(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता –“लय साधो… ”।)
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख ‘‘वक्त बताएगा’।)
☆ आलेख – वक्त बताएगा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
समूचे विश्व में पूरा समाज मुख्यतः दो वर्गों में विभक्त है। एक अमीर वर्ग दूसरा गरीब वर्ग। दूसरे वर्ग को अपना जीवन यापन करने के लिए पहले वर्ग के यहां दिहाड़ी करनी पड़ती है।
मजबूरी ने गरीबों की किस्मत की चाबी एक बार अमीरों को क्या पकड़ा दी वे उनसे मनमाफिक काम लेने लगे। मसलन कम दाम ज्यादा काम का फार्मूला फिट करने लगे। तरह तरह से उनका शोषण किया जाने लगा। उनका तन मन दोनों गिरवी रखा जाने लगा। क्रमशः यह अत्याचार की श्रेणी में तब्दील किया जाने लगा। विवशता जी का जंजाल बन गई।
मजदूरी करने के उपरांत भी पूरा नहीं पड़ा। घरेलू व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। असंतोष व्याप्त हो गया। सामाजिक परिवेश गड़बड़ा गया। कई प्रकार की आपदाएं/विषमताएं गरीबों के सिर पर मंडराने लगी।
जैसे-तैसे इसका हल खोजा जाने लगा। आदमी के साथ साहब औरतों को भी काम पर जाना पड़ा—ताकि दो वक्त की रोटी तो मिले—ये औरतें कामवाली बाईयां कहलाईं। अपने अपने क्षेत्र, भाषा बोली के अनुसार उनका नामकरण कर दिया गया। जैसी जैसी गाड़ी चल निकली पर इन कामवाली बाइयों का कई स्तरों पर शोषण किए जाने लगा। बाइयों ने तत्काल अपनी परिस्थिति से समझौता कर लिया एवं अपनीअपनी सामर्थ के अनुसार मकानों की साफ सफाई, झाड़ू पोछा, बगीचे की देखभाल, बिल्डिंग निर्माण, ईट गारा का काम संभाल लिया।
पति पत्नी दोनों के काम पर चले जाने से उनकी माली हालत तो सुधरी पर उनके स्वयं के घर का गणित डगमगाने लगा। बच्चे आवारागर्दी करने लगे, नशा करने लगे, मारपीट लड़ाई झगड़े ने मिलकर घर का माहौल विषाक्त बना डाला।
औरतें जैसे तैसे रात में घर लौट कर चूल्हे चौके से जुड़ जाती रात्रि के भोजन उपरांत घर की साफ सफाई करते करते रात गहरा जाती। अलस्सुबह फिर काम पर जाने की तैयारी होती। हड़बड़ी में कई गड़बड़ी होती और असंतोष फैलने लगता ।
ठेकेदारों ने भी मजबूरी का फायदा उठाने में देरी नहीं लगाई।
उन्हें जरा जरा सी बात पर डांटा, काम पर से बिना वेतन दिए भगाया। तन मन दोनों का शोषण आम होने लगा।
कोरोना के समय इनके शोषण की रफ्तार भी कोरोना की सी गति से आगे बढ़ी। पति एवं स्वयं का काम बंद होने से रोज कमाने रोज खाने वाले बर्बादी की कगार तक जा पहुंचे।
उनके मालिकों ने जितना काम किया उतना वेतन भी नहीं दिया। कुछेक ने दरियादिली दिखाई भी तो घर की स्त्रियों ने विरोध किया –
‘बैठे-बिठाए पैसे भी दो काम भी स्वयं करो, ऐसा नहीं होने देंगे।’
काम करने वाला एक वर्ग यदि भूखा रहेगा तो मानवीयता जीवित कैसे रहेगी। श्रम साधकों को मजदूर मानकर भी एक भाई बंदी होती है जो समूल नष्ट हो गई। एक बुरा वक्त उनके सामने था, जिसने उन्हें पूरी तरह बेहाल कर दिया था।
मैंने कहीं यह मान लिया कि जरूर इस वर्ग के साथ नाइंसाफी हुई है। सद्भावना जैसी चीज का अंत हुआ है। इंसानियत कहीं दगा दे गई है। उनके प्रति दया, प्रेम, विश्वास का विनिष्टीकरण सरेआम हुआ है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – शब्दार्थ
मित्रता का मुखौटा लगाकर शत्रु, लेखक से मिलने आया। दोनों खूब घुले-मिले, चर्चाएँ हुईं। ईमानदारी से जीवन जीने के सूत्र कहे-सुने, हँसी-मज़ाक चला। लेखक ने उन सारे आयामों का मान रखा जो मित्रता की परिधि में आते हैं।
एक बार शत्रु रंगे हाथ पकड़ा गया। उसने दर्पोक्ति की कि मित्र के वेष में भी वही आया था। लेखक ने सहजता से कहा, ‘मैं जानता था।’
चौंकने की बारी शत्रु की थी। ‘शब्दों को जीने का ढोंग करते हो। पता था तो जान-बूझकर मेरे सच के प्रति अनजान क्यों रहे?’
‘सच्चा लेखक शब्द और उसके अर्थ को जीता है। तुम मित्रता के वेष में थे। मुझे वेष और मित्रता दोनों शब्दों के अर्थ की रक्षा करनी थी’, लेखक ने उत्तर दिया।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीयएवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है नवरात्र पर्व पर आपकी एक कविता – “कुष्मांडा देवी”।
साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 61
नवरात्र पर्व विशेष – कविता – कुष्मांडा देवी-… डॉ. सलमा जमाल
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी का हार्दिक स्वागत है। आज से आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “बेबस पड़े हैं…”।)
जीवन परिचय
जन्म : 09 मई 1951 ई0। नरसिंहपुर मध्यप्रदेश।
शिक्षा : हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर
प्रकाशित कृतियाँ : (1) ‘मन का साकेत’ गीत नवगीत संग्रह 2012 (2) ‘परिन्दे संवेदना के’ गीत नवगीत संग्रह 2015 (3) “शब्द वर्तमान” नवगीत संग्रह 2018 (4) ”रेत हुआ दिन” नवगीत संग्रह 2020 (5)”बीच बहस में” समकालीन कविताएँ 2021 (6) महाकौशल प्रान्तर की 100 प्रतिनिधि रचनाएँ संपादन ‘श्यामनारायण मिश्र’ समवेत संकलन (7) समकालीन गीतकोश-संपादन- नचिकेता (8)नवगीत का मानवतावाद-संपादन-राधेश्याम बंधु
अन्य प्रकाशन : देश के स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में गीत, नवगीत, अनुगीत कविताओं का सतत् प्रकाशन।
सम्मान: (1) कला मंदिर भोपाल पवैया पुरस्कार (2) कादंबरी संस्था जबलपुर से सम्मानित
संप्रति : स्नातक शिक्षक केंद्रीय विद्यालय संगठन से सेवा निवृत, स्वतंत्र लेखन।
जय प्रकाश के नवगीत # 01 ☆ बेबस पड़े हैं… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कथा “शेर, बकरी और घास…“।)
☆ कथा-कहानी ☆ शेर, बकरी और घास ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
बचपन के स्कूली दौर में जब क्लास में शिक्षक कहानियों की पेकिंग में क्विज भी पूछ लेते थे तो जो भी छात्र सबसे पहले उसे हल कर पाने में समर्थ होता, वह उनका प्रिय मेधावी छात्र हो जाता था और क्लास का हीरो भी. यह नायकत्व तब तक बरकरार रहता था जब तक अगली क्विज कोई दूसरा छात्र सबसे पहले हल कर देता था. शेष छात्रों के लिये सहनायक का कोई पद सृजित नहीं हुआ करता था तो वो सब नेचरली खलनायक का रोल निभाते थे. उस समय शिक्षकों का रुतबा किसी महानायक से कम नहीं हुआ करता था और उनके ज्ञान को चुनौती देने या प्रतिप्रश्न पूछने की जुर्रत पचास पचास कोस दूर तक भी कोई छात्र सपने में भी नहीं सोच पाता था. उस दौर के शिक्षकगण होते भी बहुत कर्तव्यनिष्ठ और निष्पक्ष थे. उनकी बेंत या मुष्टिप्रहार अपने लक्ष्यों में भेदभाव नहीं करता था और इसके परिचालन में सुस्पष्टता, दृढ़ता, सबका साथ सबकी पीठ का विकास का सिद्धांत दृष्टिगोचर हुआ करता था. इस मामले में उनका निशाना भी अचूक हुआ करता था. मजाल है कि बगल में सटकर बैठे निरपराध छात्र को बेंत छू भी जाये. ये सारे शिक्षक श्रद्धापूर्वक इसलिए याद रहते हैं कि वे लोग मोबाइलों में नहीं खोये रहते थे. पर्याप्त और उपयुक्त वस्त्रों में समुचित सादगी उनके संस्कार थे जो धीरे धीरे अपरोक्ष रूप से छात्रों तक भी पहूँच जाते थे. वस्त्रहीनता के बारे में सोचना महापाप की श्रेणी में वर्गीकृत था. ये बात अलग है कि देश जनसंख्या वृद्धि की पायदानों में बिनाका गीत माला के लोकप्रिय गीतों की तरह कदम दरकदम बढ़ता जा रहा था. वो दौर और वो लोग न जाने कहाँ खो गये जिन्हें दिल आज भी ढूंढता है, याद करता है.
तो प्रिय पाठको, उस दौर की ही एक क्विज थी जिसके तीन मुख्य पात्र थे शेर, बकरी और घास. एक नौका थी जिसके काल्पनिक नाविक का शेर कुछ उखाड़ नहीं पाता था, नाविक परम शक्तिशाली था फिर भी बकरी, शेर की तरह उसका आहार नहीं थी. (जो इस मुगालते में रहते हैं कि नॉनवेज भोजन खाने वाले को हष्टपुष्ट बनाता है, वो भ्रमित होना चाहें तो हो सकते हैं क्योंकि यह उनका असवैंधानिक मौलिक अधिकार भी है. )खैर तो आदरणीय शिक्षक ने यह सवाल पूछा था कि नदी के इस पार पर मौजूद शेर, बकरी और घास को शतप्रतिशत सुरक्षित रूप से नदी के उस पार पहुंचाना है जबकि शेर बकरी का शिकार कर सकता है और बकरी भी घास खा सकती है, सिर्फ उस वक्त जब शिकारी और शिकार को अकेले रहने का मौका मिले. मान लो के नाम पर ऐसी स्थितियां सिर्फ शिक्षकगण ही क्रियेट कर सकते हैं और छात्रों की क्या मजाल कि इसे नकार कर या इसका विरोध कर क्लास में मुर्गा बनने की एक पीरियड की सज़ा से अभिशप्त हों. क्विज उस गुजरे हुये जमाने और उस दौर के पढ़ाकू और अन्य गुजरे हुये छात्रों के हिसाब से बहुत कठिन या असंभव थी क्योंकि शेर, बकरी को और बकरी घास को बहुत ललचायी नज़रों से ताक रहे थे. पशुओं का कोई लंचटाइम या डिनर टाईम निर्धारित नहीं हुआ करता है(इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि मनुष्य भी पशु बन जाते हैं जब उनके भी लंच या डिनर का कोई टाईम नहीं हुआ करता. )मानवजाति को छोडकर अन्य जीव तो उनके निर्धारित और मेहनत से प्राप्त भोजन प्राप्त होने पर ही भोज मनाते हैं. खैर बहुत ज्यादा सोचना मष्तिष्क के स्टोर को खाली कर सकता है तो जब छात्रों से क्विज का हल नहीं आया तो फिर उन्होंने ही अपने शिष्यों को अब तक की सबसे मूर्ख क्लास की उपाधि देते हुये बतलाया कि इस समस्या को इस अदृश्य नाविक ने कैसे सुलझाया. वैसे शिक्षकगण हर साल अपनी हर क्लास को आज तक की सबसे मूर्ख क्लास कहा करते हैं पर ये अधिकार, उस दौर के छात्रों को नहीं हुआ करता था. हल तो सबको ज्ञात होगा ही फिर भी संक्षेप यही है कि पहले नाविक ने बकरी को उस पार पहुंचाया क्योंकि इस पार पर शेर है जो घास नहीं खाता. ये परम सत्य आज भी कायम है कि “शेर आज भी घास नहीं खाते”फिर नाव की अगली कुछ ट्रिप्स में ऐसी व्यवस्था की गई कि शेर और बकरी या फिर बकरी और घास को एकांत न मिले अन्यथा किसी एक का काम तमाम होना सुनिश्चित था.
शेर बकरी और घास कथा: आज के संदर्भ में
अब जो शेर है वो तो सबसे शक्तिशाली है पर बकरी आज तक यह नहीं भूल पाई है कि आजादी के कई सालों तक वो शेर हुआ करती थी और जो आज शेर बन गये हैं, वो तो उस वक्त बकरी भी नहीं समझे जाते थे. पर इससे होना क्या है, वास्तविकता रूपी शक्ति सिर्फ वर्तमान के पास होती है और वर्तमान में जो है सो है, वही सच है, आंख बंद करना नादानी है. अब रहा भविष्य तो भविष्य का न तो कोई इतिहास होता है न ही उसके पास वर्तमान रूपी शक्ति. वह तो अमूर्त होता है, अनिश्चित होता है, काल्पनिक होता है. अतः वर्तमान तो शेर के ही पास है पर पता नहीं क्यों बकरी और घास को ये लगता है कि वे मिलकर शेर को सिंहासन से अपदस्थ कर देंगे. जो घास हैं वो अपने अपने क्षेत्र में शेर के समान लगने की कोशिश में हैं पर पुराने जमाने की वास्तविकता आज भी बरकरार है कि शेर बकरी को और बकरी घास को खा जाती है. बकरी और घास की दोस्ती भी मुश्किल है और अल्पकालीन भी क्योंकि घास को आज भी बकरी से डर लगता है. वो आज भी डरते हैं कि जब विगतकाल का शेर बकरी बन सकता है तो हमारा क्या होगा.
