हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#136 ☆ लघुकथा – वातानुकूलित संवेदना… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा “लघुकथा – वातानुकूलित संवेदना…”)

☆  तन्मय साहित्य # 136 ☆

☆ लघुकथा – वातानुकूलित संवेदना… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

एयरपोर्ट से लौटते हुए रास्ते में सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे पत्तों से छनती छिटपुट छाँव में साईकिल रिक्शे पर सोये एक रिक्शा चालक पर अचानक नज़र पड़ी।

लेखकीय कौतूहलवश गाड़ी रुकवाकर उसके पास जा कर देखा –

वह खर्राटे भरते हुए गहरी नींद सो रहा था।

समस्त सुख-संसाधनों के बीच मुझ जैसे अनिद्रा रोग से ग्रस्त सर्व सुविधा भोगी व्यक्ति को जेठ माह की चिलचिलाती गर्मी में इतने इत्मिनान से नींद में सोये इस रिक्शेवाले की नींद से स्वाभाविक ही ईर्ष्या होने लगी।

इस भीषण गर्मी व लू के थपेड़ों के बीच खुले में रिक्शे की सवारी वाली सीट पर धनुषाकार, निद्रामग्न रिक्शा चालक के इस दृश्य को आत्मसात कर वहाँ से अपनी लेखकीय सामग्री बटोरते हुए वापस अपनी कार में सवार हो गया

घर पहुँचते ही सर्वेन्ट रामदीन को कुछ स्नैक्स व कोल्ड्रिंक का आदेश दे कर अपने वातानुकूलित कक्ष में अभी-अभी मिली कच्ची सामग्री के साथ लैपटॉप पर एक नई कहानी बुनने में लग गया।

‘गेस्ट’ को छोड़ने जाने और एयरपोर्ट से यहाँ तक लौटने  की भारी थकान के बावजूद— आज सहज ही राह चलते मिली इस संवेदनशील मार्मिक कहानी को लिख कर पूरा करते हुए मेरे तन-मन में एक अलग ही स्फूर्ति व  उल्लास है।

रिक्शाचालक पर तैयार इस सशक्त कहानी को पढ़ने के बाद मेरे अन्तस पर इतना असर हो रहा है कि, इस विषय पर कुछ कारुणिक काव्य पंक्तियाँ भी खुशी से मन में हिलोरें लेने लगी है।

अब इस पर कविता लिखना इसलिए भी आवश्यक समझ रहा हूँ कि,

—-  हो सकता है, यही कविता या कहानी इस अदने से रिक्शे वाले के ज़रिए मुझे किसी प्रतिष्ठित मुकाम तक पहुँचा दे

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 30 ☆ गीत – नीर युद्ध हो जायेगा…… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज विश्व पर्यावरण दिवस पर प्रस्तुत है एक विचारणीय गीत  नीर युद्ध हो जायेगा… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 30 ✒️

? गीत – नीर युद्ध हो जायेगा… — डॉ. सलमा जमाल ?

हे मानव तुम अब भी सम्भलो ,

नष्ट करो ना जल को ।

बिन पानी धरती जब सूखे ,

याद करो उस पल को ।।

 

बनके पपीहा भटकोगे तुम ,

पीहू पीहू बोलोगे ,

बून्द – बूंद को सब तरसेंगे ,

वन – वन में डोलोगे ,

बार-बार खोलकर देखोगे ,

सूखे हुए नल को ।

हे मानव ————————- ।।

 

जल का आदर करना सीखो ,

यह दुनिया में अनमोल ,

दूर नहीं वह दिन जब पानी ,

पाओगे तौल – तौल ,

जल समस्या में अपनाओ ,

तुम  संरक्षण के हल को ।

हे मानव ————————- ।।

 

 पानी गर हो गया ख़त्म तो ,

नीर युद्ध हो जाएगा ,

लहू – लुहान होगा मानव ,

सब अशुद्ध हो जाएगा ,  

‘ सलमा ‘अभी समय है चेतो ,

क्या होगा फिर कल को ।

हे मानव ————————- ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – इस पल ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – इस पल ??

“काश जी पाता फिर से वही पुराना समय…!”… समय ने एकाएक घुमा दिया पहिया।…आज की आयु को मिला अतीत का साथ…बचपन का वही पुराना घर, टूटी खपरैल, टपकता पानी।…एस.यू. वी.की जगह वही ऊँची सायकल जिसकी चेन बार-बार गिर जाती थी.., पड़ोस में बचपन की वही सहपाठी अपने आज के साथ…दिशा मैदान के लिए मोहल्ले का सार्वजनिक शौचालय…सब कुछ पहले जैसा।..एक दिन भी निकालना दूभर हो गया।..सोचने लगा, काश जो आज जी रहा था, वही लौट आए।

“काश भविष्य में जी पाऊँ किसी धन-कुबेर की तरह !”…समय ने फिर परिवर्तन का पहिया घुमा दिया।..अकूत संपदा.., हर सुबह गिरते-चढ़ते शेयरों से बढ़ती-ढलती धड़कनें.., फाइनेंसरों का दबाव.., घर का बिखराव.., रिश्तों के नाम पर स्वार्थियों का जमघट।..दम घुटने लगा उसका।..सोचने लगा, “काश जो आज जी रहा था, वही लौट आए।”

बीते कल, आते कल की मरीचिका से निकलकर वह गिर पड़ा इस पल के पैरों में।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 113 ☆ पढ़ाकू गोंड कन्या – 6 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “पढ़ाकू  गोंड कन्या”)

☆ संस्मरण # 113 – पढ़ाकू  गोंड कन्या – 6 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

