हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ रामचरित मानस मुझे प्रिय क्यों है? ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ रामचरित मानस मुझे प्रिय क्यों है?॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

कोई किसी को प्रिय क्यों लगता है? अचानक स्पष्ट कारण बता सकना कुछ कठिन होता है, ऐसा कहा जाता है। इस कथन में कुछ तो सच्चाई है। पर यदि आत्ममंथन कर बारीक विश्लेषण किया जाये तो प्रियता के कारण खोज निकाले जा सकते हैं। आकर्षक व्यक्तित्व, रूप-लावण्य, विशिष्ट गुण, सदाचार, वाणी का माधुर्य, कोई प्रतिभा, कला-प्रियता, सौम्य व्यवहार, धन सम्पत्ति, वैभव, सुसम्पन्नता, सर्जनात्मक दृष्टि, विचार साम्य, सहज अनुकूलता या ऐसे ही कोई एक या अनेक कारण। यह बात व्यक्ति के संबंध में तो सही हो सकती है पर किसी वस्तु के सम्बन्ध में ? किसी भी वस्तु के प्रति भी किसी के लगाव व आकर्षण का ऐसा ही कुछ कारण होता ही है।

मुझे पुस्तकों से लगाव है। पढऩे और उनका संग्रह करने में रुचि है। अनेेकों पुस्तकें पढ़ी हैं, विभिन्न विषयों की, विभिन्न सुन्दर साहित्यिक कृतियाँ भी। पर किसी पुस्तक ने मुझे इतना प्रभावित नहीं किया जितना तुलसीकृत रामचरित मानस ने। मानस ने तो जैसे जादू करके मन को मोह लिया है। जब-जब पढ़ता हूँ मन आनन्दातिरेक में डृब जाता है। स्वत: आत्मनिरीक्षण करता हूँ तो मानस में वे अनेकों खूबियाँ पाता हूँ जो किसी अन्य ग्रन्थ में नहीं दिखतीं। इतना चित्ताकर्षक, रमणीक और आनन्ददायी कोई ग्रन्थ नहीं। इसमें मुझे संपूर्ण मानव-जीवन, जगत और उस परम तत्व के दर्शन होते हैं जिसकी अदृश्य सूक्ष्म तरंगों से इस विश्व में चेतना और गति है। साथ ही उस रचनाकार की अनुपम योग्यता, अद्वितीय अभिव्यक्ति की कुशलता और भाषा-शिल्प की, जिसने इस विश्व के कण-कण में साक्षात्ï अपने आराध्य को विद्यमान होने की प्रतीति कराने को लिखा हैं-

”सियाराम मय सब जग जानी, करऊँ प्रणाम जोरि जुग पाणी॥”

महाकवि कालिदास ने कहा है-

”पदे पदे यद् नवताँ विधत्ते, तदैव रूपं रमणीयताया:।”

अर्थ है- रमणीयता का सही स्वरूप वही है जो प्रतिक्षण नवलता प्रदर्शित करे।

रामचरित मानस के संबंध में यह उक्ति अक्षरश: सही बैठती है। हर प्रसंग में एक लालित्य है, मोहकता है और अर्थ में सरसता तथा आनंद है। जैसा कि  ”महाभारत” के संबंध में कहा गया है- ”न अन्यथा क्वचित् यद्ï न भारते।” अर्थात् जो महाभारत में नहीं है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है। वही बात प्रकारान्तर से कहने में मुझे संकोच नहीं है कि ऐसा भला क्या है जो ”मानस” में नहीं है ?

व्यक्ति की मनोवृतियों की कलाबाजियाँ, उनसे प्रभावित उसके सोच और योजनायें, पारिवारिक संबंधों की छवि के विविध रंग, सामाजिक जीवन के सरोकारों की झलक समय के साथ व्यवहारों का परिवर्तन और परिणाम, जीवन-दर्शन, व्यवहार कुशलता और सफलता के मंत्र, निष्कपट राजनीति के सूत्र, धर्म, ज्ञान, वैराग्य और भक्ति की सरल परिभाषा और विवेचनायें, जीवन में अनुकरणीय आदर्श और मर्यादायें तथा मानव मूल्यों की स्थापना, प्रतिष्ठा और आराधनायें। सभी कुछ मनमोहक और अद्वितीय। साथ ही वर्णन व चित्रण में मधुरता, कलात्मक अभिव्यक्ति और सहज संप्रेषणीयता, साहित्यिक गुणवत्ता, प्रसंगों में रसों की विविधता, शैली में स्वाभाविकता और छन्दों की गेयता, हर एक के अन्त:करण को छू लेने वाला प्रस्तुतीकरण। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक को रुचने वाली और कुछ सीखने लायक अनेकों सारगर्भित बातें। सामान्य जन से लेकर उद्ïभट विद्वानों तक के लिये विचारणीय, अनुकरणीय, आकर्षित करने वाला कथा-सूत्र तथा लोक और लोकोत्तर जिज्ञासाओं की तुष्टि करके विभिन्न समस्याओं का समाधान, ऐसी सरल भाषा में किन्तु गूढ़ गहन उक्ति में, कि हर पद की अनेकों व्याख्यायें, और आयु व बुद्धि के विकास की वृद्धि के साथ नये अर्थ नयी दृष्टि और नया चिन्तन प्रदान करने वाली अपूर्व कालजयी रचना है- ”मानस”। मैंने बचपन में इसे सुना, बड़े हो के पढ़ा, प्रौढ़ हो के समझा और निरन्तर इससे प्रभावित हुआ हूँ।

याद आता है मुझे वह जमाना जब मैं बच्चा था। उस समय की दुनियाँ आज से हर मायने में भिन्न थी। तब न बिजली थी और न आज के से मनोरंजन के साधन। बच्चों के तीन ही काम प्रमुख थे- खेलना, खाना और पढऩा। स्कूल से आकर शाम को कुछ खेलकूद करने के बाद खाना होता था और लालटेन के हल्के उजाले में घर के आवश्यक कामकाज निपटाकर सभी लोग रात्रि में प्राय: जल्दी निद्रा की गोद में विश्राम करते थे। समय काटने के सबके अपने-अपने तरीके थे- कथा, कहानी, पहेली, भजन, गीत, संगीत, ताश या कोई ऐसे ही हल्के खेल या हल्की-फुलकी चर्चायें, गप्पें।

