मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १०-३) – राग~मारवा, पूरिया ~सोहोनी ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १०-३) – राग~मारवा, पूरिया ~सोहोनी ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

सोहोनी

सोहोनी म्हणजे पूरियाचीच प्रतिकृति,फरक इतकाच की पूरिया पूर्वांगात तर सोहोनी उत्तरांगात रमणारा राग. तार षड् ज हे सोहोनीचे विश्रांतीस्थान. मध्यसप्तकांतील सुरांकडे येऊन तो पुन्हा तार षड् जाकडे धांव घेतो. उत्तरांगातील धैवत आणि पूर्वांगांतील  गंधार हे याचे अनुक्रमे वादी/संवादी स्वर म्हणजे मुख्य स्वर.

मारवापूरियासोहोनी, सगळ्यांचे स्वर तेच म्हणजे रिषभ कोमल आणि मध्यम तीव्र.

सा ग (म)ध नी सां/सां (रें)सां,नी ध ग,(म)ध,(म)ग (रे)सा असे याचे आरोह अवरोह.कंठाच्या सोयीसाठी आरोही रचनेत रिषभ वर्ज्य केला जातो. सांनी ध, ग (म)ध नी सां ही रागाची मुख्य सुरावट त्याचे स्वरूप स्पष्ट करते. पंचम वर्ज्य असल्याचे वरील स्वर समूहावरून वाचकांच्या लक्षात येईलच. वेगळे सांगण्याची आवश्यकता नाही.

मारवा कुटुंबांतील हे कनिष्ठ भावंड अतिशय उच्छृंखल, चंचल प्रवृत्तीचे असल्याचे लक्षांत येते.

मारव्यांत कोमल रिषभाला प्राधान्य तर सोहोनीत रिषभाचा वापर अत्यंत अल्प स्वरूपात त्यामुळे मारव्याची कातरता, व्याकूळता यांत नाही.

सोहोनीचा जीव तसा लहानच. त्यामुळे जास्त आलापी यांत दिसून येत नाही. अवखळ स्वरूपाचा हा राग मुरक्या, खटका, लयकारी यांत अधिक रमतो. नृत्यातल्या पद  रचना, एकल तबल्याचा लेहेरा अशा ठिकाणी सोहोनी चपखल बसतो. पट्टीचा कलावंत मात्र हा अल्पजीवी राग मैफिलीत असा काही रंग भरतो, की तो त्याला एका विशिष्ठ ऊंचीवर नेऊन ठेवतो, आणि त्यानंतर दुसरा राग सादर करणे अवघड होऊन बसते.

सुप्रसिद्ध अभिनेत्या भारती आचरेकर यांनी एकदां त्यांच्या मातोश्री कै. माणिकबाई वर्मा यांची आठवण सांगतांना एक किस्सा सांगितला होता. माणिक वर्मांनी एका मैफिलीत “काहे अब तुम आये हो” ही सोहोनीतील बंदीश पेश केली होती. रात्र सरत आल्यावर घरी परत आलेला तो, त्याच्याविषयीचा राग, मनाची तडफड पण त्याच क्षणी त्याच्याविषयी वाटणारी ओढ हा सगळा भावनाविष्कार त्या बंदीशीतून अगदी सहज साकार झाला होता. श्रोत्यांमध्ये पू.ल. देशपांडे बसले होते. ते सहज उद्गारले, “मी यापुढे कित्येक दिवस दुसरा सोहोनी ऐकूच शकणार नाही.”

राधा~कृष्णाच्या रासक्रीडेवर आधारित सोहोनीच्या अनेक बंदीशी आहेत. “रंग ना डारो श्यामजी गोरीपे” ही कुमारांची बंदीश प्रसिद्धच आहे.”अरज सुनो मेरी कान्हा जाने अब। पनिया भरन जात बीच रोकत बाट।” ह्या बंदीशीतही गोपींची छेड काढणारा नंदलाल आपल्याला दिसतो.

भक्तीरसाचा परिपोष सोहोनीच्या सुरावटीतून किती सहज दिसून येतो याचे उत्तम उदाहरण म्हणजे पं.जितेंद्र अभिषेकीबुवांनी गायिलेला “हरीभजनावीण काळ घालवू नको रे” हा अभंग!

