हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि –  अन्यमनस्क.. ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

श्री भास्कर साधना आरम्भ हो गई है। इसमें जाग्रत देवता सूर्यनारायण के मंत्र का पाठ होगा। मंत्र इस प्रकार है-

💥 ।। ॐ भास्कराय नमः।। 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि –  अन्यमनस्क.. ??

पग-पग आगे बढ़ो

सफलता के सूत्र इनसे पढ़ो,

सदा परफेक्शन चुनो

मन से काम करना इनसे गुनो,

अपने परिचय पर

वह अचकचा गया,

जीवनभर जो

अन्यमनस्क रहा,

मन से काम करने का

रोल मॉडेल भला कैसे हुआ?

© संजय भारद्वाज 

रात्रि 11:06 बजे, 1 जनवरी 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 185 ☆ कविता – बदलते कहां हैं अब कैलेंडर? ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   कविता – बदलते कहां हैं अब कैलेंडर?

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 183 ☆  

? कविता – बदलते कहां हैं अब कैलेंडर? ?

 मोबाईल इस कदर समा गया है जिंदगी में

कैलेंडर कागज के

बदलते कहां हैं अब

 

साल, दिन,महीने, तारीखें, 

समय सब कैद हैं टच स्क्रीन में

वैसे भी

अंतर क्या होता है

आखिरी तारीख में बीतते साल की 

और पहले दिन में नए साल के,

जिंदगी तो वैसी ही दुश्वार बनी रहती है।   

 हां दुनियां भर में

जश्न, रोशनी, आतिशबाजी

जरूर होती है

रस्म अदायगी की साल के स्वागत में

टूटने को नए संकल्प लिए जाते हैं

गिफ्ट का आदान प्रदान होता है,

ली दी जाती है डायरी बेवजह

 लिखता भला कौन है अब डायरी

सब कुछ तो मोबाइल के नोटपैड में सिमट गया है।   

जब हम मोबाइल हो ही गए हैं, तो आओ टच करें

हौले से मन

अपने बिसर रहे कांटेक्ट्स के

और अपडेट करें एक हंसती सेल्फी अपने स्टेटस पर

नए साल में सूर्योदय के साथ

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 146 – नववर्ष की बधाइयाँ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है बीते कल औरआज को जोड़ती एक प्यारी सी लघुकथा “नववर्ष की बधाइयाँ ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 146 ☆

🌺लघुकथा 🥳 नववर्ष की बधाइयाँ 🥳

एक बहुत छोटा सा गाँव, शहर से कोसों दूर और शहर से भी दूर महानगर में, आनंद अपनी पत्नी रीमा के साथ, एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे। अच्छी खासी पेमेंट थी।

दोनों ने अपनी पसंद से प्रेम  विवाह किया था। जाहिर है घर वाले बहुत ही नाराज थे। रीमा तो शहर से थी। उसके मम्मी – पापा कुछ कहते परंतु बेटी की खुशी में ही अपनी खुशी जान चुप रह गए, और फिर कभी घर मत आना। समाज में हमारी इज्जत का सवाल है कह कर बिटिया को घर आने नहीं दिया।

आनंद का गाँव मुश्किल से पैंतीस-चालीस घरों का बना हुआ गांव। जहाँ सभी लोग एक दूसरे को अच्छी तरह जानते तो थे, परंतु पढ़ाई लिखाई से अनपढ़ थे।

बात उन दिनों की है जब आदमी एक दूसरे को समाचार, चिट्ठी, पत्र-कार्ड या अंतरदेशीय  और पैसों के लिए मनी ऑर्डर फॉर्म से रुपए भेजे जाते थे। या ज्यादा पढे़ लिखे लोग तीज त्यौहार पर सुंदर सा कार्ड देते थे।

आनंद दो भाइयों में बड़ा था। सारी जिम्मेदारी उसकी अपनी थी। छोटा भाई शहर में पढ़ाई कर रहा था। शादी के बाद जब पहला नव वर्ष आया तब रीमा ने बहुत ही शौक से सुंदर सा कार्ड ले उस पर नए साल की शुभकामनाओं के साथ बधाइयाँ लिखकर खुशी-खुशी अपने ससुर के नाम डाक में पोस्ट कर दिया।

छबीलाल पढ़े-लिखे नहीं थे। जब भी मनीआर्डर आता था अंगूठा लगाकर पैसे ले लेते थे। यही उनकी महीने की चिट्ठी होती थी।

परंतु आज इतना बड़ा गुलाबी रंग का कार्ड देख, वह आश्चर्य में पड़ गए। पोस्ट बाबू से पूछ लिया…. “यह क्या है? जरा पढ़ दीजिए।” पोस्ट बाबू ने कहा “नया वर्ष है ना आपकी बहू ने नए साल की बधाइयाँ भेजी है। विश यू वेरी हैप्पी न्यू ईयर।”

पोस्ट बाबू भी ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था आगे नहीं पढ़ सका। इतने सारे अंग्रेजी में क्या लिखा है। अंतिम में आप दोनों को प्रणाम लिखी है। वह मन ही मन घबरा गये और इतना सुनने के बाद…

छबीलाल गमछा गले से उतार सिर पर बाँध हल्ला मचाने लगे… “सुन रही हो मैं जानता था यही होगा एक दिन।”

“अब कोई पैसा रूपया नहीं आएगा। मुझे सब काम धाम अब इस उमर में करना पड़ेगा। बहू ने सब लिख भेजा है इस कार्ड पर पोस्ट बाबू ने बता दिया।”

दोनों पति-पत्नी रोना-धोना मचाने लगे। गाँव में हवा की तरह बात फैल गई कि देखो बहू के आते ही बेटे ने मनीआर्डर से पैसा भेजना बंद कर दिया।

बस फिर क्या था। एक अच्छी खासी दो पेज की चिट्ठी लिखवा कर जिसमें जितनी खरी-खोटी लिखना था। छविलाल ने पोस्ट ऑफिस से पोस्ट कर दिया, अपने बेटे के नाम।

रीमा के पास जब चिट्ठी पहुंची चिट्ठी पढ़कर रीमा के होश उड़ गए। आनंद ने कहा…. “अब समझी गाँव और शहर का जीवन बहुत अलग होता है। उन्हें बधाइयाँ या विश से कोई मतलब नहीं होता और बधाइयों से क्या उनका पेट भरता है?

यह बात मैं तुम्हें पहले ही बता चुका था। पर तुम नहीं मानी। देख लिया न। मेरे पिताजी ही नहीं अभी गांव में हर बुजुर्ग यही सोचता है। “

आज बरसों बाद मोबाइल पर व्हाटसप चला रही थी और बेटा- बहू ने लिखा था.. “May you have a wonderful year ahead. Happy New Year Mumma – Papa “..

रीमा की उंगलियां चल पड़ी “हैप्पी न्यू ईयर मेरे प्यारे बच्चों” समय बदल चुका था परंतु नववर्ष की बधाइयाँ आज भी वैसी ही है। जैसे पहली थीं।

आंनद रीमा इस बात को अच्छी तरह समझ रहे थे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 15 – देशीय उड़ान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “  परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 15 – देशीय उड़ान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

यात्रा के अगले चरण में शिक्षा के लिए विश्व प्रसिद्ध शहर बोस्टन जाने के लिए घर बैठे ऑनलाइन टिकट बुक कर, विमानतल में स्कैन द्वारा स्वचलित बोर्डिंग पास प्राप्त करने का प्रथम अवसर था, तो पुराने समय की याद आ गई, जब प्रथम बार एटीएम से राशि प्राप्त कर जो खुशी मिली थी, आज भी कुछ ऐसा ही आभास हुआ।

एक छोटे संदूक को विमान के अंदर ले जाने के अलावा बड़े संदूक का अतिरिक्त भुगतान करना पड़ा, जो हमारे जैसे यात्रियों के लिए अचंभा था।

विमानतल पर  देश के भीतर यात्रा पर भी कड़ी जांच के मद्दे नज़र” जूता उतार” जांच से बचने के लिए हमने अपनी बाटा की हवाई चप्पल का ही उपयोग किया, क़मर बेल्ट जांच से भी बचने के लिए नाड़े वाले पायजामा के साथ कुर्ता पहन कर देशी परिधान ग्रहण कर लिया।                      श्रीमतीजी ने आपत्ति उठाते हुए कहा आप अकेले व्यक्ति विमानतल पर ऐसे परिधान पहन कर अलग से दिख रहें हैं। तभी वहां प्रतीक्षा रत एक अस्सी वर्ष की उम्र वाले व्यक्ति  पुस्तक पढ़ते हुए दिख गए,वो भी सब से अलग दिख रहे थे।

