हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 3 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 3 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

महाबीर बिक्रम बजरंगी।

कुमति निवार सुमति के संगी।।

कंचन बरन बिराज सुबेसा।

कानन कुंडल कुंचित केसा।।

अर्थ-

श्री हनुमान आप एक महान वीर और सबसे अधिक बलवान हैं, आपके अंग  वज्र के समान मजबूत हैं। आपकी आराधना करके नकारात्मक बुद्धि और सोच का नाश होता है।  सद्बुद्धि आती है। आपका रंग कंचन अर्थात सोने जैसा चमकदार है। आपके कानों में पड़े कुंडल और घुंघराले केश आपकी शोभा को बढ़ाते हैं।

भावार्थ:-

अगर आपको किसी को प्रसन्न करना है तो सबसे पहले उसके गुणों का वर्णन करना पड़ेगा। श्री हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए तुलसीदास जी उनके गुणों का बखान कर रहे हैं। महावीर हनुमान जी दया त्याग विद्या की खान हैं। हनुमान जी का वीरता में कोई मुकाबला नहीं है इसीलिए उनको महावीर कहा जाता है। अत्यंत पराक्रमी और अजेय होने के कारण हनुमान जी विक्रम और बजरंगी भी हैं। प्राणी मात्र के परम हितेषी होने के कारण उन्हें बचाने के लिए प्राणियों के मस्तिष्क से खराब विचार हटाकर अच्छे विचारों को डालते हैं।

इस चौपाई में हनुमान जी के सुंदर स्वरूप का वर्णन हुआ है। उनके एक हाथ में वज्र के समान गदा है और दूसरे हाथ में सनातन धर्म का विजय ध्वज है। उनके कंधे पर मूंज का जनेऊ विराजमान है। यह उनके ब्रह्मचारी एवं ज्ञानी होने का प्रतीक है। सभी प्रकार के अच्छे गुणों से श्री हनुमान जी सुसज्जित हैं।

संदेश-

अगर आप श्री हनुमान जी के स्वरूप का स्मरण करते हैं तो आपकी बुद्धि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और वह शुद्ध हो जाती है।

इस चौपाई के बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ:

1-महाबीर बिक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी।

हनुमान चालीसा की इस चौपाई से बुरी संगत से छुटकारा और अच्छे लोगो का साथ मिलता है।

2-कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा॥

हनुमान चालीसा की इस चौपाई से आर्थिक समृद्धि अच्छा खान-पान, संस्कार और पहनावा प्राप्त होता है

विवेचना:-

इस चौपाई में मुख्य रूप से हनुमान जी के भौतिक शरीर का वर्णन है। हनुमान जी को महावीर विक्रम बजरंगी, कंचन वर्ण वाले अच्छे कपड़े पहनने वाले कानों में कुंडल वाले और  घुंघराले केश वाले बताया गया है परंतु सबसे पहले उनको महावीर कहा गया है। सच्चे वीर पुरुष में धैर्य, गम्भीरता, स्वाभिमान, साहस आदि गुण होते हैं। उनमें उच्च मनोबल, पवित्रता और सबके प्रति प्रेम की भावना होती है। महावीर के अंदर इन गुणों की मात्रा अनंत होती है।  अनंत का अर्थ होता है जिसकी कोई सीमा न हो, जिसको नापा ना जा सके, जिसकी कोई तुलना ना हो सके आदि। हनुमान जी का एक नाम महावीर भी प्रचलित है। महावीर वह होता है जो सभी तरह से सभी दुखों और कष्टों से रक्षा कर सकें और रक्षा करता हो। क्योंकि हनुमान जी यह सब करने में सक्षम है तथा सब की रक्षा करते हैं अतः उनको महावीर कहा गया है। कवि उनके विक्रम बलशाली महावीर रूप की आराधना सबसे पहले करना चाहते है जिससे सभी की रक्षा हो सके।

हनुमान जी को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए और इस चौपाई में दिए गए वर्णन को सिद्ध करने के लिए रामचरितमानस के सुंदरकांड का तीसरा श्लोक पर्याप्त है :-

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं  दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।

श्री हनुमान जी अतुलित बल के स्वामी हैं। वे स्वर्ण पर्वत, सुमेरु के समान प्रकाशित हैं। श्री हनुमान दानवों के जंगल को समाप्त करने के लिए अग्नि रूप में हैं। वे ज्ञानियों में अग्रणी रहते हैं। श्री हनुमान समस्त गुणों के स्वामी हैं और वानरों के प्रमुख हैं। श्री हनुमान रघुपति श्री राम के प्रिय और वायु पुत्र हैं।

हनुमान जी महावीर है इस बात को श्री रामचंद्र जी, अगस्त मुनि, सीता जी ने और अंत में रावण ने भी कहा है। हनुमान जी के ताकत का अनुमान देवताओं के राजा इंद्र और सूर्य देव को भी है, जिन्होंने हनुमान जी के ताकत का स्वाद चखा था। हनुमान जी के बल का अनुमान भगवान कृष्ण को भी है जिन्होंने भीम के घमंड को तोड़ने के लिए हनुमान जी को चुना था।

अब चौपाई के अगले चरण पर आते हैं जिसमें कहा गया है “कुमति निवार सुमति के संगी”

हमको यह समझना पड़ेगा सुमति और कुमति  में क्या अंतर है। अगर हम साधारण अर्थ में समझना चाहें तो कुमति  का अर्थ है नकारात्मक विचार और सुमति का अर्थ है सकारात्मक विचार। रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने कहा है लिखा है:-

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥

जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥3॥

हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है॥

व्यक्ति को सुख-समृद्धि पाने के लिए, प्रगति एवं विकास के लिए हमेशा सुबुद्धि से काम लेकर सुविचारित ढंग से अपना प्रत्येक कार्य निष्पादित करना चाहिए। सुमति का मार्ग ही मानव के कल्याण का मार्ग है। हनुमान जी आपके बुद्धि से कुमति को हटा करके सुमति को लाते हैं। इसके कारण आप  कल्याण के मार्ग पर चलने लगते हैं और बुद्धि  अच्छे कार्य करने के योग्य बन जाती है।

कुमति के मार्ग से हटाकर सुमति के मार्ग पर लाने का सबसे अच्छा उदाहरण सुग्रीव के मानसिक स्थिति के परिवर्तन का है। सुग्रीम जी जब बाली के वध के बाद किष्किंधा के राजा हो गए थे। इसके उपरांत वे अपनी पत्नी रमा और बाली की पत्नी तारा के साथ मिलकर  आमोद प्रमोद में मग्न हो गये थे। कुमति  पूरी तरह से उनके दिमाग पर छा गई थी। अपने मित्र श्री रामचंद्र जी के कार्य को पूरी तरह से भूल गए थे।  हनुमान जी ने सुग्रीव की स्थिति को समझा तथा संभाषण के उपरोक्त गुणों से संपन्न हनुमान जी ने उचित अवसर जानकर  उपयुक्त परामर्श देते हुए वानर राज सुग्रीव से कहा हे राजा यश और लक्ष्मी की प्राप्ति के बाद उन्हें मित्र (अर्थात श्री रामचंद्र जी) का बाकी कार्य पूर्ण करना चाहिए।

इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा। राम काजु सुग्रीवँ बिसारा॥

निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा॥1॥

 सुनि सुग्रीवँ परम भय माना। बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना॥

अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा॥2॥

यहाँ (किष्किन्धा नगरी में) पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी ने विचार किया कि सुग्रीव ने श्री रामजी के कार्य को भुला दिया। उन्होंने सुग्रीव के पास जाकर चरणों में सिर नवाया। (साम, दान, दंड, भेद) चारों प्रकार की नीति कहकर उन्हें समझाया।

हनुमान्‌जी के वचन सुनकर सुग्रीव ने बहुत ही भय माना। (और कहा-) विषयों ने मेरे ज्ञान को हर लिया। अब हे पवन सुत! जहाँ-तहाँ वानरों के समूह रहते हैं, वहाँ दूतों के समूहों को भेजो।

इस प्रकार हनुमान जी सुग्रीव को कुमति से सुमति के रास्ते पर लाए और रामचंद्र जी के कोप से उनको बचाया।

कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा॥

इस लाइन में तुलसीदास जी ने हनुमान जी के काया का शरीर का वर्णन किया है।  तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी के शरीर का रंग कंचन वरन अर्थात सोने के समान है या सोने के रंग जैसा हनुमान जी का रंग है। इन दोनों बातों में बहुत बड़ा अंतर है। सोने के समान रंग होना या सोने के रंग जैसा होना दोनों बातें बिल्कुल अलग है। हमारे समाज में हम हर अच्छी चीज को सोने जैसा बोल देते हैं। जैसे कि आपकी लेखनी सोने जैसी सुंदर है। यहां पर आपकी लेखनी सोने की नहीं है वरन जिस प्रकार सोना महत्वपूर्ण है उसी प्रकार आपकी लेखनी भी महत्वपूर्ण है। सोना चमकता और एक बलशाली पुरुष का शरीर भी  चमकता है। शरीर की मांसपेशियां उसकी ताकत को बताती है। सोने का रंग पीला होता है और भारतवर्ष में गोरे लोग दो तरह के होते हैं। कुछ गोरे लोगों में लाल रंग की छाया होती है। और कुछ गोरे लोगों में पीले रंग की। अगर हम सोने के शाब्दिक अर्थ को लें तो हनुमान जी का रंग गोरा कहा जाएगा जिस पर पीले रंग की छाया होनी चाहिए। यह संभव भी है क्योंकि हनुमान जी पवन देव के पुत्र थे और देवताओं का रंग गोरा माना जाता है। यह गोरा रंग तो और ज्यादा दिखाई देता है जब आदमी व्यायाम करके उठा हो या उत्तेजित अवस्था में हो।