सिनेसंगीतात ह्या रागावर आधारित बरीच गाणी आढळतात. स्वर्ण सुंदरी मधील अजरामर गीत “कुहू कुहू बोले कोयलीया” यांत दुसरे अनेक राग असले तरी मुखडा सोहोनीचाच आहे. “जीवन ज्योत जले” हे आशा भोसले यांनी गायीलेले गाणे जुने असले तरी परिचित आहे. मुगले आझम

मधील “प्रेम जोगन बन” हे गीत सोहोनीलच! बडे गुलामअली खाॅं यांची “प्रेमकी मार कट्यार” ही ठुमरी काळजाचा ठाव घेणारी~ संगीतकार भास्कर चंदावरकरांनी सामना या सिनेमांत “सख्या रे घायाळ मी हरिणी” हे सोहोनीच्या स्वरांतच निबद्ध केलेले आहे.

सोहोनीबहार,सोहोनीपंचम, कुमार गंधर्वांचा सोहोनी~भटियार असे काही सोहोनीबरोबर केलेले जोड रागही रसिक वर्गांत मान्यता पावलेले आहेत.

चिरस्मरणीय असा हा सोहोनी भावदर्शी आणि चित्रदर्शी आहे.

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 84 – भीतर का बसन्त सुरभित हो…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना भीतर का बसन्त सुरभित हो….। )

☆  तन्मय साहित्य  #84 ☆ भीतर का बसन्त सुरभित हो …. ☆

पतझड़ हुए स्वयं,

बातें बसन्त की करते

ऐसा लगता है-

अंतिम पल में ज्यों

दीपक कुछ अधिक

चमकता है।

 

ऋतुएं तो आती-जाती है

क्रम से अपने

पर पागल मन देखा करता

झूठे सपने,

पहिन फरेबी विविध मुखौटे

खुद को ठगता है।

ऐसा लगता है…….

 

बचपन औ’ यौवन तो

एक बार ही आये

किन्तु बुढापा अंतिम क्षण तक

साथ निभाये,

भूल इसे क्यों  मन अतीत में

व्यर्थ भटकता है।

ऐसा लगता है……….

 

स्वीकारें अपनी वय को

मन और प्राण से

क्यों भागें डरकर

हम अपने वर्तमान से

यौवन के भ्रम में जो मुंह का

थूक निगलता है

ऐसा लगता है……….

 

भीतर का बसन्त

सुरभित हो जब मुस्काये

सुख,-दुख में मन

समरसता के गीत सुनाए,

आचरणों में जहाँ शील,

सच औ’ शुचिता है।

तब ऐसा लगता है।।

 

स तरह सीप में रत्न पलता रहा।

सिलसिला भोर तक यूं ही चलता रहा।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 52 ☆ पिता का होना या न होना ! ☆ हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–52

ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 52 ☆ पिता का होना या न होना !

प्रिय मित्रो,

किसी भी रिश्ते का एहसास उसके होने से अधिक उसके खोने पर होता है।

अनायास ही मन में विचार आया कि – साहित्य, सिनेमा और रिश्तों में ‘पिता’ को वह स्थान क्यों नहीं मिल पाया जो ‘माँ’ को मिला है? आखिर इसका उत्तर भी तो आप के ही पास है और आपकी संवेदनशीलता के माध्यम से मुझे उस उत्तर को सबसे साझा भी करना है।

जरा कल्पना कीजिये कैसा लगता होगा? जब किसी को समाचार मिलता है कि वह ‘पिता’ बन गया, ‘पिता’ नहीं बन सकता, बेटे का पिता बन गया, बेटी का पिता बन गया, दिव्याङ्ग का पिता बन गया, थर्ड जेंडर का पिता बन गया। फिर बतौर संतान इसका विपरीत पहलू भी हो सकता है। कैसा लगा है जब हम सुनते हैं – संतान ने पिता खो दिया या पिता ने संतान खो दिया।  यदि ‘पिता’ शब्द का संवेदनाओं से गणितीय आकलन करें तो उससे संबन्धित कल्पनीय और अकल्पनीय विचारों और संवेदनाओं के कई क्रमचय (Permutation) और संचय (Combination) हो सकते हैं। चलिये यह आपके संवेदनशील हृदय पर छोड़ते हैं।