मैँ जब-जब पोड़की स्थित मां सारदा कन्या विद्यापीठ के अतिथि गृह में ठहरा, वहाँ के भोजनालय में भोजन करने गया, तो मैंने एक श्याम वर्णा, चपल व चौड़े माथे वाली छरहरी युवती को अवश्य देखा। वह मेरा मुस्कराकर अभिवादन करती, पूंछती ‘दादाजी कैसे हो ?’ यह युवती दिन में तो दिखाई नहीं देती पर सुबह और शाम सेवाश्रम में अवश्य मिलती। लेकिन जब फरवरी 2022  के मध्य  में मैं पुन: सेवाश्रम गया तो चंचल स्वभाव की वह युवती मुझे दिखाई नहीं दी। मैंने वहाँ के शिक्षक प्रवीण कुमार द्विवेदी से उसके विषय में पूँछा तो पता चला वह भुवनेश्वरी थी।  और एक दिन द्विवेदी जी उसे मुझसे मिलवाने ले ही आए।

अमरकंटक के मूल निवासी गोंड आदिवासी परिवार में जन्मी भुवनेश्वरी, समीपस्थ ग्राम धरहरकलां की निवासी है। उसके पिता मानसिंह गोंड पाँचवी तक पढे हैं व माता जयमती बाई अनपढ़ हैं। वह याद करती है कि पूरा गाँव लगभग अनपढ़ ही था, केवल प्राथमिक शाला के शिक्षक राम सिंह मरावी ही शिक्षित थे और वही ग्रामीणों को शिक्षा की प्रेरणा देते, सभी लोग उनकी सलाह को मानते थे। जब वर्ष 1999 में भुवनेश्वरी पाँच वर्ष की हुई तब उसके पिता ने मरावी मास्टर साहब  प्रेरणा से विद्यापीठ में उसका प्रवेश करवा दिया।  शुरू में तो उसे स्कूल का अनुशासन रास  नहीं आया, गृह ग्राम की नन्ही सखियाँ याद आती और माँ की ममता को यादकर वह बहुत बिसुरती। ऐसे समय में बड़ी बहनजी और बड़ी कक्षा की छात्राएं उसे पुचकारती और मन बहलाती। धीरे-धीरे आश्रम में अच्छा लगने लगा और पढ़ना लिखना मन को भाने लगा।

एक अत्यंत गरीब परिवार में जन्मी भुवनेश्वरी ने, जिसके पिता अपने खेत में हाड़ तोड़ मेहनत कर केवल पेट भरने लायक अन्न उपजा पाते, सातवीं कक्षा माँ सारदा कन्या विद्यापीठ से उत्तीर्ण की और भेजरी स्थित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बारहवीं की परीक्षा पास की तो माता पिता को इस अठारह वर्षीय युवती के विवाह की चिंता सताने लगी। लेकिन भुवनेश्वरी तो आगे पढ़ने की इच्छुक थी और ऐसे में आदिवासी बालिकाओं के तारणहार बाबूजी उसकी मदद को आगे आए। बाबूजी और बहनजी ने सेवाश्रम के छात्रावास में उसके रहने-खाने की व्यवस्था कर दी और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय में उसे प्रवेश दिलवा दिया। यहाँ की निशुल्क शिक्षा व्यवस्था का लाभ लेकर भुवनेश्वरी ने पहले संग्रहालय विज्ञान विषय लेकर स्नातक परीक्षा में सफलता हासिल की और फिर जनजातीय अध्ययन विषय में स्नातकोत्तर परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। सेवाश्रम में पढ़ने वाली नन्ही आदिवासी बालिकाओं की भुवी दीदी ने आगे पढ़ने की सोची और अमरकंटक स्थित कल्याणीका महाविद्यालय से बीएड  भी 89% अंकों के साथ उत्तीर्ण कर लिया।

आजकल भुवनेश्वरी अमरकंटक क्षेत्र के बिजुरी ग्राम स्थित निजी विद्यालय में शिक्षिका है और उसका मासिक वेतन पाँच हजार रुपये से भी कम है। मैंने कहा ‘यह तो शोषण है और  इतने कम  वेतन से संतुष्ट हो क्या ?’  जवाब मिला ‘नहीं! पर मजबूरी है। सरकारी नौकरी के लिए आवेदन किया है पर अभी तक प्रक्रिया शुरू नहीं हुई। बड़े शहरों के निजी स्कूलों में जहां वेतन अच्छा मिलता है हम काले आदिवासियों को, जिन्हें अंग्रेजी में गिटिर-पिटिर करना नहीं आता,   कौन भर्ती करेगा।‘

डाक्टर सरकार की याद करते हुए उसकी आंखे नम हो जाती है। उसे आज भी विद्यापीठ की छात्रा के रूप में बनारस और जगन्नाथ पुरी की यात्राओं  की याद है। वह बताती है कि इन  यात्राओं के दौरान बाबूजी हम बच्चों को एक दिन किसी अच्छे होटल में, यह कहते हुए, जरूर भोजन करवाते कि इससे बच्चों की झिझक दूर होगी। भुवनेश्वरी को आज भी याद है जब करिया मुंडा लोकसभा के उपाध्यक्ष थे और अमरकंटक आए तब बाबूजी ने उन्हे विद्यापीठ आमंत्रित किया था। करिया मुंडा से विद्यापीठ की पूर्व छात्रा गुलाबवती बैगा ने संभाषण किया और फर्रीसेमर की पाँचवी तक पढ़ी लाली बैगा ने उन्हें स्थानीय बैगा आदिवासियों की संस्कृति से परिचित कराया और इसके लिए दोनों को बाबूजी ने बखूबी प्रशिक्षित किया था।

जब मैंने उसकी अन्य बहनों की पढ़ाई लिखाई के बारे में पूछा तो उसने बताया कि चार बहने इसी विद्यापीठ से पढ़कर निकली हैं। एक बहन ने तो बीएससी तक की शिक्षा ग्रहण की और नृत्य, गीत-संगीत व चित्रकला में निपुण सबसे छोटी बहन यमुना अब शासकीय उत्कर्ष उच्चतर माध्यमिक विद्यालय अनूपपुर में दसवीं की छात्रा है।