श्री देवदत्त पटनायक जी ने अपनी किताब “मेरी हनुमान चालीसा” जिसका अनुवाद श्री भरत तिवारी जी ने किया है उसके पृष्ठ क्रमांक 35 पर बताते हैं कि “सुनहरे रंग का होना हमें याद दिलाता है कि हनुमान सुनहरे बालों वाले वानर हैं। लेकिन कान का बुंदा और घुंघराले बाल उनकी मानव जाति को दर्शाते हैं। क्योंकि गहना मानव ही पहनता है और मानव के सर पर बाल होते हैं।” हनुमान जी के वानर या मानव होने के विवाद में पटनायक जी नहीं उलझे हैं। उन्होंने शायद इसको विचार योग्य विषय नहीं पाया है। महाकाव्य रामायण के अनुसार, हनुमान जी को वानर के मुख वाले अत्यंत बलिष्ठ पुरुष के रूप में दिखाया जाता है। उनके कंधे पर जनेऊ लटका रहता है। हनुमान जी को मात्र एक लंगोट पहने अनावृत शरीर के साथ दिखाया जाता है। वह मस्तक पर स्वर्ण मुकुट एवं शरीर पर स्वर्ण आभूषण पहने दिखाए जाते है। उनकी वानर के समान लंबी पूँछ है। उनका मुख्य अस्त्र गदा माना जाता है।

 परंतु आइए हम इस पर विचार करते हैं। सामान्य जन मानते हैं कि हनुमान जी बंदर समूह के थे। परंतु कोई भी बंदर स्वर्ण के रंग का नहीं हो सकता है। कानों में कुंडल, सज-धज के बैठना घुंघराले बाल और कानों में बुंदा किसी भी बंदर के लक्षण नहीं हो सकते हैं। हनुमान चालीसा की  यह चौपाई बता रही है कि हनुमान जी बंदर नहीं बल्कि  मानव थे। फिर यह वानर किस प्रकार का है जिसके पूछ भी थी और क्या अब तक की मान्यता गलत थी। आइए इस पर विचार करते हैं।

 अगर हम हनुमान जी को बंदर नहीं बल्कि वानर कुल  का मानते हैं तो इसका प्रमाण क्या है?

बहुत प्राचीनकाल में आर्य लोग हिमालय के आसपास ही रहते थे। वेद और महाभारत पढ़ने पर हमें पता चलता है कि आदिकाल में प्रमुख रूप से ये जातियां थीं- देव, मानव, दानव, राक्षस, वानर, यक्ष, गंधर्व, भल्ल, वसु, अप्सराएं, पिशाच, सिद्ध, मरुदगण, किन्नर, चारण, भाट, किरात, रीछ, नाग, विद्‍याधर,,  आदि। देवताओं को सुर तो दैत्यों को असुर कहा जाता था।

देवता गण  कश्यप ऋषि और अदिति की संतान हैं और ये सभी हिमालय के नंदन कानन वन में रहते थे।  गंधर्व, यक्ष और अप्सरा आदि देव या देव समर्थक जातियां देवताओं के साथ ही हिमालय के भूभाग पर रहा करती थी।

असुरों को दैत्य कहा जाता है। दैत्यों की कश्‍यप और इनकी दूसरी  पत्नी दिति से उत्पत्ति हुई थी। इसी प्रकार  ऋषि कश्यप के अन्य पत्नियों से दानव एवं राक्षस तथा अन्य जातियों की उत्पत्ति हुई।

इसी प्रकार वानरों की कई प्रजातियां प्राचीनकाल में भारत में रहती थी। हनुमानजी का जन्म कपि नामक वानर जाति में हुआ था। शोधकर्ता कहते हैं कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो आज से 15 से 12 हजार वर्ष पूर्व लुप्त होने लगी थी और अंतत: लुप्त हो गई। इस जाति का नाम ‘कपि’ था। भारत के दंडकारण्य क्षेत्र में वानरों और असुरों का राज था। हालांकि दक्षिण में मलय पर्वत और ऋष्यमूक पर्वत के आसपास भी वानरों का राज था। इसके अलावा जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, मलेशिया, माली, थाईलैंड जैसे द्वीपों के कुछ हिस्सों पर भी वानर जाति का राज था।

ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। उल्लेखनीय है कि उरांव आदिवासी से संबद्ध लोगों द्वारा बोली जाने वाली कुरुख भाषा में ‘टिग्गा’ एक गोत्र है जिसका अर्थ वानर होता है। कंवार आदिवासियों में एक गोत्र है जिसे हनुमान कहा जाता है। इसी प्रकार, गिद्ध कई अनुसूचित जनजातियों में एक गोत्र है। ओराँव या उराँव वर्तमान में  छोटा नागपुर क्षेत्र का एक आदिवासी समूह है। ओराँव अथवा उराँव नाम इस समूह को दूसरे लोगों ने दिया है। अपनी लोकभाषा में यह समूह अपने आपको ‘कुरुख’ नाम से वर्णित करता है।

उराँव भाषा द्रविड़ परिवार की है जो समीपवर्ती आदिवासी समूहों की मुंडा भाषाओं से सर्वथा भिन्न है। उराँव भाषा और कन्नड में अनेक समताएँ हैं। संभवत: इन्हें ही ध्यान में रखते हुए, श्री गेट ने १९०१ की अपनी जनगणना की रिपोर्ट में यह संभावना व्यक्त की थी कि उराँव मूलत: कर्नाटक क्षेत्र के निवासी थे। शरतचंद्र राय जी ने अपनी पुस्तक ‘दि ओराँव’  और धीरेंद्रनाथ मजूमदार ने अपनी पुस्तक ‘रेसेज़ ऐंड कल्चर्स ऑव इडिया’ में इसका विस्तृत रूप से उल्लेख किया है।

अगर हम ध्यान दें तो कपि कुल के पुरुषों के पास लांगूलम् (पूंछ) होता था परंतु स्त्रियों के पास नहीं। 

वर्तमान बंदरों में पूछ नर और मादा दोनों प्रकार के बंदरों में होती है। अतः  यह कहना क्योंकि हनुमान जी के पास  पूछं थी अतः वे बंदर थे सही प्रतीत नहीं होता है।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी समस्त  उपनिषदों और व्याकरण इत्यादि के ज्ञाता थे। अलौकिक ब्रह्मचारी महावीर चतुर और बुद्धिमान रामचंद्र जी के परम सेवक हनुमान जी बंदर नहीं हो सकते हैं। हमारे कई विद्वानों ने हनुमान जी को बंदर मानकर उनके साथ एक बहुत बड़ा अन्याय किया है हम नादान स्वयं ही अपनी छवि खराब करते हैं।

जब राम व लक्ष्मण भगवती सीता की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे। सुग्रीव के डर को देखकर हनुमान जी तत्काल श्री राम और लक्ष्मण जी से मिलने के लिए चल पड़े। उन्होंने अपना  रूप बदलकर ब्राह्मण का रूप धारण कर लिया। श्री राम व लक्ष्मण के पास जाकर अपना परिचय दिया तथा उनका परिचय लिया। तत्पश्चात् श्री राम ने अनुज लक्ष्मण से कहा-

नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्।।

 (वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक २८ ) 

 जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का अनुश्रवण नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता।

 नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।

 बहु व्याहरतानेन न किंचिदपश    िदतम्।। 

 (-वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग श्लोक २९ )

 अर्थः- निश्चय ही इन्होंने  व्याकरण  का अनेक बार अध्ययन किया है। यही कारण है कि इनके इतने समय बोलने में इन्होंने कोई भी त्रुटि नहीं की है।

न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा। अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित्।।

 (वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक ३०) 

अर्थ:-  बोलने के समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अंगों से भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ।

इससे स्पष्ट है कि हनुमान वेदों के विद्वान् तो थे ही, व्याकरण के उत्कृष्ट ज्ञाता भी थे । उनके शरीर के सभी अंग अपने-अपने करणीय कार्य उचित रूप में ही करते थे। शरीर के अंग जड़ पदार्थ हैं व मनुष्य का आत्मा ही अपने उच्च संस्कारों से उच्च कार्यों के लिए शरीर के अंगों का प्रयोग करता है।        

क्या किसी बन्दर में यह योग्यता हो सकती है कि वह वेदों का विद्वान् बने? व्याकरण का विशेष ज्ञाता हो? अपने शरीर की उचित देखभाल भी करे? रामायण का दूसरा प्रमाण इस विषय में प्रस्तुत करते हैं। यह प्रमाण तब का है, जब अंगद, व हनुमान आदि समुद्रतट पर बैठकर समुद्र पार जाकर सीता जी की खोज करने के लिए विचार कर रहे थे। तब  जामवंत जी ने हनुमान जी को उनकी  कथा सुनाकर समुद्र लङ्घन के लिए उत्साहित किया। केवल एक ही श्लोक वहाँ से उद्धृत है-

सत्वं केसरिणः पुत्रःक्षेत्रजो भीमविक्रमः।

मारुतस्यौरसः पुत्रस्तेजसा चापि तत्समः।।

(वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, सप्तषष्टितम सर्ग, श्लोक २९)

अर्थ- हे वीरवर! तुम केसरी के क्षेत्रज पुत्र हो। तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है। तुम वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि से उन्हीं के समान हो।

इससे सिद्ध है कि हनुमान जी के पिता केसरी थे परन्तु उनकी माता अंजनी ने पवन नामक पुरुष से नियोग द्वारा प्राप्त किया था।