सबसे आश्चर्य हुआ एक युवती ऊन से कुछ बुनाई कर रही थी। हमारे यहां तो अब ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं भी हाथ में ऊन और सलाई लिए हुए भी नहीं नज़र आती है। अमेरिका जैसे विकसित देश में हवाई यात्रा के समय नवयुवती के हाथ में ये देखकर लगा कि हस्तकला कभी समाप्त नहीं हो सकती।

बोस्टन उतरने के पश्चात जब बड़े संदूक का इंतजार करते हुए, वहां उपलब्ध ट्रॉली खींची, तो उसको दीवार से अटका हुआ पाया, क्योंकि छः डॉलर शुल्क भुगतान के पश्चात ही सुविधा का उपयोग संभव था। हमारे पास खींचने के लिए अब छोटा और बड़ा दो संदूक थे, वो तो अच्छा हुआ जो नीचे चक्के लगे हुए थे। वैसे हम लोग तो “चमड़ी चली जाय पर दमड़ी ना जाय” को मानने वाली पीढ़ी से जो हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “वन गंध की सुवास  पर…” ☆ श्रीमति प्रेमलता उपाध्याय ‘स्नेह’ ☆

श्रीमति प्रेमलता उपाध्याय ‘स्नेह’

(श्रीमति प्रेमलता उपाध्याय ‘स्नेह’ जी  द्वारा गणित विषय में शिक्षण कार्य के साथ ही हिन्दी, बुन्देली एवं अंग्रेजी में सतत लेखन। काव्य संग्रह अंतस घट छलका, देहरी पर दीप” काव्य संग्रह एवं 8 साझा संग्रह प्रकाशित। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने पाठकों से साझा करते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “वन गंध की सुवास  पर…”।) 

☆ “वन गंध की सुवास  पर…” ☆ श्रीमति प्रेमलता उपाध्याय ‘स्नेह’ ☆

(गीतिका  –  2212      2212)

चलता रहा विकास पर ।

नव सूर्य के उजास पर ।।

 

जब लेखनी चली ढ़ली

रचना रची प्रयास पर ।।

 

बँधता गया निशब्द सा।

उस प्रेम के विलास पर।।

 

बौरा रहा मधुप सखी।

वन गंध की सुवास पर ।।

 

लाली धरी मधुर अधर ।

मुस्कान थी सुहास पर ।।

 

मुखरित हुआ उत्पात तब।

बातें रही समास पर।।

 

आकंठ मैं गई उतर।

सुन “स्नेह” की मिठास पर।। 

© प्रेमलता उपाध्याय ‘स्नेह’ 

संपर्क – 37 तथास्तु, सुरेखा कॉलोनी, केंद्रीय विद्यालय के सामने, बालाकोट रोड दमोह मध्य प्रदेश

ईमेल – plupadhyay1970@gmail:com  

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ क्रांती… ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ क्रांती…  ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

क्रांतीची ज्वाला असो की

ज्योत मंदशी तेवती –

पाय माघारी न घेणे

हेच दोघी सांगती —

 

ज्वालेत जळती किती समीधा

गणती कधी करता न ये –

त्यानेच परि त्या क्रान्तीला

अंती पहा साफल्य ये —

 

ज्योत त्याहुनी सानुली

तरी काम करते क्रांतीचे –

रुजवते मनामनात

बीज उज्ज्वल प्रगतीचे —

 

सातत्य गतीचे राखते

मन निश्चयाशी बांधते –

ती ज्योत क्रांतीची जपा

मग प्रगती खचितच साधते —

 

विचारात, प्रवृत्तीत आणि

सद् भावातही होवो क्रान्ती –

क्रांतीचा नित हेतू हाच

‘ विश्वात भरूनी राहो शांती‘ —

© सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ संकल्प… ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ संकल्प… ☆ सौ राधिका भांडारकर

सरले हे वर्ष मनुजा

स्वागत करुया नववर्षाचे

किती बेरजा किती वजा

क्षण आठवू सुखदु:खाचे..

 

कालचक्र हे अखंड चाले

 पुन्हा  न येते गेली वेळ

झटकू आळस कष्ट करु

जीवनाची फुलवू वेल..

 

ध्यानी असू दे एक तत्व

आयुष्या नसतो लघुमार्ग

नसते सुट्टी ना आराम

यत्ने अंती फुलेल स्वर्ग…

 

करा संकल्प नववर्षाचा

एक कूपी करा रिकामी

सुगंध नवा त्यात भरा

झटकून टाका जे निकामी..

 

नव्या पीढीचे तुम्ही स्तंभ

आण बाळगा सृजनाची

युद्ध नको शांती हवी

जगास द्या हाक  प्रेमाची…

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #169 ☆ कौलारू घर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 169 ?

☆ कौलारू घर…  ☆

आयुष्याला पुरून उरलो आहे मी तर

पदोपदी हा झाला होता जरी अनादर

 

ऊब सोबती तुझी मिळाली कधीच नाही

पांघरण्याला मला दिली तू ओली चादर

 

ह्या गुढघ्यांनी हात टेकले असे अचानक

आधाराला निर्जिव काठी चढलो दादर

 

शीतलतेची होती ग्वाही म्हणुन बांधले

शेण मातिचे चार खणाचे कौलारू घर

 

ओढे नाले ढकलत होते वहात गेलो

अंति भेटला खळाळणारा अथांग सागर

 

जरी सुखाच्या रथात बसुनी प्रवास केला

खड्ड्यांचा हा रस्तोरस्ती होता वावर

 

जीवन म्हणजे असतो कापुर कळले नाही

अल्प क्षणातच जळून गेला होता भरभर

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ सावित्रीबाई फुले यांचे काव्यविश्व… ☆ प्रा.डॉ.सतीश शिरसाठ ☆

प्रा.डॉ.सतीश शिरसाठ

?  विविधा ?

☆ सावित्रीबाई फुले यांचे काव्यविश्व… ☆ प्रा.डॉ.सतीश शिरसाठ ☆ 

आज ३ जानेवारी — क्रांतीज्योती सावित्रीबाई ज्योतिराव फुले यांचा जन्मदिन. त्यानिमित्त त्यांना माझी ही काव्यरूपी वंदना —

वंदन सावित्रीबाईमातेला…

अज्ञानाच्या काळोखाला भेदून शिक्षणसूर्य तळपला

परंपरेच्या बेड्या तोडून नवसमाज तू निर्मिला…१

उठा बंधुंनो, अतिशुद्रांनो,– हाक घुमली खेडोपाडी

सनातनी किल्ल्यांचे बुरुज कोसळले अन क्रांतिपुष्प उमलले…२

समतेची ,मानवतेची, धैर्याची तू माऊली

लोकसेवेचे कंकण हाती, भारतवर्षाची तू सावली !

या निमित्ताने सावित्रीबाई फुले यांचे काव्यविश्व माहिती करून घेऊ या. —

भारतीय समाजपरिवर्तनाच्या क्षितिजावरील एक तेजस्वीपणे तळपणारा तारा म्हणून सावित्रीबाई फुले यांना ओळखले जाते. भारतातील अग्रगण्य अशा पुणे येथील विद्यापीठास ज्ञानज्योती सावित्रीबाई फुले.यांचे नाव देऊन त्यांच्या कार्याचा गौरव करण्यात आला आहे.

मानवी स्वातंत्र्य,समता आणि ह्क्क, वैज्ञानिक दृष्टिकोन, तसेच स्त्रियांच्या सबलीकरणासाठी जीवनभर झटणाऱ्या, लोकभावनांचा  आदर करूनही धर्माच्या नावाखाली सर्वसामान्य माणसाच्या शोषणाविरूध्द, अन्यायाविरुद्ध, दैववादाविरूध्द आवाज उठवणाऱ्या, मानवतेच्या उदात्त  तत्वांनी भारलेल्या आणि आवाज दडपल्या गेलेल्या, समाजाच्या तळाशी असलेल्या उपेक्षितांच्या जीवनात प्रबोधनाने जागृतीची ज्योत जागवणाऱ्या एक

समाजक्रांतिकारक !—-अशा अनेक पैलूंनी सावित्रीबाई ज्ञात आहेत. समाजासाठी आवश्यक पण अनेकदा न आवडणारे परिवर्तन करणाऱ्या समाजकार्याची त्यांची जातकुळी होती. त्यामुळे त्यांच्या कार्याला पाहिजे तेवढी प्रसिद्धी त्यावेळी मिळाली नाही.

सावित्रीबाई फुले या एक श्रेष्ठ साहित्यिक होत्या; हा त्यांच्या व्यक्तिमत्त्वातील फारसा उजेडात न आलेला पैलू आहे. पुढील बाबींतून त्यांचे साहित्य क्षेत्रातील श्रेष्ठत्व स्पष्ट होते —

१. त्याकाळी अनेक समाजबंधने, कौटुंबिक रितीरिवाज आणि कुटुंबातील कामं यामुळे स्त्रियांमध्ये शिक्षण कमीच होतं. सावित्रीबाईही विवाहापर्यंत शिक्षणापासून दूर होत्या. मात्र लग्नानंतर पती जोतीराव फुले यांच्या सहाय्याने चिकाटी, जिद्द आणि तळमळीने त्या शिकल्या. आणि पुढे त्यांनी साहित्याच्या क्षेत्रात जी भरारी घेतली त्यामुळे त्या आदराला पात्र झाल्या.

२. त्यांचा पहिला कवितासंग्रह ‘ काव्यफुले ‘ १८५४ मध्ये प्रकाशित झाला होता.

३. सावित्रीबाई आणि जोतीराव यांचे कौटुंबिक जीवन वादळी होते. समाजातील उपेक्षित घटकांच्या कल्याणासाठी,  त्यांना आत्मनिर्भर करण्यासाठी, त्यात अडसर असलेल्या धार्मिक शोषणाविरुद्ध ते आयुष्यभर लढले.आजच्या काळातही विस्मयकारक ठरेल अशा क्रांतिकारी जीवनाचा त्यांनी अंगीकार केला होता. (अर्थात त्याची किंमतही त्यांना मोजावी लागली होती).तरीही अशा अतिशय धावपळीच्या जीवनातही सावित्रीबाईंनी आपल्यातल्या लेखिकेला, कवयित्रीला फुलू दिले, हे त्यांचे असामान्यत्व होते.

४. ‘साहित्य हे समाजपरिवर्तनासाठी असावे ‘ या भूमिकेतून सावित्रीबाईंनी साहित्यनिर्मिती केली. सावित्रीबाईंनी समाजव्यवस्थेत परिवर्तन करण्यासाठी, समाजातील  शूद्रातिशूद्र यांच्या बरोबरीनेच अज्ञान आणि अन्यायाचे बळी ठरलेल्या, शिक्षणापासून वंचित राहिल्याने आपल्या दैन्याचीही जाणिव नसलेल्या, हतबल होऊन…हे सारे आपल्या नशिबाचे भोग आहेत म्हणून जगणाऱ्या, समाजातील साऱ्याच उपेक्षितांच्या जीवनात आत्मविश्वास जागविण्यासाठी अनेक पध्दतींचा उपयोग केला.लोकशिक्षण ही त्यापैकी एक महत्वपूर्ण पध्दत. आशयपूर्ण आणि लोकजीवनाचा ठाव घेऊन वास्तव चित्रण करणाऱ्या अनेक प्रभावी कवितांतून सावित्रीबाईंनी हे कार्य केले. म्हणूनच त्या कवितांचे मोल अधिक आहे— काव्य, गद्य, पत्रे …या साहित्याच्या क्षेत्रांत त्यांनी मुक्त संचार केला. साहित्य हे समाजशिक्षण आणि समाजपरिवर्तनाचे हत्यार आहे, या भूमिकेतून त्यांनी साहित्य विकासित केले; त्याचा प्रसार केला. सामाजिक परिवर्तनाचे स्वप्न पाहणाऱ्या सावित्रीबाईंच्या  कवितेतील सामाजिक आशय धारदार होता. त्यातून समाजबदलाची कळकळ दिसून येते.

आत्तापर्यंत त्यांचे दोन काव्यसंग्रह उपलब्ध आहेत- (१) काव्यफुले. (२) बावन्नकशी सुबोध रत्नाकर.