मैंने उससे शादी विवाह पर विचार पूछे। बिना शरमाये भुवनेश्वरी ने उत्तर दिया पहले नौकरी खोजेंगे, अपने पैरों पर खड़े होकर बाबूजी का सपना पूरा करेंगे फिर शादी की सोचेंगे। वह कहती है कि अमरकंटक क्षेत्र के  आदिवासी युवा शिक्षित तो हो गए  हैं पर बेरोजगारी के चलते उनमें गाँजा की चिलम फूकने का चलन बढ़ा है और फिर मद्यपान तो आदिवासी छोड़ना ही नहीं चाहते। गैर आदिवासी समुदाय की देखादेखी में दहेज का चलन गोंड़ों में बढ़ा है और इससे नारी प्रताड़ना के मामले भी अब बढ़ रहे हैं। वह ऐसा जीवन साथी चाहती है जिसमें नशा जैसे दुर्गुण नहीं हों। वह कहती हैं कि शिक्षा से जागरूकता तो बढ़ी है पर कुछ बुराइयाँ भी आदिवासियों में आ गई हैं। वह इन बुराइयों की  खिलाफत  करने में स्वयं को अकेला पाती है।  

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 36 – आत्मलोचन – भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना  में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)   

☆ कथा कहानी # 36 – आत्मलोचन– भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

(“इस कहानी के सभी पात्र और घटनाए काल्पनिक है, इसका किसी भी व्यक्ति या घटना से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा।”)

आप क्लाइमैक्स का इंतज़ार कर रहे हैं पर ये तो सिर्फ फिल्मों में होता है. ये तो  वास्तविकता से जुड़ी अलग कहानी है जिसमें 100% सही न तो नायक है न ही खलनायक. शायद यही जिंदगी की हकीकत है जिसमें हम सब भी गुजर रहे हैं और जानते हैं कि हमारी समस्याओं का समाधान करने के लिए अगर कोई नायक है तो वह भी हम हैं पर खलनायक कौन है, ये पहचानना या परिभाषित करना मुश्किल है.इस कथा के अंतिम पड़ाव के संक्षिप्त बिंदु यही हैं.

  1. इस अपहरण में आत्मलोचन जी को जानबूझकर कोई शारीरिक कष्ट नहीं पहुंचाया गया न ही उनके साथ कोई अभद्रता की गई. ये बात अलग है कि सिचुएशन के हिसाब से अपहरणकर्ताओं का आचरण रहा और आत्मलोचन जी भी समझ गये कि इन लोगों के साथ शालीनता ही सबसे कामयाब शस्त्र है. लेकिन दुरूह क्षेत्र के उबड़खाबड़ रास्ते और आंखों में पट्टी बंधे होने कारण हल्की चोट जरूर आई थी. चोट शारीरिक से ज्यादा मानसिक रूप से पीड़ा दे रही थी और इन जख्मों पर भय, नमक का काम कर रहा था.
  2. उनकी सुरक्षा में लगे वे सिक्यूरिटी गार्ड, जिनकी शक्ल भी उन्होंने देखी नहीं थी, बहुत बेदर्दी से मौत के घाट उतार दिये गये थे और आत्मलोचन जी ने अपने जीवन में पहली बार निर्ममता पूर्वक किये गये कत्ल का मंजर देखा था. किताबों की विद्वत्ता के बोझ तले पोषित व्यक्ति जब पहली बार मृत्यु की विभीषिका से रूबरू होता है तो यह अनुभवहीनता उसे स्तब्ध कर देती है और शून्यता उसके सारे सेंस को शतप्रतिशत संक्रमित कर देती है.
  3. किडनेप होने के बाद अपने इस कैंप में उनका ठिकाना सर्किट हाऊस नहीं बल्कि सुदूर जंगल का वह खंडहरनुमा घर था जिसमें उनके VIP status के हिसाब से एक कमरा पूरी तरह उनके लिये रिजर्व था. उनके विश्राम के लिये डबल बैड और बैठने के लिये विशिष्ट चेयर दोनों का डबल रोल एक संकरा तख्त कर रहा था और यही उनका तख्ते ताऊस था. बाहर निकलने की स्वतंत्रता नहीं थी और natural calls के लिये ही बाहर निकला जा सकता था जिसके लिये उन्हें यहां की सिक्यूरिटी प्रदान की गई थी.
  4. अपहरण के Chief Executive Officer याने मॉस्टर माइंड से उनकी मुलाकात अभी हुई नहीं थी. पर जब प्रदेश की राजधानी से प्रतिनियुक्त मीडियेटर और नक्सलियों के मीडियेटर की मीटिंग, विभिन्न दौर के मंथन, कुछ घोषित और कुछ गुप्त मांगों की स्वीकृति की ओर अग्रसर हुई तो उन्हें इस अपहरण कांड के नायक या उनके लिए खलनायक से मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ. कद लगभग साढे छह फुट, रंग गहरा सांवला, कमांडो जैसी काया और आंखों के भीतर लहराता ज्वालामुखी जो किसी को भी भयभीत करने में सक्षम था. पर ये मुलाकात बड़े ही परिपक्व और सौहार्द वातावरण में हुई क्योंकि सामने भी विद्वत्ता और शासकीय अधिकारसंपन्नता से लबालब थे आत्मलोचन IAS Distt. Megistrate. सुदूर बस्तर में बहुत कम लोग ही उनसे अंग्रेजी में बात कर पाते थे पर यहाँ वार्तालाप की शुरुआत ही अंग्रेजी में हुई.

Hello Mr. DM, I am “Shekhar”, Commander Incharge of this area.I hope you will adjust with the shortcomings of this place, and you should as you know that we too have adjusted since so many years.

विपरीत परिस्थितियां और भयजनित असहायता व्यक्ति की बोलने की शक्ति उसकी मातृभाषा तक ही सीमित कर देती हैं. तो आत्मलोचन जी ने अपनी मातृभाषा में अपने सुरक्षा गार्ड की हत्या की बात करनी चाही पर “शेखर” ने भी गुरिल्ला युद्ध के कमांडर का दर्जा, अपनी चतुराई, नृशंसता और हर पल व्यक्तियों और घटनाओं को अपने हिसाब से नियंत्रित करने की कला के बल पर ही हासिल किया था. उसने प्रश्न पूरा होने के पहले ही उनकी बात काटते हुये जवाब दिया “हमने भी अपने बहुत से योद्धा खोये हैं, जन्म के बाद हमारा पहला खेल ही मृत्यु से आंखमिचौली से शुरु हो जाता है. हमारा” नेटवर्क” बहुत शक्तिशाली है और हम अपने एरिया के हर महत्वपूर्ण अधिकारी का बायोडाटा, स्केच और मूवमैंट की पल पल की खबर हम तक समय से पहले पहुँच जाती है. पर एक बात और है कि आपको तो हम सम्मान सहित सुरक्षित रिहा कर आपके घर पहुंचा रहे हैं, फाइनल सेटलमेंट के बाद,” पर हम हमारी मुखबिरी करने वालों को नहीं छोड़ते”. कमांडो शेखर ने अपनी मिलिट्री जैसी ड्रेस के एक पॉकेट से कलेक्टर साहब का स्केच और बायोडाटा उनको देकर अपनी हल्की मुस्कान के साथ विदा ली।

मुलाकात खत्म हो गई क्योंकि ये सिर्फ संदेशात्मक थी. एक दो दिन के बाद सेटलमेंट के अनुसार आत्मलोचन जी मीडियेटर के संरक्षण में स्वास्थ्य परीक्षण के बाद घर पहुँच गये. घर लौटने पर उनकी मां ने छलकते आंसुओं के बीच उनके सुरक्षित लौटने पर तिलक लगाया आरती की और कई अरसे के बाद आत्मलोचन, पिता के चरणस्पर्श कर उनके गले लगे. Power and Strong Network के बारे में जो भूतपूर्व मुख्यमंत्री समझाना चाहते थे, वह नियति ने उनको बहुत प्रभावी तरीके से समझा दिया था. इस घटना के बाद आत्मलोचन जी के पास TMT जैसा मजबूत इरादा तो था पर लक्ष्य जिले की कवच कुंडल जड़ित अभावग्रस्त जनता को गरीबी की रेखा से ऊपर उठने की लड़ाई में उनका साथ देना भी था. उन्होंने मुख्य मंत्री द्वारा मुख्य सचिव के माध्यम से दिये गये अपने ट्रांसफर के सुझाव पर भी विनम्रतापूर्वक कहा कि उनका असली assignment तो अब शुरु होने वाला है और वह भी इसी जिले में और इसी पद पर.

एक अंतिम बात जो कि इस पूरी कहानी का एंटी क्लाइमैक्स है वह है नक्सलग्रस्त जिलों में दो समानांतर सत्ताओं की मौजूदगी. एक सरकारी होती है जिसमें भ्रष्टाचार, कामचोरी और लालफीताशाही होती है.

दूसरी दुर्गम क्षेत्र में प्रभावी व्यवस्था भय, आतंकवाद मनमानी और निरंकुश होती है. ये दोनों व्यवस्थायें आपस में युद्धरत रहती हैं और इन दो पाटों के बीच में पिसते रहते हैं साधनविहीन, शिक्षाविहीन, स्वास्थ्य विहीन निरीह और निर्बल ग्रामवासी जो न केवल गरीबी से बल्कि निरंकुशता से भी हारी हुई लड़ाई लड़ते रहते हैं. प्रयास सिर्फ आंकड़ों में दिखाये जाते हैं और जमीनी हकीकत के लिये सरकार और नक्सली एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं.

अगर आपके मन मस्तिष्क में ये कहानी चोट करे और लोचन गीले लगें तो अपनी राय जरूर दीजियेगा. अपनी कांकेर पदस्थापना के अनुभवों और कल्पनाशक्ति की कॉकटेल है ये कथा.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस का एक सशक्त नारी पात्र मंथरा ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस का एक सशक्त नारी पात्र मंथरा॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

श्री राम की जीवन सरिता को नया मोड़ देने वाली -“मंथरा”

प्रत्येक व्यक्ति का जीवन जन्म से मृत्यु पर्यन्त-एक सरिता की भाँति कालचक्र से संचालित आगे बढ़ता रहता है। जो जन्म पाते हैं उनमें से बहुत बड़ी संख्या में अधिकांश तो अज्ञात जलधाराओं की भाँति बहकर समय के रेगिस्तान में निरोहित हो जाते हैं, किन्तु कुछ कालजयी जीवन सरितायें पावनी गंगा की भाँति विश्व विख्यात हो युग युग तक कल्मषहारिणी, जनकल्याणकारिणी तृप्ति और मुक्ति दायिनी पुण्य सलिला गंगा सी उभर कर चिर नवी बनी रहती हैं। वे जन भावना की पूजा का केन्द्र बिन्दु बन जाती हैं। परन्तु इस उपलब्धि के लिए कोई घटना महत्वपूर्ण होती है। जैसे गंगाजी का महात्मा भगीरथ के द्वारा धराधाम पर स्वर्ग से लाये जाने के लिए उनका घोर तप और सतत प्रयत्न। राम कथा में भी राम की जीवन सरिता को नई दिशा में आकस्मिक मोड़ देने वाली है कैके यी की सेविका मंथरा। वैसे तो प्रत्यक्षत: विमाता कैकेयी को उसके द्वारा राजा दशरथ से दो वरदान (1) भरत को राजतिलक और (2) राम का चौदह वर्षों के लिए वनगमन माँगकर अयोध्या के उल्लासमय वातावरण को विषादमय बनाने तथा पुत्र वियोग में राजा दशरथ के मरण का प्रमुख कारण कहा जाता है किन्तु रानी कैकेयी जो वरदान माँगने के पूर्व तक पति की प्रिय पत्नी और स्नेहमयी माता थी, के सोच में आकस्मिक परिवर्तन लाने तथा उसमें स्वार्थ व सौतिया डाह की ज्वाला भडक़ाने का काम तो वास्तव में उसकी मुँह लगी चुगलखोर और अविवेक में अंधी, कुटिल दासी मंथरा ने किया था। अत: उसे मानस के सशक्त नारी पात्र के रूप में देखा जाना अनुचित न होगा क्योंकि उसी के गहन प्रभाव से प्रभावित हों कैकेयी ने उस घटनाक्रम को जन्म दिया जिसने रामकथा को सर्वथा नया मोड़ दे दिया। यदि राम का यथा परम्परा राजतिलक होता तो शायद उनके द्वारा वे कार्य न तो संपादित हो सकते जो उन्होंने चौदह वर्षों के अपने वनवास के काल में किये और न शायद उन्हें वह अपार ख्याति ही प्राप्त हो सकी होती जो आज उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राजाराम के रूप में जनजन के मृदुल मनोसिहासन पर आसीन होने से सहज संभव हो सकी है।

वह मंथरा जिसने प्रेमल विमाता कैकेयी के मन में एक तूफान उठा कर उसके व्यवहार में आकस्मिक घोर परिवर्तन कर दिया और सिया-राम की ही  जीवन सरिता की धारा को ही नहीं अयोध्या के राज परिवार और समस्त तत्कालीन भारत के इतिहास को ही एक झटके में बदल दिया निश्चित रूप से कुटिलतापूर्ण चरित्र वाली मानस की एक सशक्त पात्र है। क्योंकि बिना मंथरा की उपस्थिति के राम की जीवन गाथा का स्वरूप ही कुछ भिन्न होता।

रामचरित मानस में ‘मंथराÓ रानी कैकेयी की निजी मुँहलगी विश्वस्त सेविका है जो कैकेयी के राजा दशरथ के साथ विवाह पर उसके पीहर से उनके साथ आई थी। अत: स्वाभाविक रूप से वह कैकेयी की हितरक्षिका व संरक्षिका है। रानी के मनोभावों की निकट जानकार, रानी को अपनी बात खुल कर कह सकने वाली, कुटिल बुद्धि वाली, व्यवहार कुशल वाचाल, घरफोड़ू स्वभाव की, शरीरयष्टि में कुबड़ी, अदूरदर्शी प्रेम का दिखावा करने वाली, अंपढ़, कपटी, कुटनी सेविका है। उसी की सलाह पर विश्वास करने से कैकेयी ने ऐसा हठ किया जिसमें सारा राज परिवार एक गहन शोक सागर में डूब गया और राम को राज्याधिकार प्राप्ति के स्थान पर चौदह वर्षों के लिए वनवास पर जाना पड़ा। अयोध्या कांड दोहा क्र. 12 से 23 के बीच के तुलसीदास जी ने उसके अभिनय का जो चित्र प्रस्तुत किया है उससे स्पष्ट है कि मंथरा ही सारी भावी घटनाओं का बीज वपन करने वाली अहेरिन है जिसकी बुद्धि को देवताओं की प्रार्थना पर मानस में वर्णन के अनुसार शारदा ने कुमति दे दूषित कर दिया था-

नाम मंथरा मंद मति चेरी कैकेई केरि,

अजस पिटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि।

संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

मंथरा का कैकेयी के पास जाना, अपना आक्रोश और खिन्नता प्रदर्शित करते हुए गहरी साँसे भरना, रानी के द्वारा उसका कारण पूँछने पर कुछ न बोलना, रानी के द्वारा यह पूँछने पर कि बात क्या है? सब कुशलता तो है? यह उत्तर देना कि आज राम की कुशलता के सिवा और किसकी कुशलता संभव है। आज उनका राजतिलक होने वाला है। सारा नगर सजाया जा रहा है उत्सव के लिये। कैकेयी के यह कहने पर कि यह तो खुशी की बात है। मुझे राम अत्यधिक प्रिय हैं और वह भी सब पर समान प्रेम रखते हैं। कौशल्या माता और मुझमें कोई भेद नहीं रखते। रघुकुल में यही प्रथा है कि बड़ा राजकुमार राजगद्ïदी का अधिकारी होता है और सब छोटे भाई उसका सहयोग करते तथा प्रेम से उसका अनुगमन करते हैं। फिर राम तो सब प्रकार सुयोग्य हैं और भाइयों पर उनका अगाध प्रेम है अत: उनका राजतिलक तो हम सबके के लिए खुशी की बात है। इस बात पर तू क्यों जली जा रही है? घर फोडू़ भेद  की बात क्यों करती है अगर फिर ऐसा कहा तो तेरी जीभ कटवा दूँगी। आखिर बात क्या है? तुझे बुरा क्यों लग रहा है? तुझे भरत की कसम है सच बता।

मंथरा ने कहा-एक बार कहने पर ही तो मुझे यह सब सुनना पड़ रहा है, अब और क्या सुनने को बाकी रहा। अब आगे भला क्या कहूँ। यह मेरा ही दुर्भाग्य है कि जो मैं आपका भला चाहती हूँ आपका अहित होते मुझसे देखा नहीं जाता और आपके हित की बात कहना चाहती हूँ तो आपसे ही गाली खाती हूँ, बुरी कही जाती हूँ, घरफोड़ू कही जाती हूँ। मैं अब आगे से मुँह देखी बात ही कहा कहूँगी जिससे आप खुश रहें। मुझे क्या करना है-

कोई नृप होय हमें का हानी-चेरी छाँडि न होउब रानी॥

उसकी ऐसी चिकनी चुपड़ी मर्म भरी बातें सुन कैकेयी ने उसके प्रति नरम होते हुये  उसकी बातों में सचाई का कुछ अंश होने की संभावना देखते हुए, आग्रह करते हुए कहा-सच तो बता ऐसी बात क्या हो गई जो तू व्यर्थ दुखी हो गई? मंथरा ने तब कैकेयी की नरमी को देखते हुए कपटपूर्ण मीठी बात कही- ”मुझे अब कहने में डर लगता है। तुमने कहा राम-सिया तुम्हें बहुत प्यारे हैं। बात तो सही है। प्यारे तो हम सबको हैं पर तुम बहुत भोली हो। पति का प्यार पाकर खुशी में भूली हो। तुम समझती हो राजा तुम्हारे वश में हैं। और सब ठीक-ठाक है। राजा भरत तथा शत्रुघ्न के ननिहाल में रहते राम का राज्याभिषेक  रच रहे हैं। कौशल्या ने भी बड़ी चतुराई से, प्रपंच रच तिलक के लिए ऐसी तिथि निकलवाई है। कौशल्या के मन में तुमसे सौतिया डाह है। वह जानती है कि राजा तुमको ज्यादा प्यार करते हैं। उसे यह खलता है। समय बदलने पर मित्र भी शत्रु हो जाते हैं। जब तक कमल पानी भरे तालाब में रहता है सूरज भी उसको खिलाता है पर जब पानी सूख जाता है तो वही सूरज उसे जला डालता है (नष्ट कर देता है) राम के राजा हो जाने पर, उनसे वह प्रेम जो आज तुम्हें मिल रहा है संभव नहीं हैं। कौशल्या राजमाता होकर तुम्हारी जड़ें उखाड़ फेंकेगी। इसीलिए असलियत को समझो और अपने पुत्र भरत की समय रहते सुरक्षा का सही प्रत्यत्न करो।ÓÓ यह सुन कैकेयी को लगा कि वह बिलकुल अंधेरे में थी मंथरा ने प्रकाश की किरण दिखा, उसे डूबते को तिनके का सहारा सा देते हुए भविष्य की कठिनाई से बचाने का सही संकेत दिया है। कैकेयी को यह आभास होते ही उसने मंथरा को सहमकर समर्पण कर दिया। अब आगे वह अपने को कुछ भी सोचने, समझने और करने में असमर्थ कह कर क्या करे इसकी सलाह देने को कहा।

मंथरा ने रानी की मनोदशा का पूरा लाभ लेते हुए उसे पूर्णत: अपने वश में लेकर तथा अनेकों सौतों के सौतों के प्रति किए गए व्यवहारों की कथायें सुनाकर और भयभीत करते हुए कहा-अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। रातभर का समय है। तुम रात को कोपभवन में पहुँचो। राजा जब मनायें तब उनसे राम की शपथ दिलाकर, उनके द्वारा तुम्हें दिए गए दो वरदानों में जो तुम्हारी थाती हैं उनसे दो वचन ले लो-(1) अपने बेटे भरत को राजतिलक और (2) कौशल्या के पुत्र राम को चौदह वर्षों का वनवास। बस इससे ही बात बनेगी।

होहि अकाज आजु निशि बीते, बचन मोर प्रिय मानहु जी से।

इस सलाह पर कैकेयी ने उसे बड़ी समझदार व हितेषी मानकर उसकी सराहना की

तोहि सम हित न मोर संसारा, बहे जात कर भयेसि अधारा॥

जो विधि पुरब मनोरथ काली, करों तोहि चखपूतरि आली॥

मंथरा की इसी सारी कपट योजना का परिणाम है रामचरित मानस में वर्णित राम की जीवन गाथा। अत: मंथरा के परामर्श ने राम की जीवन सरिता की धारा को मोड़ कर एक सशक्त नारी पात्र की भूमिका निभाई है।

॥ को न कुसंगति पाई नसाई, रह इन नीच मते चतुराई॥

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १५ जून – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १५ जून – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

अच्युत (वामन)बळवंत कोल्हटकर (01/08/1879–15/06/1931)

अच्युत कोल्हटकर हे लोकमान्य टिळकांचे समकालीन नामवंत पत्रकार होते.बी.ए.एल्.एल्.बी.शिक्षण पूर्ण केल्यावर काही काळ शिक्षक म्हणून नोकरी केली व नंतर वकिली करण्यास सुरूवात केली.

‘देशसेवक’ या पत्राचे संपादक पद त्यांनी स्विकारले व जहालवादी राजकारणात प्रवेश केला.लो.टिळक यांचा पुरस्कार केल्याबद्दल आणि पुढे सविनय कायदेभंग चळवळीतील सहभागाबद्द्ल त्यांना कारावासही भोगावा लागला होता.

1915 साली त्यांनी ‘संदेश’ या वृत्तपत्राची स्थापना करून वृत्तपत्र सृष्टीचा चेहरामोहरा बदलून टाकला.संदेश मधील अग्रलेख,चटकदार सदरे,आकर्षक मथळे,चित्तवेधक बातम्या यांमुळे हे वृत्तपत्र लोकप्रियतेच्या शिखरावर पोचले.पण सरकारी अवकृपेमुळे ते बंद करावे लागले.

त्यानंतर त्यांनी संजय,चाबूक,चाबूकस्वार ही पत्रे काढली.तसेच प्रभात वृत्तपत्रात संपादक मंडळात कामही केले.पण ‘संदेशकार’ हीच त्यांची ओळख कायम राहीली.

श्रृतिबोध व उषा या मासिकांत सहसंपादक म्हणूनही त्यांनी काम केले. लो.टिळकांवरील मृत्यूलेख,मराठी काव्याची प्रभात,शेवटची वेल सुकली,दोन तात्या हे त्यांचे काही गाजलेले लेख होते.त्यांनी स्वामी विवेकानंद,नारिंगी निशाण,संगीत मस्तानी ही नाटके त्यांनी लिहिली.कादंबरीलेखनही केले पण पत्रकार म्हणून त्यांची कारकीर्द लक्षात राहणारी होती.त्यांच्या या कर्तृत्वास आजच्या स्मृतीदिनी सादर प्रणाम! 🙏

☆☆☆☆☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : विकिपीडिया.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 136 ☆ माझी वटपौर्णिमा… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 136 ?

☆ माझी वटपौर्णिमा… ☆

 कुणीतरी विचारलं सकाळी

चेष्टेने, “तुमचा हा कितवा जन्म”?

माझाही तोच सूर, “सात पूर्ण झाले,

हा आठवा, म्हणूनच,

नो कमिटमेंट “

 

वडाला फे-या मी कधीच घातल्या नाहीत!

लग्नानंतर काही वर्षे,

घरातल्या ज्येष्ठ बायका करतात

म्हणून धरला उपवास,

काही वर्षे कुंडीतल्या फांदीची पूजा !

आणि अचानक आलेली जाग,

नारी समता मंचावर आलेली…

तेव्हा पासून सोडून दिलं,

स्वतःच्या नावापुढे सौ.लावणं !

 श्रावणात सवाष्ण जेऊ घालणं,

आणि “हळदीकुंकू” करणंही !

 

मी नाहीच स्वतःला “स्त्रीवादी”

म्हणवण्या इतकी धीट !

 पण स्त्रीवादी विचारसरणीचा

पगडा मनावर मूलतःच !

माझी आई नेहमीच

धार्मिक कर्मकांड आणि

व्रतवैकल्यात रमलेली !

पण तिची आई–माझी आजी,

सामाजिक कार्याचं व्रत घेतलेली,

उपास तापास न करणारी !

माणूसपण जपणारी-कर्मयोगिनी !

आयुष्यात भेटलेली पहिली आदर्श स्त्री !

 

 त्यानंतर पुस्तकातून भेटल्या,

 “टीन एज”  मधे इरावती कर्वे,

छाया दातार, आणि हो…देवयानी चौबळही!

नंतरच्या काळात विद्याताई,

गौरी देशपांडे,अंबिका सरकार,सानिया

 आणि मेधा पेठेही!

 

जगणं स्पष्ट असावं संदिग्ध नको,

हे मनोमन पटलं !

आणि तळ्यात मळ्यात करत,

जगूनही घेतलं मनःपूत!

 

वटपौर्णिमेलाच कशाला,

नेहमीच म्हणते नव-याला,

“तुमको हमारी उमर लग जाए”

आणि या वानप्रस्थाश्रमात

जाण्याच्या वयात,

व्रत वसा फक्त पर्यावरणवाद्यांचा !

वसुंधरा बचाओ म्हणणा-यांचा,

 

हवा- पाणी -माती

प्रदुषण मुक्त करण्याचा !

झाडे लावण्याचा !

© प्रभा सोनवणे

१४ जून २०२२

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ माहेर… ☆ सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी ☆

सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ माहेर… ☆ सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी ☆

(वृत्त – अक्षरछंद – अष्टाक्षरी)

माझ्या माहेराची शान

काय सांगु तुला सये

माहेराचे गाव माझे

जसे आनंदाचे झरे . . . .१

 

वेस ओलांडता कशी

माहेराची ओढ वाढी

नदी खळाळे जोमाने

मन झुळुझुळु वाही . . . . २

 

माझे अंगण घराचे

सडा रांगोळीने खुले

उंबरठ्यावर माय

संस्कारांची वाही फुले . . . . 3

 

देवघर माहेराचे

प्रसन्नता तिथे जागे

माय माझी देवाकडे

सौख्याचेच दान मागे . . . . ४

 

ओंजळीने आई वाहे

देवा पायी जाई जुई

तेव्हा फुलांचा ही गंध

हातामध्ये भरू पाही . . . . ५

 

बापा डोळा येई पाणी

माया डोंगरा एवढी

डोळ्यातल्या आसवांनी

लेकराची दृष्ट काढी . . . . ६

 

सारी लगबग चाले

जेंव्हा लेक दिसे दारी

जसे पुन्हा नवलाई

येई माहेराच्या घरी . . . . ७

 

अशा माहेराची माया

साऱ्या लेकींना लाभावी

माय बापाची लेक ही

सुखी संसारी नांदावी . . . . ८

© सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ ‘थोडी सोडायलाच हवी अशी जागा..!’ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

?विविधा ?

☆ ‘थोडी सोडायलाच हवी अशी जागा..!’ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

‘माया’ या शब्दाचे शब्दकोशातले अनेक अर्थ आपल्याला या शब्दाचा अर्थ सांगू शकतील फक्त. पण ‘माया’ या शब्दाची व्याप्ती त्या अर्थापुरती मर्यादित नाहीय याची ओझरती कां होईना जाणीव करून देईल ते फक्त संत-साहित्यच !

