हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #173 – 59 – “अजब हो चला इस ज़माने का चलन…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “अजब हो चला इस ज़माने का चलन…”)

? ग़ज़ल # 59 – “अजब हो चला इस ज़माने का चलन…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

लँगड़े पर दौड़ने का आरोप लगाते हैं,

गंजे को कंघी का तोहफ़ा भिजवाते हैं।

अजब हो चला इस ज़माने का चलन,

अंधों को  नज़रों के चश्मे लगवाते हैं।

तिजोरी पूरी चुनावी अभियान में झोंकी,

नेता जी  बजट रिश्वत का बनवाते हैं।

नदियों पर क्रूज अभियान हो ज़रा तेज,

हज़ार करोड़ गंगा सफ़ाई पर लगाते हैं।

सौ स्मार्ट सिटी का लक्ष्य सध रहा है,

शहर की  गंदगी गाँव में फिकवाते हैं।

उल्टा सीधा खाने से किडनी हुई ख़राब,

आयुष्मान से दिल का इलाज कराते हैं। 

हिंदू हिंदी और हिंदुस्तान के नारे लगवा,

गाँव में अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल खुलाते हैं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 51 ☆ मुक्तक ।।कल का सुंदर संसार, मिलकर आज ही संवार।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।कल का सुंदर संसार, मिलकर आज ही संवार।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 51 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।।कल का सुंदर संसार, मिलकर आज ही संवार।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

यदि  बनाना  है  कल  अच्छा तो करो  आज      तैयारी।

यदि पहुंचना मंजिल  पर कल तो करो आज होशियारी।।

भविष्य  का  निर्माण  प्रारंभ  ही  वर्तमान से     होता है।

यदि रहना है कल को खुश तो करो दूर आज लाचारी।।

[2]

तुम्हारी हर बात में हमेशा कुछ गहराई होनी चाहिये।

तुम्हारे काम   में सदा  ही कुछ भलाई होनी चाहिये।।

सुधार करते रहो हर गलती का भी   तुम  हर कदम।

टूटे रिश्तों   की भी    हमेशा से तुरपाई होनी चाहिये।।

[3]

जीवन प्रभु का   दिया       एक अनमोल सा उपहार है।

मूल उद्देश्य इसका रखना सबके ही  साथ   सरोकार है।।

एक ही मिला है जीवन जो फिर मिलेगा    न     दुबारा।

यही हो भावना कि सम्पूर्ण विश्व एक ही तो परिवार है।।

[4]

मिलकर बनायों संसार जिसमें बस अमन चैन सुख हो।

बस जाये ऐसा  भाई चारा कि  किसी को न दुःख  हो।।

भाषा संस्कार संस्कृति सबका  ही  होता रहे    संवर्धन।

दुनिया न   कहलाये    कलयुग बस मानवता का युग हो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विरोधाभास ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मकर संक्रांति रविवार 15 जनवरी को है। इस दिन सूर्योपासना अवश्य करें। साथ ही यथासंभव दान भी करें।

💥 माँ सरस्वती साधना 💥

सोमवार 16 जनवरी से माँ सरस्वती साधना आरंभ होगी। इसका बीज मंत्र है,

।। ॐ सरस्वत्यै नम:।।

यह साधना गुरुवार 26 जनवरी तक चलेगी। इस साधना के साथ साधक प्रतिदिन कम से कम एक बार शारदा वंदना भी करें। यह इस प्रकार है,

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – विरोधाभास ??

समान क्षेत्र में

विरोधाभास देखा,

वे काटकर

छोटी करते रहे रेखा,

मैं खींचकर

लम्बी करता रहा रेखा..!

© संजय भारद्वाज 

20.01.2023, प्रात: 9:01 बजे।

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 116 ☆ ग़ज़ल – “परेशां देख के तुमको…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “परेशां देख के तुमको…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #116 ☆  ग़ज़ल  – “परेशां देख के तुमको…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मुझे जो चाहते हो तुम, तुम्हारी ये मेहरबानी

मगर कोई बात मेरी तुमने अब तक तो नहीं मानी।

 

परेशां देख के तुमको मुझे अच्छा नहीं लगता

जो करते प्यार तो दे दो मुझे अपनी परेशानी।

 

तुम्हें संजीदा औ’ चुप देख मन मेरा तड़पता है

कहीं कोई कर न बैठे बख्त हम पर कोई नादानी।

 

मुझे लगता समझते तुम मुझे कमजोर हिम्मत का

तुम्हारी इस समझदारी में दिखती मुझको नादानी।

 

हमेशा अपनी कह लेने से मन का बोझ बँटता है

मगर मुझको बताने में तुम्हें है शायद हैरानी।

 

मुसीबत का वजन कोई सहारा पा ही घटता है

तुम्हारी बात सुनने से मुझे भी होगी आसानी।

 

जो हम तुम दो नहीं है, एक हैं, तो फिर है क्या मुश्किल?

