श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में’ – भाग-4 (अंतिम भाग)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 10 – व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में – भाग-4 ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

स्वंतत्रता के पूर्व साहित्य को समय के संदर्भ में देखने के लिए उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद महत्वपूर्ण लेखक हैं. उनके उपन्यास और कहानियों से गुजरने के बाद भारत में ग्रामीण और शहरी परिवेश का पता लगाने के लिए उस समय की राजनैतिक सामाजिक और आर्थिक स्थिति का बहुत बारीकी से पता चल जाता है. लोगों का रहन सहन जीवन शैली रीति रिवाज का निर्वहन, जमींदारी और सांमती प्रभाव आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, पता चल जाता है. पूस की रात और कफन आदि रचनाओं से आम आदमी की मन:स्थिति मालुम हो जाती है. देश की राजनीतिक स्थितियां कांग्रेसियों का स्वतंत्रता आंदोलन का आम जन पर प्रभाव ग्रामीण राजस्व व्यवस्था और अंग्रेजी शासन पड़ रहे असर से भी पाठक रुबरु हो जाता है. उस वक्त स्वतंत्रता आंदोलन में संघर्ष कर रहे राजनीतिक दलों ने आमजन  को स्वतंत्रता का अर्थ और महत्व से परिचय कराया और साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि स्वतंत्रता के बाद लोगों की तकदीर और तस्वीर बदल जाएगी. इस आश्वासन के बाद लोगों ने उस आंदोलन को तन मन धन और जन से पूरा पूरा सहयोग किया और यह आंदोलन जन आंदोलन में बदल गया और देश  को शीघ्र ही स्वतंत्रता मिल गई. लोगों को विश्वास था अब हमारे दिन फिरने वाले हैं. पर ऐसा कुछ हुआ नहीं. नेताओं की आम आदमी के प्रति उपेक्षा, भाई भतीजावाद, भ्रष्टाचार,पीड़ित का शोषण  आदि विसंगतियों के चलते नेताओं से सामान्य जन का मोहभंग हो गया. इन विसंगतियों और मानवीय सरोकारों को किसी लेखक ने बहुत ईमानदारी और सरोकारी ढंग से उकेरा है. तो वह है स्वतंत्रता के बाद के सबसे अधिक चर्चित सबसे अधिक पढ़े जाने वाले लेखक व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई. हम जब साहित्य समय के संबंध से देखते हैं तो हरिशंकर परसाई इस खाते में सबसे सटीक बैठते हैं. स्वतंत्रता के बाद परसाई ने मूल रूप से समाज  में व्याप्त आर्थिक मानवीय, राजनैतिक राष्ट्रीय और वैश्विक सरोकारों को साहित्य का विषय बनाया है. परसाई जी की मृत्यु के बाद प्रथम पुण्यतिथि पर जबलपुर में आयोजित एक कार्यक्रम में वरिष्ठ आलोचक डॉक्टर नामवर सिंह ने कहा था कि अगर भारत के इतिहास को जानना है तो हमें परसाई जी की रचनाओं से गुजरना होगा (उनके वक्तव्य के शब्द अलग हो सकते हैं पर आशय यही था) परसाई जी का साहित्य समकालीनता का समय सामाजिक और मानवीय सरोकारों पर केंद्रित रहा. उस समय में देश में व्याप्त सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य, पाखंड, प्रपंच, ठाकुरसुहाती, अफसरशाही आदि विसंगतियों के साथ वैयक्तिक नैतिक मूल्यों में हो रहे पतन पर कलम चलाई है. स्वतंत्रता के बाद के आरंभिक दिनों की रचनाओं में यह सब मिल जाता है. स्वतंत्रता आंदोलन में साहित्यकार पत्रकारों ने बहुत बड़ी भूमिका का निर्वाह किया था. पर  बाद में उन भी नैतिक पतन आरंभ हो गया. वे लाभ का अवसर पर सत्ता उन्मुखी होते गए. अपना सामाजिक राष्ट्रीय दायित्व भूलकर दरबारी परंपरा का निर्वाह करते नजर आने लगे.  जबलपुर से प्रकाशित साप्ताहिक अखबार के अपने स्तंभ में 18 जनवरी 1948 को प्रकाशित रचना “साहित्य में ईमानदारी” से उस समय के साहित्यकारों की प्रकृति का पता चलता है. ‘प्रजातंत्र की भावना को लेकर जो जन जागरण हुआ तो साहित्य कोटि-कोटि मुक्त भारतीय की वाणी बन गया. सरकारी भृकुटि की अवहेलना कर हमारे अनेक साहित्यकारों ने इमानदारी के साथ देशवासियों का चित्र खींचा. अनेक कवि व लेखक जेल गए. यातना सही, बलिदान किए, परंतु सच्चे रहे.’ यह साहित्यकारों का स्वतंत्रता आंदोलन के समय का चित्र है, पर स्वतंत्रता के बाद का चित्र कुछ अलग बात कह रहा है.,” परंतु इधर कुछ दिनों से दिख रहा है कि ‘इतिहास पलटता है’ के सिद्धांत पर रीतिकाल फिर आ रहा है. ‘साहित्य सेवी’ जनता जनार्दन की सेवा छोड़कर देवी चंचला और सरकार की सेवा में पुनः रत दिखाई दे रहे हैं. इस प्रकार का साहित्य, साहित्य नहीं रहता बल्कि बाजार का भटा भाजी हो जाता है. और साहित्यकार एक कुंजड़ा’ वो आगे शिक्षा जगत के पतन और मंत्रियों में नाम के प्रति आशक्ति के आचरण पर कहते हैं “आजकल देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में मंत्रियों को डॉक्टर ऑफ लिटरेचर (साहित्य मर्मज्ञ) की उपाधियां देने में जो होड़ लगी है। उसे देखकर अचंभा और दुख दोनों होते हैं. दही बड़े की तरह है यहां साहित्य की डॉक्टरेट पैसे की दो मिल रही हैं. अब जरा पाने वालों की लिस्ट लीजिए, अधिकांश मंत्री लोग हैं.” यह दृश्य लगभग 74 वर्ष पूर्व का है. स्वतंत्रता के समय में आए ईमानदारी, नैतिकता, जनसेवा का ज्वर उतर गया  और स्वार्थ लोलुपता जोड़ जुगाड़ के चक्कर में नेता और अफसर लगे थे आज भी अधिकांश साहित्यकार भी सत्ता के अधिक पास देखना चाहते हैं. नैतिकता ईमानदारी साहित्य सेवा उन्हें दूसरों के लिए अच्छी लगती है. इस समय को दस साल बढ़ कर  उस समय को देखते हैं तो देश के अखबारों की सुर्खियों में तीन शब्द प्रमुख रुप से रहते थे, बम,विस्फोट बम. इसी शीर्षक से प्रहरी में अप्रैल 6,1958 में प्रकाशित लेख में वे विद्यार्थियो की प्रवृत्ति पर कहते हैं “विद्यार्थियों का विरोध परीक्षा से है. कठिन प्रश्न यदि परीक्षा में आ गए तो विद्यार्थी परीक्षा भवन  से हट जाएंगे क्योंकि उनका हक है. आसान प्रश्न आए जिन्हें वे साल भर बिना पढ़े भी कर सकें. वैसे उनकी वास्तविक मांग यह है कि प्रश्नपत्र एक महीने पहले अखबार में छप जाए. ना छपने से उन्हें असुविधा होती हैं.ठीक पढ़ने के वक्त पर उन्हें पता लगाना पड़ता है कि किसने पेपर निकाला है. उसमें क्या आया है. उनकी यह मांग न्यायोचित है.”

उनकी दूसरी मांग यह है कि परीक्षा भवन में उन्हें नकल करने दी जाए. इस संबंध में हमारा सुझाव है कि उन्हें परचा दे दिया जाए और कह दिया जाए कि वह घर से कर कर ले आए इससे परीक्षा का बहुत सा खर्च बच जाएगा.दोनों मांग पूरी नहीं होने पर सत्याग्रह होगा .उनकी बात क्यों नहीं मानी जाएगी जबकि हमारे यहां प्रजातंत्र है. जनता चाहेगी जैसा शासन होगा तो फिर विद्यार्थी चाहेंगे वैसे ही परीक्षा क्यों न होगी. यदि मध्य प्रदेश की राजधानी काठमांडू में है तो इसे मानना पड़ेगा क्योंकि यह उनका जनतांत्रिक निर्णय है.” इस लेख में शिक्षा जगत में बढ़ती अराजकता शिक्षा नीति की विसंगति आदि को भलीभांति समझा जा सकता है. राजनीतिक दलों को युवा शक्ति की जरूरत चुनावों के समय में होती है उनकी नजर छात्रों पर रहती है बे उनकी अनाप-शनाप मांग पर भी पिछले दरवाजे से दे देते हैं. शिक्षा जगत का यह दृश्य आज के समय पर सोचने को मजबूर करता है.

भारतीय राजनीति में आठवां दशक बहुत उथल-पुथल वाला रहा 73-74 में छात्र क्रांति आरंभ हो चुकी थी. जनता सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार भाई भतीजावाद अकर्मण्य अफसरशाही से परेशान थी. वे परिवर्तन चाहते थे. परिवर्तन हेतु छात्र आंदोलन शुरू हुआ. जयप्रकाश नारायण इस आंदोलन के अगुआ हुए. उन्होंने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया. आपातकाल लगाया गया. विपक्ष के छोटे बड़े राजनेता, छात्र नेता जेल में ठूंस दिए गए. उस समय संजय गांधी युवा शक्ति बन कर सामने आए. आतंक और भय का वातावरण व्याप्त था. पर ढाई साल बाद चुनाव हुए. तत्कालीन सरकार हार गई. विभिन्न विचार वाले राजनीतिक दलों ने मिलकर ‘जनता पार्टी’ बनाई और चुनाव जीत गए. पर ढाई साल के बाद ही उनमें मतभेद उभरकर आ गए. सभी नेताओं की महत्वाकांक्षाएं और सामने आ गई. इन सब पर परसाई जी के बहुत सारे लेख मिल जाएंगे. उस समय के नेता राजनारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, चंद्रशेखर, जॉर्ज फर्नांडिस, मधु लिमए आदि सभी के नेताओं पर उनके लेख मिल जाते हैं .जिससे समय का इतिहास का पता चल जाता है. उदाहरणार्थ एक लेख ‘जार्ज का जेरुसलम’ उल्लेखनीय है.

“साधु जॉर्ज करिश्मा करने वाले नेता हैं कुछ करिश्मा रहस्य में ढके हैं जरा याद करो जब चरण सिंह प्रधानमंत्री बनने को उतारू थे. तब जनता पार्टी की सरकार के खिलाफ चरण सिंह ने  अविश्वास प्रस्ताव रखवाया था. तब लोकसभा में जनता सरकार के पक्ष में सबसे अच्छा जार्ज बोले थे. वे लगातार दो घंटे बोले थे. लगता था जनता सरकार बच गई. पर दूसरे दिन खुद जॉर्ज ने उसी जनता पार्टी से इस्तीफा दे दिया जिसके काम की तारीफ वे चौबीस घंटे पहले कर चुके थे. साधो यह क्या चमत्कार था. कैसे बदल गए वीर शिरोमणि जार्ज.  तब अखबारों ने संकेत दिए थे और दिल्ली में आम चर्चा थी कि रात को गृहमंत्री चरण सिंह जार्ज के बंगले में ‘भ्रष्टाचार विरोधी फोर्स की रेड( छापा )डलवा दी थी. नतीजा यह हुआ की रेड के फौरन बाद जार्ज के राजनीतिक विचार बदल गए उन्होंने जनता पार्टी छोड़ दी.”

जब आप यह पढ़ते हो तो सोच भी नहीं सकते कि भारतीय राजनीति में ऐसा भी हुआ था. या हुआ है. तभी परसाई जी ने लिखा. जिसे हमने आज जाना. परसाई ने अपने लेखन के समय के साथ जिया. इस कारण परसाई के समय की रचनाओं में  इतिहासिक परिस्थितियां, सामाजिक राजनीतिक वातावरण को हम जान रहे हैं. वैयक्तिक विचलन, समाज में पतनोन्मुख नैतिक मूल्यों का पतन. आदि उनकी रचनाओं में मिल जा ती हैं. वैष्णव की फिसलन, टॉर्च बेचने वाली कंधे, श्रवण कुमार के, भोलाराम का जीव. आदि वैयक्तिक पतन की रचनाएँ हैं. जब देश में अकाल पड़ा तो उस समय की अफसरशाही, भ्रष्टाचार को समान रूप से परसाई और शरद जोशी ने निर्भीकता ‘अकाल उत्सव’ और ‘जीप पर सवार इल्लियों ‘में लिखा जो साहित्य में समय को हस्तक्षेप करने वाली रचना जानी जाती है.. शासन में व्याप्त विसंगतियां और अफसरशाही पर हरिशंकर परसाई ने – इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर, भोलाराम का जीव आदि और शरद जोशी ने वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं, आदि रचनाओं से साहित्य में समाज के संबंधों समय के परिपेक्ष्य में साक्षात्कार कराया. इसी तरह साहित्य और समाज के अंतर संबंधों पर समय को केंद्र में रखकर बाबा नागार्जुन, धर्मवीर भारती, धूमिल, मुक्तिबोध आदि ने बहुत लिखा जिसे पढ़ने से हम उस समय से रूबरू हो जाते हैं.

समाप्त 

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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