हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 35 – आत्मलोचन – भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना  में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)   

☆ कथा कहानी # 35 – आत्मलोचन– भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

(“इस कहानी के सभी पात्र और घटनाए काल्पनिक है, इसका किसी भी व्यक्ति या घटना से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा।”)

अगले कुछ महीने न जाने क्यों पर आत्मलोचन ने बड़े तनाव में गुजारे, छोटी छोटी बातों पर भड़क जाने की आदत ऑफिस का माहौल गंभीर बना दे रही थी, वित्तीय वर्ष का बज़ट फंड लेप्स होने पर प्रिसिंपल सेक्रेटरी नाराज होते रहते थे.दुर्गम नक्सली क्षेत्र में योजनाओं के अंतर्गत काम होना शासन की इच्छा पर कम नक्सलियों के मूड पर ज्यादा निर्भर होता था, काम करने वाले वही कांट्रेक्टर सफल हो पा रहे थे जिनके नक्सलियों से वाणिज्यिक संबंध थे अन्यथा विकास कार्यों को बाधित करना उनके जनांदोलन का ही एक अंग था. आये दिन रास्ता बंद करना, उनकी सूचना देने वाले पुलिस के खबरियों का सिर काटकर बॉडी सड़क पर डाल देना उनके आंदोलन और शक्ति प्रदर्शन का एक हिस्सा था. मुख्य सचिव और मुख्यमंत्री बहुत संवेदनशील और सक्रिय थे जो चाहते थे कि इस समस्या को शासन एड्रेस करे और उनकी अपेक्षा, युवा सिविल सर्विस के अधिकारियों से बहुत ज्यादा थी. हर परफारमेंस रिव्यू में ये लोग चाहते थे कि ये युवा जिलाधीश इनोवेटिव और सशक्त निर्णयों से राज्य के विकास को गतिशील करें राज्य में हर वर्ष की तरह इस बार भी ग्रामसुराज अभियान 14 अप्रैल से प्रारंभ हुआ और आत्मलोचन जी ने जिले के नक्सली प्रभावित दुर्गम क्षेत्र में जिले के विकास से संबंधित अधिकारियों के साथ कैंप लगाने का निश्चय किया ताकि क्षेत्र के निर्धन निर्बल आदिवासियों और जिलास्तर के शासनतंत्र के बीच संवाद स्थापित किया जा सके और शासकीय योजनाओं के माध्यम से उनके सर्वागीण  विकास को दिशा दी जा सके और जनसमस्याओं के निवारण की पहल की जा सके.तिथि निर्धारित होने पर सूचना हर माध्यम से हर संबंधित व्यक्ति, संस्था और प्रिंसिपल सचिव स्तर के अधिकारियों को दी गई ताकि लोग इस कैंप में भाग ले सकें.इस कदम से मुख्य सचिव और मुख्य मंत्री प्रभावित हुये. पर एक बात और हुई, उन्हीं पूर्व मुख्यमंत्री का फोन फिर आया कि उन्हें उनके नेटवर्क के माध्यम से जिले में कोई बड़ी घटना होने की पूर्वसूचना मिली है पर समय दिन व स्थान की विस्तृत जानकारी नहीं है पर फिर भी सतर्क और सावधान रहने की सलाह  दी गई. कैंप की मॉनीटरिंग और निर्देशों में उलझकर कलेक्टर साहब ये चेतावनी नज़रअंदाज कर गये और नियत तिथि पर कैंप सदलबल प्रस्थान कर गये. आवश्यक और अपरिहार्य सुरक्षा बल साथ चल रहा था. ठीक दिन के 11बजे कार्यक्रम प्रारंभ हुआ और उपस्थित ग्रामीणों के बीच शासकीय योजनाओं के प्रचार माध्यम से संवाद प्रारंभ हुआ. प्रारंभिक भाषणों के बीच जैसे ही आत्मलोचन जी मंच की ओर बढ़े, अचानक ही लगभग सौ डेढ़ सौ वर्दीधारी युवक मंच की ओर बढ़े और इसके पहले की कोई समझ पाता, उन्होंने कलेक्टर के पर्सनल सिक्यूरिटी गार्ड को शूट कर आत्मलोचन जी को अपने कवर में ले लिया और सुरक्षा बल इस अचानक हमले से स्तब्ध हो गया, कुछ करने की गुजांइश वैसे भी नहीं बची थी क्योंकि देखते देखते ही आठ दस नक्सली उन्हें घेरकर बाहर गाड़ी में बिठाकर आगे बढ़ गये और सुरक्षा बल, नक्सलियो के बाद में किये बम विस्फोट में समझ नहीं पाये कि यहां कितनी गंभीर घटना घट चुकी है. एक तरफ आत्मलोचन जी अज्ञात स्थान की ओर ले जाये जा रहे थे वहीं इस अभूतपूर्व घटना की खबर से संभागीय मुख्यालय और राजधानी में हड़कंप मच गया. मीडिया ने राष्ट्रीय राजधानी  तक सत्ताधीशों को झकझोर कर रख दिया. इस तरह की ये शायद पहली घटना थी. समाधान करने के लिए देश- प्रदेश के संचार तंत्र एक हो गये और नक्सली क्षेत्र के विशेषज्ञ वरिष्ठ और सेवानिवृत्त अधिकारियों के माध्यम से इस कार्य में संलग्न प्रमुख नक्सली नेताओं से बातचीत के रास्ते कुछ देर से ही सही पर बहुत प्रयास के बाद खुल ही गये.