कथा जारी रह सकती है पर इसके लिये भी शेर, बकरी और घास का सुरक्षित रूप से बचे रहना आवश्यक है.
सुश्री इन्दिरा किसलय को “महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी” का “सुब्रमण्यम भारती हिन्दी सेतु विशिष्ट सेवा पुरस्कार”– अभिनंदन
“जय जय महाराष्ट्र माझा–गर्जा महाराष्ट्र माझा”– इस राज्यगीत की प्रचंड उर्जा एवं महाराष्ट्र के सांस्कृतिक वैभव तथा साहित्यिक गौरव की ध्वजवाहक “महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी” द्वारा वरिष्ठ साहित्यकार “सुश्री इन्दिरा किसलय” को “राज्य स्तरीय सम्मान -जीवन गौरव पुरस्कार” के अन्तर्गत, “सुब्रमण्यम भारती हिन्दी सेतु विशिष्ट सेवा पुरस्कार”, प्रख्यात अभिनेता लेखक“आशुतोष राणा “के हस्ते प्रदान किया गया। इसमें इक्यावन हजार की राशि,स्मृति चिह्न तथा प्रशस्ति पत्र का समावेश है।
मुंबई (बांद्रा) के “रंगशारदा ऑडिटोरियम” में संपन्न इस गौरवशाली आयोजन में संपूर्ण महाराष्ट्र के विजेता शामिल रहे।
कोरोनाकाल में अकादमी की गतिविधियां स्थगित रहीं।अतः तीन वर्षों के पुरस्कार 23 मार्च 2023 के आयोजन में प्रदान किये गये।
स्वनामधन्य साहित्यकार “चित्रा मुद्गल,”सुख्यात अभिनेता आशुतोष राणा को (रामराज्य) को अखिल भारतीय जीवन गौरव पुरस्कार (एक लाख की राशि) से अलंकृत किया गया। फिल्मी गीतकार मनोज मुन्तशिर, गायक अनूप जलोटा एवं अभिनेता मनोज जोशी भी गौरवशाली पुरस्कारों से नवाज़े गये।
समग्रतः एक सौ चौबीस, पुरस्कारों में अखिल भारतीय ,राज्य स्तरीय तथा विधा पुरस्कारों ने स्थान पाया।
इस साहित्यिक अभिजात्य के साक्षी बने अनेक गणमान्य जन। खचाखच भरे हुये सभागार में अकादमी सचिव “सचिन निंबालकर” के शानदार संचालन ने सुन्दर वातावरण की रचना की। संयोजन में अकादमी के कार्याध्यक्ष “शीतलाप्रसाद दुबे जी” का संरचनात्मक सौरभ व्याप्त रहा।
अपनी शुद्ध हिन्दी के लिये चर्चित अभिनेता आशुतोष राणा ने अपनी ओजस्वी वाणी में राष्ट्रकवि दिनकर की रश्मिरथी सुनाकर महफिल लूट ली। सदन में अभूतपूर्व शौर्य का संचार कर दिया।
मध्यप्रदेश राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी के कार्याध्यक्ष- विकास दवे ने बाल साहित्य सृजन की ओर साहित्यकारों का ध्यान आकृष्ट किया। ऐसी लागी लगन गाकर भजन सम्राट अनूप जलोटा ने भक्ति साहित्य के कुछ पृष्ठ अनावृत्त किये। माननीय श्री शेलार ने साहित्य की महत्ता पर प्रकाश डाला। आयोजन में पधारे देशभर के लघुकथाकारों का लघुकथा पाठ हुआ। कार्यक्रम के अंत में शशि बंसल ने आभार प्रकट किया।
एक गुरुतापूर्ण सरस आयोजन ने हमेशा के लिये स्मृति में जगह बना ली।
धन्यवाद महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी।
ई-अभिव्यक्ति की ओर से इस अभूतपूर्व उपलब्धि के लिए सुश्री इंदिरा किसलय जी एवं सभी सम्मानित साहित्यकारों का अभिनंदन एवं हार्दिक बधाई
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