मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ साहेब, ही बाई हरवली आहे… ☆ प्रस्तुती – सौ. मेधा सहस्रबुद्धे ☆

? वाचताना वेचलेले ?

☆ साहेब, ही बाई हरवली आहे… ☆ प्रस्तुती – सौ. मेधा सहस्रबुद्धे ☆ 

काय चेष्टा करता ताई,

हा फोटो तुमचाच आहे,

वीस वर्षांपूर्वीचा.

 

हो साहेब

वीस वर्षांत मीच हरवले आहे.

 

नात्यांच्या घोळक्यात

मुलांच्या गलक्यात

सासरच्या धाकात

अखंड स्वयंपाकात

 मी हरवले आहे

 

स्वत:च्या घरात

प्रपंचाच्या चाकात

प्रेमहीन संसारात

वासनेच्या अंधारात

मी हरवले आहे

 

मृगजळाच्या फंदात

हव्यासाच्या नादात

सुखाच्या शोधात

नशिबाच्या सौंद्यात

मी हरवले आहे

 

नवऱ्याच्या मर्जीत

मागण्यांच्या गर्दीत

अपेक्षांच्या झुंडीत

उपेक्षेच्या गंजीत

मी हरवले आहे

 

साहेब

ती सागरगोटे खेळणारी मुलगी शोधा

ती स्वप्न पाहणारी मुग्धा शोधा

ते उगाचच फुटणारे हास्य शोधा

ती हृदयाची धडधड

ती पापण्यांची फडफड

ती अर्थहीन बडबड

कुठे गेली शोधून काढा साहेब

 

ती शृंगाराची ओढ शोधा

ती समर्पणाची उर्मी शोधा

तो स्वच्छंद पक्षी

निळ्या नभावरील केशरी नक्षी

सात पावलांची अग्निसाक्षी

कुठे गेली ते शोधून काढा साहेब?

 

🌺 (Forwarded)

 

संग्रहिका – सौ. मेधा सहस्रबुद्धे

पुणे

मो  9420861468

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – सूर संपन्न – ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे ☆

सुश्री उषा जनार्दन ढगे

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – सूर संपन्न –  ? ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे 

सप्तसूरांच्या छटा घेऊनी

अवतरला स्वर्गदूत भूवरी

खोल आनंदाच्या डोहात

हर्षतरंगच उमटवी अंतरी..

वाद्यातूनी झंकारिती तारा

दृढ भावनाविष्कार अवतरे

साकारूनी स्वर-लहरींतूनी

गंधर्व हस्तमुद्रित नाद स्वरे..

गीतसूरांतुनी चैतन्य आत्म्यास

दूर मनांतले विषण्ण ते काहूर

कोमल रिषभ धैवत निषाद

व्यक्त करिती अनामिक हूरहूर..

राग स्वर शब्द सूर नि ताल

बध्द रचनेची किती आवर्तने

अथांग महासागर संगीताचा

तृप्त कर्ण मुग्धमधुर झलकीने..!

चित्र साभार – सुश्री उषा जनार्दन ढगे 

© सुश्री उषा जनार्दन ढगे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ कठपुतली… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कठपुतली… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

मैं जड़ की जड़। वहीं की वहीं खड़ी रह गयी थी। लगा जैसे कोई प्रतिमा बनने का शाप दे दिया हो मुझे। क्या जो सुना वह वही था? जो सुना वह किसी नाटक का संवाद तो नहीं था। वह तो जिंदगी के किसी खास पल की गूंज थी।

-यहां मैं डायरेक्टर हूं और मैं ही हीरो। यह नाटक मेरे दम पर है। इस खेल तमाशे का दारोमदार मुझ पर है, तुम पर नहीं। समझीं।

पहली बार जैसे होश में आई और फिर जड़ की जड़ रह गयी। पहली बार सुनीं  नेपथ्य में अपनी छोटी सी बच्ची के रोने की आवाज़। पहली बार सुनी अपने पति की बात-इन नाटकों में कुछ नहीं रखा। जिंदगी देखो अपनी। नाटकों की झूठी शोहरत से बच्चे नहीं पल सकते। गृहस्थी नहीं चल सकती। लौट आओ।  लौट आओ।

सच। क्या मेरा पति ही सच कह रहा था? मैं उसे लगातार अनसुना करती थी और उसकी सज़ा आज पाई? क्या मैं नाटक में कुछ भी नहीं थी? क्या नाटक मेरे दम पर नहीं था? क्या नाटक में मेरा कोई मतलब नहीं था? मैं थी भी और नहीं भी? यानी मैं होकर भी नहीं थी? मेरी कोई जरूरत नहीं थी? मेरा होना कोई मायने नहीं रखता था? मेरे होने या न होने का कोई फर्क नहीं था। पर मुझे तो था। फिर मैं क्यों इनके साथ चलती रहूं?

वह सभागार जिसमें उस शाम हमारा शो होने वाला था पता नहीं कैसे मैंने वह पूरा किया। बाकी कांट्रैक्ट भी पूरे किए। फिर लौट आई अपने घर। कुछ दिन जैसे समझ ही नहीं आया कि मेरे साथ यह हुआ क्या? जिसके साथ मैंने शहर दर शहर की खाक छान कर नाटक मंडली को खड़ा किया, जमाया, वही कह गया बड़ी आसानी से -तुम्हें ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं। यह नाटक मंडली चलती रहेगी क्योंकि मैं ही हूं इसका निर्देशक और नायक। जैसे कह रहे हों मैं ही हूं खलनायक भी।

-मैं कुछ भी नहीं?

-भ्रम में जीना हो तो जी लो। तुम कुछ नहीं।

यह क्या सुना था मैंने? क्या यही सुना  था मैंने?

-ठीक है। मैं कुछ नहीं तो अब से और आज से नहीं रहूंगी आपके साथ।

-मत रहो। चला लूंगा तुम्हारे बगैर। नाटक बंद नहीं हो जायेगा। जाओ।

-चली जाऊंगी। मैं पैसे के लिए नहीं आई थी आपके साथ। रंगकर्म के लिए आई थी। वह आपके बगैर भी हो सकता है। यह मैं भी साबित कर दूंगी। चैलेंज एक्सेप्टिड।

एक नारी जागी थी जैसे मूर्छा से। कितनी लम्बी मूर्छा रही। कितने बरस की मूर्छा रही।

खुद ही ऑफर दिया था। आप हमारे साथ आओ न। मैंने हिम्मत जुटाई। परिवार से लड़ी। सब कुछ सुना जो एक ब्याहता नहीं सुन सकती। सब सहा। पर नाटक मेरा जुनून बन गया। यहां से वहां। वहां से यहां। शहर दर शहर। देस ही नहीं परदेस। नाम। शोहरत। पर पैसा नहीं लिया एक भी। सिर्फ समर्पण। दिया ही दिया। कास्ट्यूम भी अपने खर्च पर। पर मिला क्या?

-जाओ। वहम में न जीओ। यह,,,बस यही सुनना था।

-तो सुनो। मैं भी आपके दम पर नहीं। अपने दम पर आई थी मंच पर। अपने दम पर लौट कर दिखा दूंगी। यह चैलेंज स्वीकार।

वह लौट आई। वही सारे कास्ट्यूम लेने घर भेज दिए जूनियर आर्टिस्ट जो मेरे ही पैसों से बने थे। मैंने चुपचाप सब सौंप दिए। ले जाओ। खुद बनवा लूंगी। अरे। आप साथ नहीं होंगे तो क्या मंच पर नहीं जाऊंगी? देखना एक दिन। इस तरह हमारे रास्ते अलग अलग हो गये थे। एक एक शहर में, एक ही संस्थान में हम अजनबी बन कर रह गये थे।

