(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – गिरहकट
पत्रिका पलटते हुए आज फिर एक पृष्ठ पर वह ठिठक गया। यह तो उसकी रचना थी जो कुछ उलजलूल काँट-छाँट और भद्दे पैबंदों के साथ उसके एक परिचित के नाम से छपी थी। यह पहली बार नहीं था। वह इस ‘इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी थेफ्ट’ का आदी हो चला था। वैसे इससे उसकी साख पर कोई असर कभी न पड़ना था, न पड़ा। उन उठाईगीरों की साख तो थी ही नहीं, जो कुछ भी थी, उसमें इन हथकंडों से कभी बढ़ोत्तरी भी नहीं हुई।
आज उसने अपनी नई रचना लिखी। पत्रिका के संपादक को भेजते हुए उसे उठाईगीरे याद आए और उसका मन, उनके प्रति चिढ़ के बजाय दया से भर उठा। अपनी रचना में कुछ काँट-छाँट कर और अपेक्षाकृत कम भद्दे पैबंद लगाकर उसने एक और रचना तैयार की। साथ ही संपादक को लिखा कि उठाईगीरों को परिश्रम न करना पड़े, अतः ओरिजिनल के साथ डुप्लीकेट भी संलग्न हैं। दोनों के शीर्षक भी भिन्न हैं ताकि बेचारों को नाहक परेशानी न झेलना पड़े।
संपादक ने देखा, मूल रचना का शीर्षक था, ‘गिरह‘ और डुप्लीकेट पर लिखा था- ‘गिरहकट।’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)
बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।
☆ कथा-कहानी # 99 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 10 – मनुस बली नहीं होत है… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
मनुस बली नहीं होत है, समय होत बलवान।
भीलन लूटी गोपिका , बेई अर्जुन बेई वान॥
शाब्दिक अर्थ :- मनुष्य बलवान नहीं होता, समय बलवान होता है। एक समय ऐसा था कि वीर अर्जुन के समक्ष कोई भी बड़ा से बड़ा धनुर्धर नहीं तिक पाता था। अब समय ऐसा आया कि भीलों ने गोपियों को लूट लिया और वही धनुर्धर अर्जुन चुपचाप देखते रहे।
बीरा,जहाँ मैंने यह कहावत पहली बार सुनी, पन्ना जिले की अजयगढ़ तहसील का एक पिछड़ा व दूरस्थ गाँव है, जिसके एक ओर केन नदी बहती तो दूसरी ओर ब्रिटिश काल में निर्मित भापतपुर बांध से निकली नालानूमा विशाल नहर। यह उत्तरप्रदेश के बांदा जिले से लगा हुआ, मध्य प्रदेश का सीमांत गाँव है। चित्रकूट, बुंदेलखंड क्षेत्र का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल, जहाँ अयोध्या से निर्वासित भगवान राम ने वनवास के 12 वर्ष बिताए थे, बीरा से ज्यादा दूर नहीं है। बीरा से अजयगढ़ के रास्ते, पिस्टा गाँव के निकट एक हरी भरी पहाड़ी है, नाम है देव पर्वत, कहते हैं भगवान राम ने विपत्ति भरे अपने वनवास के समय कुछेक रातें इस देव पर्वत पर भी बिताई थी। तुलसी दास भी लिख गए हैं “जा पर विपदा पडत है वह आवत यही देश”(देश मतलब हमारा गर्वीला, पथरीला, दर्पीला बुंदेलखंड)। राजशाही के जमाने में अनेक ब्राह्मण व उनके चेले चपाटी यादव बांदा और उत्तर प्रदेश के अन्य भागों से बीरा और उसके आसपास के गांवों में आकर बस गये और राज दरबार में अपने ब्राह्मणत्व का उपयोग कर जमींदारियाँ हासिल कर ली। गुरु ब्राह्मण के पास पोथिओं व पुराणों का ज्ञान था तो चेले यादव के पास शारीरिक बल और हाथ में लट्ठ। गुरु-चेले की इस जुगल जोड़ी ने बीरा जैसे पिछड़े गांवों में अपनी धाक जमा ली और उनका खेती किसानी, दुग्ध उत्पादन के साथ साथ पंडिताई का व्यवसाय फलने फूलने लगा। खेतिहर मजदूर पंडित जी की ज्ञान वाणी सुनते और उनके बहुत से काम बेगारी में ही हँसते मुस्कुराते कर देते। समय बदला देश स्वतंत्र हुआ शिक्षा फैली और समाजवादी नारे मध्यप्रदेश के इस दूर दराज स्थित क्षेत्र में भी सुनाई देने लगे। अब दलित मजदूर पंडित जी के पोथी पत्रा या यादव के बलिष्ठ शरीर देखकर प्रभावित न होते और बेगार के लिए तो आसानी से न मानते। वे ना तो चेले के लट्ठ से विचलित होते और न ही बरम बाबा के श्राप से घबराते।
ऐसे ही संक्रमण काल में मेरी पदस्थापना वहाँ हुयी और मैं भारतीय स्टेट बैंक की बीरा शाखा में जनवरी 1990 से मई 1993 तक शाखा प्रबंधक के पद पर कार्यरत रहा। मैं गाँव में ही रहता और समय बिताने पड़ोसी शुक्लजी (मास साब), उनके पुत्र रमेश व अन्य ग्रामीणों की पौड़ (बारामदा या दहलान) में बैठा करता। ऐसी ही एक सुबह माससाब ने अपनी पौड़ में बैठे बैठे सामने से पायंलागी कर निकलते हुये एक अधेढ, कलुआ कोरी, को आवाज लगाई। कलुआ कोरी आशीर्वाद की लालच में माससाब के सामने आ खड़ा हुआ। माससाब ने उसे ‘खुसी रहा’ का आशीर्वाद दिया और घर के पीछे खलिहान में रखे गेहूँ को बंडा व खौड़ा में संग्रहित करने में मदद करने को कहा। कलुआ ताड़ गया की दो तीन घंटे से भी ज्यादा का काम है और मजदूरी तो मिलने से रही अत: उसने कोई अन्य काम का बहाना बना इस गमरदंदोर में न फसने की सोची।
उसकी यह आनाकानी माससाब को क्रोधित करने के लिए पर्याप्त थी और कलुआ का बुन्देली गालियों से “पानी उतारबौं” (बेज्जती करना) चालू हो गया। माससाब ने तो उसे पनमेसुर के पूरे (कपटी व्यक्ति), ‘मूतत के ना माड़ पसाउत के” (निकम्मा और अकर्मण्य) आदि न जाने क्या क्या कह दिया पर कलुआ टस से मस न हुआ। वह उनकी बातें सुनता, कुछ प्रतिकार करता, बार बार बक्स देने को कहता पर बेगारी के लिए तैयार न होता। अंतत: माससाब ने अपना ब्रह्मास्त्र चलाया और यह कहावत कलुआ पर जड़ दी “मनुस बली नहीं होत है, समय होत बलवान।भीलन लूटी गोपिका , बेई अर्जुन बेई वान॥ “ कोरी ने जैसे ही गोपिका और अर्जुन का नाम सुना उसे भगवान कृष्ण की भागवत याद आ गई और वह बोल पड़ा महराज जा तो भागवत पुराण की बात है हमे भी ईखी की कथा सुना देओ तो जीवन तर जाए। माससाब समझ गए की मछली पटने वाली है और कलुआ अब भौंतेरे में बिदबई वारो है( जाल में फस जाना) लेकिन गला फाड़ चिल्ला चौंट से माससाब थक गए थे अत: उन्होने अपने पुत्र रमेश को कथा सुनाने का दायित्व दे ‘सुट्ट हो जाना’ (शांत रहना) उपयुक्त समझा। फिर क्या रमेश की पंडिताई चालू हो गई और कथा ऐसे आगे बढ़ी; ‘का भओ कलुआ कै की तैं तो महाभारत की कथा जानत है, पांडवन खों राज दै कै भगवान द्वारका वापस आ गए अब आगे सुन’। एक दिन महर्षि विश्वामित्र, कण्व और नारद जी आदि ऋषि द्वारिका में पधारे। कलुआ ये सब ऋषि मुनि बड़े सिद्ध ब्राह्मण थे। उन्हे देखकर यादवों की अक्कल चरने चली गई और सारण आदि यादव, साम्ब को लुगाई (स्त्री) के वेश में सजा सवांर कर ब्राह्मण मुनियों के पास ले गए और बोले कि हे ब्राह्मण देवता यह महा तेजस्वी वभ्रु की पत्नी ‘पेट से हैं’ (गर्भवती है)। बताइए इसके गर्भ से क्या पैदा होगा। ब्राह्मण देवता रूपी मुनि उड़त चिरईया परखबे में माहिर हते, वे समझ गए कि यादव लोग उनका मजाक उड़ा रहे हैं। वे क्रोध में बोले कि मूर्खो यह कृष्ण का पुत्र साम्ब स्त्री वेश में है, इसके पेट में मूसल छिपा है जिससे तुम सभी यादवों का नाश हो जाएगा। फिर क्या था, ब्राह्मण देवताओं का श्राप सुनकर सारे यादव घबरा गए और महाराजा उग्रसेन (कृष्ण भगवान के नाना) के पास पहुँचे। उन्होने मूसल का चूरण बनाकर समुद्र में फिकवा दिया, ताकि मूसल से कोई नुकसान न होने पाये। कुछ दिनों बाद इसी चूरण से जो काँस (एक प्रकार की घाँस) ऊगी उसे उखाड़ उखाड़ कर सारे यादव अहीर आपस में लड़ मरे। भगवान कृष्ण इससे बड़े दुखी हो गए और उन्होने भी अपनी लीला ख़त्म करने की सोचते हुये अर्जुन को द्वारका बुलाया और सभी सोलह हज़ार गोपियों को अपने साथ ले जाने को कहा। अर्जुन ने भगवान का कहना मानते हुये सभी को साथ लेकर अपनी राजधानी इंद्रप्रस्थ की ओर चल पड़ा। रास्ते में जब अर्जुन ने अपना पड़ाव पंचनद क्षेत्र में डाला तो वहाँ के लूटेरों ने आक्रमण कर सारा माल आसबाब और गोपियों को लूट लिया। अर्जुन जिसके पास गाँडीव जैसा धनुष था और जो उस समय का सबसे बडा वीर पुरुष था कुछ न कर सका, चुपचाप गोपियों को लुटता पिटता देखता रह गया क्योंकि अब भगवान उसके साथ नहीं थे और उसका समय खराब था। कहानी आगे बढ़ती कि कलुआ बीच में बोल पड़ा वाह महराज वाह भगवान को का भओ जा ओर बता देते तो मोरी आत्मा तर जाती। मासाब समझ गए कि लोहा गरम हो चुका है वे बोले ‘कलुआ पूरी भागवत एकई दिना में नई बाँची जात बाकी किस्सा और कोनऊ दिना आके सुन लईओ अबे तो तुम कलेवा कर लेओ और अपनी गैल पकड़ो।‘
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक गीत “चुनाव की छांव में”।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– परम संतोषी के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कथा – कहानी # 22 – परम संतोषी भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
असहमत फिर से, क्या करते हैं आप आज असहमत का कार्यक्रम सुबह फिर जलेबी-पोहा खाने का बना. सबेरे यही किया जाता है, ब्रेकफास्ट और कड़क चाय के बाद ही लोग सोशल मीडिया पर सक्रिय होते हैं. तो घर से बाहर निकलकर, सीधे सीधे सत्तर कदम चलने के बाद नुक्कड़ पर असहमत के कदम थम गये. दो रास्ते थे, राईट जाता तो मंदिर पहुंचता और लेफ्ट जाता तो गरमागरम जलेबियाँ खाता. असहमत, स्वतंत्र विचारों की रचना थी, गरमागरम जलेबी खाने का फैसला अटल था तो राइट नहीं लेफ्ट ही जाना था. पर नुक्कड़ पर चौबे जी खड़े थे. दोनों एक दूसरे को नज़र अंदाज़ कर सकते थे पर जब असहमत ने चौबे जी से “हैलो अंकल” कहा तो बात से बात निकलने का सिलसिला शुरु हो गया. चौबे जी तो श्राद्ध पक्ष से ही असहमत से खार खाये बैठे थे तो मौके का भरपूर प्रयोग किया. “अरे प्रणाम पंडित जी कहो, अंगरेज चले गये औलाद छोड़ गये. “
असहमत : अरे पंडित जी औलाद नहीं अंगरेजी है, अंग्रेजी छोड़ गये.
चौबे जी: तुम्हारे जैसे अंग्रेजों के गुलाम ही हिंदू धर्म को कमजोर कर रहे हैं तुम नकली हिंदुओं के कारण ही हिंदू एक नहीं हो पाते.
असहमत: अरे चोबे जी, ऐसा तो मत कहो, मैं मंदिर जाता हूँ जब मेरा मन अशांत होता है. “इस्लाम खतरे में है ” बोलबोलकर उन्होंने सरहद पार आतंकवादियों की फसल तैयार कर दी, अब आप हमको क्या सिखाना चाहते हो. भक्त और भगवान का तो सीधा लिंक है फिर ये एकता वाली चुनावी बातें किसलिए.
चौबे जी : हमको ज्ञान मत बांटो, तुम्हारे जैसे दो टके के लोग वाट्सएप पढ़ पढ़ कर ज्ञानी बने घूमते हैं. चलो हमारे साथ, राईट टर्न लो जहाँ मंदिर है.
असहमत : मैं अभी तो लेफ्ट ही लूंगा क्योंकि गरमागरम जलेबी और पोहा मेरा इंतजार कर रहे हैं, डिलीवरी ऑन पेमेंट. चलना है तो आप चलो मेरे साथ. चौबे जी का मन तो था पर बिना मंदिर गये वो कुछ ग्रहण नहीं करते थे.
तो चौबे जी ने अगला तीर छोड़ा ” हिंदू धर्म मानते हो तुम, मुझे तो नहीं लगता.
असहमत : अरे पंडित जी, ऐसी दुश्मनी मत निकालो, बजरंगबली का भक्त हूं मैं, थ्रू प्रापर चैनल पहुंचना है राम के पास. मेरे धर्म में मंदिर हैं, दर्शन की कतारें हैं, पूजा है, आरती है, जुलूस हैं, भंडारे हैं, ऊंचे पर्वतों पर माता रानी बैठी हैं और गुफाओं में शिव, बजरंगबली के दर्शन कभी कभी मंगलवार को कर लेता हूं पर जब यन अशांत होता है तो जरूर मंदिर जाता हूं, बहुत शांति और ऊर्जा मिलती है मुझे.
असहमत के जवाबों और अंदर की आस्था ने, धर्म के ब्रांड एम्बेसडर को हिला दिया. तर्क का स्थान असभ्यता और अनर्गल आरोपों ने ले लिया.
चौबे जी : चल झूठे, दोगला है तू, साले देशद्रोही है.
अब पानी शायद असहमत के सर से ऊपर जा रहा था या फिर गरमागरम जलेबी ठंडी होने की आशंका बलवती हो रही थी पर देशद्रोही होने का आरोप सब पर भारी पड़ा. जलेबी और पोहे को भूलकर, असहमत ने चौबेजी से कहा: अब ये तो आपने वो बात कह दी जिसे कहने का हक आपको देश के संविधान ने दिया ही नहीं. आप मुझे नकली हिंदू कहते रहते हैं मुझे बुरा नहीं लगता पर देशद्रोही, कैसे
मैं तिरंगे का अपमान नहीं करता
जब राष्ट्र गीत बजता है तो मैं चुइंगम नहीं खाता.
मैं रिश्वत नहीं खाता, चंदा नहीं खाता
आपत्तिजनक नारे नहीं लगाता
सेना में भर्ती होना चाहता था पर उनके मानदंडों पर पास नहीं हो पाया.
न मैं देशविरोधी हूँ और ना तो मैं सोचता हूँ न ही मेरी औकात है
मैं कोई अपराध भी नहीं हूँ, बेरोजगारी मुझे कभी कभी गुस्सा दिलाती है तो मैं जिम्मेदार लोगों की आलोचना करने लगता हूँ. मैं अपना वर्तमान सुधारने में लगा हूँ और वो इतिहास सुधारने में. अरे भाई लोगों मेरी चिंता करो, मुझे मेरे वोट का प्रतिदान चाहिये, मेरी समस्याओं का समाधान चाहिये, आपके वादों के परिणाम चाहिए. और आप हैं लगे हुये अगली वोटों की फसल उगाने में. एक फसल जाती है फिर दूसरी आती है और हमारे जैसे लोग हर गली हर नुक्कड़ पर इंतजार करते हैं वादों और सपनों के साकार होने का.
बात चौबे जी के लेवल की नहीं थी, उनके बस की भी नहीं तो उन्होंने इस मुलाकात का दार्शनिक अंत किया, वही संभव भी था और मंदिर की ओर बढ़ गये.
“होइ हे वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढावे साखा”
ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ ९ मार्च -संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर– ई – अभिव्यक्ती (मराठी)
मराठी नाट्यसृष्टी’ असे शब्द उच्चारले, तरी एक नाव अपरिहार्यपणे डोळ्यापुढे येतं , ते म्हणजे वि. भा. देशपांडे अर्थात विश्वनाथ भालचंद्र देशपांडे. त्यांनी काही आपल्या अभिनयाने रंगभूमी गाजवली नाही. त्यांनी नाट्यसृष्टीबद्दल विपुल लेखन केलं. ते बराच काळ महाराष्ट्र साहित्य परिषदेचे पदाधिकारी होते. २०१५पर्यन्त त्यांनी एकूण ५१ पुस्तके लिहिली. त्यापैकी २५ पुस्तके नाट्यविषयक आहेत. मराठी नाट्यकोश हा १२०० पानी ग्रंथ लिहिला आणि कोश वाङमयात मोलाची भर टाकली.
नाटकातील माणसं, गाजलेल्या भूमिका, नाटक नावाचे बेट, निळू फुले, नाट्यभ्रमणगाथा, निवडक नाट्यप्रवेश ( पौराणिक ), वारसा रंगभूमीचा, आचार्य अत्रे प्रतिभा आणि प्रतिमा ही त्यांची गाजलेली काही पुस्तके. नाटक, साहित्य, संगीत यावर त्यांनी नितांत प्रेम केले. आजवरच्या प्रवासात त्यांना भेटलेली माणसे, आणि त्यांचे आलेले अनुभव, म्हणजेच नाट्यभ्रमणगाथा हे त्यांचे पुस्तक. अनेक मोठमोठ्या नाट्यकलाकारांशी त्यांची ओळख झाली. स्नेह जुळले. त्यांची नाटके, त्यांचे प्रयोग, त्यांच्या कलेची आणि व्यक्तिमत्वाची वैशिष्ठ्ये, वि. भां. नी ओघवत्या शैलीत लिहिली. रंगभूमीच्या इतिहासातील अनेक घटना- प्रसंगही त्यातून उलगडले आहेत.
वि. भां.ना मिळालेले पुरस्कार
उत्कृष्ट संपादनासाठी महाराष्ट्र साहित्य परिषदेचा पुरस्कार
कॉसमॉस
नाट्यगौरव
नाट्यदर्पण
माधव मनोहर
रंगत संगत
राजा मंत्री
वी.स. खांडेकर नाट्य समीक्षक म्हणून पुरस्कार
पिंपरी-च्ंचवड महापालिकेने त्यांचा सन्मान करून गौरव केला.
वि. भां.चा जन्म ३१ मे १९३८ तर स्मृतिदिन ९ मार्च १९१७. त्यांच्या नाट्यक्षेत्रातील कार्याला मानाचा मुजरा.
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श्रीमती उज्ज्वला केळकर
ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ
मराठी विभाग
संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ महिला दिना निमित्त – स्त्री शक्तीला मानाचा मुजरा ☆ सौ. विद्या वसंत पराडकर ☆
(नमस्कार रसिकहो! जागतिक महिला दिनाच्या निमित्ताने सर्व महिलांवर शुभेच्छांचा वर्षाव करून भारतीय स्त्रीशक्तीला प्रस्तुत लेखाद्वारे मानाचा मुजरा प्रदान करीत आहे.)
भारतीय संस्कृतीत ‘स्त्रीला’ अनन्य साधारण स्थान आहे. पुरातन काळापासून आजच्या अत्याधुनिक युगापर्यंत ती ‘शक्ती देवता’ म्हणून ओळखल्या जाते. ती मांगल्य, सुचिता, पावित्र्य यांची मूर्ती आहे. प्रेम, वात्सल्य, ममता यांची कीर्ती आहे. नररत्नांची खाण आहे. कुटुंबाची शान आहे. समाजाची मान आहे.
आजची स्त्री उच्चविद्याविभूषित आहे. पुरुषांच्या खांद्याला खांदा लावून ती आपल्या कर्तव्य कर्मात उभी आहे. चूल व मूल ही दोन्ही क्षेत्रे सांभाळून तिने आर्थिक बाजूही सांभाळली आहे. खरेच कुटुंबाची ती ‘कणा’ आहे. स्वाभिमान,अस्मिता हा तिचा बाणा आहे. जवळ जवळ सर्वच क्षेत्रे तिने आज पादाक्रांत केली आहे. केवळ पृथ्वीवरच नव्हे तर अंतराळात जाणारी भारतीय पहिली स्त्री कल्पना चावला हिने हा मान मिळविला आहे.
स्वतंत्र भारताच्या पहिल्या पंतप्रधान इंदिरा गांधी होत्या. प्रतिभाताई पाटील यांनी पहिल्या राष्ट्रपती पदाचे स्थान भुषविले आहे. अगदी अलीकडचे उदाहरण द्यायचे असेल तर स्वाती महाडिक व सुप्रिया म्हात्रे यांचे देता येईल. तसेच अगदी अलीकडे अंतराळात गेलेली भारतीय महिला म्हणजे शिरीष बंदला ही होय.
स्त्रीचे महत्व हे नदीसारखे असते. म्हणून केवळ प्रसंगोचित तिचा उदो उदो न करता नेहमीच तिला शाश्वत मानबिंदू देणे समाजाचे कर्तव्य नव्हे का? कोणत्याही विकृत भावनेला बळी न पडता समाजाने तिच्याकडे बघण्याचा आपला दृष्टिकोन बदलला पाहिजे. या नवीन दृष्टिकोनाचे पालन केल्यास आज आपण समाजात तिचे भेसुर, भयान, निंदास्पद अपमानकारक चित्र बघतो ते मिटविण्यास मदत होईल. स्त्री एक आदर्श माता आहे. याचा अंगीकार केल्यास जिजाबाई ला शिवबा निर्माण करता येईल. नव्या युगाला औरंगजेबाची गरज नसून शिवबाची नितांत गरज आहे. शिवरायाचा आदर्श व आदर म्हणजेच स्त्रीत्वाचा गौरव होईल व स्त्रीत्वाचा गौरव हाच तिला केलेला मानाचा मुजरा होईल. म्हणूनच कवी म्हणतो,
| मूर्तिमंत लक्ष्मी तू घरादारांची
कुशल अष्टपैलू मंत्री तू जीवनाची
शिल्पकार तू नवनिर्मितीची
खाण असे तू नररत्नांची |
| दुर्गा असे तू जीवन संघर्षाची
कालिका भासे तू रौद्ररुपाची
राणी असे तू स्वातंत्र लक्ष्मीची
संगम देवता तू शक्तीयुक्तीची |
| ढाल असे तू कुटुंब देशाची
प्रतिकाराच्या तलवारीची
कीर्तिवंत तू कर्मभूमीची
सदा वंदनीय तू युगायुगांची |
या स्त्रीच्या यशोगाथेचा गौरव करून माझ्या लिखाणाला पूर्णविराम देते
गेली अनेक वर्षे आठ मार्च हा जागतिक महिला दिन म्हणून साजरा होतो, अनेक ठिकाणी कार्यक्रम आयोजित केले जातात, कर्तृत्ववान महिलांचे सत्कार होतात, मी विविध क्षेत्रातील महिलांच्या मुलाखती आठ मार्चच्या निमित्ताने लिहिल्या आहेत. आज मी ज्या महिलेचा परिचय करून देणार आहे ती अत्यंत कर्तृत्ववान आणि उच्चविद्याविभूषित स्त्री आहे, कविवर्य बा. भ. बोरकर म्हणतात त्या,प्रमाणे….”दिव्यत्वाची जेथ प्रचिती तेथे कर माझे जुळती” …तशीच जिच्या दिव्यतेची गेली अनेक वर्षे प्रचिती वैद्यकीय क्षेत्रात येत आहे ती डाॅ.आरती किणीकर !
डाॅ. आरती किणीकर कार्य कर्तृत्ववाने महान आहे पण वयाने माझ्यापेक्षा लहान असल्यामुळे मी तिला एकेरी संबोधत आहे.
आरती किणीकर बी.जे.मेडिकल काॅलेजमध्ये प्रोफेसर असून, ससून हाॅस्पिटलमध्ये बालरोगतज्ज्ञ (विभाग प्रमुख ) आहे.
विद्यार्थीप्रिय प्रोफेसर, निष्णात डॉक्टर अशी ख्याती असूनही कुठल्याही प्रकारचा अहंकार, गर्व नसलेलं, मृदू भाषिक, प्रसन्न व्यक्तिमत्त्व म्हणजे डॉ.आरती किणीकर! बालरोग तज्ज्ञ असल्यामुळे लहानमुलांच्या आजारावर विशेष संशोधन, थॅलेसेमिया या आजाराविषयक जागरूकता निर्माण करून यशस्वी उपाय योजना, ससून हाॅस्पिटलच्या माध्यमातून अनेक खेडी दत्तक घेऊन कुपोषित बालकांच्या समस्येवर उपाय शोधून, त्या बाबतीतही भरीव कार्य करीत आहे.
डाॅ. आरती किणीकर शालेय शिक्षण काॅन्व्हेंट मधे झाले असून, वडिलांच्या बदलीच्या नोकरी मुळे पुणे, कोल्हापूर, रत्नागिरी, धुळे, जळगाव, औरंगाबाद, मुंबई इ.शहरात शालेय शिक्षण झाले!
वैद्यकीय शिक्षण एम.बी.बी.एस.,एम.डी( मुंबई ), एम.आर.सी.पी.(इंग्लंड)
अतिशय बुद्धिमान विद्यार्थिनी, यशस्वी डॉक्टर! कर्तव्यदक्ष संसारी स्त्री, पत्नी, सून, आई या सर्व भूमिकेत उत्कृष्ट महिला!
कोरोनो काळात कोविड 19 च्या जागतिक संकटाच्या काळात पुण्यात प्रतिबंधक उपायांसाठी दहा डॉक्टर्स ची टीम नियुक्त करण्यात आली त्यात डॉ.आरती किणीकरचा समावेश आहे. कोरोनाच्या पहिल्या लाटेत – व्हेंटिलेटरचा तुटवडा पडल्याने अनेक रूग्ण दगावले, डाॅ. आरती किणीकर यांनी स्वतः संशोधन करून विशिष्ट प्रकारचे व्हेंटिलेटर्स अतिशय कमी किंमतीत उपलब्ध करून दिले, इतरही अनेक वैद्यकीय यशस्वी प्रयोग केलेआहेत.
डॉक्टर असल्यामुळे कोरोना योद्धा तर आहेच.अतिशय व्यग्र असूनही घर संसारही अतिशय नीटनेटका, वयोवृद्ध सासू सासरे यांची अतिशय उत्तम देखभाल आणि निगराणी राखली! पती डाॅ.अविनाश किणीकर हे सुद्धा बालरोग तज्ज्ञ आहेत. मुलगा आशुतोष इंजिनिअर आहे.
डाॅ. आरती किणीकर पूर्वाश्रमीची नयना चव्हाण, मला सांगायला अतिशय अभिमान वाटतो की ती माझी मावस बहीण आहे.
डॉक्टर म्हणून ती ग्रेट आहेच पण माणूस म्हणूनही खूप चांगली आहे. वैद्यकीय व्यवसायातलं तिचं कार्यकर्तृत्व मोठं आहेत, त्या क्षेत्रात तिला अनेक पुरस्कार मिळाले आहेत, गेली अनेक वर्षे मी तिचे तिच्या क्षेत्रातील अथक परिश्रम पहात आहे!
आठ मार्चच्या निमित्ताने तिचे अभिनंदन आणि कौतुक!
स्वतःचं वेगळं अस्तित्व निर्माण करणा-या स्वयंसिद्ध स्त्रिया म्हणजे मला अष्टभूजेच्या कन्याच वाटतात. विविध क्षेत्रातील या अष्टभूजेच्या कन्यांना माझा सलाम!
“अगं! जीवापल्याड जपलंय मी रूप्याला. आता तो म्हातारा झालाय म्हणून त्येला ईकायचा. मरू दे की दावणीला त्याला. ईकायचं म्हणजे कसायाला द्याचा. हे बरं वाटतय का तुला?”
“हे सारं खर हाय. पण बापूसाबानां कोण सांगणार? आपलं सारं घरच ते चालवित्यात. कारभारी हायत घरांच. “
एरव्ही चवीनं जेवणारा तात्या पण आज त्याचा जेवणाचा मूडच गेलावता. तरीभी मालकिनीच्या आर्जवांवर त्यानं निम्मं जेवण केलंवत.
त्या दिवशी दुपारी झोपणा-या तात्याची झोप उडाली होती. तो सारखा रूप्याकडे बघत होता.
सायंकाळचा वकूत. तात्याचा थोरला भाऊ बापू एका गि-हाईकाला घेवून गोट्यात आलावता.
“आर्ं शामू!जरा रूप्याला ऊठव. एक गि-हाईक आलय”
हे बोलणं ऐकल्यावर तात्याच्या डोळ्यांत चटकण पाणी आलं.
“बापू माझ्या रूप्याला तेवढं ईकू नका. मी त्येला दावणीवर मरू देणार हाय. त्याचं सारं मी करणार हाय”
“आरं शामू खूळा हायस का काय?हे बघ आता त्येला कामांचं काय जमणार हाय का? आज चालतूय तोवर विकू या. चार-पांचशे रू. तरी येतील. जरा शहाण्यासारखा वाग. “
तात्याला काय बोलावं ते कळंनासं. तात्याचं वडील काटी टेकत आलं. ते भी काय बोललं नाय. त्यात तात्या धाकटा. जनावराचा कारभारी. चोवीस तास घरगड्यासारखा वागणारा. पण त्याच्या हातात कारभार नव्हता.
पाच सहा दिवस असेच निघून गेले. तात्याला वाटलं बहूधा रूप्याला ईकायचा बेत रद्द झालाय. त्याला बरं वाटलं.
आज तात्या दुपारी वैरण आणायला माळाच्या पट्टीकडं गेलावता. जरा ऊन्ह असल्यानं तसा त्याला आज वकूतच झालावता. वैरण आणेपर्यंत दिवस मावळावता. का कुणास ठावं मात्र तात्याला कधी नव्हं तो उशीर झालावता.
तात्या गोट्याकडं आला त्यावेळी सांज झालीवती. त्यानं गोट्यापुढं वैरण टाकली. पण नेहमीप्रमाणं गोटा जागा झाला नाही. म्हसरं ऊटली पण सोन्या काय उटला नाय. तात्यानं पाहिलं रूप्याची दावण रिकामी दिसत होती. हे पाहील्यावर तात्या मटकन खाली बसला. त्याच्या डोळ्यातनं पाणी वाहू लागलं. शेवटी बापूनीं त्याचा शब्द खरा केला होता. बरं त्याला आडवणारं कोण होतं?. घरातली बापूचीच बाजू घेत.
तात्यानं बिंडा सोडला नाय. त्याला तो सोडावा असंही वाटलं नाय. तात्याचं काळीज फाटलं होतं. काळजात रूप्याची सय दाटून आली. तात्याशिवाय तो टाकलेली वैरण खात नव्हता कि पाणी पित नव्हता. तात्याला सारं आठवलं. डोळ्यांत ढग दाटलं.
तात्या वैरण न टाकताच घराकडं आला. बापू सोप्यात बसला होता.
“बापू ईकायचा होता तर माझ्या समोर ईकायचा. मी माझ्या हातानं त्याला भाकरी भरवणार होतो. तू बाकी डाव साधलास बघ!”
तात्या सोप्यात रडू लागला. बापू गप्प होता. एक खरं होतं की तात्या असता तर तात्यानं रूप्याला जाऊच दिलं नसतं . रूप्याही सजागती गेला नसता. त्यामूळं नेमकं बापूला हेच नको होतं. तात्याच्या डोळ्यांत पाणी बघून बापू पण हेलावला.
पण हे बेगडी प्रेम होतं हे तात्याच्या कवाच लक्षात आलं होतं. तसं असतं तर त्यानीं माझ्या रूप्याला केंव्हाच विकला नसता.
तात्या ऊटला. सरळ गोट्याकडं आला. बरचं अंधारलवतं. तात्यानं डोळं पुसलं. वैरणीचा बिंडा सोडला. थोडी थोडी वैरण त्यानं सोन्याला अन म्हसरानां टाकली. माझ्या रूप्याची वैरण म्हणत त्याला उचंबळून आलं. तो ढसाढसा रडू लागला. त्या दिवशी तात्या ना जेवला ना झोपला. मालकिनीनं ,पोरानं मस्त मिनत्या केल्या पण काय उपेग झाला नाय.
तात्या दोन दिवस न जेवल्याचं कळताच वाडीतले रामरावआण्णा तात्याकडं आले. त्यानां पाहताच तात्याला जोरात हुंदका फुटला.
“आरं शामू हे रं काय? असा खुळ्यासारखा का रडतूयस. हे बघ!ही जगरहाटी हाय. आजचा तरणा बैल उद्या म्हातारा होणार. चार महिन्यांनतर का हूईनां शेवटी तो बसणारच हूता. पुन्हा त्येला कोण ऊटवणार? पहिलं दिवस न्यारं हूतं. माणसाला माणूस उभा रहात हूता. असं करू नगस. चार घास खा बघू. “
क्रमश: …..
– मेहबूब जमादार
मु- कासमवाडी, पो-पेठ, ता-वाळवा
जि-सांगली.मो-९९७०९००२४३
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