नहीं होती कभी अच्छी किसी की कोई मनमानी।

 

नहीं कोई, जमाने में मोहब्बत से बड़ा रिश्ता

तुम्हरी चुप्पियां तो हैं मोहब्बत की नाफरमानी।

 

परेशां हूँ  तुम्हारी परेशानी और चुप्पी से

’विदग्ध’ दिल की बता दोगे तो हट सकती परेशानी।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विजयगीत ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

विजयगीत ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

ज़िद पर आओ, तभी विजय है,नित उजियार वरो।

करना है जो, कर ही डालो,प्रिय तुम लक्ष्य वरो।।

 

साहस लेकर, संग आत्मबल बढ़ना ही होगा

जो भी बाधाएँ राहों में, लड़ना ही होगा

काँटे ही तो फूलों का नित मोल बताते हैं

जो योद्धा हैं वे तूफ़ाँ से नित भिड़ जाते हैं

मन का आशाओं से प्रियवर अब श्रंगार करो।

ज़िद पर आकर, कर ही डालो,प्रिय तुम लक्ष्य वरो।।

 

सुख पाना है तो हँसकर ही, दुख को सहना होगा

कालनीर जिस ओर बहा दे, सबको बहना होगा

मौसम आये पतझड़ का पर, बन बहार मुस्काओ

हर इक को तुम हर्ष बाँट दो, फूलों -सा बन जाओ

सपने जो तूने देखे थे, अब साकार करो।

ज़िद पर आकर, कर ही डालो, प्रिय तुम लक्ष्य वरो।।

 

असफलता से मार्ग सफलता का मिल जाता है

सब कुछ होना, इक दिन हमको ख़ुद छल जाता है

असफलता से एक नया, सूरज हरसाता है

रेगिस्तानों में मानव तो नीर बहाता है

चीर आज कोहरे को मानव, तुम उजियार करो।

करना है जो,कर ही डालो, प्रिय तुम लक्ष्य वरो।।

 

भारी बोझ लिए देखो तुम, चींटी बढ़ती जाती है

एक गिलहरी हो छोटी पर, ज़िद पर अड़ती जाती है

हार मिलेगी, तभी जीत की राहें मिल पाएँगी

और सफलता की मोहक-सी बाँहें खिल पाएँगी

अंतर्मन में प्रवल वेग ले, ज़िद से प्यार करो।

करना है जो, कर ही डालो, प्रिय तुम लक्ष्य वरो।।

 

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पाऊस… ☆ श्री मुबारक उमराणी ☆

श्री मुबारक उमराणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पाऊस… ☆ श्री मुबारक उमराणी ☆

पाऊस येता

तुला आठवतो

पापणपंखात

तुला साठवतो

 

विद्युल्लतेसवे

कडाडतेस तू

पाऊस वादळी

धडाडतेस तू

 

छत ही वाजते

तडतड बाजा

भिजवतो माती

हा पाऊसराजा

 

चिंब चिंब झाडी,

थेंबाची बरसात

संसारवादळी

तुझीच ग साथ

 

पाऊस शिकवी

जीवनाचे मोल

आनंदे नादतो

मनात या ढोल

© श्री मुबारक उमराणी

राजर्षी शाहू काॅलनी, शामरावनगर, सांगली

मो.९७६६०८१०९७.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 136 – रानफुल झाले मी ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 136 – रानफुल झाले मी ☆

रानफुल झाले मी दवात चिंब न्हाले मी।

सुंदर हिरव्या कुरणी भान हरपून गेले मी ।।धृ।।

 

हा उषेचा रंग न्यारा साद घाली मंदावरा।

भास्कराने भूषविला सोनसरीं हा पिसारा ।

कल्पनेचे पंख मांझे अंबरी या विहीरते मी।।१।।

 

जीव माझा सानुलासा मुक्तछंदी लहरते मी।

सुगंधाची लाट साऱ्या दशदिशांना उधळते मी।

अंतरीच्या मकरंदाने तव क्षुधा शमविते मी।।३।।

 

खंत नसे वादळाची नच तमा संकटाची।

भारलेल्या या क्षणांना भ्रांती का रे ती उद्याची ।

दो घडीच्या जीवनी या जन मनांना जोडते मी।।४।।  

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “स्थळ…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ “स्थळ…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

आपली आवड,आपला कल हे आपले कुटुंबीय,आपली जवळची माणसं आणि आपल्याला पुरेपुर जाणून असणारी आपली मित्रमंडळी हे अगदी नस पकडल्या सारखं जाणतात. ही सगळी आपली माणसं अगदी मनकवडीच असतात असं म्हंटलं तरी चालेल. त्यामुळेच माझी एक आवड म्हणजे भिन्न भिन्न भाषेतील,निरनिराळ्या कलाकारांनी कामं केलेल्या दर्जेदार शाँर्टफिल्म्स बघणे हे जाणून माझी मैत्रीण मधुर कुळकर्णी हीने मला एका शाँर्टफिल्म चे नाव सुचविले. त्या  मराठी शाँर्टफिल्म चे नाव  “शंभरावं स्थळ”.

त्या नावामधील “स्थळ” हा शब्द आमच्या पिढीपर्यंत तरी अगदी परिचीत आणि नवीन पिढीमध्ये “ठरवून लग्नं” यानेकी “अरेंज्ड मँरेज” करणाऱ्या लग्नाळू उपवर मुलामुलींना थोडाफार फँमिलीअर म्हणजे ओळखीचा.

आमच्या पिढीपर्यंत सरसकट अरेंज्ड मँरेज आणि स्पेशल केस म्हणून तुरळक लव्हमँरेज असा रेशो होता. आता रेशो तोच कायम आहे फक्त बाजूंची अदलाबदल झालीयं. आता लव्हमँरेज सरसकट आणि ठरवून लग्न तुरळक असं बघायला मिळतं, कालाय तस्मै नमः, असो.

आमच्या वेळी होत असलेले ते टिपीकल दाखवण्याचे कार्यक्रम, संपूर्ण माहिती असतांना पण त्याबद्दलच ती अगदी ठराविक प्रकारची प्रश्नोत्तरे हे सगळं बघून, अनुभवून प्रकर्षाने जाणवायचं, खरचं इतक्या जुजबी ओळखीवर दोघही हा भलामोठा संसाराचा डाव मांडतोयं खरा,पण खरचं होतील का हे संसार यशस्वी ? 

मग मनात यायचं खरंच ओळखीतून किंवा परिचयातून, एकमेकांना जाणून घेऊन तसेच आचारविचार ह्यांची देवाणघेवाण करुन मग मात्र नक्कीच  संसार यशस्वी होत असतील. पण ज्यांना अरेंज्ड मँरेज करायचेयं त्यांच्या साठी ह्या “कांदेपोहे”कार्यक्रमाशिवाय पर्यायही नव्हता,वा नाही.

जसाजसा काळ बदलला,पिढी खूप जागरुक, स्वतंत्र विचारांची घडायला लागली,तेव्हा मग ठरवून लग्न करतांना काही जास्तीच्या पाय-या जोडल्या गेल्या. त्यात मग मुलामुलींना एकमेकांशी बोलतांना स्पेस,प्रायव्हसी देणं हे प्रकार सुरू झालेत. हे बघितल्यावर असं वाटलं आता नक्कीच असे विचारविनमयांची चर्चा, देवाणघेवाण झाल्यावर परस्परांना नक्कीच एकमेकांचा पूरेपूर अंदाज येऊन मग हा संसाराचा पाया भक्कम उभा राहून सगळीकडे “आनंदी आनंद घडे” हे वातावरण राहील. पण हा अंदाज ही सपशेल चुकला असे काहीसे अनुभव आलेत कारण कितीही स्पेस, प्रायव्हसी मिळाल्यानंतरही चर्चा, विचारविनिमय ह्यांत फक्त स्वतःकडील व्हाईट साईड वा उजवी बाजू ही फक्त प्रत्यक्षात समोरच्याला दाखविली जाते. नंतर प्रत्यक्ष संसार सुरू झाल्यावर मात्र ह्या दोघांमधील डार्क साईड सामोरी येते,जी त्यांना आता नव्याने कळते. आणि मग संसार हा बहरु लागण्याऐवजी ईगोपाँईंटजवळ येऊन हळूहळू कोमेजायला लागतो.

शेवटी मग एक गोष्ट प्रकर्षाने जाणवली लग्न हे ठरवून करा की लव्हमँरेज ,हे यशस्वी करण्याचा एक प्रमुख मार्ग म्हणजे तडजोड. कदाचित तडजोडीचे दुसरे नावं संसार असं म्हंटले तरी चालेल. आता फक्त ही जुजबी तडजोड करतांना फक्त दोघांनीही मनात आणायचं, हे आपणं आपल्या जीवाभावाच्या, प्रेमाच्या माणसासाठी करतोय, बस मग पुढे सगळं सुरळीत होतंच. फक्त ह्या तडजोडी जुजबी बाबतीत हव्यात, कारण एकदम पराकोटीच्या तडजोडी दोघांपैकी कुणी करु शकत नाही, आणि खरतरं स्वत्व गमावून तडजोड करुन जगण्यात मजाही नसते.

आता पुढे ह्या शाँर्टफिल्म विषयी पण नक्की लिहेनच. पण नुसतं शाँर्टफिल्म चे नाव वाचले आणि हे विचार भराभर डोक्यातून, मनातून उतरले आणि शब्द बनून बसले.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अर्धवट जळलेली थोटकं – भाग २ – डॉ हंसा दीप ☆ भावानुवाद – सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ ☆

सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ

? जीवनरंग ?

☆ अर्धवट जळलेली थोटकं – भाग २ – डॉ हंसा दीप ☆ भावानुवाद – सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ 

(मागील भागात आपण पहिले– ज्यांची त्वचा त्याच्यापेक्षा कितीतरी पटींनी उजळ होती, त्या सगळ्या लोकांवर लिवी आपल्या काळ्या त्वचेचा राग काढत होता. माझ्याशी मात्र त्याचं कोणत्याही प्रकारचं वैर नव्हतं, माझ्याशी तो अगदी मोकळेपणानी बोलत असे. त्याला बहुधा आमच्या दोघांमध्ये काहीतरी साम्य वाटत असावं. म्हणूनच तर तो आपला रागही बेधडकपणे व्यक्त करत होता. आता इथून पुढे)

त्याचं काम मला आवडू लागलं होतं. बाहेरचं काम त्याने दोन दिवसात उरकलं, तेंव्हा मला वाटलं, की घराच्या आत सुद्धा कित्येक वर्षात रंग रंगोटी, सफाई केलेलीच नाहिये. भिंतींचा रंग जाऊन त्यावरची चमक तर कधीचीच गेलेली होती आणि आता तर कुठे कुठे वरचं प्लॅस्टर आणि रंगांचे तुकडे पडून आतली बिनरंगी भिंत दिसू लागली होती. तेंव्हा हेही काम करून घ्यावं. तो जेंव्हा काम उरकून निघाला, तेंव्हा त्याचे आजच्या कामाचे पैसे देऊन मी त्याला घरातल्या रंग-रंगोटी बद्दल बोलले. त्याने एका नजरेत घराकडे बघून  पक्का अंदाज केला, की हे घर तीन बेडरुमचं आहे. घराच्या बाहेरच्या आकाराकडे बघून आतल्या लांबी-रुंदीचा बरोबर अंदाज घेता येत होता त्याला.

त्यानं ते काम करायचं मान्य केलं. दुसऱ्या दिवशी येताना रंगाचे डबे, ब्रश, रोलर हे सगळं सामान घेऊन येण्यासाठी त्याला 500 डॉलर दिले. त्याने ते पैसे त्याच्या खिशात ठेवल्याक्षणी मला वाटायला लागलं, की आता काही हा परत येणार नाही! एकटं रहाणाऱ्या बाईला लुटायची आयती संधीच दिली होती मी त्याला! लीवीवर, त्याच्या कामावर विश्वास बसल्यानंतरही मनात अशी गोष्ट यावी, याचं माझं मलाच आश्चर्य वाटत राहिलं. अशा चेह-यांवर तर सगळं जगच संशय घेतं आणि मी पण या जगातलीच होते ना? मी आपल्याच मनाला समजावत राहिले, की जर तो आलाच नाही तरी काही हरकत नाही, पाचशे डॉलर देऊन मला थोडी अक्कल तरी येईल!

दुसऱ्या दिवशी सकाळी उठल्यापासूनच त्याची वाट बघायला लागले होते मी! नऊ वाजायला अजून एक तास होता आणि माझ्या मनात धाकधूक सुरु झाली होती. मनाची बेचैनी दूर करावी म्हणून विचार केला, की गल्लीच्या टोकापर्यंत एक चक्कर टाकून यावी. वेळही जाईल आणि मन तो विचार सोडून जरा दुसरीकडे वळेल. चालत जात असताना लक्षात आलं, की रोजच्यासारखी गल्ली साफ दिसत नाहिये. इकडे तिकडे कागदाचे तुकडे, झाडांची पाने आणि खाद्यपदार्थ विखरून पडलेले आहेत. दोन तीन टीम हॉर्टन्सचे कॉफीचे कप पण लवंडलेले दिसत होते. कचऱ्याचे डबे खच्चून भरलेले होते आणि त्यामुळे त्याची झाकणं बंद न झाल्याने घाण वास सगळीकडे सुटलेला होता. आसपास पडलेली सिगारेटची थोटकं न विझवताच फेकलेली दिसत होती. ते बघून माझे पाय एक क्षण तिथेच थांबले. त्या थोटकांमधे मला कधी लीवीचा तर कधी माझा चेहरा दिसत होता. एक काळा आणि एक सावळा, ज्यांना चिरडणाऱ्या पायांना कधी ही जाणीव पण होत नसेल, की आपण एखाद्या माणसाला चिरडतोय, की सिगारेटच्या थोटकाला!

जवळपास अर्धा तास भटकून मी परत आले. चहा नाश्ता घेऊन घड्याळाकडे लक्ष जायच्या आतच बाहेरून काही आवाज आले. खिडकीतून बघितलं, तर लीवीची गाडी येऊन थांबलेली होती. गाडी जागेवर लाऊन त्याच्याबरोबर त्याच्या सारखीच दिसणारी आणखी तीन माणसं दरवाजाकडे येताना दिसली. आत्तापर्यंत तर मी एकट्या लीविलाच घाबरत होते, आणि आता आणखी तीन जण! त्याने बेल वाजवली आणि म्हणाला, की इथलं काम आम्हाला एका दिवसात उरकायचं आहे, म्हणून सगळी टीमच घेऊन आलोय.

ते धडाधड घरात घुसले, तेंव्हा माझं हृदय जोरजोरात धडधडायला लागलं. ते चौघं आणि मी एकटी! आता तर मी मुंगी एवढी सुद्धा राहिली नव्हते त्यांच्यासमोर! चौघांनी मिळून एक फुंकर मारली असती, तरी मी उडून कुठल्या कुठे जाऊन पडले असते. बाहेरच्या खोलीपासून काम सुरु केलं त्यांनी. मी विनाकारणच स्वयंपाकघरातून आत बाहेर करत होते. तिरक्या नजरेने, ते लोक काय करतायत याच्यावर नजर टाकत होते. कोणी भिंती घासत होता, तर कोणी खाली कपडा अंथरत होता, तर कोणी डब्यातून रंग काढत होता. ना त्यांनी काही सामान हलवण्यासाठी मला बोलावलं, आणि माझी कशासाठी मदतही घेतली नाही. एकामागून एक रंगांचे डबे रिकामे होत गेले आणि ते लोक एका खोलीतून दुसऱ्या खोलीत जात राहिले.

मला आश्चर्यच वाटत होतं. इतक्या वेगानं इतकं चांगलं काम होत होतं! खोल्या नवीन रंगामुळे चमकत होत्या. सामानही बरोबर आधीच्याच जागेवर ठेवलं जात होतं. मधे मधे मी त्यांना कोक किंवा चहा कॉफी पाहिजे आहे का, हे विचारत होते. ते लोक खूश दिसत होते. खूप गप्पा मारत होते, जोरजोरात हसत होते. मधे मधे मला पण आपल्या गप्पांमध्ये सामील करून घेत होते. त्यांची स्पष्टवक्तेपणानी बोलायची लकब पाहून मला आपोआपच हसू येत होतं. जेवणाची वेळ झाली तेंव्हा ते अर्ध्या तासासाठी बाहेर गेले. परत आले, तर माझ्यासाठी पिझ्झाची एक स्लाईस घेऊन आले.

मी विचारलं, “मला कशाला?”

लीवी म्हणाला, “कारण, तुम्ही फार चांगल्या आहात.”

ते ऐकून माझी मलाच लाज वाटली. माझ्या अंतर्मनातलं ते सत्य उघड उघड दिसून येत नव्हतं का? की माझा या लोकांवर अजिबात विश्वास नव्हता!

पिझ्झा मला पण आवडतो, पण का कोणजाणे, ही पिझ्झाची स्लाईस मला खावीशी वाटत नव्हती. लीविच्या चांगुलपणाचा आदर वाटला, म्हणून मी ती फ्रीजमधे ठेवून दिली, नंतर फेकता येईल असा विचार करत.

काम खूपच वेगानं चाललं होतं.  मधे दोन वेळा त्यानं आणखी लागणाऱ्या रंगासाठी पैसे मागून घेतले. दर वेळी त्याला पैसे देताना मनात तीच भीति असायची. दर वेळी वाटायचं, की आता काही तो परत येत नाही! तो रंग आणायला गेला, की त्याचे सहकारी बाहेर गवतावर बसून आराम करायचे. काही वेळातच तो हसत हसत परत यायचा. त्याचं ते पांढरे शुभ्र दात दाखवत हसणं मला फार आवडून जायचं आणि माझा त्याच्यावरचा विश्वासही वाढायचा.

त्याचं काम संपता संपता संध्याकाळचे सात वाजले. दोन दिवसांचं काम एका दिवसात संपवून आता ते जाण्याची तयारी करत होते. रंग देऊन झाल्यावर झालेला कचरा, घाण साफ करून हात पाय धूत होते. मी लीविला त्याचे पैसे दिले आणि त्या चौघांना चांगलं जेवण घेता येईल अशी टीपही दिली. काम करणाऱ्याचं आणि करून घेणाऱ्याचं नातं आता सोपं झालं होतं. दिवसभर घर त्या चार जणांच्या हसण्याने दुमदुमून गेलं होतं. मला पण खूप हसवलं होतं त्यांनी. घरातली प्रत्येकच वस्तू लीविसकट चारी जणांनी बघितली होती, पण आता मला तशी काही भीति वाटत नव्हती. का कोण जाणे, पण मला सारखं असं वाटत होतं, की लीवी मला आधी भेटायला पाहिजे होता. कित्येक वेळा अशी छोटी मोठी कामं करवून घेताना मला फार कटकट झालेली होती.

जाताना बाहेरच्या लॉनवर त्याला सिगारेट ओढताना बघितलं, तेंव्हा माझ्या मनात आलंच, की आता तो सिगरेटचं अर्धवट जळलेलं थोटूक पायांनी चिरडतोय की नाही, ते बघायला हवं! त्यानं तो सिगरेटचा तुकडा विझेपर्यंत हातात धरून ठेवला आणि मग जवळच्या कचऱ्याच्या डब्यात फेकून गाडी सुरु करून निघून गेला.

त्याच्या मनात माझ्याबद्दल कोणताही राग नाही, हे बघून मी आनंदाचा निःश्वास सोडला. मी माझ्या मनातली ती गोष्ट लपवून ठेवण्यात यशस्वी झाले होते. मी फ्रीजमधून त्याने आणलेला पिझ्झा काढला आणि तो गरम करून खायला घेतला. जसा काही या खोलीत लीवी हजर आहे, आणि त्याने कौतुकाने माझ्यासाठी आणलेल्या खाण्याचा आदर मी ठेवतेय, हे बघतोय.  आता माझ्या समोर फक्त त्याचे पांढरे शुभ्र दातच नाही, त्याचं पूर्ण व्यक्तिमत्व होतं, जे शुभ्र धवल किरणांपेक्षाही शुभ्र होतं.

मूळ हिंदी कथा : डॉ  हंसा दीप, कॅनडा

मराठी भावानुवाद  –  सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ

संपर्क – 1565, सदाशिव पेठ, ‘लक्ष्मी सदन’, पी. जोग क्लास लेन, पुणे, ४११०३०. मो. 7709014058.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ भावकोष… ☆ सौ.मंजुषा आफळे

सौ.मंजुषा आफळे

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☆ भावकोष… ☆ सौ. मंजुषा आफळे ☆

रखमा कामाला आली की, तिच्याशी थोडावेळ बोलावं लागतं. सुखदुःख विचारपूस करावी लागते. मी तिला आज सहजच विचारलं, ” कसा चाललाय ग मुलांचा अभ्यास? बरी आहेत का?”  रखमाला, दोन मुलं. एक मुलगा पाचवीत तर एक मुलगा तिसरीत. जखमेवरची खपली काढावी, तशी ती बोलू लागली. ” काय सांगायचं ताई, मुलांचा अभ्यास फोनवर झाला आहे म्हणे, शिकवणी बंद आहेत. आम्हाला शिकवाया येत नाही. त्यात फोनसमोर टाईमात बसायला लागतं म्हणे, आणि सारखं ते फोन रिचार्ज करायचं कसं जमणार आम्हाला? बंद झालाय त्यांचा अभ्यास. नुसतीच फिरत्यात. शाळा कधी सुरू होणार हो ताई?” काकुळतीला येऊन विचारत होती. तिच्या या प्रश्नाला माझ्याकडे तरी कुठे उत्तर होतं. .पण तरी जीव एकवटून मी तिला धीर देऊ लागले, ” सर्वांना लस मिळाली की, होईल कमी हा आजार “. ” कसलं काय. ताई, खरं सांगते, माझा मोठा मुलगा शाळेत लय हुशार होता. बाईंनी सांगितलेलं नीट करायचा. म्हणलं, असाच पुढे पुढे शिकला म्हणजे चांगलं होईल. त्याला उद्या मोठा झाला की, कुठं तरी हापिसात नोकरी लागेल. तर हयो काय संकट आलं. पोरं नुसती इथं बस तिथं बस. रिकामं फिरत्यात. कामात लक्ष लागेना माझं ताई ” आणि ती रडायला लागली. मलाही खूप पोटात कालवाकालव झाली..एका आईची सर्व स्वप्नं काचेसारखी ताडताड तुटत होती.आता मी तिला आणखी धीर देऊ लागले. ” हे सगळं लवकर संपेल गं. तूर्त मोबाईलवर अभ्यास परीक्षा चालूच राहतील.”  त्यावर ती म्हणाली, “अहो ताई, मुलांना फोनवर अभ्यास करायला जमेना. अभ्यासावरचं   लक्ष उडालं. समोर बाई नाहीत, फोटोत दिसतात. त्यामुळे भीती राहिली नाही. आणि आदरबी वाटे ना. त्यांना फोन  घेता येत नाही. काही कळत नाही.  जून महिन्यात दरवर्षी शाळेची फी, शिकवणीच्या बाईंची फी, दप्तर, डबा देऊन मुलांना शाळेला धाडीत होते. आता सगळं संपलंच ना.” तिच्या डोळ्यात भीती व बोलण्यात निराशेचा सूर होता. मी पुन्हा धीर देत म्हणाले,. ” शाळा बंद आहेत गं,पण अभ्यास चालू ठेवायचा आहे. आता असं कर, तू त्यांना मोबाईल घेऊन माझ्याकडे पाठव. मी सांगेन कसं पाहायचं ते. सगळी पुस्तकं असतात मोबाईलमध्ये. मी घेईन त्यांचा 

अभ्यास “. झाले…  हे ऐकून मात्र तिचे डोळे हसू लागले. मनातली निराशा आता निघून गेली. तिच्या मनाने उभारी घेतली, व मला म्हणाली, ” खूप उपकार होतील ताई, आत्ता घरी जाते. आणि लावून देतो त्यास्नी तुमच्या घरी. चालंल का?” मी म्हणाले, ” पाठव की “. आणि मग खूप उत्साहाने झपाझप पाऊले टाकीत ती निघून गेली.  तिची स्वप्नं पूर्ण करण्याचा तिला मार्ग सापडला होता. तिची पाठमोरी आकृती पाहून मला भरून आले. किती वेगवेगळ्या समस्या निर्माण होत आहेत समाजात. लोकांचा आत्मविश्‍वास ढळतो आहे. कधीकधी आपण अशांसाठी मदतीचा हात पुढे केला पाहिजे.मनामनांतील अशांतता मिटवू या. धीर देऊ या. मदत करू या. कधी शब्दाने तर कधी कृतीतून. त्या़च्या इवल्या इवल्याशा स्वप्नांना खतपाणी घालू या.  मग त्यातूनच येणाऱ्या रंगीबेरंगी फुलपाखराची वाट पाहूया. असाच निश्चय करूया…… भावकोश जपू या.

© सौ.मंजुषा सुधीर आफळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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