हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ हिस्सेदार…! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा कहानी ☆ हिस्सेदार…! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

ड्राइंग रूम में पैर रखते ही हमें यह अहसास हो गया था कि इस समय वहां पहुंच कर बहुत बड़ी गलती की है । पहले ही उनके यहां कुछ मेहमान आए हुए थे । अभी वे उनसे फुरसत नहीं पा सके थे कि हम पहुंच गये । हम यानी मैं और मेरी पत्नी । इस पर हमारे मेजबान थोड़ा सकपकाये , कुछ हम सकुचाये और फिर कभी आएंगे कह कर लौटने लगे , यह हमारे मेजबान को गवारा न हुआ । उनके आतिथ्य भाव को ठेस न पहुंचे , इसलिए हमें न चाहते भी रुकना पड़ा ।

इसके बावजूद हवा जैसे रुकी हुई थी और अंदर ही अंदर यह बात खाये जा रही थी कि हम यहां रुक कर गलती कर रहे हैं । कहीं शायद उनके निजी जीवन में अनचाहे झांकने का अपराध कर रहे हैं । मेज़बान ने औपचारिकता के नाते दूसरे मेहमानों से हमारा परिचय करवाया । नौकर को पहले पानी लाने और फिर चाय बनाने का आदेश देकर मानो हमारे पांवों में प्यार भरी बेड़ियां डाल दीं । अब वहां बैठे रहने के सिवाय दूसरा कोई चारा न था ।

इस तरह से जहां से बातों का सिलसिला छूटा था , वहीं से पकड़ कर वे शुरू हो गये । शायद वे यह भूल ही गये कि हम उनके ड्राइंग रूम में मौजूद हैं भी या नहीं ।
इसी बीच उनके ड्राइंग रूम को निहारने का हमें अवसर मिल गया । बड़े ही सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया हुआ था । कहीं एक दूसरे को काटती हुईं तलवारें तो कहीं छोटी सी , प्यारी सी तोप । कहीं गरजता हुआ वनराज तो कहीं शिकारी का हंटर लटक रहा था । ऐसे लगता था कि हमारे मेजबान को शिकार का खूब शौक है । या वे वीर रस से अपने आपको सराबोर रखते हैं ।

ड्राइंग रूम में बड़े बड़े विशिष्ट व्यक्तियों के साथ मेजबान के विभिन्न अवसरों पर खींचे गये फोटोज हमारे मन पर उनके व्यक्तित्व की छाप छोड़ने में पूरी तरह सब हो रहे थे कि ऐसे व्यक्तित्व के इतने निकट होने पर भी हम उनसे अंतरंग होकर पहले मिलने क्यों नहीं आए ? उन्हीं चित्रों के बीच एक चित्र को देखते हुए हमारे मेज़बान ने जैसे हमारी चोरी पकड़ ली थी । हमारे मेज़बान के चेहरे पर चमक आ गयी थी । इसी जोश में भरे वे एक पिता बन गये थे और बताने लगे थे -यह हमारा बेटा है , एक आर्मी ऑफिसर । ये जो हमारे अतिथि हैं , ये हमारे बेटे के होने वाले सास ससुर हैं । आप लोग बड़े शुभ अवसर पर पधारे हैं । आज ये शगुन देने आए हैं बेटे के लिए ।

हमने फिर औपचारिकता निभाते हुए कहा कि आप लोगों से मिल कर बहुत खुशी हुई और इस अवसर पर तो और भी ज्यादा । तभी हमारा ध्यान कोने में रखी डाइनिंग टेबल पर गया था जो रंगीन कागज़ों में लिपटी फलों को टोकरियों व मिठाइयों के डिब्बों से भरी पड़ी थी । इस स्थिति में मैं मन ही मन हैरान परेशान हो रहा था कि यह कैसा शुभ अवसर है जिसमें अपने निकट संबंधी तक आमंत्रित नहीं हैं । इस शुभ अवसर पर घर की हवा में इतना भारीपन क्यों है ? खुशी की चिड़िया कहीं फुदक क्यों नहीं रही या चहक क्यों नहीं रही ?

