(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज प्रस्तुत है स्वर्गीय राजुरकर राज जी की स्मृति में यह आलेख “ज़िद, जुनून और जोश से लबरेज़ राजुरकर की बिदाई से जुड़ा ख़्वाब…”।)
आलेख – “ज़िद, जुनून और जोश से लबरेज़ राजुरकर की बिदाई से जुड़ा ख़्वाब…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
15 फ़रवरी 2023 का दिन भोपाल के साहित्यकारों के लिए एक मायूसी भरा दिन रहा। सुबह ही हर दिल अज़ीज़ राजुरकर राज के अवसान की खबर मिली। जो जहाँ था, उसने आँख मूँद कर हृदय विदारक खबर को ईश्वर का विधान समझ कर स्वीकार किया। फिर भी सहसा अहसास हुआ कि दुष्यंत संग्रहालय पहुँचेंगे तो बीमारी से त्रस्त देह पर एक मुस्कुराता चेहरा उनका स्वागत करेगा। वह आपको पता नहीं चलने देगा कि वह अंदर ही अंदर सिमट रहा है। संग्रहालय की योजनाओं को मूर्त रूप न देने पाने के जुनून में घुट रहा है। वह एक बहुत बड़े ख़्वाब के ताबीर के बहुत नज़दीक था। उसे भरोसा हो चला था कि शासन से ज़मीन का एक टुकड़ा मिल जाये तो संग्रहालय का ख़ुद का भवन भोपाल के ज़मीन पर खड़ा हो जाये। एक ऐसा तीर्थ स्थल बन जाये जहाँ भोपाल पहुँचने वाले हर कलाप्रेमी साहित्यकार की आँखें नम होकर पूर्वजों की धरोहर को नमन करें। नियति उसे चेतावनी देती थी। वो उसे कान पर भिनभिनाती मक्खी समझ एक हाथ से झटक देता और ख़्वाब को सच करने के बारे में योजना बनाने लगता। इसके पहले कि भोपाल में ज़मीन का टुकड़ा उसके ख़्वाब के ताबीर का सबब बने, वह ख़ुद ज़मींदोज़ हो गया।
हम सबके पास समय तो होता है लेकिन कोई लक्ष्य और उसे पूरा करने की ज़िद, जुनून और जोश नहीं होता जो राजुरकर के रोम-रोम में समाया था। अभी कुछ ही दिन पहले की बात है, महुआ हाउस में कार्यकारिणी की बैठक में उत्साह से भरा आदमी संग्रहालय की योजनाओं का न सिर्फ़ खाका खींच रहा था अपितु उन्हें साकार करने की ज़िद के वशीभूत निर्णयों की भूमिका तैयार कर रहा था।
यह महत्वपूर्ण नहीं है की एक सपना पूरा हुआ या नहीं बल्कि यह मायने रखता है कि सपना देखना और उसे पूरा करने में पूरी सिद्दत से लगे रहना- यही राजुरकर राज था।
ख़्वाब देखना मनुष्य की मजबूरी है। उसे पूरा होने देना या बिसूर देना रब की जी हुज़ूरी है। लेकिन राजुरकर के ख़्वाब को पूरा करना हम सबको ज़रूरी है। वही उन्हें सच्ची श्रद्धांजली होगी। दुष्यंत और उनके सच्चे प्रेमी राजुरकर की यादों को संजोने का एक स्मृति स्थल साकार हो जाये। अशोक निर्मल, रामराव वामनकर और संग्रहालय की कार्यकारिणी सदस्यों पर यह महती ज़िम्मेदारी आन पड़ी है। भोपाल ही नहीं भारत भर के साहित्य प्रेमी उनके ख़्वाब को भोपाल की सरज़मीं पर उतरते देखना चाहेंगे।
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण रचना “प्रेम…”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
फरवरी 2020 के किसी तारीख की बात है। मैं बिहार की राजधानी पटना से परीक्षा देकर वापस घर को लौट रहा था, जिस ट्रेन के लिए सीट आरक्षित था, कैपिटल एक्सप्रेस थी। रात्रि के 11 बजे ट्रेन आई और मैं अपने गंतव्य को जाने के लिए पूर्वयोजित ‘सीट‘ पर बैठ गया, जो कि लोवर बर्थ थी ! उस तारीख में भी देश में ‘कोरोना‘ अपनी मायाजाल फैलाते हुए बढ़ी जा रही थी, पटना में भी वायरस आ चुके थे, सिर्फ़ प्रमाणित होना बाकी था, किन्तु मैंने दूरअंदेशी को देखते हुए ‘मास्क‘ लगाना शुरू कर दिया था। जिस कंपार्टमेंट में मैं बैठा था, मैंने देखा कि उस कंपार्टमेंट में ही नहीं, वरन पूरी बोगी में किसी यात्री ने मास्क पहने हुए नहीं थे। मैंने सामने की सीट पर बैठे सहयात्री भाई साहब से पूछ ही बैठा- ‘क्या सर कोरोना चली गयी क्या ? आपने मास्क नहीं लगाया है !‘
रात्रि का समय होने के कारण हो या अन्य कारणवश प्रत्युत्तर में उन्होंने मुझसे कहा- ‘अरे भई, यह कोरोना-वोरोना कुछ नहीं है ! यह सरकार और डब्ल्यूएचओ का अपनी-अपनी कमजोरी छिपाने का प्रपंचमात्र है और तुम्हें मेरे मास्क न पहनने से इतनी ही असहजता है, तो मुझे एक मास्क दे दो !‘
मेरे पास उस समय स्वयं पहने मास्क के अतिरिक्त, अतिरिक्त मास्क नहीं था, इसलिए मैंने बात आगे नहीं बढ़ाया और ‘क्षमाभाव‘ से शुभ रात्रि कहकर अपनी सीट पर चादर तान सो गया ! अहले सुबह नींद तब टूटी, जब किन्नरबंधुओं द्वारा जबरन रुपये माँगे जाने लगे थे । मैंने उन्हें मना करते हुए आगे बढ़ जाने को कहा, लेकिन उसी समय पेपरसोप बेचने वाले आए और उनसे मैंने सोप खरीदा, तो देखा कि वे उसके साथ-साथ फेसमास्क भी बेच रहे थे। मैंने उनसे बिना हुज्जत किए एकदाम 55 रुपये में एक मास्क खरीदा, ताकि सामने के सीटवाले सहयात्री भाई साहब को दे सकूँ, क्योंकि उनके द्वारा रात में मुझसे माँगे गए ‘मास्क‘ को गिफ़्ट के तौर पर प्रदान कर सकूँ ! सचमुच में, उनकी बातें मुझे इंस्पायर कर चुका था और मेरे दिल को स्पर्श कर चुकी थी !