वहीं कथा के नायक का हाल क्या हुआ यह जानने के लिए कुछ समय और दीजिए, अगली एक या दो किश्तों में क्लाइमेक्स आपके सामने होगा.

बहुत परिश्रम से कहानी तैयार हुई है और धन्यवाद उन सभी मित्रों को जिनके लगातार प्रोत्साहन से उम्मीद से बढ़कर यहां तक का सफर तय हो गया.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 112 ☆ पढ़ो लिखो, सोच बदलो और परिवर्तन करो – 5 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – पढ़ो लिखो, सोच बदलो और परिवर्तन करो)

☆ संस्मरण # 112 – पढ़ो लिखो, सोच बदलो और परिवर्तन करो – 5 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गुलाबवती बैगा एक ऐसी लड़की की कहानी है जो बिना खिले ही मुरझा जाती अगर दो प्रेरक व्यक्तित्व उचित समय पर हस्तक्षेप न करते। यह दो व्यक्तित्व हैं उसकी अनपढ़ नानी, हर्राटोला निवासिनी भुलरिया बाई बैगा और दूसरे व्यक्ति हैं कलकत्ता से घूमते फिरते अमरकंटक पहुंचे डाक्टर प्रवीर सरकार जो पेशे से होम्योपैथिक चिकित्सक हैं, स्वभाव से साधू हैं और मन विवेकानन्द के भक्त। डाक्टर सरकार जब  1995में अमरकंटक आए और यहां के बैगा आदिवासियों की व्यथा, विपन्नता देखी तो फिर यहीं बस गए। पहले लालपुर और फिर पोडकी में उन्होंने एक कच्चे मिट्टी और घांस-फूस के मकान में चिकित्सालय और बैगा बच्चियों के लिए 1996में स्कूल खोला और उसमें भर्ती होने को, अपनी नानी के साथ सबसे पहले आई गुलाबवती बैगा, जिसकी मां का बचपन तो बगल के गांव हर्राटोला में बीता पर ब्याह हुआ सलवाझोरी में जो आजकल छत्तीसगढ में है। यह बच्ची जब 2001में पांचवीं कक्षा पास करने के बाद जब अपने पितृगृह गई तो पिता ने फरमान जारी किया कि बहुत पढ़ लिया चलो सरपंच के पास तुम्हें कोई नौकरी दिलवाएंगे और तुम्हारा ब्याह करेंगे। बैगा आदिवासियों की बिरादरी में सरपंच या मुखिया की भूमिका महत्वपूर्ण होती है और अपने टोले या मोहल्ले के निवासियों के जीवन-यापन संबंधित फैसले वहीं करता है। अबोध बालिका मन ही मन घुटती, पिता से विरोध में कुछ कह न पाती और मां से अपना दुःख व्यक्त करती पर पिता कहां सुनता वह तो अपने समाज की मर्यादाओं से बंधा था। ईश्वर ने शायद बालिका की आर्त पुकार सुन ली और उसकी नानी अचानक ही वहां पहुंच गई। मां बेटी ने मिलकर नानी को सब हाल सुनाया और नानी भी अड़ गई कि गुलाब आगे पढेगी। पिता के तमाम तर्क की ज्यादा पढ़ लिख जाएगी तो कुलक्षणी हो जाएगी, घर के काम-काज कब सीखेगी, इससे बियाह कौन करेगा, नानी को झुका न सके। नानी भी जिद्द कर बैठी की गुलाब को वह पढ़ाएगी। पिता कहते पढ़ाने लिखाने रुपैया कहां से आएगा, नानी और नातिन कहते बाबूजी यानि डाक्टर सरकार देंगे। लेकिन पुरुष शक्ति के आगे कभी नारी का अड़ना सफल हुआ है? शायद नहीं। पर इस बार हो गया, पिता नहाने गए और बैगाओं को नहाने के लिए तीन चार किलोमीटर दूर किसी जंगली झरने पर ही पानी नसीब होता है तो नानी ने मौका देखा, नातिन से कहा चल गुलाब मेरे साथ तुझे मैं आगे पढ़ाऊंगी। पितृगृह से आई बालिका उसके बाद डाक्टर सरकार के संरक्षण में रही। उन्होंने भी गुलाब के पिता और गांव के सरपंच को समझाया थोड़ी दम भी दी कि बाल विवाह यानी पुलिस कोर्ट कचहरी आदि की झंझट। खैर सब गुस्से में पांव पटकते चले गए और गुलाब भर्ती हो गई पोडकी स्थित शासकीय माध्यमिक विद्यालय में।  जहां से वह 2004में आठवीं कक्षा उत्तीर्ण हुई। फिर नौवीं और दसवीं की पढ़ाई उसने समीपस्थ ग्राम भेजरी से उत्तीर्ण की और हायर सेकंडरी स्कूल अमरकंटक से बारहवीं 2008में उत्तीर्ण हो गई। डाक्टर सरकार उसके अभिभावक बने रहे। कपड़े भोजन और पुस्तकों की व्यवस्था डाक्टर सरकार द्वारा संचालित श्रीरामकृष्ण विवेकानन्द सेवाश्रम पोडकी करता, गुलाब का काम सिर्फ पढ़ना था। बारहवीं होते होते अबोध बालिका से किशोरी बन चुकी गुलाब के सपने तो ऊंची उड़ान भरने लगे। वह  इस क्षेत्र में स्थापित हो रहे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय के निर्माण कार्यों को देखती और वहां पढ़ाते प्राध्यापकों को कभी अमरकंटक में तो सेवाश्रम में डाक्टर सरकार से चर्चा करते देखती। इच्छा हुई मैं भी ग्रेजुएट बनूंगी। और हिम्मतवाले कभी हारते नहीं है। डाक्टर सरकार कन्याहट के आगे फिर नतमस्तक हुए और उसे विश्वविद्यालय ले गए बीए में दाखिला कराने। इस विश्वविद्यालय से गुलाबवती बैगा, नानी के गांव वालों की गुलबिया जब 2011में स्नातक की उपाधि धारण कर बाहर निकली तो वह अमरकंटक क्षेत्र की पहली बैगा महिला बनी बीए पास । सरकार ने उसके प्रयासों का सम्मान किया और प्राथमिक शाला धमगढ में उसे शिक्षिका बना दिया। और अभी 20जनवरी 2021को मुख्यमंत्री ने भी सम्मानित किया।गुलाबवती बैगा के पुरुषार्थ की कहानी और उसके भविष्य निर्माण में नानी के योगदान की बात जब इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय के कुलपति डाक्टर श्री प्रकाश मणि त्रिपाठी ने सुनी तो उन्होंने सपत्नीक गुलाबवती बैगा व उसकी नानी वे मां के साथ फोटो खिंचवाई और मदनलाल शारदा फैमिली फाउंडेशन पुणे ने भी उसे पुरस्कृत करते हुए सम्मानित किया।

नौकरी पश्चात 2012में गुलाबवती का जब विवाह हुआ तो उसे मनचाहा वर मिला जो उसी के समान स्नातक है। अब दो बच्चों की मां, 2013में राजवीर व 2017में अर्नव बैगा की जननी, जब स्कूटी पर सवार होकर, करीने से तैयार होकर  साफ सुथरे कपड़े पहनकर स्कूल पढ़ाने जाती है तो बहुत सी आदिवासी बालिकाएं उसे घेर लेती हैं और उसकी राम कहानी उत्साह से सुनती हैं। उसकी कहानी उन बच्चियों को प्रेरणा देती है क्योंकि गुलाबवती न तो राजकुमारी है और न तो कोई परी  वह तो उनके समुदाय से बाहर निकली एक बहादुर स्वयंसिद्धा है।

मैंने उससे पूछा तुम तो पढ़ गई पर बाकी लोगों को क्या सिखाती हो तो वह थोड़ा झिझकते हुए बोलती हैकि दादा मैं तो बाबूजी की सीख सबको देती हूं कि पढ़ो लिखो, सोच बदलो और परिवर्तन करो। वह कहती है कि बैगा आदिवासियों में खान पान को लेकर कई बुराइयां हैं वे चूहा तक मारकर खा जाते हैं, मद्यपान बहुत करते हैं और पौष्टिक आहार नहीं लेते, शौच वगैरह भी नहीं करते, नहाना धोना तो बहुत कम करते हैं, महिलाओं का पहनावा भी पुरातनपंथी है। यह सब बदलना चाहिए और वह अपने लोगों इन परिवर्तनों को स्वीकार करने को कहती है । मैंने कहा फिर तो उनका बैगापन ही खत्म हो जाएगा तो उसका जवाब है कि बैगापन तो हमारे भोलेपन में है वह तो गोदने की तरह हमारे तन-मन में व्याप्त है। बैगानी संस्कृति को हमें बचाना है पर उन भावनाओं और परम्पराओं को तो त्यागना ही होगा जो हमें डरपोक बनाती है। वह कहती हैं आज भी बैगा मोटरसाइकिल पर अंजान व्यक्ति को देखकर जंगल भाग जाते हैं। बीमार पड़ते हैं तो दवाई नहीं करवाते वरन टोना टोटका करते फिरते हैं। बैगा लड़के लड़कियां पढ़ेंगे लिखेंगे तो डर खत्म होगा और वे अपनी बात खुलकर कह पाएंगे, स्वच्छता से रहना सीखेंगे तो बीमार नहीं पड़ेंगे। डाक्टर सरकार के लिए उसके मन में अगाध श्रद्धा है, वह कहती है कि बाबूजी ने उसे बस जन्म भर नहीं दिया बाकी उसके मां-बाप तो वहीं हैं। वह बताती है कि हमारे पिता की जो आमदनी थी उससे तो बस गुजर बसर लायक व्यवस्था बनती थी, नानी भी मेहनत मजदूरी कर बस अपना पेट भरने लायक कमाती थी। ऐसी विपरीत आर्थिक परिस्थितियों में मेरा पढ़ पाना तो नामुमकिन ही था। लेकिन बाबूजी ने बहुत सहारा दिया। उन्होंने मुझे इसी सेवाश्रम के छात्रावास में रखा  और भोजन, कपड़ों और किताबों की व्यवस्था की। जब कभी गाँव के लोग ताने देते मेरे पढने स्कूल जाने का मजाक उड़ाते तो बाबूजी उन्हें डांटते और मुझे समझाते मेरा मनोबल बढाते।आज अगर मैं सुखी जीवन बिता रही हूँ तो यह सब कुछ बाबूजी के कारण ही संभव हो सका। अगर वे इस क्षेत्र में न आते तो मेरे जैसी अनेक बैगा लडकियाँ परिपाटी और परम्पराओं की बलि चढ़ गई होती।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (46-50)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (46 – 50) ॥ ☆

सर्ग-19

 

किया पान था अग्निवर्ण ने सुरा का पाटल कुसुम आम्रपल्लव से मिश्रित।

अतः बसंत ऋतु बाद कृश काम उसका पुनः हो गया नया उन्नत श्री समुचित।।46।।

 

प्रजा कार्य से हो निरंतर विमुख वह इंद्रिय-सुखों से हुआ लीन कामी।

था उसका श्रृंगार ही ऋतु का परिचय, हर ऋतु का श्रृ्रंगार था उसका नामी।।47।।

 

व्यसनों में आसक्त रहने पै भी अग्निवर्ण पै न आक्रमण हुआ कोई कभी भी।

 

पर दक्ष-शापित हुये चंद्रमा सा, रतिराग वश क्षीण होता गया ही।।48।।

सुरापान औं रति के कारण था अस्वस्थ पर उसने छोड़ा न वैद्यों की मानी।

 

हो व्यसन के वश अगर इंद्रियाँ तो, उन्हें मोड़ सकता नहीं कोई ज्ञानी।।49।।

हो पीत मुख हो गया क्षीण इतना कि चल पाता था ले किसी का सहारा।

 

हुई मंद आवाज छूटे आभूषण हो राजयक्ष्मावश हुआ थका-हारा।।50।।

हुआ रोग से ग्रस्त वह किन्तु रघुकुल हुआ जैसे कांटा हुआ चन्द्रमा हो।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ४ जून – संपादकीय – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ ८ जून – संपादकीय – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

लेखक, पत्रकार, आणि मराठी विश्वकोशकार म्हणून प्रसिद्ध असलेले श्री गणेश रंगो भिडे यांचा आज स्मृतीदिन. 

(६/६/१९०७ – ८/६/८१). 

एम.ए. बी. टी. असूनही श्री. भिडे यांनी शिक्षकी पेशा मात्र स्वीकारला नाही. ते प्रभात फिल्म कंपनीत नोकरी करत असतांना  “ Household Encyclopedia “ आणि विणकाम, पाकशास्त्र , यावरील पुस्तके पाहून, अशा प्रकारची पुस्तके मराठीत असणे आवश्यक आहे या प्रबळ विचाराने त्यांनी त्यासाठीच काम करण्याचे ठरवले.  दोनच दिवसात त्यांनी जवळपास ३५ विषयांची यादी तयार केली. २०/४/३१ रोजी “ व्यावहारिक ज्ञानकोश मंडळा “ची स्थापना झाली, आणि १९३५ साली “ व्यावहारिक ज्ञानकोशा” चा पहिला भाग प्रकाशित झाला. विशेष म्हणजे श्री. भिडे यांनी स्वतः सगळीकडे फिरून त्याची विक्री केली. त्यातले व्यासंगी लेखकांचे उत्तम दर्जाचे लेखन, चित्रे – फोटो यांचा समावेश, सुबक बांधणी, आणि त्यामानाने कमी किंमत, ही या कोशाची वैशिष्ट्ये होती. या कोशाचे एकूण पाच खंड प्रसिद्ध झाले. याचबरोबर “ अभिनव मराठी ज्ञानकोश “ हा स्वातंत्र्योत्तर कालानुरूप नवे ज्ञान देणारा पाच खंडातील कोशही त्यांनी निर्मिला होता. याव्यतिरिक्त त्यांनी  “ बालकोश “ ही लिहिला होता. अशा कोशांच्या संपादनाचे मोठेच काम श्री. भिडे यांनी केले होते. त्यांची “ शैक्षणिक कोश “ निर्मितीची योजना मात्र पूर्णत्वास जाऊ शकली नाही. 

श्री. भिडे हे १९३२ साली सुरू झालेल्या “ सिनेमासृष्टी “ या मराठीतील पहिल्यावहिल्या सिने-नाट्य विषयक नियतकालिकाचे कर्ता करविता होते. सेवक , पुढारी , उषःकाल, या नियतकालिकांसाठीही त्यांनी काम केले होते. तसेच केसरी आणि त्रिकाल या वृत्तपत्रांचे ते वार्ताहरही होते. 

“कलामहर्षी बाबुराव पेंटर“ हे अतिशय गाजलेले चरित्रात्मक पुस्तक, आणि  “फोटो कसे घ्यावेत“, “सावरकर सूत्रे“ इत्यादि त्यांनी लिहिलेली पुस्तके प्रसिद्ध झाली होती . श्री. पु.ल.देशपांडे यांच्या सहकार्याने त्यांनी “ कोल्हापूर दर्शन “ हे पुस्तकही लिहिले होते.

८ जून १९८१ रोजी कर्करोगाने त्यांचे निधन झाले. 

श्री. गणेश रंगो भिडे यांना आजच्या त्यांच्या स्मृतिदिनी विनम्र अभिवादन.🙏

☆☆☆☆☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे 

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : विकिपीडिया, महाराष्ट्र टाईम्स.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पर्यावरण… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पर्यावरण… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे☆

जसं तान्ह्या बाळास पांघरूण,

तसं अवनीस घातले आवरण !

 

आतून उबदार, बाहेर देखणे,

निसर्गाचे ल्यायले तिने लेणे !

 

सृजन निर्मिती करीतसे धरा,

सिंचन तिला पावसाचे करा!

 

माती पाण्याच्या संगतीत,

हिरवी रोपे भूवर तरतात!

 

जगवते ती प्राणिमात्रांना,

जाणीव ठेवा तिची मना!

 

सांभाळावी जीवापाड  तिला,

हानी न करावी भूतलाला!

 

पंचमहाभूतांची निर्मिती,

ईश्वरे केली प्राणीमात्रांसाठी!

 

जपू या पर्यावरणाला,

 उतराई होऊ या सृजन सृष्टीला!

 

जाणीव कायम मनात ठेवू,

पर्यावरणाला जपून राहू!

 

नाही पर्यावरणाचा एकच दिन,

साथ देऊ त्यास आपण रात्रंदिन!

 

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 135 ☆ गाव आठवांचा एक… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 135 ?

☆ गाव आठवांचा एक… ☆

गाव आठवांचा एक

रोज स्वप्नात दिसतो

दिसे डोंगर साजिरा

सूर्य जाताना हसतो

 

सूर्य जाताना हसतो

पश्चिमाही लालेलाल

सांज सावळी होताना

वारा पुसे हालचाल

 

वारा पुसे हालचाल

वृक्ष वेली धुंदावती

आल्या गेल्या पाहुण्यांशी

चूली पेटत्या बोलती

 

चूली पेटत्या बोलती

येतो गंध भाकरीचा

बेत फक्कड असावा

वास छान ओळखीचा

 

 वास छान ओळखीचा

येते दाटून ही भूक

माय प्रेमाने वाढते

याला म्हणतात सुख

 

याला म्हणतात सुख

ओटी भरून घेतले

आणि गावाच्या बाहेर

    नवे शहर गाठले

 

नवे शहर गाठले

परी गाव खुणावते

त्या पाण्यात पाटाच्या

अनवाणी घोटाळते

 

अनवाणी घोटाळते

कधी बोरी बाभळीशी

सांगा विसरू कशी मी

 आहे नित्य हृदयाशी !

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ लिम्ब… शांता शेळके ☆ रसग्रहण – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? काव्यानंद ?

☆ लिम्ब… शांता शेळके ☆ रसग्रहण – श्री सुहास रघुनाथ पंडित

☆ लिम्ब… शांता शेळके ☆

निळ्या निळ्या आकाशाची

पार्श्वभूमी चेतोहार

भव्य वृक्ष हा लिंबाचा

शोभतसे तिच्यावर

 

किती रम्य दिसे याचा

पर्णसंभार हिरवा

पाहताच तयाकडे

लाभे मनाला गारवा

 

बलशाली याचा बुंधा

फांद्या सुदीर्घ विशाला

भय दूर घालवून

स्थैर्य देतात चित्ताला

 

उग्र जरा परी गोड

गन्ध मोहरास याच्या

कटु मधुर भावना

जणु माझ्याच मनीच्या

 

टक लावून कितीदा

बघते मी याच्याकडे

सुखदुःख अंतरीचे

सर्व करीते उघडे!

 

माझ्या नयनांची भाषा

सारी कळते यालाही

मूक भाषेत आपुल्या

मज दिलासा तो देई

 

स्नेहभाव आम्हातील

नाही कुणा कळायाचे

ज्ञात आहे आम्हांलाच

मुग्ध नाते हे आमुचे !

– शांताबाई शेळके

☆ काव्यानंद – लिम्ब….शांताबाई शेळके ☆

शांताबाई शेळके यांच्या आत्मपर कवितांपैकी एक कविता–लिम्ब  (अर्थात  कडुलिम्ब!)

निसर्गाचा आणि मानवी मनाचा संबंध हा अनादी कालापासूनचा आहे.आपल्या आनंदाच्या उत्सवात माणूस निसर्गाला विसरलेला नाही आणि आपल्या दुःखाचा भार हलका करण्यासाठी निसर्गासारखा दुसरा मित्र नाही.’आपुलाच वाद आपणाशी’ हा सुद्धा निसर्गाच्या सहवासातच होतो.त्यामुळे शांताबाईंसारख्या कवयित्रीने निसर्गाशी साधलेली जवळीक आणि संवाद समजून घेण्यासारखा आहे.

‘लिम्ब’ ही  कविता वाचल्यावर प्रथमदर्शनी ती  निसर्ग कविता वाटते.असे वाटण्याचे कारण म्हणजे कवितेचे शिर्षक आणि पहिली तीन कडवी.पहिल्या तीन कडव्यात बाईंनी  लिंबाच्या झाडाचे फक्त वर्णन केले आहे.बलशाली बुंधा असलेला,विशाल फांद्या असलेला,त्याच्या पर्णसंभारामुळे मनाला गारवा देणारा,आकाशाच्या निळ्या पार्श्वभूमीवर पसरलेला हा भव्य वृक्ष मन आकर्षित करून घेणारा असा आहे.कुठे दिसला असेल हा वृक्ष त्यांना ? एखाद्या माळावर,प्रवासात,एखाद्या खेड्यात किंवा कदाचित अगदी घराजवळही.पण त्यांनी केलेले वर्णन हे इतके बोलके आहे की तो आपल्याला मात्र पुस्तकाच्या पानातून सहज भेटून जातो.पण कविता इथे संपत नाही तर इथे सुरू होते.कारण कुठेही सहजासहजी दिसणारा हा वृक्ष कवयित्रीचा सखा बनून जातो.

पुढच्या तीन कडव्यात त्या काय म्हणतात पहा.कडुलिम्बाच्या मोहोराला येणारा गंध गोडसर उग्र असा असतो.आपल्या मनातील भावनाही अशाच नाहीत का? थोड्या गोड तर थोड्या गोड.त्यामुळेच त्यांची आणि लिंबाची  मैत्री होते.आत्ममग्न अवस्थेत एकटक त्याच्याकडे बघत असताना,नकळतपणे आपल्या मनातील सुखदुःख  त्या वृक्षासमोर उघडे करत असतात.जितक्या नकळतपणे मैत्रिणिशी बोलावे तितक्या सहजपणे त्या वृक्षाशी मनातल्या मनात बोलत असतात.या एकटक बघण्यातूनच त्या वृक्षालाही त्यांच्या डोळ्यांची भाषा समजू लागली आहे आणि तोही आपल्या मूक भाषेतून त्यांच्याशी समजुतिचा संवाद साधत आहे.निसर्गाशी एकरूप होणं याशिवाय वेगळं काय असतं ?त्यामुळे ही मैत्री इतकी घट्ट झाली आहे की त्यांच्यातले मुग्ध नाते हे शब्दांच्या पलिकडले आहे आणि म्हणूनच ते इतरांना समजण्यासारखे नाही.

मनुष्य हा समाजप्रिय प्राणी आहे तसा तो निसर्गप्रियही आहे.आपण निसर्गाशी जितकी जवळीक साधावी तितका तो आपलासा होऊन जातो.मग तोच आपला सुखदुःखातील भागीदार बनतो.आपली विमनस्क अवस्था दूर करायला मदत करतो.कवयित्रीच्या आत्ममग्नतेमुळे रसिकांना ,साध्या सोप्या भाषेतील पण उत्तम कविता वाचायला मिळाली आहे.लिम्बासारखीच गारवा देणारी आणि मन सदैव हिरवे गार

ठेवणारी!

© श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ त्याग… ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

?  विविधा  ?

☆ त्याग… ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील ☆ 

मावळताना दिवस मन उगाच कातर होतं. का ? कसं ? कशासाठी ? आजवर कधीच कळलं नाही . जगण्याच्या चाकोरींची गतिमानता थांबवणे अवघड काम .

ते  -हाटगाडग्यासारखं,सतत फिरत रहातं पोटासाठी , प्रतिष्ठेसाठी ,नात्यागोत्याच्या गुंत्यासाठी आणि भूतकाळात उपभोगलेल्या लाघवी स्वप्नांच्या स्मरणासाठी. सारंच कसं खूप धुसर झालेलं असतं काळाच्या पडद्याआड. वर्तमानात त्याची दखलही घेता येत नाही. टाळताही येत नाही त्याला . आठवण पाठपुरावा करणंही काही केल्या सोडत नाही. करायचं तरी काय ? हा यक्षप्रश्न भेडसावतो सारखा . मग लागीर झालेलं झाड घुमत रहाव तसंआपणही धुमसत रहातो आतल्याआत, हिम्मत हरवलेल्या मांत्रिका  सारखं .  इथंच डोकावतो मनोनिग्रह . स्थितप्रज्ञ होण्यासाठी  सावरायला . ओळख त्याला. जवळ कर .  सगळं काही काळजात बंदिस्त करून तूच चौकीदार हो मनाचा. ठणकावून सांग त्याला, बलदंड पुंडासारखा वागलास तर याद राख. आता देहाचा वारु थकलाय , त्याला गरज आहे विश्रांतीची . ती दिली नाहीस तर मीच परागंदा होईन इथून . मग मला नको विचारूस. ज्याला आत्मा म्हणतात तो तूच काय ? म्हणून म्हणतोय तुला शांत हो. निरभ्रांत हो. लगाम घाल मनाला.  वाच चार ओळी अध्यात्माच्या, संत महंतांच्या , भारतीयांच्या थोर परंपरेच्या आणि वानप्रस्थ हो योग्या सारखा .

त्याग करून तुझाच  तू. अरे, मी हे सगळं सगळ्यांसाठी सांगतोय.  तू कोण टिकोजीराव लागून गेलास माझ्यापुढे ? 

त्याग हा सर्वश्रेष्ठ मंत्र आहे आत्मशांतीचा. म्हण ॐ शांती शांती.

© श्री तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘ऋणमुक्त’ – भाग – २ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? जीवनरंग ❤️

☆ ‘ऋणमुक्त’ – भाग – २ ☆ श्री अरविंद लिमये

(पूर्वसूत्र-माझ्या नजरेसमोर अंथरुणाला खिळलेली, शेवटच्या घटका मोजणारी, नाना भिकू कुलकर्णींची कृश मूर्ती अलगद तरळून गेली.)

“हं.. चला हतंच ” बेलीफ म्हणाला.

एका पडक्या वाड्यापुढे आम्ही उभे होतो. भुसभुशीत भिंतीच्या आधाराने कसंबसं तग धरून उभ्या असणाऱ्या दारांच्या चौकटीला धक्का न लावता बेलीफ अलगद आत शिरला. मी घुटमळत बाहेरच उभा राहिलो. 

“साहेब, .. आत या ” बेलीफ म्हणाला. मी आत गेलो. पण त्या टिचभर खोलीत टेकायला जागाच नव्हती ! )

पडे निघालेल्या भिंतींसारखं त्या अंधाऱ्या खोलीतलं मलूल वातावरणही बोचणारं होतं. लाकडी फळ्यांच्या काॅटवर कुणीतरी झोपलेलं होतं. मास्तरच असावेत. आतल्या विझू लागलेल्या चुलाण्याजवळ सावली हलल्याचा मला भास झाला.

“ताईसाब, बॅंकेचं सायब आल्यात” बेलीफने मुद्द्यालाच हात घातला.

मांडीवरल्या पोराला खांद्यावर टाकून ती पुढे आली. त्या भग्न वाड्याच्या कृश सावलीसारखा रापलेला रंग, वाळलेल्या अंगकाठीवर लोंबणारं जुनेरं.. त्रासलेल्या चेहऱ्यावर उदासीत कालवलेले .. मला शापणारे भाव.. !

काय बोलावं, कशी सुरुवात करावी मला समजेचना.

एवढ्यात काॅटवरच्या अंधारात थोडीशी हालचाल जाणवली. बेलीफ पुढे झाला.

“मास्तर, ब्याकेचं सायब आल्यात.. “

“या.. या.. “कुलकर्णी धडपडत उठायचा प्रयत्न करु लागले. एखाद्या प्रतिक्षिप्त क्रियेसारखा बेलीफ त्यांना सावरायला पुढे झेपावला. 

“या.. बसा असे.. ” पायथ्याजवळची कळकट चादर गोळा करुन लाकडी काॅटचा एक कोपरा रिकामा करुन देत नाना भिकू कुलकर्णीनी मला थरथरते हात जोडत बसायची खूण केली. विरघळू पहाणारी माझी नजर रंग उडालेल्या भिंतींवरुन मास्तरांच्या वाळून गेलेल्या चेहऱ्यावर येऊन स्थिरावली.

“बोला.. काय म्हणताय?”

“हे बेलीफ. यांच्यामागोमाग आम्ही आलो. म्हणजे.. यावं लागलं.. ” मी बेलीफकडे पाहिलं.

“मास्तर, कोरटाचं वारंट निघलंय. तुमाला अटक कराय आलोय आमी.. “

“तुम्ही जामिनदार आहात ‘प्रसन्न इलेक्ट्रीकल्स’च्या कर्जाला. दोन वर्षांपूर्वी कोर्टाचा

हुकूमनामा मिळूनही कर्जखात्यात कर्जदाराने पैसे भरलेले नाहीत. त्यांची कांही मालमत्ताही नाही. आता त्यांच्या कर्जाचे जामिनावर म्हणून त्यांच्या पश्चात तुम्हीच बॅंकेचे एकमेव ऋणको आहात. एकूण व्याज, कोर्टखर्च मिळून वीसएक हजार रुपये भरावे लागतील… ” मी म्हणालो. ते विचारात पडले. गप्प बसले. शून्यात नजर लावून कांहीतरी शोधत राहिले.

मग बेलीफच पुढे झाला.

“मास्तर.. “

“अं.. ?”

“अटकेचा पंचनामा करायला हवा… “

“अं.. ? हो.. रितसर जे असेल, ते करा. तयारी आहे माझी. ”  बेलीफला काय बोलावं कळेना. तो जागचा उठला. दाराजवळ जाऊन मला खूणेनं बोलावून घेतलंन्.

“काय करायचं?” हलक्या आवाजात मला विचारलं.