हमारे मेजबान अपने बेटे के गुणों का बखान करते चले जा रहे थे और अब तक आए रिश्तों का जिक्र भी करते जा रहे थे । बिना देखे उनका बेटा हमारी ही नहीं , बल्कि भावी सास ससुर की नज़रों में बहुत ऊंचा उठ गया था । सास बोली थी -हमारी बेटी भी कम नहीं । लैक्चरार है , हमें खुशी है कि यह खूबसूरत जोड़ी बनने छा रही है आज ।
इस तरह कहते हुए लड़की की मम्मी ने रेशमी धागे से बंधे एक लिफाफे को अपनी समधिन के हाथों में सौंप दिया और गले मिल कर रिश्ता तय होने को घोषणा कर दी । ड्राइंग रूम में बैठे बाकी लोगों ने तालियां बजा कर इसका स्वागत् किया ।

हमने समझा कि शगुन की रस्म पूरी हो गयी पर यह तो हमारी नासमझी थी । इसके सिवा कुछ नहीं । यह तो औपचारिक शगुन था । अब अनौपचारिक कार्रवाई शुरू हुई । अब हमारे मेजबान ने जेब से एक लिस्ट निकाल कर उनसे यह जानना शुरू किया कि वे शादी में क्या क्या देंगे या देने जा रहे हैं । क्या क्या नहीं देंगे । उनके विशिष्ट अतिथियों की बारात को वे क्या क्या परोसेंगे ? यानी मीनू तक । यह मीनू एक दूसरी लिस्ट में तय किया गया ।

अब ड्राइंग रूम में सजावट के लिए लगाई गयीं तलवारें , बंदूकें और हंटर मानो सजीव हो उठे थे और देखते देखते हमारे मेजबान ने शिकार करना शुरू कर दिया था ।
लड़की के पिता ने हार रहे सेनापति की तरह संधि की एक एक शर्त सिर झुकाये किसी बलि के बकरे की तरह स्वीकार कर ली थी । हम चुपचाप देखते रह गये शिकार होते।

कई बार जहां हम बैठे होते हैं , हम वहीं नहीं रह जाते । कहीं और पहुंच जाते हैं । यही मेरा साथ हुआ । मैं कैसे वहां बैठे बैठे अपने बचपन के एक दृश्य में खो गया । हमारा घर बीच मोहल्ले में पड़ता था । शादी ब्याह के दिनों में एक दो कमरे जरूरत के लिए हमसे ले लिए जाते थे । हमारे उन कमरों में खूब सारा नया नया सामान सजाया गया था। मुहल्ले भर की औरतों को न्यौता दिया गया था । भीड़ जुट गयी थी । एक बार मैं अपनी दादी के साथ उसी भीड़ में खड़ा था । वहां दिखाया जा रहा था वह सामान । इतने बिस्तर , इतनी पेटी , यह पंखा , साइकिल , ये मेज़ कुर्सियां और वगैरह वगैरह ।

मैंने दादी से पूछा था -क्या यह कमरा आपने किसी दुकान के लिए किराये पर दे दिया ?

आसपास खड़ी सभी महिलाएं मेरी नादानी पर हंस दी थीं , खूब खिलखिला कर ।

-अरे मुन्ने । यह तो दहेज में दी जाने वाली चीज़ें हैं ।

उस उम्र में दहेज तो नहीं जान पाया पर वह कमरे का दृश्य सदा सदा के लिए मन के किसी कोने में अटका रह गया ।

फिर वहीं बैठे बैठे दृश्य बदला । इस बार अपने मात्र के छोटे भाई के विवाह के शगुन में शामिल होने क्या था । वहां खूब धूम धड़ाके के बीच शगुन की रस्म पूरी हुई थी । इस फार रंगीन टीवी व मोटरसाइकिल सबके बीच उपहार कह कर भेंट किए गये थे । मैं वहां बड़ी घुटन महसूस करने लगा था और जल्द खिसकने की कोशिश में था कि मित्र ने कहा था-भई यह शुभ अवसर है । जल्दी क्या है ? आज कुछ देर पहले घटित हुए दृश्य से क्या मैं अपने आपको अलग कर सकता हूं ? मेरी आत्मा मुझे धिक्कारते हुए कहती है -नहीं । तुम इस दृश्य से अलग नहीं बल्कि तुमने अपनी भूमिका बखूबी निभाई है इसमें । फिर जैसे जज फैसला सुनाता है -गवाहों और बयानात के आधार पर मेरी आत्मा कहती है कि तुम्हें मुजरिम ठहराया जाता है । तुम इस पाप में बराबर के हिस्सेदार हो । समाज तुम्हे कभी माफ नहीं करेगा ।

अभी सोफे पर नोटों की गड्डियों का लिफाफा पड़ा है -मुंह चिढ़ाता हुआ ।

बाहर मेजबान अपने नये सगे संबंधियों को विदा कर रहे हैं । ठहाकों की गूंज दूर से सुनाई दे रही है । यह दूसरी बात है कि जवाब में ठहाके सुनाई नहीं दे रहे ।

मेहमानों को विदा कर मेजबान व उनकी पत्नी और बेटी लौट आए हें । उनके चेहरे खिले हुए हैं । शिकार की सफलता के चलते ।

वे हमारी ओर मुखातिब होते हैं -आप बडे ही शुभ अवसर पर हमारे घर पधारे । क्यों न चाय का एक एक प्याला और हो जाये ?

हमने माफी मांगते हुए चलने की अनुमति मांगी और वहां से चलने से लेकर अब तक मन में यह मलाल है कि उस दिन वहां क्यों गये थे हम ? एक गुनाह में हिस्सेदार होने के लिए ? यह बोझ हम आज तक उठिए घूम रहे हैं उस दिन से ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 35 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 35 – मनोज के दोहे

(ग्रीष्म, चिरैया, गौरैया, लू, तपन)

ग्रीष्म-तप रहा मार्च से, कमर कसे है जून।

जब आएँगे नव तपा, तपन बढ़ेगी दून।।

दूँगा सबको भून।।

 

पतझर में तरु झर गए, ग्रीष्म मचाए शोर ।

उड़ीं चिरैया देखकर, कल को यहाँ न भोर।।

 

गौरैया दिखती नहीं, ममता देखे राह।

दाना रोज बिखेरती, रही अधूरी चाह।।

 

भरी दुपहरी में लगे, लू की गरम थपेड़।

कर्मवीर अब कृषक भी, लगते सभी अधेड़।।

 

सूरज की अब तपन का, दिखा रौद्र अवतार।

सूख रहे सरवर कुआँ, सबको चढ़ा बुखार।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 5 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 5 ??

जैसाकि कहा जा चुका है, समाज के केंद्र में किसान था। कोई माने न माने पर शरीर के केंद्र में जैसे पेट था, है और रहेगा, वैसे ही खेती सदा जीवन के केंद्र में रहेगी। किसान के सिवा कारू और नारू की आवश्यकता पड़ती थी। भारतीय समाज को विभाजन रेखा खींचकर देखनेवाली आँखें, अपने रेटीना के इलाज की गुहार करती हैं।  सत्य कहा जाये तो ग्राम्य जीवन लोक को पढ़ने, समझने और अपनी समझ को मथने का श्रेष्ठ उदाहरण है।

ऐसा नहीं है कि लोक निर्विकार या निराकार है। वह सर्वसाधारण मनुष्य है। वह लड़ता, अकड़ता, झगड़ता है। वह रूठता, मानता है। वह पड़ोसी पर मुकदमा ठोंकता है पर मुकदमा लड़ने अदालत जाते समय उसी अग्रज पड़ोसी से आशीर्वाद भी लेता है। इतना ही नहीं, पड़ोसी उसे ‘विजयी भव’ का आशीर्वाद भी देता है। विगत तीन दशकों से भारतीय राजनीति के केंद्र में रहे ‘श्रीरामजन्मभूमि विवाद’ के दोनों पैरोकार महंत परमानंद जी महाराज और स्व. अंसारी एक ही कार में बैठकर कोर्ट जाते रहे। बकौल भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी, ‘ मतभेद तो हों पर मनभेद न हो’ का जीता-जागता चैतन्य उदाहरण है लोक।

बलुतेदार हो या अबलूतेदार, अगड़ा हो या पिछड़ा, धनवान हो निर्धन, सम्मानित हो या उपेक्षित, हरेक को मान देता है लोक। बंगाल में विधवाओं को वृंदावन भेजने की कुरीति रही पर यही बंगाल दुर्गापूजा में हर स्त्री का हाथ लगवाता है। यही कारण है कि माँ दुर्गा की प्रतिमा बनाने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों के घर से मिट्टी ली जाती है। इनमें वेश्या भी सम्मिलित है। अद्वैत या एकात्म भाव का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा? यह बात अलग है कि भारतीय समाज की कथित विषमता को अपनी दुकानदारी बनानेवालों की मिट्टी, ऐसे उदाहरणों से पलीद हो जाती है।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 160 ☆ आलेख – धर्मनिरपेक्षता मिले तो बताना… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय आलेख धर्मनिरपेक्षता मिले तो बताना …. इस आलेख में वर्णित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं जिन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिए।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 160 ☆

? आलेख  धर्मनिरपेक्षता मिले तो बताना … ?

देश संविधान से चलता है. न्यायालय का सर्वोपरी विधान संविधान ही है. प्रत्येक अच्छे नागरिक का नैतिक कर्तव्य है कि वह संविधान का परिपालन करे. बचपन से ही मैं अच्छा नागरिक बनना चाहता हूं, पर अब तक तो मैं लाइनो में ही लगा रहा, इसलिये मुझे अच्छा नागरिक बनने का मौका ही नही मिल सका. सुबह सबेरे पानी के लिये नल की लाइन में,  मिट्टी तेल के लिये केरोसिन की लाइन में,  राशन के लिये लम्बी लाइन में, कभी बस या मेट्रो की कतार में, इलाज के लिये अस्पताल की लाइन में, स्कूल में तो अनुशासन के नाम पर पंक्तिबद्ध रहना ही होता था, बैंक में रुपया जमा करने तक के लिये लाइन, इस या उस टिकिट की लाइन में लगे लगे ही जब अठारह का हुआ और संविधान ने चुपके से मुझे मताधिकार दे दिया तो मैं संविधान के प्रति कृतज्ञता बोध से अभीभूत होकर वोट डालने गया पर वहाँ भी लाइन में खड़े रहना ही पड़ा. मुझे लगा कि लाइन में लगकर बिना झगड़ा किये अपनी पारी का इंतजार करना ही अच्छे नागरिक का कर्तव्य होता है.

वरिष्ट जनो, महिलाओ, विकलांगों को अपने से आगे जाने का अवसर देना तो मानवीय नैतिकता ही है.नियम पूर्वक बने वी आई पी मसलन स्वतंत्रता सेनानी, सेवानिवृत मिलट्री पर्सनल भी सर आंखो पर, कथित जातिगत आरक्षण के चलते बनी आगे बढ़ती कतार को भी सह लेता किन्तु बलात पुलिस वाले के साथ आकर या नेता जी के फोन के साथ कंधे पर सवार नकली वी आई पी मैं बर्दाश्त नही कर पाता, बहस हो जाती . बदलता तो कुछ नहीं, मन खराब हो जाता. घर लौटकर जब अकेले में अपने आप से मिलता तो लगता कि मैं अच्छा नागरिक नही हूं. इसलिये एक अच्छे नागरिक बनने के लिये मैंने संविधान को समझने की योजना बनाई .

संविधान की प्रस्तावना से ज्ञात हुआ कि हमने संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न धर्मनिरपेक्ष समाजवादी लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये अपना संविधान अपने आप अंगीकृत किया है. अब मेरे लिए यह समझना जरूरी था कि यह धर्मनिरपेक्षता क्या है ? मैं तो कई कई दिन एक बार भी मंदिर नही जाता था. जबकि मेरा सहकर्मी जोसफ प्रत्येक रविवार को नियम से प्रेयर के लिये चर्च जाता था. मेरा अभिन्न मित्र अब्दुल दिन में पाँच बार मस्जिद जाता है. अब्दुल बेबाक आफिस से कार्यालयीन समय में भी नमाज पढ़ने निकल लेता है. उसे कोई कुछ नही कहता. मस्जिद में या चर्च में एक ही धर्मावलंबी नियम पूर्वक तय समय से मिलते हैं, पूजा ध्यान से इतर चर्चायें भी होना अस्वाभाविक नहीं. किसे वोट देना है किसे नही इस पर मौलाना साहब के फतवे जारी होते भी मैंने देखा है. राजनैतिक दलो द्वारा अपने घोषणा पत्र में बाकायदा चुनाव आयोग के संज्ञान में धार्मिक प्रलोभन, नेताओ द्वारा अपने पक्ष में वर्ग विशेष के वोट लेने के लिये सार्वजनिक मंच से घोषणायें, कभी मंदिर न जाने वालों द्वारा एन चुनावी दौरो में मंदिर मंदिर जाना आदि देखकर मैं धर्मनिरपेक्षता को लेकर बहुत कनफ्यूज हो गया.

कभी इस धर्म की तो कभी उस धर्म की रैलियां सड़कों पर देखने मिलती. अनेक अवसरो पर टीवी में बापू की समाधि पर सर्व धर्म प्रार्थना सभा का सरकारी आयोजन मैनें देखा था मुझे लगा कि शायद यही धर्मनिरपेक्षता है.  कुछ अच्छी तरह समझने के लिये गूगल बाबा की शरण ली तो, सर्च इंजन ने फटाफट बता दिया कि दुनिया के 43 देशों का कोई न कोई आधिकारिक धर्म है, 27 देशों का धर्म इस्लाम तो 13 का धर्म ईसाईयत है.  भारत समेत 106 देश धर्मनिरपेक्ष देश हैं.ऐसा राष्ट्र एक भी नहीं है जिसका धर्म हिन्दू हो. दुनियां की आबादी का लगभग सोलह प्रतिशत हिन्दू धर्मावलंबी हैं. दुनियां का पहला धर्मनिरपेक्ष देश अमेरिका है. इस जानकारी से भी धर्मनिरपेक्षता समझ नही आ रही थी. तो मैंने शाम को टीवी चैनलो पर विद्वानो की बहस और व्हाट्सअप समूहो से कुछ ज्ञानार्जन करने का यत्न किया, पर यह तो बृहद भूलभुलैया थी. सबके अपने अपने एजेण्डे समझ आये पर धर्मनिरपेक्षता समझ नही आई. कुछ कथित बुद्धिजीवी बहुसंख्यकों को रोज नए पाठ पढ़ाते,उनके अनुसार बहुसंख्यकों को दबाना ही धर्म निरपेक्षता है। मुझे स्पष्ट समझ आ रहा था की यह तो  कतई धर्म निरपेक्षता नही है ।अंततोगत्वा मैं धर्मनिरपेक्षता की तलाश में देशाटन पर निकल पड़ा.  बंगलौर रेल्वे स्टेशन के वेटिंग रूम में मस्जिद नुमा तब्दीली मिली, मुम्बई के एक रेल्वे प्लेटफार्म पर भव्य मजार के दर्शन हुये, सड़क किनारे सरकारी जमीन पर ढ़ेरों छोटे बड़े मंदिर और मजारें नजर आईं, धर्मस्थलो के आसपास खूब अतिक्रमण दिखे. लाउड स्पीकर से अजान और भजन के कानफोड़ू पाठ सुनाई पड़े. सांप्रदायिकता मिली सरे आम बेशर्मी से बुर्के को तार तार करती मिली, कट्टरता ठहाके मारती मिली, रूढ़िवादिता भी मिली, कम्युनलिज्म टकराया  किन्तु मेरी संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता की तलाश अब तक अधूरी ही है. आपको धर्मनिरपेक्षता समझ आ जाये तो प्लीज मुझे भी समझा दीजीयेगा जिससे मैं एक अच्छा नागरिक बनने के अपने संवैधानिक मिशन में आगे बढ़ सकूं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बंदर के हाथ में उस्तरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “बंदर के हाथ में उस्तरा।)

☆ आलेख ☆ बंदर के हाथ में उस्तरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

कहावत हमारे देश की है, और बहुत पुरानी भी है। कहावत भले ही बंदर पर बनी हुई है, लेकिन मानव जाति इसका प्रयोग अपने दैनिक जीवन में यदा कदा करता रहता हैं। 

आज विश्व के सबसे संपन्न और शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका में एक अठारह वर्षीय युवा ने अपनी बंदूक से पाठशाला में पढ़ रहे करीब पच्चीस बच्चों की हत्या कर दी हैं। पचास से अधिक बच्चे हॉस्पिटल में इलाज़ करवा रहे हैं। युवा ने अपनी दादी और कुछ शिक्षकों को भी मौत के घाट उतार दिया।अमेरिका में ये घटनाएं आए दिन होती रहती हैं।हमारे देश में भी कुछ लोग मानसिक रूप से ग्रस्त होते हुए कभी कभार बंदूक/ तलवार इत्यादि से एक दो लोगों पर हमला कर देते हैं,और अधिकतर पकड़े जाते हैं।इस सब के पीछे उनकी गरीबी या किसी रंजिश ( आर्थिक,सामाजिक या धार्मिक) प्रमुख कारण रहता हैं।                                          

अमेरिका की संपन्नता में वहां के हथियार उद्योग का बड़ा हाथ है,ये सर्वविदित हैं।हमारे देश में भी कुछ स्थानों पर देसी कट्टे/ रामपुरिया चाकू इत्यादि आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, चुकीं उनकी मारक क्षमता अमरीकी हथियारों के सामने शून्य से भी कम होती हैं।इसलिए जन हानि कम होती हैं।                                      

हम,अमरीकी युवा को इस प्रकार के होने वाली घटनाओं के लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं।वहां की जीवन शैली के सामाजिक / पारिवारिक मूल्यों में आई भारी गिरावट और आसानी से हथियारों की उपलब्धता ही पूर्ण रूप से जिम्मेवार हैं।अमेरिका पूरे विश्व में हथियारों की उपलब्धता सुनिश्चित कर अपनी तिज़ोरी भरता हैं।आज वो ही हथियार उसके अपने बच्चें इस्तमाल कर एक बड़ा प्रश्न खड़ा कर रहे हैं।बड़े लोग ठीक ही कहते थे,जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है, वो एक दिन स्वयं भी उसी गड्ढे में गिर जाता हैं।

सत्तर के दशक  में पाठशाला में एक निबंध का विषय ” विज्ञान एक अभिशाप” हुआ करता था।अब लग रहा है,कहीं निबंध का विषय आज भी मान्य तो नहीं हैं ?