हमारे घर में शाम के भोजन में बाद नियमित रूप से पिताजी ”मानस” (रामायण) पढ़ते-दोहे, चौपाई, सौरठों और छन्दों का लयात्मक पाठ करके अर्थ समझाते थे। अपनी माँ के साथ हम सब भाई सामने दरी पर बैठकर बड़े आदर और ध्यान से कथा सुनते थे। कभी विभिन्न प्रसंगों से संबंधित शंकाओं के  निवारण के लिये पिताजी से प्रश्न पूछते थे और रामकथा का रसास्वादन करते थे।  मुझे  अच्छी तरह से याद है कि मंथरा के कुटिलता, कैकेयी के राजा दशरथ से वर माँगने, दशरथ मरण और राम वनगमन के प्रसंगों में हमारी आँखें गीली हो जाती थीं। मुझे तो रोना आ जाता था। गला रूंध जाता था। अश्रु वह चलते थे और सिसकियाँ बंध जाती थीं। तब माँ अपने आँचल से आँसू पोंछकर समझाती थीं। लेकिन इसके विपरीत, पुष्पवाटिका में राम-लक्ष्मण के पुष्प चयन हेतु जाने पर, सीता का राम को और राम का सीता को देखने पर वर्णन को सुनकर, सीता के गौरी माँ मंदिर में पूजन और आशीष माँगने पर, लक्ष्मण-परशुराम संवाद पर, राम के धनुष्य तोडक़र सीता से ब्याह पर और उनके दर्शन से नगरवासियों, सब स्त्री पुरुषों की प्रसन्नता की बात पर मन गद्ïगद हो जाता था। अपार आनंद की अनुभूति होती थी और एकऐसी खुशी होती थी जैसे किसी आत्मीय की या स्वत: की विजय पर होती है। राम के गंगापार ले जाने के लिए केवट से आग्रह, केवट का श्रीराम के चरण पखारे बिन उन्हें नाँव में न बैठाने का हठ, पैर धोकर अपने परलोक को सुधार लेने की भावना का संकेत, राम का इस हेतु मान जाना और गंगा पार जाने पर केवट को उतराई देने की भावना से सीता की ओर ताकना और सीता का पति के मनाभावों को समझ मणिमुद्रिका केवट को उतार कर देने के मार्मिक प्रसंगों में मन की पीड़ा, परिस्थितियों की विवशता, पती-पत्नी के सोच की समानता से भारतीय गृहस्थ जीवन की पावनता व दम्पत्ति की भावनाओं की एक रूपता का आभास मन पर अमिट छाप छोड़ता हुआ भारतीय संस्कृति की उद्ïदात्तता, अनुपम आल्हाद प्रदान करती थी। मन में एक मिठास घोल देती थी। संपूर्ण मानस के कथा प्रवाह में ऐसे अनेकों प्रसंग हैं जहाँ मन या तो विचलित हो जाता है या अत्यन्त आल्हादित। सबका उल्लेख तो यहाँ नहीं किया जा सकता। सहज कथा प्रवाह में जगह-जगह, ज्ञान और भक्ति की धाराऐं भी बहती हुई दिखाती हैं जो मन को सात्विकता, पावनता और संतोष प्रदान करती हैं।

इस प्रकार ”मानस” एक अद्भुत अप्रतिम गं्रथ है जो मानव-जीवन की समग्रता को समेटे हुए, प्रत्येक को एक आदर्श, कत्र्तव्यनिष्ठ, व्यक्तित्व के विकास की दिशा में उन्मुख कर सुखी व समृद्ध पारिवारिक व राष्ट्रीय जीवन बिताने के लिए आदर्श प्रस्तुत कर आवश्यक मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा के महत्व को प्रतिपादित करता है।

मानस जिन सामाजिक मूल्यों को अनुशंसित करता है वे कुछ प्रमुख ये हैं- सत्य, प्रेम, निष्ठा, कत्र्तव्य-परायणता, पारस्परिक विश्वास, सद्ïभाव और परोपकार। इनके बल पर व्यक्ति दूसरों पर अमिट छाप छोडक़र विजय पा सकता है जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने प्राप्त की। मानसकार की मान्यता है-

(1)        नहिं असत्य सम पातक पुंजा॥ धरम न दूसर सत्य समाना॥

(2)        प्रभु व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेमते प्रकट होत भगवाना॥

(3)        परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहि अधमाई॥

(4)        परिहत बस जिनके मनमाहीं तिन्ह कहं जग दुर्लभ कछु नाहिं॥

मानस के श्रवण अध्ययन, मनन ने मन में मेरे ऐसी गहरी छाप छोड़ी है कि मुझे लगता है मेरे जीवन में आचार-विचार, व्यवहार और संस्कार में उसकी सुगंध बस गई है। इसी से मेरे पारिवारिक जीवन में सुख-शांति, संतोष और सफलता की आभा है और इस हेतु मैं मानस का ऋणी हूँ।

अन्य कोई भी ग्रंथ किसी एक विशेष विषय की चर्चा करता है पर मानस तो मानव जीवन की लौकिक परिधि से बाहर जाकर पारलौकिक आनंद की अनुभूति का भी दर्शन कराता है। इसमें ”चारों वेद, पुराण अष्टदश,  छहों शास्त्र सब ग्रंथन को रस” है। यह एक समन्वित जीवन दर्शन है और भारतीय अध्यात्म का निचोड़ है। इसीलिये मुझे प्रिय है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १४ जून – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १४ जून – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

गोविंद बल्लाळ देवल

गोविंद बल्लाळ देवल (13 नोव्हेंबर 1855 – 14 जून 1916)हे आद्य मराठी नाटककार होते.

कोकणात जन्म, सांगली जिल्ह्यात बालपण व शालेय शिक्षण बेळगाव येथे झाले.

शिक्षण पूर्ण झाल्यावर देवल त्याच शाळेत शिक्षक म्हणून लागले.

बेळगाव येथे देवल प्रख्यात नाटककार व अभिनेते बळवंत पांडुरंग किर्लोस्कर यांच्या संपर्कात आले. त्यांनी किर्लोस्कर नाटक मंडळीत अभिनेता व किर्लोस्करांचे सहाय्यक

दिग्दर्शक म्हणून काम केले. किर्लोस्करांच्या निधनानंतर ते दिग्दर्शक म्हणून काम करू लागले.

काही वर्षांनी ते पुणे येथील शेतकी शाळेत शिक्षक म्हणून रुजू झाले.

पुढे त्यांनी पुण्यात आर्योद्धारक नाटक मंडळी ही संस्था स्थापन केली.1913साली ते गंधर्व नाटक मंडळीत गेले.

त्यांनी ‘दुर्गा’, ‘मृच्छकटिक’, ‘विक्रमोर्वशीय’, ‘झुंजारराव’, ‘शापसंभ्रम’, ‘संगीत शारदा’ व ‘संशयकल्लोळ’ ही नाटके लिहिली.

त्यापैकी ‘मृच्छकटिक’,’संगीत शारदा’ व ‘संशयकल्लोळ’ ही नाटके अजरामर झाली.

आज देवलांचा स्मृतिदिन आहे. त्यांना अभिवादन.🙏

☆☆☆☆☆

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना, कऱ्हाड शताब्दी दैनंदिनी, विकिपीडिया 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ त्रा ता ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? कवितेचा उत्सव ? 

🙏 त्रा ता ! 🙏 श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐ 

ताप वैशाख वणव्याचा 

साहवेना मजला आता,

बोले येऊन काकुळतीस

काळी भेगाळली माता !

 

जीव सुखला तुजवीण

रुक्ष लाव्हारुपी झळांनी,

अंग अंग पेटून उठले

मागू लागले सतत पाणी !

 

बीज कोवळे पेरणीचे

मज गर्भात आसुसलेले,

कधी होईल जन्म माझा

सारखे विचारू लागले !

 

चार थेंब पडता तुझे

तप्त साऱ्या अंगावरती,

हवा हवासा मृद् गंध

पसरेल साऱ्या आसमंती !

 

नांव सार्थ करण्या माझे

सकलांची धरणी माता,

नाही तुझ्याविना जगात

मज दुसरा कुणी त्राता !

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

ठाणे.

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नाट्यपद ☆ गो.ब.देवल ☆

?  कवितेचा उत्सव ? 

☆ नाट्यपद ☆ गो.ब.देवल ☆

धन्य आनंददिन पूर्ण मम कामना

मुदित कुलदेवता सफल आराधना

 

लाभ व्हावा जिचा लोभ धरिला महा

प्राप्त मज होय ती युवती मधुरानना.

 

गो.ब.देवल.

नाटक संगीत संशयकल्लोळ.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #142 ☆ अत्तर उडून गेले ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 142 ?

☆ अत्तर उडून गेले 

आता नव्या पिढीला मिळणार मोकळेपण

बंधन नसेल आणिक कोणी नसेल राखण

 

बांधीलकी कशाला आकाश स्वैर आहे

स्वीकार कलियुगाला व्यापार मुक्त धोरण

 

उघड्या कुपी मधूनी अत्तर उडून गेले

वेळीच या कुपीचे मी लावले न झाकण

 

नाही सकसपणा हा कोठेच राहिलेला

हे राज्य भेसळीचे मिळणार काय पोषण

 

नाही शुभंकरोती गीता न वाचली मी

संस्कार भावनांचे व्हावे कुठून रोपण

 

बोलू नकोस वेड्या त्यांच्या विरूद्ध काही

नेते करो कितीही अश्लाघ्य रुक्ष भाषण

 

दाणा कसा टिपावा पक्षास ह्या कळेना

हुसकून लावण्याला आहे तयार गोफण

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ या माहेरी… ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

?  विविधा ?

☆ या माहेरी… ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कवितेच घर हेच शब्दांचे माहेर. …किती भावस्पर्शी जाणिवा नेणिवेच्या या कवितालयात पहायला मिळतात …… कल्पना  आणि वास्तवता यांच्या नाजूक संवेदनशील पण जागृत  अनुभुतींनी साकारलेल्या या शब्द रचना जेव्हा मनाशी संवाद साधतात ना तेव्हा मनाचा एकटे पणा कुठल्या कुठे पळून जातो.   डोळे आणि मन भरून येत. . .  आठवणींची पासोडी खांद्यावर टाकून  आपण या माहेरात  विसावतो आणि . . .

……अनेक जीवनातील सुख दुःख पचवलेली, जीवनसंघर्ष करीत  कवितेचा शब्दसुतेचा दर्जा देणारी संवेदनशील व्यक्ती मत्वे  ,  मनात रेंगाळत रहातात.  मनातील ताणतणाव  दूर करण्याचा प्रयत्न ही शब्द पालवी करते आणि म्हणावस वाटत  वसंत फुलला मनोमनी

खरंच . . .  ही फुलं फुलतात कशासाठी? माणस माणसांना भेटतात कशासाठी? थोड तुझ थोड माझं परस्परांना समजण्यासाठी . . तसच या माहेरी घडत. या कवितेच्या घरात कवितेचे विविध प्रकार मांडवशोभेसारखे नटून थटून येतात. त्यांच नुसते दर्शन देखील मनाची मरगळ दूर करते.  आजची कविता काय आहे, कशी  आहे  ,  तिच रूप, स्वरूप, तिचा प्रवास याच्या खोलात न जाता मी फक्त  इतकेच म्हणेन  आजची कविता प्रवाही आहे.  सोशल नेटवर्किंग साईट वरून ती लोकाभिमुख होते  आहे.  प्रत्येक कविता  आपला स्वतःचा वाचक वर्ग निर्माण करते आहे. हा साहित्य प्रवाह नसला तरी हा जीवनप्रवास आहे माणसातल्या सृजनशील मनोवृत्तींचा . ही निर्मिती माणसाला धरून ठेवते. माणसाशी संवाद साधते. त्याचं एकटेपण दूर करू पहाते. म्हणून कविता महत्वाची आहे. 

कवितेने किती पुरस्कार मिळवले, * आपल्या लेकिच्या अंगावर किती दागिने  आहेत* यापेक्षा  आपली लेक  किती लोकाभिमुख  आहे हे पहाणं मनाला जास्त भावत. मनान मनाशी जोडलेले भावबंध हाच उत्तम कवितेचा पाया असतो. नाते जपताना शब्दांना उकळी  आणून उसन्या गोडव्याने पाजलेला चहा भावाच्या मनात बहिणीची माया उत्पन्न करू शकत नाही त्याप्रमाणे कविता लोकांपर्यत किती पोचली तिचा समाजाभिमुख प्रवास कविला समाजात मानाचे स्थान प्राप्त करून देतो.

माहेर. . . माहेर ..  म्हणजे नेमक काय. ? मनातली दुःख, चिंता, काळजी, ताणतणाव, बाहेर जाताना रांगत्या पावलांनी किंवा  अनुभवी वृद्ध व्यक्तीच्या आश्वासक खोकल्याने घरात कुणीतरी  असल्याची दिलेली चाहूल, शब्दांना भावनांनी दिलेला आहेर म्हणजे माहेर.  हे माहेर ममत्वाचा,मायेचा, माझ्या तला कलागुणांचा सर्वांगीण  अविष्कार करत, माझ माझ म्हणून ज्याला जोजवावं त्या विचारप्रवाहांचा जे स्वीकार करत ते माहेर माणसाला माणूसपण कवितेला घरपण प्राप्त करून देत.

कविता श्लोकातून जाणवायला हवी. अभंगातून निनादत ओवीतून उदरभरण करणा-या , गहू, ज्वारी, बाजरीच्या पिठात  एकजीव व्हायला हवी. कवितेने जुन्याची कास आणि नाविन्याची आस सोडू नये यासाठी हे माहेर प्रत्येक साहित्यिकासाठी फार महत्वाचे आहे.  या माहेरात कुणाला  एकटे सोडायचे अन कुणाला बांधून ठेवायचे हे काम आपले लेखन,  आपला दैनंदिन लेखन कला व्यासंग बिनबोभाट करतो. तुलना नावाची मावशी किंवा मंथरा या माहेरात आपल्याला पदोपदी भेटते. ही तुलना मावशी कविच्या कवित्वाचा देखील घात करू शकते.  या माहेरात आपल्या कार्यकरतृत्वाचं गुणांकन करायला दामाजी नाही तर आत्माराम कामी येतो हे ध्यानात ठेवा आणि जेव्हा जेव्हा स्वतःला  एकट समजाल तेव्हा तेव्हा या माहेरी निःशंकपणे या. पायवाट  आणि हमरस्ता दोन्ही ही आपलीच वाट पाहत  असतात. सुख, समाधान, हाकेच्या अंतरावरच असत त्याचा शुभारंभ या माहेरी होऊ शकतो.

हा प्रवास  ह्दयापासून ह्रदयापर्यतचा असतो. यात शब्द जितका महत्वाचा तितकाच एकेका शब्दासाठी  आपल सारं जीवन वेचणारा माणूसही तितकाच महत्त्वाचा. या शब्दालयात ,  माहेरपणात कविता नांदायला हवी.कविनं कविता  अन माणसान कटुता या माहेरी निवांत सोडून द्यावी. कविता तिचा प्रवास करीत रहाते  आणि मनातली कटूता एकटी होती. .  एकटी  आहे. .  एकटी राहिल . .  असा विश्वास देत पुढच्या जीवनप्रवासाला लागते.

धन्यवाद.

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ खिचडी… सुश्री नीता नामजोशी… ☆ प्रस्तुती सुश्री स्नेहा वाघ ☆

? जीवनरंग ❤️

☆ खिचडी… सुश्री नीता नामजोशी… ☆ प्रस्तुती सुश्री स्नेहा वाघ ☆

समोरच्या पातेल्यातली खिचडी आपल्या पानात वाढून घेत ती खात बसलेल्या आपल्या सासूकडे ती चकित नजरेनं पहात होती..

नवं नवंच लग्न झालं होतं तिचं..

अगदी आयत्या वेळी नवऱ्याचा नि तिचा बाहेर जेवायला जायचा प्लॅन ठरला.. 

नवरा म्हणाला “ आईबाबांसाठी खिचडी बनवून ठेव..”

तशी तिनं नवथर उत्साहानं तिला बऱ्यापैकी जमणारी मुगाच्या डाळीची खिचडी बनवली..

आणि ती निघायच्या तयारीला लागली…

सासूचा निरोप घ्यायला ती स्वयंपाकघरात आली आणि पहाते तर..

सासू  एकटीच शांतपणे खिचडी खात बसलेली..हे दृष्य तिच्या सरावाचं नव्हतं..

आजवर कधी तिची आई तिच्या बाबांच्याआधी अशी एकटीच जेवली नव्हती..

ती एकटक पहात असताना नवऱ्याच्या हाकेनं तिची तंद्री भंग झाली..

ती सासूचा धावता निरोप घेऊन बाहेर पडली..

नवऱ्यासोबत रेस्टॅारंटमध्ये जेवतानाही तिच्या नजरेसमोर सतत  खिचडी खाणारी सासूच येत राहिली..

एका क्षणी न राहवून तिनं नवऱ्यापाशी मन मोकळं केलं.. ते ऐकताना तो तिच्याकडेच विचित्र अविश्वासाच्या नजरेनं पहात राहिला.. बोलला मात्र काहीच नाही..

एव्हाना तिला अंदाज आला होता -सासू नि नवरा मनमोकळं बोलणारे नाहीत..

माहेरच्या मोकळ्या ढाकळ्या दंगामस्तीच्या वातावरणात वाढलेली ती..

या घरात सदासर्वकाळ नांदणारी शांतता तिच्या अंगावर यायची…. ही माणसं मनातलं भडाभडा बोलून मोकळी का होत नाहीत..? न बोलताच एकमेकांच्या मनातलं कसं कळतं यांना..? दोन चार शब्दांची देवाणधेवाण कशी पुरते यांना ?—- हा प्रश्न तिला नेहमी पडायचा..

या संदर्भात बोलताना नवरा कधीतरी बोलून गेला -” अगं तुलाही जमेल.. फार काही न बोलता मनातलं समजून घ्यायला तूही शिकशील ..सूर जुळले की मनांचा सहज संवाद सुरू होतो..”

तिला मात्र ते काही केल्या जमत नव्हतं…. जमत नव्हतं म्हणण्यापेक्षा ते हजमच होत नव्हतं…

सासूचा तर अंदाजच येत नव्हता..

तिला आई म्हणणं जीवावर यायचं…. आतून त्या भावना आल्याशिवाय आई म्हणण्याचा दुटप्पीपणा तिला जमला नसता..

कसं कोण जाणे पण सासूला ते कळलं ..तिनंच तिला सांगितलं, “  तू आपली सासूबाईच म्हण हो मला.. “

आणि तिला हुश्श झालं.. 

नेमकी आपली सासू कशी आहे हे तिला कळत नव्हतं.. आजवर तिचा स्वर उंचावल्याचंही तिनं पाहिलं नाही..

की भावनांचं प्रदर्शन नाही .. कायम शांत संयत नि सौम्य ..

पण आजचं तिचं असं खिचडी खाणं मात्र सासूच्या मनातल्या प्रतिमेशी विसंगत असं वाटलं…

दोघं घरी परतले तेव्हा सासरेबुवा मजेनं तिला म्हणाले–”  बरं का सूनबाई.. आज तुमच्या सासूनं हद्दच केली ..तुम्ही केलेली खिचडी तिला इतकी आवडली की तिनं एकटीनं ती सफाचट केली.. आमच्यासाठी वेगळी बनवून दिली .. आता पुन्हा आमच्यासाठी खिचडी बनवा एकदा “ .. ते ऐकून ती अवाकच झाली…हे कसलं वागणं… ? 

रात्री झोपेतही तिला तेच आठवत राहिलं.. 

अचानक तिला मध्येच जाग आली..पहाते तर काय..नवरा शेजारी नाही..

त्याला पहायला ती बाहेर ड्रॅाइंग रूममध्ये आली…

रात्रीच्या शांततेत सासू नि नवऱ्याचं हलक्या स्वरातलं बोलणंही तिला स्पष्ट ऐकू येत होतं..

सासू नवऱ्याला सांगत होती– “ अरे खिचडी जरा खारट झाली होती.. तुला माहितेय यांना बीपीचा त्रास आहे.. जराही मीठ जास्त झालं की यांची चिडचिड होते.. बोलण्यातलं भान सुटतं.. यांच्याकडून सूनबाईला जरासं काही बोललं गेलं असतं तर ते मला आवडलं नसतं .. अरे आपलं माहेर सोडून आलेय ती..त्यात तिचा स्वभाव आहे हळवा.. आपणच जपायचं, तिला सांभाळून घ्यायचं….” 

 त्यावर नवरा म्हणाला “ अगं मग टाकून द्यायची खिचडी.. तू कशाला खात बसलीस ती.. ?” 

 सासू- “ अरे बाबा खाऊन माजावं पण टाकून माजू नये या संस्कारात वाढलीय मी.. अन्नाचा अपमान करवेना..म्हणून खाल्ली हो…. यांच्यासाठी दुसरी बनवली..” 

 नवरा- “ अगं पण मग फ्रिजमध्ये ठेवायची ..” 

 सासू -” ते यांच्या नजरेतून थोडंच सुटणार होतं.. किती बारीक लक्ष असतं यांचं तुला ठाऊकच आहे .. “

नवरा -” अगं पण तुला त्रास होतोय त्याचं काय… ?”

 सासू- “ घेतलीय मी पाचक गोळी .. बरं वाटेल हो मला.. आता तू जाऊन झोप बरं. आणि हो.. झाल्या प्रसंगाचा चुकून उल्लेखही करायचा नाहीये .. “ 

नवरा- “ हो…” 

आणि आता तिला त्या जागी उभं रहावेना.. ती तशीच बाहेर येऊन सासूच्या मांडीवर डोकं ठेऊन स्फुंदून स्फुंदून रडू लागली… सासू तिच्या डोक्यावर थोपटत राहिली.. 

दुसऱ्या  दिवशी सकाळी नेहमीप्रमाणे किचनमध्ये आली ती.. गॅसपाशी उभी सासू चहा करत होती.. तिला पाहून प्रसन्न हसत म्हणाली- ”  बाळा जरा हा चहा नेऊन देतेस बाहेर .. “ 

आणि तिच्या तोंडून “ हो आई “ असं कधी निघून गेलं .. तिचं तिलाही कळलं नाही.. ती चहा घेऊन वळली.. सासू पाठमोऱ्या  तिच्याकडे त्याच शांत सौम्य समाधानी नजरेनं पहात होती.

लेखिका : सुश्री नीता नामजोशी

प्रस्तुती :  सुश्री स्नेहा वाघ 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ट्रॅफिक… एकांताशी गप्पा… ☆ सुश्री तृप्ती कुलकर्णी ☆

सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

? मनमंजुषेतून ?

☆ ट्रॅफिक… एकांताशी गप्पा… ☆ सुश्री तृप्ती कुलकर्णी ☆ 

रस्त्यावर ट्रॅफिक जाम झालं की मला एक निवांतपणा मिळाल्यासारखा वाटतो. जणू काही एखाद्या वेगाच्या घट्ट पकडीतून काही क्षणांनी निसटून जावं आणि हव्या त्या ठिकाणी रेंगाळावं तसं. या क्षणांचं आणि माझं एक वेगळ नातं तयार होतं. जे मला काहीतरी वेगळं दाखवण्याचा प्रयत्न करतं. 

सगळ्यात प्रकर्षानं जाणवतं ते म्हणजे रस्ता विलक्षण ताकदवान आणि सहनशील होतो, कारण वाहनं थांबलेली असतात. पळणाऱ्या वाहनांचं ओझं रस्त्याला कमी जाणवत असावं असं मला कायम वाटतं. शिवाय अशा अडचणीच्या प्रसंगी थांबलेल्या वाहनांना जास्त वेगाची ओढ असते. त्यांचा वेग सहन करत त्यांना थोपवणं हे काही सोपं काम नाही. वाहनांच्या कचाट्यात सापडलेला हा रस्ता मला धीरोदात्त वाटतो. 

त्याची एक विलक्षण संयत, स्थिर आणि तटस्थ नजर सगळ्यांवर फिरताना दिसते. आणि तोच एक धागा माझ्याही आत तटस्थता निर्माण करायला पुरेसा ठरतो. त्याच्या नजरेतून मग मीही तो रस्ता न्याहाळायला लागते. मी बसलेल्या रिक्षेकडे माझं आधी लक्ष जातं. रिक्षाचालकाचा वैताग त्याच्या वेड्यावाकड्या हातावाऱ्यांतून, आक्रसलेल्या पाठीतून  व्यक्त होत असतो. रागाने नाकावरचा मास्क खाली काढत, विनाकारण स्पीड वाढवत तो उगाच रिक्षा जागच्या जागीच पण मागेपुढे रेटण्याचा प्रयत्न करत राहतो. इकडे इतका वेळ वेगाने पळणारं मीटर मात्र त्याचा धपापलेला श्वास सोडत बसलेलं दिसतं. आजूबाजूच्या इतर वाहनांचे हॉर्न तर कमालीचे उत्तेजित झालेले दिसतात. वाहनांचे दिवे देखील शेवटचा श्वास लागल्यागत उघडझाप करत राहतात. मधेच एखादा दुचाकीस्वार चिंचोळ्या जागेत स्वतःला माववण्याचा प्रयत्न करताना दिसतो. त्यात तो आणि त्याची दुचाकी यांची युती पारच फसलेली दिसते. थकलेल्या शरीराने उसन्या तरुणाईचा जोश आणावा तशी दुचाकीची स्थिती असते. इकडे ट्रॅफिक पोलिसाच्या शिट्ट्या वातावरणात कृत्रिम ऑक्सिजन भरण्याचा प्रयत्न करतात. गोंधळेलेल्या सिग्नलचे दिवेही भरकटलेले वाटतात. मध्येच एखादं कुत्र किंवा मांजर सगळ्यांना वाकुल्या दाखवत मिळेल त्या जागेतून निसटत जातं, तेव्हा समस्त वाहनचालकांच्या चेहऱ्यावरचा हेवा त्या मुक्या प्राण्यालासुद्धा जाणवण्यासारखा असतो. रस्त्याकडेची झाडं या कृत्रिम प्रकाशानं जास्त काळवंडल्यासारखी वाटतात.  आकाश मात्र संथपणे मार्गक्रमण करत असतं.   

गुंता सुटण्याची वाट पहात असतानाच गुंता वाढत जातो. तसंतसं माणसांचे चेहरे विलक्षण बोलके होतात. आता स्वतःचा आवेग सहन करणं त्यांच्या आवाक्याबाहेरचं होतं. मग ते आपसांत धुमसू लागतात. दिवसभराचा सगळा ताण बाहेर येतो. प्रत्येकाची ठेवण वेगळी पण भाव एकसारखेच वाटतात. तणावाची एकलय साधली जाते. ही लय माझ्यातल्या ‘ मी ‘ ला जाणवते. कुठेतरी वातावरणातला ताण माझ्या मनातल्या ताणाशी सम पावतो. आत ताण… बाहेर ताण… आता ताणाशिवाय दुसरं काहीच नाही… ना लपवण्यासारखं ना दाखवण्यासारखं. ताणातून बाहेर पडायलाही पुन्हा ताणच. 

माझ्यातला तटस्थ हे सारं निरखत असतो. पण तो या कशालाच प्रतिसाद देत नाही. ना तो हे नाकारतो  ना स्वीकारतो.  हा ताण मला मग हळूहळू स्थिरता देतो.  मी त्याच्या सहवासात  मोकळी होते. माझं मोकळेपण तो स्वीकारतो. आणि हळूहळू सगळ्या वातावरणात तो मोकळेपणा फैलावतो.  मग ताणाचं रूप बदलतं. आणि माझं मन शांत, समंजस होत जातं.  ट्रॅफीक सुटतं. 

©  सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ अष्टपैलू आचार्य… ☆ श्री सुरेश नावडकर ☆

श्री सुरेश नावडकर
? इंद्रधनुष्य ?

☆ अष्टपैलू आचार्य ☆ प्रस्तुती – श्री सुरेश नावडकर ☆

एकोणीसावं शतक संपताना पुण्याजवळील सासवड येथील कोडित खुर्द गावात १३ आॅगस्ट १८९८ साली, एक ‘सरस्वती पुत्र’ जन्माला आला.. ज्यानं अवघ्या ७१ वर्षांच्या आयुष्यात साहित्य, नाट्य, चित्रपट, पत्रकारिता, राजकारण, शिक्षण, इ. क्षेत्रात मोलाची कामगिरी केली.. त्यांचं नाव, प्रल्हाद केशव अत्रे!

पाचवीत असतानाच, माझ्या वडिलांनी ‘मी कसा झालो’ हे अत्र्यांचं पुस्तक वाचायला हातात दिलं.. त्या पुस्तकात आचार्य अत्र्यांनी, लहानपणापासून ते मोठे होईपर्यंत कसे घडत गेले, ते लिहिलेलं आहे. शाळेत असतानाच ‘श्यामची आई’ हा चित्रपट पाहिला.. तो हृदयस्पर्शी चित्रपट पाहून, मन हेलावून गेलं. दहावीच्या दरम्यान मी वाचनालयातून ‘कऱ्हेचे पाणी’चे पाचही खंड आणून, वाचून काढले.. 

नाटक-चित्रपटांच्या जाहिराती करताना, आचार्य अत्रे यांच्या लग्नाची बेडी, मोरुची मावशी, तो मी नव्हेच, भ्रमाचा भोपळा, प्रितीसंगम, ब्रह्मचारी या नाटकांच्या जाहिराती केल्या. थोडक्यात, आचार्य अत्रेंना जरी प्रत्यक्ष मी पाहिलेलं नसलं तरी त्याचं साहित्य वाचून, नाटक व चित्रपट पाहून त्यांना गुरुस्थानी मानलं..

आचार्य अत्रे इतके भाग्यवान की, राम गणेश गडकरींच्या ते संपर्कात होते. श्रीपाद कृष्ण कोल्हटकरांचे शिष्य, राम गणेश गडकरी.. राम गणेश गडकरींचे शिष्य.. आचार्य अत्रे! संभाजी उद्यानातील राम गणेश गडकरी यांचा अर्धपुतळा, आचार्य अत्रे यांच्याच शुभहस्ते बसविलेला आहे.. 

आचार्य अत्रे यांनी शालेय शिक्षणानंतर फर्ग्युसन काॅलेज  व पुणे विद्यापीठातून पदवीधर झाल्यानंतर, शिक्षक म्हणून नोकरीस सुरुवात केली. १९२८ साली लंडनमध्ये जाऊन टी.डी. ही पदवी घेतली. 

अत्रे यांची साहित्यिक व पत्रकारिता म्हणून कारकीर्द १९२३ च्या ‘अध्यापन’ या मासिकापासून सुरु झाली. २६ साली ‘रत्नाकर’, २९ साली ‘मनोरमा’, ३५ साली ‘नवे अध्यापन’, ३९ साली ‘इलाखा शिक्षक’, ४० साली साप्ताहिक ‘नवयुग’, ४७ साली सायंदैनिक ‘जयहिंद’, ५६ साली दैनिक ‘मराठा’ अशी आहे..

चित्रपटाच्या बाबतीत अत्रे यांनी सुरुवातीला कथा, पटकथा व संवाद लिहिले आहेत. १९३४ साली ‘नारद नारदी’ चित्रपटापासून या क्षेत्रात त्यांनी पदार्पण केले. ३८ साली ‘ब्रह्मचारी’ चित्रपटाची कथा लिहिली. त्यांच्या ‘ब्रॅंडीची बाटली’ या चित्रपटानेही अफाट लोकप्रियता मिळवली. १९५४ सालातील ‘श्यामची आई’ या चित्रपटाने पहिला राष्ट्रीय पुरस्कार व सुवर्णकमळ मिळविले. 

आचार्य अत्रे हे हाडाचे शिक्षक होते, त्यांनी सुरुवातीला मुंबईत काही महिने शिक्षकाची नोकरी करताना इंग्रजी, गणित, संस्कृत विषय शिकविले. नंतर पुण्यात येऊन कॅम्प एज्युकेशन सोसायटीचे मुख्याध्यापक म्हणून १८ वर्षे काम केले. तसेच पुण्यात राजा धनराज गिरजी व मुलींसाठी आगरकर हायस्कूलची स्थापना केली. १९३७ साली नगर पालिकेच्या निवडणुकीत निवडून आल्यावर शिक्षकांसाठी ट्रेनिंग काॅलेज काढले. प्राथमिक शाळेसाठी, नवयुग वाचनमाला व दुय्यम शाळेसाठी अरूण वाचनमाला, अशी पाठ्यपुस्तकांची निर्मिती केली.

आचार्य अत्रे यांची भाषणे त्याकाळी फार गाजलेली होती. सदानंद जोशी यांनी ‘मी अत्रे बोलतोय’ या एकपात्री प्रयोगातून त्यांच्या भाषणकलेचा आस्वाद अनेक वर्षे प्रेक्षकांना दिला. 

१३ जून हा दिवस, पाश्चिमात्त्य देशांत अशुभ मानला जातो.. १९६९ साली त्याचा प्रत्यय महाराष्ट्रात देखील आला.. याच दिवशी आचार्य अत्रे, अनंतात विलीन झाले.. त्यांचा जन्मही १३ तारखेचा व मृत्यूही १३ तारखेलाच.. विलक्षण योगायोग! त्यांना जाऊन ५३ वर्षे झालेली आहेत.. मात्र अजूनही ते आपल्याला पुस्तकातून, भाषणांतून, नाटकांतून, चित्रपटांतून आसपासच आहेत असं वाटतं.. खरंच अशी मोठी माणसं जरी शरीराने गेलेली असली तरी त्यांच्या कर्तुत्वाने शतकानुशतके, अमरच असतात..

आचार्य अत्रे यांच्या स्मृतिदिनानिमित्त त्यांना विनम्र अभिवादन!!!

© सुरेश नावडकर

१३-६-२२

मोबाईल ९७३००३४२८४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ सत्यवान, सावित्री आणि वटपौर्णिमेच्या निमित्ताने— श्री सुजीत भोगले ☆ प्रस्तुति – सुश्री गीता पटवर्धन ☆

?वाचताना वेचलेले ?

☆ सत्यवान, सावित्री आणि वटपौर्णिमेच्या निमित्ताने— श्री सुजीत भोगले ☆ प्रस्तुति – सुश्री गीता पटवर्धन ☆

(पुरोगाम्यांना कारल्याचा रस.)  

सावित्री सत्यवान , करवा चौथ या सारख्या प्रथांच्या मध्ये पुरुष प्रधान आणि स्त्री शोषण संस्कृती शोधणाऱ्या निर्बुद्ध आत्म्याच्या साठी… 

सावित्री ही राजकन्या. अत्यंत सुंदर, अत्यंत गुणवान तितकीच बुद्धिमान सुद्धा. तिच्या सौंदर्याची आणि बुद्धिमत्तेची कीर्ती अशी पसरली असते की तिच्याशी विवाह करण्याचे प्रस्ताव देव सुद्धा नाकारतात, ते पण या भीतीने की आपण तिच्याशी विवाह करण्यास पात्र नाहीत म्हणून.

अशा सावित्रीचा जीव सत्यवानावर जडतो. सत्यवानाचे वडील हे राजे असतात परंतु त्यांचे राज्य हरण होते. त्यांना अंधत्व येते आणि आता सत्यवान लाकडे तोडून कुटुंबाचा उदरनिर्वाह चालवत असतो. अशा सत्यवानाशी विवाह करायचे सावित्री ठरवते. नारदमुनी तिला त्याचे आयुष्य लग्नाच्यानंतर एकच वर्ष आहे या शापाची पूर्वकल्पना देतात, तरीही ती अविचल राहते आणि त्याच्याशीच विवाह करते.

इथे एक पराकोटीची बुद्धिमान आणि सुंदर राजकन्या जिची अभिलाषा देवांना सुद्धा आहे आणि त्याच वेळी आपण तिच्या पात्रतेचे नाहीत याची कल्पना असल्याने ते तिच्याशी विवाह करण्याचा प्रस्ताव सुद्धा नाकारतात, हे दोन्ही सत्य समजून घ्या.. 

त्यानंतर तिला सत्यवान आवडतो आणि ती त्याला वरते. इथे मुलीला स्वतःचा वर निवडण्याची मुभा होती हे सुस्पष्ट होते. आज सुद्धा जिथे ऑनर किलिंग होतात तिथे हे समजणे अत्यंत आवश्यक आहे. 

जुन्या काळात बऱ्याचदा असा प्रश्न येत असे– तुम्हाला बुद्धिमान पुत्र हवा असेल तर अल्पायु असेल. मंदबुद्धी चालणार असेल तर दीर्घायू होईल. त्याच प्रमाणे सावित्रीच्या समोरही प्रश्न निर्माण होतो. तिच्या सौंदर्य आणि बुद्धिमत्तेमुळे तिचा विवाह अशक्य होऊन बसला असतो. त्यावेळी सत्यवान आवडला आहे पण तो अल्पायु आहे हे समजते. 

परंतु अल्पकाळ का होईना आपल्याला मनोवांच्छित पतीचा सहवास प्राप्त होईल म्हणून सावित्री त्याच्याशी लग्न करते. त्यात तिची गुणग्राहकता दिसते आहे. 

नंतर यम ज्यावेळी त्याचे प्राण हरण करून घेऊन जाऊ लागतो, ती त्याच्याशी शास्त्रार्थ करते आणि त्याच्याकडून तीन वरदान मिळवते. यमाशी शास्त्रार्थ करणारे फक्त दोनच जण आहेत– एक नचिकेता आणि दुसरी सावित्री ( एक स्त्री आणि एक बालक. आपण या दोघांना सुद्धा अजाण समजतो ). 

ती पहिल्या वरदानात सासऱ्यांच्यासाठी नेत्र मागते. दुसऱ्या वरदानात त्याचे राज्य मागते आणि तिसऱ्या वरदानात पती मागून घेते. 

ती पहिल्यांदा आपल्या कुलाच्या हिताचा विचार करते. यमाने तिला पुढील वरदान दिले नसते तर तिचे सहगमन झाले असते. मग त्या दोघांच्या पश्चात वृद्ध आणि अंध सासऱ्याला नेत्र मिळणे आवश्यक , राज्य मिळणे आवश्यक, इतका विवेक तिचा त्या क्षणी सुद्धा जागा असतो. 

सावित्रीची ही बुद्धिमत्ता आणि आपल्या कुलाप्रती असणारा समर्पण भाव हा आजच्या तरुणींनी आत्मसात करण्याच्या सारखी गोष्ट आहे.

आपल्याला आवडलेला पुरुषच पती म्हणून निवडणे आणि त्याच्यासह संसार करण्यासाठी साक्षात मृत्यूशी सुद्धा आपली बुद्धी पणाला लावून शास्त्रार्थ करण्याचे धाडस आणि बुद्धिमत्ता असणारी स्त्री, म्हणून सुद्धा आपण सावित्री कडे पाहू शकतो. 

राजकन्या असणारी सावित्री आपल्या वडिलांच्याकडून आर्थिक मदत सुद्धा घेऊ शकली असती. परंतु ती मदत स्वीकारत नाही. नवऱ्याच्यासह झोपडीत सुखाने संसार करते. आपल्या आवडत्या पुरुषाच्यासाठी तडजोड करणे ती स्वीकारते, पण मनाविरुद्ध आणि गुणहीन असा नवरा स्वीकारत नाही. तिचा स्वाभिमानी स्वभाव हा गुण सुद्धा आत्मसात करण्यासारखा आहे. 

आपल्या आयुष्यातील सगळ्यात महत्वाचे निर्णय स्वतः घेणे आणि त्याच्या परिणामांची सुद्धा संपूर्ण जबाबदारी घेणे, समोर आलेल्या परिस्थितीसमोर हतबल होऊन हातपाय न गाळता आपल्या बुद्धिमत्तेच्या बळावर त्या समस्येवर मात करणे, हे एक व्यक्ती म्हणून सावित्रीचा विकास किती परिपूर्ण झाला आहे याचे निदर्शक आहे. 

जर वटसावित्रीची आपण पूजा करणार असलो तर प्रत्येक स्त्रीला या कथेतील हा सगळा भाग ज्ञात असणे आवश्यक आहे. या कथेतून यमाच्या तावडीतून नवऱ्याला सोडवून आणणे हा भाग गौण आहे. एक व्यक्ती म्हणून आयुष्यातील सगळे निर्णय स्वतः घेणे, त्याच्या परिणामांची कल्पना असूनही आपल्या तत्वांशी तडजोड न करणे आणि ज्यावेळी सर्वस्व पणाला लावायची वेळ येईल त्यावेळी त्या पातळीवरील त्यागाच्यासाठी सुद्धा उद्युक्त असणे, हे दैवी गुण ही कथा आपल्याला आत्मसात करायला प्रेरित करते.

ही कथा प्रत्येक स्त्रीने आपल्या मुलीला असे स्वयंपूर्ण होण्यासाठी प्रेरणास्त्रोत म्हणून सांगितली पाहिजे. ही कथा प्रत्येक पुरुषाने, आपल्याला सावित्रीसारखी गुणवान पत्नी हवी असेल तर आपल्याला सुद्धा तितके चांगले लोकोत्तर गुण आत्मसात करायला हवे हे ध्यानात घेण्यासाठी वाचली पाहिजे.  

यातील स्त्रीचे शोषण आणि पुरुषप्रधान संस्कृतीचे वर्चस्व शोधून काढणारे लोक महान आहेत. या कथेत पुरुषप्रधान संस्कृतीचे अवशेष शोधणाऱ्या लोकांना माझा प्रश्न :— ज्या प्रमाणे सावित्री स्वतःला हवा तो वर निवडते आणि त्या पुढील घडणाऱ्या घटनाक्रमाची जबाबदारी घेते, इतके स्वतंत्र आणि परिपक्व तुम्ही तुमच्या मुलीला वाढवले आहे का? तिने तसे वागले तर तुम्हाला चालेल पटेल का ? तुम्ही तुमच्या मुलीला तितके स्वातंत्र्य दिले आहे का ?—-

लेखक : श्री सुजीत भोगले

संग्राहिका : सुश्री गीता पटवर्धन

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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