“कायद्यानुसार जे काही असेल ते करायचं. “

“त्ये झालंच. पन सायब मास्तर द्येवमानूस हाय हो. जावयानं पुरता धुतलाय याला. तुमचा मेल्याला कर्जदार जावईच की ह्येंचा. जाताना सोताचं न् ह्येंचं दोनी घरं पार धुळीला मिळवून मेलाय बगा. हाय खाऊन मास्तरांची बायकू गेली. सोन्यासारक्या यांच्या पोरीची जावयानं पार दशा करुन टाकलीया बगा. दोन पोरींच्या पाठीवरचं त्ये एक लेकरु हाय तिच्या पदरात. दोन घरी सैपाकाची कामं करुन चूल पेटती ठेवतीया. मास्तरांच्या पेन्शनीत  त्येंचं औषदपानीबी भागत न्हाईय” बेलीफ सांगत राहीला. मी ऐकत होतो. नाना भिकू कुलकर्णींचं अंधारं म्हातारपण, अर्धवट जळलेल्या वाळक्या लाकडासारखा त्यांच्या मुलीचा धुरकट संसार, खोलीत भरुन राहिलेला कळकट अंधार.. आणि माझ्या मनात भरुन आलेलं मळभ… या सगळ्यांच्या नातेसंबंधातला गुंता वाढत चालला….. !

क्रमशः…

©️ अरविंद लिमये

सांगली

(९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ शोध आनंदाचा…भाग -1 ☆ सुश्री शुभदा जोशी ☆

सुश्री शुभदा जोशी

अल्प परिचय

शिक्षण – B.Arch.1985, ME Townplanning.1987

सम्प्रति –

  • दहा वर्षे आर्कीटेक्ट व इंटीरियर डिझायनर व्यवसाय.
  • अक्षरानंदन या संस्थेत एक वर्ष काम केले.
  • पालकनीती या मासिकाच्या संपादकीय मंडळावर 20 वर्षे.
  • पालकनीती परिवार या एन् जी ओ वर 1996 पासून विश्वस्त.
  • स्वतःच्या घरी ‘खेळघर’ या, झोपडपट्टीतील मुलांसाठी शैक्षणिक प्रकल्पाची सुरुवात.
  • 1998 पासून शिक्षण आणि पालकत्व या क्षेत्रात तज्ञ मार्गदर्शक सल्लागार म्हणून कार्यरत.

? मनमंजुषेतून ?

 ☆ शोध आनंदाचा…भाग -1 ☆ सुश्री शुभदा जोशी ☆ 

खूप वर्षे झाली…. कधीपासून बरं? आपल्या मनातल्या विचारांबद्दल कळायला लागलं तेव्हापासून हा शोध मनात पिंगा घालतोय.

आपल्याच जगण्याकडे थोडे बाहेरून बघायला लागल्यावर कधी कधी काही उलगडल्यासारखं वाटतं… त्याबद्दल लिहायचं आहे.

कधी छान वाटतं? कशामुळे? कशामुळे रुसतो आनंद आपल्यावर?

आवर्जून प्रयत्न करून मिळवता येतो का आनंद? शोधुयात बरं … असं ठरवलं आणि लिहायला सुरूवात केली. 

बहुसंख्य वेळा मन व्यापलेलं असतं  कशाने तरी… काय असतं हे ओझं? 

काळजी, ताण, भविष्यात करायच्या गोष्टींची आखणी किंवा मनासारखं झालं नाही म्हणून राग, अचानक काही वाईट घडतं त्याचं दुःख, गोष्टी आपल्या हातात नाहीत म्हणून असहायता… अशा अनेक गोष्टींनी व्यापलेलं असतं मन! 

त्यात मुळी जागाच उरत नाही आनंदाला! 

अच्छा असं होतंय का?

थोडे आणखी खोलात जायला हवे…… 

काळजी, ताण, राग, दुःख अशा भाव भावनांची वादळे आपल्या मनाचा अवकाश व्यापून रहातात आणि म्हणून आनंदाला जागा रहात नाही शिल्लक! म्हणजे हे तर अडथळे आहेत आनंदाच्या वाटेवरचे. पण असे कसे, आपण माणूस आहोत, भावना तर असणारच. ते संवेदनाक्षम मनाचे लक्षण आहे. 

या भावभावना उत्स्फूर्तपणे आपल्याही नकळत मनात उफाळून येतात आणि दंगा घालतात. मला आठवतंय, छोटीशी घटना घडते आणि खूप काही जुनं जुनं वर येतं आणि मन अस्वस्थ होऊन जातं. असं का होतं? खरंच या  भाव भावनांना समजून घ्यायला हवं आहे. भावनांचे वादळ जरा शमले, की ते सारे विसरून पुढे जायची घाई असते आपल्याला!

मनाच्या शांत अवस्थेत स्वतःच्या वर्तनाला, भावनांना निरखून पहायला वेळ काढला तर… ?

लहानपणी ऐकलेल्या एका प्रार्थनेच्या ओळी आठवताहेत,

” दिसाकाठी थोडे शांत बसावे,

मिटूनी डोळे घ्यावे क्षणभरी.

एकाग्र करोनी आपल्या मनाला,

आपण पहावे निरखोनी.”

——ही शांतता, हा ठेहेराव मिळवू शकू का आपण…?

©  सुश्री शुभदा जोशी  

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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