हनुमान को मनुष्य न मानकर उन्हें बन्दर मानने वालों से हमारा निवेदन है कि इन दो प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध है कि हनुमान जी बन्दर न थे, अपितु वे एक नियोगज पुत्र थे। नियोग प्रथा मनुष्य समाज में अतीत में प्रचलित थी। यह प्रथा बन्दरों में प्रचलित होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। रामायण के इस प्रबल प्रमाण के होते हुए हनुमान जी को मनुष्य मानना ही पड़ेगा।

रामायण में ही तीसरा प्रमाण भी है। जब हनुमान जी  लंका के अंदर प्रवेश करने के उपरांत सीता माता का पता नहीं लगा पाए,तब वह सोचने लगे :-

सोऽहं नैव गमिष्यामि किष्कि न्धां नगरीमितः।

वानप्रस्थो भविष्यामि ह्यदृष्ट्वा जनकात्मजाम्।।

(वा. रा., सुन्दरकाण्ड, सप्तम सर्ग )

मैं यहाँ से लौटकर किष्किन्धा नहीं जाऊँगा। यदि मुझे सीता जी के दर्शन नहीं हुए तो मैं वानप्रस्थ धारण कर लूँगा।

वानप्रस्थ जाने के बारे में कोई मनुष्य की सोच सकता है बंदर नहीं। मेरा अपने पौराणिक भाई बहनों से निवेदन है कि वह अपना हक त्याग कर हनुमान जी को भगवान शिव के अवतार के रूप में मानव शरीर धारण किए हुए देवता माने।

हनुमान चालीसा में भी कहा गया है :-

हाथ वज्र औ ध्वजा विराजे

कांधे मूंज जनेऊ साजे

किंचित हम चौपाई से यह अर्थ से निकाल लेते कि जनेऊ धारण करने वाला बंदर नहीं हो सकता मनुष्य ही होगा।

वाल्मीकि जी ने बाली की पत्नी तारा को आर्य पुत्री कहा है।  इससे यह स्पष्ट है की बाली और बाकी वानर भी आर्य पुत्र ही थे अर्थात मनुष्य थे। तारा को आर्य पुत्री घोषित करते हुए बाल्मीकि रामायण का यह श्लोक दृष्टव्य है।

तस्येन्द्रकल्पस्य दुरासदस्य महानुभावस्य समीपमार्या।

 आर्तातितूर्णां व्यसनं प्रपन्ना जगाम तारा परिविह्वलन्ती।।

 वा. रा. किष्किंधा काण्ड, चतुर्विंश सर्ग श्लोक २९ )

– ‘‘उस समय घोर संकट में पड़ी हुई शोक पीड़ित आर्या तारा अत्यन्त विह्वल हो गिरती-पड़ती तीव्र गति से महेन्द्र तुल्य दुर्जय वीर श्री राम के पास गई।

आज भी हमारे भारतवर्ष में नाग, सिंह, गिरी, हाथी, मोर उपनाम के लोग मिलते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं उस समय हनुमान जी और उनके कुल के लोगों का उपनाम वानर रहा होगा।

आगे तुलसीदास जी कहते हैं “विराज सुवेशा।” इसका अर्थ है कि हनुमानजी सज धज कर बैठे हुए हैं। हनुमान जी के सर पर मुकुट है कंधे पर जनेऊ है और गदा है। लंगोट बांधे हुए हैं। एक वीर और बहुत ही ताकतवर पुरुष की आकृति दिखाई देती है। उनकी सुंदरता का वर्णन करते हुए कवि कहता है उनके कानों में कुंडल है और उनके जो बाल हैं वे घुंघराले हैं। किसी भी वानर का बाल घुंघराले नहीं होता है। यह भी इस बात को सिद्ध करता है कि हनुमान जी एक मानव थे।

वर्तमान में जितने भी प्रमाण उपलब्ध हैं उन सभी प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि हनुमानजी बंदर नहीं थे। वे मानव थे और उनका कुल वानर था। पूंछ संभवतः अलग से जुड़ा जाने वाला कोई कोड़े टाइप का अस्त्र था जिससे वानर कुल के लोग अपने पास रखते थे और वह उनके कुल का परिचायक था।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ काठाशी… ☆ श्री राजकुमार कवठेकर ☆

श्री राजकुमार दत्तात्रय कवठेकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ काठाशी… ☆ श्री राजकुमार कवठेकर ☆

निरागसतेच्या- काठी

          रिमझिमायचे मेघ

कधी… कुठेही.. हाताशी

          निळे खळाळते ओघ

 

आता तृष्णेच्या- काठाशी

          शिडकावा ना ओलावा

निष्पर्णल्या फांद्यांवर

          मूक पाखरांचा थवा

© श्री राजकुमार दत्तात्रय कवठेकर

संपर्क : ओंकार अपार्टमेंट, डी बिल्डिंग, शनिवार पेठ, आशा  टाकिज जवळ, मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 138– वणव्यात चांदण ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 138 – वणव्यात चांदण ☆

तुझ्या हास्यानं रे  फुललं वैशाख वणव्यात चांदणं।

विसरले सारे दुःख अन् उघडे पडलेले गोंदणं ।।धृ।।

गेला सोडून रे धनी गेल डोईचं छप्पर।

भरण्या पोटाची गार भटकंती ही दारोदार।

लाभे दैवानेच तुला समजदारीचं देणं।।१।।

कुणी देईना रे काम कशी रे दुनियादारी।

नजरेच्या विषापरी सापाची ही जात बरी।

याला पाहून रे फुले तुझ्या हास्याचं चांदणं।।२।।

रोजचाच नवा गाव रोज तोच नवा खेळ।

दमडी दमडीत रे कसा बसेल जीवनाचा मेळ।

कसा आणू दूध भात कसा आणू रे खेळणं।।३।।

नसे पायात खेटर पायपीट दिसभर।

घेऊ कशी सांग राजा तुला झालरी टोपरं।

करपलं झळांनी या गोजिरं, हे बालपणं।।४।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “संत निवृत्तीनाथ…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ “संत  निवृत्तीनाथ…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

एखादी व्यक्ती घडते तेव्हा ती घडतांना अनेक नानाविध गोष्टींचा, व्यक्तीमत्वांचा तिच्यावर कळत नकळत प्रभाव पडतो आणि मग तिच्या व्यक्तीमत्वाची जडणघडण होते. ह्यालाच आपण संस्कार असही म्हणतो. ह्यामधूनच त्या व्यक्तीचे कर्तृत्व बहरते,तिचा विकास होतो आणि काही वेळा तिच्याकडून अतुलनीय कामगिरी घडून एक अद्भुत, अद्वितीय व्यक्तिमत्त्व आकारास येतं आणि पुढे वर्षानुवर्षे आपण कित्येक पिढ्यानपिढ्या त्या व्यक्तीचा आदर्श डोळ्यासमोर ठेवतो.

ह्याचप्रकारे आपल्यासगळ्यांच्या माऊली म्हणवल्या गेलेल्या अद्वितीय अविष्कार म्हणून घडलेल्या ज्ञानेश्वर माऊलींना घडविण्यात मोलाचा वाटा असणाऱ्या निवृत्तीनाथांची आज प्रकर्षाने आठवण होते. संपूर्ण वारकरी मंडळींची साक्षात माऊली असलेल्या ज्ञानोबांना घडविण्याची किमया वा ताकद ही निवृत्तीनाथां कडे होती. माणसाच्या जडणघडणीत अनेक गोष्टींचा सहभाग असतो.त्यात जर ती व्यक्ती आपल्या सगळ्यांसाठी आदर्श व्यक्ती असेल तर आपण नकळत तीला घडविणा-या गोष्टींचा अभ्यास करतो.त्या गोष्टी लक्षात आल्यावर आपापल्या परीने त्याचे अनुकरण करायचा प्रयत्न करतो. अशा अनेक श्रध्दास्थानी आदरणीय व्यक्तींपैकी प्रामुख्याने निवृत्तीनाथांचे नाव अ्ग्रक्रमी राहील. नुकतीच  निवृत्तीनाथांची जयंती झाली.त्यांना कोटी कोटी प्रणाम.

भारतभूमी ही अनेक संताच्या सहवासाने पावन झाल्यामुळे खूप पवित्र, वैविध्यपूर्ण आणि संस्कृती ने परिपूर्ण झालेली आहे.अनेक संत,महात्मे येथे जन्मले आणि त्यांनी आपल्या सगळ्यांना घडविले सुद्धा.त्यांच्या शिकवणी पैकी काही अंश जरी आपल्या कडून आचरणात आणल्या गेले तर जीवन धन्य होईल.

निवृत्तीनाथांचं अवघं 23 वर्षांचं आयुर्मान. पण ह्या अवघ्या 23 वर्षात अख्ख ब्रम्हांडाचं ज्ञान त्यांनी जगाला दिलं. त्यांची सगळ्यात मोठी कामगिरी म्हणजे त्यांनी आपल्या ज्ञानोबारायांना घडविलं,वाढविलं. ज्ञानेश्वर माऊलींचे पालक,थोरले बंधू,गुरू, मार्गदर्शक, असं सर्व काही म्हणजे निवृत्तीनाथ जणू.त्यांनी आपलं मोठेपणं,वडीलपणं ह्या लहान भावंडांना आदर्श घडवून सार्थक केलं.

निवृत्तीनाथ,ज्ञानेश्वर, सोपानदेव आणि मुक्ताई ह्या भावंडांमध्ये निवृत्तीनाथ हे सगळ्यात थोरले.जणू ह्या कुटूंबाचे पालकच.आईवडीलां- च्या पश्चात पालकांच्या जबाबदारीची भुमिका  निवृत्तीनाथांच्या वाट्याला आली.

