हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 3 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 3 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आज से आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

मझधार 

ऐम्सटर्डम उतर कर पीठ पर बैग यानी केबिन लगेज लेकर चलते रहो। हमारा चेक इन लगेज हमें मॉन्ट्रीयल में ही मिलेंगे। मैं ने श्रीमती से पूछा, ‘भारत में चेक इन लगेज की कोई रसीद मिली थी?’ पता चला वह तो बोर्डिंग पास में ही लगी हुई है।

कदम कदम बढ़ाये जा, खुशी के गीत गाये जा! तो हम चलता बने। दाहिने बांये। बांये दाहिने। कहाँ से कहाँ। कहीं कहीं वृद्ध वृद्धायें उनके लिए बनी जगह में इंतजार में हैं कि कब उनके लिए एअरपोर्ट की सवारी गाड़ी आये। वहाँ हम लोगों के बैठने की मनाही है। अरे साहब, हम भी ठहरे सीनियर सिटीजन। उम्र के साठ नंबर घाट पर जीवन नैया लग चुकी है। फिर भी सफाई एवं इन्तजाम के मामले में जरूर कहेंगे – हमारी दिल्ली सवा सेर। और कहीं भी इस दूरी को तय करने के लिए एअरपोर्ट टैक्सी सुलभ नहीं है। एक जगह रुक कर एक डच ऑफिसर से पूछा,‘हमें अगली केएलएम फ्लाइट से मॉन्ट्रीयल जाना है। तो -’

‘हाँ आगे जाकर बांये लाइन में लग जाइये। वहीं सिक्यूरिटी चेक होगा।’ उन्होंने निर्देश दिया।

फिर सर्पिल लाइन आगे खिसकती गई। सामने बेल्ट पर खिसकती ट्रे की कतारें। हाथ में मेटल डिटेक्टर लिये ऑफिसर लोग खड़े हैं। इनमें कई अफ्रीकी भी हैं। याद रखिए इन्हें निग्रो कहना शिष्टाचार के विरुद्ध है। पर साहित्य में तो निग्रो कविता की एक अलग धारा है। आप कलर्ड कह सकते हैं। वाह भई, सीधे रंगभेद पर उतर आये ? हाँ तो क्या कह रहा था ? ऑफिसर ने कहा, ‘मोबाइल पर्स सब ट्रे पर रक्खें। बेल्ट भी। ‘बाई डेफिनेशन’ यही सिक्यूरिटी चेक है।’ आदेश का पालन करते रहे। इधर मैं, उधर वो। अरे भाई विदेश भ्रमण के चक्कर में मेरी ‘वो’ खो न जाए। इकलौती हैं। बुढ़ौती की दहलीज पर खड़े मैं फिर क्या करूँगा ?

 मेरी खूबी देखकर नहीं, बल्कि पिताश्री की प्रतिष्ठा के कारण ही मुझे वो मिल सकी थीं। उन दिनों मेरी जेब का वजन ही क्या हुआ करता था ? असीम शून्य को गँठिया के चलता था। ससुरजी ने सोचा होगा कि ‘चलो डक्टरोआ की कमाई जितनी भी हो। बेटी के सर पर एक छत तो मिलबे करेगी।’

हाँ, तो हमारे किसी महामहिम को अतलांतिक पार जाने पर जाने क्या क्या खोलना पड़ा था ! वाह रे साम्राज्यवाद! तुमको देना है दाद! क्या क्या  दिखलाओगे, और क्या क्या देखोगे ? एक सवाल – कदंब की डाल पर बैठे नटखट कान्हा यमुना में नहा रहीं गोपिओं का सिक्योरिटी क्लिअरेंस ले रहे थे क्या ? क्या इसी एपिसोड का नाम है वस्त्रहरण ? राधे! राधे! 

ऐम्सटर्डम के समयानुसार दो बजे की फ्लाइट है। यानी छह घंटे का पापड़ बेलन कार्यक्रम। मैं ने अपनी घड़ी को लोकल ‘टाइमानुसार’ मिला लिया था। चलो विदेशी ‘दरबारे परिन्द’ यानी एअरपोर्ट का चक्कर लगाया जाए। मैं ने श्रीमती से कहा, ‘प्लेन में उदर बैंक एकाउन्ट में क्रेडिट तो हो गया था। अब जरा उस एकाउन्ट से डेबिट भी कर लें।’ यानी ‘लू’, यानी ‘नम्बर टू’। (विद्वज्जनों, ऑक्सफोर्ड एडवान्सड् लर्नर’स डिक्शनरी ऑफ करेन्ट इंग्लिश में नंबर वन और नंबर टू उन्हीं अर्थो में दिया गया है। सो कृपया मेरे ऊपर अश्लीलता का, भदेसिया होने का दोषारोपण न करें।) मानस के अयोध्याकांड में है :- बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू।। राम को मनाने जंगल में आये लोगों से वे कहते हैं, ‘आप (वशिष्ठजी) एवं जनकजी के रहते मेरा कुछ कहना सब प्रकार से भद्दा या अनुचित है।’    

तो दिशा निर्देश पढ़ते हुए आगे बढ़ता गया एवं आखिर – वो वो रहा प्रातःकालीन आरधना का वह मंदिर। बस एनक्वैरी काउंटर के सामने यानी बांये। अर्द्धांगिनी को बाहर बिठाकर मैं अंदर हुआ दाखिल। वही सफाई। चमाचम। मगर दो तीन सज्जन पहले से खड़े थे और सामने के दरवाजे अवरूद्ध। तो यह है प्रभात वेला की पंक्ति। कभी वे दायें पैर पर बैलेंस सँभाल रहे हैं, तो कभी बायें पैर पर। यानी जोर का लगल हौ, गुरु! किंचित विलम्ब के पश्चात एक कपाट खुला। मैं ने खुद को रोका। क्योंकि अंदर किनारे में एक श्यामसुंदरी सफाई कर रही है।

अच्छा, यह तो बताइये कि श्यामा के अर्थों में सुंदरी स्त्री के साथ साथ विशेषकर षोडशी का भी उल्लेख क्यों मिलता है ? राजपाल में नहीं है। पर जरा संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर कोश तो खोल कर देखिए। श्रवण कीजिए सूर की विशेषणावली :- श्यामा कामा चतुरा नवला प्रमुदा सुमदा नारि। ‘मेघदूत’ में आये श्यामा शब्द के अर्थ में मल्लिनाथ ने युवती कहा है। भट्टिकाव्य के लिए भरतमल्लिक ने लिखा है :- तप्तकांचनवर्णाभा सास्त्री श्यामेति कथ्यतेः! याद है अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, प्रेम चोपड़ा और शशि कपूर अभिनीत वो फिल्म ‘काला सोना’? मानस के बालकांड में लिखा है कि श्रेष्ठ देवांगनाएँ सुन्दरिओं के भेस में राम विवाह देखने मिथिला पहुँची हैं। सभी स्वभाव से ही सुन्दरी और श्यामा यानी सोलह बरस की लग रही हैं। वाह! नारि बेश जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा।। जरा गौर फरमाइये – हमारे महाकाव्यों के दोनों महानायक पात्र – राम एवं श्रीकृष्ण भी श्याम वर्ण के हैं। कहा जाता है बॉलीवुड में गोरे चिट्टे नवीन निश्चल के पत्ते गोल कर दिये थे एक नये नये आये ऐंगरी इयंग मैन ने। जिनकी ऊँचाई तो काफी थी, साथ साथ वो कुछ साँवले ही थे। टॉल, डार्क एवम् हैन्डसम!

चलिए भाई, समय हो गया। मैं भी हो गया निर्भय। मगर कार्य के पश्चात यह क्या? जलक्रीड़ा करने का तो कौनो साधन नाहीं ! फिर भी काशी में गंगा पार दिशा फिरना एक बात है और यहाँ तो यूरोप के किनारे विदेश की पृष्ठभूमि में उस कार्य का सम्पादन करना – अपने आप में एक चरमोत्कर्ष है। उत्तरी सागर के समीप हॉलैंड की राजधानी में वह लुत्फ उठाना, वाह! मानो अपनी काली काली आँखों से किसी नील नैनवाली से नैना लड़ाना !

मगर होनी को कौन टाल सकता है? नियति को न बाध्यते ? सखा पार्थ को दिव्यरूप दिखानेवाले, गीता का महोपदेश सुनानेवाले घनश्याम अपनी बहन सुभद्रा के लाडले को, यानी अपने भाँजे तक को तो बचा न सके। काम तो सकुशल संपन्न हो गया। मगर सरवा दरवज्जा नहीं खुल रहा है। दाहिने, बांये। हैंडिल घुमाता रहा। परंतु सारी चेष्टा व्यर्थ। खुल जा सिमसिम! चालीस डाकुओं के गुफा में बंद अलीबाबा के भ्राताश्री कासिम की तरह मैं परेशान। आखिर जितनी एबीसीडी की अंग्रेजी आती है, उसी के बल पर मैं चिल्लाया,‘हेल्प! एनि बॉडी देअर ? प्लीज हेल्प!’

थोड़ी देर में वही वामाकंठ – अफ्रीकी सुर में,‘व्हाट हैपेन्ड? एनि बॉडी इनसाइड?’

तो और कहाँ हूँ महारानी ? अब दूर करो मेरी परेशानी !

‘वेट। आयाम यूशिंग माई की -। जस्ट बी पेशेंट।’

अरे बहनजी, यहाँ तो मैं सचमुच का पेशेंट बन गया हूँ। चलो विहंग हुआ मुक्त। बाहर निकलते ही बीवी की बहन मुस्कुराकर कहती क्या हैं,‘पैंट की जीप तो लगा लो।’ 

मन्ना दे याद आ गये। ‘कैसे समझाऊँ ? बड़ी नासमझ हो।’ पहले साबुन से हाथ तो धो लें। सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए।। (बालकांड। शौचक्रिया करके राम लक्ष्मण जाकर नहाये। फिर नित्यकर्म समाप्त करके विश्वामित्र को मस्तक नवाया।)

फिर प्रस्थान। चक्करम् यत्र तत्र। एक उपहार केन्द्र में पहुँचा। लकड़ी के बने खूबसूरत रंगबिरंगी ट्यूलिप के फूल बिक रहे हैं। विभिन्न आकार के। लाल हरे नीले काले पीले वगैरह ….। मगर मूल्य ? बंगला में एक शब्द है – अग्निमूल्य ! जैसे इस समय प्याज का भाव है। अरे हिन्दी के पाणिनी, यहाँ वह शब्द प्रचलित क्यों नहीं है ?बड़े छोटे कई साइज के। कुछ तो गुच्छों में भी बिक रहे थे। आखिर हमने डरते डरते फ्रिज के दरवाजे पर लगाने वाले तीन बनी और टेडी लिए। उपहार में देने के लिए। कीमत? दस यूरो के तीन। यानी सात सौ रुपये। सभी ने कहा था,‘रुपये में हिसाब मत लगाया करना। वरना एक बोतल पानी खरीदना भी दुश्वार हो जायेगा।’

नेदरलैंड होने के कारण इन दुकानों में और एक चीज खूब बिकती है। तरह तरह की वस्तुओं से बनी गाय। सफेद पर काले या भूरे धब्बे। वाह! अच्छा, अगर नंदबाबा अपने कान्हा और बलराम को लेकर यहाँ आते तो क्या होता? बेचारी यशोदा अपने नन्हे को सँभालने की कोशिश करती रहतीं और कन्हैया माँ का हाथ छुड़ा छुड़ा कर भागते,‘बाबू, हम्में वो वाली गाय दिला दो न।’

जो सारी दुनिया को सारा खजाना दे, वही तो ऐसे अकिंचन की भूमिका बखूबी से निभा सकता है।

उसके आगे जाते जाते एक बीयर की दुकान के सामने हम खड़े हो गये,‘अरे यहाँ तो कॉफी भी बिक रही है। चलो।’ मूल्य एवं मात्रा दोनों अच्छी तरह समझ बूझ कर मैं ने एक छोटी कप ली। उसीसे हम दोनों का काम निपट जायेगा। दुकानदार ने बताया तीन साइज की कप में कॉफी मिलती है। लार्ज, मिडियम और स्मॉल। दुकानदार एक नौजवान था। क्या हाइट! उससे बातचीत होती रही। कहाँ से आये हैं? कहाँ जा रहे हैं ? मॉन्ट्रीयल में किसके पास जा रहे हैं ? वहाँ नहीं, किंग्सटन में आपकी बेटी रहती है? वहाँ काम करती है ? अच्छा, आपका दामाद क्वीनस् यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं ? तो फिर आपको इतने दूर कैसे रिश्ता मिल गया ? अच्छा, तो आपके यहाँ अभी भी बाप माँ ही शादी ब्याह का निर्णय लेते हैं ? वाह!

कॉफी पीते हुए अगल बगल बैठे सज्जनों से भी हाय हैलो होता रहा। मैं ने तो पहले से ही पैसा दे रक्खा था। भई, बाद में कोई बखेड़ा खड़ा न हो कि मैं ने तो इतना बताया था आपही समझ न सके, वगैरह। एक लिफाफे में विदेशी मुद्रा लेकर हम चल रहे थे। उसमें कनाडियन डॉलर भी थे। उन्हें देखकर उसने पूछा, ‘अरे ये नोट कहाँ के हैं ?’

‘कनाडा के।’

बस बात शुरू हो गई कि आप कहाँ के हैं? कनाडा में कहाँ जा रहे हैं?

बैठे बैठे आते जाते लोगों को भी देख रहा था। मैं ने श्रीमती से कहा, ‘डच बालायें सुन्दरी हों न हों, मगर उनकी हाइट तो बस माशा अल्लाह! यहाँ की जसोदा तो जमीन पर खड़े खड़ेे अपने कृष्ण के लिए चंदामामा को उतार ला सकती हैं।’

दुकान से निकला। फिर घुमक्कड़ी। नहाने की प्रबल इच्छा हो रही थी। गाड़ी पर बैठे एक सफाई करनेवाले सज्जन से पूछा तो उसने इशारे से दिखा दिया – सीढ़ी से ऊपर चले जाओ।

अरे उधर तो एक दिशा निर्देश भी लगा है। सीढ़ी से उठकर बोर्ड देखा तो धड़ाम। नहाने की फीस पंद्रह यूरो। यानी ……..। अमां, छोड़ो यह हिसाब लगाना। यहाँ तो ऐसे ही पसीने छूट रहे हैं।

बेटी ने कह रक्खा था यहाँ के मैक्डोनल्ड का चिकन बर्गर का स्वाद जरूर लीजिएगा। उसी दूसरी मंजिल पर ही वे दुकानें थीं। पहली दुकान तो सिर्फ वेज की थी। चिकन बर्गर के साथ हमने आम अनन्नास का जूस भी लिया। दोनों उत्तम। ऊपर बैठे बैठे नीचे का नजारा ले रहा था। अरे वो देखो – वो हिन्दुस्तान के लग रहे हैं न? हाँ हाँ, औरत के हाथ में शांखा टाइप की चूड़ी है। सिन्दूर है कि नहीं ख्याल किया ?ऊपर से कैसे देखते भाई ?   

तभी सामने ग्राउंड फ्लोर पर एक उपहार केन्द्र की ओर देखा तो देखते ही रह गया। अरे वाह! एक बड़ी सी गाय की स्टैचू खड़ी है दुकान के सामने। याद आ गया गोदौलिया गिर्जाघर के बीच का चिकन कार्नर की दुकान। जहाँ एक जीता जागता सांड़ हर समय दुकान के अंदर बैठा रहता था। आजकल उसकी मूर्ति है वहाँ। और एक सांड़ की काली मूर्ति है मेनका मंदिर के सन्निकट।

पता चला यहाँ भी हमारी फ्लाइट गेट नम्बर आठ से ही छूटेगी। फिर प्रतीक्षा। हम जब वहाँ पहुँचे तो वहाँ बिलकुल सुनसान था। अरे भाई, हम कहीं गलत जगह पर तो नहीं न आ गये? इधर उधर पूछा। सभी ने कहा – आगे आगे देखिए होता है क्या।

बैठे बैठे चित्रांकन आदि। देखा एक नल से फव्वारे की तरह पानी निकल रहा है। चलो उसे पीकर आयें। एक अफ्रीकी दीदी अपनी छोटी बहन को सँभाल रही थी। बच्ची कितनी निश्चिन्त थी। अँगूठा चूसते हुए मुझे घूर रही थी। ज्यों मेरी नजर उसकी आँखां से मिलती वह मुँह फेर लेती। नन्ही की नजाकत।

एक सज्जन आगे खाली पोर्टिको में बैठे योगा करने लगे। मैं भी वहाँ जाकर जरा अपनी कमर एवं घुटने की सेवा करने लगा। फिर धीरे धीरे उधर ही जमावड़ा इकठ्ठा होने लगा। हम जहाँ बैठे थे, उसकी दाहिनी ओर एक शीशे  की दीवार थी। थोड़ी देर में देखा कि वहाँ पता नहीं कौन सा जापानी मार्शल आर्ट सिखाया जा रहा है। नृत्य के छंद में सशक्तिकरण। लयबद्ध क्रम में सबके हाथ हिल रहे हैं। कभी ऊपर, कभी सामने तो फिर नीचे। चारों ओर तमाशबीन। उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता। वाह! अपने में मस्त।

इतने में नील परिओं का आगमन एवं मेरा मुग्धावलोकन। यानी दीदारे हुस्न। साथ साथ दीदारे हाइट। प्रयोग सही है न? फिर डुगडुगी बजी – चलो, लगो लाइन में। उधर पता नहीं बीच बीच में साइरेन जैसी कैसी आवाज हो रही थी, तो ऑपरेटिंग डेस्क पर बैठा खिचड़ी दाढ़ीवाले ऑफिसर बार बार उधर दौड़ा जाता। यहाँ बस के टिकट की तरह बोर्डिंग पास को फाड़ा नहीं गया। हम अंदर दाखिल हुए।

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता #133 – “मैं पुत्र वो मेरा पिता है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।

आज से प्रस्तुत है परमपूज्य पिताजी की स्मृति में रचित श्रद्धांजलि स्वरुप एक भावप्रवण कविता “मैं पुत्र वो मेरा पिता है…”)

? कविता – “मैं पुत्र वो मेरा पिता है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

(पिताजी उस्ताद शंकर लाल पटवा ने 18 मार्च 2018 के दिन यमलोक प्रस्थान किया था। उनकी पुण्य तिथि पर सादर नमन ?)

जिस तरह वे जिए

बहुत कम जीते हैं

चषक जी भर पिया

अब प्याले रीते हैं

 

कल आज और कल

ये अतीत का नजारा,

सिमटा इसमें हमारा कल

बीत गया रीत गया,

 

कल कल बहता

काल का झरना,

नही हमेशा किसी को रहना

अटल सत्य

मैं पुत्र वो मेरा पिता है

सामने काल बनकर

खड़ा चिता है

 

बनाया जिसने

काल को वो

सबका पिता है

खुद आया नौ बार

तीन बार दूत भेजे

क्या खुद या दूत

काल के गाल से

गराल से

मार से बचा है !

 

बता

क्यों ये खेल

तूने रचा है ?

 

(केदार नाथ यात्रा के समय का फ़ोटो)

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 32 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 32 ??

तीर्थाटन का महत्व-

1) सभी तीर्थ जलवायु की दृष्टि से बेहद उपयोगी स्थान हैं। इन सभी स्थानों पर नदी का जल स्वास्थ्यप्रद है। अनेक प्राकृतिक लवण पाए जाते हैं जिससे जल सुपाच्य और औषधि का काम करता है। विशेषकर गंगाजल को  संजीवनी यों ही नहीं कहा गया। बढ़ती जनसंख्या, प्रदूषण, उचित रखरखाव  के अभाव ने अनेक स्थानों पर तीर्थ की अवस्था पहले जैसी नहीं रहने दी है तथापि गंगा का अमृतवाहिनी स्वरूप आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करता है।

2) तीर्थयात्रा को पदयात्रा से जोड़ने की उदात्त दृष्टि हमारे पूर्वजों की रही। आयुर्वेद इसे प्रमेह चिकित्सा कहता है। पैदल चलने से विशेषकर कमर के नीचे के अंग पुष्ट होते हैं। पूरे शरीर में ऊर्जा का प्रवाह होता है। भूख अच्छी लगती है, पाचन संस्थान प्रभावी रूप से काम करता हो।

3) व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त करने की कुँजी है तीर्थाटन। लोकोक्ति है, ‘जिसके पैर फटे न बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई!’ तीर्थाटन में अच्छे-बुरे, अनुकूल-प्रतिकूल सभी तरह के अनुभव होते हैं। अनुभव से अर्जित ज्ञान, किताबी ज्ञान से अनेक गुना प्रभावी, सच्चा और सदा स्मरण रहनेवाला होता है। इस आलेख के लेखक की एक चर्चित कविता की पंक्तियाँ हैं,

उसने पढ़ी

आदमी पर लिखी किताबें,

मैं आदमी को पढ़ता रहा!

तीर्थाटन में नये लोग मिलते हैं। यह पढ़ना-पढ़ाना जीवन को स्थायी सीख देता है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा#73 ☆ गजल – ’’बन सके जनतंत्र का मंदिर परम पावन शिवाला” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “बन सके जनतंत्र का मंदिर परम पावन शिवाला”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 73 ☆ गजल – ’बन सके जनतंत्र का मंदिर परम पावन शिवाला’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

लोकतंत्र का बना जब से देश में मन्दिर निराला

बड़े श्रद्धा भाव से क्रमशः उसे हमने सम्हाला।

 

किन्तु अपने ढंग से मन्दिर में घुस पाये जो जब भी

बेझिझक करते रहे वे कई तरह गड़बड़ घोटाला।

 

जनता करती रही पूजा और आशा शुभ की

राजनेताओं को पहनाती रही नित फूल माला।

 

पर सभी पंडे-पुजारी मिलके मनमानी मचाये

भक्तों की श्रद्धा को आदर दे कभी मन से न पाला।

 

हो निराश-हताश भी सहती रही जनता दुखों को

पर किसी ने कभी मुँह से नही ’उफ’ तक भी निकाला

 

देखकर दुख-दर्द, सहसा, दुर्दशा कठिनाइयों को

आये ’अन्ना’ लिये दृढ़ता दिखाने पावन उजाला।

 

राज मंदिर से कि जिससें मिले शुद्ध प्रसाद सबकों

कोई मंदिर में न जाये, जिस किसी का मन हो काला।

 

फिर वह मंदिर जिसका रंग मौसम ने कर डाला है धूमिल

नये रंग से नयी सजधज से पुनः जाये सम्हाला।।

 

दिखती है जन जागरण की आ गई है मधुर वेला

बन सके जनतंत्र का मंदिर परम पावन शिवाला ।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#83 – आखिरी प्रयास ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #83 – आखिरी प्रयास ☆ श्री आशीष कुमार

किसी दूर गाँव में एक पुजारी रहते थे जो हमेशा धर्म कर्म के कामों में लगे रहते थे। एक दिन किसी काम से गांव के बाहर जा रहे थे तो अचानक उनकी नज़र एक बड़े से पत्थर पर पड़ी। तभी उनके मन में विचार आया कितना विशाल पत्थर है क्यूँ ना इस पत्थर से भगवान की एक मूर्ति बनाई जाये। यही सोचकर पुजारी ने वो पत्थर उठवा लिया।

गाँव लौटते हुए पुजारी ने वो पत्थर के टुकड़ा एक मूर्तिकार को दे दिया जो बहुत ही प्रसिद्ध मूर्तिकार था। अब मूर्तिकार जल्दी ही अपने औजार लेकर पत्थर को काटने में जुट गया। जैसे ही मूर्तिकार ने पहला वार किया उसे एहसास हुआ की पत्थर बहुत ही कठोर है। मूर्तिकार ने एक बार फिर से पूरे जोश के साथ प्रहार किया लेकिन पत्थर टस से मस भी नहीं हुआ। अब तो मूर्तिकार का पसीना छूट गया वो लगातार हथौड़े से प्रहार करता रहा लेकिन पत्थर नहीं टूटा। उसने लगातार 99 प्रयास किये लेकिन पत्थर तोड़ने में नाकाम रहा।

अगले दिन जब पुजारी आये तो मूर्तिकार ने भगवान की मूर्ति बनाने से मना कर दिया और सारी बात बताई। पुजारी जी दुखी मन से पत्थर वापस उठाया और गाँव के ही एक छोटे मूर्तिकार को वो पत्थर मूर्ति बनाने के लिए दे दिया। अब मूर्तिकार ने अपने औजार उठाये और पत्थर काटने में जुट गया, जैसे ही उसने पहला हथोड़ा मारा पत्थर टूट गया क्यूंकि पहले मूर्तिकार की चोटों से पत्थर काफी कमजोर हो गया था। पुजारी यह देखकर बहुत खुश हुआ और देखते ही देखते मूर्तिकार ने भगवान शिव की बहुत सुन्दर मूर्ति बना डाली।

पुजारी जी मन ही मन पहले मूर्तिकार की दशा सोचकर मुस्कुराये कि उस मूर्तिकार ने 99 प्रहार किये और थक गया, काश उसने एक आखिरी प्रहार भी किया होता तो वो सफल हो गया होता।

मित्रो, यही बात हर इंसान के दैनिक जीवन पर भी लागू होती है, बहुत सारे लोग जो ये शिकायत रखते हैं कि वो कठिन प्रयासों के बावजूद सफल नहीं हो पाते लेकिन सच यही है कि वो आखिरी प्रयास से पहले ही थक जाते हैं। लगातार कोशिशें करते रहिये क्या पता आपका अगला प्रयास ही वो आखिरी प्रयास हो जो आपका जीवन बदल दे।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (41-45)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (41 – 45) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

 

इससे राक्षस हनन का व्यर्थ न मेरा प्रयास।

वह तो सीता हरण का बदला था सायास।।41अ।।

 

पग से दब क्या किसी के भी कोई भी सर्प।

रक्तपान की कामना से डसता सामर्ष?।।41ब।।

 

निंदा बाणों से मेरे अगर बचाना प्राण।

तो कृपालु हो सब करो मम निश्चय का मान।।42।।

 

ऐसा कहते राम से कर पत्नी हित क्रोध।

दे न सका कोई सहमति, न ही कर सका विरोध।।43।।

 

तब उस अग्रज राम ने दे लक्ष्मण पर जोर।

अलग दिया आदेश यों जो था परम कठोर।।44।।

 

‘‘सीता दोहद को है प्रिय वन-दर्शन की चाह।

तो रथ इनको वाल्मीक आश्रम तक ले जाय’’।।45।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १९ मार्च – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆  १९ मार्च -संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

विनायक लक्ष्मण छत्रे

विनायक लक्ष्मण ऊर्फ केरूनाना छत्रे (16 मे 1825 – 19 मार्च 1884) हे प्राचीन भारतीय तसेच आधुनिक गणित व खगोलशास्त्र यांचे अभ्यासक होते. विष्णुशास्त्री चिपळूणकर, लो. टिळक, गो. ग. आगरकर ह्यांचे ते गुरू होते.

त्यांचा जन्म अलिबागमधील नागाव येथे झाला. पण बालपणीच आई -वडील गेल्याने ते शिक्षणासाठी मुंबईला चुलत्यांकडे आले. त्यांच्यामुळेच असामान्य बुद्धिमत्तेच्या केरूनानांना वाचनाची गोडी व कोणत्याही प्रश्नाकडे वस्तूनिष्ठ दृष्टीने पाहण्याची सवय लागली. एल्फिन्स्टन इन्स्टिटयूटमध्ये आचार्य बाळशास्त्री जांभेकर व प्रा. आर्लिबार या व्यासंगी गुरूंकडून मिळालेल्या मूलभूत ज्ञानामुळे गणित, खगोल व पदार्थविज्ञानासारख्या कठीण शास्त्रांत त्यांना गती प्राप्त झाली. प्रगल्भ ग्रंथांचे परिशीलन करून केरूनानांनी या विषयातले प्रगत ज्ञान मिळवले.

आर्लिबर यांनी आपल्या वेधशाळेत अवघ्या सोळा वर्षांच्या केरूनानांना दरमहा 50 रु. पगारावर नेमले. तेथे दहा वर्षे केरुनानांनी जागरूकपणे हवामानशास्त्राचे शिक्षण घेतले. त्यानंतर पुणे महाविद्यालयात व अभियांत्रिकी महाविद्यालयात ते गणित व सृष्टीशास्त्र शिकवत होते. ते हंगामी प्राचार्यही होते.

केरुनानानी शालेय पातळीवर गणित व पदार्थविज्ञानावर सुबोध व मनोरंजक भाषेत क्रमिक पुस्तके लिहिली.

त्यांनी मराठीत समर्पक, सुटसुटीत व अर्थवाही शब्द योजले. उदा. केषाकर्षण, भरतीची समा वगैरे. ‘कालसाधनांची कोष्टके ‘ व ‘ग्रहसाधनांची कोष्टके’, ‘कुभ्रम निर्णय’ इत्यादी ग्रंथ त्यांनी लिहिले.

केरुनानांनी ‘ज्ञानप्रसारक सभे’पुढे हवा, भरती -ओहोटी, कालज्ञान वगैरे विषयांवर निबंध वाचले.’हवे’वर तर एकूण 17 निबंध आहेत.’पृथ्वीवर पडणारा पाऊस व सूर्यावरील डाग’ या विषयावरही एक निबंध होता.

केरुनानांना शास्त्रीय संगीत व नाटकांचीही आवड होती.

ते दिवंगत झाल्यावर ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ने त्यांना ‘जर प्रो. छत्रे यांना युरोपात पद्धतशीर शिक्षण मिळाले असते, तर ते एक युगप्रवर्तक शास्त्रज्ञ म्हणून गाजले असते, ‘ अशी श्रद्धांजली वाहिली.

 

जनार्दन बाळाजी मोडक

जनार्दन बाळाजी मोडक (३१ डिसेंबर १८४५ – १९ मार्च १८९२ ) हे मराठी आणि संस्कृत काव्याचे चिकित्सक व संग्राहक होते. पुणे येथे बी.ए.च्या वर्गात असतानाच ते मेजर थॉमस कॅन्डी यांच्या हाताखाली भाषांतरकार म्हणून नोकरीला लागले. नंतर मोडक ठाणे शहरातील एका शाळेत शिक्षक झाले. महाराष्ट्र सारस्वतकार विनायक लक्ष्मण भावे यांच्यावर मोडकांचा मोठा प्रभाव होता.

‘विविधज्ञानविस्तार’मध्ये त्यांनी ज्योतिष, गणिताविषयी अनेक लेख लिहिले. त्यात भास्कराचार्यांच्या ‘लीलावती’चे भाषांतर, संस्कृत कवींची चरित्रे, संस्कृत काव्यातील सौंदर्य व पुस्तकपरीक्षण यांचाही समावेश होता. याखेरीज त्यांचे मराठी काव्यासंबंधीचे लेख ‘निबंधमाला’, ‘निबंधचंद्रिका’, ‘शालापत्रक’, ‘अरुणोदय’, ‘इंदुप्रकाश’ आदी मासिकांतून प्रसिद्ध झाले.’काव्येतिहाससंग्रह’ व ‘काव्यसंग्रह’ या मासिकांच्या संपादनाची जबाबदारीही त्यांनी उत्तमपणे पार पाडली. याशिवाय त्यांनी ‘जगाच्या इतिहासाचे सामान्य निरूपण’, ‘भास्कराचार्य व तत्कृत ज्योतिष ‘, ‘वेदांग ज्योतिषाचे मराठी भाषांतर ‘ ही पुस्तकेही लिहिली.
या प्रकांड पंडिताचे निधन ठाण्यात वयाच्या अवघ्या सत्तेचाळीसाव्या वर्षी झाले.

केरूनाना छत्रे व जनार्दन बाळाजी मोडक या दोन पंडितांना त्यांच्या स्मृतिदिनी आदरपूर्वक श्रद्धांजली. 🙏🏻🙏🏻

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ :साहित्य साधना कऱ्हाड, शताब्दी दैनंदिनी. विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “तानपुरे लतादिदींचे” ☆ सौ. अमृता देशपांडे

सौ. अमृता देशपांडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “तानपुरे लतादिदींचे…” ☆ सौ. अमृता देशपांडे 

स्पर्श तिच्या अंगुलीचा

आणि तिचा शुद्ध स्वर

झंकारली काया माझी

आणि भारलेला ऊर  ll

 

आठ दशके पाच वर्षे

नाही कधीच अंतर

दीदी तुझ्या सेवेसाठी

आम्ही सदैव तत्पर  ll

 

आज मी हा असा उगी

गोठावलो गवसणीत

माझ्या तारा मिटलेल्या

आणि तुझे सूर शांत   ll

 

तुझे स्वर कानी येता

क्षण क्षण थबकतो

आम्ही तानपुरे तुझे

मूक आसवे ढाळतो ll

 

कुठे लुप्त झाला  सूर

आणि स्पर्श शारदेचा

धन्य जन्म की अमुचा

बोले तानपुरा दीदींचा ll

 

© सौ. अमृता देशपांडे 

पर्वरी – गोवा 

9822176170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 94– समयसुचकता ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 94 – समयसुचकता ☆

जाणलीस तू स्त्री जातीची अगतिकता.।

धन्य तुझी समयसुचकता।।धृ।।

 

दीन दलित बुडाले अधःकारी।

पिळवणूक करती अत्याचारी।

स्त्रीही दासी बनली घरोघरी ।

बदलण्या समाजाची मानसिकता।।१।।

 

हाती शिक्षणाची मशाल।

अंगी साहसही विशाल।

संगे ज्योतिबांची ढाल।

आणि निश्चयाची दृढता।।२।।

दीन दुःखी करून गोळा।

लागला बालिकांना लळा।

फुलविला आक्षर मळा।

आणली वैचारिक भव्यता।।३।।

 

तुझ्या कष्टाची प्रचिती।

आली बहरून प्रगती ।

थांबली प्रथा ही सती।

स्त्री दास्याची ही मुक्ताता।।४।।

ज्ञानज्योत प्रकाशली।

घरकले उजळली।

घेऊन विचारांचा वसा माऊली।

तुझ्या लेकी करती

अज्ञान सांगता।।५।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ फिरूनी नवी जन्मेन मी.. ☆ सुश्री योगिता कुलकर्णी ☆

?विविधा ?

☆ फिरूनी नवी जन्मेन मी.. ☆ सुश्री योगिता कुलकर्णी ☆

 

अप्रतिम लिहिलंय हे गाणं सुधीर मोघेंनी…

“एकाच या जन्मी जणु फिरुनी नवी जन्मेन मी….”

आयुष्य म्हटलं कि कष्ट आले, त्रास आला,

मनस्ताप आला, भोग आले आणि जीव जाई पर्यंत काम आलं…मग ते घरचं असो नाहीतर दारचं….

बायकांना तर म्हातारपणा पर्यंत कष्ट करावे लागतात…

८० वर्षाच्या म्हातारीने पण भाजी तरी चिरुन द्यावी अशी घरातल्यांची अपेक्षा असते….

हि सत्य परिस्थिती आहे…..

आपण जोपर्यंत आहोत तोपर्यंत हे रहाणारच……

त्यामुळे हि जी चार भांडीकुंडी आपण आज निटनिटकी करतो…ती मरेपर्यंत करावी लागणार…

ज्या किराणाचा हिशोब आपण आज करतो तोच आपल्या सत्तरीतही करावा लागणार….

” मी म्हातारी झाल्यावर ,माझी मुलं खुप शिकल्यावर त्याच्या कडे खुप पैसे येतील मग माझे कष्ट कमी होतील” हि खोटी स्वप्न आहेत….

मुलं, नवरा कितीही श्रीमंत झाले तरी ..

“आई बाकी सगळ्या कामाला बाई लाव पण जेवण तु बनव..”

असं म्हटलं कि झालं…

पुन्हा सगळं चक्र चालु..

आणि त्या चक्रव्युहात आपण सगळ्या

अभिमन्यी….,😃

पण..पण ..जर हे असंच रहाणार असेल..

जर परिस्थिती बदलु शकत नसेल तर मग काय रडत बसायचं का ??

तर नाही…..

परिस्थिती बदलणार नसेल तर आपण बदलायला हवं…..

मी हे स्विकारलय…. खुप अंतरंगातुन आणि आनंदाने….

माझा रोजचा दिवस म्हणजे नवी सुरुवात असते….. खुप उर्जा आणि उर्मी नी भरलेली……

सकाळी सात वाजता जरी कुणी मला भेटलं तरी मी तेवढ्याच उर्जेनी बोलु शकते आणि रात्री दहा वाजता ही…

आदल्या दिवशी कितीही कष्ट झालेले असु देत….दुसरा दिवस हा नवाच असतो….

काहीच नाही लागत हो…

हे सगळं करायला…..

रोज नवा जन्म मिळाल्या सारखं उठा…

छान आपल्या छोट्याश्या टेरेस वर डोकावुन थंड हवा घ्या..आपणच प्रेमाने लावलेल्या झाडावरून हात फिरवा….

आपल्या लेकीला झोपेतच जवळ घ्या..

इतकं भारी वाटतं ना….

अहाहा…..

सकाळी उठलकी ब्रश करायच्या आधीच रेडिओ लागतो माझा…

अभंग एकत एकत मस्त डोळे बंद करून ब्रश केला….ग्लास भरुन पाणी पिलं आणि मस्त…आल्याचा चहा पित…. खिडकी बाहेरच्या निर्जन रस्त्याकडे बघितलं ना

कि भारी वाटतंं…..

रोज मस्त तयार व्हा….

आलटुन पालटुन स्वतःवर वेगवेगळे प्रयोग करत रहा….

कधी हे कानातले ..कधी ते…..

कधी ड्रेस…कधी साडी….

कधी केस मोकळे…कधी बांधलेले….

कधी हि टिकली तर कधी ती….

सगळं ट्राय करत रहा….नवं नवं नवं नवं…

रोज नवं…..

रोज आपण स्वतःला नविन दिसलो पाहिजे….

स्वतःला बदललं कि…. आजुबाजुला आपोआपच सकारात्मक उर्जा पसरत जाईल……..तुमच्याही नकळत……

आणि तुम्हीच तुम्हाला हव्या हव्याश्या वाटु लागाल……

मी तर याच्याही पार पुढची पायरी गाठलेली आहे….

माझ्या बद्दल नकारात्मक कुणी बोलायला लागलं कि माझे कान आपोआप बंद होतात….😃काय माहित काय झालंय त्या कानांना….😃

आता मी कितीही गर्दीत असले तरी मी माझी एकटी असते….

मनातल्या मनात मस्त टुणटुण उड्या मारत असते…..

जे जसं आहे….ते तसं स्विकारते आणि पुढे चालत रहाते…

कुणी आलाच समोर कि..” आलास का बाबा..बरं झालं ..म्हणायचं…खिशात घालायचं कि पुढे चालायचं….

अजगरा सारखी…सगळी परिस्थिती गिळंकृत करायची….😃

माहीत आहे मला…

सोपं नाहीये….

पण मी तर स्विकारले आहे…

आणि एकदम खुश आहे….

आणि म्हणुनच रोज म्हणते….

” एकाच या जन्मी जणु…

फिरुनी नवी जन्मेन मी…

हरवेन मी हरपेन मी..

तरीही मला लाभेन मी…..”

#योगिता_कुलकर्णी…  यांच्या फेसबुक पेज वरुन साभार…🙏 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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