अनेक संत-महात्म्यांनी त्यांच्या विविध साहित्य रचनांमधून जगण्याचं तत्त्वज्ञान सामान्य माणसालाही समजेल, पटेल, रुचेल अशा सोप्या शब्दात सांगितलेले आहे. श्री शंकराचार्यांचे अद्वैत तत्वज्ञान रामदासस्वामींनी त्यांच्या ‘दासबोध’ या ग्रंथात अतिशय सोपे करून सांगण्याचा प्रयत्न केलेला आहे. त्यात त्यांनी अतिशय सोप्या,सुलभ पद्धतीने, क्लिष्ट न वाटता बोध घेता येईल असे त्याचे सविस्तर  विवरण केलेले आहे. दासबोध हा अत्यंत सखोल अभ्यासाचा विषय आहे हे खरेच पण ‘माया’ या संकल्पनेची व्याप्ती सोप्यापद्धतीने जाणून घेण्यासाठी तो एक सहजपणे उपलब्ध असणारा मार्ग आहे हेही तितकेच खरे. रामदासस्वामींनी दासबोधात ‘माया’ या शब्दाचा वापर विवेचनाच्या ओघात अनेकदा आणि तोही मूळमाया, महामाया, अविद्यामाया अशा अनेक वेगवेगळ्या रुपात केलेला आहे.आजच्या लेखनसूत्रासाठी यातील ‘वैष्णवीमाया’ या संकल्पनेचे प्रातिनिधिक उदाहरण घेऊया.’वैष्णवीमाया’ म्हणजे विष्णूची म्हणजेच परमात्म्याची माया! ही माया मोहात पाडणारी आहे. विधात्याने निर्माण केलेली सृष्टी म्हणजेच हे विश्वाचे अवडंबर!मायेने निर्माण केलेले एक दृश्यरुप! या विश्वात जे जे चंचल,जड,अशाश्वत ते ते सर्व या मायेचाच पसारा! या मायेने संपूर्ण ब्रह्म आच्छादलेले आहे. या मायेला अलगद बाजूला सारून ‘ब्रम्ह’ जाणून घेणे म्हणजे ज्ञान! अर्थात ते प्राप्त करून घेणे सर्वसामान्यांच्या दृष्टीने अतिशय गूढ,अशक्यप्राय वाटावे असेच  आणि म्हणूनच संतसाहित्य त्यांना ते अधिक सोपे,सुकर करुन समजावून सांगते.अतिशय सोप्या शब्दात हे संतसाहित्य माणसाला जगावे कां, कसे आणि कशासाठी हे शिकवते.

गंमत म्हणजे माणसाचे हे जगणे सहजसुंदर करण्यासाठी वेगळ्या अर्थाने त्याच्या मदतीला येते ती मायाच.माया चंचल, अशाश्वत जशी तशीच वात्सल्य, प्रेम आणि मार्दवही! मायेला जेव्हा माणुसकीचा स्पर्श होतो तेव्हा ममता,जिव्हाळा,आपुलकी, आत्मीयता,ओलावा,प्रेम,स्नेह अशा विविध रंगछटा मायेला अर्थपूर्ण बनवतात.या लोभस रंगांनी रंगलेली माया माणसाचं अशाश्वत जगातलं जगणं सुसह्य तर करतेच आणि सुंदरही.ही माया  माणसाच्या जगण्याला अहम् पासून अलिप्त करीत दुसऱ्यांसाठी जगायला प्रवृत्त करते. दुसऱ्याला स्नेह,प्रेम,आनंद  देणाऱ्यालाही ती आनंदी करते. या मायेला विसरून माणूस जेव्हा ‘अहं’शी लिप्त होऊन जातो तेव्हा तो मायेच्या पैसा-अडका, धनदौलत या मायाजालात गुरफटून भरकटत जाऊ लागतो. जगण्यातला आनंदच हरवून बसतो. मायेच्या ‘मायाळू’ आणि ‘मायावी’ अशा दोन्ही परस्परविरोधी रुपांमधला फरक संतसाहित्यच आपापल्या पध्दतीने सामान्य माणसालाही समजेल असे सांगत असते. आणि मग त्याला सारासार विचार, आणि नित्यविवेक अंगी बाणवून स्वार्थाचा लोप करीत सावली देणारा परमार्थ समजून घेणे सोपे जाते. यातील ‘सारासार विचार’ म्हणजे तरी नेमके काय?

पंचमहाभूतांनी बनलेला,जड, म्हणजेच अनित्य या अर्थाने ‘देह’ हा ‘असार’,अशाश्वत आणि नित्य ते शाश्वत या अर्थाने ‘आत्मा’ हा ‘सार’! हा ‘सारासार’ विचार हीच आपल्या ठायी वसणाऱ्या अंतरात्म्यातील परमात्म्याला जाणून घेण्याची पहिली पायरी!या पायरीवरच्या आपल्या पहिल्या पाऊलातच मायेला चिकटलेला स्वार्थ अलगद गळून पडलेला असेल.

‘माया’ या शब्दाच्या वर उल्लेखित अर्थांपेक्षा वरवर अतिशय वेगळा वाटणारा आणखी एक अर्थ आहे.या अर्थाचा वरील सर्व अर्थछटांशी दुरान्वयानेही कांही सबंध नाहीय असे वाटेल कदाचित,पण हा वेगळा भासणारा अर्थही माणसाच्याच जगण्याशी नकळत आपला धागा जोडू पहातोय असे मला वाटते.

शिवताना दोरा निसटू नये म्हणून वस्त्राचा थोडा भाग बाहेर सोडला जातो त्याला ‘माया’ असेच म्हणतात. लाकडावर एका सरळ रेषेत खिळे ठोकताना लाकडाच्या फळीवरचा मोकळा ठेवला  जाणारा थोडा भाग त्यालाही ‘माया’ म्हणतात. कापड कापतानाही अशी थोडी माया सोडूनच कापले जाते.लेखन करताना कागदाच्या डाव्या बाजूला थोडी माया सोडूनच केले जाते.अशा अनेक ठिकाणी जाणिवपूर्वक सोडाव्या लागणाऱ्या जागांचा निर्देश करणारी माया! या मायेला जगताना माणसानेही ‘अहं’ पासून थोडी माया सोडून जगणंच अपेक्षित आहे याचे भान आपण कधीच विसरुन चालणार नाही !!

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares