मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ सूर्याय नमः ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे 

सुश्री उषा जनार्दन ढगे

परिचय  

प्रथितयश साहित्यिक थिओसाॅफीस्ट तीर्थरुप कै. ज.ना.ढगे यांची कनिष्ठ कन्या..

बालपणापासून साहित्यिक वातावरणात जडणघडण..

चित्रकलेची संगीताची विशेष आवड

कलाशिक्षण— सर जे.जे.स्कूल ऑफ़ आर्ट

GD in Fine Art (1979)

GD in Metal craft ( Enamelling-1981) राज्यात सर्वप्रथम..

३५ वर्षे सौंदर्यतज्ञ व मार्गदर्शिका व्यवसाय

पोटनाळ हा पहिला प्रकाशित कवितासंग्रह

९१ व्या अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलनात (बडोदे) कवितेची निवड व सहभाग

छंद— लेखन, काव्यलेखन, रेखाचित्रे व व्यक्तिचित्रांचे रेखाटन..

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ सूर्याय नमः ?? सुश्री उषा जनार्दन ढगे ☆ 

☀️ सूर्याय नमः ☀️

तूच अरुण तूच रवि

   तूच श्रेष्ठ भास्कर..

विनाशूनी अज्ञान

   नाशितोस अंधःकार..

तूच भानू सूर्य तूची

   आदित्य दिवाकर

तूच समयसूचक

   सुख-समस्त दीपांकर..!

 

भ्रमत नित्य पूर्वपंथे

   पश्चिमेस तुझा अस्त..

सुवर्णचर्या पाहता

   क्लेश दरिद नाशवंत..

दिपवूनी किरणप्रकाशे

   तेजाळत सहस्रहस्त..

दिशादिशांस उजळत

   तूच एक सत-सुनृत..!

 

© सुश्री उषा जनार्दन ढगे

२२-०४-२०२०

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 10 – व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में – भाग-4 ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में’ – भाग-4 (अंतिम भाग)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 10 – व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में – भाग-4 ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

स्वंतत्रता के पूर्व साहित्य को समय के संदर्भ में देखने के लिए उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद महत्वपूर्ण लेखक हैं. उनके उपन्यास और कहानियों से गुजरने के बाद भारत में ग्रामीण और शहरी परिवेश का पता लगाने के लिए उस समय की राजनैतिक सामाजिक और आर्थिक स्थिति का बहुत बारीकी से पता चल जाता है. लोगों का रहन सहन जीवन शैली रीति रिवाज का निर्वहन, जमींदारी और सांमती प्रभाव आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, पता चल जाता है. पूस की रात और कफन आदि रचनाओं से आम आदमी की मन:स्थिति मालुम हो जाती है. देश की राजनीतिक स्थितियां कांग्रेसियों का स्वतंत्रता आंदोलन का आम जन पर प्रभाव ग्रामीण राजस्व व्यवस्था और अंग्रेजी शासन पड़ रहे असर से भी पाठक रुबरु हो जाता है. उस वक्त स्वतंत्रता आंदोलन में संघर्ष कर रहे राजनीतिक दलों ने आमजन  को स्वतंत्रता का अर्थ और महत्व से परिचय कराया और साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि स्वतंत्रता के बाद लोगों की तकदीर और तस्वीर बदल जाएगी. इस आश्वासन के बाद लोगों ने उस आंदोलन को तन मन धन और जन से पूरा पूरा सहयोग किया और यह आंदोलन जन आंदोलन में बदल गया और देश  को शीघ्र ही स्वतंत्रता मिल गई. लोगों को विश्वास था अब हमारे दिन फिरने वाले हैं. पर ऐसा कुछ हुआ नहीं. नेताओं की आम आदमी के प्रति उपेक्षा, भाई भतीजावाद, भ्रष्टाचार,पीड़ित का शोषण  आदि विसंगतियों के चलते नेताओं से सामान्य जन का मोहभंग हो गया. इन विसंगतियों और मानवीय सरोकारों को किसी लेखक ने बहुत ईमानदारी और सरोकारी ढंग से उकेरा है. तो वह है स्वतंत्रता के बाद के सबसे अधिक चर्चित सबसे अधिक पढ़े जाने वाले लेखक व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई. हम जब साहित्य समय के संबंध से देखते हैं तो हरिशंकर परसाई इस खाते में सबसे सटीक बैठते हैं. स्वतंत्रता के बाद परसाई ने मूल रूप से समाज  में व्याप्त आर्थिक मानवीय, राजनैतिक राष्ट्रीय और वैश्विक सरोकारों को साहित्य का विषय बनाया है. परसाई जी की मृत्यु के बाद प्रथम पुण्यतिथि पर जबलपुर में आयोजित एक कार्यक्रम में वरिष्ठ आलोचक डॉक्टर नामवर सिंह ने कहा था कि अगर भारत के इतिहास को जानना है तो हमें परसाई जी की रचनाओं से गुजरना होगा (उनके वक्तव्य के शब्द अलग हो सकते हैं पर आशय यही था) परसाई जी का साहित्य समकालीनता का समय सामाजिक और मानवीय सरोकारों पर केंद्रित रहा. उस समय में देश में व्याप्त सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य, पाखंड, प्रपंच, ठाकुरसुहाती, अफसरशाही आदि विसंगतियों के साथ वैयक्तिक नैतिक मूल्यों में हो रहे पतन पर कलम चलाई है. स्वतंत्रता के बाद के आरंभिक दिनों की रचनाओं में यह सब मिल जाता है. स्वतंत्रता आंदोलन में साहित्यकार पत्रकारों ने बहुत बड़ी भूमिका का निर्वाह किया था. पर  बाद में उन भी नैतिक पतन आरंभ हो गया. वे लाभ का अवसर पर सत्ता उन्मुखी होते गए. अपना सामाजिक राष्ट्रीय दायित्व भूलकर दरबारी परंपरा का निर्वाह करते नजर आने लगे.  जबलपुर से प्रकाशित साप्ताहिक अखबार के अपने स्तंभ में 18 जनवरी 1948 को प्रकाशित रचना “साहित्य में ईमानदारी” से उस समय के साहित्यकारों की प्रकृति का पता चलता है. ‘प्रजातंत्र की भावना को लेकर जो जन जागरण हुआ तो साहित्य कोटि-कोटि मुक्त भारतीय की वाणी बन गया. सरकारी भृकुटि की अवहेलना कर हमारे अनेक साहित्यकारों ने इमानदारी के साथ देशवासियों का चित्र खींचा. अनेक कवि व लेखक जेल गए. यातना सही, बलिदान किए, परंतु सच्चे रहे.’ यह साहित्यकारों का स्वतंत्रता आंदोलन के समय का चित्र है, पर स्वतंत्रता के बाद का चित्र कुछ अलग बात कह रहा है.,” परंतु इधर कुछ दिनों से दिख रहा है कि ‘इतिहास पलटता है’ के सिद्धांत पर रीतिकाल फिर आ रहा है. ‘साहित्य सेवी’ जनता जनार्दन की सेवा छोड़कर देवी चंचला और सरकार की सेवा में पुनः रत दिखाई दे रहे हैं. इस प्रकार का साहित्य, साहित्य नहीं रहता बल्कि बाजार का भटा भाजी हो जाता है. और साहित्यकार एक कुंजड़ा’ वो आगे शिक्षा जगत के पतन और मंत्रियों में नाम के प्रति आशक्ति के आचरण पर कहते हैं “आजकल देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में मंत्रियों को डॉक्टर ऑफ लिटरेचर (साहित्य मर्मज्ञ) की उपाधियां देने में जो होड़ लगी है। उसे देखकर अचंभा और दुख दोनों होते हैं. दही बड़े की तरह है यहां साहित्य की डॉक्टरेट पैसे की दो मिल रही हैं. अब जरा पाने वालों की लिस्ट लीजिए, अधिकांश मंत्री लोग हैं.” यह दृश्य लगभग 74 वर्ष पूर्व का है. स्वतंत्रता के समय में आए ईमानदारी, नैतिकता, जनसेवा का ज्वर उतर गया  और स्वार्थ लोलुपता जोड़ जुगाड़ के चक्कर में नेता और अफसर लगे थे आज भी अधिकांश साहित्यकार भी सत्ता के अधिक पास देखना चाहते हैं. नैतिकता ईमानदारी साहित्य सेवा उन्हें दूसरों के लिए अच्छी लगती है. इस समय को दस साल बढ़ कर  उस समय को देखते हैं तो देश के अखबारों की सुर्खियों में तीन शब्द प्रमुख रुप से रहते थे, बम,विस्फोट बम. इसी शीर्षक से प्रहरी में अप्रैल 6,1958 में प्रकाशित लेख में वे विद्यार्थियो की प्रवृत्ति पर कहते हैं “विद्यार्थियों का विरोध परीक्षा से है. कठिन प्रश्न यदि परीक्षा में आ गए तो विद्यार्थी परीक्षा भवन  से हट जाएंगे क्योंकि उनका हक है. आसान प्रश्न आए जिन्हें वे साल भर बिना पढ़े भी कर सकें. वैसे उनकी वास्तविक मांग यह है कि प्रश्नपत्र एक महीने पहले अखबार में छप जाए. ना छपने से उन्हें असुविधा होती हैं.ठीक पढ़ने के वक्त पर उन्हें पता लगाना पड़ता है कि किसने पेपर निकाला है. उसमें क्या आया है. उनकी यह मांग न्यायोचित है.”

उनकी दूसरी मांग यह है कि परीक्षा भवन में उन्हें नकल करने दी जाए. इस संबंध में हमारा सुझाव है कि उन्हें परचा दे दिया जाए और कह दिया जाए कि वह घर से कर कर ले आए इससे परीक्षा का बहुत सा खर्च बच जाएगा.दोनों मांग पूरी नहीं होने पर सत्याग्रह होगा .उनकी बात क्यों नहीं मानी जाएगी जबकि हमारे यहां प्रजातंत्र है. जनता चाहेगी जैसा शासन होगा तो फिर विद्यार्थी चाहेंगे वैसे ही परीक्षा क्यों न होगी. यदि मध्य प्रदेश की राजधानी काठमांडू में है तो इसे मानना पड़ेगा क्योंकि यह उनका जनतांत्रिक निर्णय है.” इस लेख में शिक्षा जगत में बढ़ती अराजकता शिक्षा नीति की विसंगति आदि को भलीभांति समझा जा सकता है. राजनीतिक दलों को युवा शक्ति की जरूरत चुनावों के समय में होती है उनकी नजर छात्रों पर रहती है बे उनकी अनाप-शनाप मांग पर भी पिछले दरवाजे से दे देते हैं. शिक्षा जगत का यह दृश्य आज के समय पर सोचने को मजबूर करता है.

भारतीय राजनीति में आठवां दशक बहुत उथल-पुथल वाला रहा 73-74 में छात्र क्रांति आरंभ हो चुकी थी. जनता सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार भाई भतीजावाद अकर्मण्य अफसरशाही से परेशान थी. वे परिवर्तन चाहते थे. परिवर्तन हेतु छात्र आंदोलन शुरू हुआ. जयप्रकाश नारायण इस आंदोलन के अगुआ हुए. उन्होंने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया. आपातकाल लगाया गया. विपक्ष के छोटे बड़े राजनेता, छात्र नेता जेल में ठूंस दिए गए. उस समय संजय गांधी युवा शक्ति बन कर सामने आए. आतंक और भय का वातावरण व्याप्त था. पर ढाई साल बाद चुनाव हुए. तत्कालीन सरकार हार गई. विभिन्न विचार वाले राजनीतिक दलों ने मिलकर ‘जनता पार्टी’ बनाई और चुनाव जीत गए. पर ढाई साल के बाद ही उनमें मतभेद उभरकर आ गए. सभी नेताओं की महत्वाकांक्षाएं और सामने आ गई. इन सब पर परसाई जी के बहुत सारे लेख मिल जाएंगे. उस समय के नेता राजनारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, चंद्रशेखर, जॉर्ज फर्नांडिस, मधु लिमए आदि सभी के नेताओं पर उनके लेख मिल जाते हैं .जिससे समय का इतिहास का पता चल जाता है. उदाहरणार्थ एक लेख ‘जार्ज का जेरुसलम’ उल्लेखनीय है.

“साधु जॉर्ज करिश्मा करने वाले नेता हैं कुछ करिश्मा रहस्य में ढके हैं जरा याद करो जब चरण सिंह प्रधानमंत्री बनने को उतारू थे. तब जनता पार्टी की सरकार के खिलाफ चरण सिंह ने  अविश्वास प्रस्ताव रखवाया था. तब लोकसभा में जनता सरकार के पक्ष में सबसे अच्छा जार्ज बोले थे. वे लगातार दो घंटे बोले थे. लगता था जनता सरकार बच गई. पर दूसरे दिन खुद जॉर्ज ने उसी जनता पार्टी से इस्तीफा दे दिया जिसके काम की तारीफ वे चौबीस घंटे पहले कर चुके थे. साधो यह क्या चमत्कार था. कैसे बदल गए वीर शिरोमणि जार्ज.  तब अखबारों ने संकेत दिए थे और दिल्ली में आम चर्चा थी कि रात को गृहमंत्री चरण सिंह जार्ज के बंगले में ‘भ्रष्टाचार विरोधी फोर्स की रेड( छापा )डलवा दी थी. नतीजा यह हुआ की रेड के फौरन बाद जार्ज के राजनीतिक विचार बदल गए उन्होंने जनता पार्टी छोड़ दी.”

जब आप यह पढ़ते हो तो सोच भी नहीं सकते कि भारतीय राजनीति में ऐसा भी हुआ था. या हुआ है. तभी परसाई जी ने लिखा. जिसे हमने आज जाना. परसाई ने अपने लेखन के समय के साथ जिया. इस कारण परसाई के समय की रचनाओं में  इतिहासिक परिस्थितियां, सामाजिक राजनीतिक वातावरण को हम जान रहे हैं. वैयक्तिक विचलन, समाज में पतनोन्मुख नैतिक मूल्यों का पतन. आदि उनकी रचनाओं में मिल जा ती हैं. वैष्णव की फिसलन, टॉर्च बेचने वाली कंधे, श्रवण कुमार के, भोलाराम का जीव. आदि वैयक्तिक पतन की रचनाएँ हैं. जब देश में अकाल पड़ा तो उस समय की अफसरशाही, भ्रष्टाचार को समान रूप से परसाई और शरद जोशी ने निर्भीकता ‘अकाल उत्सव’ और ‘जीप पर सवार इल्लियों ‘में लिखा जो साहित्य में समय को हस्तक्षेप करने वाली रचना जानी जाती है.. शासन में व्याप्त विसंगतियां और अफसरशाही पर हरिशंकर परसाई ने – इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर, भोलाराम का जीव आदि और शरद जोशी ने वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं, आदि रचनाओं से साहित्य में समाज के संबंधों समय के परिपेक्ष्य में साक्षात्कार कराया. इसी तरह साहित्य और समाज के अंतर संबंधों पर समय को केंद्र में रखकर बाबा नागार्जुन, धर्मवीर भारती, धूमिल, मुक्तिबोध आदि ने बहुत लिखा जिसे पढ़ने से हम उस समय से रूबरू हो जाते हैं.

समाप्त 

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #122 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 6 – “हबीब” ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।  आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “हबीब”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 6 – “हबीब” ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

हम पर जान लुटाता ऐसा नहीं कोई हबीब,

दिलोजान से चाहता ऐसा नहीं कोई हबीब।

 

भरी जवानी गेसुओं की छांव छिनी जिससे,

दिखता हो जमाने में ऐसा नहीं कोई गरीब।

 

ज़हर पीने की क़ाबलियत नहीं किसी में,

दर्द कुछ पी सके ऐसा नहीं कोई दरीब।

 

आह से बर्फ पिघलती दर्दीले पहाड़ों की,

हमारे रोने से बदलेगा नहीं कोई नसीब।

 

बरसते आंसुओं से ही तो समंदर भरा है,

समझ कर खारा आता नहीं कोई करीब।

 

उदू की क़ैद में छटपटाए बुलबुल बेतहाशा,

जाकर छुड़ा ले उसे ऐसा नहीं कोई रक़ीब।

 

मुहब्बत में ज़ख़्म मिले ‘आतिश’  बेशुमार,

उसके घाव सहलाता ऐसा नहीं कोई तबीब।

 

हबीब-प्यारा

दरीब-प्रशिक्षित

तबीब-वैद्य

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी…. ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – चुप्पी…. ??

 

वह अबाध

बह रहा है,

लहरों का कंपन

भीतर ही भीतर

साँस ले रहा है,

उसके प्रवाह को

बाधा मत पहुँचाना,

समुद्र की शांति होती है;

सच्चे आदमी की चुप्पी..!

 

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 9:37 बजे, 26 नवम्बर 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 57 ☆ गजल – समय ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 57 ☆ गजल – समय ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆

जग में सबको हँसाता है औ’ रूलाता है समय।

सुख औ’ दुख के चित्र रचता औ’ मिटाता है समय।

है चितेरा समय ही संसार के श्रृंगार का

नई खबरों का सतत संवाददाता है समय।

बदलती रहती ये दुनियाँ समय के सहयोग से

आशा की पैगों पै सबको नित झुलाता है समय।

नियति को, श्रम को, प्रगति को है इसी का आसरा

तपस्वी को तपस्या का फल प्रदाता है समय।

भावना मय कामना को दिखाता है रास्ता

हर गुणी साधक को शुभ अवसर दिलाता है समय।

सखा है विश्वास का, व्यवसाय का, व्यापार का

व्यक्ति की पद-प्रतिष्ठा का अधिष्ठाता है समय।

नियंता है विष्व का, पालक प्रकृति परिवेश का

सखा है परमात्मा का, युग-विधाता है समय।

शक्तिशाली है, सदा रचता नया इतिहास है

किन्तु जाकर फिर कभी वापस न आता है समय।

सिखाता संसार को सब समय का आदर करें

सोने वालों को हमेशा छोड़ जाता है समय।

है अनादि अनंत फिर भी है बहुत सीमित सदा

जो समय को पूजते उनको बनाता है समय।

हर सजग श्रम करने वाले को है इसका वायदा

एक बार ’विदग्ध’ उसको यश दिलाता है समय।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ।।प्रेम,आशा और विश्वास यह अनमोल मोती हैं  जीवन के।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण एवं विचारणीय रचना ।।प्रेम,आशा और विश्वास यह अनमोल मोती हैं  जीवन के।।)

☆ कविता – ।।प्रेम,आशा और विश्वास यह अनमोल मोती हैं  जीवन के।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

।।विधा।। मुक्तक।।

[1]

कतरा कतरा मरकर नहीं खुशी से भरपूर जीना  है।

बन कर    हमें   हर  दिल का नूर      जीना         है।।

एक ही मिली है   जिंदगी फिर मिलेगी न      दुबारा।

जोशो जनून में   हमें   हो कर    चूर      जीना     है।।

 

[2]

आदमी प्रभु    की     एक अनमोल      अमानत   है।

जब तक खुद पे   विश्वास जिंदगी    सलामत       है।।

आशाऔर विश्वास जीवन के हैं दो अनमोल    मोती।

उम्मीद   मानो    जैसे  कि जिंदगी की जमानत     है।।

 

[3]

कभी  हँसाती तो    कभी रुलाती है यह      जिंदगी।

सुख दुःख      दोनों     ही मंजर दिखाती है  जिंदगी।।

है प्रभु की  इस  अनमोल धरोहर का कर्ज   चुकाना।

अपना बना कर देखो  तो ही अपनाती है     जिंदगी।।

 

[4]

हर क्षण घट रहा   जीवन पल पल जीना है  हमको।

घोल कर वाणी में  अमृत इसे     पीना है     हमको।।

अनजाने में भी  हम    से किसी का अनर्थ न     हो।

बन कर इंसा किसी   का जख्म सीना   है    हमको।।

 

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #69 – साधन और साध्य ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #69 – साधन और साध्य ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार अकबर ने तानसेन से कहा था कि तेरा वीणावादन देखकर कभी—कभी यह मेरे मन में खयाल उठता है कि कभी संसार में किसी आदमी ने तुझसे भी बेहतर बजाया होगा या कभी कोई बजाएगा? मैं तो कल्पना भी  नहीं कर पाता कि इससे श्रेष्ठतर कुछ हो सकता ‘है।

तानसेन ने कहा,क्षमा करें, शायद आपको पता नहीं कि मेरे: गुरु अभी जिन्दा हैं। और एक बार अगर आप उनकी वीणा सुन लें तो कहां वे और कहां मैं!

बड़ी जिज्ञासा जगी अकबर को। अकबर ने कहा तो फिर उन्हें बुलाओ! तानसेन ने कहा, इसीलिए कभी मैंने उनकी बात नही छेड़ी। आप मेरी सदा प्रशंसा करते थे, मैं चुपचाप पी लेता था, जैसे जहर का घूंट कोई पीता है, क्योंकि मेरे गुरु अभी जिन्दा हैं, उनके सामने मेरी क्या प्रशंसा! यह यूं ही है जैसे कोई सूरज को दीपक दिखाये। मगर मैं चुपचाप रह जाता था, कुछ कहता न था, आज न रोक सका अपने को, बात निकल गयी। लेकिन नहीं कहता था इसीलिए कि आप तत्‍क्षण कहेंगे, ‘उन्हें बुलाओ’। और तब मैं मुश्किल में पड़ुगा, क्योंकि वे यूं आते नहीं। उनकी मौज हो तो जंगल में बजाते हैं, जहां कोई सुननेवाला नहीं। जहां कभी—कभी जंगली जानवर जरूर इकट्ठे हो जाते हैं सुनने को। वृक्ष सुन लेते हैं, पहाड़ सुन लेते हैं। लेकिन फरमाइश से तो वे कभी बजाते नहीं। वे यहां दरबार मे न आएंगे। आ भी जाएं किसी तरह और हम कहें उनसे कि बजाओ तो वे बजाएंगे नहीं।

तो अकबर ने कहा, फिर क्या करना पड़ेगा, कैसे सुनना पड़ेगा? तो तानसेन ने कहा, एक ही उपाय है कि यह मैं जानता हूं कि रात तीन बजे वे उठते हैं, यमुना के तट पर आगरा में रहते हैं—हरिदास उनका नाम है—हम रात में चलकर छुप जाएं—दो बजे रात चलना होगा; क्योंकि कभी तीन बजे बजाए, चार बजे —बजाए, पांच बजे बजाए; मगर एक बार (जरूर सुबह—सुबह स्नान के बाद वे वीणा बजाते हैं— तो हमें चोरी से ही सुनना होगा, बाहर झोपड़े के छिपे रहकर सुनना होगा।.. शायद ही दुनिया के इतिहास में किसी सम्राट ने, अकबर जैसे बड़े सम्राट ने चोरी से किसी की वीणा सुनी हो!.. लेकिन अकबर गया।

दोनों छिपे रहे एक झाड़ की ओट में, पास ही झोपड़े के पीछे। कोई तीन बजे स्नान करके हरिदास यमुना सै आये और उन्होंने अपनी वीणा उठायी और बजायी। कोई घंटा कब बीत गया—यूं जैसे पल बीत जाए! वीणा तो बंद हो गयी, लेकिन जो राग भीतर अकबर के जम गया था वह जमा ही रहा।

आधा घंटे बाद तानसेन ने उन्हें हिलाया और कहा कि अब सुबह होने के करीब है, हम चलें! अब कब तक बैठे रहेंगे। अब तो वीणा बंद भी हो. चुकी। अकबर ने कहा, बाहर की तो वीणा बंद हो गयी मगर भीतर की वीणा बजी ही चली जाती है। तुम्हें मैंने बहुत बार सुना, तुम जब बंद करते हो तभी बंद ‘हो जाती है। यह पहला मौका है कि जैसे मेरे भीतर के तार छिड़ गये हैं।। और आज सच में ही मैं तुमसे कहता हूं कि तुम ठीक ही कहते थे कि कहा तुम और कहां तुम्हारे गुरु!

अकबर की आंखों से आंसू झरे जा रहे हैं। उसने कहा, मैंने बहुत संगीत सुना, इतना भेद क्यों है? और तेरे संगीत में और तेरे गुरु के संगीत में इतना भेद क्यों है? जमीन—आसमान का फर्क है।

तानसेन ने कहा – कुछ बात कठिन नहीं है। मैं बजाता हूं कुछ पाने के लिए; और वे बजाते हैं क्योंकि उन्होंने कुछ पा लिया है। उनका बजाना किसी उपलब्‍धि की,किसी अनुभूति की अभिव्यक्ति है। मेरा बजाना तकनीकी है। मैं बजाना जानता हूं मैं बजाने का पूरा गणित जानता हूं मगर गणित! बजाने का अध्यात्म मेरे पास नहीं! और मैं जब बजाता होता हूं तब भी इस आशा में कि आज क्या आप देंगे? हीरे का हार भेंट करेंगे, कि मोतियों की माला, कि मेरी झोली सोने से भर देंगे, कि अशार्फेयों से? जब बजाता हूं तब पूरी नजर भविष्य पर अटकी रहती है, फल पर लगी रहती है। वे बजा रहे हैं, न कोई फल है, न कोई भविष्य,वर्तमान का क्षण ही सब कुछ है। उनके जीवन में साधन और साध्य में बहुत फर्क है, साधन ही साध्य है; ओर मेरे जीवन में अभी साधन और साध्य में कोई फर्क नहीं है। बजाना साधन है। पेशेवर हूं मैं। उनका बजाना आनंद है, साधन नहीं। वे मस्ती में हैं।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 8 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #8 (66-70) ॥ ☆

प्रेमगान सब खो गये, धैर्य खो गया आज

भूषण, शैय्या निरर्थक, सुख विहीन ऋतुराज ॥ 66॥

 

तुम थीं गृहणी, सचिव सखि कला सृजन में साथ

कुटिल मुत्यु ने हर तुम्हें तोड़ा मेरा हाथ ॥ 67॥

 

हे मदिराक्षी  किया जब मेरे सँग मधुपान

अश्रुभरी अंजलि से मम करोगी क्या जलपान ? ॥ 68॥

 

होते वैभव राज्य सब, अजन सुखी अब आज

लाभ वही, सुख थ वही – जो भेागा तब साथ ॥ 69॥

 

करूणा सिंचित, प्रियाहित करते गहन विलाप

अज को लख सब वुक्ष भी तज मधु रोये आप ॥ 70॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ४ डिसेंबर – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ४ डिसेंबर –  संपादकीय  ?

अरुण हळबे यांचा जन्म २८ मे १९३४ ला झाला.  ते इतिहास संशोधक होते. लेखक होते आणि शिक्षकही होते. यवतमाळ येथील गव्हर्नमेंट हायस्कूलमधून ते शिक्षक म्हणून निवृत्त झाले.’शतकातील यवतमाळ’ हा त्यांचा गाजलेला संशोधन ग्रंथ.यातील लेखन सादर स्वरूप ‘लोकमत’ मध्ये येत होते.  या शिवाय त्यांची पुस्तके म्हणजे १.डरकाळी (शिकार कथा), २.गानहिरा ( हिराबाई बडोदेकर यांच्यावरील चरित्र ग्रंथ),  ३. लोकनायक ( बापूजी आणे –चरित्र ग्रंथ )याशिवाय वर्तमानपत्रातून त्यांचे अनेक स्फुट लेख प्रकाशित झाले आहेत.

भारत सरकारने राष्ट्रपती पदक देऊन त्यांचा गौरव केला होता.

अरुण हळबे  यांना त्यांच्या आज स्मृतिदिनी सादर वंदन   ?

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श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई – अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : १.शिक्षण मंडळ कर्‍हाड: शताब्दी दैनंदिनी  २. इंटरनेट    

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ भान ☆ श्री मुबारक उमराणी

श्री मुबारक उमराणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ भान… ☆ श्री मुबारक उमराणी ☆

मऊमऊ मातीतच

खेळतच बसतीस

मातीसवे खेळतांना

खुदूखुदू हसतीस

 

पाणी माती मिसळुनी

होतो तुझा छान खेळ

अंगावर चिखलाचा

बसे चित्राचाच मेळ

 

भातुकली सजवता

बसे नटून खुशाल

छोट्या चिंधीत सजता

भातुकलीचे हो हाल

 

भातुकली खेळतांना

घेई रंगीत खेळणी

भातुकलीच्या हातात

फुटकीच हो चाळणी

 

तुटक्याही खेळण्यात

भातुकलीचा संसार

दिसे आनंदी सागर

 हेच जगण्याचे सार

 

एका चिंचेच्या पानात

जेवणाचा सजे थाट

भातुकलीच्या संसारी

भरे मोद काठोकाठ

 

आसुभऱ्या डोळ्यातही

गाते संसाराचे गाणं

मोती अश्रूथेंबातही

असे जगण्याचे भान

 

© श्री मुबारक उमराणी

शामरावनगर, सांगली

मो.९७६६०८१०९७.

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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