हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆☆ लघुकथा – सार्थक ☆☆ श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर

 

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। भारतीय स्टेट बैंक से स्व-सेवानिवृत्ति के पश्चात गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर योगदान के लिए आपका समर्पण स्तुत्य है। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  की समसामयिक विषय पर आधारित एक विशेष लघुकथा  “सार्थक”। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन । 

☆ कथा कहानी  ☆ लघुकथा –  सार्थक ☆ श्री सदानंद आंबेकर

देश  स्वतंत्र हुये 75 वर्ष  बीत रहे थे, ऐसे में स्वर्ग में महात्मा गांधी जी को लगा कि चलो, एक बार चल कर मेरे भारत को देख आया जाये। ईश्वर से विशेष अनुमति लेकर बापू एक अत्यंत वृद्ध के वेश में भारत में आये। दो मिनट बाद जब नेत्र खोले तो देखा एक विशालकाय खंभों वाले पुल के नीचे वे खडे हैं। ऊपर अचानक कुछ ध्वनि सुनाई दी तो देखा पांच छह डिबों वाली ट्रामनुमा रेल बड़ी तेजी में निकल गई। उन्होंने देखा इसमें तीसरे दर्जे का डिब्बा तो है ही नहीं, फिर सोचा कि ट्राम है-मतलब मैं कलकत्ता आ गया हूं। धोती लाठी को संभालते हुये आगे बढे कि एक बस उनके बाजू से निकली जिस पर संसद भवन से कनॉट प्लेस लिखा था तो वे एकदम प्रसन्न हो गये अरे, ये तो दिल्ली है। वाह, कितनी बदल गई है मेरी दिल्ली।

गला सूखने लगा तो आसपास नजर दौडाई, सोचा- हमारे जमाने में धर्मार्थ प्याऊ थे उनमें से कोई तो बचा होगा। इधर-उधर खोजा तो एक भी नहीं दिखा, थोड़ी दूर उन्हें एक दुकान से कुछ लोग कांच की बोतलें ले जाते हुये दिखे तो बापू ने सोचा शायद शीतल पेय की दुकान है चलो कुछ मिल जायेगा। पास गये तो देखा वह बीयर की दुकान थी, नीचे पते में लिखा था गांधी रोड दिल्ली। दुखी होकर सूखा गला लेकर लाठी टेकते चल दिये।

धूप और प्यास से थक गये तो सोचा रिक्शा कर लिया जाये, कुछ समय प्रतीक्षा की तो एक रिक्शे वाला आया जिसे रोक कर बापू बोले भैया थोड़ा आसपास घुमा फिरा दो और पहले कहीं ठंडा पानी पिला दो। बूढे़ बाबा को देखकर रिक्शेवाले को भी दया आई बोला- बैठो दादा मैं सब दिखा दूंगा। कहां से आये हो, यूपी से या बिहार से ? अकेले ही इस उमर में निकल पड़े ?

अपनी बोतल से पानी पिला कर रिक्शावाला चल पड़ा। बापू ने भी उत्सुक दृष्टि से आसपास देखना शुरू किया।    

थोड़ा चलने के बाद बापू ने उससे पूछा भैया, यहां गांधी की जितनी जगहें हैं वे जरूर दिखाना, रिक्शेवाले ने पूछा – राजीव या श्रीमती इंदिरा गांधी की ? बापू ने कहा- ये कौन हैं, क्या बापू के रिश्तेदार हैं? रिक्शेवाला हंसा और बोला- कौन देहात से हो बाबा, चुपैचाप बैठे रहो मैं सब दिखा दूंगा।

चलते चलते एक विशाल चौराहे पर उनकी मूर्ति के नीचे सफेद टोपीधारी धरने पर बैठे थे, बापू ने सोचा वाह, मेरा सत्याग्रह अभी भी चलता है। धन्य हो भारत ! पास से गुजरे तो देखा सब धरने वाले हंसी ठिठोली कर रहे हैं, सिगरेट चाय, अंडे, समोसे खाये जा रहे हैं। उन्होंने दूसरी ओर दृष्टि कर ली।

बात करने के हिसाब से रिक्शेवाले से पूछा भैया तुम रिक्शा चलाते हो तो कुछ काम धंधा या नौकरी क्यों नहीं करते हो ? उसने बड़े उखडे़ स्वर में कहा क्या करें दादा, कॉलेज पढे़ हैं पर हम आरक्षण वर्ग से नहीं हैं तो हमें कहां काम मिलेगा, खेती बाडी है नहीं तो पेट पालने के लिये रिक्शा खींचते हैं। मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है। यह कहावत सुनकर गांधी जी सन्न रह गये। आरक्षण किस बात का है यह उन्हें समझ ही नहीं आया।

चलते चलते एक मैदान में नेता जोर जोर से भाषण दे रहा था उसके स्वर उन तक भी पहुंच रहे थे। वह कह रहा था- हम गांधीजी के अनुयायी हैं, अगर आपने मुझे जिता दिया तो मैं उनके नाम पर बड़ी बड़ी  वातानुकूलित बंगलों की कॉलोनी  आपके लिये बनवा दूंगा, सबके लिये कैंब्रिज जैसे इंगलिश स्कूल कॉलेज बनवा दूंगा, गांधी इंटरनेशनल मॉल में आपको सारा आयातित सामान मिला करेगा। बापू ने रिक्शेवाले से कहा भैया कहीं और ले चलो।

रिक्शेवाले ने समय बचाने के लिये एक पतली गली में रिक्शा मोड़ दिया उसे देख कर बापू को वे दिन याद आये जब वे ऐसी ही गलियों में लोगों के घर जाते थे। उस गली में घर, दरवाजे, दीवारें सब हरे रंग में रंगे हुये थे, पर वहां उन्हें कहीं भी अपनी कोई मूर्ति आदि नहीं दिखाई दी।

उनका मन खट्टा हो आया। गली पार करते करते रास्ते में भीड़ दिखाई दी, बाजू से रिक्शा निकला तो देखा दो तीन दाढी वाले और धोती कुर्ता पहने युवा मारपीट कर रहे थे। बापू से नहीं रहा गया, रिक्शा रुकवा कर भीड में घुसे और सबको अलग किया। समझाते हुये बोले बेटे झगडे़ मारपीट से कोई हल नहीं निकलता है, दोनों एक दूसरे की बात शांति से मान लो समस्या हल हो जायेगी। एक युवा ने आंखे तरेर कर कहा बूढे़ बाबा ज्यादा गांधीगिरी हमें मत सिखाओ, अब तो समय है एक मारे तोे लौट कर दो मारो, समझे आप! गांधी के जमाने गये, और अब आप भी  निकल लो यहां से।

बापू ने लंबी सांस भरी और सोचा इस देश को आजादी दिलाने के लिये हजारों वीरों ने अपना जीवन होम दिया, क्या हमारी आहुति सार्थक हुई ? बहुत भारी मन से रिक्शे वाले से कहा- भैया किसी खाली जगह पर हमें उतार दो, अब हम बहुत थक गये हैं।

रिक्शावाले ने मंद गति से रिक्शा खींचना शुरू किया। दूर क्षितिज में सूर्य अस्त हो रहा था, थोड़ी दूर पर बापू ने देखा कि एक छोटा बच्चा आंखों पर पतली कमानी का चश्मा, सिर पर सफेद टोपी लगाये, अटपटी धोती लपेटे हाथ में लाठी और कागज का तिरंगा लिये नारा लगा रहा था- अंग्रेजों भारत छोडो, भारत माता की जय, महात्मा गांधी की जय। रिक्शेवाले ने कहा दादा, कल दो अक्टूबर है ना तो बच्चे उसकी ही तैयारी कर रहे हैं।

बापू ने मन ही मन कहा नहीं,  हमारा त्याग सार्थक हुआ है। आकाश की ओर देख कर प्रभु से प्रार्थना की और अदृश्य हो गये।

 

©  सदानंद आंबेकर

भोपाल, मध्यप्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 18 – सजल – कौन है अमृत पीकर आया… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है बुंदेली गीत  “कौन है अमृत पीकर आया…..। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 18 – सजल – कौन है अमृत पीकर आया…

समांत- अले

पदांत- गए हैं

मात्राभार- 16

 

मानव हर युग दले गए हैं।

हर संकट में तले गए हैं।।

 

सतयुग हो या द्वापर का युग,

राम कृष्ण भी छले गए हैं ।

 

कौन है अमृत पीकर आया,

छोड़ सभी कुछ चले गए हैं।

 

सूरज ने सबको तड़पाया,

तपती धूप से ढले गए हैं।

 

आश्रय मात पिता से मिलता,

गुण-अवगुण में पले गए हैं।

 

परोपकार हैं वृक्ष हमारे,

सबको देने फले गए हैं।

 

ईश्वर की अनुकम्पा सब पर,

फिर भी हम सब खले गए हैं।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

५ जुलाई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 2 ??

राष्ट्र का संगठन :

राष्ट्र का गठन राज्य या प्रदेश से होता है। प्रदेश, जनपद से मिलकर बनते हैं। जनपद की इकाई तहसील होती है। तहसील नगर और गाँवों से बनती है। नगर या गाँव वॉर्ड अथवा प्रभाग से, प्रभाग मोहल्लोेंं से, मोहल्लेे परिवारों से और परिवार, व्यक्ति से बनता है। इस प्रकार व्यक्ति या नागरिक, राष्ट्र की कोशिका है। व्यक्तियों के संग से संघ के रूप में उभरता है राष्ट्र।

व्यक्ति, समष्टि, सृष्टि  एवं एकात्मता :

संगी-साथी हो चाहे जीवनसंगी, किसीका साथ न हो तो मनुष्य पगला जाता है। मनुष्य को साथ चाहिए, मनुष्य को समाज चाहिए। दूसरे शब्दों में ’मैन इज़ अ सोशल एनिमल।’

सामाजिक होने का अर्थ है कि मनुष्य अकेला नहीं रह सकता। अकेला नहीं रह सकता, अत: स्त्री-पुरुष साथ आए। यूँ भी सृष्टि युग्मराग है। प्रकृति और पुरुष साथ न हों तो सृष्टि चलेगी कैसे?

पाषाणयुग में स्त्री, पुरुष दोनों शिकार करने में सक्षम थे, आत्मनिर्भर थे। आरंभ में लैंगिक आकर्षण के कारण वे साथ आए। यौन सम्बंध हुए, स्त्री ने गर्भ धारण किया। गर्भ में जीव क्या आया मानो मनुष्य की मनुष्यता अवतरित हुई।

वस्तुत: मनुष्य में विराटता अंतर्भूत है। विराट एकाकी नहीं होता और सज्जन में, शठ में सब में होती है। इसी विराटता ने सूक्ष्म से स्थूल की ओर पैर पसारना आरंभ किया। मनुष्य में समूह जागा।

गर्भवती के लिये शिकार करना कठिन था। सुरक्षित प्रसव का भी प्रश्न रहा होगा। भूख, सुरक्षा, शिशु का जन्म आदि अनेक भाव एवं विचार होंगे जिन्होंने सहअस्तित्व तथा दायित्वबोध को जन्म दिया।

मनुष्य का परिवार पनपा। परिवार के लिये बेहतर संसाधन जुटाने की इच्छा ने मनुष्य को विकास के लिये प्रेरित किया। अब पास-पड़ोस भी आया। मनुष्य सुख दुख बाँटना चाहता था। वह समूह में रहने लगा। इसे विकास की मानसिक प्रक्रिया या प्रोसेस ऑफ साइकोलॉजिकल इवोल्यूशन कह सकते हैं।

वैसे इन तमाम सिद्धांतों से पहले अपौरूषेय आदिग्रंथ ऋग्वेद,  ईश्वर का ज्ञानोपदेश सीधे लेकर आ चुका था। स्पष्ट उद्घोष है-

॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥

 ( ऋग्वेद 10.181.2)

अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें। ऋग्वेद द्वारा प्रतिपादित सामूहिकता का मंत्र मानुषिकता एवं एकात्मता का प्रथम अधिकृत संस्करण है।

अथर्ववेद एकात्मता के इसी तत्व के मूलबिंदु तक जाता है-

॥ मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा।

सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥2॥

(अथर्ववेद 3.30.3)

अर्थात भाई, भाई से द्वेष न करें, बहन, बहन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 105 – “लेखन कला” – परबंत सिंह मैहरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  परबंत सिंह मैहरी जी की पुस्तक  “लेखन कला” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 105 – “लेखन कला” – परबंत सिंह मैहरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – लेखन कला

लेखक.. परबंत सिंह मैहरी, हावडा 

पृष्ठ १३२, मूल्य ३००, पेपर बैक

प्रकाशक.. रवीना प्रकाशन गंगा नगर दिल्ली ९४

हिन्दी साहित्य के सहज, शीघ्र प्रकाशन के क्षेत्र में रवीना प्रकाशन एक महत्वपूर्ण नाम बनकर पिछले कुछ समय में ही उभर कर सामने आया है. लगभग हर माह यह प्रकाशन २० से २५ विभिन्न विषयो की, विभिन्न विधाओ की, देश के विभिन्न क्षेत्रो से नवोदित तथा सुस्थापित लेखको व कवियों की किताबें लगातार प्रकाशित कर चर्चा में है. रवीना प्रकाशन से ही  हाल ही चर्चित पुस्तक लेखन कला प्रकाशित हुई है. यह पुस्तक क्या है,  गागर में सागर है.

आज लोगों में विशेष रूप से युवाओ में  प्रत्येक क्षेत्र में इंस्टेंट उपलब्धि की चाहत है. नवोदित लेखको की सबसे बड़ी जो कमी परिलक्षित हो रही है वह है उनकी न पढ़ने की आदत. वे किसी दूसरे का लिखा अध्ययन नही करना चाहते पर स्वयं लिक्खाड़ बनकर फटाफट स्थापित होने की आशा रखते दिखते हैं. परबंत सिंह मैहरी स्वयं एक वरिष्ठ लेखक, पत्रकार व संपादक हैं. उन्होने अपने सुदीर्घ अनुभव से लेखन कला सीखी है. बड़ी ही सहजता से, सरल भाषा में, उदाहरणो से समझाते हुये उन्होने प्रस्तुत पुस्तक में अभिव्यक्ति की विभिन्न विधाओ कहानी,लघुकथा,  उपन्यास, निबंध, हास्य, व्यंग्य, रिपोर्टिंग, संस्मरण, पर्यटन, फीचर, आत्मकथा, जीवनी, साक्षात्कार,नाटक, कविता, गजल, अनुवाद आदि लगभग लेखन की प्रत्येक विधा पर सारगर्भित दृष्टि दी है.

मैं वर्षो से हिन्दी का निरंतर पाठक, लेखक, समीक्षक व कवि हूं.  किन्तु किसी एक किताब में इस तरह का संपूर्ण समावेश मुझे अब तक कभी पढ़ने नही मिला. यद्यपि इस तरह के स्फुट लेख कन्ही पत्र पत्रिकाओ में यदा कदा पढ़ने मिले पर जिस समग्रता से सारी विषय वस्तु को एक नये रचनाकार के लिये इस पुस्तक में संजोया गया है, उसके लिये निश्चित ही लेखक व प्रकाशक के प्रति हिन्दी जगत ॠणी रहेगा.

निश्चित ही स्वसंपादित सोशल मीडीया ने भावनाओ की लिखित अभिव्यक्ति के नये द्वार खोले हैं, जिससे नवोदित रचनाकारो की बाढ़ है. हर पढ़ा लिखा स्वयं को लेखक कवि के रूप में स्थापित करता दिखता है, किंतु मार्गदर्शन व अनुभव के अभाव में उनकी रचनाओ में वह पैनापन नही  दिखता कि वे रचनायें शाश्वत या दीर्घ जीवी बन सकें. ऐसे समय में इस पुस्तक की उपयोगिता व प्रासंगिकता स्पष्ट है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.com

apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ जीवन की Balance Sheet ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “जीवन की Balance Sheet”.)

☆ संस्मरण ☆ जीवन की Balance Sheet ☆ श्री राकेश कुमार ☆

(इतिहास के झरोखों से)

हमारे प्रिय मित्र ने आदेश दिया की आइना के सामने जाकर आज अपनी जिंदगी का लेखा जोखा पेश करो।आजकल समय कुछ नेगेटिव बातो का है तो हमे भी लगने लगा कहीं चित्रगुप्त के सामने पेश होने की ट्रेनिंग तो नहीं हो रही। अभी तो जिंदगी शुरू की है रिटायरमेंट के बाद से।

खैर, हमने इंटरव्यू की तैयारी शुरू कर दी और अपनी सबसे अच्छी वाली कमीज़ (जिससे हमने स्केल 3 से लेकर 5 के interview दिए थे वो मेरा lucky charm थी)  पहन, जूते पोलिश कर आइना खोजने लगे। अरे ये क्या? आइना कहां है? मिल नहीं रहा था, मिलता भी कैसे आज एक वर्ष से अधिक हो गया जरूरत ही नहीं पड़ी।

श्रीमती जी से पूछा तो बोली क्या बात है, अब Covid की दूसरी घातक लहर चल पड़ी है तो आपको सजने संवरने की पड़ी है, अपने उस मोबाइल में ही लगे रहो। एक साल से सब्जी की दुकान तक तो गए नहीं। अब जब सारी दुनिया दुबक के पड़ी है और आपको जुल्फें संवारने की याद आ रही है।

हमने उलझना ठीक नहीं समझा और बैठ गए मोबाइल लेकर, दोपहरी को जैसे ही श्रीमतीजी नींद लेने लगी हम भी अपने मिशन में लग गए और आइना खोज लिया। एक निगाह अपनी नख से शिखा तक डाली और थोड़ी से चीनी खाकर चल पड़े।अम्माजी की याद आ गई जब भी घर से किसी अच्छे काम के लिए जाते थे तो वो मुंह मीठा करवा कर ही बाहर जाने देती थी और आशीर्वाद देकर कहती थी जाओ सफलता तुम्हारा इंतजार कर रही है। हमने भी मन ही मन अपनी सफलता की कामना कर ली।

जैसे ही आईने के सामने पहुंचे मुंह से निकल ही रहा था May I come in, sir लेकिन फिर दिल से आवाज़ आई अब तुम स्वतंत्र हो, डरो मत,आगे बढ़ो।आईने में जब अपने को देखा तो लगा ये कौन है लंबी सफेद दाढ़ी वाला पूरे चेहरे पर दूध सी सफेदी देख कर निरमा Washing Powder के विज्ञापन की याद आ गई ।

अपने आप को संभाल कर हमने अपने कुल देवता का नमन किया।

पर ये क्या मन बहुत ही चंचल होता है विद्युत की तीव्र गति से भी तेज चलता है हम भी पहुंच गए कॉलेज के दिनों में स्वर्गीय प्रोफ सुशील दिवाकर की वो बात जहन में थी जब हमारी बढ़ी हुई दाढ़ी पर उन्होंने कहा था “Not shaving” तो हमने एकदम कहा था ” No sir Saving” वो खिल खिला कर हंसने लगे।बहुत ही खुश मिजाज़ व्यक्ति थे।

अब कॉलेज के प्रांगण में थे तो प्रो दुबे एस एन की याद ना आए ऐसा हो ही नहीं सकता, Economics को सरल और सहज भाव में समझा देते थे आज भी उनकी बाते ज़ुबान पर ही रहती है।

एक दिन कक्षा में Demand और Supply पर चर्चा हो रही थी।उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियों का वर्णन करते हुए बतलाया कि सरकार जब अपने स्तर पर मज़दूर को रोज़गार देती है तो उससे Demand निकलती है, मजदूर पेट भरने के बाद कुछ अपने पर खर्च करने की सोचता है,अपनी Shave करने के लिए बाज़ार से एक Blade खरीदता है,और शुरू हो जाती है Demand, दुकानदार, होलसेलर को ऑर्डर भेजता है और होलसेलर फैक्ट्री को ऑर्डर भेजता है, फैक्ट्री जो बंद हो गई थी मजदूर लगा कर फैक्ट्री चालू कर देता है और रोज़गार देने लगता है।कैसे एक Blade से रोज़गार शुरू होता है।

अपनी लंबी दाढ़ी देख कर हम भी आपको कहां से कहां ले गए, इसलिए आइना नही देख रहे थे हम आजकल।

Note: हमने किसी दाढ़ी बढ़ाए हुए को भी आइना दिखाने की कोशिश नहीं की।?

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य#112 – कविता – माघ का महीना …. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  “माघ का महीना ….”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 112 ☆

? कविता –? माघ का महीना कड़कड़ाती ठंड, बड़े भाग्य शाली हैं बसे है रेवा खंड ? ?

 

शंभु पसीना बन कर निकली, मां नर्मदा बेटी समान

माघ महिना तिल दान स्नान, पूजे नर्मदा सरिता जान।

 

बहे नर्मदा अविरल धारा, शिव शंभु ने दिया वरदान

कण-कण शंकर हर कंकण, दर्शन मात्र पून्य महान।

 

मकर वाहिनी सरिता नर्मदा, निश्चल तेज बहे छल छल

घाट घाट को खूब संवारती, श्वेत जल धार बहे निर्मल।

 

साधु संतो की अमृत वाणी, गुजें हर पल वेदों का स्वर

त्रिपुर सुन्दरी मां विराजती, भेड़ाघाट नर्मदा तेवर।

 

पंचवटी में नौका विहार, सबके मन करती खुशहाल

संगमरमर की सुंदर आभा, मूरत बन कर करें निहाल।

 

तीर्थ स्नान बारम्बार, दर्शन मात्र मां नर्मदा

भक्तों का करती कल्याण स्मरण करें नित भोर सर्वदा।

 

अमरकंटक से निकली नर्मदा, सतपुडा के घने जंगल

सागौन नीलगिरी और पलाश, वृक्ष साधे नभ मंडल।

 

भेट चढ़ाएं लाल चुनरिया, भोग लगे चना अरु खिचड़ी

भक्त जनों की दुख पीड़ा, कष्ट हरे संवारती बिगड़ी।

 

आरती वंदन पुन्य सलीला, माघ महिना लगता मेला

दूर दूर से दर्शन को आए, घाटन घाट सजा रंगीला।

 

मां नर्मदा महाआरती, करती भक्तों का कल्याण

जनम जनम के पाप कटे, नित करते जप और ध्यान।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 12 (6-10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #12 (6-10) ॥ ☆

सर्गः-12

 

प्रथम, राम चौदह बरस वन में करें निवास।

भरत बनें राजा, द्वितीय जिनसे हुआ विनाश।।6।।

 

आज्ञा करने राज्य की, लगी राम को भार।

वन जाने की बात थी उन्हें सहज स्वीकार।।7।।

 

वस्त्राभूषण राजसी या वल्कल परिधान।

चकित थे सब यह देख, थे राम को एक समान।।8।।

 

पितृ आज्ञ को मान कर दशरथ वचन प्रमाण।

पाया सीता, लखन सह, वन जा उच्च स्थान।।9।।

 

याद आया दशरथ को भी श्रवण-मरण संयोग।

तजे शाप वश प्राण निज पाकर पुत्र-वियोग।।10।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १ फेब्रुवारी – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

?फेब्रुवारी – संपादकीय  ?

मोतीराम गजानन रांगणेकर (मो. ग. रांगणेकर)

हे मो.ग.रांगणेकर या नावाने प्रसिध्द असलेले मराठी नाटककार.ते केवळ नाटककार नव्हते तर चित्रपट दिग्दर्शक आणि पत्रकारही होते.तसेच त्यांनी गीत लेखनही केले आहे.त्यांच्या नाट्यक्षेत्रातील  योगदानाबद्द्ल त्यांना 1982 चा संगीत नाटक अकादमीचा पुरस्कार देण्यात आला होता.

त्यांची साहित्यसंपदा   : – 

नाटके— आले  देवाजीच्या मना,संगीत एक होता म्हातारा,कन्यादान, कोणे एके काळी,घर माहेर,हिमालयाची बायको,संगीत अमृत,संगीत कुलवधु,सं .कोणे एके काळी,संगीत वहिनी इ.

दिग्दर्शन केलेली नाटके :- अपूर्व बंगाल,तो मी नव्हेच,देवाघरची माणसं,पठ्ठे बापूराव,भूमीकन्या सीता,मीरा मधुरा,लेकरे उदंड जाहली इ. कुबेर चित्रपट

गाजलेली गीते.:- नदी किनारी,नदी किनारी ग, पाखरा जा त्यजुनिया, बोला अमृत बोला, मनरमणा मधुसूदना, क्षण आला भाग्याचा इ.

रांगणेकरांचा आज स्मृतीदिन.त्यांच्या स्मृतीस विनम्र अभिवादन !

☆☆☆☆☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विणकरी ☆ श्रीशैल चौगुले

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ विणकरी ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

 

कसे गुंतले रे

बाहत्तर हजार

धागे या वसनी

सप्तकोटि शृंगार.

अष्टचित्र कोष

सुटेना कसा पाश

मन विणू पाहे

जन्मोजन्मीचा श्वास.

कळेना-टळेना

गुंता जड पेलेना

चिंता ठाई-ठाई

ओठ ‘विठ्ठला’विना.

भाव-भक्ती जोड

तरी ना लागे अंत

आत्मरंगी शोधे

नाम संदेश संत.

म्हणे सुखे सांगू

दुःख हेची लपवू

वसनाची कर्मे

विठू चरणी ठेऊ.

झालाची विसर

धागे वस्त्र नक्षींचा

राहिली कसर

विणकरी साक्षीचा.

 

© श्रीशैल चौगुले

९६७३०१२०९०

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 123 ☆ भाकरी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 123 ?

☆ भाकरी ☆

तिनं शिकून घेतलंय

भाकरी करण्याचं तंत्र

पीठ, पाण्याचं प्रमाण

दोघांना खेळवणारी

परात आहे तिच्या घरात

 

कणीक ओळखू शकते

बोटांची हालचाल

बोटांनाही कळतात

कणकीच्या भावना

बाळाला थोपटावं

तसंच थोपटते

आकार देते

इथवर सगळं ठीक आहे

 

तापलेल्या तव्यावर

भाकरी फिरवताना

कसरत करावी लागते

भाकर थोडी तापली की

पाठीवरून पाण्याचा

प्रेमानं हात फिरवावा लागतो

 

बाळाला शेक देताना

जपतात तशी

जपून शेकावी लागते भाकरी

तेव्हाच होते ती खमंग खरपुस

थोडी जर बिघडली तर

आहेच

जीभ नाक मुरडायला मोकळी…

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

ashokbhambure123@gmail.com

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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