मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ “स्पर्श” – श्री वैभव चौगुले ☆ परिचय – सुश्री सीमा पाटील (मनप्रीत) ☆

सुश्री सीमा पाटील (मनप्रीत)

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “स्पर्श” – श्री वैभव चौगुले ☆ परिचय – सुश्री सीमा पाटील (मनप्रीत) ☆ 

‘स्पर्श’ चारोळी संग्रह परीक्षण –

ताडामाडांशी गूज करताना

सागर थोडा हळवा झाला..

सखी सोबत विहार करताना

वारा थोडा अल्लड झाला..

असंच काहीसं प्रेमाच ही असतं..

कवी, गझलकार, चारोळीकार, वैभव चौगुले सरांचा ‘स्पर्श’ चारोळी संग्रह हाती पडला आणि आणि चारोळी संग्रहाच्या कव्हर पेजवर गुलाबी रंगाच्या फुलांनी सजलेल्या लांबच्या लांब वाटेवरील ते दोघे वाटसरू चारोळी संग्रहाचे ‘स्पर्श ‘ हे नाव सार्थ करून देतात हे समजून आले.

‘चारोळी’ म्हणजे चार ओळींची अर्थपूर्ण कविताच पण अतिशय मोजक्या शब्दांत आपल्या मनातील भाव वाचकांपर्यंत पोहोचवणे तसेच ते भाव वाचकांनाही आपल्या जवळचे वाटणे तितके सोपे नसते पण ‘स्पर्श’ या चारोळीसंग्रहामधील चारोळ्या वाचताना लक्षात येते की वैभव चौगुले सर हे चारोळी हा साहित्यप्रकार खूप सहज हाताळतात. त्यांच्या ‘स्पर्श’ या चारोळी संग्रहातील प्रत्येक चारोळी ही त्यांच्या संवेदनशील मनाचे दर्शन घडविल्याशिवाय रहात नाही.

तुझ्या अंगणी प्राजक्ताचा सडा पडावा

फुले वेचताना मी तुला पहावे..

शब्दसुमने मी तुझ्यावर उधळावी

अन एक गीत मी तुझ्यावर लिहावे..

सखीचे अंगण सुखाच्या क्षणांनी भरून जावे आणि ती त्या सुखाचा आस्वाद घेत असताना मी दुरूनच सखीवर सुंदर असे गीत लिहावे. वर वर साधी सरळ ही चारोळीरचना वाटत असली तरी प्रेमातील त्यागाचे सुंदर शब्दांत उदाहरण पटवून देण्याचे काम कवी वैभव चौगुले सरांच्या शब्दांतील भावनांनी केले आहे.

अतिशय तरल भावनांनी युक्त अशा या पुस्तकातील सर्वच चारोळ्या आहेत, याचा अनुभव प्रत्यक्ष चारोळ्या वाचतानाआल्याशिवाय रहात नाही.

संध्याकाळी चांदण्या अंगणात स्वतःमध्ये डोकावताना,थंड वाऱ्याची झुळूक येऊन तिने अलवार बिलगावे असेच या पुस्तकातील प्रेममय चारोळ्या वाचताना मन प्रेमऋतू ची सफर केल्याशिवाय रहात नाही.

सखी चे जिवनात आगमन होताच एक कवी मन आनंदाच्या हिंदोळ्यावर झुलत असते हे,

गंध जीवनास आज आला

रंग जीवनास आज आला

सांग सखी कोणतं हे नक्षत्र

या नक्षत्रात प्रेमऋतू बहरला

वरील शब्दांत स्वतः कविलाच हे कोणतं नक्षत्र आहे? असा प्रश्न पडावा,अतिशय सुंदर शब्दांत हे आनंदी क्षण पकडण्याचा यशस्वी प्रयत्न फक्त कवीच करू शकतो!

केलास या प्रेमाचा स्वीकार

आयुष्यभर या प्रेमाचा गुलाम होईन

या ओळीतून,प्रेम म्हणजे फक्त आनंदाची सोबतच नाही तर ती सूख दुःखातही कर्तव्यातील साथअसते.हे सांगण्याचा प्रयत्न चारोळीतील अर्थपूर्ण शब्दांनी सार्थ ठरवला आहे.
प्रेमाचा गहन अर्थ,जोडीदारा विषयीच्या हळव्या भावना, व्यवहारी समाजात वावरताना लोकांच्या स्वभावाचे येणारे गोड कडू अनुभव तसेच प्रेमातील समंजस मन,विरह तसेच कवीचे हळवं भावविश्व् याचे दर्शन पोलीस क्षेत्रात काम करत असूनही एका संवेदनशील मनाचे दर्शन वैभव चौगुले यांच्या ‘स्पर्श’ या पुस्तकातील प्रत्येक चारोळीतून झाल्याशिवाय रहात नाही.

प्रत्येक वाचकाच्या संग्रही असावा असा हा ‘स्पर्श’ चारोळीसंग्रह नव्याने चंद्रशेखर गोखलें च्या चारोळ्यांची ‘आठवसफर’ घडवून आणल्याशिवाय रहात नाही.
वैभव चौगुले सरांना त्यांच्या पुढील यशस्वी साहित्यवाटचालीस हार्दिक शुभेच्छा!

© सीमा पाटील (मनप्रीत)

कोल्हापूर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #137 ☆ ट्यूशन व तलाक़  ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख  ट्यूशन व तलाक़ . यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 137 ☆

☆ ट्यूशन व तलाक़ ☆

जो औरतें शादी के बाद मायके से ट्यूशन लेती हैं; वे औरतें तलाक़ की डिग्री ज़रूर हासिल कर लेती हैं,’ यह कथन कोटिशः सत्य है। आजकल माता-पिता, भाई-बांधवों व अन्य परिजनों के पास उनकी पल-पल की रिपोर्ट दर्ज होती है और वे ससुराल में रहते हुए भी मायके वालों के आदेशों की अनुपालना करती हैं। खाना बनाने से लेकर घर-परिवार की छोटी से छोटी बातों की ख़बर उनकी माता व परिजनों को होती है। आजकल विदाई के समय उसे यह सीख दी जाती है कि उसे वहाँ किसी से दब कर रहने की आवश्यकता नहीं है; सदा सिर उठाकर जीना। हम सब तुम्हारे साथ हैं और उन्हें दिन में तारे दिखला देंगे। वैसे भी वर के परिवारजनों को सीखचों के पीछे धकेलने में समय ही कितना लगता है। उन पर दहेज व घरेलू हिंसा का इल्ज़ाम लगाकर आसानी से निशाना साधा जा सकता है। सो! दूर-दूर के संबंधियों की प्रतिष्ठा भी अकारण दाँव पर लग जाती है और रिश्ते उनके लिए गले की फाँस बन जाते हैं।

इतना ही नहीं, अक्सर वे माता-पिता की इच्छानुसार सारी धन-दौलत व आभूषण एकत्र कर अक्सर अगले दिन ही नये शिकार की तलाश में वहाँ से रुख़्सत हो जाती हैं। जब से महिलाओं के पक्ष में नये कानून बने हैं, वे उनका दुरुपयोग कर प्रतिशोध ले रही हैं। शायद वे वर्षों से सहन कर रही गुलामी व ज़ुल्मों-सितम का प्रतिकार है। पुरुष सत्तात्मक परंपरा के प्रचलन के कारण वे सदियों से ज़ुल्मों-सितम सहन करती आ रही हैं। अब तो वे मी टू की आड़ में अपनी कुंठाओं की  रिपोर्ट दर्ज करा रही हैं। 

महिलाओं को समानता का अधिकार लम्बे समय के संघर्ष के पश्चात् प्राप्त हुआ है। इसलिए अब वे आधी ज़मीन ही नहीं; आधा आसमान भी  चाहती हैं; जिस पर पुरुष वर्ग लम्बे समय से  काबिज़ था। इसलिए वे ग़लत राहों पर चल निकली हैं। चोरी-डकैती, अपहरण आदि उनके शौक हो गए हैं तथा पैसा ऐंठने के लिए वे पुरुषों पर निशाना साधती हैं तथा उन पर अकारण दोषारोपण करना व उनके लिए सामान्य प्रचलन हो गया है। महफ़िल में शराब के पैग लगाना, सिगरेट के क़श लगाना, रेव पार्टियों में सहर्ष प्रतिभागिता करना उनके जीवन का हिस्सा बन गया है। आजकल अक्सर महिलाएं अपने माता- पिता के हाथों की कठपुतली बन इन हादसों को अंजाम दे रही हैं तथा दूसरों का घर फूंक कर तमाशा देखना उनके जीवन का शौक हो गया है।

‘गुरु बिन गति नांहि’ ऐसी महिलाओं के गुरू अक्सर उनके माता-पिता होते हैं, जो उनकी सभी शंकाओं का समाधान कर उन्हें सतत्  विनाश के पद पर अग्रसर होने की सीख देकर उनका पथ प्रशस्त करते हैं। इस प्रकार ऐसी महिलाएं जो अपने मायके की ट्यूशन लेती हैं, उन्हें तलाक़ की डिग्री अवश्य प्राप्त हो जाती है। मुझे एक ऐसी घटना का स्मरण हो रहा है, जिसमें विवाहिता ने चंद घंटे पश्चात् ही तलाक़ ले लिया। विवाह के पश्चात् प्रथम रात्रि को वह पति को छोड़कर चली गई। उसका अपराध केवल यही था कि उसने पत्नी से यह कह दिया कि ‘तुम्हारे बहुत फोन आते हैं। थोड़ी देर आराम कर लो।’ इतना सुनते ही वह अपना आपा खो बैठी और उसे खरी-खोटी सुनाते हुए भोर होने पूर्व ही पति के घर को छोड़कर चली गई।

अक्सर महिलाएं तो यह निश्चय करके ससुराल में कदम रखती हैं कि उन्हें उस घर से पैसा व ज़ेवर आदि बटोर कर वापस लौटना है और वे इसे अंजाम देकर रुख़्सत हो जाती हैं। वैसे भी  आजकल तो हर तीसरी लड़की तलाक़शुदा है। फलत: सिंगल पैरंट का प्रचलन भी बेतहाशा बढ़ रहा है और लड़के ऐसी ज़ालिम महिलाओं के हाथों से तिरस्कृत हो रहे हैं। इतना ही नहीं, वे निर्दोष अपने अभागे माता-पिता सहित कारागार में अपनी ज़िदगी के दिन गिन रहे हैं और उस ज़ुल्म की सज़ा भोग रहे हैं।

पहले माता पिता बचपन से बेटियों को यह शिक्षा देते थे कि ‘पति का घर ही उसका घर होगा और उस घर की चारदीवारी से उसकी अर्थी निकलनी चाहिए। उसे अकेले मायके में आने की स्वतंत्रता नहीं है।’ सो! तलाक़ की नौबत आती ही नहीं थी। वास्तव में तलाक़ की अवधारणा तो विदेशी है। मैरिज के पश्चात् डाइवोरस व निक़ाह के पश्चात् तलाक़ होता है। हमारे यहां तो विवाह के समय एक-दूसरे के लिए सात जन्म तक जीने- मरने की कसमें खाई जाती हैं। परंतु हमें तो पाश्चात्य की जूठन में आनंद आता है। इसलिए हमने ‘हेलो हाय’ ‘मॉम डैड’ व ‘जींस कल्चर’ को सहर्ष अपनाया है। वृद्धाश्रम पद्धति भी उनकी देन है। हमारे यहां तो पूरा विश्व एक परिवार है और ‘अतिथि देवो भव’ का बोलबाला है।

आइए! हम बच्चों को संस्कारित करें उन्हें जीवन मूल्यों का अर्थ समझाएं व ‘सत्यमेव जयते’ का पाठ पढ़ाएं। अपने घर को मंदिर समझ सहर्ष उसमें रहने का संदेश दें, ताकि कोरोना जैसी आपदाओं के आगमन पर उन्हें घर में रहना मुहाल हो। लॉकडाउन जैसी  स्थिति में वे न विचलित हों और न ही डिप्रेशन कि शिकार हों। हम भारतीय संस्कृति का गुणगान करें और बच्चों को सुसंस्कारित करें, ताकि उनकी सोच सकारात्मक हो। वे घर-परिवार की महत्ता को समझें तथा बुजुर्गों का सम्मान करें तथा उनके सान्निध्य में शांति व सुक़ून से रहें। वे अधिकतम समय मोबाइल के साथ में न बिताएं तथा घर-आंगन में दीवारें न पनपने दें। महिलाएं  ससुराल को अपना परिवार अर्थात् मायका समझें, ताकि तलाक़ की नौबत ही न आए। वे एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव से रहें, ताकि  सोलोगैमी अर्थात् सैल्फ मैरिज की आवश्यकता ही न पड़े। 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #136 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 136 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

पाती तेरी मिल गई, लिया प्रभु का नाम।

संदेशा आया सुखद, हुई निराली शाम।।

सुनती है सखियां सभी, क्या लिखते हैं श्याम।

रोम रोम पुलकित हुआ, केवल मेरा नाम।।

शब्द पाती के पढ़कर, नहीं चैन आराम।

मिलना होगा कब प्रिये, आओगे कब धाम।

पाती तुमको लिख रही, लिखती  हूं अविराम।

शब्द शब्द में है रचा, बस तेरा ही नाम।।

नेह निमंत्रण दे रहे, इसे करो स्वीकार।

आपस के संबंध में, नहीं जीत या हार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 11 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 11 ??

लोक के उदात्त भाव को विदेशी लेखकों ने भी रेखांकित किया। कुछ कथन द्रष्टव्य हैं-

“भारत मानव जाति का पालना है, मानवीय वाणी का जन्म स्थान है, इतिहास की जननी है और विभूतियों की दादी है और इन सब के ऊपर परम्पराओं की परदादी है। मानव इतिहास में हमारी सबसे कीमती और सबसे अधिक अनुदेशात्मक सामग्री का भण्डार केवल भारत में है!’

– मार्क ट्वेन (लेखक, अमेरिका)

‘यदि पृथ्वी के मुख पर कोई ऐसा स्थान है जहां जीवित मानव जाति के सभी सपनों को बेहद शुरुआती समय से आश्रय मिलता है, और जहां मनुष्य ने अपने अस्तित्व का सपना देखा, वह भारत है।!‘

– रोम्या रोलां (फ्रांसीसी विद्वान) 

‘हम सभी भारतीयों का अभिवादन करते हैं, जिन्होंने हमें गिनती करना सिखाया, जिसके बिना विज्ञान की कोई भी खोज संभव नहीं थी।!‘

– एल्बर्ट आइनस्टाइन (सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी, जर्मनी) 

‘यदि हम से पूछा जाता कि आकाश तले कौन सा मानव मन सबसे अधिक विकसित है, इसके कुछ मनचाहे उपहार क्या हैं, जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं पर सबसे अधिक गहराई से किसने विचार किया है और इसकी समाधान पाए हैं तो मैं कहूंगा इसका उत्तर है भारत।‘

– मेक्स मुलर (जर्मन विद्वान)

‘भारत ने शताब्दियों से एक लम्बे आरोहण के दौरान मानव जाति के एक चौथाई भाग पर अमिट छाप छोड़ी है। भारत के पास उसका स्थान मानवीयता की भावना को सांकेतिक रूप से दर्शाने और महान राष्ट्रों के बीच अपना स्थान बनाने का दावा करने का अधिकार है। पर्शिया से चीनी समुद्र तक साइबेरिया के बर्फीलें क्षेत्रों से जावा और बोरनियो के द्वीप समूहों तक भारत में अपनी मान्यता, अपनी कहानियां और अपनी सभ्यता का प्रचार प्रसार किया है।‘

– सिल्विया लेवी (फ्रांसीसी विद्वान) 

‘भारत ने चीन की सीमापार अपना एक भी सैनिक न भेजते हुए बीस शताब्दियों के लिए चीन को सांस्कृतिक रूप से जीता और उस पर अपना प्रभुत्व बनाया है।‘

– हु शिह (अमेरिका में चीन के पूर्व राजदूत)

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – कुतरन ☆ श्री श्याम संकत ☆

श्री श्याम संकत

(श्री श्याम संकत जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। स्वान्त: सुखाय कविता, ललित निबंध, व्यंग एवं बाल साहित्य में लेखन।  विभिन्न पत्र पत्रिकाओं व आकाशवाणी पर प्रसारण/प्रकाशन। रेखांकन व फोटोग्राफी में रुचि। आज प्रस्तुत है पर्यावरण दिवस पर आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘कुतरन।)

☆ लघुकथा –  कुतरन ☆ श्री श्याम संकत ☆ 

दो भाई-बहन थे। बहन का नाम था ‘कापी’ और भाई था ‘पेस्ट’। एक मम्मी भी रहीं, नाम था उनका ‘कट’।

सब मिल कर घर में धमाल मचाए रहते। खूब फाईल फ़ोल्डर में क्रांति करते, आज़ादी मांगते, खुदाई कर डालते। गूगल को संग ले कर भगवान जाने क्या क्या सर्वे करते रहते। कभी नया साहित्य रचते, कभी विमर्श में उलझते, कभी आलोचना में हाथ आजमाते तो कभी समीक्षक बन बैठते। कभी तो आला दर्जे के टिप्पणीकार भी बन जाते। कविता, कहानी, गज़ल, लघुकथा टाईप चीजें तो इनके बाएं हाथ का खेल थीं।

हाँ, घर में एक बाप भी था, नाम था ‘डिलीट’। ये बाप अपनी पर आ जाए तो समझो एक झटके में सब गुड़ का गोबर हुआ।

हुआ यूँ , कि एक दिन सबने मिलकर बहुत साहित्य बघारा, खटा-पटी चलती रही। सो रात पड़े टेबल के नीचे छिपे माऊस, जी हाँ वही माऊस यानि चूहा, इसका दिमाग भन्नाया तो उसने सब यानि कट, कापी, पेस्ट, डिलीट को किसी सरकारी एजेन्सी सरीखे तीखे बारीक दांतों से कुतर कुतर कर बिखेर डाला।

सुबह कामवाली बाई ने जरुर थोड़ी पें पें करी, लेकिन अब घर में शांति है।

*     *    *

© श्री श्याम संकत 

सम्पर्क: 607, DK-24 केरेट, गुजराती कालोनी, बावड़िया कलां भोपाल 462026

मोबाइल 9425113018, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #125 ☆ बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं   “बुन्देली पूर्णिका… । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 125 ☆

☆ बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा ☆

एक नओ भुनसारो हो रओ

घर-घर में बंटवारों  हो रओ

 

जब सें आई  नई दुल्हनिया

बेटा  घर सें  न्यारो हो  रओ

 

नई  पीढ़ी  के  मोड़ा-मोड़ी

अपनों सँग नबारो हो रओ

 

जाने कौन मुरहु सें फँस खें

अपनो पूत गंवारों हो  रओ

 

कबहुँ सुनें ने घर  की  भैया

पी खें वो  आबारो  हो रओ

 

को समझावे उन खों अब तो

जैसे   भूसा   चारो   हो  रओ

 

हमखों अब “संतोष” ने आबे

मों करतूतों से कारो हो रओ

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में नारी आदर्श सीता – भाग – 2 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में नारी आदर्श सीता – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

नारी जीवन को यदि विभिन्न आयामों में देखा जाय तो दो स्पष्ट आयाम हैं-(1)  बच्ची के जन्म से विवाह तक जब वह पिता के घर में बेटी के रूप में रहती है-शिक्षा पाती है, कलाओं में निपुणता पाती है, घर के कामकाज में हाथ बटा कर गृहस्थी का संजोना सवाँरना सीखती हैं। विनम्रता, विनय, शालीनता और सामाजिक शील और  मर्यादाओंं की रक्षा करना देखती और सीखती है और (2) विहाहोपरान्त जब वह पतिगृह जाती है और अपनी गृहस्थी की स्वामिनी होती है। पतिगृह में वह वधू, पत्नी, माता और गृहस्वामिनी की भूमिका निभाती है और पति तथा परिवार की देखभाल करते हुए परिजनों और पुरजनों में सम्मान की अधिकारी भी बन जाती है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम को यदि पुरुष वर्ग के लिये आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श मित्र, आदर्श शासक और आदर्श राजा के रूप में प्रस्तुत किया गया है तो तुलसी ने जगत्जननी सीता को भी विभिन्न रूपों में आदर्श एवं मर्यादित नारी के रूप में प्रस्तुत किया है जिसका यथा प्रसंग मनोज्ञ वर्णन है और भारतीय नारी के अनुकरण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण एवं मूल्यवान संकेत देता है। वास्तव में नारी का सच्चा श्रंृगार- रत्नजडि़त आभूषणों से नहीं वरन उसकी सरलता सदाचार और चरित्र से होता है। ‘त्रपागंनाया भूषणम्ïÓ विनम्रतापूर्ण संकोच, लज्जाशीलता भारतीय संभ्रान्त नारी के गुण हैं जो सीता के व्यवहार में आजीवन लक्षित होते हैं-देखिए-पिताके घर जनकपुर में वे माता-पिता की लाडि़ली और सहेलियों की प्यारी हैं- राम लक्ष्मण गुरु जी की पूजन के लिए फूल लेने पुष्प वाटिका में हैं तभी सखियों सहित सीता वहाँ गौरी पूजन हेतु मंदिर में पहुँचती हैं। सीताजी की दृष्टि श्री राम पर अकस्मात पड़ती है तब

(1)       

‘देखि रूप लोचन ललचाने-हरषे जनु निजनिधि पहिचाने

लोचन मग रामहि उर आनी-दीन्हें पलक कपाट सयानी’

प्रेम विभोर सीता से एक वाग्पटु सखी कहती है-

‘बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू, भूप किसोर देखि किन लेहू’

सीता आँखे खोलती हैं और –

नखसिख देखि राम कै सोभा-सुमिर पिता पनु मनु अति क्षोभा

तभी एक अन्य सखी कहती है-‘पुनि आउब एहि बिरियाँ काली’

तो सीता की मनोदशा देखिए-‘गूढ़गिरा सुन सिय सकुचानी’ कुछ बोली नहीं। मंदिर में जाकर पूजा करती हैं और प्रार्थना करती है- हे माता, ‘मोर मनोरथ जानहुँ नीके, बसहु सदा उरपुर सब ही केÓ तब गौरी माँ ने आशीष दिया-कैसे?- विनय प्रेमबस भई भवानी-खसीमाल मूरत मुसकानी,

सुन सिय सत्य आशीष हमारी-पूजिहि मन कामना तुम्हारी

सीता जी का राम के प्रति आकर्षण राम को पति रूप में पाने की मनोकामना देवी से प्रार्थना, सखियों का परिहास और देवी जी द्वारा सीता की मनोकामना की पूर्ति का आशीष-सब कुछ संकेतों द्वारा बड़ेमनोज्ञ वर्णन द्वारा प्रस्तुत है। विवाह के लिए एक शब्द का भी उपयोग बिना किये तुलसी दास जी ने सीता जी और उनकी सखियों के शील और मर्यादा को बनाये रख पाठकों को यह बता दिया कि सीता राम को पति रूप में पाने की चाह रखती थी और उनने यह बात देवी पूजन में देवी जी से कहकर आशीष में पा लिया। इस प्रसंग की तुलना आज के युग में टी. व्ही.  में प्रदर्शित किए जा रहे ऐसे विभिन्न प्रसंगों में किये जाने वाले डायलोग्स से कीजिए और आनंद लीजिये।

(2) सीता की शालीनता का एक अन्य सुन्दर उदाहरण विवाह मंडप में के अवसर का है-

राम को रूप निहारति जानकी कंगन के नग की परछाहीं।

या ते सबै सुधि भूल गई, कर टेक रही पल टारत नाहीं।

आदर्श पुत्री के रूप में सीता की लोक प्रियता उनके विहाहोपरान्त बिदाई के अवसर पर देखिए

(3)       

प्रेम विवस नर नारी सब, सखिन सहित रनवास,

मनहू कीन्ह विदेहपुर करुणा  विरह निवास।

पशुपक्षियों की दशा-

सुक सारिका जानकी ज्याये, जिनहिं पिंजरन्हि राखि पढ़ाये।

व्याकुल कहंहि-कहाँ वैदेही, सुन धीरज परिहरहि न केही,

जब भये व्याकुल खग मृग एहि भाँति, मनुज दशा कैसे कहि जाती।

स्वयं पिता जनक जी-

सीय विलोकत धीरता भागी, रहे कहावत परम विरागी

लीन्ह राय उर लाय जानकी, मिटी महा मरजाद ज्ञानकी॥

अयोध्या में सीता की मर्यादा, शील और आदर्श के अनेकों प्रसंग हैं, माता ने विवाह की बिदा समय जो उपदेश दिया था उसे सीता ने गाँठ में बाँध रखा था-

सास ससुर गुर सेवा करहू, पति सख लख आयसु अनुसरहू

होयेहु संतत पियहि पियारी- चिर अहिवात आशीष हमारी।

क्रमशः…

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १७ जून – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ई-अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १७ जून -संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

गोपाळ गणेश आगरकर ( १४ जुलै १८७६ – १७ जून १९९५ )

आगरकर महाराष्ट्रातील थोर विचारवंत, समाज सुधारक, पत्रकार, शिक्षणतज्ज्ञ होते.   

महाराष्ट्रात समाज जागृतीचे मोठेच काम त्यांनी केले. त्यासाठी सनातन्यांचा रोष पत्करला. सामाजिक प्रबोधनासाठी त्यांनी केसरी , सुधारक, मराठा या वर्तमानपत्रांचा आधार घेतला. सामाजिक समता, स्त्री – पुरुष समानता, विज्ञानंनिष्ठा, बुद्धीप्रामाण्य ही त्यांची जीवनमूल्ये होती. 

आगरकरयांचा जन्म सातारा जिल्हयाती टेंभू या खेड्यात झाला. घराची गरीबी असल्याने, अनेक कामे करून त्यांनी मॅट्रिकपर्यंतचे शिक्षण घेतले. पुढे महाविद्यायीन शिक्षणासाठी ते पुण्यात आले व डेक्कन कॉलेजमधे प्रवेश घेतला. १८७९ मधे एम. ए. करताना त्यांची टिळकांशी ओळख झाली.

१ जानेवारी १८८० रोजी विष्णुशास्त्री चिपळूणकर यांनी ‘न्यू इंगलीश स्कूलची’ स्थापना केली. पुढे टिळक आणि आगरकरही त्यांना जाऊन मिळाले. टिळक आणि आगरकर यांनी १८८४मध्ये डेक्कन एज्युकेशन सोसायटीची स्थापना केली. संस्थेतर्फे १८८५ मधे फर्ग्युसन कॉलेजची स्थापना केली. तिथे ते शिकवू लागले. पुढे ते कॉलेजचे प्राचार्यही झाले.  

विष्णुशास्त्री चिपळूणकर, टिळक आणि आगरकर यांनी मिळून केसरी हे वृत्तपत्र १८८१मध्ये सुरू केलं. तसेच मराठा हे वृत्तपत्र इंग्रजीतून चालू केलं. आगरकर हे ‘केसरीचे पहिले संपादक होते. पुढे टिळकांशी झालल्या वैचारिक मतभेदामुळे त्यांनी ‘केसरी’ सोडला व १८८८ मधे ‘सुधारक’  हे वृत्तपत्र सुरू केले. यातून त्यांनी सातत्याने समजा सुधारणेचा आणि परिवर्तनाचा पुरस्कार केला. बालविवाह, अस्पृश्यता, जातीव्यवस्था, चातुर्वर्ण्य, केशवपन, ग्रंथप्रमाण्य, अंधश्रद्धा, यांना त्यांनी विरोध केला. त्यांच्या विचार प्रक्रियेला विवेकाचे, बुद्धिप्रामाण्याचे अधिष्ठान होते.

त्यांचे विचार परंपरावादी सनातनी ब्राम्हणांना पटले नाहीत. त्यांनी कडवा विरोधा केला. विरोध इतका पराकोटीचा काही लोकांनी त्यांची जिवंतपणे प्रेतयात्रा काढली. मुळची नरम प्रकृती आणि सनातन्यांचा विरोध या  सगळ्याचा परिणाम असा झाला की अवघ्या ३९व्या वर्षी त्यांचे निधन झाले.

आगरकरांबद्दल टिळकांनी लिहिले आहे, ‘ देशी वर्तमानपत्रास हल्ली जर काही महत्व प्राप्त झाले असेल, तर ते बर्यानच अंशी आगरकरांच्या विद्वत्तेचे आणि मार्मिकतेचे फळ होय, यात शंका नाही.’

आगरकर यांनी लिहिलेले व त्यांच्यावर लिहिलेले साहित्य –

१.    आगरकर दर्शन – ऑडिओ पुस्तक 

२.    आगरकर वाङ्मय  – खंड १ ते३

३.    आगरकर व्यक्ती व विचार – वी.स. खांडेकर

४.    गो. ग. आगरकर – लेखक, संपादक ग. प्र. प्रधान

५.    सुधारकातील निवडक निबंध – गो. ग. आगरकर

इ. अनेक पुस्तके त्यांनी लिहिली व त्यांच्यावरही लिहिली गेली आहेत. 

सन्मान

१.    महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समीतीतर्फे ‘सुधारक’कार गो. ग. आगरकर’ या नावाचा पुरस्कार दिला जातो.

२.    महाराष्ट्र संपादक परिषद ही संस्था आदर्श पत्रकारीतेसाठी गो. ग. आगरकर’ पुरस्कार देते.   

गोपाळ गणेश आगरकर यांच्या स्मृतीप्रीत्यर्थ प्र.के.आत्रे यांनी पुण्यात आगरकर हायस्कूल ही मुलींची शाळा सुरू केली.

महाराष्ट्रात समाज सुधारणा व्हावी, म्हणून ज्यांनी तळमळीने लेखन व कार्य केले, त्या आगरकरांना त्यांच्या स्मृतीप्रीत्यर्थ शतश: वंदन ? 

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सावित्रीच्या लेकी… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सावित्रीच्या लेकी… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे☆

आम्ही सावित्रीच्या लेकी,

  जुन्या की नव्या ?

प्रश्न पडतो कधी कधी,

  कशा होत्या त्या या जगी!

 

एक पुराणातील सावित्री,

 सत्यवानाचे प्राण राखी !

दुसरी आधुनिक सावित्री,

  स्त्रियांची ती झाली सखी!

 

होत्या दोन्ही बुद्धिवान स्त्रिया,

 जपून होत्या स्वातंत्र्याला !

एकीने  जोडला  निसर्ग ,

 तर दुसरीने शिक्षणाचा वर्ग!

 

वसा बुद्धी ज्ञान चातुर्याचा ,

 सावित्री जपे सत्यवानासाठी!

वसा ज्योतीबांच्या सावित्रीचा,

 होता स्त्रियांच्या उद्धारासाठी!

 

जुन्यातील चांगले जपू,

 नाविन्याला साथ देऊ!

सावित्रीच्या उतराई होऊ,

 स्त्रीत्वाचा सन्मान करू!

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #129 – कातर वेळी…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 129 – विजय साहित्य ?

☆ कातर वेळी…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

(दशाक्षरी कविता)

नदी रंगते, कातरवेळी

रविकिरणांच्या, पायघड्या

निरोप घेई,रवी कुणाचा

अंधारतीच्या, विश्वात बड्या…!

 

तरंग हळवे, थाट बडा

पाखरझुंडी, मंथर नाद

सुरावटीला, पाखरगाणी

बघ घरट्याची, आली साद…!

 

नदी किनारी, गोड सावल्या

रती मदनाचा, रंगे खेळ

सहवासाची,मादक धुंदी

हितगुज वारा,घाली मेळ….!

 

कोणी चुकला,कोणी मुकला

युवा वयस्कर, विसावला

नदी किनारी, गोड नजारा

भिरभिरताना, सुखावला…!

 

नाही घडले, विशेष काही

तरंग उठले, सभोवती

मार्ग जाहले,जरा प्रवाही

निरोप समई मनाप्रती..!

 

कातरवेळी, चंद्र चांदणी

ओला दरवळ मनोमनी

निरोप नाही, भेट रवीची

मनपटलावर क्षणोक्षणी…!

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