आपसे बस अनुरोध यह कि – ‘पिता’ शब्द / रिश्ते पर आधारित आपकी सर्वाधिक प्रिय रचना साहित्य की किसी भी विधा में जैसे कविता / लघुकथा / कथा / आलेख और व्यंग्य (यदि हो तो)) ईमेल [email protected] पर प्रेषित करें।

शीर्षक / विषय – ‘पिता’

चित्र एवं संक्षिप्त जीवन परिचय (अधिकतम  250 शब्दों में)

अधिकतम शब्द – सीमा 1000 शब्द

भाषा – हिन्दी, मराठी एवं अङ्ग्रेज़ी

अंतिम तिथि – 10 मार्च 2021

साथ में  यह आशय कि –

रचना स्वरचित है। ई-अभिव्यक्ति को किसी भी माध्यम में प्रकाशित / प्रसारित करने का अधिकार / अनुमति है।  

यह कोई प्रतियोगिता नहीं अपितु आपकी संवेदनाओं को प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने का प्रयास मात्र है और ई-अभिव्यक्ति ऐसे संवेदनशील प्रयोग हेतु कटिबद्ध है।  

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

24 फ़रवरी 2021

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – कुंडलिनी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – कुंडलिनी ☆

अजगर की कुंडली कसती जा रही थी। शिकार छटपटा रहा था। कुंडली और कसी, छटपटाहट और घटी। मंद होती छटपटाहट द्योतक थी कि उसने नियति के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है। भीड़ तमाशबीन बनी खड़ी थी। केवल खड़ी ही नहीं थी बल्कि उसके निगले जाने के क्लाइमेक्स को कैद करने के लिए मोबाइल के वीडियो कैमरा शूटिंग में जुटे थे।

क्लाइमेक्स की दम साधे प्रतीक्षा थी। एकाएक भीड़ में से एक सच्चा आदमी चिल्लाया, ‘मुक्त होने की शक्ति तुम्हारे भीतर है। जगाओ अपनी कुंडलिनी। काटो, चुभोओ, लड़ो, लड़ने से पहले मत मरो। …तुम ज़िंदा रह सकते हो।…तुम अजगर को हरा सकते हो।…हरा सकते हो तुम अजगर को।..लड़ो, लड़ो, लड़ो!’

अंतिम साँसें गिनते शिकार के शरीर छोड़ते प्राण, शरीर में लौटने लगे। वह काटने, चुभोने, मारने लगा अजगर को। संघर्ष बढ़ने लगा, चरम पर पहुँचा। वेदना भी चरम पर पहुँची। अवसरवादी वेदना ने शीघ्र ही पाला बदल लिया। बिलबिलाते अजगर की कुंडली ढीली पड़ने लगी।

कुछ समय बाद शिकार आज़ाद था। उसने विजयी भाव से अजगर की ओर देखा। भागते अजगर ने कहा, ‘आज एक बात जानी। कितना ही कस और जकड़ ले, कितनी ही मारक हो कुंडली, अंततः कुंडलिनी से हारना ही पड़ता है।’

©  संजय भारद्वाज

(21.1.2016, प्रात: 9:11बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विवेक की कविता – बसन्त… अभी अभी ☆ श्री विवेक चतुर्वेदी

श्री विवेक चतुर्वेदी 

☆  कविता ☆ विवेक की कविता – बसन्त… अभी अभी ☆ श्री विवेक चतुर्वेदी ☆ 

अभी अभी…धूल में लोट गए हैं

शरीफ बच्चे

आम के पेड़ से बोल उठा है

एक अनाम शकुन्त

धूप में किसी ने

हथेली की ओट ली है

आ गिरी है छत पर

न जाने किस पते की अधरंगा*

हवा में उड़ती दो चोटियां

मुरम की सड़क से होकर गुजर गई हैं

बसन्त आया है इस नगर में… अभी अभी।।- विवेक

* अधरंगा- दो रंगों की पतंग के लिए इस अंचल में प्रचलित संज्ञा

© श्री विवेक चतुर्वेदी जबलपुर (मध्य प्रदेश)

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ‘बा’ की 74वीं पुण्यतिथि पर स्मरण ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें।  प्रस्तुत है  23 फ़रवरी को आदरणीय कस्तूरबा गाँधी जी की पुण्य तिथि पर विशेष आलेख  “’बा’ की पुण्यतिथि पर स्मरण”)

☆ आलेख ☆ ‘बा’ की 74वीं  पुण्यतिथि पर स्मरण ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

23 फ़रवरी को बा की 74वीं  पुण्यतिथि थी।

गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका में 1907के दौरान सत्याग्रह कर रहे थे तब स्त्रियों को भी सत्याग्रह में शामिल करने की बात उठी। अनेक बहनों से इस संबंध में चर्चा की गई और जब सबने विश्वास दिलाया कि वे हर दुःख सह कर भी जेल यात्रा करेंगी तो गांधी जी ने इसकी अनुमति उन सभी बहनों को दे दी। लेकिन बहनों के जेल जाने की चर्चा उन्होंने अपनी पत्नी कस्तूरबा से नहीं की। बा को भी जब सारी चर्चा का सार पता चला तो उन्होंने गांधी जी से कहा ” मुझसे इस बात की चर्चा नहीं करते, इसका मुझे दुःख है। मुझमें ऐसी क्या खामी है कि मैं जेल नहीं जा सकती। मुझे भी उसी रास्ते जाना है, जिस रास्ते जाने की सलाह आप इन बहनों को दे रहे हैं।”

गांधीजी ने कहा “मैं तुम्हें दुःख पहुंचा ही नहीं सकता। इसमें अविश्वास की भी कोई बात नहीं। मुझे तो तुम्हारे जाने से खुशी होगी; लेकिन तुम मेरे कहने से गई हो, इसका तो आभास तक मुझे अच्छा नहीं लगेगा। ऐसे काम सबको अपनी-अपनी हिम्मत से ही करने चाहिए। मैं कहूं और मेरी बात रखने के लिए तुम सहज ही चली जाओ और बाद में अदालत के सामने खड़ी होते ही कांप उठो और हार जाओ या जेल के दुःख से ऊब उठो तो इसे मैं अपना दोष तो नहीं मानूंगा ; लेकिन सोचो मेरा हाल क्या होगा! मैं तुमको किस तरह रख सकूंगा और दुनिया के सामने किस तरह खड़ा रह सकूंगा? बस, इस भय के कारण मैंने तुम्हें ललचाया नहीं?”

बा ने जवाब दिया ” मैं हारकर छूट जाएं तो मुझे मत रखना। मेरे बच्चे तक सह सकें, आप सब सहन कर सकें और अकेली मैं ही न सह सकूं, ऐसा आप सोचते कैसे हैं? मुझे इस लड़ाई में शामिल होना ही होगा।”

गांधीजी ने जवाब दिया ” तो मुझे तुमको शामिल करना ही होगा। मेरी शर्त तो तुम जानती ही हो। मेरे स्वभाव से भी तुम परिचित हो। अब भी विचार करना हो तो फिर विचार कर लेना और भली-भांति सोचने के बाद तुम्हें यह लगे कि शामिल नहीं होना है तो समझना, तुम इसके लिए आजाद हो। साथ ही, यह भी समझ लो कि निश्चय बदलने में अभी शरम की कोई बात नहीं है।”

बा ने जवाब दिया ” मुझे विचार-विचार कुछ भी नहीं करना है। मेरा निश्चय ही है।”

तो ऐसी दृढ़ संकल्प की धनी थी बा, जिन्होंने बापू का कठिन से कठिन परिस्थितियों में साथ दिया। बापू को जो सारे सम्मान मिले उसके पीछे मेहनत बा की ही थी और इसे गांधी जी ने स्वयं सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया।

बा का निधन 22फरवरी 1944को आगा खान पैलेस पूना में हुआ, जहां वे बापू और महादेव देसाई के साथ कैद थी। बा ने अंतिम श्वास तो बापू की गोदी में सिर रख कर ली।

? उनकी 74वीं पुण्य तिथि पर शत शत नमन ?

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 35 ☆ काश दिल का हाल पहले ही जान जाते ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता काश दिल का हाल पहले ही जान जाते। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 35 ☆

☆ काश दिल का हाल पहले ही जान जाते ☆

काश ख्वाब हकीकत में बदल जाते,

जिंदगी खुशनुमा बन जाती ||

 

काश सबके मन की बात पहले ही जान पाते,

दिलों में दरारें आने से बच जाती ||

 

काश दिलों को हम पहले ही समझ लेते,

जिंदगी नफरतों का घरोंदा बनने से बच जाती ||

 

काश दिल का हाल जान मैं ही एक पहल कर लेता,

जिंदगी के खुशनुमा लम्हें यूं ही जाया होने से बच जाते ||

 

काश दिल का हाल पढ़ हम कुछ गम पी जाते,

हम गलतफहमियों के शिकार होने से बच जाते ||

 

काश हम एक दूसरे के दुःख दर्द महसूस कर पाते,

रिश्ते गलतफहमियों के शिकार होने से बच जाते ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.६०॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.६०॥ ☆

 

शब्दायन्ते मधुरम अनिलैः कीचकाः पूर्यमाणाः

संरक्ताभिस त्रिपुरविजयो गीयते किंनराभिः

निर्ह्रादस ते मुरज इव चेत कन्दरेषु ध्वनिः स्यात

संगीतार्थो ननु पशुपतेस तत्र भावी समग्रः॥१.६०॥

 

जहां वेणुवन मधु पवन के मिलन से

सुरीली सतत सौम्य ! वंशी बजाता !

सुसंगीत में रत जहाँ किन्नरीदल

कि त्रिपुरारि शिव के विजय गीत गाता

वहाँ यदि मुरजताल सम गर्जना तव

गुहा कन्दरा में गँभीरा ध्वनित हो

तो तब सत्य प्रिय पशुपति अर्चना में

सुसंगीत की विधि सकल पूर्ण इति हो

 

शब्दार्थ .. मुरजताल… एक प्रकार के वाद्य की आवाज , ढ़ोल या मृदंग की ध्वनि

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 87 – माझी मराठी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 87 ☆

☆ माझी मराठी ☆

नाजूक कोवळी

शुद्ध  अन सोवळी

मौक्तिक,पोवळी

सदाशिव पेठीय

माझी मराठी….

 

पी.वाय.सी. बाण्याची

क्रिकेट च्या गाण्याची

खणखणीत नाण्याची

डेक्कन वासीय

माझी मराठी…..

 

काहीशी रांगडी

उद्धट,वाकडी

कसब्याच्या पलिकडची

जराशी  अलिकडची

‘अरे’ ला ‘कारे’ ची

माझी मराठी….

 

वाढत्या पुण्याची

काँक्रीट च्या जंगलाची

सर्वसमावेशी,जाते दूरदेशी

इंटरनेट वरची माझी मराठी…..

 

© प्रभा सोनवणे

१४ फेब्रुवारी २०११

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कृष्ण-लिला ☆ श्रीशैल चौगुले

श्रीशैल चौगुले

☆ कवितेचा उत्सव ☆ कृष्ण-लिला… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

मज भान न राहिले

आज जे डोळे पाहिले

भाव मनाने वाहिले

भक्तीत श्रीकृष्ण झाले.

 

प्रहरी सरीत तिरी

मुकुट शोभीत शिरी

शेला सावरीत जरी

श्रीरंग दर्शनी आले.

 

देहास लाजरे पंख

सुखाचे मारीत डंख

हृदय घायाळ निःशंक

मोरपीस सुंदर डोले.

 

काय सांगू फुलले घाट

वृंदावनीचा थाटमाट

उलगडीत धुके दाट

प्रत्यक्ष मजशी बोले.

 

बासरी मधूर धुंद

म्हणे, मज तो मुकूंद

‘मज आवडशी छंद

तुजसवे रासलीले.’

 

मज भगवंती भया

मी न राधा देवा गया

सखी गोकुळची दया

जन्मास पुण्य लाभले.

 

दशदिशा फाके ऊषा

कृष्ण सावळा अमिषा

गौळणीत निंदा हशा

राधीकेशी सख्य जुळले.

 

म्हणती प्रीय ती राधा

भव आहे देह बाधा

मनमोहन तो साधा

संकट तुझे टळले.

 

मज छेडीत सदैव क्षण

ठेवी प्रेमाचे अंतरी ऋण

भाव निर्मळ तृप्त रक्षण

साद कसे न कळले.

 

दिनेश पुर्वेस आला

सये,तोची नंदलाला

तुज भासले जे रुप

सृष्टीत सुक्ष्म-स्थूले.

 

गोपीका आनंदे नाचे

स्वरुप आगळे साचे

मज वेड हे कशाचे

‘राधा- कृष्ण’युग ल्याले.

 

© श्रीशैल चौगुले

९६७३०१२०९०

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares