हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 94 ☆ जब आवै संतोष धन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘जब आवै संतोष धन’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 94 ☆

☆ लघुकथा – जब आवै संतोष धन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

योग के एक सप्ताह के कोर्स का अंतिम दिन। गुरु जी का आदेश था कि आज सबको साथ बैठकर भोजन करना है और खाना  भी अपने घर से अपनी पसंद का ही  लाना है। सब बहुत खुश थे, ऐसा लग रहा था कि ना जाने कब से मन-  माफिक भोजन मिला ही नहीं। उसने पत्नी से अपनी मनपसंद चीजें बनवाईं। पत्नी ने छोटे- छोटे डिब्बों में बड़े करीने से अचार, चटनी, पापड़ से लेकर पति की पसंद की सब्जी, मिठाई सब चीजें रख दीं। योग की कक्षा में एक पेड़ के नीचे सबको गोलाकार बैठा दिया और कहा गया – ‘सब अपनी – अपनी थाली में अपना खाना परोस लें।‘  सबके सामने रखीं थालियां तरह – तरह के व्यंजनों से  सज गईं।  गुरु जी का आदेश हुआ – ‘ अब ये थालियां आगे बढ़ाई जाएंगी।‘  मतलब ? एक बेचैन साधक ने पूछा। गुरु जी मुस्कुराते हुए बोले – ‘अपनी थाली अपने आगेवाले व्यक्ति को देते जाइए। इस प्रकार थालियां गोलाकार तब तक घूमती रहेंगी जब तक मैं रुकने का आदेश नहीं देता।‘  हर किसी की थाली एक – दूसरे के हाथों से  होती हुई आगे बढ़ती जा रही थी। किसी की आँखें अपनी मनपसंद थाली का पीछा कर रही थीं तो कोई अनेक व्यंजनोंवाली थाली पर नजर गढ़ाए बैठा था। पर थालियाँ तो आगे ही सरकती जा रही थीं ।  थोड़ी देर बाद गुरु जी ने कहा – रुको, अब जिसके हाथ में जो थाली है उसे अपने सामने रखो और भोजन शुरू करो।

 योग की कक्षा यहीं समाप्त होती है।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 106 ☆ योग्य और उपयोगी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  योग्य और उपयोगी। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 106 ☆

☆ योग्य और उपयोगी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

चलिए इस कार्य को मैं कर देती हूँ मुस्कुराते हुए रीना ने कहा।

अरे भई प्रिंटिंग का कार्य कोई सहज नहीं होता। आपको इसके स्किल पर कार्य करना होगा। स्वयं में कोई न कोई ऐसी विशेषता हो कि लोग आपको याद करें समझाते हुए संपादक महोदय ने कहा।

मैं रचनाओं को एकत्रित करुँगी। संयोजक के रूप में मुझे शामिल कर लीजिए।

देखिए आजकल वन मैन आर्मी का जमाना है। जब हमको ऐसे लोग मिल रहे हैं तो आपके ऊपर समय क्यों व्यर्थ करें।

हाँ ये बात तो है। अब इस पर चिंतन मनन करुँगी। क्या ऐसा हम सबके साथ भी होता है। अगर होता है तो उपयोगी बनें। माना कि उपयोगिता अहंकार को बढ़ावा देती है।अपने आपको सर्वे सर्वा  समझने की भूल करते हुए व्यक्ति कब अहंकार रूपी कार में सवार होकर निकल पड़ता है पता ही नहीं चलता। अपने रुतबे के चक्कर में कड़वे वचन, झूठ की चादर, मंगल को अमंगल करने की कोशिश इसी उधेड़बुन में उलझे हुए जीवन व्यतीत होने लगता है। सब से चिल्ला कर बोलना , खुद को साहब मान कर चिल्लाने से ज्यादा प्रभाव पड़ता है। ध्वनि प्रदूषण से भले ही सामने वाला अछूता रह जाए किन्तु अड़ोसी- पड़ोसी का ध्यानाकर्षण अवश्य हो जाता है।

अपने नाम का गुणगान सुनने की लत; नशे से भी खतरनाक होती है। जिसने भी सत्य समझाने का प्रयास किया वही दुश्मन की श्रेणी में आ खड़ा होता है। उसे दूर करने की इच्छा मन में आते ही आदेश जारी करके अलग- थलग कर दिया जाता है।

बेचारे घनश्याम जी दिन भर माथा पच्ची करते रहते हैं। कोई भी ढंग का कार्य उन्हें नहीं आता बस कार्य को फैलाने के अतिरिक्त कुछ नहीं करते किन्तु अधिकारी उनके इसी गुण के कायल हैं। रायता फैलाने से ज्यादा विज्ञापन होता है। कोई बात नहीं बस नाम हमारा हो, यही इच्छा मौन साधने को बलवती करती है। अपनी खोल में बैठ कर मूक दर्शक बनें रहना और जैसे ही मौका मिला कुछ भी लिखा और पोस्टर लेकर हाजिर। हाजिर जबावी में तो तेनालीराम व बीरबाल का नाम था किंतु यहाँ तो हुजूर सब कुछ खुद करते हुए देखे जा सकते हैं।

सच कहूँ तो ऐसी व्यवस्था से ही कार्यालय चलते हैं। आपसी सामंजस्य तभी होता है जब माँग और पूर्ति बनी रहे। एक दूसरे को आगे बढ़ाते हुए चलते जाना  ही जीत का मूल मंत्र होता है।

जो कुछ करेगा उसे जीत का सेहरा अवश्य मिलेगा। बस रस्सी की तरह पत्थर पर निशान बनाने को आतुर होना पड़ेगा। हर जगह लोग कर्म के पुजारी बन रहे हैं। कुछ लगातार स्वयं को अपडेट कर रहे हैं तो कुछ भूतकाल में जीते हुए डाउनग्रेड हो रहे हैं। अब आपके ऊपर है कि आप किस तरह की जीवनशैली के आदी हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 19 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 19 ??

शिक्षा, केवल अक्षरज्ञान तक सीमित रहे तो व्यर्थ है। ‘साक्षरा’ शब्द के वर्ण उल्टे क्रम में लगाएँ तो ‘राक्षसा’ बनता है। शिक्षा को दीक्षा का साथ न मिले तो साक्षरा और राक्षसा में अंतर नहीं होता। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि न्यूक्लिअर तकनीक सीखना साक्षरता है। इस तकनीक से बम बनाकर निर्दोषों का रक्त बहाना दीक्षा का अभाव है।

शिक्षा और दीक्षा का विरोधाभास ‘ग’ से ‘गणेश’ को  हटाने की सोच में ही दृष्टिगोचर होती है। ‘श्री गणेश’ सांस्कृतिक प्रतीक हैं। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म से दूर जाना नहीं अपितु अध्यात्म सापेक्षता है। दुनिया का सबसे बड़ा सच विज्ञान है और विज्ञान का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत सापेक्षता का है। हर मत-संप्रदाय के प्रति समभाव, धर्मनिरपेक्षता है। धर्मनिरपेक्षता नास्तिक होना नहीं है, धर्मनिरपेक्षता हरेक के लिए आस्तिक होना है। बेहतर होता कि ‘ग’ से ‘गणेश’ के साथ बारहखड़ी में ‘खु’ से ‘खुदा’, ‘बु’ से ‘बुद्ध’, ‘म’ से महावीर, ‘न’ से ‘नानक’, ‘जी’ से ‘जीजस’ भी पढ़ाये जाते। विडंबना है कि छोटी त्रिज्या वाली आँखों की परिधि, शिक्षा को और छोटी करती चली गई।  अलबत्ता ताल ठोंककर खड़ा लोक अनंत त्रिज्या वाली अपनी आँखों की परिधि से दीक्षा का निरंतर विस्तार करता रहा। किसी पाखंड में पड़े बिना वह आज भी बच्चे की शिक्षा का ‘श्रीगणेश’, ‘श्री गणेश’ से ही करता है। यही लोक की दृढ़ता  है, यही लोकत्व का विस्तार है। लोक का बखान पारावार है, लोक की महिमा अपरम्पार है।

प्रकृति ही लोक है, लोक ही प्रकृति है। प्रकृति का अपना लोक है, लोक की अपनी प्रकृति है। प्रकृति की प्रकृति ही मनुज की संस्कृति है। संस्कृति और मनुज का सम्बंध आत्मा और परमात्मा का सम्बंध है, एकात्मता का सम्बंध है।  यह एकात्मता ही लोक का जीवन है, लोकजीवन है। लोकजीवन अथाह सिंधु है। इसे समझने के लिए दूर से देखने या बाहर खड़े रहने से काम नहीं चलेगा। सिंधु में उतरना होगा, इसके साथ एकात्म होना होगा।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 169 ☆ आभास दायिनी है बिजली !☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता  – आभास दायिनी है बिजली !।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 169 ☆  

? कविता  – आभास दायिनी है बिजली ! ?

शक्ति स्वरूपा, चपल चंचला, दीप्ति स्वामिनी है बिजली ,

निराकार पर सर्व व्याप्त है, आभास दायिनी है बिजली !

 

मेघ प्रिया की गगन गर्जना, क्षितिज छोर से नभ तक है,

वर्षा ॠतु में प्रबल प्रकाशित, तड़ित प्रवाहिनी है बिजली !

 

क्षण भर में ही कर उजियारा, अंधकार को विगलित करती ,

हर पल बनती, तिल तिल जलती, तीव्र गामिनी है बिजली !

 

कभी उजाला, कभी ताप तो, कभी मशीनों का ईंधन बन जाती है,

रूप बदल, सेवा में तत्पर, हर पल हाजिर है बिजली !

 

सावधान ! चोरी से इसकी, छूने से भी, दुर्घटना घट सकती है ,

मितव्ययिता से सदुपयोग हो, माँग अधिक, कम है बिजली !

 

गिरे अगर दिल पर दामिनि तो, सचमुच, बचना मुश्किल है,

प्रिये हमारी ! हम घायल हैं, कातिल हो तुम, अदा तुम्हारी है बिजली !

 

सर्वधर्म समभाव सिखाये, छुआछूत से परे तार से, घर घर जोड़े ,

एक देश है ज्यों शरीर और, तार नसों से , रक्त वाहिनी है बिजली !!

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 116 ☆ किशोर गीत – वैकुंठ शुक्ला बलिदानी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 116 ☆

☆ किशोर गीत – वैकुंठ शुक्ला बलिदानी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

भारत माँ के बेटे की तुम

सुन लो अमर कहानी।

बैकुंठ शुक्ला नाम उनका

वीर हुए बलिदानी।।

 

त्याग नौकरी शिक्षक की वह

कूद पड़े आजादी को।

सिर पर बाँध कफन मुस्काए

हुए समर्पित खादी को।

 

वैशाली में जन्म हुआ था

देशभक्त स्वाभिमानी।।

 

सविनय अवज्ञा आंदोलन में

भाग लिया बढ़ – चढ़ करके।

चंद्रशेखर से हुए प्रभावित

संघर्ष किया था डट के।।

 

अंग्रेजों को खूब छकाया

सच्चे हिंदुस्तानी।।

 

योगेंद्र शुक्ल उनके चाचा

थे सुभाष के सहपाठी।

 हष्ट – पुष्ट थे अति फुर्तीले,

थी बलशाली कदकाठी।।

 

जीवन किया समर्पित माँ को,

झोंकी पूर्ण जवानी।।

 

धर्मपत्नी राधिका जी भी

बनीं साथ में पथगामी।

कठिन पथों से जब वह गुजरे

रहीं रात-दिन अनुगामी।।

 

चौदह मई फाँसी पर झूले

साक्ष्य ‘गया’ निशानी।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #117 – बालकथा – जबान की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय बालकथा –  “जबान की आत्मकथा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 117 ☆

☆ बालकथा – जबान की आत्मकथा ☆ 

” आप मुझे जानते हो?” जबान ने कहा तो बेक्टो ने ‘नहीं’ में सिर हिला दिया. तब जबान ने कहा कि मैं एक मांसपेशी हूं.

बेक्टो चकित हुआ. बोला, ” तुम एक मांसपेशी हो. मैं तो तुम्हें जबान समझ बैठा था.” 

इस पर जबान ने कहा, ” यह नाम तो आप लोगों का दिया हुआ है. मैं तो आप के शरीर की 600 मांसपेशियों में से एक मांसपेशी हूं. यह बात और है कि मैं सब से मजबूत मांसपेशी हूं. जैसा आप जानते हो कि मैं एक सिरे पर जुड़ी होती हूं. बाकी सिरे स्वतंत्र रहते हैं.”

जबान में बताना जारी रखो- मैं कई काम करती हूं. बोलना मेरा मुख्य काम है. मेरे बिना आप बोल नहीं सकते हो. अच्छा बोलती हूं. सब को मीठा लगता है. बुरा बोलती हूं. सब को बुरा लगता है. इस वजह से लोग प्रसन्न होते हैं. कुछ लोग बुरा सुन कर नाराज हो जाते हैं.

मैं खाना खाने का मुख्य काम करती हूं. खाना दांत चबाते हैं. मगर उन्हें इधरउधर हिलानेडूलाने का काम मैं ही करती हूं. यदि मैं नहीं रहूं तो तुम ठीक से खाना चबा नहीं पाओ. मैं इधरउधर खाना हिला कर उसे पीसने में मदद करती हूं.

मेरी वजह से खाना स्वादिष्ट लगता है. मेरे अंदर कई स्वाद ग्रथियां होती है. ये खाने से स्वाद ग्रहण करती है. उन्हें मस्तिष्क तक पहुंचाती है. इस से ही आप को पता चलता है की खाने का स्वाद कैसा होता है?

जब शरीर में पानी की कमी होती है तो मेरे द्वारा आप को पता चलता है. आप को प्यास लग रही है. कई डॉक्टर मुझे देख कर कई बीमारियों का पता लगाते हैं. इसलिए जब आप बीमार होते हो तो डॉक्टर मुंह खोलने को कहते हैं. ताकि मुझे देख सकें.

मैं दांतों की साफसफाई भी करती हूं. दांत में कुछ खाना फंस जाता है तब मुझे सब से पहले मालूम पड़ता है. मैं अपने खुरदुरेपन से दांत को रगड़ती रहती हूं. इस से दांत की गंदगी साफ होती रहती है. मुंह में दांतों के बीच फंसा खाना मेरी वजह से बाहर आता है.

मेरे नीचे एक लार ग्रंथि होती है. इस से लार निकलती रहती है. यह लार खाने को लसलसा यानी पानीदार बनाने का काम करती है. इसी की वजह से दांत को खाना पीसने में मदद मिलती है. मुंह में पानी आना- यह मुहावरा इसी वजह से बना है. जब अच्छी चीज देखते हो मेरे मुंह में पानी आ जाता है.

कहते हैं जबान लपलपा रही है. या जबान चटोरी हो गई. जब अच्छी चीजें देखते हैं तो जबान होंठ पर फिरने लगती है. इसे ही जबान चटोरी होना कहते हैं. इसी से पता चलता है कि आप कुछ खाने की इच्छा रखते हैं.

यदि जबान न हो तो इनसान के स्वाभाव का पता नहीं चलता है. वह किस स्वभाव का है? इसलिए कहते हैं कि बोलने से ही इनसान की पहचान होती है. यदि वह मीठा बोलता है तो अच्छा व्यक्ति है. यदि कड़वा या बेकार बोलता है तो खराब व्यक्ति है. 

यह सब कार्य मस्तिष्क करवाता है. मगर, बदनाम मैं होती हूं. मन कुछ सोचता है. उसी के अनुसार मैं बोल देती हूं. इस कारण मैं बदनाम होती हूं. मेरा इस में कोई दोष नहीं होता है. 

जबान इतना बोल रही थी कि तभी बेक्टो जाग गया. जबान का बोलना बंद हो गया. 

‘ओह! यह सपना था.’ बेक्टो ने सोचा और आंख मल कर उठ बैठा. उसे पढ़ कर स्कूल जाना था. मगर उस ने आज बहुत अच्छा सपना देखा था. वह जबान से अपनी आत्मकथा सुन रहा था. इसलिए वह बहुत प्रसन्न था.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28/03/2019

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में तुलसी के अनुपम उपदेश – भाग – 2॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में तुलसी के अनुपम उपदेश – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

मानस में राम कहते हैं-

शंकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही मम दास।

सो नर करहिं कलप भरि घोर नरक महँ बास॥

सीताजी को शक्ति का अवतार बताकर शक्ति की महत्ता प्रतिपादित की है-

श्रुति सेतु पालक राम तुम जगदीश, माया जानकी

जो सृजति पालति हरति नित रुख पाई कृपा निधान की॥

शंकर जी भगवान राम का सदा ध्यान करते हैं। इससे भगवान राम और शंकर में अर्थात् वैष्णव और शैव मतों में कोई भेद नहीं है।

शिव जी कहते हैं-

उमा जे राम चरणरत, विगत काम मद क्रोध।

निज प्रभुमय देखेहिं  जगत केहिसन करहिं विरोध॥

प्रभु के साकार और निराकार रूपों के विषय में भी तुलसी की समन्वयकारी दृष्टि है-

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा, गावहिं मुनि पुरान बुधि वेदा।

अगुन सगुन दुई ब्रह्म-स्वरूपा, अकथ अनादि अगाध अनूपा॥

पार्वती जी ने शंकर जी से पूछा-

जो गुनरहित सगुन सोई कैसे?

शिवजी ने समझाया-

जल हिम उपल विलग नहिं जैसे।

अगुन, अरूप, अलख अज जोई, भगत प्रेमबस सगुन सो होई॥

राम को भक्त का प्रेम प्रिय है। बिना हृदय के अनुराग के वे प्रकट नहीं होते-

रामहि केवल प्रेम पियारा, जानि लेहु जो जानन हारा।

मिलहि न रघुपति बिनु अनुरागा, किये जोग, जप ध्यान विरागा।

कहा है-

हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होहि भगवाना।

जाके हृदय भगति जस प्रीति, प्रभु तहँ प्रकट सदा यह रीति॥

क्रमशः… 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ३० जून – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ ३० जून – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

बाळ कोल्हटकर

बाळकृष्ण हरी ऊर्फ बाळ कोल्हटकर (25 सप्टेंबर 1926 – 30 जून 1994)हे नाटककार, कवी, अभिनेते व नाट्यदिग्दर्शक होते.

त्यांचा जन्म साताऱ्याला झाला. आर्थिक ओढाताणीमुळे त्यांचे शिक्षण सातव्या इयत्तेपर्यंतच झाले होते.

सुरुवातीला काही वर्षे त्यांनी रेल्वेत नोकरी केली. पेशाच्या बाबतीत त्यांच्या आयुष्यात बरेच चढउतार आले.

वयाच्या पंधराव्या वर्षी त्यांनी ‘जोहार’ हे पहिले नाटक लिहिले.

तीन दशकांच्या साहित्यिक कारकिर्दीत त्यांनी 30हून अधिक नाटके लिहिली.

त्यापैकी ‘दुरितांचे तिमिर जावो’, ‘वाहतो ही दुर्वांची जुडी’, ‘मुंबईची माणसे’, ‘एखाद्याचे नशीब’इत्यादी नाटकांचे हजारांहून अधिक प्रयोग झाले.

‘देव दीनाघरी धावला’, ‘वेगळं व्हायचंय मला’ वगैरे नाटकेही खूप गाजली.

त्यांची नाटके भावनाप्रधान, कौटुंबिक  व मूल्ये जपणारी असत.

त्यांचे संवाद चुरचुरीत व त्यांच्या शब्दप्रभुत्वाची साक्ष देणारे असत.

त्यांचं आणखी एक वैशिष्ट्य म्हणजे ‘एखाद्याचं नशीब’ व ‘आकाशगंगा’ यासारखी काही नाटके सोडली, तर त्यांच्या बहुतेक नाटकांची शीर्षके नऊ अक्षरी होती.

कोल्हटकर उत्तम कवीही होते.’आई, तुझी आठवण येते’, ‘निघाले आज तिकडच्या घरी’, ‘ऋणानुबंधाच्या जिथून पडल्या गाठी’, ‘उठी उठी गोपाळा ‘ व अशी त्यांनी लिहिलेली बरीच गीते अजूनही लोकप्रिय  आहेत.

अशा या भाषाप्रभूला त्यांच्या स्मृतिदिनी विनम्र अभिवादन. 🙏

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सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना, कऱ्हाड शताब्दी दैनंदिनी, विकिपीडिया 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वारी… ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वारी….☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

ही पाऊले चालली , झपझपा पंढरीला

माय माऊली विठूला उराउरी भेटायला —

 

कुठे बरसे ही आग , तप्त सारे चराचर

कुठे फाटले आभाळ , सांडे सरीवर सर —-

मैलामागून हे मैल , मागे पडती या वाटा

कुठे येई आडवा नि , दांडगा हा घाटमाथा —-

 

तमा नाहीच कशाची , एक आस पंढरीची

मग पहाता पहाता , फुले होती ही काट्यांची —-

चंद्रभागा अवखळ , वाट पहाते काठाशी

तिची प्रेमळ ती भेट , वाहून जाती पापराशी —-

 

आता डोळ्यांमध्ये सारे प्राण जाहले हे गोळा

विश्व सारे पडे मागे , उरे विठूचाच लळा —

रूप साजिरे गोजिरे मन भरून पहाता

वाटे नको दुजे काही , पायांवाचून या आता —–

 

परब्रह्म हे भेटता , मोहोरले अंग अंग

चोहीकडे भरुनी राहे – पांडुरंग पांडुरंग—-

पांडुरंग — पांडुरंग—–

© सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #115 – शब्द…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 115 – शब्द…! ☆

मनाच्या खोल तळाशी

शब्दांची कुजबुज होते…

कागदावर अलगद तेव्हा

जन्मास कविता येते…!

 

शब्दांचे नाव तिला अन्

शब्दांचे घरकुल बनते..

त्या इवल्या कवितेसाठी

शब्दांनी अंगण फुलते…!

 

शब्दांचा श्वास ही होते

शब्दांची ऒळख बनते..

ती कविताच असते केवळ

जी शब्दांसाठी जगते…!

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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