अब सुबह के 5 बज चुके थे, किन्तु सामनेवाले यात्री मुझे दिख नहीं रहे थे। मुझे लगा वे नित्यकर्म में गए होंगे, पर काफी देर बाद भी वे जब अपनी सीट पर नहीं आए, तो मैंने अपर बर्थवाले सहयात्री से पूछा कि इस भाई साहब को नहीं देख रहा हूँ, तो उसने कहा कि वे तो 2 घंटे पहले ही उतर गए हैं !
मैंने वह मास्क उसी भाई साहब के लिए लिया था, लेकिन अपर बर्थवाले सहयात्री को मास्क देकर कहा- ‘भैया, मास्क पहनिए। कोरोना का प्रकोप बढ़ने लगा है ! उन्होंने मास्क लेते हुए ‘धन्यवाद‘ कहा, किन्तु अन्य यात्री मुझे देखने लगे थे कि मैं मास्क उन्हें भी दूँगा, जबकि मैंने यह मास्क उन सभी के समक्ष ही 55 रुपये खर्च कर खरीदा था और बहरहाल उन सभी यात्रियों के लिए यह खरीद पाना संभव नहीं था, किन्तु मन में यह बात ठान लिया कि अपनी संचित राशि से और खुद सीकर जरूरतमंदों के बीच मुफ़्त मास्क बाँटेंगे !
जो भी हो, नियत समय से कुछेक घंटे की देरी पर ट्रेन गंतव्य जंक्शन पर लगभग 20 मिनट के लिए रुकी रही। उस दिन घर आने तक मेरे दिमाग में यह बात जोर-जोर से चलने लगी थी कि अगर कोरोना का प्रकोप बढ़ गया, तब क्या होगा, क्योंकि लोगों के बीच खुद के द्वारा मास्क खरीदने के प्रति इच्छा तो है ही नहीं, न ही मास्क पहनने के प्रति जागरूकता है?
घर पर मैंने ट्रेन वाली घटना व मेरे विचारों को यानी मुफ़्त में मास्क वितरण करने के विचारों को परिजनों के साथ शेयर किया। मास्क खरीदने में रुपये बहुत लग जाते, किन्तु खुद और परिजनों की इच्छाशक्ति ने मन की दृढ़ता को संबल प्रदान किया, साथ ही घर पर सिलाई मशीन ऐसे समय में बड़े काम आए और हम सबने मिलकर पहले सैकड़ों, फिर हजारों और फिर लाखों मास्क सी डाले और यह कार्य अनवरत जारी है। इसके साथ ही शनै: -शनै: लाखों की संख्या में मास्क खरीदे भी गए। शुरुआत के कुछ ही दिनों में हम पारिवारिक सदस्यों ने भौतिक दूरियों का पालन करते हुए कई हज़ार मास्क निःशुल्क वितरण कर दिए !
पहले जनता कर्फ्यू, फिर पार्ट-पार्ट कर लॉकडाउन भी लगने लगी, लेकिन मार्केट आने-जाने वक़्त आस-पास के गांव के हाट में, तो कहीं भीड़-भाड़ वाले इलाकों में, तो ठेलेवालों के पास, तो कभी झालमुढ़ीवालों के पास, कभी किरानों की दुकानों में, कभी कुरियर वाले को, तो कभी विद्यालय अथवा हॉस्पिटल के क्वाराइनटाइन सेंटरों में मुफ़्त में मास्क वितरित करते रहे !
साल 2020 के अंत में बिहार विधानसभा का चुनावी माहौल होने के कारण लोगों को ज्यों-ज्यों यह भनक लगने लगा कि अब तो कोरोना की लहर घटती जा रही है, त्यों-त्यों लोगों ने मास्क पहनना छोड़ने लगे, इसके बावजूद मेरे द्वारा इस हेतु जनजागरूकता अभियान चलते रहा और हर रोज कुछ घंटों की सेवा लिए मुफ़्त मास्क वितरित करते रहा। अब मैं मेडिकेटेड मास्कों को खरीदकर भी मुफ़्त वितरित करने लगा हूँ। मेडिकेटेड मास्कों की खरीद पर जो राशि लगती है, उस राशि को मेरे हिंदी उपन्यास ‘वेंटिलेटर इश्क़‘ की रॉयल्टी से पूरी हो जाती है।
अब मैं खुद के शहर और खुद के राज्य से इतर भी मुसाफिर की भाँति जहाँ भी जाता, वहीं निःशुल्क मास्क वितरित करने लग जाता। पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार के कई जिलों, यथा- कटिहार, पूर्णिया, भागलपुर, समस्तीपुर, पटना, सहरसा इत्यादि में मैंने जमकर निःशुल्क मास्क वितरण किये। ….परन्तु कहते हैं न अच्छे कार्य करनेवालों की अगर प्रशंसा होगी, तो आलोचना भी ! इसे आलोचना नहीं कहिए, अपितु निंदा कहिये ! लोगों ने मेरे कार्यों को न केवल पागलपन कहा। कई लोगों को जब मास्क देने जाता और ‘कोरोना‘ से बचने के लिए बताते फिरता, तो वे सब कहते कि कोरोना तो भाग गया है, फिर तुम क्यों पागलोंवाला काम कर रहा है, समय और रुपयों की बर्बादी कर रहे हो ! कई लोग सामने में मास्क पहनने के लिए लेते और बगल किसी दुकान में बेच देते, कई लोग तो मुफ़्त में मिलने के कारण कई-कई मास्क ले लेते, तो कोई व्यक्ति मुझसे मास्क लेकर मेरे सामने ही फेंक देते ! कई लोग तो अज़ीब ही फरमाइश कर बैठते कि उन्हें फलाँ रंग का मास्क अच्छा नहीं लगता है, इसलिए फलाँ रंग का मास्क चाहिए ! कई महिलाएं कहतीं कि मास्क लगाने से मेकअप छिप जाएगी ! कई लोग यह भी कहते कि 10 टकिया ‘मास्क‘ बाँटकर दानवीर कर्ण बनते फिरते हो ! कभी-कभी मैं उन्हें जवाब दे देता कि दस टकिया ‘मास्क‘ है तो क्या ? पहनो तो सही ! पहनेंगे नहीं यानी पर उपदेश कुशल बहुतेरे ! मैं तो जागरूकता के लिए यह अभियान चला रहा हूँ, ताकि लोग बीमारियों से बच सके, क्योंकि मेरे द्वारा प्रदत्त ‘मास्क‘ नियमित साफ-सुथरे रखने पर सप्ताह- पन्द्रह दिन आसानी से चल सकते हैं !
वहीं एक दिन जब मार्केट में मैं मुफ़्त ‘मास्क‘ वितरण को गया था, तो एक फल विक्रेता ने मेरे कार्यों को देखकर मुझे ‘मास्कमैन‘ नाम दे दिया और उस दिन से मेरे दोस्त, परिजन, रिश्तेदारों और समाज के लोगों ने मुझे इसीनामसे पुकारने लगे यानीमास्कमैन ! अबतो 25 माह हो गए…. मैं अब भी हर दिन मुफ़्त मास्क वितरित करता हूँ । गणतंत्र दिवस 2021 के दिन मैंने मुफ़्त में 51 हज़ार से अधिक मास्क मात्र 8 घंटे में वितरित किया है, 75 वें स्वतंत्रता दिवस के शुभअवसर पर 75 हज़ार मास्क, तो वहीं रक्षाबंधन और शिक्षक दिवस के अवसर पर क्रमशः 15 हज़ार और 12 हज़ार मास्क निःशुल्क वितरित किया, जिसके कारण मेरा नाम ‘लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स‘ में दर्ज होने हेतु संपादक के मेल प्राप्त हुए हैं। वहीं ‘बिहार बुक ऑफ रिकार्ड्स‘ और ‘रिकॉर्ड्स होल्डर रिपब्लिक यूके‘ में मेरे कृत्य और कीर्तिमान सहित यह उपलब्धि ‘मास्कमैन ऑफ इंडिया‘ के रूप दर्ज हो चुका है !
मैं अपने परिवार के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ, जो मेरे सद्कार्य में साझीदार भी बने ! मैं आभारी रहूँगाउसरेलयात्री का भी, जिसकी बातों केकारणआजमैं 22 लाख से अधिक ‘मास्क‘ निःशुल्क वितरित कर चुका हूँ। मैं प्रेमश: आभारी रहूँगा, उस भिक्षुक का भी, जो मेरे पास भीख के एवज में रुपये नहीं, अपितु ‘मास्क‘ माँगे ! फिर मैंने अपना संकल्प और भी दृढ़ किया कि जबतक ‘कोरोना‘ जाएगी नहीं, तबतक मैं ‘मास्क‘ बाँटता रहूँगा !
प्रत्येक गोष्टीकडे बघण्याचा प्रत्येकाचा दृष्टिकोन हा वेगवेगळा असतो.आणि प्रत्येकजण आपापल्या परीने रास्तच असतो. त्यामुळे आधी आपल्या मताला,आवडीला आपल्या दृष्टिकोनाला महत्त्व हे द्यावंच पण त्याचबरोबर दुसऱ्या बाजूचाही थोडी वेगळी वाट उमजून, समजून घ्यावी.
