हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 4 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 4 ??

भारतीय संविधान और सामासिकता :

एकात्मता भारत का प्राण है। यही कारण है कि भारतीय संविधान ने भी सामासिक संस्कृति या ‘कंपोजिट कल्चर’ का उल्लेख किया है। कंपोजिट शब्द का उपयोग भारत के संविधान में यूँ ही नहीं किया गया। डॉ राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में बनी इस सभा में भारतीय दर्शन का गहन अध्ययन किये हुए अनेक लोग थे। इनमें सरदार वल्लभभाई पटेल, पं. जवाहरलाल नेहरू, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, पुरुषोत्तमदास टंडन, गोविंदवल्लभ पंत, सच्चिदानंद सिन्हा, वी.टी.कृष्णमाचारी,  हरेन्द्रकुमार मुखर्जी, आचार्य कृपलानी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सरदार बलदेवसिंह, आबिद हुसैन, सेठ गोविंद दास, पंजाबराव देशमुख, गोपीनाथ बारदोलोई, कन्हैयालाल मुंशी, नरहर विष्णु गाडगील, मोटूरि सत्यनारायण, नीलम संजीव रेड्डी, रामनाथ गोयनका, ठक्कर बापा, गणेश वासुदेव मालवणकर जैसे कुछ सदस्यों के नाम उल्लेेखनीय हैं। 389 सदस्यों की इस सभा के सदस्य ही स्वतंत्र भारत की पहली संसद के सदस्य भी बने।

इस सभा द्वारा उपयोग किये सामासिक शब्द को समझने का प्रयास किया जाय।

समास का अर्थ है योग, दो या दो से अधिक का योग। अंग्रेजी का शब्दकोश उठाकर देखें तो स्पष्ट होता है कि दो या अधिक भिन्न संस्कृति वाले लोग जब साथ आते हैं तो कंपोजिट बनता है।  लेखक की दृष्टि में सामासिक शब्द अपने अर्थ में कंपोजिट की तुलना में विराट है। मिलना, जुलना, जुड़ना, एक साथ आना, एकात्म होना अर्थात सामासिक होना। सामासिक होना अर्थात भारतीय होना अर्थात एक अर्थ में भारत होना।

सामासिकता और उत्सव :

सामासिकता के दर्शन दो स्तर पर होते हैं।  अंतर्भूत सामासिकता सूक्ष्म शरीर की भाँति होती है जिसके दर्शन के लिए देखने को दृष्टि में बदलना होता है। दूरबीन या बाइनोक्यूलर के स्थान पर सूक्ष्मदर्शी या माइक्रोस्कोप को काम में लाना पड़ता है। उदाहरण के लिए मनुष्य की देह पंचतत्वों से बनी है। कहा भी गया है-

क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंचतत्व से बना सरीरा।

इन पंचतत्वों में पानी है जिससे देह का तीन चौथाई भाग बना है।  देह की घट-घट में बसा है पानी पर निरी आँख से नहीं दिखता अंतर्भूत जल। उसे देखने, अनुभूत करने के लिये पहले कहे अनुसार देखने को दृष्टि में बदलना पड़ता है।

दूसरा स्तर खुली आँखों से देखा, निहारा जा सकता है। मनुष्य का भीतर जैसा होता है, बाहर का व्यवहार भी वैसा ही होता है। पानी पीता हुआ मनुष्य सहज ही दिखता है। इसी भाँति उत्सव, मेले और तीर्थटन जनमानस की नस- नस में बसी सामासिकता का दर्शन कराते हैं।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 70 ☆ नारी शक्ति ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “नारी शक्ति।)

☆ किसलय की कलम से # 70 ☆

☆ नारी शक्ति ☆ 

प्राचीन भारत का लिखित-अलिखित इतिहास साक्षी है कि भारतीय समाज ने कभी मातृशक्ति के महत्त्व का आकलन कम नहीं किया, न ही मैत्रेयी, गार्गी, विद्योत्त्मा, लक्ष्मीबाई, दुर्गावती के भारत में इनका महत्त्व कम था। हमारे वेद और ग्रंथ शक्ति के योगदान से भरे पड़े हैं। इतिहास वीरांगनाओं के बलिदानों का साक्षी है। जब आदिकाल से ही मातृशक्ति को सोचने, समझने, कहने और कुछ कर गुजरने के अवसर मिलते रहे हैं तब वर्तमान में क्यों नहीं? आज जब परिवार, समाज और राष्ट्र नारी की सहभागिता के बिना अपूर्ण है तब हमारा दायित्व बनता है कि हम बेटियों में दूना-चौगुना उत्साह भरें। उन्हें घर, गाँव, शहर, देश और अंतरिक्ष से भी आगे सोचने का अवसर दें। उनकी योग्यता और क्षमता का उपयोग समाज और राष्ट्र विकास में होनें दें।

आज भले हम विकास के अभिलेखों में नारी सहभागिता को उल्लेखनीय कहें परंतु पर्याप्त नहीं कह सकते। अब समय आ गया है कि हम बेटियों के सुनहरे भविष्य के लिए गहन चिंतन करें. सरोजिनी नायडू, मदर टेरेसा, अमृता प्रीतम, डॉ. सुब्बु लक्ष्मी, पी. टी. उषा जैसी नारियाँ वे हस्ताक्षर हैं जो विकास पथ में “मील के पत्थर” सिद्ध हुई हैं, फिर भी नयी नयी दिशाओं में, नये आयामों में, सुनहरे कल की ओर विकास यात्रा निरंतर आगे बढ़ती रहेगी। पहले नारी चहार दीवारी तक ही सीमित थी, परंतु आज हम गर्वित हैं कि नारी की सीमा समाज सेवा, राजनीति, विज्ञान, चिकित्सा खेलकूद, साहित्य और संगीत को लाँघकर दूर अंतरिक्ष तक जा पहुँची है। भारतीय मूल की नारी ने ही अंतरिक्ष में जाकर अपनी उपस्थिति से नारी जगत को गौरवान्वित किया है। महिला वर्ग में शिक्षा के प्रति जागरूकता, पुरुषों की नारी के प्रति बदलती हुई सकारात्मक सोच, नारी प्रतिभा और महत्त्व का एहसास आज सभी को हो चला है। उद्योग-धंधे या फिर तकनीकि, चिकित्सा आदि का क्षेत्र ही क्यों न हो, नारी प्रतिनिधित्व स्वाभाविक सा लगने लगा है। अनेक क्षेत्रों में नारी पुरुषों से कहीं आगे निकल गई है।

समाज महिला और पुरुष दोनों वर्गों का मिला-जुला स्वरूप है। चहुँमुखी विकास में दोनों की सक्रियता अनिवार्य है। महिलाओं में प्रगति का अर्थ है आधी सामाजिक चेतना और जन-कल्याण। महिलाएँ घर और बाहर दोनों जगह महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती हैं, बशर्ते वे शिक्षित हों। जागरूक हों। उन्हें उत्साहित किया जाए। उन्हें आभास कराया जाए कि नारी तुम्हारे बिना विकास सदैव अपूर्ण रहेगा। अब स्वयं ही तुम्हें अपने बल, बुद्धि और विवेक से आगे बढ़ने का वक्त आ गया है। कब तक पुरुषों का सहारा लोगी? बैसाखी पकड़कर चलने की आदत कभी स्वावलंबन नहीं बनने दे सकती। कर्मठता का दीप प्रज्ज्वलित करो। श्रम की सरिता बहाओ। बुद्धि का प्रकाश फैलाओ और अपनी ” नारी शक्ति ” का वैभव दिखला दो। नारी विकास के पथ में आने वाले सारे अवरोधों को हटा दो। घर की चहारदीवारी से बाहर निकालकर कूद पड़ो विकास के महासमर में। छलाँग लगा दो विज्ञान और तकनीकि के अंतरिक्ष में। परिस्थितियाँ और परिवेश बदले हैं। आत्मनिर्भरता बढ़ी है। दृढ़ आत्मविश्वास की और आवश्यकता है। मात्र नारी मुक्ति आंदोलनों से कुछ नहीं होगा! पहले तुम्हें स्वयं अपना ठोस आधार निर्मित करना होगा। इसके लिए शिक्षा, कर्मठता का संकल्प, भविष्य के सुनहरे सपने और आत्मविश्वास की आधार शिलाओं की आवश्यकता है। इन्हें प्राप्त कर इन्हें ही विकास की सीढ़ी बनाओ और पहुँचने की कोशिश करो, प्रगति के सर्वोच्च शिखर पर। कोशिशें ही तो कर्म हैं। कर्म करती चलो। परिणाम की चिंता मत करो। नारी तुम्हारा श्रम, तुम्हारी निष्ठा, तुम्हारी सहभागिता, तुम्हारे श्रम सीकर व्यर्थ नहीं जाएँगे। कल तुम्हारा होगा। तुम्हारी तपस्या का परिणाम निःसंदेह सुखद ही होगा, जिसमें तुम्हारी, हमारी और सारे समाज की भलाई निहित है।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : vijaytiwari5@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 118 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 118 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

रागिनी

मधुर रागिनी छेड़ दी, बजती है झंकार ।।

सुधा बरसती प्रेम की, भीगे दिल के तार।।

 

मयूर

हलचल बादल में हुई, भरे मयूर उड़ान।

ठुमक -ठुमक कर चल रहा, दिखा रहा है शान।।

 

पुष्पज

भ्रमर फूल को देखकर, आते हैं जो पास।

पुष्पज का परिमल उन्हें, देता सुख-उल्लास।।

 

पर्जन्य

उमड़ – घुमड़ कर छा रहे, मिल-जुलकर हर ओर।

देख सभी पर्जन्य को, झूम मचाते शोर।।

 

अंगना ..

छेड़छाड़ से है व्यथित, छुपी अंगना आज।

डर से थरथर काँपती, किसे बताए राज।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष#107 ☆ कैसे कहूँ विरह की पीर…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “कैसे कहूँ विरह की पीर….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 107 ☆

☆ कैसे कहूँ विरह की पीर….

 

पल पल राह निहारे आँखें, मनवा होत अधीर

जब से बिछुड़े श्याम साँवरे, अँखियन बरसत नीर

नैनन नींद न आबे मोखों, छूट रहा है धीर

बने द्वारिकाधीश जबहिं से, भूले माखन खीर

व्याकुल राधा बोल न पावें, चुभें विरह के तीर

दर्शन बिनु “संतोष” न आबे, काहे खेंचि लकीर

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 12 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #12 (21-25) ॥ ☆

सर्गः-12

एक बार छाया सघन तरूतल सहित प्रमोद।

थके हुये से सो रहे राम सिया की गोद।।21।।

 

तभी इन्द्र-सुत काक बन आया वहाँ जयन्त।

रख कुदृष्टि छू सिया को नभ में उड़ा अनन्त।।22।।

 

मारा बाण इषीक तब, यह घटना सुन राम।

क्षमा माँगने पर किया एक नेत्र बेकाम।।23।।

 

चित्रकूट है निकट अति जहाँ भरत का वास।

यह विचार हरिणों भरा छोड़ा वह वन खास।।24।।

 

रह नक्षत्रों बीच ज्यों वर्षा बीते भानु।

किया राम ने रह वहाँ, दक्षिण दिशा प्रयाण।।25।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मूढ मानवा ☆ श्री रवींद्र सोनावणी

श्री रवींद्र सोनावणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मूढ मानवा ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆ 

सुख स्वप्नांच्या, सागरात या, शोधू नको रे मोती

मूढ मानवा, हाती येईल, रेती.. केवळ रेती ||धृ.||

 

तृषार्त होतो आपण जेव्हा, व्याकुळ थेंबासाठी

आभासाचे मृगजळ बांधी, दैव आपुल्या गाठी

तू आशेच्या मागे, तुझीया कर्म धावते पुढती ||१||

 

शिखरावरती सौख्यसूर्य तू, नित्य पाहिले नवे

परिश्रमाने जवळी जाता, ते ठरले काजवे

निःश्वासांच्या मैफिलीत मग, श्वास जोगीया गाती ||२||

 

लाटेवरती लाट त्यावरी, घरकुल अपुले वसले

दुर्दैवाच्या खडकावरती, दीप आशेचे विझले

जा अश्रूंच्या तळ्यांत काळ्या, मालव जीवन ज्योती ||३||

 

नको रंगवू स्वप्न सुगंधी, तू अभिलाषांचे

गंधाभवती असती विळखे, काळ्या सर्पांचे

माध्यानीला ग्रासून जातील, दाट तमाच्या राती ||४||

 

कोण, कुणाचा? फसवी असते, सारी माया जगती

रक्त पिपासू अखेर ठरती, ती रक्ताची नाती

ममतेचे मग रिते शिंपले, कशांस घेतो हाती? ||५||

 

© श्री रवींद्र सोनावणी

निवास :  G03, भूमिक दर्शन, गणेश मंदिर रोड, उमिया काॅम्पलेक्स, टिटवाळा पूर्व – ४२१६०५

मो. क्र.८८५०४६२९९३

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 112 – अंगणी तुळस ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 112 – विजय साहित्य ?

☆ अंगणी तुळस  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

अंगणी तुळस  । सौभाग्याचा वास

प्राणवायू खास   । वृंदावनी  ।।१ ।।

 

डोलते तुळस  । गंधाळते मन ।

आरोग्याचे  धन  ।  प्रासादिक ।।२ ।।

 

तुळशीची पाने । काढा गुणकारी ।

नैवैद्य स्विकारी  ।  नारायण  ।।३ ।।

 

तुळशीचे काष्ठ ।  वैष्णवांची ठेव  ।

नसे चिंता भेव  ।  सानथोरा  ।।४ ।।

 

 तुलस पुजन । नित्य कुलाचार  ।

असे शास्त्राधार  ।  संवर्धनी  ।।५ ।।

 

अंगणी तुळस  ।  माहेरचा भास  ।

सासरचा त्रास  ।  वाऱ्यावरी  ।।६ ।।

 

तेवतसे दीप ।  परीमळे धूप  ।

चैतन्य स्वरूप  । मातामयी  ।।७ ।।

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ खुली कवाडं..! ☆ श्री अरविंद लिमये

श्री अरविंद लिमये

?विविधा ?

☆ खुली कवाडं..! ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

स्री-शिक्षण आणि स्त्री-स्वातंत्र्य याबाबतीत पराकोटीचं प्रतिकूल, उदासिन वातावरण असणारा दिडशे वर्षांपूर्वीचा काळ.वयाच्या नवव्या वर्षी तत्कालीन प्रथेनुसार बालविवाह झालेली एक मुलगी जाण येईपर्यंत असलेल्या माहेरच्या वास्तव्यात आवडीने अभ्यास करू लागते. तिची अभ्यासाची ओढ आणि गोडी लक्षात घेऊन पुरोगामी विचारांचे तिचे सावत्र वडील तिच्या शिक्षणाला प्रोत्साहनही देतात. पुढे ती जाणत्या वयाची होताच रितीनुसार तिची सासरी पाठवणी होते.तिथलं जुनाट वातावरण, कांहीही कामधंदा न करता बसून खाणारा नवरा हे सगळं शिक्षणामुळे प्रगल्भ होऊ लागलेल्या तिच्या मनाला पटणं शक्यच नसतं.ती पहिल्या माहेरपणाला येते ते सासरी कधीच परत जायचं नाही हे मनोमन ठरवूनच.सासरहून नांदायला यायचे तगादे सुरु होतात तेव्हा ‘ न कळत्या वयात झालेलं हे लग्न मला मान्य नाहीs’ असं ती ठणकावून सांगते.

हा वाद तत्कालीन इंग्रज राजवटीच्या कोर्टात जातो.सासरी नांदायला जाणे किंवा सहा महिन्यांचा तुरुंगवास या दोन पर्यायांपैकी एक पर्याय स्विकारायची वेळ येते तेव्हा ‘नको असलेल्या सासरच्या बंदिवासापेक्षा मी तुरुंगवास पत्करेन पण सासरी जाणार नाही ‘असं ती ठामपणे सांगते.

या घटनेनंतरच्या तिच्या संपूर्ण आयुष्याला मिळालेली सकारात्मक कलाटणी आणि पुढे तिने गाजवलेलं अफाट कर्तृत्त्व हा आवर्जून जाणून घ्यावा असा एक प्रदीर्घ अध्याय आहे!

ही गोष्ट आहे दिडशे वर्षांपूर्वी जगभर गाजलेल्या ‘रखमाबाई केस’ म्हणून ओळखल्या गेलेल्या खटल्याची ! रखमाबाई राऊत या खंबीर स्त्रीची ! भारतातली प्रॅक्टिस करणारी पहिली स्त्री डाॅक्टर- रखमाबाई राऊत यांची..!

रखमाबाईंचे सावत्र वडील बुरसटलेल्या विचारांचे आणि म्हणून स्त्री-शिक्षणाच्या बाबतीत अनुदार असते,तर शिक्षणाच्या गोडीची चवही चाखायला न मिळता रखमाबाईंचं उभं आयुष्य तत्कालीन अन्यायग्रस्त स्त्रियांसारखं जळून राख झालं असतं. पण सावत्रमुलीच्या आयुष्यात पसरु पहाणारा मिट्ट काळोख आपल्या चैतन्यदायी विचारांच्या उत्साहवर्धक स्पर्शाने नाहीसा करुन तिच्या आत्मसन्मानाची ज्योत तेवत ठेवणारे तिचे सावत्र वडील , श्री.सखाराम राऊत  रखमाबाईंच्या पाठीशी खंबीरपणे उभे राहिले आणि तिच्या कर्तृत्वाला आपल्या चैतन्य स्पर्शाने सतत झळाळीही देत राहिले हे महत्त्वाचं आहेच.आणि रखमाबाईंनी  सकारात्मक विचार आणि चैतन्यदायी प्रकाशकिरण आत येण्यासाठी स्वतःच्या मनाची कवाडंही खुली ठेवलेली होती हेही तितकंच लक्षणीय आहे.

 

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ तृप्त मी, कृतार्थ मी…. भाग – 4 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

?जीवनरंग ?

☆ तृप्त मी, कृतार्थ मी…. भाग – 4 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर 

(मागील भागात आपण बघितलं – बरं का श्रोते हो,  एक अहिराणी ओवी आहे. माहेर कशासाठी? .. तर… `पावलीनी चोळी, एक रातना विसावा… आता इथून पुढे’)

 मालतीला वाटलं, वसूच्या कथेतून आपलाच जीवन प्रवाह वाहतो आहे. त्यावेळी मनोहर म्हणाला होता, `दुसरी सोय होईपर्यंत तरी राहू दे.’  पण मालती म्हणाली,  `नको. आता इथं राह्यलाच नको.’ इंदूतार्इंनी तिची रुखवताची भांडी तिच्यापुढे आणून आपटली. भांडी, आपले कपडे घेऊन दोघे निघाली. तेव्हा महेश तिला ‘`घरी चल’’ म्हणाला होता आणि तिने त्याला अगदी असंच उत्तर दिलं होतं.

`वसूने मग एक लहान खोली भाड्याने घेतली. भाड्याच्या बदल्यात मालकिणीची पडेल ती कामे करायचं कबूल केलं तिने. मग या श्रमलक्ष्मीचे हात घरात आणि घराबाहेर राबू लागले. खोली लहानच खरी. पण तिची कळा बदलली. ती शोभिवंत,  साजिवंत झाली. बघा… थोरा-मोठ्यांनी म्हंटलंच आहे, `यत्न तो देव जाणावा । देव तेथेचीपहावा।। ‘ खमाजमध्ये बांधलेल्या या ओळींना शोभा-मिरानं उचलून धरलं. मिहीर क्षणभर विश्रांतीसाठी थांबला.

मालतीचं मन भूतकाळात गेलं. घरातून बाहेर पडल्यावर मनोहर म्हणाला, `आत्याबार्इंकडे जाऊन पाहू या. दुसरी जागा मिळेपर्यंत तिथे राहतो,  म्हणू या. त्यांचा वाडा आहे. रहायची जागा मोठी आहे. शिवाय दोघेच तिथे असतात. दोन्ही मुलींची लग्नं झालेली आहेत. मुलांचीही लग्नं होऊन ती आपापल्या नोकरीच्या गावी आहेत.’ निदान त्यांना विचारून तरी पाहूयात, असं म्हणत दोघेही मनोहरच्या सुशीला आत्याकडे गेली. आत्याबार्इंची पासष्ठी,  तर आत्तोबांची,  भाऊसाहेबांची सत्तरी उलटलेली. आत्याबार्इंना बरंच वाटलं. सोबतही होईल, आणि गरजेला उपयोगीही पडतील. आत्याने त्यांना अडगळीची खोली रिकामी करून दिली. भाड्याऐवजी मालतीने त्यांचं स्वैपाक-पाणी करायचं काम कबूल केलं.

मालतीचं आणि आत्यांचं  गूळ-पीठ चांगलं जमलं. एकदा ती आत्यांना म्हणाली, `तुमच्या ओळखीत कुणाला शेवया,  पापड,  कुरडया,  पुरणाच्या पोळ्या हव्या असतील, तर विचारा. मी करून देईन. हळू-हळू त्याच्या ऑर्डर्स येऊ लागल्या. तिच्या हातांना काम मिळालं. पैसेही मिळाले. ऑर्डप्रमाणे बाजारातून सामान आणणं,  तयार वस्तू पोचवणं, ही कामं मनोहर करू लागला.

एके दिवशी मनोहर म्हणाला, `तयार धोतर जोड्यांचं पिशव्यात भरून पॅकिंग करायचं काम मिळतय. शंभर नगाच्या पॅकिंगचे दहा रुपये मिळतील. करायचं? ‘

`करू या.’  मालती म्हणाली. मग मनोहर सकाळी जाऊन शंभर धोतरजोड्या व पिशव्या घेऊन येऊ लागला. रात्री सगळी कामे आवरली,  की दोघेजण मिळून पॅकिंग करू लागली. दुसर्‍या दिवशी पॅकिंग पोचवायचं आणि नवीन काम आणायचं,  असं सुरू झालं. असं मिळेल ते काम ती करत राहिली आणि पैसा पैसा जोडत राहिली.

मिहीरने फटका सुरू केला,

 `श्रमलक्ष्मीचे हात राबती, घरी-दारी,  इथे-तिथे।

कष्टावाचून जीवनी या, सौख्य कुणाला कधीमिळते?’      

 तर श्रोते हो, वसुंधराची परिस्थिती बघता बघता सुधारू लागली. ‘

मालती-मनोहरचा आता जम बसत चालला. रोजी-रोटी इतके मिळून थोडे-फार शिल्लकही पडू लागले. पण एवढंच मिळवून भागणार नव्हतं. संसार वाढणार होता. बाळाची चाहूल लागली होती. सातव्या महिन्यात महेश घरी बोलवायला आला, पण मालती म्हणाली, `बाळंतीण झाल्यावर येते.’  पोटात कळा येईपर्यंत ती काम करत राहिली. बाळंतीण झाल्यावर हॉस्पिटलमधून थेट माहेरी गेली. भाऊ-भावजयीनेही  मोठ्या मायेने तिचे बाळंतपण केलं.

मालतीने विचार केला,  मध्यंतरीच्या काळात तुटलेले सासरचे संबंध या नमित्ताने पुन्हा जोडूयात. आताशी मालतीला वाटू लागलं होतं, सासूबार्इंचं तरी काय चुकलं? कुठून त्या तिघांच्या पोटाला घालणार होत्या?  नणंदा लग्न होऊन आपापल्या घरी. दीर पोटापाण्याच्यामागे नोकरीच्या गावी. आपला संसार संभाळून देणारा उचलून तरी किती देणार?

मालतीने बारसं थाटात केलं. त्या निमित्ताने तिने दीर-जावा,  नणंदा, सासुबार्इंना बोलावलं. त्यांचे मान-पान केले. पैशाची जुळणी तिने आधीच करून ठेवली होती. सासरच्यांनीही चांगला बाळंतविडा केला. इंदूताई आता त्या दोघांना पुन्हा घरी चला, म्हणायला लागल्या. त्यावेळी आपलं चुकलं,  निराशेच्या भरात आपण काय बोलत होतो, तेच कळत नव्हतं,  असंही म्हणाल्या. सगळ्यांच्या पुढे हात जोडून माफी मागितली,  पण मालती म्हणाली, `तुम्ही हात नका जोडू. तेव्हा तुम्ही थोड्या कठोर झालात,  म्हणूनच आम्ही हात-पाय हलवायला लागलो. कुणाची लाचारी न पत्करता स्वाभिमानाने सुखाचे चार घास खाऊ लागलो.’ ती पुन्हा त्या घरात मात्र गेली नाही. सासुबार्इंना म्हणाली, `तुम्हाला जेव्हा नातवाला बघावं-भेटावंसं वाटेल,  तेव्हा तुम्हीच येत चला.’ तिने बाळाचे नाव सुहास ठेवलं. तिला वाटलं,  बाळाच्या नावाप्रमाणे त्याला बघताक्षणी सर्वांना प्रसन्न वाटू दे.

सुहास सहा महिन्याचा झाला, तेव्हा केव्हा तरी शिवण-कर्तनाच्या टिचर्स डिप्लोमाची जाहिरात मालतीच्या वाचनात आली. तिला शिवण येतच होतं. पण हा डिप्लोमा केला,  की सरकारी शिवणाचे वर्ग तिला घेता येणार होते. मनोहरने क्लासच्या वेळात बाळाला संभाळायची जबाबदारी स्वीकारली आणि ती शिवणवर्गाला जाऊ लागली. फस्र्ट क्लासमध्ये ती परीक्षा उत्तीर्ण झाली. त्यानंतर पुढे दोन वर्षे तिने शिवणाचे सरकारी वर्ग घेतले. तोपर्यंत दुसर्‍या बाळाची चाहूल लागली. मग मात्र तिने ते वर्ग बंद केले. बाकी शिवण शिवून देणं,  आणि पदार्थ करून देणं,  ही तिची कामे चालूच होती. पदार्थांच्या आर्डर्स खूपच वाढू लागल्या होत्या. दिवाळीचे पदार्थही ती मागणीप्रमाणे करून द्यायची. मोदक,  पुरणपोळ्या,  सुरळीच्या वड्या,  चकल्या हे पदार्थ म्हणजे तर तिची खासियत होती. आता या ऑर्डर्स इतक्या वाढू लागल्या,  की त्या त्यावेळी तिघी-चौघींना मदतनीस म्हणून तिला घ्यावं लागे.

क्रमश:….

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ उद्योजक प्रदीप ताम्हाणे … प्रमोद सावंत ☆ संग्राहक मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? इंद्रधनुष्य ?

उद्योजक प्रदीप ताम्हाणे … प्रमोद सावंत ☆ संग्राहक मंजुषा मुळे ☆ 

“आमच्या तंत्रज्ञानासाठी तुम्हां भारतीयांना आम्ही मागू तेवढे पैसे द्यावेच लागतील”. अमेरिकन बॉसचे ते शब्द प्रदीपच्या कानात शिसे ओतल्यासारखे ओतले गेले. माझ्या देशाला हा कमी लेखतोय या निव्वळ एका भावनेने त्या भारतीय तरुणाने उत्तम पगार, कार, अलिशान घर नोकरी दोन मिनिटात सोडली. या कंपनीचा प्रतिस्पर्धी म्हणून मी उभा राहिन असा मनाशी चंग बांधला. औषधी गोळ्यांना कलरकोटींग करणाऱ्या जगातील ‘त्या’ एकमेव कंपनीला या पठ्ठ्याने स्वत:चा पर्याय उभा केला. गोऱ्या अमेरिकन बॉसचा माज उतरवला.

शांत असणाऱ्या कोणत्याही भारतीयाला जर डिवचले तर तो काय करु शकतो हे संपूर्ण जगाने पाहिले. ही कहाणी त्या जिगरबाज भारतीय तरुणाची. ही कहाणी आहे, विनकोट ही जगातील दुसरी आणि संपूर्णत: भारतीय बनावटीची औषधी गोळ्यांना कलर कोटींग करणाऱ्या कंपनीच्या मालकाची, प्रदीप ताम्हाणेंची.

२६ जानेवारी १९५० साली संपूर्ण भारत देश प्रजासत्ताक झाल्याचा आनंद साजरा करत असतानाच दादर येथील ताम्हाणेंच्या घरी प्रदीपचा जन्म झाला. खरंतर हा योगायोगच म्हणावा लागेल. पोर्तुगीज चर्चजवळील एका मराठी माध्यम शाळेत प्रदीपचं शालेय शिक्षण पूर्ण झालं. घरचं वातावरण टिपीकल मध्यमवर्गीय असंच होतं. त्याकाळी टॅक्सीत बसणं म्हणजे मुलांसाठी एक पर्वणीच असायची. वर्षातून दोन-तीन वेळाच टॅक्सीमध्ये बसण्याची संधी मिळे.

दादरच्या किर्ती महाविद्यालयातून विज्ञान शाखेतून त्याने पदवी आणि त्यानंतर पदव्युत्तर पदवी देखील संपादन केली. त्याच दरम्यान एका कंपनीत नोकरी मिळाली पगार होता फक्त ८०० रुपये. संशोधनाची आवड असल्याने दुसऱ्या एका कंपनीत संशोधन आणि विकास विभागात ‘कलर इनचार्ज’ म्हणून नोकरी केली.

कालांतराने औषधी गोळ्यांवरील रंगीत आवरण तयार करणाऱ्या एका अमेरिकन कंपनीत प्रदीपला नोकरी मिळाली. या कंपनीची शाखा लंडन मध्ये होती. तिथे प्रदीप काम करायचा. उत्तम पगार, मर्सिडीज कार, राहण्यासाठी अलिशान घर अशा सगळ्याच सुख-सुविधा पायाशी लोळण घेत होत्या. ही कंपनी मुख्यत: रेडीमिक्स पावडर तयार करत असे. सुरुवातीला फक्त १३ किलो पावडर भारतात विकली जायची मात्र प्रदीपच्या तंत्रज्ञानाने काही दिवसांतच हे प्रमाण ५ हजार किलोवर गेले. भारतातील सर्वांत मोठ्या ५ औषधी कंपन्यांना हेच तंत्रज्ञान पुरविले जाई. मात्र त्याची किंमत अफाट होती.

२५०० रुपये किंमतीची ती पावडर २५ ते ३० हजार रुपयांना विकली जाई. इतकी मोठी तफावत असे. ही तफावत या कंपन्यांच्या लक्षात येत होती. या विषयी त्यांनी प्रदीपला सांगितलं देखील. मात्र हे तंत्रज्ञान पुरविणारी ती जगातील एकमेव कंपनी होती आणि तिचा बॉस एक अमेरिकन होता, ज्याच्यासमोर प्रदीपचं काहीच चालत नव्हतं हे त्यांना माहित होतं.

खरंतर हा अमेरिकन बॉस प्रदीपचा चांगला मित्र होता. प्रदीपने शोधून काढलेल्या तंत्रज्ञानावर एके दिवशी एका व्याख्यानाचे आयोजन करण्यात आले होते. अनेक देशांतील औषध निर्मिती करणारे उत्पादक, तंत्रज्ञ त्या व्याख्यानास आले होते. ४५ मिनिटाचं ते व्याख्यान त्या सगळ्यांना इतकं आवडलं कि “वेळेची मर्यादा तुम्हांला नाही तुम्ही बोलत रहा असे”, त्या व्याख्यानमालेच्या गोऱ्या अध्यक्षाने प्रदीपला सांगितले. तब्बल साडेतीन तासानंतर व्याख्यान संपले. व्याख्यानास उपस्थित असलेल्या लोकांनी अनेक प्रश्न विचारले.

व्याख्यान संपल्यानंतर प्रदीप कॉफीचा मग घेऊन बॉसच्या बाजूला बसला. बॉसने पण प्रदीपची तोंड भरुन स्तुती केली. ही योग्य वेळ आहे आपल्या भारतीय औषध निर्मात्या कंपन्याच्या व्यथा सांगण्याची, हे हेरुन प्रदीप बॉसला म्हणाला, “आपण भारतात आपलं कलर कोटींगचं तंत्रज्ञान पुरवितो. मात्र त्याचा दर प्रचंड आहे. तो दर कमी…” हे वाक्य पूर्ण होण्याच्या आतच त्या साडे-सहा-सात फूट अमेरिकन बॉसने समोरच्या टेबलावर जोराने हात आपटला. आणि प्रदीपच्या अगदी डोळ्याजवळ बोट नेऊन मोठ्याने जवळपास किंचाळलाच. “You have to pay for our technology’’. “तुम्हां भारतीयांना आमचं तंत्रज्ञान आम्ही सांगू त्या किंमतीत घ्यावंच लागेल”.

कोणाही भारतीयाला जिव्हारी लागेल असे ते शब्द ऐकल्यानंतर प्रदीपने २ मिनिटांचा अवधी मागितला. तो शांतपणे रिसेप्शनिस्ट जवळ गेला. तिच्याकडून एक कोरा कागद घेतला. एका ओळीत राजीनामापत्र लिहीले. आपल्या घराची, गाडीची चावी देऊन तो शांतपणे तिथून निघून गेला. मात्र मनाशी एक निश्चय होता. या अमेरिकन कंपनीला टक्कर देणारी स्वत:ची भारतीय कंपनी सुरु करण्याची.

तो भारतात आला. आई, बाबा आणि पत्नीला सारं काही सांगितलं. घरच्यांनी पूर्णत: पाठिंबा दिला आणि घरातल्या किचनमध्येच सुरु झाली प्रयोगशाळा. रात्री सगळ्यांची जेवणे उरकल्यानंतर रात्री ११ ते सकाळी ५ या वेळेत ही प्रयोगशाळा चाले. तब्बल दीड महिन्यांचा अथक संशोधनानंतर यश मिळालं आणि रेडिमिक्स पावडरचं तंत्रज्ञान विकसित झालं.

हे तंत्रज्ञान त्या अमेरिकन औषधाच्या तुलनेत १० पटीने स्वस्त होतं. बाजारपेठेत औषधी कंपन्यासोबत ओळख होतीच. अशाच एका कंपनीच्या मालकाने ताम्हाणेंची ती रेडिमिक्स पावडर पाहिली आणि ताम्हाणेंना मिठीच मारली. एवढ्या स्वस्तात संपूर्ण भारतीय बनावटीची ती रेडीमिक्स कोटींग पावडर म्हणजे अविश्वसनीय बाब होती. त्याने तात्काळ ५ किलो पावडरची ऑर्डर दिली.

मात्र आपल्याकडे एवढी लहान ऑर्डरसुद्धा पूर्ण करण्यासाठी तेवढं इन्फ्रास्ट्रक्चर नाही असं ताम्हांणेंनी सांगितलं. “तुम्ही जर आता ही ऑर्डर पूर्ण नाही करु शकलात तर आयुष्यात पुढे या क्षेत्रात काहीच करु शकणार नाही”. कंपनीच्या त्या मालकाचे शब्द ताम्हाणेंच्या जिव्हारी लागले. त्यांनी चंग बांधला. आणि ती ऑर्डर पूर्ण केली. पहिल्याच वर्षी त्यांची दीड कोटी रुपयांची उलाढाल झाली.

काही दिवसांनी त्यांना एक व्यावसायिक भागीदार मिळाला. खरा तर तो एक विकासक होता आणि त्याला झटपट विक्री करुन पैसे पाहिजे होते. ताम्हाणेंच्या व्यवसायात संशोधन करुन उत्पादन निघण्याची प्रक्रिया होती ज्यास वेळ लागणार होता. तेवढा संयम नसल्याने अर्ध्यातच त्या भागीदाराने सोबत सोडली. कंपनी विकावी लागली.

मात्र ताम्हाणेंनी धीर न सोडता १९९७ साली विनकोट्स कलर्स ऍण्ड कोटींग प्रायव्हेट लिमिटेड नावाची नवीन कंपनी उभारली. अंबरनाथला कारखाना सुरु केला. आज ही कंपनी जगातील ५० हून अधिक देशांमधील औषध निर्मिती करणाऱ्या देशांना उत्पादन पुरविते.

मनुष्यबळाकडे ताम्हाणेंचे विशेष लक्ष असते. कामगार हा कार्यक्षम रहावा यासाठी अंबरनाथ स्टेशन ते कारखाना अशी कामगारांना ने-आण करण्यासाठी रिक्षासेवा त्यांनी चालू केली होती. संध्याकाळी कामाची वेळ संपल्यानंतर कामगाराला एक मिनीट देखील थांबविले जात नाही. त्याने जास्तीत जास्त वेळ कुटुंबियांसोबत घालवला पाहिजे याकडे कटाक्ष असतो. एखादा कामगार अडचणीत असेल तर कंपनी त्याच्यामागे भरभक्कम उभी राहते.

एके काळी पत्र्याच्या घरात राहणारे कामगार स्वत:च्या टूबीएचके फ्लॅटमध्ये राहतात. जवळपास प्रत्येकाकडे किमान मोटरसायकल आणि कार आहेच. ताम्हाणेंकडे आज ५५ कामगार कार्यरत आहेत मात्र ५०० कामगारांच्या दर्जाचे काम करण्याची कार्यक्षमता त्यांनी अंगी जोपासली आहे.

अत्यंत मृदू आवाज, मवाळ प्रकृतीचे प्रदीप ताम्हाणे भारतीयत्वाने पेटून उठले आणि स्वत: मधील कणखर भारतीयाचे जगाला दर्शन घडवित पावडर कोटींगमधील दुसऱ्या क्रमांकाच्या कंपनीची निर्मिती केली. यंदा भारताच्या स्वातंत्र्याला ७० वर्षे पूर्ण होत आहे. प्रदीप ताम्हाणेंसारखे देशभक्त उद्योजक हे खऱ्या अर्थाने भारताचं नाव समृद्ध करत आहेत.

 

– प्रमोद सावंत

८१०८१०५२३२

संग्राहक : सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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