अंदर एक ज्वालामुखी धधकता रहता। कुछ कर दिखाना है। कुछ कर गुजरना है। इस कर गुजरने की गूंज मन में गूंजती रहती। सवाल यह भी कि नारी की कोई भूमिका नहीं? क्या कला की दुनिया में नारी सिर्फ शोभा की वस्तु है? नारी को इतना ही सम्मान है कि हमारी मर्जी से चलो। फिर वह चाहे कला हो या परिवार या समाज? सब एक ही डंडे से हांकते हैं  नारी को या नारी के लिए एक ही डंडा है या पैमाना है? कहीं कोई बदलाव नहीं? यह कैसा सशक्तिकरण? कैसा स्त्री विमर्श? नारी तो वहीं की वहीं। जस की तस।

फिर एक आइडिया आया। जैसे मैं कठपुतली बनी रही, क्या मैं कठपुतलियों के साथ नाटक नहीं कर सकती? पर कठपुतली तो कभी नचाई ही नहीं। खुद कठपुतली बन कर नाचती रही। फिर क्यों न पुरूष पात्रों का काम कठपुतलियों से लिया जाये? सही भी है। पुरूष को बता सकूं कि मैं नहीं। तुम कठपुतली हो। बस। सीखना शुरू किया। कठपुतली को नचाना। अपनी उंगलियों पर। मेरी बच्ची खुश थी । उसके चेहरे की मुस्कान मेरी जीत थी। मैं घर तो नहीं लौटी पर घर और नाटक के बीच संतुलन बनाना सीख गयी। आज मेरा कठपुतली शो था और मेरा पति सबसे आगे बैठा तालियां बजा रहा था। यह मेरी मंजिल थी।

©  श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #142 – ग़ज़ल-28 – “तुम महज़ मूक दर्शक हो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “तुम महज़ मूक दर्शक हो …”)

? ग़ज़ल # 28 – “तुम महज़ मूक दर्शक हो …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

तारीफ़ों के पुल तले मतलब की नदी बहती है,

मैं नहीं कहता पकी उम्र की समझ कहती है।

 

तेज़ी से बढ़ेगा विश्वगुरु का दावेदार यह देश,

धर्म की नशीली जनता  ख़्यालों में रहती है।

 

चर्च-क़िले मीनार-मेहराब मंदिर-दरबार सजे हैं,

पोप-किंग मुल्ला-मेहरबान की ज़ेब भरती है।

 

राजनीति और धर्म गलबैयां डाल कर चलते हैं,

इतिहास की पुरानी तस्वीर यही सच कहती है।

 

दिमाग़ का ज़ायक़ा बदला लच्छेदार लहजों ने,

कुतर्क समझो जुबाँ पर नफ़ीस पैरहन रहती है।

 

आज नहीं कल सुधर जाएँगे हमारे कर्णधार,

मजबूर तर्क की विवश लाचारी यह कहती है।

 

नेता का दिमाग़ पहुँच रहा सातवें आसमान पर,

नहीं कोई विकल्प इसीलिए महँगाई सहती है।

 

तुम महज़ मूक दर्शक हो हुजूम में ‘आतिश’,

क़ीमत समझदार वोट की महज़ एक रहती है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – प्रतीक्षा ??

परिस्थितियाँ जितना तपाती गईं ,

उतना बढ़ता गया क्वथनांक* मेरा..,

अब आग के इतिहास में दर्ज़ है,

मेरे प्रह्लाद होने का किस्सा..!

(*क्वथनांक- बॉइलिंग पॉइंट)

© संजय भारद्वाज

श्रीविजयादशमी 2019, अपराह्न 4.27 बजे।

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ग़ज़ल – यह बंदिशें लगा रखी मुस्कराने पर…☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना यह बंदिशें लगा रखी मुस्कराने पर)

☆ ग़ज़ल – यह बंदिशें लगा रखी मुस्कराने पर… ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

हर किसी को अपना बना लीजिए।

हर फांसला अब मिटा लीजिए।।

[2]

दूर करलो अब नफरत की लकीरें।

प्यार खुदा बात यह जता लीजिए।।

[3]

अच्छी बात हीआये दिल के अंदर।

हरबात में खुशी का मज़ा लीजिए।।

[4]

ऊपरवाले ने जिंदगी दी अनमोल है।

इस मौके का जरा नफा लीजिए।।

[5]

यह बंदिशें लगा रखी मुस्कराने पर।

आप इनसे दूर अब दफा लीजिए।।

[6]

रखो बना केअपना सबको दुनिया में।

सबके दिल की दुआ वफ़ा लीजिए।।

[7]

हंस चार दिन की चांदनी यह जिंदगी।

क्यों किसीकी दिल से खफ़ा लीजिए।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 81 ☆ गजल – ’’यहाँ आदमी-आदमी जब बनेगा…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “यहाँ आदमी-आदमी जब बनेगा…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 81 ☆ गजल – यहाँ आदमी-आदमी जब बनेगा…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मोहब्बत से नफरत की जब मात होगी,

तो दुनिया में सचमुच बड़ी बात होगी।

 

यहाँ आदमी-आदमी जब बनेगा,

तभी दिल से दिल की सही बात होगी।

 

हरेक घर में खुशियों की होंगी बहारें,

कहीं भी न आँसू की बरसात होगी।

 

चमक होगी आँखों में, मुस्कान मुंह पै,

सजी मन में सपनों की बारात होगी।

 

सुस्वागत हो सबके सजे होंगे आँगन,

सुनहरी सुबह, रूपहली रात होगी।

 

न होगा कोई मैल मन में किसी के,

जहाँ पे ये अनमोल सौगात होगी।

 

सभी मजहब आपस में मिल के रहेंगे,

नई जिंदगी की शुरूआत होगी।           

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 90 – स्वधर्म ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #90 🌻 स्वधर्म 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक साधु गंगा में स्नान कर रहे थे. गंगा की धारा में बहता हुआ एक बिच्छू चला जा रहा था. वह पानी की तेज धारा से बच निकलने की जद्दोजहद में था. साधु ने उसे पकड़ कर बाहर करने की कोशिश की, मगर बिच्छू ने साधु की उँगली पर डंक मार दिया. ऐसा कई बार हुआ.

पास ही एक व्यक्ति यह सब देख रहा था. उससे रहा नहीं गया तो उसने साधु से कहा “महाराज, हर बार आप इसे बचाने के लिए पकड़ते हैं और हर बार यह आपको डंक मारता है. फिर भी आप इसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं. इसे बह जाने क्यों नहीं देते”

साधु ने जवाब दिया “ डंक मारना बिच्छू की प्रकृति और उसका स्वधर्म है. यदि यह अपनी प्रकृति नहीं बदल सकता तो मैं अपनी प्रकृति क्यों बदलूं?  दरअसल इसने आज मुझे अपने स्वधर्म को और अधिक दृढ़ निश्चय से निभाने को सिखाया है”

“आपके आसपास के लोग आप पर डंक मारें, तब भी आप अपनी सहृदयता न छोड़ें “

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (51 – 55) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

सोता जगता था नृपति सदा नियम अनुसार।

ज्ञात थी कण कण की खबर और दूत-संचार।।51।।

 

गज भय से न, स्वभाव वश गुफा में सोता सिंह।

अरि अवरोधी दुर्ग त्यों थे उसके दुर्लध्य।।52।।

 

जनहित कारी कार्य सब थे उसके फलदायी।

जैसे धान में आप चुप चावल बढ़ते जाँये।।53।।

 

जैसे जलधि समृद्धि पा, नदी मुख में ही जाय।

तैसे कभी कुमार्ग में उसने रखे न पाँव।।54।।

 

क्रोध शमन हित, सबल भी हो, किये शांत उपाय।                   

लगा दाग धोये से भी क्योंकि न धोया जाय।।55।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १४ मे – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १४ मे -संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

पां. वा. काणे

भारतरत्न महामहोपाध्याय पांडुरंग वामन काणे यांचा जन्म १८८० साली कोकणातील चिपळूण तालुक्यातील पेढे परशुराम इथे झाला. त्यांचं घराणंच वेदशास्त्र पारंगत आणि विद्वत्तेची मोठी परंपरा असलेलं होतं. ते कायदे पंडीत होते, त्याचप्रमाणे धर्मशास्त्राचे मोठे अभ्यासक होते. त्यांचं शिक्षण एम. ए. एल.एल. एम. इतकं झालं. त्यांना मराठी, हिन्दी, इंग्रजी, सस्कृत, जर्मन, फ्रेंच इ. भाषा अवगत होत्या. १९४७ ते १९४९ ते मुंबई विद्यापीठाचे कुलगुरू होते. ब्रिटीशांनी आपली सत्ता इथे बळकट करताना, इथली संस्कृती, विद्या, प्रथा, समाज इ. ची कुचेष्टा सुरू केली. काणे यामुळे व्यथित झाले. त्यांनी १९२६ साली व्यवहारमयूख हा ग्रंथ प्रसिद्ध केला. त्यावेळी केलेला अभ्यास, जमवलेली कागदपत्रे व अन्य साधने, आजवरचे धर्माचे आणि कायद्याचे ज्ञान आशा भक्कम तयारीनिशी त्यांनी ’ भारतीय धर्मशास्त्राचा इतिहास ‘ हा ग्रंथ लिहिण्यास सुरुवात केली. त्यांनी हा इतिहास इंग्रजीत लिहिला. त्याचे ५ खंड आहेत. सुमारे ७००० पाने त्यांनी या संदर्भात लिहिली. हा इतिहास आजही जागतिक पातळीवर अचूक व प्रमाण मानला जातो. 

पां. वा. काणे यांची ग्रंथसंपदा –

प्राचीन संस्कृत वाङ्मयाचा अभ्यास आणि सामाजिक अभिसरण या 2 अगदी वेगळ्या वाटणार्या् गोष्टींमधून  त्यांनी धर्मशास्त्राचा पंचखंडात्मक इतिहास’ या नावाचा ग्रंथ सिद्ध केला. १९४१ साली प्राच्यविद्येवर ग्रंथ लिहिला. ‘भारतरामायणकालीन समजस्थिती (१९११), धर्मशास्त्राचा विचार (१९३५), हिस्टरी ऑफ संस्कृत पोएटिक्स हेही त्यांचे महत्वाचे ग्रंथ. प्राचीन भाषा, वाङ्मय, कावी, महाकाव्य, अलंकारशास्त्र, यांचे प्रेम आणि कायदेविषयक जाण, तार्किक मांडणी, प्रथा आणि परंपरा यांची कालानुरूप अर्थ लावण्याची क्षमता या आणि आशा अनेक पैलूंचे विस्मयकारी मिश्रण त्यांच्या लेखनात झाले आहे. खगोल विद्या, सांख्य, योग,  तंत्र, पुराणे आणि मीमांसा यांचा सखोल अभ्यास करून त्यावर त्यांनी भाष्य लिहिले.

प्राचीन ज्योतिषशास्त्र,  खगोल विद्या, योगशास्त्र, पुराणे, टीका आणि मीमांसा, सांख्य तत्वज्ञान , महाराष्ट्राचा संस्कृतिक इतिहास, कौटिल्याचे अर्थशास्त्र, गणित, मराठी भाषेचा सर्वांगीण अभ्यास , नाट्यशास्त्र अशा असंख्य विषयांवर त्यांनी सुमारे ४० ग्रंथ, ११५ लेख , ४४ पुस्तक परिचय / परीक्षणे लिहिली यावरून त्यांच्या ज्ञानाचा आवाका केवढा विस्तारीत होता, हे लक्षात येते.

सन्मान आणि गौरव

१ पां. वा. काणे यांना १९४६ साली अलाहाबाद विद्यापीठाने , तर ६० साली पुणे विद्यापीठाने सन्माननीय डॉक्टरेट पदवी बहाल केली होती.

२. धर्मशास्त्राचा इतिहास मराठीत लिहून काढला, त्याबद्दल १९५२ साली त्यांना नॅशनल प्रोफेसर हा पुरस्कार मिळाला.

३. राष्ट्रपतींनी त्यांना राज्यसभेचे खासदार म्हणून निवडले.

४. १९६३साली त्यांना भारतरत्न पुरस्कार मिळाला.

५. ‘हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र या ग्रंथाच्या ५ खंडांपैकी ४थ्या खंडाला साहित्य अॅहकॅडमीचा पुरस्कार  १९६५ मध्ये मिळाला.

६. त्यांच्यावर टपाल तिकीट काढले गेले. त्यांच्या ५०व्या स्मृतिदिनानिमित्त, राजभवन – महाराष्ट्र  इथे महाराष्ट्राचे राज्यपाल भागतसिंह कोश्यारी यांच्या हस्ते त्या टपाल तिकीटाचे प्रकाशन झाले.

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

कवी अनिल

आत्माराम रावजी देशपांडे म्हणजेच कवी अनिल  यांचा जन्म ११सप्टेंबर १९०१ मध्ये मूर्तीजापूर इथे झाला. शालेय शिक्षण मूर्तीजापूर इथे झाल्यावर पुढील शिक्षणासाठी ते पुण्याला फर्ग्युसन कॉलेजमध्ये आले. तिथे त्यांचा कुसुम जयवंत यांच्याशी परिचय झाला. त्याचे रूपांतर प्रेमात आणि प्रेमाची परिणिती विवाहात झाली. ६ ऑक्टोबर १९२९ला त्यांचा विवाह झाला. कुसुमावती स्वत:ही चांगल्या साहित्यिक होत्या. समीक्षक म्हणून त्या पुढे प्रसिद्ध झाल्या. त्यांचा कॉलेजमध्ये असताना झालेला पत्रव्यवहार पुढे ‘कुसुमानिल’ नावाने, त्या मानाने अलीकडे प्रकाशित झालेला आहे. त्यात अनिलांनी सुरूवातीला केलेल्या अनेक कविता वाचायला मिळतात. 

पदवी मिळाल्यावर भारतीय कलांचा अभ्यास करण्यासाठी ते कलकत्त्याला गेले. तिथे अवनिंद्रनाथ व नंदलाल बसू यांचे त्यांना मार्गदर्शन मिळाले. विधी शाखेची पदवी घेऊन त्यांनी ३५ साली वकिली सुरू केली. ४८ साली मध्य प्रदेश सरकारतर्फे, सामाजिक शिक्षण संस्थेचे उप मुख्याधिकारी म्हणून त्यांची नेमणूक करण्यात आली. ५६ साली दिल्लीच्या राष्ट्रीय मूलभूत शिक्षण केंद्राच्या मुख्याधिकारी पदावर व पुढे ६१ साली समाज शिक्षण मंडळाच्या सल्लागार पदावर त्याची नेमणूक झाली.

१९७९ साली त्यांना साहित्य अकॅडमीची फेलोशिप मिळाली.

कवी अनिल यांचे काव्यसंग्रह

१.  फुलवात – १९३२,  २. भग्नमूर्ती ( दीर्घ काव्य ) – १९३५, ३. निर्वासित चिनी मुलास      ( दीर्घ काव्य ) – १९४३  ४. पेर्ते व्हा – १९४७, ५. सांगाती – १९६१,  ६. दशपदी १९७६ ७. कवी अनिल यांची संपूर्ण कविता ( संपादक श्याम माधव धोंड). या पुस्तकाला विदर्भ साहित्य संघाचा उत्कृष्ट ग्रंथनिर्मितीचा पुरस्कार मिळाला आहे.

तसेच निर्वासित चिनी मुलास या संग्रहाचे कुसुमावतींनी इंग्रजीत भाषांतर केले आहे.

कवी अनिल यांची लोकप्रिय गाणी –

१. अजुनी रुसून आहे, २. आज अचानक गाठ पडे  ३. कुणी जाल का? संगाला का? ४ गगनी उगवला सायंतारा .

कवी अनिल आणि त्यांचे काव्य यावरील पुस्तके 

१.    कवी अनिल यांची संपूर्ण कविता (संपादक श्याम माधव धोंड).

२.    कवी अनिल यांची साहित्य दृष्टी (प्राचार्य पंडितराव पवार).  

१९५८साली मालवण येथे झालेल्या साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते.

पां .वा. काणे या अलौकिक बुद्धिवंताचा आणि कवी अनिल या प्रतिभावंतांना विनम्र श्रद्धांजली. ? 

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares