात माणसं असून ही निर्माण झालेली शांतता अनुभवतांना तिचा चेहरा एकदम अनोळखी वाटायला लागतो.

आठवणीतल्या घरातलं लहानपण आठवलं की एक गोष्ट लक्षात येते की     पूर्वी एकत्र कुटुंब पद्धती…त्यामुळेच घर कसं भरलेलं वाटायचं.मुलांची भांडणं झाली की आजी आजोबांचं कोर्ट! हट्ट पुरविणारे ही तेच! संध्याकाळी ” शुभं करोती ” म्हणजे मुलांच्या हजेरीची वेळ!संस्कृत मधील अनेक श्लोक, स्तोत्र पाठ करवून घ्यायची जबाबदारी आजोबांकडे.आणि गोष्ट सांगून मनोरंजन आजीकडे.सतत पाहुणे आणि येणा-या जाणा-यांचा राबता!त्यामुळे घरात माणसं असल्याचं जाणवायचं. घर चैतन्याचं आवार वाटायचं.आता अशी घरं आठवणीत गेलीत. पूर्वी घरात ‘आम्ही’ होतो, आता घरात ‘मी’  वास्तव्य करतांना दिसतो.’मी’  ‘मी’ मध्ये संवाद कसा होणार? गप्पा कशा रंगणार?

या ‘मी’ मुळे हल्ली शेजारधर्म ही उरला नाही. फ्लॅट पद्धतीत आपल्या आजूबाजूला, वर खाली घरं असली तरी त्या घरांचा आपल्या घराशी संपर्क नसतो. माणसांची सलगी नसते. नावही माहीत नसतात.फक्त जाता येता ओळख असल्याचं दाखवायचं… बळजबरीनं हसायचं. शेजारधर्म हा एकोपा वाढवणारा, सहकार्याची भावना जागवणारा असतो. नात्याची वीण घट्ट करणारा असतो. पण सा-याच घरात ‘मी’. मग दोष कुणाला द्यायचा?’मी ‘ आणि ‘मी’ चं मैत्र झालंयं का कधी?  ‘मी’ ला ‘आपण’ मध्ये विरघळून जायला हवं तेव्हाच मैत्र निर्माण होतं.  घर केवढं आहे याला महत्व नाही.फक्त त्यात माणसं असावीत.माणसा-माणसात आत्मीयता जिव्हाळा असावा. घरातून बाहेर गेलेल्याला घराची ओढ वाटावी.इतरांच्या सुखासाठी स्वतःतला ‘मी’ विरघळविण्याची सवय असावी. अशी माणसाला माणसांची ओढ, माणसाला घराची ओढ, घरांना घराची ओढ निर्माण झाली की ” हे विश्वचि माझे घर” म्हणणारा, ज्ञानोबा एखाद्या घरातून विश्वकल्याणाचं स्वप्न घेऊन बाहेर पडेल.कुणी सांगावं?

© प्रा.भारती जोगी

पुणे.

 फोन नंबर..९४२३९४१०२४.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ भाडेकरू… ☆ म. ना. दे. (श्री मयुरेश देशपांडे) ☆

? विविधा ?

☆ भाडेकरू… ☆ म. ना. दे. (श्री मयुरेश देशपांडे) 

“बरे झाले साठे काका तुम्ही फोन करून आलात, नाहीतर नेमके तुम्ही यायचे आणि आम्ही कुठेतरी बाहेर गेलेलो असायचो.” सुहासने साठे काकांचे अगदी हसून स्वागत गेले. त्यांना त्यांची आवडती आरामखूर्ची बसायला दिली.

“अगं मंजिरी पाणी आणतेस का? आणि हो चहा टाक साठे काकांसाठी, कमी साखरेचा बरं का.” आतल्या खोलीत कार्यालयातले काम घरी करत बसलेल्या मंजिरीला त्याने आवाज दिला.

“तसे महत्वाचेच काम होते, म्हणून फोन करून आलो होतो.” जरा स्थिरावल्यावर व पेलाभर पाणी पोटात गेल्यावर साठे काकांनी विषय काढला.

“अगं मंजिरी आधी चहा टाक, काका किती दिवसांनी आपल्या घरी आले आहेत.” साठे काका का आले असतील या विचारांत तिथेच उभ्या मंजिरीला त्याने जागे केले.

“थांब मंजिरी, मी जे सांगणार आहे ते तूही ऐकणे महत्वाचे आहे. तर बरं का सुहास, तुझ्या वडिलांनी शेवटच्या काळात माझ्याकडे एक पत्र दिले होते. ते गेल्यावर मी ते पत्र तुला वाचून दाखवावे अशी त्यांची इच्छा होती.”

काकांनी कुठल्याशा पत्राचा विषय काढताच सुहास आणि मंजिरी एकमेकांकडे प्रश्नार्थक नजरेने पाहू लागले.

“इतका विचार करायचे कारण नाही, हे काही मृत्यूपत्र नाही. त्यांना फक्त त्यांच्या मनातला विचार तुला सांगायचा होता. आधी तुझ्या नोकरीच्या धावपळीमुळे तर शेवटी दवाखान्यातल्या धावपळीमुळे त्याला तुझ्याशी नीटसे बोलता आले नव्हते. पण बहुधा त्याला त्याची वेळ जवळ आल्याचे आधीच कळाले असावे, म्हणून त्याने हे पत्र खूप आधी लिहून ठेवले होते. फक्त माझ्या हातात शेवटच्या काळात दिले.” आता साठे काकांनी दीर्घश्वास घेतला. त्यांच्या डोळ्यांच्या कडा पाणावल्या होत्या. त्यांनी आणखी घोटभर पाणी घेतले.

“काका असे काय आहे त्या पत्रात की जे त्यांना माझ्या जवळ किंवा मंजिरीच्या जवळ बोलता नाही आले.” सुहासच्या मनात नाना शंकांचे काहूर माजले होते. मंजिरी शांत असली तरी तिचीही अवस्था फार वेगळी नव्हती. एवढ्या वेळ उभ्या मंजिरीने पटकन भिंतीला टेकत खाली बसणे पसंत केले.

काकांनी सोबतच्या पिशवीमधून पत्र बाहेर काढले. कार्यालय सुटले तरी कार्यालयातील कामकाजाची पद्धत सुटली नव्हती. आणि म्हणूनच पत्र अगदी खाकी लिफाफ्यामध्ये वरती छान अक्षरात अगदी नाव तारीख घालून ठेवले होते. काकांनी आधी पत्र सुहासला दाखवले. वडिलांचे अक्षर त्याने सहज ओळखले. ते सुबक नक्षीदार असले तरी शेवटच्या काळात थरथरत्या हातांनी नक्षी थोडी बिघडली होती.

काकांनी पत्र वाचायला सुरूवात केली. वरचा मायना वाचला तसे सर्वांचेच डोळे पाणावले. अधिक वेळ न दवडता त्यांनी पुढचे वाचायला घेतले.

“मला कल्पना आहे की, या वाड्याची वास्तू पाडून ही जागा एखाद्या व्यावसायिक इमारत विकासकाला द्यायची तुझी इच्छा अनेक वर्षांपासून आहे. तू माझ्याकडे थेट विषय काढला नसलास तरी कधी ताई तर कधी मंजिरीच्या आडून तो माझ्या पर्यंत पोहचवत राहिलास. माझ्या पाठीमागे या वाड्यावर तुझा व बहिणीचा समसमान हक्क आहे हे मी वेगळे सांगायला नको.”

“पण काका मला यातले काहीच नको आहे. माझे घर केव्हाच झाले आहे. तुम्हा सर्वांच्या आशीर्वादाने गाठीला बक्कळ पैसाही आहे. ताईने हवे तेव्हा या वाड्याचा ताबा घ्यावा, मी हसत माझ्या घराकडे निघून जाईन.”, काकांचे पत्र वाचन मधेच तोडत सुहास तावातावाने बोलला. तसा त्याचा हात दाबत मंजिरीने त्याला शांत केले.

“अरे मला पत्र तर पूर्ण वाचू देत.”, असे म्हणत काकांनी पुढे पत्र वाचायला सुरूवात केली.

“माझ्या आजोबांपासूनचा म्हणजेच तुझ्या पणजोबांपासूनचा हा वाडा. इथे काही बिऱ्हाडे पिढ्यान् पिढ्या राहात आहेत. जशी तुझी माझी नाळ जुळली आहे तशीच या बिऱ्हाडांच्या पुढच्या पिढ्यांशी माझी नाळ जुळली आहे. तू जागा विकसकाला देताना ताईचा विचार घेशीलच याची खात्री आहे पण सोबत या बिऱ्हाडांचाही एकदा विचार घ्यावा एवढीच माझी विनंती आहे, त्यांची योग्य व्यवस्था करावी एवढीच माझी शेवटची इच्छा आहे.”

पुढची पत्राच्या समारोपाची वाक्ये वाचायची गरजच नव्हती. त्यांची पत्र लिहिण्याची पद्धत, त्यातली भाषा, सुरूवात व समारोप आताशी साऱ्यांच्या परिचयाचे झाले होते. काकांनी पत्र सुहासच्या हाती सुपूर्त केले. पुढची काही मिनिटे तो नुसताच पत्रावरून हात फिरवत होता. “मी आत जाऊन चहा टाकते.”, त्यांची तंद्री तोडत मंजिरी म्हणाली आणि झपझप आत गेलीही.

बाहेर फक्त साठे काका, सुहास आणि वडिलांचे पत्र राहिले होते.

वाडा तसा खरेच जुना होता. अनेक बिऱ्हाडे आधीच सोडून गेली होती. काही खोल्या वारसा हक्क राहावा म्हणून कुलुपे आणि जळमटांसह बंद होत्या. न मागता दर महिना खात्याला भाडे म्हणून नाममात्र रक्कम जमा होत होती. पण सुहासच्या चटकन लक्षात आले की ज्यांच्यासाठी वडिलांचा जीव अडला होता किंवा त्यांनी एवढा पत्र प्रपंच केला होता, ते जोशी मास्तर वाड्याच्या मागच्या अंगणातील खोल्यांमध्ये आपल्या पत्नीसह राहात होते. पंख फुटले तशी मुले केव्हाच उडून गेली होती. पाठीमागे दोन जीर्ण देहांसह जीर्ण घरटे राहिले होते.

त्यांची जुजबी व्यवस्था करून सुहासला हात काढता आले असते, किंबहुना विकसकाने तसे सुचविले देखील होते. ना जोशी मास्तरांमध्ये लढायची ताकद होती ना त्यांच्या बाजूने कोणी लढायला उभे राहिले असते. काही शिक्षक दुर्लक्षिले जातात हेच खरे.

विकसकाला जागा ताब्यात द्यायला अद्याप पुष्कळ वेळ होता. सुहासने जोशी मास्तरांच्या मुलांशी संपर्क करून पाहिला. अपेक्षेप्रमाणे समोरून काहीच प्रतिसाद आला नाही.आता मात्र एक वेगळीच कल्पना सुहासच्या मनात आली आणि ती त्याने आधी मंजिरीला मग ताईला बोलून दाखविली. साठे काकांना यातले काहीच सांगायचे नाही असे त्याने दोघींना बजावले होते. जोशी मास्तरांशी तो व मंजिरी स्वतः जाऊन बोलले. त्याची कल्पना ऐकून तर मास्तर ढसाढसा रडले.

इकडे साठे काका लांबूनच पण वाड्यात घडणाऱ्या घडामोडींवर लक्ष ठेवून होते. सुहास सामानाची बांधाबांध करीत असल्याचे त्यांच्या लक्षात आले. पण त्याने जोशी मास्तरांचे काय केले याचा काही थांग पत्ता लागत नव्हता. त्याला वडिलांच्या पत्राची आठवण करून द्यावी असे काकांना खूपदा वाटले, पण त्यांनी धीर धरला. एके दिवशी वाड्याच्या दारात ट्रक उभा असल्याचे त्यांना कोणाकडून तरी कळाले आणि हातातली सगळी कामे टाकून त्यांनी वाडा गाठला.