काव्यफुले या काव्यसंग्रहात एकूण एक्केचाळीस कविता आहेत. यातील ‘श्रेष्ठ धन’ या कवितेतून शिक्षणाचे महत्त्व सांगताना त्या म्हणतात,

विद्या हे श्रेष्ठ धन आहे रे,श्रेष्ठ साऱ्या धनाहून ।

तिचा साठा जयापाशी, ज्ञानी तो मानती जन ।।

— शिक्षणाने युगायुगांची अज्ञानाची आणि दारिद्र्याची गुलामगिरी तोडून टाकण्याचे आवाहन करताना त्या म्हणतात,

“अज्ञानाची दारिद्र्याची गुलामगिरी ही तोडू चला

युगायुगाचे जीवन आपले फेकून देऊ चला चला”.

त्यांचा ‘ बावन्नकशी सुबोध रत्नाकर ‘ हा काव्यसंग्रह जोतीरावांच्या निधनानंतर (१८९२ मध्ये) प्रकाशित झाला होता.

त्यांचे हे सर्व साहित्य आवर्जून वाचावे असेच आहे.

© प्रा.डाॅ.सतीश शिरसाठ

ईमेल- [email protected]

मो व वाटसॅप नं. – ९९७५४३५१५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ देवाचं दुकान… अज्ञात ☆ सुश्री मंजुषा पाटील ☆

? जीवनरंग ?

🚩देवाचे दुकान🙏… अज्ञात ☆ सुश्री मंजुषा पाटील 

एके दिवशी मी रस्त्याने जात होतो, वाटेत एक बोर्ड दिसला, ‘ईश्वरीय किराणा दुकान,’माझी उत्सुकता वाढली. या दुकानाला भेट देऊन त्यात काय विकले जाते ते का पाहू नये?हा विचार येताच आपोआप दार उघडले, थोडेसे कुतूहल असेल तर दरवाजे आपोआप उघडतात, ते उघडावे लागत नाहीत!…

मी दुकानात पाहिले तर सर्वत्र देवदूत उभे होते. एका देवदूताने मला टोपली दिली आणि म्हणाला, “माझ्या लेकरा, काळजीपूर्वक खरेदी कर, माणसाला आवश्यक असलेली प्रत्येक गोष्ट इथे आहे!”

देवदूत पुढे म्हणाला, “जर तुला टोपली एकाच वेळी भरता येत नसेल, तर पुन्हा ये आणि पुन्हा टोपली भर.!

आता मी सगळं बघितलं, आधी संयम विकत घेतला, मग प्रेम,मग समजूतदारपणा, मग विवेकाचे एक-दोन डबे घेतले.पुढे जाऊन विश्वासाचे दोन-तीन डबे उचलले, माझी टोपली भरत राहिली.पुढे गेलो, पावित्र्य दिसले; विचार केला कसं सोडू, तेवढ्यात शक्तीची पाटी आली, शक्ती पण घेतली. हिंमतसुद्धा घेतली, वाटले की हिंमतीशिवाय आयुष्यात काहीच चालत नाही!…

आता सहिष्णुता घेतली, मग मुक्तीची पेटीही घेतली.माझे सद्गुरू प्रभुजींना आवडणाऱ्या सर्व वस्तू मी विकत घेतल्या. मग एक नजर प्रार्थनेवर पडली, मी त्याचाही डबाउचलला.कारण सर्व गुण असूनही माझ्या कडून कधी काही चूक झाली तर मी देवाला प्रार्थना करेन की देवा, मला माफ कर!…

आनंदी होऊन मी टोपली भरली, मग मी काउंटरवर गेलो आणि देवदूताला विचारले, “सर,या सर्व गोष्टींसाठी मला किती पैसे द्यावे लागतील?”

देवदूत म्हणाला, “माझ्या बाळा, इथली बिल भरण्याची पद्धतही दैवी आहे. आता तू जिथे कुठे जाशील, तिथे या गोष्टींची उधळपट्टी कर, सर्वांना मुक्तपणे वाट दे.आणि या गोष्टींचे बिल असेच भरले जाते!…”

या दुकानात क्वचितच कोणी प्रवेश करतो, जो आत जातो तो श्रीमंत होतो, व या गुणांचा भरपूर उपभोग घेतो आणि लुटतो!…

प्रभूंच्या या दुकानाचे नाव आहे ‘सत्संगाचे दुकान’ सद्गुणांचा खजिना भगवंताने दिला आहे, रिकामा झाला तरी सत्संगाला या आणि टोपली भरा!…

देवाच्या या दुकानातून मी एकतरी वस्तू आपलीशी करू शकेन असा मला आशीर्वाद द्या.!

लेखक – अज्ञात 

प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा पाटील 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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