भागवत संप्रदायाचे आद्यपीठ ज्ञानेश्वर माऊलींचे सकलतीर्थ,विश्वकल्याणासाठी पसायदानातील श्री विश्वेश्वरावो,आद्यगुरू, आदिनाथ ह्या उपाध्या लागलेल्या निवृत्तीनाथां च्या शिकवणींची आज परत ह्या निमीत्ताने मनोमन उजळणी होते.आईवडीलांबरोबर निवृत्तीनाथ एका जंगलात गेले होते.तेव्हा एका वाघाने त्यांना उचलून एका गुहेत नेले.त्या गुहेत त्यांना एका तेजःपुंज साधूने बहुमोल ज्ञान दिले. हेच ते त्यांचे गुरू, नाथपंथातील गहिनीनाथ होत अशी आख्यायिका आहे.

निवृत्तीनाथांनी एक हरीपाठ व तिनचारशे अभंग रचले आहेत.त्यांनी ज्ञानेश्वरांना सामान्य लोकांना समजेल, उमजेल अशा भाषेत गीता लिहावयास सांगितली, तीच ही भावार्थ दिपीका ज्ञानेश्वरी होय.

ज्ञानेश्वर, सोपानदेव ह्यांनी समाधी घेतल्यानंतर मुक्ताबाईंनी अन्नपाणी त्यागून देह ठेवला.त्यानंतरच निवृत्तीनाथांनी त्र्यंबकेश्वर येथे देह ठेवला. खरचं ज्ञानेश्वर माऊलींसारख्या व्यक्ती घडविणारे निवृत्तीनाथ अलौकिक शक्ती चे प्रतीक. त्यांना परत एकदा कोटीकोटी प्रणाम

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अनुवादित दीर्घकथा – द्वारकाधीश… भाग 2 – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

☆ जीवनरंग ☆

☆ अनुवादित दीर्घकथा – द्वारकाधीश… भाग 2 – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆ 

(मी नकळत गप्प झालो. मग राजारामच बोलायला लागला…) इथून पुढे —–

‘‘ मनोहर, आत्ता मी जिची लग्नपत्रिका द्यायला आलोय् ना, ती माझी तीन नंबरची मुलगी… सुधा… म्हणजे माझी शेवटची जबाबदारी…” 

‘‘ अरे पण तुला तर चार मुली आहेत ना?” 

‘‘ हो. पण चौथ्या मुलीचं लग्न दोन वर्षांपूर्वीच झालं. मी आमंत्रण पाठवलं होतं की तुला. अर्थात् तुला ते मिळालं की नाही कोण जाणे. असो.  काय आहे… सुधाचा डावा हात लहान आणि कमजोर आहे. या अपंगत्वामुळे तिचं लग्न जमत नव्हतं. त्यामुळे धाकटीचं लग्न आधी करून टाकलं. मुलाने तर पाच वर्षांपूर्वीच प्रेम विवाह केलाय्… स्वास्थ्य केंद्रातल्या एका नर्सशी… आणि तेव्हापासून तो वेगळाच रहातोय्. या सुधासाठी स्थळ शोधणं फारच अवघड झालं होतं रे…”

‘‘ तिचा हा होणारा नवरा काय करतो?”

‘‘ मी टायपिस्ट म्हणून मँगेनीजच्या खाणीत काम करायचो ना, तिथे विष्णू नावाचा एक चपराशी होता. मी रिटायर होण्याच्या सहा महिने आधी एका दुर्घटनेत त्याचा मृत्यू झाला. त्याच्या जागी अनुकंपा-तत्त्वावर त्याच्या या मुलाला नोकरी मिळाली. त्याचाही डावा पाय पोलिओमुळे निरूपयोगी झालाय्… डाव्या पायाने लंगडाच झालाय् म्हण ना. दहावी पास आहे.” 

‘‘ थोडा भात घे ना अजून…” काय बोलावं हे खरंच सुचत नव्हतं मला. 

श्री भगवान वैद्य प्रखर

‘‘ नको नको… खूप जेवलो आज… किती दिवसांनी इतकं चांगलं जेवण झालंय् ते काय सांगू तुला?… या लग्नात हुंडा म्हणून साठ हजार रूपये द्यायचे ठरलेत. इकडून-तिकडून चाळीस हजारांची सोय झालीये. तरी अजून वीस हजारांची सोय करायला हवी. त्यासाठी ठोठावता येईल असं एकही दार उरलेलं नाहीये आता. लग्न अठ्ठावीस तारखेला आहे… आणि आज अठरा तारीख… असो… तू आता रिटायर झाला आहेस ना… आत्तापर्यंत एकाही लग्नाला आला नाहीस… पण या लग्नाला नक्कीच येऊ शकतोस. रेणुका… माझी बायको… म्हणत होती की, ‘‘ तुमचा हा मित्र म्हणजे मोठी आसामी आहे… स्वत: जाऊन निमंत्रण दिलंत तरच येतील ते. म्हणून आलो आहे…” ‘अन्न दाता सुखी भव’… असं म्हणत राजाराम हात धुवायला गेला. 

तो उठून गेल्यावर मला खरंच जरा हायसं वाटलं. माझ्या मनातल्या मनात विचाराचा जणू एक दिवा लागला, ज्याच्या प्रकाशात, राजारामने स्वत: मला निमंत्रण पत्रिका द्यायला येण्यामागचं ‘रहस्य’ मला उलगडल्यासारखं मला वाटलं… आणि माझ्या मनातल्या आमच्या मित्रत्वाच्या सरोवरात आजपर्यंत ज्या निर्मळ मैत्रीचे तरंग सतत उठत होते, त्या जागी आता जणू वाळूच्या लाटा उमटू लागल्या आहेत असं मला वाटून गेलं. मी डायनिंग टेबल आवरलं. राजाराम हात पुसत परत माझ्या जवळ येऊन उभा राहिला… 

‘‘ साडेपाचच्या बसचं रिझर्वेशन आहे बरं का रे माझं… पाच वाजता तरी निघावं लागेल मला…” राजाराम मोकळेपणाने म्हणाला… मनावरचं कुठलं तरी ओझं उतरल्यावर जाणवतो तो मोकळेपणा मला त्याच्या बोलण्यात जाणवला. 

‘‘अरे आजच्या दिवस थांब की. उद्या सकाळी जा. साडे-सहा सात वाजेपर्यंत रत्ना येईलच ऑफिसमधून… मग मस्त गप्पा मारू तिघं जण. अजून पुरेशा गप्पा तरी कुठे मारल्यात आपण…” असं म्हणतांना मला मनापासून सारखं जाणवत होतं हे की ते सगळं मी अगदी वरवरचं… औपचारिकपणे बोलत होतो… माझ्या मनातले मैत्रीचे धागे कमकुवत झाल्याचं माझं मलाच जाणवत होतं. 

‘‘ नको रे… आणि रत्नावहिनींशी सकाळीच चांगल्या दोन तास गप्पा मारल्या आहेत मी. त्यांनी हे ही मला सांगितलंय् की त्यांच्या भावाच्या मुलाचं लग्नही नेमकं २८ तारखेलाच आहे. त्यामुळे सुधाच्या लग्नाला तुम्ही दोघं येऊ शकणार नाही, हे समजलंय् मला. आणि अरे मलाही तर खूप गप्पा मारायच्या आहेत की तुझ्याशी… आता हे लग्न एकदा पार पडलं की खास तेवढ्यासाठीच येईन तुझ्याकडे आणि चांगला आठवडाभर राहीन बघ… त्यावेळी मग मला जे जे माहिती नाहीये ते तू मला सांग… आणि तुला जे माहिती नाही, ते सगळं मी तुला सांगेन… काय?”

‘‘ पण आता थोडावेळ तरी आराम कर बाबा. मी तुला स्टँडवर पोहोचवायला येईन.”… आणि राजाराम जरासा म्हणून आडवा झाला आणि घोरायलाही लागला. मीही आडवा झालो. 