“अरे सुहास तू निघालास वाटतं. ते जोशी मास्तर कुठे दिसत नाहीत, त्यांचे काय ठरवले आहेस? तुझ्या वडिलांचे पत्र लक्षात आहे ना?” काहीसे रागात काहीसे नाराजीने पण एका दमात साठे काका बोलून गेले.

“ते तर पुढे गेले.”, ओठांवर हसू आलेले असतानाही कसेबसे ते दाबत सुहास थोडा कर्मठपणे बोलला.

“पुढे गेले म्हणजे? कुठे गेले?” साठे काकांचा पारा चढला.

“माझ्या घरी, माझे स्वागत करायला.” सुहासने अगदी संयमाने प्रतिउत्तर दिले.

“तुझ्या घरी म्हणजे? तू मला नीट सांगणार आहेस का? हे बघं तुझ्या वडिलांची अंतिम इच्छा होती की …” साठे काकांचे वाक्य पूर्ण होऊ न देताच सुहासने त्यांना वाड्याच्या पायऱ्यांवर बसवले.

“काका मी त्यांना दत्तक घेतले आहे. लोक मूल दत्तक घेतात तसे मी आई वडील दत्तक घेतले आहेत आणि आता अगदी शेवटपर्यंत मी त्यांचा संभाळ करणार आहे.” एखाद्या मुलाने वडिलांच्या खांद्यावर डोके ठेवावे तसे सुहासने साठे काकांच्या खांद्यावर डोके ठेवले आणि म्हणाला, “तसेही आई बाबांच्या पाठीमागे आम्हाला तरी आधार कोण आहे.” साठे काकांच्या डोळ्यांतून अश्रूधारा वाहात होत्या आणि आज त्या पुसायचे भानही त्यांना राहिले नव्हते.

लेखक : म. ना. दे.

(श्री होरापंडीत मयुरेश देशपांडे)

C\O श्री मंदार पुरी, पहिला मजला, दत्तप्रेरणा बिल्डिंग, शिंदे नगर जुनी सांगवी, पुणे ४११०२७

+९१ ८९७५३ १२०५९ 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ भिक्षेकरी ते कष्टकरी… भाग – १ ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

डॉ अभिजीत सोनवणे

© doctorforbeggars 

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☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ भिक्षेकरी ते कष्टकरी भाग – १ ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

१ . तीन वर्षांपूर्वी अत्यंत वाईट अवस्थेत रस्त्यात पडलेला एक मुलगा… सर्व ट्रीटमेंट देऊन त्याला पूर्ववत केले… तीन वर्षात एकदाही भेट झाली नाही आणि अचानक या महिन्यात एका मंगळवारी तो मला भेटला ते एका मोठ्या हॉटेलमधील शेफ म्हणून…! 

शाहरुखसारखा दिसणारा हा मुलगा, स्वतःच्या पायावर भक्कमपणे उभा आहे याचं कौतुक आहेच… पण त्याहीपेक्षा जास्त कौतुक वाटलं- जेव्हा तो म्हणाला, ‘लाचारीच्या दलदलीतून मी जरी बाहेर आलो असलो, तरी माझ्यासारखे अनेक जण अजूनही त्या दलदलीत फसले आहेत, मला त्यांना आता हात द्यायचा आहे ‘. 

— माझ्या कामात त्याला सक्रिय मदत करायची आहे… “घेता” हात आता “देता” झाला आहे, यापेक्षा दुसरा आनंद कोणता असू शकतो ? 

‘ सलामी ‘ या माझ्या लेखात याच्याविषयी सविस्तर लिहिले आहे. तो भेटला त्यादिवशी तारीख होती ११ एप्रिल. 

२. पूर्वी मुलीला सोबत घेऊन भीक मागायला येणारी एक तरुणी. सख्ख्या भावापेक्षा मला ती जास्त मान देते. याच नात्याचा उपयोग करून, तिचे समुपदेशन केले, मुलीचे भीक मागणे नुसते थांबवले नाही…. तर तिच्या शिक्षणाची संपूर्ण जबाबदारी सुध्दा आपणा सर्वांच्या सहकार्याने घेतली आहे…. आणि मला सांगायला अत्यंत आनंद होतोय की मुलगी आता दुसऱ्या वर्षात बॅचलर ऑफ बिझनेस ऍडमिनिस्ट्रेशन करत आहे. (BBA). पण मुलीला शिकायला परवानगी दिली, तरी “ती” स्वतः मात्र अजूनही भीकच मागत होती. उद्यापासून भीक मागणार नाही, काहीतरी काम शोधते… असं ती मला हसत तोंडदेखलं म्हणायची आणि परत परत भीक मागतानाच दिसायची. जगातली कोणतीही आई असो, तीला आपल्या मुलांच्या “जेवणाची” आणि संपूर्ण “जीवनाची” काळजी असतेच…! 

“मुलीचे लग्न” हा कोणत्याही आईच्या अत्यंत जिव्हाळ्याचा विषय… “ती” माझ्याशी जेव्हा जेव्हा बोलायची त्या वेळेला मुलीच्या लग्नाचा हा विषय बऱ्याचदा तिच्या बोलण्यात यायचा….!  एके दिवशी मी बरोबर तोच धागा पकडला….तिला म्हणालो, ‘ मुलगी तर आता शिकते आहे, उद्या शिकून ती मोठी होईल… दिसायला छान आहे, तिला  भविष्यात चांगली चांगली स्थळं येतील… पण मला सांग मुलगी कितीही चांगली असली, तरी “भिकाऱ्याच्या मुलीशी” एखादा चांगला मुलगा का लग्न करेल ? इतक्या चांगल्या मुलीचे तुझ्यासारखी भीक मागणाऱ्या एखाद्या मुलाशी लग्न लावून देणार आहेस का ? ‘ 

“भिकाऱ्याच्या मुलीशी” या शब्दांवर देता येईल तेवढा जोर दिला….!  हा घाव तीच्या वर्मी बसला… 

ती अंतर्मुख झाली… माझ्याशी काहीही न बोलता, खाली मान घालून तिथून ती निघून गेली. 

यानंतर कित्येक दिवस त्या ठिकाणी ती मला भीक मागताना दिसली नाही.  मला वाटलं, माझ्या “जाचामुळे” भीक मागण्याची जागा तिने बदलली असेल…

यानंतर, बऱ्याच दिवसांनी ती मला दिसली, त्यावेळी तिच्या पाठीवर भलं मोठं प्लास्टिकचं पांढरं पोतं होतं…

माझ्याजवळ येऊन ती म्हणाली, ‘तुमी म्हनाले व्हते ना ? भिकाऱ्याच्या पोरीसंगं कोन लगीन करंल ? बगा मी भीक मागायची सोडली… आता भंगार येचायचं काम करते… ते इकते…! आता हुईल ना माज्या पोरीचं लगीन ? आता कुनाची हिंमत हाय तिला भिकाऱ्याची पोरगी म्हनायची….?  सांगा….’

माझ्या डोळ्यात पाणी दाटलं… एक आई मुलांच्या भवितव्यासाठी…. ठरवलं तर काय काय करू शकते…. याचं हे  जिवंत उदाहरण…. ! भंगार वेचून ते विकायचं काम सुरूच ठेव, असा मी तिला सल्ला दिला. 

माझे ज्येष्ठ मित्र श्री सुनील नातु यांच्याशी बोलताना हा विषय सहज निघाला, या तरुणीला आणखी एखादा व्यवसाय टाकून द्यावा, या हेतूने त्यांनी विकण्यासाठी इंदोरवरून तिच्यासाठी उत्तम क्वालिटीची आर्टिफिशियल ज्वेलरी आणली. तारीख होती ११ एप्रिल. 

ज्वेलरी पाहताच ती म्हणाली, ‘भंगार गोळा करून झाल्यानंतर,  झोपडपट्टीत फिरून फिरून तीतल्या पोरीस्नी मी हे दागिने इकीन…’ 

… यानंतर कृतज्ञतेने नातु सरांचे पाय धरण्यासाठी ती वाकली…. नातु सरांच्याही डोळ्यात अश्रू उभे राहिले…! यानंतर ती माझ्या कानाशी आली आणि हळुच म्हणाली, ‘ यातलं एक कानातलं मला लय आवडलंय, मी घालून बगु का ? ‘ .. माझ्या कोणत्याही उत्तराची वाट न बघता, शेजारी उभ्या असलेल्या गाडीच्या काचेत पाहून, ते कानातलं घालून, ती स्वतःला निरखून निरखून पाहू लागली… जणू आजूबाजूला कुणीच नाही… अख्ख्या विश्वात “ती” एकटीच होती…! 

मी नातू सरांकडे पाहिले… ते माझ्याकडे बघून हसत होते…. त्यांच्या हातावर टाळी देत म्हणालो.. 

‘Sir, Women are Women…!‘ 

‘पटलं रे बाबा…’  म्हणत, त्यांनी टाळी स्वीकारली आणि आम्ही दोघेही हसत हसत तिथून सटकलो…!!! 

क्रमशः भाग पहिला

© डॉ अभिजित सोनवणे

डाॕक्टर फाॕर बेगर्स, सोहम ट्रस्ट, पुणे

मो : 9822267357  ईमेल :  [email protected],

वेबसाइट :  www.sohamtrust.com  

Facebook : SOHAM TRUST

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ “न्यूयॉर्क मँगो पल्प पार्टी” ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास सोहोनी ☆

श्री सुहास सोहोनी

? इंद्रधनुष्य ?

न्यूयॉर्क मँगो पल्प पार्टी ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास सोहोनी ☆ 

इतिहासात डोकावताना “न्यूयॉर्क मँगो पल्प पार्टी” बद्दल समजले ते असे —-

एकोणिसाव्या शतकाच्या सुरुवातीला आपल्या येथील काही होतकरू तरुणांनी अमेरिकेतील बाजारपेठेत आमरस निर्यात करायचा ठरवला होता. त्या लोकांसाठी नवीन असणारा हा पदार्थ तिकडे हातोहात खपेल आणि आपल्या पदरी चार पैसे पडतील अशी त्यांची अपेक्षा होती. आपल्या येथील तेव्हाची सुप्त बाजारपेठ आणि भरघोस येणारे आंबे बघता त्यांची अपेक्षा काही चुकीची नव्हती. त्याकाळी अमेरिकेत आपला  व्यवसाय स्थिरस्थावर करण्याच्या प्रयत्नात असणारे श्री. नानासाहेब जवळकर यांनी, त्या रसाचे वितरण अमेरिकेत करण्याची जबाबदारी स्वीकारली होती. भारतातून पाठवलेले आमरसाचे पिंप जेव्हा न्यूयॉर्क किनारी आले, तेव्हा खुद्द नानासाहेब त्यांची डिलिव्हरी घ्यायला गेले होते. तिथल्या कस्टम अधिकाऱ्यांनी त्यांना विचारलं “ हे काय आहे ? “ 

नानासाहेबांनी रसाची इत्यंभूत माहिती त्यांना दिली आणि त्याची चव घेण्याचा आग्रह केला. आमरस चाखल्यावर कस्टम अधिकारी विचारात पडले आणि नानासाहेबांना म्हणाले, “ हे प्रकरण भलतंच चविष्ट आहे आणि याचं व्यसन जर इतद्देशिय लोकांना लागले तर आमचे कष्टाचे डॉलर तुमच्या देशात जाऊन तुमची अर्थव्यवस्था उभारी घेईल. आमच्या देशाच्या हितासाठी हा रस इकडे विकायची परवानगी मी देऊ शकत नाही. मला माफ करा. “ नानासाहेबांनी बऱ्याच विनवण्या केल्या पण अधिकारी बधले नाहीत. त्यांनी आमरसाची सगळी पिंपं नाल्यात ओतून दिली. या घटनेला तिकडे  “न्यूयॉर्क मँगो पल्प पार्टी”  म्हणून ओळखले जाते. त्या घटनेचा फोटो आज मी इथे पोस्ट करत आहे. आमचे मित्र उद्योगभूषण यदुनाथ जवळकर यांचे नानासाहेब हे पणजोबा. त्यांच्याकडून आम्हाला ही घटना ज्ञात झाली.

संग्राहक : श्री सुहास सोहोनी

रत्नागिरी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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