गेले सात दिवस व्हँलेटाईन उत्सव साजरा होत होता. आता हे आनंदाची,प्रेमाची उधळण करीत आलेले सात दिवस साजरे करायचे की त्याकडे “नसती थेरं”हे बिरुद लावून अगदी जाणीवपूर्वक त्याला फक्त आणि फक्त विरोधच करायचा ह्याबाबतीत प्रत्येक व्यक्तीचं स्वतंत्र असं मत असणारच आहे परंतु एक नक्की काही वेळा आपल्या मतांना थोडं दूर ठेऊन, आवडींना जरा बदलाची कलाटणी फोडणी देऊन साजरे करायचे हे आपले आपण ठरवायचे.
.. नुकताच कुठे आत्ता हा तरुणाई चा उत्सव संपला, जरा कुठे हुश्श झालं बघा.कुठलीच संस्कृती, धर्म, पंथ कधीच चुकीची शिकवण देत नसतो. खरतर चुकीचा असतो आपला दृष्टिकोन त्याकडे बघण्याचा,चुकीची असते ती कुठलीही आपली टोकाची भुमिका.काही जणांनी पूर्ण सप्ताह वेगवेगळ्या दिवसांचे महत्व जाणून साजरा केला तर काही जण प्रेम करायला ह्या दिवसांची गरजच नाही मुळी, प्रेम ही सदासर्वकाळ मनातून उमलून येऊन करण्याची गोष्ट ह्या मतांचे.दोन्हीही विचार आपापल्या जागी योग्यच.अश्याच एका “तो”आणि “ती”ची गोष्ट. हे दोघेही नुकतेच ह्या स्वप्नाळू आठवड्या तून बाहेर पडून परत आव्हानं स्विकारुन जगायला सिद्ध झालेत. नुकतीच दोघही ह्या आभासी जगात फेरफटका मारून मोठ्या कष्टाने काडीकाडी जमवून साठवलेली गंगाजळी ह्या प्रेमाच्या लाटेत जरा अटलीच ह्या वास्तवतेची जाण येऊन भानावर आलीत. रोज आपण जो गिफ्ट्स चा मारा केला तो एक मार्केटिंग फंडा होता हे त्यांना उमगले.शेवटी सगळे हप्ते जाऊन महिना अखेर किती उरलेत ह्याचा हिशोब ती करु लागली.शेवटी प्रेम हे मनातून फुललं,जपलं,जाणवलं,आतून वाटलं तेच खरं आणि हे शेवटापर्यंत पुरून उरणारं असतं हे पण खरं.त्यामुळे आता संपूर्ण वर्ष परस्परांची काळजी घेऊन,एकमेकांच्या सोयी बघून,त्यानुसार वागून हा कायमचा वर्षभराचा व्हँलेंटाईन जास्त सुख देईल हे पण त्यांना उमगले.तरीही ह्या साजरा केलेल्या उत्साहाने त्या निमीत्ताने का होईना आपण दोघे जरा जास्त जवळ आल़ो हे पण त्यांना कळले. असो
ह्या निमित्ताने मागे मीच केलेल्या रचनेने आजच्या पोस्टची सांगता करतेयं.
वादळात अडकलेल्या एका पांथस्थाने जवळच्याच एका भग्न मंदिराचा आसरा घेतला.काळ्याकुट्ट ढगांनी सर्व परिसर झाकोळून गेलेला होता.कोणत्याही क्षणी आभाळ भुईवर उतरणार होतं अन कडाडणाऱ्या विजा प्रकाशाची वाट दाखवत त्यांना भुईवर उतरवणार होत्या.कुट्ट त्या अंधाराच्या मंदिरात पांथस्थास काहीच दिसेना.अडखळत चाचपडत तो कसाबसा गाभाऱ्याशी पोहचला.खिशातली काडीपेटी काढून तो काडी ओढायचा प्रयत्न करू लागला पण सर्द पडलेला तो गुल पेटण्याचं नावच घेत नव्हता.अथक प्रयत्नाने एका काडीने शेवटी पेट घेतला.पांथस्थाला हायसे वाटले.त्याने इकडे तिकडे शोध घेतला. एका कोनाड्यात त्याला तेलाने भरलेला दिवा दिसला.हातातील आगीने त्याने दिवा पेटवला अन मूर्तीच्या पायाशी ठेवला.काळ्याकुट्ट पाषाणातील ती मूर्ती दिव्याच्या प्रकाशात उगीचच हसल्याचा त्याला भास झाला.त्याची नजर आता उदबत्तीस शोधू लागली ” दिवा आहे तर उदबत्तीही असणारच !” तो स्वतःशी पुटपुटला, इतक्यात मूर्तीच्या मागे त्याला उदबत्ती सापडलीच.दिव्यावर उदबत्ती पेटवून त्याने शेजारीच असलेल्या कपारीत खोचून दिली अन देवाला हात जोडून तो गाभाऱ्याबाहेर आला.गाभारा प्रकाश अन सुगंधाने भरुन गेला.त्या भयाण रात्रीत त्याला देवाचा सहारा मिळाला.थकलेला तो लवकरच निद्राधीन झाला.
सोसाट्याचा वारा ,कोसळता पाऊस अन विजांचे कल्लोळ चालूच होते.मध्यरात्र उलटली. दिव्याचे लक्ष सहजच स्वतःकडे गेले.रत्नजडित खड्यांनी मढलेले त्याचे रूप खासच सुंदर होते.त्याहून खूप सुंदर नाजूक नक्षी,उठावदार रंग, सुबक आकार त्याला खूपच आवडला.स्वतःच्या रूपाचा त्याला खूपच आनंद झाला आणि सौंदर्याचा अभिमानही !
शेजारी उदबत्ती जळत होती तिचं अस्तित्व काही क्षणांचं होतं. दिव्याला उदबदत्तीची कीव आली.
” काय ही उदबत्ती ! ना प्रकाश ना रूप ! काळा देह, हिला मुळी देखणेपण नाहीच!” तो स्वतःशीच पुटपुटला.त्याने उदबत्तीला न राहून विचारलेच,”काय गं उदबत्ती तुला माझ्या देखणेपणाचा जरासुद्धा मोह होत नाही का ? माझ्या सौंदर्याचा हेवा वाटत नाही का?”
तिने हसून उत्तर दिले ,” बिल्कुल नाही.ईश्वराने जे रूप मला दिलेय त्यात मी समाधानी आहे.प्रत्येकाला इथं नेमून दिलेले काम आहे अन आपण ते करायचे आहे ,एवढेच मला माहित आहे ;त्या पलीकडे मी जास्त विचार नाही करत.”
दिव्याला तिचं म्हणणं तितकंसं पटलं नाही तो तिला काही न काही म्हणतच राहिला अन उदबत्ती मौन बाळगून ऐकत राहिली.
इतक्यात सोसाट्याचा वारा सुटला आता मात्र दिव्याला आपला तोल सांभाळता येईना.उदबत्ती स्थिरपणे मंद मंद सुगंध दरवळत होती, अन …वाऱ्याचा प्रचंड झोत गाभाऱ्यात शिरला ! फडफडणारा दिवा क्षणात विझला.उदबत्ती शेवट पर्यंत जळत राहिली .
उत्तररात्री वादळ शांत झाले.पहाट होताच पक्ष्यांनी पंख झटकले.आभाळ निवळून निरभ्र शांत झाले.पांथस्थ उठला त्याला आता पुढं जायचं होतं.रात्रभर जीविताचं संरक्षण केल्याचे उपकार मानायला तो देवाच्या गाभाऱ्यात गेला. दोन्ही हात जोडून नतमस्तक होत उदबत्तीची राख त्याने भाळावर लेपली.बाजूच्या दिव्यावर काजळी साचली होती.त्याने दिवा उचलला व पुन्हा कोनाड्यात ठेऊन दिला .
रात्रभर प्रभू चरणाची सेवा करून कुणा सज्जनाच्या भाळावर मिरवत उदबत्ती दिमाखात पाऊले चालत राहिली अन दिवा अंधारल्या कोनाड्यात कुणा अवचित पांथस्थाची अभावीत पणे वाट पहात एकटाच राहिला…
☆ बोलू कौतिके… अर्थात Art of appreciation… ☆ सुश्री लीना सोहोनी ☆
कौतुक, प्रशंसा, स्तुती हे एकाच वर्गातील पण जरा वेगवेगळ्या भावच्छटा असलेले शब्द आहेत. कौतुक हे मनापासून असतं, प्रशंसा लोकांसमोर, जरा वाजत गाजत करायची असते पण ती खरीच असते, तर स्तुती ही केवळ समोरच्या व्यक्तीला प्रसन्न करण्यासाठी, त्या व्यक्तीच्या पुढे पुढे करण्यासाठी करण्यात येते व त्यामागे स्तुतिपाठकांचा बरेचदा सुप्त हेतू ( hidden agenda) असतो. पण आत्ता आपण केवळ कौतुकाविषयीच बोलणार आहोत. एखाद्याच्या achievement बद्दल मनापासून खरं खुरं कौतुक वाटणं आणि ते वाटत असल्याचं आपण शब्दातून किंवा कृतीतून त्या व्यक्तीपर्यंत पोचवणं. मग ते कौतुक शब्दात असेल, नजरेत असेल, कृतीत किंवा पाठीवर दिलेल्या शाबासकीत व्यक्त केलेलं असेल. पण ते व्यक्त होणं महत्वाचं!
बरेच वेळा आपल्या परिचयातील एखाद्या व्यक्तीने काहीतरी वाखाणण्याजोगी कामगिरी करून दाखवलेली असते आणि ही गोष्ट इतकी सोपी नाही किंवा कदाचित ती आपल्यालासुद्धा जमणार नाही, ही गोष्ट आपल्याला मनातून खरंच पटलेली असते. पण तरीही आपण त्या व्यक्तीला मनापासून, भरभरून दाद देत नाही, आपल्या तोंडून कौतुकाचे शब्द बाहेरच पडू शकत नाहीत.
असं का होत असावं?
याचा जर नीट विचार केला, तर याचं उत्तर मनाच्या कोपऱ्यातच कुठेतरी दडून बसलेलं असतं. कदाचित आपण समवयस्क असू, नाहीतर मग समव्यावसायिक असू…कदाचित ती व्यक्ती आपल्याहून वयाने, अनुभवाने लहान असेल आणि तिचं हे अनपेक्षित यश आपल्या अहंकाराला थोडासा धक्का देऊन गेलं असेल. पण मग आपण जर मनातून असं ठरवलं, की हा आपला अहंकार जरा वेळ बाजूलाच ठेवून द्यायचा आणि त्या व्यक्तीचं अगदी मनापासून, दिलखुलासपणे कौतुक करायचं..आणि आपण जर खरोखर तसं केलं, तर त्याचा आपल्या आयुष्यावर फार मोठा, अगदी दूरगामी परिणाम दिसून येतो.
पहिलं म्हणजे तुमच्याकडून अनपेक्षितपणे आलेल्या त्या कौतुकाच्या शब्दांमुळे त्या व्यक्तीला अतिशय अप्रुप वाटतं, दोन मनं जवळ येतात आणि तुमच्यात व त्या व्यक्तीमध्ये एक अतूट नातं निर्माण होतं. दुसरं म्हणजे आपणच निर्मळ मनाने दुसऱ्या व्यक्तीचं जे appreciation केलेलं असतं त्यामुळे आपल्या मनाला आपलंच कौतुक वाटतं. आपण आपला अहंकार क्षणभर बाजूला ठेवू शकलो, दुसऱ्याच्या आनंदात निरामय वृत्तीने सामील होऊ शकलो, ह्याचा आनंद फार मोठा असतो.
माझ्या मनोवृत्तीत बदल घडायला असाच एक प्रसंग घडला आणि मला त्यातून एक जिवाभावाची मैत्रीण मिळाली. खूप खूप वर्षापूर्वीची गोष्ट आहे. माझ्या ओळखीची एक होती. वयाने माझ्यापेक्षा तरुण, हुशार, स्मार्ट, कॉन्फिडन्ट, लोकप्रिय.. तिच्या सहवासात येणाऱ्या इतर स्त्रियांना नक्कीच न्यूनगंड निर्माण होईल, असंच तिचं व्यक्तिमत्व होतं. मीही त्या गोष्टीला अपवाद नव्हते. आमची दोघींची मैत्री होणं शक्यच नव्हतं.
पण एक दिवस एक वेगळीच गोष्ट घडली.
तिने एका स्पर्धेत स्पर्धक म्हणून भाग घेतला होता, त्या स्पर्धेची मी नेमकी एकमेव परीक्षक होते. परीक्षण गुप्तपणे करायचं असल्यामुळे तिला या गोष्टीची काही कल्पना नव्हती. अपेक्षेप्रमाणेच ती या स्पर्धेत पूर्ण तयारीनिशी उतरली होती. इतर स्पर्धकही तसे तुल्यबलच होते. थोडक्यात सांगायचं, तर मी त्या स्पर्धेत तिला डावलून दुसऱ्याची निवड केली असती, तरी या कानाचं त्या कानाला कळलं नसतं. स्पर्धेचा निकाल ऐकल्यावर तिचा तो कॉन्फिडन्स, तो नखरा किंचित उतरला असता, ते सुंदर धारदार नाक जरातरी खाली झालंच असतं. केवढी संधी माझ्याकडे आयती चालून आली होती.
काय करू? मीच परीक्षक असून तो मला माझ्या परीक्षेचा क्षण वाटला. मी स्वत:शी भांडले आणि अखेर माझ्या विवेकाने मला हरवलं. मी माझ्या सारासार विवेकाला म्हणाले, “ तुझं खरंय. आज मी जर नि:पक्षपातीपणाने निर्णय दिला नाही, तर मीच माझ्या मनातून उतरेन. मला माझ्या वागण्याची लाज वाटेल आणि मी स्वत:ला कधी माफ करू शकणार नाही. त्यामुळे आज मी तिचा जाहीर हिरमोड करण्याची ही संधी सोडून देते आणि तिला तिच्या पात्रतेनुसार या स्पर्धेत प्रथम क्रमांक देऊन टाकते.
यथावकाश स्पर्धेचा निर्णय जाहीर झाला. तिने मोठ्या दिमाखात मला फोनवर ती बातमी कळवली. मी तिचं मोजक्या शब्दात अभिनंदन केलं. बक्षीस समारंभाला मी हजर राहू शकले नाही, म्हणून माझं मनोगत लिहून संयोजकांकडे पाठवून दिलं. अखेर त्या समारंभात तिला त्या स्पर्धेचं परीक्षक कोण होतं ते समजलं. दुसऱ्या दिवशी तिचा परत माझे आभार मानायला फोन आला. मी म्हटलं, “माझे कशासाठी आभार? You deserved it, so you got it.”
नंतर ती मला तिच्या बक्षिसाची पार्टी द्यायला रेस्टॉरंटमध्ये घेऊन गेली. मीही तिला एक छानशी गिफ्ट घेऊन गेले. त्या स्पर्धेचा आणि परीक्षणाचा विषय निघालाच नाही, पण आमच्या चांगल्या ३-४ तास गप्पा रंगल्या. त्या दिवशी मला एक जिवाभावाची मैत्रीण मिळाली. आमची सुमारे वीस वर्षापूर्वी झालेली मैत्री अजूनही तेवढीच घट्ट आहे. तिची मुलगी माझी लाडकी भाची आहे आणि मी तिची फेव्हरिट मावशी. एकमेकींच्या आयुष्यातील सुखदु:खांच्या क्षणाच्या आम्ही साक्षीदार झालो आहेत.
आपल्या मनातल्या सतत वर डोकं काढू पाहाणाऱ्या अहंकाराला जर आपण दडपून गप्प बसवू शकलो, तर आपल्याला जन्मभर पुरेल एवढी प्रेमाची, मैत्रीची शिदोरी प्राप्त होते, हा माझा अनुभव आहे. पुढील आयुष्यात असे अनेक प्रसंग आले, पण प्रत्येकवेळी मी मनातल्या अहंकाराला बाजूला ठेवून मनात उमटलेले योग्य ते कौतुकाचे शब्द त्या त्या व्यक्तींपर्यंत पोचवू शकले.
गेल्या आठवड्यात एका कार्यक्रमासाठी परगावी गेले असताना मला तिथे एक मैत्रीण म्हणाली, “ आमच्या इथल्या वर्तुळात खूप हेवेदावे, गटबाजी चालते. तुमच्या पुण्यात तसं काही आहे की नाही?”
त्यावर मी म्हटलं, “तसं पुण्यात आहे की नाही, याची मला खरं तर कल्पनाच नाही, कारण ना मला कुणाचा हेवा वाटतो, ना माझा कुणी हेवा करतं. आपला कुणी हेवा करावा असं माझ्याकडे काहीच नाही आणि मला कुणाचा हेवा वाटावा, असं दुसऱ्या कुणाकडे नाही. ‘सर्वेपि सुखिन: सन्तु’, हा सुखी जीवनाचा मंत्र मी अंगिकारलेला आहे.
जर एखाद्या व्यक्तीने खरंच स्पृहणीय कामगिरी केली असेल, तर आपण कौतुक करण्यात आखडता हात कशासाठी घ्यायचा? तुम्हाला काय वाटतं… ?
☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १९ (अग्निमरुत् सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆
ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १९ (अग्निमरुत् सूक्त)
ऋषी – मेधातिथि कण्व : देवता – अग्नि, मरुत्
ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील एकोणीसाव्या सूक्तात मेधातिथि कण्व या ऋषींनी अग्नी आणि मरुत् या देवतांना आवाहन केलेले आहे. त्यामुळे हे सूक्त अग्निमरुत् सूक्त म्हणून ज्ञात आहे.
मराठी भावानुवाद
☆
प्रति॒ त्यं चारु॑मध्व॒रं गो॑पी॒थाय॒ प्र हू॑यसे । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ १ ॥
चारूगामी अती मनोहर याग मांडिलासे
अग्निदेवा तुम्हा निमंत्रण यज्ञाला यावे
मरुद्गणांना सवे घेउनीया अपुल्या यावे
यथेच्छ करुनी सोमपान यज्ञाला सार्थ करावे ||१||
☆
न॒हि दे॒वो न मर्त्यो॑ म॒हस्तव॒ क्रतुं॑ प॒रः । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ २ ॥
अती पराक्रमी अती शूर तुम्ही अग्नीदेवा
तुमच्या इतुकी नाही शक्ती देवा वा मानवा
संगे घेउनि मरुतदेवता यज्ञाला यावे
आशिष देउनी होमासंगे आम्हा धन्य करावे ||२||
☆
ये म॒हो रज॑सो वि॒दुर्विश्वे॑ दे॒वासो॑ अ॒द्रुहः॑ । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ ३ ॥
द्वेषविकारांपासुनी मुक्त दिव्य मरूतदेवता
रजोलोकीचे त्यांना ज्ञान अवगत हो सर्वथा
अशा देवतेला घेउनिया सवे आपुल्या या
अग्निदेवा करा उपकृत ऐकुनि अमुचा धावा ||३||
☆
य उ॒ग्रा अ॒र्कमा॑नृ॒चुरना॑धृष्टास॒ ओज॑सा । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ ४ ॥
उग्र स्वरूपी महापराक्रमी मरूत देवांची
तेजधारी अर्चना तयांस असते अर्काची
समस्त विश्व निष्प्रभ होते ऐसे त्यांचे शौर्य
अग्नीदेवा त्यांना घेउनिया यावे सत्वर ||४||
☆
ये शु॒भ्रा घो॒रव॑र्पसः सुक्ष॒त्रासो॑ रि॒शाद॑सः । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ ५ ॥
धवलाहुनीही शुभ्र जयांची अतिविशाल काया
दिगंत ज्यांची कीर्ती पसरे शौर्या पाहुनिया
खलनिर्दालन करण्यामध्ये असती चंडसमर्थ
त्यांना आणावे त्रेताग्नी अंतरी आम्ही आर्त ||५||
☆
ये नाक॒स्याधि॑ रोच॒ने दि॒वि दे॒वास॒ आस॑ते । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ ६ ॥
द्यूलोक हे वसतीस्थान स्वर्गाचे सुंदर
तिथेच राहत मरूद देव जे दिव्य आणि थोर
आवाहन अमुच्या यज्ञासत्व वीर मरूद देवा
त्यांना घेउनिया यावे हो गार्ह्यपती देवा ||६||
☆
य ई॒ङ्ख्य॑न्ति॒ पर्व॑तान् ति॒रः स॑मु॒द्रम॑र्ण॒वम् । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ ७ ॥
किति वर्णावे बलसामर्थ्य हे मरूद देवते
नगस्वरूपी जलदा नेता पार सागराते
नतमस्तक मरुदांच्या चरणी स्वागत करण्याला
अग्नीदेवा सवे घेउनीया यावे यज्ञाला ||७||
☆
आ ये त॒न्वन्ति॑ र॒श्मिभि॑स्ति॒रः स॑मु॒द्रमोज॑सा । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ ८ ॥
चंडप्रतापी मरुद्देवता बलशाली फार
अर्णवास ही आक्रमिती सामर्थ्य तिचे बहुघोर
सवे घेउनिया पवनाशी आवहनीया यावे
हविर्भाग अर्पण करण्याचे भाग्य आम्हाला द्यावे ||८||
☆
अ॒भि त्वा॑ पू॒र्वपी॑तये सृ॒जामि॑ सो॒म्यं मधु॑ । म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ ९ ॥
सोमपान करण्याचा अग्ने अग्रमान हा तुझा
प्रथम करी रे सेवन हाची आग्रह आहे माझा
मरुद्गणांना समस्त घेउनी यज्ञाला यावे
सोमरसाला मधूर प्राशन एकत्रित करावे ||९||
☆
(हे सूक्त व्हिडीओ गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक येथे देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.)
☆ आहारबोली… अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. दीप्ती गौतम ☆
माणसाच्या स्वभावाचा अंदाज घेण्याचे अनेक मार्ग आहेत .
हस्ताक्षर,सही,दिसणे, काही लकबी वगैरे.पण कधीकधी असे वाटते की पंगतीत ताट वाढल्यावर जेवताना,जेवण्याच्या आधी / नंतर त्याची जी प्रतिक्रिया असते, त्यावरूनही त्याच्या स्वभावाचा थोडा अंदाज येऊ शकतो.
म्हणजे बघा …..
समोर जेवणाचे ताट वाढून झाले आहे आणि आता खायला सुरुवात करायची आहे, तेव्हा तो पहिला पदार्थही त्याच्या स्वभावाला अनुसरून उचलतो.जसे की पुरण किंवा त्याबरोबरचे गोड पदार्थ पहिल्यांदा उचलणारी माणसे स्वभावाने पण गोड असतात.
तळण,पापड उचलणाऱ्या माणसांचा पापड लवकर मोडतो.त्यांच्यात patience कमी असतो.
वरणभात पहिल्यांदा खाणारी माणसे त्याप्रमाणेच साधी सरळ असतात ,ती कुठेही, कोणत्याही परिस्थितीत राहू शकतात.
भजी उचलणारी माणसे भज्यासारखीच कुरकुरीत,नर्मविनोदी आणि गप्पात प्रसन्नता आणणारी असतात.यांच्या सोबत असताना कधी कंटाळा येत नाही.
जेवणाची सुरुवात खिरीपासून आणि शेवट दहीभाताने करणारी नियम पाळणारी, आणि बऱ्यापैकी निरोगी असतात.
लोणचे कुठले आहे ? आंब्याचे, लिंबाचे का मिक्स हे पाहणारे आंबटशौकीन असतात.
काही लोक सगळ्या पदार्थाची थोडी थोडी चव घेऊन बघतात. ते लोक अतिचिकित्सक असतात.
यात आणखी दोन उपप्रवाह आहेत.
पहिला जेवणाच्या आधी काही reactions असणारे आणि दुसरा जेवणानंतरची reaction असणारे.
जेवणाच्या आधी ताटे ,भांडी घ्यायला सुरुवात झाली, की भांडे स्वच्छ आहे का नाही हे बघणार आणि ताट वाढून झाल्यावर किंवा आधी पाणी चांगले आहे का नाही, हे बघून त्याची चर्चा करणार.
हे लोक जेवणाचा आनंद घ्यायचा सोडून यावरून मूड बिघडवून घेतात .
अशी माणसे कटकट्या स्वभावाची आणि जुळवून न घेणारी असतात.अशांना मित्रमंडळी कमी किंवा नसतीलच. मित्र असलेच तर तेही याच catagory तील असतात.
पंगतीत ताटे वाढणे सुरु आहे,
अशा वेळेला समोरच्याच्या पानात अमुक आहे… माझ्या पानात नाही… आत्ताच हवे म्हणून लोक वाढप्याला (चार चार वेळेला) बोलावून वाढून घेतात ,भले त्यांना तो पदार्थ जाणार असो वा नसो. हे लोक jealous असतात.सतत त्यांना स्वतःची तुलना इतरांशी करायची सवय असते .
गोड पदार्थ वाढणारा मुख्य स्वयंपाकी ते वाढत असतानाच,”मी काय म्हणालोे, अहो बासुंदीच आहे ,म्हणजे 160 रुपये ताट, स्वस्त पडले,”असा डायलॉग मारणारे एकतर लग्नात मुलाकडचे असतात किंवा अत्यंत व्यवहारी , कंजूष मनोवृत्तीचे असतात.
जेवणाच्या आधी आणि जेवताना सुद्धा जे लोक
‘बाकी सगळे ठीक होते ,पण टॉयलेट काही नीट स्वच्छ नव्हते,”असं म्हणत राहतात, ते अत्यंत निगेटिव्ह मनोवृत्तीचे असतात .
समोर चांगले ताट वाढले आहे, त्याचा आस्वाद घ्यायचा सोडून असले काहीतरी फालतू विषय काढून ते स्वतःची जागा दाखवून देतात.
ताट वाढल्यावर त्यावर यथेच्छ ताव मारून मस्त ढेकर देणारे एकतर खवय्ये असतात किंवा स्वभावतःच आनंदी!
या सर्वांपलिकडे एक विशेष catagory आहे .
सगळे जेवण झाल्यावर
“ताक आहे का ?”
म्हणून विचारणार आणि नाही म्हणल्यावर
” अरेरे! ताक असते ना, तर मजा आली असती “
असा शेरा मारणारे … किरकिरे.
लेखक – अज्ञात
संग्राहिका :सुश्री दीप्ती गौतम
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