पण काही केल्या मला झोप लागेना… माझं मन तर माझ्याही  नकळत थेट रामटेकात पोहोचलं होतं… राजाराम हा तिथला माझा सगळ्यात जवळचा मित्र होता. म्हणजे तसा तीन वर्षं पुढे होता तो माझ्या… मॅट्रिक झाल्यावर त्याने टायपिंगच्या परिक्षा दिल्या. आणि त्यानंतर रामटेकपासून दहा कि.मी. लांब असलेल्या मँगेनीजच्या खाणीत नोकरीला लागला… आधी रोजंदारीवर टाइम-कीपर म्हणून लागला होता, आणि सहा महिन्यांनी तिथेच टायपिस्ट म्हणून काम करायला लागला. मी मॅट्रिक झाल्यावर जेव्हा नोकरी शोधायला लागलो, तेव्हा राजाराम हा त्याबाबतीतला एकमेव मार्गदर्शक होता माझा … तोच माझ्या सगळ्या सर्टिफिकेटसच्या टाइप करून कॉपीज् काढायचा… खाणीतल्याच सरकारी लेबर ऑफिसरकडून वेळोवेळी त्या प्रमाणित करून घेऊन मला द्यायचा… त्या सगळ्या कामाची जबाबदारी त्याचीच आहे, असं मानणारा राजाराम… ‘With due respect and humble submission, I beg to state’’… अशासारखी सुरूवात करत मोठे मोठे अर्ज माझ्यासाठी स्वत: लिहूनही काढणारा…. पाठवायची घाई असेल तर स्वत:चे पैसे खर्च करून, पोस्टाची तिकिटं आणून लावून, अर्जांची ती पाकिटं कितीतरी ठिकाणी स्वत: पाठवणारा राजाराम… मला पहिली नोकरी मिळाल्याचं कळताच आनंदाने वेडा झालेला… स्वत:च्या खर्चाने पेढे वाटणारा राजाराम…. आई-वडील… बहिण…भाऊ… यांच्या प्रेमाखातर, गावाच्या जवळच असणा-या त्या खाणीत, तसली ती साधारण नोकरी करतच आयुष्य घालवलेला राजाराम… साहजिकच… कुठल्याही प्रगती विना, जसा होता तसाच राहिला. मी मात्र नोक-या बदलत राहिलो… त्या अनुषंगाने गावं बदलत राहिलो… राज्यही बदलत राहिलो. पण माझा हा बालमित्र राजाराम… त्याला मात्र मी कधीच विसरू शकलो नाही. त्यामुळेच त्याच्याबरोबर लहानपणी काढलेले, आणि माझ्या मॅट्रिकच्या सर्टिफिकेटसोबत कपाटात अगदी जपून ठेवलेले आमच्या दोघांचे फोटो, म्हणजे माझ्या मुलांसाठी मोठाच कुतूहलाचा विषय असायचा . त्याच्याबद्दल मी सतत इतका बोलायचो ना… त्या ‘टेपस्’… मी रत्नाला कितीवेळा ऐकवल्या असतील कोण जाणे ! आता तर जेव्हा जेव्हा राजारामचा विषय निघतो, तेव्हा तेव्हा… ‘अख्ख्या गावात हा एकच मित्र होता का तुम्हाला… राजाराम नावाचा?’ असा टोमणा मारल्याशिवाय रहात नाही ती आणि मला कळत नाही आता कसा सांगू तिला की ‘अगं… आयुष्याच्या सुरूवातीपासूनच्या ते आत्तापर्यंतच्या या प्रवासात, वादळवा-याच्या तडाख्याने मातीच्या किती छोट्या-मोठ्या टेकड्या-डोंगर आपलं अस्तित्वच गमावून बसतात ते… त्यातला एखादाच डोंगर असा असतो की जो स्वत:च्या उंचीमुळे, या वादळांमध्येही आपली ओळख टिकवून ठेवण्यात यशस्वी होतो…’ 

– क्रमशः भाग दुसरा. 

मूळ हिंदी कथा – ‘ द्वारकाधीश’ – कथाकार – श्री. भगवान वैद्य ‘प्रखर’ 

अनुवाद :  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ वाट… ☆ सौ. सुचित्रा पवार ☆

सौ. सुचित्रा पवार

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☆ वाट… ☆ सौ. सुचित्रा पवार ☆

‘ वाट ’ या शब्दाचे अनेक अर्थ आहेत.  पण वाट पहाणे आहे म्हणून माणसाचे चालणे आहे ……. 

झोपेत दिवस उगवायची वाट ,

अंधारातून चालताना प्रकाशाची वाट ,

दुःखात सुखाची वाट ,

आजारपणात बरे होण्याची वाट ,

दूर गेलेले जवळ येण्याची वाट , 

पक्ष्यांच्या पिलांना चारा घेऊन येणाऱ्या मातेची वाट पाहावी लागते  ,

चातकाला पावसाची वाट  , 

चकोराला चांदण्यांची वाट ,

तप्त धरतीला चिंब होण्याची वाट ,

शेतकऱ्याला  पीक कापणीची  वाट ,

गरिबाला श्रीमंत होण्याची वाट ,

परिक्षार्थीला पास होण्याची वाट …

वाट पाहण्याने मनाचा संयम वाढतो, चालण्याला गती मिळते, ऊर्जा मिळते, अन ज्याची वाट पाहतो ती 

मिळाल्यानंतरचा अवर्णनीय अक्षय आनंदही ! 

— पण ज्याची वाट पाहतोय ते वेळेत मात्र भेटायला हवे…,..  नाहीतर  वाट पहाणे संपून वाटच हरवते ….

© सौ.सुचित्रा पवार 

तासगाव, सांगली

8055690240

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ वीर भाई कोतवाल… ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

श्री अमोल अनंत केळकर

 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ वीर भाई कोतवाल… ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆ 

कोतवाल म्हटलं की सर्वसामान्यपणे आपल्याला आठवते दादरची प्लाझासमोरील मोक्याची कोतवाल गार्डन –  गावकी – भावकी किंवा गावाकडील मंडळींचे हमखास भेटीचे ठिकाण ! पण हा टुमदार बगीचा ज्यांचे नांवे आहे हे कोतवाल कोण याबाबत फारशी माहिती कोणालाच नसते आणि ती जाणून घेण्याचे कुतुहलही नसते !

विठ्ठल लक्ष्मण कोतवाल – जन्म ०१ डिसेंबर १९१२ – माथेरान 

नाभिक समाजात जन्मलेल्या या होतकरू तल्लख तरुणाने आपले एल एल बी शिक्षण पूर्ण करत वकिली क्षेत्रात प्रवेश केला ! नंतर ते स्वातंत्र्यलढ्यात सक्रिय झाले. सशस्र क्रांतीसाठी त्यांनी बंडखोर तरुणांची फौज उभी केली ! ब्रिटीशांचे संदेशवहन उध्वस्त करण्यासाठी डोंगरांवरील वीजवाहक मनोरे पाडून टाकले ! आदिवासी शेतकरी बांधवांसाठी मदतीचा हात पुढे केला ! ब्रिटीशांना सळो की पळो करुन सोडले ! मुरबाडमधील सिध्दगड परिसरातील जंगलखोर्‍यात लपून स्वातंत्र्यलढा देणारे हे भाई कोतवाल, ०२ जानेवारी १९४३ रोजी ब्रिटीशांशी लढताना देशासाठी शहीद झाले , हुतात्मा झाले ! 

वीर कोतवाल यांचा यावर्षीचा ८० वा बलिदान दिवस आहे !

काही वर्षापूर्वी शहीद भाई कोतवाल या नांवाने चित्रपटही आला होता ॥

वीर भाई कोतवाल यांना विनम्र अभिवादन

तेथे कर माझे जुळती-

संग्राहक : अमोल केळकर

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, kelkaramol.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ सुख म्हणजे नक्की काय असतं ! ☆ संग्राहिका – सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी) ☆

📖 वाचताना वेचलेले 📖

🌼 सुख म्हणजे नक्की काय असतं ! 🌼 संग्राहिका – सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी) 

सोलापूर इथल्या एका संस्थेने माझं दोन दिवसांचं मोटीवेशनल शिबिर आयोजीत केलं होतं. 

विविध वयोगटांतले आणि विविध व्यवसायातले शिबिरार्थी उत्साहाने सामील झाले होते.  

शिबिराच्या पहिल्या दिवसाच्या पहिल्या सत्राचा विषय होता आनंदाने कसं जगावं?  

मी साऱ्या शिबिरार्थींना एक कॉमन प्रश्न विचारला आणि नोटपॅडमधल्या कागदावर आपापलं उत्तर लिहून द्यायला सांगितलं. प्रश्न अगदी साधा होता,

सुख म्हणजे काय?—–

उत्तरं अगदी भन्नाट होती.

कोणी लिहिले,

निरोगी दीर्घायुष्य म्हणजे सुख. 

एकाने लिहिलं, घरात पत्नीने तोंड बंद ठेवणं म्हणजे सुख. 

एक उत्तर होतं, सकाळी उठल्यावर पोट साफ होणं म्हणजे सुख. 

एकाचं उत्तर होतं, म्हातारपणी मुलं आधाराला जवळपास असणं म्हणजे सुख. 

कुणाचं उत्तर होतं, भरपूर पैसा गाठीशी असणं म्हणजे सुख. 

तर कुणी लिहीलं होतं की शरीर धडधाकट असणं म्हणजे सुख. 

सुखाच्या प्रत्येकाच्या कल्पना वेगवेगळ्या होत्या.

साऱ्या शंभर शिबिरार्थींच्या सुखाच्या कल्पना जेव्हा मी एकत्र केल्या तेव्हा लक्षात आलं, प्रत्येकजण कोणत्या तरी एका बाबतीत दु:खी आहे—- म्हणजे कुणाची बायको भांडखोर आहे, 

कुणाला बद्धकोष्ठाचा त्रास आहे, 

कुणाची मुलं त्यांच्यापासून दूर आहेत…. 

आणि ती उणीव त्या प्रत्येकाला टोचते आहे.

— म्हणजे उरलेल्या नव्व्याणव टक्के बाबतीत तो सुखी आहे. म्हणजेच काय तर प्रत्येकजण नव्व्याणव टक्के सुखी आहे आणि फक्त एक टक्का दु:खी आहे. 

हे केवळ एक टक्का दु:ख आपण चघळत बसतोय आणि उरलेल्या ९९% सुखाकडे दुर्लक्ष करतोय. आहे की नाही गंमत. 

— मी जेव्हा त्या साऱ्यांच्या लक्षात ही गोष्ट आणून दिली तेव्हा सारेच चकीत झाले.

हीच तर सुखाची गंमत आहे. आपण सुखात असतो.  पण आपण सुखात आहोत हेच आपल्याला माहित नसतं.

जेव्हा काही कारणामुळे त्या गोष्टीची आपल्या आयुष्यात उणीव निर्माण होते तेव्हा आपल्याला कळतं, अरे… एवढा वेळ आपण सुखात होतो.

लहान असताना वाटतं, लहानपण म्हणजे परावलंबित्व. केव्हा एकदा मोठे होतोय आणि स्वत:च्या पायावर उभे रहातोय. मोठं झाल्यावर वाटतं, किती टेन्शन रे बाबा.

—  प्रत्येक गोष्टीत टेन्शन. 

— जागा शोधायचं टेन्शन. 

— कर्जाचे हप्ते भरायचं टेन्शन. 

— ऑफीसमध्ये साहेबांना तोंड द्यायचं टेन्शन.

त्यापेक्षा बालपण किती सुखाचं होतं. 

गृह्स्थाश्रमात प्रवेश केल्यावर वाटतं,  संसारसंगे बहु कष्टलो मी ! केव्हा एकदा मुलं मोठी होतायत आणि या जबाबदाऱ्यांतून मोकळा होतोय.

मुलं मोठी  होतात तेव्हा आपण वृद्ध झालेलॊ असतो. आणि गात्रं कुरकुर करू लागतात. तेव्हा वाटतं, अरे तो बहराचा काळ किती सुखाचा होता.

माझे एक ज्येष्ठ मित्र रवीन्द्र परळकर अलीकडे बऱ्याच दिवसांनी मला भेटले. शिळोप्याच्या गप्पा झाल्या. म्हटलं,

“थोडे वाळलेले दिसताय. बरं नव्हतं की काय?”

तर ते म्हणाले, “ प्रोस्टेट्च्या त्रासाने आजारी होतो.  काय झालं,  एक दिवस रात्री लघवी कोंडली. प्रोस्टेट ग्लॅंड वाढल्यामुळे त्याचा भार ब्लॅडरवर आला होता आणि लघवीलाच होईना. ओटीपोटावर भार असह्य झाला. मी वेदनांनी गडाबडा लोळू लागलो. अख्खी रात्र पेनकीलर घेऊन काढली. दुसऱ्या दिवशी फॅमिली डॉक्टरना घरी बोलवलं तर ते म्हणाले युरॉलॉजिस्टकडे घेऊन जा. युरॉलॉजिस्टकडे जाऊन ॲडमिट व्हायला दुपारचे अकरा वाजत आलेले. म्हणजे गेले पंधरा सोळा तास मला लघवीला झालं नव्हतं. वेदना असह्य होत होत्या. ब्लॅडर फुगून पोटातच फुटायची भीती निर्माण झाली होती. शेवटी एकदाचं मला ॲडमिट करुन घेण्यात आलं. आणि ब्लॅडर पंक्चर करुन सर्व युरीन बाहेर काढण्यात आली. त्या क्षणी माझ्या मनात विचार आला — आपल्याला दिवसातून वेळेवर लघवीला होणं ही सुद्धा किती सुखाची गोष्ट आहे.”

परळकरांचं उदाहरण हे सुखाच्या शोधात दु:खी असलेल्या प्रत्येकाचं प्रातिनिधिक उदाहरण आहे. 

— हातपाय धडधाकट आहेत. दोन घास पोटात जातायत हे सुख नव्हे काय? 

— परमात्मा मेहेरबान होऊन पावसा पाण्यापासून रक्षण करतोय हे सुख नव्हे काय?  

— घराबाहेर पडल्यावर मागे एक वाट पहाणारं दार आहे हे सुख नव्हे काय? 

 ’एका लग्नाची गोष्ट’ या प्रशांत दामलेंच्या नाटकातलं गाणं मला आठ्वतय,,

मला सांगा, सुख म्हणजे नक्की काय असतं

काय पुण्य असतं की ते, घरबसल्या मिळतं

मित्र हो, जाणिवांच्या खिडक्या सताड उघड्या ठेऊन विचार कराल तर तुमच्या लक्षात येईल की तुम्ही खूप सुखी आहात. 

चला तर मग, सगळ्या तक्रारी उडवून लावा, सारी निराशा झटकून टाका, आणि  आनंदाने जगू लागा.

संग्राहिका – शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी)

कोथरूड-पुणे.३८.

   मो.९५९५५५७९०८ 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ पाय आणि वाटा… श्री सचिन वसंत पाटील ☆ परिचय – सौ. उज्ज्वला केळकर☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

?पुस्तकावर बोलू काही?

☆ पाय आणि वाटा… श्री सचिन वसंत पाटील ☆ परिचय – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

पुस्तक – पाय आणि वाटा

लेखक – श्री सचिन वसंत पाटील

प्रकाशक – हर्मिस प्रकाशन

पृष्ठे – १०० 

मूल्य – १५० रु.          

‘पाय आणि वाटा’ हा श्री सचिन वसंत पाटील यांचा ललित लेख संग्रह. दुर्दैवाने त्यांना एका अपघातात दोन्ही पाय गमवावे लागले. पाय असताना ज्या वाटा त्यांनी तुडवल्या, त्याच्या हृदयस्थ आठवणी म्हणजे ‘पाय आणि वाटा’. मनोगतात ते लिहितात, ‘माझी कहाणी सुरू होते वर्तमानात, पाय नसलेल्या अवस्थेत. मग ती वीस वर्षामागील एका बिंदूवर स्थिरावते आणि त्यामागील वीस वर्षात फिरून, हुंदडून येते. तेव्हा पाय असलेला मी तुम्हाला भेटत रहातो, तुकड्यातूकड्यातून…कधी निखळ, निरागस, तर कधी रानभैरी, उडाणटप्पू होऊन… शब्दाशब्दातून.

एका दुर्दैवी क्षणी सचीनना अपघात झाला आणि ते अंधाराच्या खोल खाईत भिरकावले गेले. शेतावर चारा आणायला गेलेले असताना, एका अवघड वळणावर बैलगाडी पलटली. वैरणीने भरलेली गाडी त्यांच्या पाठीवर पडली. यामुळे त्यांच्या मज्जारज्जूला जोराचा धक्का बसला. आणि त्यांच्या कमरेखालचा भाग कायमचा लुळा पांगळा झाला. डॉक्टरांनी वस्तुस्थितीची कल्पना दिली. ते यापुढे कधीही चालू शकणार नव्हते. स्वत:च्या पायावर उभे राहू शकणार नव्हते. पण त्या विकल निराशेतही ते स्वप्न बघत, समोरचा वॉकर धरून ते चालताहेत. आयुष्याच्या अंधार्‍या रस्त्यावरून ते कणाकणाने पुढे सरकताहेत. या काळात एकमेव विरंगुळा म्हणजे पुस्तके वाचणे. पुस्तकांनीच त्यांना शिकवलं, संकट माणसाला जगणं शिकवतात. मग त्यांनी ठरवलं, संकटांना भ्यायचं नाही. खंबीर मनाने सामोरं जायचं. ते म्हणतात, ‘पुस्तकं वाचली, म्हणून मी वाचलो.’

श्री सचिन वसंत पाटील

वाचनातून सचिनना लेखनाची प्रेरणा मिळाली. लेखन ही काही सोपी गोष्ट नव्हती त्यांच्यासाठी. झोपून, एका कुशीवर वळून लिहावं लागे पण जिद्दीने त्यांनी आपले लेखन चालू ठेवले. त्यातून त्यांचे ‘सांगावा’, ‘अवकळी विळखा’ आणि ‘गावठी गिच्चा’ हे तीन कथासंग्रह प्रकाशित झाले. अनेक साहित्यिक, अभ्यासक, समीक्षक यांनी त्यावर लिहिलय. या पुस्तकांवरील समीक्षेची दोन पुस्तके प्रकाशित झाली आहेत. या तीनही पुस्तकांना अनेक पुरस्कारही प्राप्त झाले आहेत. अलिकडेच त्यांचे ‘पाय आणि वाटा’ हे ललित संग्रहाचे चौथे पुस्तक प्रसिद्ध झाले आहे.  अलिकडे लेखन करणं त्यांना पहिल्यापेक्षा सोपं झालय. आता ते लेखनासाठी लॅपटॉपचा उपयोग कारतात, पण तेही सोपं नाही. आताही त्यांना झोपूनच लेखन करावं लागतं. पोटावर झोपायचं. पुढे लॅपटॉप ठेवायचा. आणि टाईप करायचं. हीदेखील मोठी कसरत आहे. दिवसभरात ते जास्तीत जास्त दोन पाने लिहू शकतात. या लेखन मर्यादेमुळे पुष्कळसं सुचत असलं, तरी ते कागदावर उतरत नाही. मात्र त्यांनी जे काही लिहीलंय, ते उत्तम लिहीलंय.

‘पाय आणि वाटा’ या ललित लेखसंग्रहातील वातावरण अस्सल ग्रामीण आहे. अस्सल ग्रामीण जीवन, अस्सल ग्रामीण भाषेतून यात व्यक्त झाले आहे. खानदानी ग्रामसुंदरीचा डौल, रुबाब आणि ठसका यात आहे. त्यांची शब्दकळा लावण्यामयी आहे. ‘राखण’ या पाहिल्याच लेखात त्यांनी वर्णन केलय, ‘जमिनीच्या पोटातला गर्भ दिसामासांनी वाढायचा’. …. ‘शाळवाच्या धाटातून, केळीच्या कोक्यागत कणसं बाहेर पडायची. कणसांची राखण करणार्‍यांना पाखरं लांब गेली, असं वाटायचं. पण कुठलं? म्हवाच्या माशा उठल्यागत पुन्हा थवा यायचा. हळू हळू मोठा होत रानावर उतरायचा. एकेका थव्यात दोन-अडीचशे पाखरं असायची. असे असंख्य थवे.’ प्रत्यक्ष दृश्य डोळ्यापुढे उभं करण्याचं सामर्थ्य त्यांच्या वर्णनात आहे.

‘राखण’ हा पुस्तकातला पहिला लेख.  यात राखणीचं निमित्त काढून हुंदडायला गेलेल्या मुलांसोबत आपणही फिरतो. डोळ्यांनी सारं सारं पहातो. पंचेंद्रियांनी अनुभवतो. लेखाच्या शेवटी ते आठवणीतून वास्तवात येतात. लिहितात – ‘जनावरांच्या कालव्यानं मी जागा होतो. भोवतीच्या पडक्या भिंती मला भानावर आणतात. पण मनात हिरवं रान नाचत असतं. डोळ्यात हिरवी साय. मला आजही आशा आहे, मी माझ्या पायावर परत उभा राहीन. पुन्हा हातात गोफण घेऊन शाळवानं पिकलेलं रान राखीन.’ हा आशावादच त्यांना जगण्याचे बळ देतो.

‘करडईची भाजी’ हा लेख कथेलाच गळामिठी घालतो. हाच लेख नव्हे, तर अनेक लेख कथेच्या जवळपास जाणारे आहेत. या संदर्भात त्यांच्याशी बोलले, तेव्हा ते म्हणाले, ‘ललित लेखांमध्ये ‘मी’ आहे. माझे अस्तित्व आहे. माझे अनुभव आहेत. कथा विविध पात्रांच्या आहेत. त्यांच्या जीवनातील प्रसंग, त्यांचे अनुभव, त्यांची स्वभाव वैशिष्ट्ये त्यात आहेत. तिथे मी असेन, तर केवळ साक्षीभावानेच.’ ‘करडईची भाजी’ या लेखात, एक दहा-बारा वर्षाचा मुलगा बुट्टीत करडईची भाजी घेऊन विकायला निघालेला लेखकाला भेटतो. लेखक त्याला दहा रुपये देऊन दोन पेंडया विकत घेतो. त्यामुळे तो खूश होतो. त्याचे हास्य पाहून लेखकाला त्याचं बालपण आठवलं. ‘पाय हरवलेल्या अंधेर नगरीतून आठवणींच्या नितळ विहीरीच्या खोल पायर्‍या मी उतरू लागलो.’ असे ते लिहितात. त्यावेळी ते सहावीत होते. परीक्षेची फी भरायला घरात पैसे नव्हते. शेवटी आई म्हणते, ‘रानात करडा खूप उगवलाय. त्यो काढून पेंडया बांधून वीक जा’ आणि  त्याचे काम सुरू होते. चार आण्याला पेंडी. फी होती आठरा रुपये. एक दिवस गोठा साफ करातांना एक कालवड लाथ मारते. वेदना होतात. मांडीवर बॉलगत लालभडक टण्णू उठतो. दु:ख असतंच पण भाजी विकायला जाता येणार नाही, याचं जास्त दु:ख होतं. अखेर पाय सुधारतो. पंध्रा दिवसात फीचे पैसे जमा होतात. लेखाचा शेवट करताना त्यांनी लिहिलय, ‘आज वीस-बावीस वर्षांनंतर त्या भाजी विकणार्‍या मुलाला पाहून ते सगळं आठवलं. आज विकण्यासारखी भाजी माझ्या शेतात भरपूर आहे पण ती गवभर फिरून विकायला माझ्याकडं पाय नाहीत.‘

‘झुक झुक आगीनगाडी’मध्ये मध्ये मामाच्या गावाचे वर्णन येते. कुरूंदवाड मामाचं गाव. तीन बाजूने पाण्याने वेढलेलं गाव. बेटासारखं गाव. उशाशी कृष्णा आणि पायथ्याशी पंचगंगा घेऊन वसलेलं गाव. गावातील रमणीय निसर्गाचं वर्णन यात येतं. मामाचंही वर्णन यात येतं. ’तो आभाळाएवढा उंच वाटायचा. आपल्या मामाइतका मोठा माणूस जगात कोणी नाही, असा वाटायचं. आपण मागेल ती वस्तू देणारा. म्हंटलं तर जादूगार म्हंटलं तर सांताक्लॉज . मनातली वस्तू न मागता देणारा …’ असं मामाचं वर्णन यात येतं. गावाच्या रमणीय निसर्गाचं वर्णनही यात येतं आणि कालमानाने झालेल्या बदलाचंही. आपलंही गाव कसं बदललं आहे, याचंही वर्णन पुढे एका स्वतंत्र लेखात त्यांनी केलय.

‘पोस्टाचं पत्र हरवलं’मध्ये बदलत्या काळानुसार पत्रलेखन कमी झाल्याची खंत ते व्यक्त करतात. अक्षर चांगलं असल्यामुळे गल्लीतील लोक त्यांच्याकडून पत्र लिहून घेत.त्यांनी सांगितल्या मुद्याला कल्पनेचा मालमसाला लावून ते पत्र लिहित. ते म्हणतात, ‘माझ्या लेखनाची सुरुवात या दरम्यान कुठे तरी झाली असावी.’ यात पायाचा आंगठा आणि तर्जनीत खडू घरून काढलेल्या नाचर्‍या मोराची आठवण येते आणि आता ते पाय कुठे गेले, या बिंदुशी येऊन स्थिरावते.

‘ती बैलगाडी’, ‘घोडी’, ‘पाठीराखा’ अशी सुरेख शब्दचित्रे यात आहेत. ‘पाठीराखा’मध्ये आपल्या मोठ्या भावाबद्दल त्यांनी अतीव उमाळ्याने लिहिले आहे. लहानपणी रस्त्यावर पळतो, म्हणून अडवणारा भाऊ, अपघातानंतार चालता यावं म्हणून धडपडणारा भाऊ, ऑपरेशन चालू असताना रकतासाठी डोनर शोधणारा भाऊ, हॉस्पिटलचे बील भागवण्यासाठी पैशाची जुळणी करणारा भाऊ, अशी त्याची अनेक रूपे त्यांनी यात वर्णन केली आहेत. तो जवळ असेल, तर कशाचीच भीती नाही, असा ठाम विश्वास आणि तो जवळ नसल्यामुळेच अपघात झाला, असं त्यांना वाटत रहातं. आजही पाय नसल्याचं दु:ख एकीकडे वागवतानाच आपला भाऊ आपल्याजवळ आहे, हे सुख आपल्यापाशी आहे, याचा आनंद ते व्यक्त करतात.

‘कोरडे डोळे ‘ मध्ये आपल्याला भेटतो, एक कंजारभाटाचा मुलगा. त्यांची पाच-सात झोपड्यांची वस्ती कुणी जाळून टाकलीय. बायका- मुले, बापये तेवढे वाचलेत. बाकी सारं सामान जाळून गेलय. त्यातच त्या मुलाचे दप्तरही जळून गेलय. तो रोज शाळेत येतो. कोरड्या डोळ्यांनी काळ्या फळ्याकडे पहातो. जमेल तसं मनात उतरवून घेतो. नंतर कधी तरी तो शाळेत येइनासा होतो. लेखक देवाकडे मागणं मागतो,  शिकायची इच्छा असलेल्या कुठल्याही मुलाला शाळा सोडायला लागू नये. बाकी काही नुकसान झालं, तरी त्याची पुस्तकं तेवढी जळू देऊ नकोस.’

‘झाड आणि वाट’ मध्ये भेटतात, भुंडा माळ, त्यातून गेलेली वाट, वाटेवरच्या वाळणावरचं डौलदार आंब्याचं गच्च हिरवंगार झाड आणि त्या झाडाचा म्हातारा मालक. तो रोज त्या झाडाच्या बुंधयाशी पाण्याचा डेरा भरून ठेवतोय. उन्हाच्या रखरखीतून वाट तुडवत येणारा तृषार्त ते पाणी पिऊन तृप्त होतोय. पुढे कालमानाने जग बदललं. इरिगेशनचं पाणी आलं आणि भुंड्या माळाचं भाग्य बदललं. तो हिरवागार झाला. तिथे द्राक्षाची लागवड झाली. वाट डांबरी झाली. बाकी सारं चांगलं झालं. या सार्‍यात आंब्याचं झाड गेलं, एवढंच वाईट झालं.

‘पाय आणि वाटा’ हा संग्रहातला शेवटचा लेख. आपल्या पायांनी चाललेल्या वाटांच्या आठवणी यात आहेत. त्यात कुरणाची वाट आहे. बुधगावची वाट आहे. वाडीवाट आहे. रानाची वाट आहे. गावाकडून साखर कारखान्याकडे बेंद भागातून जाणारी मधली वाट आहे. त्या त्या वाटेवरचे प्रसंग, व्यक्ती यांच्या आठवणी यात आहेत आणि सगळ्यात विदारक आठवण म्हणजे एकदा त्या वाटेवरून जाताना त्यांना झालेला अपघात, जो त्यांचे पायच घेऊन गेला. ते लिहितात, ‘आता कधी गाडीवरून त्या वाटेवर जायची वेळ आली, तर दिसतात, त्या वाटेवर हरवलेल्या पावलांचे ठसे….’

‘पाय आणि वाटा’ या पुस्तकात गतिमानता आहे. दृश्यात्मकता आहे, भावनोत्कटता आहे. कुठे कुठे कथात्मकताही आहे. शब्दकळा लावण्यमयी आहे. एक चांगले पुस्तक वाचल्याचा आनंद हे पुस्तक नक्कीच देते.

पुस्तक लेखक –  श्री सचिन वसंत पाटील

विजय भारत चौक, कर्नाळ, ता. मिरज, जि. सांगली. पिन- ४१६४१६. भ्रमणध्वणी – 8275377049, ईमेल – sachinpatil7049@gmail.com

पुस्तक परिचय – सौ. उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #168 ☆ हॉउ से हू तक ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख हॉउ से हू तक। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 168 ☆

☆ हॉउ से हू तक

‘दौलत भी क्या चीज़ है, जब आती है तो इंसान खुद को भूल जाता है, जब जाती है तो ज़माना उसे भूल जाता है।’ धन-दौलत, पैसा व पद-प्रतिष्ठा का नशा अक्सर सिर चढ़कर बोलता है, क्योंकि इन्हें प्राप्त करने के पश्चात् इंसान अपनी सुधबुध खो बैठता है … स्वयं को भूल जाता है। तात्पर्य यह है कि धन-सम्पदा पाने के पश्चात् इंसान अहं के नशे में चूर रहता है और उसे अपने अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। उस स्थिति में उसे कोई भी अपना नज़र नहीं आता…सब पराए अथवा दुश्मन नज़र आते हैं। वह दौलत के नशे के साथ-साथ शराब व ड्रग्स का आदी हो जाता है। सो! उसे समय, स्थान व परिस्थिति का लेशमात्र भी ध्यान तक नहीं रहता और संबंध व सरोकारों का उसके जीवन में अस्तित्व अथवा महत्व नहीं रहता। इस स्थिति में वह अहंनिष्ठ मानव अपनों अर्थात् परिवार व बच्चों से दूर…बहुत…दूर चला जाता है और वह अपने सम्मुख  किसी के अस्तित्व को नहीं स्वीकारता। वह मर्यादा की सभी सीमाओं को लाँघ जाता है और रास्ते में आने वाली बाधाओं के सिर पर पाँव रख कर आगे बढ़ता चला जाता है और उसकी यह दौड़ उसे कहीं भी रुकने नहीं देती।

धन-दौलत का आकर्षण न तो कभी धूमिल पड़ता है; न ही कभी समाप्त होता है। वह तो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ता चला जाता है। यह प्रसिद्ध कहावत है…’पैसा ही पैसे को खींचता है।’ दूसरे शब्दों में इंसान की पैसे  की हवस कभी समाप्त नहीं होती…सो! उसे उचित-अनुचित में भेद नज़र आने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। धन कमाने का नशा उस पर इस क़दर हावी होता है कि वह राह में आने वाले  आगंतुकों-विरोधियों को कीड़े-मकोड़ों की भांति रौंदता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है। इस मन:स्थिति में वह पाप-पुण्य के भेद को नकार; अपनी सोच व निर्णय को सदैव उचित ठहराता है।

इस दुनिया के लोग भी धनवान अथवा दौलतमंद  इंसान को सलाम करते हैं अर्थात् करने को बाध्य होते हैं…  और यह उनकी नियति होती है। परंतु दौलत के खो जाने के पश्चात् ज़माना उसे भूल जाता है, क्योंकि  यह तो ज़माने का चलन है। परंतु इंसान माया के भ्रम में सांसारिक आकर्षणों व दुनिया-वी चकाचौंध में इस क़दर खो जाता है कि उसे अपने आत्मज भी अपने नज़र नहीं आते; दुश्मन प्रतीत होते हैं। एक लंबे अंतराल के पश्चात् जब वह उन अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, तो वे भी उसे नकार देते हैं। अब उनके पास उस अहंनिष्ठ इंसान के लिए समय का अभाव होता है। यह सृष्टि का नियम है कि जैसा आप इस संसार में करते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। यह तो हुई आत्मजों अर्थात् अपने बच्चों की बात, जिन्हें अच्छी परवरिश व सुख- सुविधाएं प्रदान करने के लिए वह दिन-रात परिश्रम करता रहा; ठीक-ग़लत काम करता रहा…परंतु उन्हें समय व स्नेह नहीं दे पाया, जिसकी उन्हें दरक़ार थी; जो उनकी प्राथमिक आवश्यकता थी।

‘फिर ग़ैरों से क्या शिक़वा कीजिए… दौलत के समाप्त होते ही अपने ही नहीं, ज़माने अर्थात् दुनिया भर के लोग भी उसे भुला देते हैं, क्योंकि वे संबंध स्वार्थ के थे;  स्नेह सौहार्द के नहीं।’ मैं तो संबंधों को रिवाल्विंग चेयर की भांति मानती हूं। आपने मुंह दूसरी ओर घुमाया; अवसरवादी बाशिंदों के तेवर भी बदल गए, क्योंकि आजकल संबंध सत्ता व धन-संपदा से जुड़े होते हैं… सब कुर्सी को सलाम करते हैं। जब तक आप उस पर आसीन हैं, सब ठीक चलता है; आपको झूठा मान-सम्मान मिलता है, क्योंकि लोग आपसे हर उचित-अनुचित कार्य की अपेक्षा रखते हैं। वैसे भी समय पर तो गधे को भी बाप बनाना पड़ता है… सो! इंसान की तो बात ही अलग है।

लक्ष्मी का तो स्वभाव ही चंचल है, वह एक स्थान पर ठहरती ही कहाँ है। जब तक वह मानव के पास रहती है, सब उससे पूछते हैं ‘हॉउ आर यू’ और लक्ष्मी के स्थान परिवर्तन करने के पश्चात् लोग कहते हैं ‘हू आर यू।’ इस प्रकार लोगों के तेवर पल-भर में बदल जाते हैं। ‘हॉउ’ में स्वीकार्यता है—अस्तित्व-बोध की और आपकी सलामती का भाव है, जो यह दर्शाता है कि वे लोग आपकी चिंता करते हैं…विवशता-पूर्वक या मन की गहराइयों से… यह और बात है। परंतु ‘हॉउ’ को ‘हू’ में बदलने में पल-भर का समय भी नहीं लगता। ‘हू’ अस्वीकार्यता बोध…आपके अस्तित्व से बे-खबर अर्थात् ‘कौन हैं आप?’ ‘कैसे से कौन’ प्रतीक है स्वार्थपरता का; आपके प्रति निरपेक्षता के भाव का; अस्तित्वहीनता का तथा यह प्रतीक है मानव के संकीर्ण भाव का, क्योंकि उगते सूर्य को सब सलाम करते हैं और डूबते सूर्य को निहारना भी लोग अपशकुन मानते हैं। आजकल तो वे बिना काम अर्थात् स्वार्थ के ‘नमस्ते’अथवा ‘दुआ सलाम’ भी नहीं करते।

इस स्थिति में चिन्ता तथा तनाव का होना अवश्यंभावी है। वह मानव को अवसाद की स्थिति में धकेल देता है; जिससे मानव लाख चाहने पर भी उबर नहीं पाता। वह अतीत की स्मृतियों में अवगाहन कर संतोष का अनुभव करता है। उसके सम्मुख प्रायश्चित करने के अतिरिक्त दूसरा विकल्प होता ही नहीं। सुख व्यक्ति के अहं की परीक्षा लेता है, तो दु:ख उसके धैर्य की…दोनों स्थितियों अथवा परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वाले व्यक्ति का जीवन सफल कहलाता है। यह भी अकाट्य सत्य है कि सुख में व्यक्ति फूला नहीं समाता; उस के कदम धरा पर नहीं पड़ते…वह अहंवादी हो जाता है और दु:ख के समय वह हैरान-परेशान होकर अपना धैर्य खो बैठता है। वह अपनी नाकामी अथवा असफलता का ठीकरा दूसरों के सिर पर फोड़ता है। इस उधेड़बुन में वह सोच नहीं पाता कि यह संसार दु:खालय है और सुख बिजली की कौंध की मानिंद जीवन में दस्तक देता है…परंतु बावरा मन उसे स्थायी समझ कर अपनी बपौती स्वीकार बैठता है और उसके जाने के पश्चात् वह शोकाकुल हो जाता है।

सुख-दु:ख का चोली दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरा आता है। जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारों का रहना असंभव है; उसी प्रकार दोनों का एक छत्र-छाया में रहना भी असंभव है। परंतु सुख-दु:ख को साक्षी भाव से देखना अथवा सम रहना आवश्यक है। दोनों अतिथि हैं–जो आया है, उसका लौटना भी निश्चित है। इसलिए न किसी के आने की खुशी, न किसी के जाने का ग़म-शोक मनाना चाहिए। हर स्थिति में सम रहने का भाव सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम है। इसलिए सुख में अहं को शत्रु समझना आवश्यक है और दु:ख में अथवा दूसरे कार्य में धैर्य का दामन छोड़ना स्वयं को मुसीबत में डालने के समान है। जीवन में कभी भी किसी को छोटा समझ कर किसी की उपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि आवश्यकता के समय पर हर व्यक्ति व वस्तु का अपना महत्व होता है। सूई का काम तलवार नहीं कर सकती। मिट्टी, जिसे आप पाँव तले रौंदते हैं; उसका एक कण भी आँख में पड़ने पर इंसान की जान पर बन आती है। सो! जीवन में किसी तुच्छ वस्तु व व्यक्ति की कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए… उसे स्वयं से अर्थात् उसकी प्रतिभा को ग़लती से भी कम नहीं आँकना चाहिए।

पैसे से सुख-सुविधाएं तो खरीदी जा सकती हैं, परंतु मानसिक शांति नहीं। इसलिए दौलत का अभिमान कभी मत कीजिए। पैसा तो हाथ का मैल है; एक स्थान पर कभी नहीं ठहरता। परमात्मा की कृपा से पलक-झपकते ही रंक राजा बन सकता है; पंगु पर्वत लाँघ सकता है और अंधा देखने लग जाता है। इस जन्म में इंसान को जो कुछ भी मिलता है; उसके पूर्वजन्म के कर्मों का फल होता है…फिर अहं कैसा? गरीब व्यक्ति अपने कृतकर्मों का फल भोगता है…फिर उसकी उपेक्षा व अपमान क्यों? इसलिए मानव को हर स्थिति में सामंजस्य बनाए रखना चाहिए…यही सफलता का मूल है। समन्वय, सामंजस्यता का जनक है, उपादान है; जो जीवन में समरसता लाता है। यह कैवल्य अर्थात् अलौकिक आनंद की स्थिति है, जिसमें ‘हॉउ आर यू’ और ‘हू आर यू’ का वैषम्य भाव समाप्त हो जाता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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