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 125 – लघुकथा – पानी का स्वाद… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है सम्मान के पर्याय पानी पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा “पानी का स्वाद…”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 125☆

☆ लघुकथा  – 🌨️पानी का स्वाद 🌨️  

गर्मी की तेज तफन, पानी के लिए त्राहि-त्राहि। सेठ त्रिलोकी चंद के घर के आसपास, सभी तरह के लोग निवास करते थे। परंतु किसी की हिम्मत उसके घर आने जाने की नहीं थी, क्योंकि वह अपने आप  को बहुत ही अमीर समझता था।

सारी सुख सुविधा होने के बाद भी त्रिलोकी चंद मन से बहुत ही अवसाद ग्रस्त था, क्योंकि सारी जिंदगी उसने अपने से छोटे तबके वालों को हमेशा नीचा दिखाते अपना समय निकाला था।

उसके घर के पास एक  किराये के मकान में बिटिया तुलसी अपनी माँ के साथ रहती थी।

गरीबी की मार से दोनों बहुत ही परेशान थे। माँ मिट्टी, रेत उठाने का काम कर करती और बिटिया घर का काम संभाल रखी थी।

गर्मी की वजह से नल में पानी नहीं आ रहा था और मोहल्ले में पानी की बहुत परेशानी थी। मोहल्ले वाले सभी कहने लगी कि शायद त्रिलोकी चंद के यहाँ जाने से सब को पीने का पानी मिल जाएगा।

उसने पानी तो दिया परंतु सभी से पैसा ले लिया। जरुरत के हिसाब से सभी अपनी अपनी हैसियत से पानी खरीद रहे थे। सभी के मन से आह निकल रही थी।

कुछ दिनों बाद सब ठीक हुआ मोहल्ले में पानी की व्यवस्था हो गई। सब कुछ सामान्य हो गया।

आज त्रिलोकी चंद अपने घर के दालान दरवाजे के पास कुर्सी लगा बैठा था।

तुलसी माँ के काम में जाने के बाद पानी के भरें घड़े को  लेकर आ रही थी। उसके चेहरे पर पसीने और पानी की धार एक समान दिख रही थी।

ज्यों ही वह त्रिलोकी चंद के घर के पास पहुंची वह देख रही थी कि अचानक वह कुर्सी से गिर पड़े।

परिवार के सभी सदस्य घर के अंदर थे। तुलसी को कुछ समझ में नहीं आया फिर भी हिम्मत करके घड़े का पानी त्रिलोकी चंद के चेहरे और शरीर पर डाल  दिया। पास में रखे गिलास से उसने पानी पिलाया। त्रिलोकी चंद पानी पी कर बहुत खुश हुआ और उसे आराम लगा।

आज उसे पानी से स्वाद मिला। और उसकी आँखें भर आई। और उसे समझ आया कि मेहनत का पानी मीठा होता है।

घर के सभी सदस्य बाहर निकल कर तुलसी को डांटने लगे कि “तुमने कहां का पानी पापा को पिला दिया।”परंतु त्रिलोकी चंद को जैसे मन से भारी बोझ हट गया हो। उसे असीम शांति मिली। आज वह पानी में स्वाद  होता है ऐसा कह कर तुलसी के सर पर हाथ रखा।

मोहल्ले वाले कभी सपने में नहीं सोचते थे कि अपने घर के बाहर दरवाजे के पास पानी की व्यवस्था कर सभी को पानी लेने के लिए कहेगा।

परंतु यह सब काम उसने किया।

त्रिलोकी चंद  की जय जयकार होने लगी। वह समझ चुका था….

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।

पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (6-10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (6 – 10) ॥ ☆

सर्ग-19

राजा था रसरंग में लीन ऐसा प्रजा दर्शनों को तरसने लगी थी।

रहा नृप का अंतः पुरों में ही डेरा, खुशी तरूणियों की बरसने लगी थी।।6।।

 

कभी मंत्रियों की विनय पर प्रजा पर अनुग्रह किया तो चरण भर दिखाये।

जो लटकाये गये खिड़की से सिर्फ दो क्षण, कोई कभी मुख छवि नहीं देख पाये।।7।।

 

नखकांति कोमल, जो रवि की किरण से खिले कमल की सी थी ऐसे चरण को।

विनत नमन करके ही सब राजदरबारी जाते थे नित अपनी सेवा-शरण हो।।8।।

 

यौवन से कामिनि के उन्नत उरोजों के संघात से क्षुबध जल-चल-कमल युक्त।

जल से ढकी सीढ़ियों के भवन मे रसिक उसने की काम क्रीड़ा हो उन्मुक्त।।9।।

 

वहां रमणियों के जलाभिषेक से धुले प्राकृत नयन, अधरों ने उसके मन को।

मोहित किया अधिक क्योंकि नहीं था कोई आवरण ढंके सुन्दर वदन को।।10।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ३१ मे – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ ३१ मे – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

दिवाकर कृष्ण केळकर:

मराठी लघुकथेचे शिल्पकार श्री. दिवाकर कृष्ण केळकर यांचा जन्म कर्नाटकातील गुंटकल येथे झाला.त्यांनी मुंबई,पुणे आणि सांगली येथे आपले शिक्षण पूर्ण केले.नंतर हैद्राबाद येथे वकिलीचा व्यवसाय सुरू केला.

‘अंगणातला पोपट’ ही त्यांची पहिली कथा मनोरंजन या मासिकातून 1922 मध्ये प्रसिद्ध झाली. त्यानंतर तीन कथासंग्रह,दोन कादंब-या आणि एक नाटक त्यांनी लिहीले.पण    मराठीतील लघुकथा हेच त्यांचे प्रमुख लेखन म्हणावे लागेल.भावनाविष्कार हे त्यांच्या कथांचे वैशिष्ट्य होते.त्यांच्या कथेमुळे मराठी कथेला मनोदर्शनाचे तिसरे परिमाण लाभले असे सुप्रसिद्ध लेखक भालचंद्र फडके म्हणतात.

मुंबई येथे 1950 साली भरलेल्या महाराष्ट्र साहित्य संमेलनातील कथा संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते.1954 मध्ये लातूर येथे भरलेल्या मराठवाडा साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते .

श्री.केळकर यांची साहित्य संपदा:

कथासंग्रह—

समाधी व इतर सहा गोष्टी

रूपगर्विता व इतर  गोष्टी

महाराणी व इतर कथा

कादंबरी—

किशोरीचे ह्रदय

विद्या आणि वारूणी

नाटक—

तोड ही माळ

मराठीतील दीर्घ कथा लघुकथेकडे घेऊन जाणा-या दिवाकर कृष्ण यांचा आज स्मृतीदिन(1973)आहे.🙏

☆☆☆☆☆

माधव  यशवंत गडकरी

माधव गडकरी या नावाने प्रसिद्ध असलेले लेखक व पत्रकार यांचा आज (2006)स्मृतीदिन.

सुमारे साठ वर्षे त्यांनी पत्रकारितेसाठी खर्च केली. विविध नियतकालिके,साप्ताहिके यामध्ये त्यांनी उपसंपादक,संपादक,स्तंभलेखन,वृतकलेखन अशा विविध जबाबदा-या समर्थपणे पेलल्या.त्यांची वृत्तपत्रीय कारकीर्द महाराष्ट्र टाईम्स,गोमांतक,मुंबई सकाळ,लोकसत्ता,सांज लोकसत्ता अशा नामवंत समुहातून झाली.निर्झर,क्षितीज,निर्धार ही त्यांची स्वतःची नियतकालिके.1992मध्ये ते लोकसत्ता प्रकाशन समुहातून निवृत्त झाले.परंतु त्यांचे विविध सदरांतील लेखन चालूच होते.याशिवाय 1955ते1962 या काळात त्यांनी दिल्ली आकाशवाणीत नोकरीही केली.

पत्रकार या नात्याने त्यांनी जगातील अनेक देशांना भेटी दिल्या व आपल्या लेखनातून वाचकांना जगातील अनेक घडामोडींचे दर्शन घडवले. इंग्लंड, जर्मनी, अमेरिका, पोर्तुगाल, माॅरिशस, क्यूबा, जपान, अफगाणिस्तान, तुर्कस्तान अशा अनेक लहान मोठ्या देशांना त्यांनी भेटी दिल्या होत्या.

प्रकाशित साहित्य:—

अष्टपैलू आचार्य अत्रे

असा हा गमक

असा हा महाराष्ट्र ..दोन भाग

इंदिरा ते चंद्रशेखर

एक झलक पूर्वेची

गाजलेले अग्रलेख

गुलमोहराची पाने

चिरंतनाचे प्रवासी

प्रतिभेचे पंख लाभलेली माणसे

सत्ता आणि लेखणी

कुसुमाग्रज गौरव…इ.इ इ .

प्राप्त पुरस्कार   :—-

पद्मश्री, पुढारीकार जाधव पुरस्कार, अनंत हरी गद्रे पुरस्कार, भ्रमंती पुरस्कार, लोकश्री,आचार्य अत्रे, संवाद,भारतकार हेगडे देसाई पुरस्कार.

प्रतिभा सम्राट रा.ग.गडकरी पुस्तकासाठी व्ही.एच.कुलकर्णी पुरस्कार, गोवा अकॅडमीचा सोनार बांगला या पुस्तकासाठी पुरस्कार,

मराठी साहित्य परिषद पुरस्कार, याशिवाय महाराष्ट्र राज्य सरकारचे अनेक लेखन पुरस्कार त्यांना प्राप्त झाले आहेत.

आज त्यांच्या स्मृतीदिनी त्यांना विनम्र अभिवादन.🙏

☆☆☆☆☆

डाॅ.मधुकर सु.पाटील

अत्यंत प्रतिकूल  परिस्थितीतही प्रथमपासून शैक्षणिक गुणवत्ता प्राप्त करून श्री.म.सु.पाटील यांनी मराठी साहित्यात एक उत्तम काव्यसमीक्षक व वैचारिक लेखक म्हणून आपले स्थान निर्माण केले आहे.शिक्षण पूर्ण झाल्यावर त्यांनी मनमाड महाविद्यालयात प्राध्यापक पद स्विकारले व तेथूनच प्राचार्य पदावरून निवृत्त झाले.

त्यांची कवितेवरील समीक्षा ही विशेष उल्लेखनीय होतीच पण त्याबरोबरच त्यांचा संत साहित्य  व दलित साहित्य यांचाही सखोल अभ्यास होता.त्यांनी काही पुस्तके,अनुवादीतही केली होती.’स्मृतीभ्रंशानंतर’ या अनुवादित पुस्तकाला 2014 चा साहित्य अकादमीचा पुरस्कार मिळाला होता. तसेच सर्जनप्रेरणा आणि कवित्वशोध या पुस्तकाला 2018 चा साहित्य अकादमी पुरस्कार मिळाला होता.2007मध्ये झालेल्या को.म.सा.परिषदेच्या उल्हासनगर येथील दहाव्या कोकण साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते. अनुष्टुभ हे मासिक चालू करून त्यांनी अनेकांना लिहीते केले.

साहित्य संपदा:—

इंदिरा यांचे काव्यविश्व

दलित कविता व दलित साहित्याचे सौंदर्यशास्त्र

बदलते कविसंवेदन

सर्जनप्रेरणा आणि कवित्वशोध

ज्ञानेश्वरीचा काव्यबंध

ज्ञानेश्वरीचा तृष्णाबंध

लांबचा उगवे आगरी(आत्मचरित्र) इ.इ.

2019 साली वयाच्या 88व्या वर्षी त्यांचे निधन झाले.

त्यांच्या स्मृतीस अभिवादन!🙏

☆☆☆☆☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : मराठी विश्वकोश, विकासपिडीया, विकिपीडिया, महाराष्ट्र टाईम्स.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मिठी ☆ मेहबूब जमादार

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मिठी ☆ मेहबूब जमादार ☆

आणेन चंद्र म्हणते

तुझे येणे लांबलेले

आणेन दिप म्हणते

धुके धरा लपेटलेले

 

विरहाचे क्षण कसे

काळजाला छेदलेले

आठवांचे पेव सा-या

भोवताली विखुरलेले

 

प्रेमात ऊर फुटता

नेत्र अश्रूंनी भारलेले

मोहक क्षण भेटींचे

तुझ्या पथी पसरलेले

 

तू नसताना कसे

क्षण मनी गोठलेले

पाहू दे सख्या मला

तुझ्या मिठीत गुंफलेले……

 

*️⃣ मेहबूब जमादार

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #140 ☆ दुष्काळ नाही ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 140 ?

☆ दुष्काळ नाही 

पावसावर झोडण्याचा आळ नाही

पंचनामा सांगतो दुष्काळ नाही

 

काळ हा नाठाळ आहे एवढा पण

मानले त्याला कधी जंजाळ नाही

 

गळत आहे छत बदलतो कैकदा मी

पण बदलता येत मज आभाळ नाही

 

शरद आला घेउनी थंडी अशी की

अग्निला मग शेक म्हणती जाळ नाही

 

मार्ग स्वर्गाचा मला ठाऊक होता

मी धरेवर शोधला पाताळ नाही

 

देउनी चकवा ससा निसटून गेला

पारध्याची आज शिजली डाळ नाही

 

मी मनाचे कोपरेही साफ केले

साचलेला आत आता गाळ नाही

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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