मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझे जन्मदाते….! ☆ सौ. राधिका भांडारकर

सौ. राधिका भांडारकर

 ☆ मनमंजुषेतून ☆ माझे जन्मदाते….! ☆ सौ. राधिका भांडारकर ☆ 

आम्ही पाच बहिणी.

“सगळ्या  मुलीच? मुलगा नाही? मग वारस कोण? वंश खुंटला.”

अशा दुर्भाष्यांना, माझ्या आई वडीलांना नेहमी सामोरं जावं लागत असे.

पण दोघंही खंबीर. वडील नेहमी म्हणायचे, “माझ्या पाच कन्याच माझे पाच पांडव आहेत! माझ्या वंशाच्या पाच दीपीका आहेत!”

लहानपणी जाणीवा इतक्या प्रगल्भ नव्हत्या पण आज जाणवतय् पित्याची ती ब्रह्मवाक्ये होती! आणि त्यांनीच आम्हाला आत्मसन्मान,आत्मनिर्भरता आणि आत्मविश्वास दिला.

आई, स्रीजन्माची कर्तव्ये तिच्या स्वत:च्या आचरणातून कळतनकळत बिंबवत होतीच.  त्याचवेळी वडील — पपा विचारांचे, लढण्याचे, सामोरं जाण्याचे, दुबळं.. लेचपेचं. न राहण्याचे धडे गिरवत होते! ते म्हणत, “गगनाला चुंबणारे वृक्ष नाही झालात —— हरकत नाही. पण लव्हाळ्या सारखे व्हा! वादळात मोठी झाडं ऊन्मळुन पडतात पण लव्हाळी तग धरतात!”

आमच्या घरात ऊपासतापास, व्रतवैकल्ये, कर्मठ देवधर्म नव्हते. परंतु पारंपारिक सोहळे आनंदाचे प्रतिक म्हणून जरुर साजरे केले जात.

प्रभात समयी पपा रोज ओव्या अभंग त्यांच्या सुरेल आवाजात गात! ते सारं तत्व अंत:प्रवाहात झिरपत राह्यल.आणि त्यानं आम्हाला घडवलं!

एक दिवस मी पपांना म्हणाले, “पपा सकाळी तुम्ही मला पैसे दिले होते. पण हिशेब विचारायला विसरलात!”

ते लगेच म्हणाले, “बाबी, माझा विश्वास आहे तुझ्यावर. तू नक्कीच ते वेडेवाकडे खर्च केले नसणार”

मुलांवर आईवडीलांचा विश्वास असणे ही त्यांच्या जडणघडणीतील खूप महत्वाची पायरी असते! पपांनी नाती जोडायला शिकवलं अन् आईने ती टिकवायला शिकवलं.

आईनं केसांच्या घट्ट वेण्या घातल्या अन् पपांनी मनाची वीण घट्ट केली.

असं बरंच काही…

लहानपणी माझ्या मुलीने निबंधात लिहीले होते “मला चांगली आई व्हायचे आहे”

माझ्या आईसारखी आई मी होऊ शकले का हा प्रश्न मला नेहमी सतावत असतो!

परवा पपांच्या स्मृतीदिनी धाकटी बहीण म्हणाली, “आपण पपांच्या दशांगुळेही नाही. त्यांची विद्वत्ता, वाचन, लेखन, स्मरणशक्ती, जिद्द चिकाटी काही नाही आपल्यात!”

खरय्.. पण त्यांच्याकडुन जगावं कसं ते शिकलो!

वादळ संपेपर्य्ंत टिकणारी लव्हाळी तर झालोच ना?

खूप रुणी आहे मी माझ्या जन्मदात्यांची..!!!

 

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 81 ☆ मोबाइल और ज़िन्दगी ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  स्त्री विमर्श मोबाइल और ज़िन्दगी।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 81 ☆

☆ मोबाइल और ज़िन्दगी ☆

ज़िन्दगी एक मोबाइल की भांति है, जिसमें अनचाही तस्वीरें, फाइलों व अनचाही स्मृतियों को डिलीट करने से उसकी गति-रफ़्तार तेज़ हो जाती है। भले ही मोबाइल ने हमें आत्मकेंद्रित बना दिया है; हम सब अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह गये हैं; खुद में सिमट कर रह गये हैं…संबंधों व सामाजिक सरोकारों से दूर…बहुत दूर, परंतु मोबाइल पर बात करते हुए हम विचित्र-सा सामीप्य अनुभव करते हैं।

आइए! हम मोबाइल व ज़िन्दगी की साम्यता पर चिंतन-मनन करने का प्रयास करें। सो! यदि ज़िन्दगी व ज़हन से भी मोबाइल की भांति, अनचाहे अनुभव व स्मृतियों को फ़लक से हटा दिया जाये, तो आप खुशी से ज़िन्दगी जी सकते हैं। वैसे ज़िन्दगी बहुत छोटी है तथा मानव जीवन क्षणभंगुर … जैसा हमारे वेद-शास्त्रों में उद्धृत है। कबीरदास जी ने भी—‘पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात/ देखत ही छिप जायेगा,ज्यों तारा प्रभात’ तथा ‘जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी/ फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तत् कह्यो ज्ञानी’…यह दोनों पद मानव जीवन की क्षणभंगुरता व नश्वरता का संदेश देते हैं। मानव जीवन बुलबुले व आकाश के चमकते तारे के समान है। जिस प्रकार पानी के बुलबुले का अस्तित्व पल-भर नष्ट हो जाता है और वह पुनः जल में विलीन हो जाता है; उसी प्रकार भोर होते तारे भी सूर्योदय होने पर अस्त हो जाते हैं। जल से भरा कुंभ टूटने पर उसका जल, बाहर के जल में समा जाता है, जिसमें वह कुंभ रखा होता है। सो! दोनों के जल में भेद करना संभव नहीं होता। यही है मानव जीवन की कहानी अर्थात् जिस शरीर पर मानव गर्व करता है; आत्मा के साथ छोड़ जाने पर वह उसी पल चेतनहीन हो जाता है, स्पंदनहीन हो जाता है, क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त समस्त जीव-जगत् मिथ्या होता है।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। परंतु बावरा मन इस तथ्य से अवगत नहीं होता कि प्रभु मानव को पल-भर में अर्श से फर्श पर गिरा सकते हैं, क्योंकि जब जीवन में अहं का पदार्पण होता है, तब हमें लगता है कि हमने कुछ विशिष्ट अथवा कुछ अलग किया है। यही ‘कुछ विशेष’ हमें ले डूबता है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब हम दूसरों की कही बातों व जुमलों पर विश्वास करने लगते हैं तथा उसकी गहराई तक नहीं जाना चाहते। वास्तव में ऐसे लोग हमारे शत्रु होते हैं, जो हमसे ईर्ष्या करते हैं। वे हमें उन्नति के पथ पर अग्रसर होते देख सहन नहीं कर पाते और तुरंत नीचे गिरा देते हैं। सो! उनसे दूर रहना ही बेहतर है, उपयोगी है, क़ारगर है।

परंतु हमें सम्मान तब मिलता है, जब दुनिया वालों को यह विश्वास हो जाता है कि आपने दूसरों से कुछ अलग व विशेष किया है, क्योंकि मानव के कर्म ही उसका आईना होते हैं। शायद! इसलिए ही इंसान के पहुंचने से पहले उसकी प्रतिष्ठा, कार्य-प्रणाली, सोच, व्यवहार व दृष्टिकोण वहां पहुंच जाते हैं। वे हमारे शुभ कर्म ही होते हैं, जो हमें सबका प्रिय बनाते हैं तथा विशिष्ट मान-सम्मान दिलाते हैं। सम्मान पाने की आवश्यक शर्त है— दूसरों की भावनाओं को अहमियत देना; उनके प्रति स्नेह, सौहार्द व विश्वास रखना, क्योंकि इस संसार में– जो आप दूसरों को देते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है…वह आस्था, श्रद्धा हो या आलोचना; प्रशंसा हो या निंदा; अच्छाई हो या बुराई। सो! महात्मा बुद्ध का यह संदेश मुझे सार्थक प्रतीत होता है कि ‘आप दूसरों से वैसा व्यवहार कीजिए, जिसकी अपेक्षा आप उनसे रखते हैं।’ मधुर वाणी व मधुर व्यवहार हमारे जीवन के आधार हैं। मधुर वचन बोल कर आप शत्रु को भी अपना प्रिय मित्र बना सकते हैं और वे आपके क़ायल हो सकते हैं…आप उनके हृदय पर शासन कर सकते हैं। कटु वचन बोलने से आपका मान-सम्मान उसी क्षण मिट्टी में मिल जाता है; जो कभी लौटकर नहीं आता…जैसे पानी से भरे गिलास में आप और पानी तो नहीं डाल सकते, परंतु यदि आप आपका व्यवहार मधुर है, तो आप शक्कर या नमक की भांति सबके हृदय में अपना स्थान बना कर अपना अस्तित्व कायम कर सकते हैं। सामान्यतः नमक हृदय में कटुता व ईर्ष्या का भाव उत्पन्न करता है, परंतु शक्कर सौहार्द व माधुर्य … जो जीवन में अपेक्षित है और वह उसकी दशा व दिशा बदल देती है।

महाभारत के युद्ध का कारण द्रौपदी द्वारा उच्चरित शब्द ‘अंधे का पुत्र अंधा’ ही थे, जिसके कारण वर्षों तक उनके मन में कटुता का भाव व्याप्त रहा और वे प्रतिशोध रूपी अग्नि में प्रज्ज्वलित होते रहे। उसके अंत से तो हम हम सब भली-भांति परिचित हैं। कुरुक्षेत्र के मैदान में महायुद्ध हुआ और श्रीकृष्ण को गीता का उपदेश देना पड़ा; जो आज भी प्रासंगिक व सम-सामयिक है। इतना ही नहीं, विदेशी लोग तो गीता को मैनेजमेंट गुरु के रूप में स्वीकारने लगे हैं और विश्व में ‘गीता जयंती’ व ‘योग दिवस’ बहुत धूमधाम से मनाया जाता है… परंतु यह सब हम लोगों के दिलों में पूर्ण रूप से नहीं उतर पाया। वैसे भी ‘जो वस्तु विदेश के रास्ते से भारत में आती है, उसे हम पूर्ण उत्साह व जोशो-ख़रोश से अपनाते व मान सम्मान देते हैं तथा जीवन में धारण कर लेते हैं, क्योंकि हम भारतीय विदेशी होने में फख़्र महसूस करते हैं।’ इससे स्पष्ट होता है कि हमारे मन में अपनी संस्कृति के प्रति श्रद्धा व आस्था का अभाव है और पाश्चात्य की जूठन स्वीकार करना; हमारी आदत में शुमार है। इसलिए हम ‘जीन्स-कल्चर व हैलो-हॉय’ को इतना महत्व देते हैं। ‘लिव-इन, मी टू व परस्त्री-गमन’ हमारे लिए स्टेटस-सिंबल बन गए हैं, जो हमारी पारिवारिक व्यवस्था में बखूबी सेंध लगा रहे हैं। इनके भयावह परिणाम बच्चों में बढ़ रही हिंसा, बुज़ुर्गों के प्रति पनप रहा उपेक्षा भाव व वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या के रूप में हमारे समक्ष हैं। इसी कारण शिशु से लेकर वृद्ध तक अतिव्यस्त व तनाव-ग्रस्त दिखाई पड़ते हैं। हमारे संबंधों को दीमक चाट रही है और सामाजिक सरोकार जाने कहां मुंह छिपाए बैठे हैं। संबंधों की अहमियत न रहने से स्नेह-सौहार्द के अस्तित्व व स्थायित्व की कल्पना करना बेमानी है। सो! जहां मनोमालिन्य, स्व-पर व ईर्ष्या-द्वेष की भावनाओं का एकछत्र साम्राज्य होगा; वहां प्रेम व सुख-शांति कैसे क़ायम रह सकती है? सो! मोबाइल जहां संबंधों में प्रगाढ़ता लाता है; दिलों की दूरियों को नज़दीकियों में बदलता है; हमें दु:खों के अथाह सागर में डूबने से बचाता है… वहीं ज़िंदगी में अजनबीपन के अहसास को भी जाग्रत करता है। इतना ही नहीं, वह उनके दिलों की धड़कन बन सदैव अंग-संग रहता है और उसके बिना जीवन की  कल्पना करना बेमानी प्रतीत होता है।

आइए! इस संदर्भ में सुख व सुविधा के अंतर पर दृष्टिपात कर लें। मोबाइल से हमें सुविधा के साथ  सुख तो मिल सकता है, परंतु शांति नहीं, क्योंकि सुख भौतिक व शारीरिक होता है और शांति का संबंध मन व आत्मा से होता है। जब मानव को मोबाइल की लत लग जाती है और वह सुविधा के स्थान पर उसकी ज़रूरत बन जाती है, तो उसके अभाव में उसका हृदय पल-भर के लिये भी शांत नहीं रह पाता; जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण विदेशों में बसे लोग हैं। उनके पास भौतिक सुख-सुविधाएं तो हैं, परंतु मानसिक शांति व सुक़ून की तलाश में वे भारत आते हैं, क्योंकि हमारी भारतीय संस्कृति अत्यंत समृद्ध है तथा ‘सर्वेभवंतु सुखीनाम्’ अर्थात् मानव-मात्र के कल्याण की भावना से आप्लावित है। ‘अतिथि देवो भव’ का परिचय–’अरुण यह मधुमय देश हमारा/ जहां पहुंच अनजान क्षितिज को/ मिलता एक सहारा’ की भावना, हमें विश्व में सिरमौर स्वीकारने को बाध्य करती है; जहां बाहर से आने वाले अतिथि को हम सिर-आंखों पर बिठाते हैं और उनके प्रति अजनबीपन का भाव, हृदय में लेशमात्र भी दस्तक तक नहीं दे पाता। जिस प्रकार सागर में विभिन्न नदी-नाले समा जाते हैं; वैसे ही बाहर के देशों से आने वाले लोग  हमारे यहां इस क़दर रच-बस जाते हैं कि यहां रंग, धर्म, जाति-पाति आदि के भेदभाव का कोई स्थान नहीं रहता।

‘प्रभु के सब बंदे, सब में प्रभु समाया’ अर्थात् हम सब उसी परमात्मा की संतान हैं और समस्त जीव-जगत् व सृष्टि के कण-कण में मानव उसी ब्रह्म की सत्ता का आभास पाता है। आदि शंकराचार्य का यह वाक्य ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ का इस संदर्भ में विश्लेषण करना आवश्यक है कि केवल ब्रह्म ही सत्य है और उसके अतिरिक्त जो भी हमें दिखाई पड़ता है, मिथ्या है; परंंतु माया के कारण सत्य भासता है। सो! प्राणी-मात्र में उस प्रभु के दर्शन पाकर हम स्वयं को धन्य व भाग्यशाली समझते हैं; उनकी प्रभु के समान उपासना करते हैं। इसलिए हम हर दिन को उदार मन से उत्सव की तरह मनाते हैं और उस मन:स्थिति में दुष्प्रवृत्तियां हमें लेशमात्र भी छू नहीं पातीं।

अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता के भाव से ग्रस्त व्यक्ति हमें यह सोचने पर विवश कर देता है कि वह हमारे पथ की बाधा बनकर उपस्थित हुआ है और हमें उसकी रौ में नहीं बह जाना है। तभी हमारे मन में यह भाव दस्तक देता है कि हमें आत्मावलोकन कर आत्म-विश्लेषण करना होगा ताकि हम स्वयं में सुधार ला सकें। वास्तव में यह अपने गुण-दोषों के प्रति स्वीकार्यता का भाव है। जब हमें यह अनुभूति हो जाती है कि हम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हैं। उस स्थिति में हम खुद में सुधार ला सकते हैं और दूसरों को दुष्भावनाओं व दुष्प्रवृत्तियों से मुक्ति दिलाने में अहम् भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं। वास्तव में जब तक हम अपने दोषों व अवगुणों से वाक़िफ़ नहीं होते; आत्म-परिष्कार संभव नहीं है। वास्तव में वे लोग उत्तम श्रेणी में आते हैं; जो दूसरों के अनुभव से सीखते हैं। जो लोग अपने अनुभव से सीखते हैं, वे द्वितीय श्रेणी में आते हैं और जो लोग ग़लती करने पर भी उसे नहीं स्वीकारते; वे ठीक राह को नहीं अपना पाते। वास्तव में वे निकृष्टतम श्रेणी के बाशिंदे कहलाते हैं तथा उनमें  सुधार की कोई गुंजाइश नहीं होती। हां! कोई दैवीय शक्ति अवश्य उनका सही मार्गदर्शन कर सकती है। ऐसे लोग अपने अनुभव से अर्थात् ठोकरें खाने के पश्चात् भी अपने पक्ष को सही ठहराते हैं। मोबाइल के वाट्सएप, फेसबुक आदि के ‘लाइक’ के चक्कर में लोग इतने रच-बस जाते हैं कि लाख चाहने पर भी वे उससे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते और वे शारीरिक व मानसिक रोगी बन जाते हैं। इस मन:स्थिति में वे स्वयं को ख़ुदा से कम नहीं समझते।

परमात्मा सबका हितैषी है। वह जानता है कि हमारा हित किस में है…इसलिए वह हमें हमारा मनचाहा नहीं देता, बल्कि वह देता है…जो हमारे लिए हितकर होता है। परंतु विनाश काल में अक्सर बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; विपरीत दिशा में चलती है और उसे सावन के अंधे की भांति सब  हरा ही हरा दिखाई पड़ता है। उस स्थिति में मानव अतीत की स्मृतियों में खोया रहता है और स्वयं को उस उधेड़बुन से मुक्त नहीं कर पाता, क्योंकि अतीत अर्थात् जो गुज़र गया है, कभी लौटकर नहीं आता। सो! उसे स्मरण कर समय व शक्ति को नष्ट करना उचित नहीं है। हमें अतीत की स्मृतियों को अपने जीवन से निकाल बाहर फेंक देना चाहिए, क्योंकि वे हमारे विकास में बाधक व अवरोधक होती हैं। हां! स्वर्णिम स्मृतियां हमारे लिए प्रेरणास्पद होती हैं, जिनका स्मरण कर हम वर्तमान की ऊहापोह से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं और उस स्थिति में हमारे हृदय में आत्मविश्वास जागृत होता है। प्रश्न उठता है कि यदि हममें पहले से ही वह सब करने की सामर्थ्य थी, तो हम पहले ही वैसे क्यों नहीं बन पाये? सो! यदि हममें आज भी साहस है, उत्साह है, ओज है, ऊर्जा है, सकारात्मकता है…फिर कमी किस बात की है? शायद जज़्बे की… ‘मैं कर सकता हूं; मेरे लिए कोई भी कार्य कठिन नहीं है। ‘वह विषम परिस्थितियों में सहज रहकर उनका साहसपूर्वक सामना कर, अपनी मंज़िल को प्राप्त कर सकता है। मुझे याद आ रही हैं– स्वरचित अस्मिता की अंतिम कविता की अंतिम पंक्तियां…’मुझमें साहस ‘औ’ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं मैं/ आकाश की बुलंदियां।’ हर मानव में साहस है, उत्साह है ….हां! आवश्यकता है– आत्मविश्वास और जज़्बे की…जिससे वह कठिन से कठिन कार्य कर सकता है और मनचाहा प्राप्त कर सकता है। ‘कौन कहता है/ आकाश में छेद/ हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो/ तबीयत से उछालो! यारो।’ आप कर सकते हैं…निष्ठा से, साहस से, आत्मविश्वास से…परंतु उस कार्य को अंजाम देने के लिए अथक परिश्रम की आवश्यकता होती है।

हां! असंभव शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में होता है और बुद्धिमान तो अपने लक्ष्य-प्राप्ति के लिए वह सब कुछ कर गुज़रते हैं; जो कल्पनातीत होता है और पर्वत भी उनकी राह में बाधा नहीं बन सकते। वे विषम परिस्थितियों में भी पूर्ण तल्लीनता से अपने पथ पर अग्रसर रहते हैं। वैसे भी जीवन में ग़लती को पुन: न दोहराना श्रेष्ठ होता है। सो! अपने पूर्वानुभवों से शिक्षा ग्रहण कर जीने की राह को बदल लेना ही श्रेयस्कर है। जीवन में केवल दो रास्ते ही नहीं होते …तीसरा विकल्प भी अवश्य होता है। उद्यमी व परिश्रमी व्यक्ति सदैव तीसरे विकल्प की ओर कदम बढ़ाते हैं और मंज़िल को प्राप्त कर लेते हैं। बनी-बनाई लीक पर चलने वाले ज़िंदगी में कुछ भी नया नहीं कर सकते और उनके हिस्से में सदैव निराशा ही आती है; जो भविष्य में कुंठा का रूप धारण कर लेती है। मुझे तो रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘एकला चलो रे’ पंक्तियों का स्मरण हो रही हैं… ‘इसलिए भीड़ का हिस्सा बनने से परहेज़ रखना श्रेयस्कर है, क्योंकि शेरों की जमात नहीं होती।’ इसलिए अपनी राह का निर्माण खुद करें। मालिक सबका हित चाहता है और हमें सत्य मार्ग पर चलने को प्रेरित करता है– ‘उसकी नवाज़िशों में कोई कमी न थी/ झोली हमारी में ही छेद था।’ यह पंक्तियां परमात्मा के प्रति हमारे दृढ-संकल्प व अटूट विश्वास को दर्शाती हैं व स्थिरता प्रदान करती हैं। वह करुणामय प्रभु सब पर आशीषों की वर्षा करता है तथा हमें आग़ामी आपदाओं से बचाता है। हां! कमी हममें ही होती है, क्योंकि हम पर माया का आवरण इस क़दर चढ़ा होता है कि हम सृष्टि-नियंता की रहमतों का अंदाज़ भी नहीं लगा पाते…उस पर विश्वास करना तो कल्पनातीत है। हम अपने अहं में इस क़दर डूबे रहते हैं कि हम स्वयं को ही सर्वश्रेष्ठ समझने का दंभ भरने लगते हैं। इसलिए हमारी  झोली हमेशा खाली रह जाती है। वास्तव में जब हम उस सृष्टि-नियंता के प्रति समर्पित हो जाते हैं; उसके प्रति आस्था, श्रद्धा व विश्वास रखने लगते हैं; तो हमारा अहं स्वत: विगलित होने  लगता है और हम पर उसकी रहमतें बरसने लगती हैं। इस स्थिति में हम सोचने पर विवश हो जाते हैं कि हमारा कौन-सा अच्छा कर्म, उस मालिक को भा गया होगा कि उसने हमें फ़र्श से उठाकर अर्श पर पहुंचा दिया।

यदि हम उपरोक्त स्थिति पर दृष्टिपात करें, तो मानव को अपने हृदय में निहित काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि भावों को निकाल बाहर फेंकना होगा और उसके स्थान पर स्नेह, प्यार, त्याग, सहानुभूति आदि से अपनी झोली के छेदों को भरना होगा। इस स्थिति में आपको दूसरों से संगति व सद्भाव की अपेक्षा नहीं रहेगी। आप एकांत में अत्यंत प्रसन्न रहेंगे, क्योंकि मौन को सबसे बड़ा तप व त्याग स्वीकारा गया है; जो नव-निधियों का प्रदाता है। ‘बुरी संगति से अकेला भला’ में भी यह सर्वश्रेष्ठ संदेश निहित है। इसलिए जो व्यक्ति एकांत रूपी सागर में अवग़ाहन करता है; वह अलौकिक आनंद की स्थिति को प्राप्त कर सकता है; जिसमें उसे अनहद-नाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं। सो! तादात्म्य की स्थिति तक पहुंचने के लिए मानव को अनगिनत जन्म लेने पड़ते हैं। हां! यदि आप अलौकिक आनंद की स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, तो भी यह सच्चा सौदा है। आप सांसारिक बुराइयों अर्थात् तेरी-मेरी, राग-द्वेष, निंदा-प्रशंसा आदि दुष्प्रवृत्तियों में लिप्त नहीं होंगे … आपका मन सदैव पावन, मुक्त व शून्यावस्था में रहेगा और आप प्रभु की करुणा-कृपा पाने के सुयोग्य पात्र बने रहेंगे।

आइए! अतीत की स्मृतियों को विस्मृत कर वर्तमान में जीने की आदत बनाएं, ताकि सुखद व सुंदर भविष्य की कल्पना कर; हम खुशी से अपना समय व्यतीत कर सकें। ज़िंदगी बहुत छोटी है। सो! हर पल को जी लें। मुझे याद आ रही हैं… वक्त फिल्म की दो पंक्तियां ‘आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू/ जो भी है, बस यही एक पल है।’ यह पंक्तियां चारवॉक दर्शन ‘खाओ-पीओ और मौज उड़ाओ’ की पक्षधर हैं। इसलिए मानव को अतीत और भविष्य के भंवर से स्वयं को मुक्त कर, वर्तमान अर्थात् आज में जीने की दरक़ार है, क्योंकि यही वह सार्थक पल है। यह सर्वविदित है कि हम ज़िंदगी भर की संपूर्ण दौलत देकर एक पल भी नहीं खरीद सकते। इसलिए हमें समय की महत्ता को जानने, समझने व अनुभव करने की आवश्यकता है, क्योंकि गुज़रा हुआ समय लौट कर नहीं आता।  सो! सृष्टि-नियंता की करुणा-कृपा व रहमत को अनुभव कर उसके सान्निध्य को महसूस करना बेहतर है। यही वह माध्यम है…उस प्रभु को पाने का; उसके साथ एकाकार होने का; स्व-पर का भेद मिटा अलौकिक आनंद में अवग़ाहन करने का। सो! एक सांस को भी व्यर्थ न जाने दें… सदैव उसका नाम-स्मरण करें…उसे अपने क़रीब जानें और अपनी जीवन-डोर उसके हाथों में सौंप कर निर्मुक्त अवस्था में जीवन-यापन करें… यही निर्वाण की अवस्था है, जहां मानव लख-चौरासी अथवा आवागमन के चक्र से मुक्ति प्राप्त कर लेता है और यही कैवल्य की स्थिति और हृदय की  मुक्तावस्था है। सो! हर पल ख़ुदा की रहमत को अनुभव करें और ज़िंदगी को सुहाना सफ़र समझें, क्योंकि ‘यहां कल क्या हो…किसने जाना’ आनंद फिल्म की इन पंक्तियों में निहित जीवन संदेश… ‘हंसते, गाते जहान से गुज़र, दुनिया की तू परवाह न कर’…इसलिए ‘लोग क्या कहेंगे’ इससे बचें, क्योंकि ‘लोगों का काम है कहना; टीका-टिप्पणी व आलोचना करना।’ परंतु यदि आप उनकी ओर ध्यान नहीं देते, तभी आप अपने ढंग से ज़िंदगी जी सकते हैं, क्योंकि प्रेम की राह अत्यंत संकरी है, जिसमें दो नहीं समा सकते। जब आप पूर्ण रूप से सृष्टि-नियंता के चरणों में समर्पित हो जाते हैं, तो परमात्मा आगे बढ़ कर आपको थाम लेते हैं … अपना लेते हैं और आप अपनी मंज़िल तक पहुंच पाते हैं। इसलिए कछुए की भांति स्वयं को आत्म-केंद्रित कर, अपनी पांचों कर्मेंद्रियों को अंकुश में रखें और हंसते-हंसते इस संसार से सदैव के लिए विदा हो जाएं। इस स्थिति में आप लख चौरासी से मुक्त हो जायेंगे, जो मानव के जीवन का अंतिम लक्ष्य है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ गानसमाधि ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ लघुकथा ☆ गानसमाधि ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ 

मंचपर से वह युवा गायक गा रहा था। अभी अभी एक अच्छे गायक के रूप में उसकी पहचान होने लगी थी । महफिल में अब वह बागेश्री का आवाहन कर रहा था। बागेश्री ने धीरे धीरे आँखे खोली। विलंबित गत में आलाप के साथ साथ अलसाई बागेश्री, अंगडाई लेने लागी। धीरे धीरे उठ खड़ी हुई। हर लम्हे, जर्रा जर्रा खिलने लगी। हर आलाप के साथ विकसित होने लगी। पदन्यास करने लगी। थिरकने लगी। आलाप, सरगम, मींड, नज़ाकती ठहराव, बागेश्री का रूप निखरने लगा। द्रुत बंदिश … नभ निकस गायो चंद्रमा… बागेश्री की मनमोहक अदा, उसका तेज नर्तन, और सम के साथ साथ उस का खूबसूरत ठहराव… अब तानों की बौछारें होने लगी। वह चक्राकार फेरे लेने लगी। सुननेवाले संगीत का लुफ्त उठा रहे थे। गायक तल्लीन हो कर गा रहा था। रसिक गाने में समरस हो रहे थे।

सभागृह में पहली पंक्ती में एक अधेड उम्र का व्यक्ति बैठा था। उसने अपनी आँखें मूँद ली थी। गायक का ध्यान जब जब उस की तरफ जाता, गायक विचलित हो जाता। राग के बढत के साथ साथ, उस के दिमाग में गुस्सा और विषाद भर जाता। सोचने लगता, ‘अरे, सोना है जनाब को तो घर में ही आराम से सोते। यहां आने की परेशानी क्यौं उठायी? वैसे रियाज और अभ्यास के कारण, आदतानुसार गायक गाए जा रहा था, किन्तु मन में कुंठा जरूर पली हुई थी।

तालियों की बौछार के साथ बागेश्री का समापन हुआ। उस अधेड व्यक्ति ने अपनी आँखे खोली। गायक ने उसे अपने पास बुलाया और उन्हें पूछने लगा,

“महाशय, क्या आप को मेरे गाने में कोई कमी महसूस हुई?”

“नहीं तो…”

“फिर क्या आप की नींद पूरी नहीं हुई थी?”

“नहीं… नहीं… ऐसा भी नहीं…”

“तो फिर सारा समय आप नें अपनी आँखे क्यों मूँद ली थी?”

“उस का क्या है बेटा, जब हम आँखे मूँद लेते है, तब पंचेंद्रियों की सारी शक्ति कानों में समाई जाती है। फिर एक एक सुर अंतस तक उतरता जाता है। जब आँखे खुली होती है, तब वह यहां-वहां दौड़ती है। जिस की जरूरत हो, वह देखती है, ना हो उसे भी देखती है। मन को विचलित करती है। स्वर परिपूर्णता से अंतस में समाए नहीं जाते।”

बाते करते करते, अभी थोडी ही देर पूर्व गायक ने लिया हुआ एक कठिन आलाप, वह आदमी उसी नज़ाकती मींड के साथ गुनगुनाने लगा। गायक आलाप सुनते ही विस्मित हुआ।

वह अधेड व्यक्ति आगे कहने लगा, “तुम बहुत अच्छा गाते हो, लेकिन गायक की गाने में इतनी समरसता होनी चाहिये की सामने बैठे श्रोता क्या कर रहे हैं, दाद दे रहे है, या नहीं, आपस में बोल रहे है, या सो रहे है, इससे उसे बेखबर होना चाहिये। इसे गानसमाधि कहते है।  तुम्हारा गायन इस अवस्था तक पहुँचे, यह मेरी कामना है।” अधेड व्यक्ति नें गायक के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। गायक नें उन का चरणस्पर्श किया।

आज उस अधेड व्यक्ति नें, उस के मन में रियाज के लिए एक नया बीज डाला था।

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका ( ई- अभिव्यक्ति मराठी)

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन के पास, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – श्वेत ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – श्वेत

हरेक में रहता है श्वेत,

हरेक में बसता है श्वेत,

श्वेत का मूल श्वेत है,

अश्वेत का भी मूल श्वेत है,

नैतिकता में घोलकर

थोप दी गई हैं वर्जनाएँ

श्वेतांबराओं की देह पर,

नैतिकता काल के अनुरूप

परिवर्तित होती है,

सर्वदा धन, धर्म,

रसूख की सगी होती है,

समय की ग्लोबल डॉक्यूमेंट्री में

उभरता है क्लाइमेक्स..,

नैतिकता के सगों ने

खींचकर श्वेतांबराओं की देह से,

ओढ़ लिया है श्वेत,

दिगंबरायें अब

आ नहीं सकती देहरी के पार,

श्वेत का अखंड जयकार

व्योम होता है,

सिर्फ श्वेत ही है

जो सार्वभौम होता है।

©  संजय भारद्वाज

(29.1.2021 को नींद में उपजी कविता। लेखन रात्रि 2:27 बजे।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 33 ☆ नारी में सौन्दर्य ही पर्याप्त नहीं ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “नारी में सौन्दर्य ही पर्याप्त नहीं”.)

☆ किसलय की कलम से # 33 ☆

☆ नारी में सौन्दर्य ही पर्याप्त नहीं ☆

परियों और राजकुमारियों के सौन्दर्य बखान करने में कवियों – शायरों – कहानीकारों ने शायद ही कोई कसर छोड़ी होगी। आदि से अब तक रूप, रंग और सुन्दरता को ही प्राय: लोकप्रियता का आधार माना जाता रहा है, भले ही उसका दूसरा पहलू प्रशंसनीय रहा हो अथवा नहीं। यही कारण है कि लोगों का झुकाव सुन्दरता की दिशा में अधिक होता गया और निश्चित रूप से जो सुन्दर नहीं है, उनके मन में कहीं न कहीं हीन भावना अपना स्थान बनाने में सफल होती गई, मगर दृढ़ता और विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि ऐसा कदापि नहीं है। अनपढ़ कालिदास, अंधे सूरदास, पोलियोग्रस्त क्रिकेटर चन्द्रशेखर, संगीतज्ञ दिव्यदर्शी रवीन्द्र जैन आदि अनेक नामों को गिनाया जा सकता है, जिन्हें लोकप्रियता रंग, रूप अथवा सौन्दर्य के बलबूते नहीं मिली। इन्होंने अपनी विशेष योग्यताओं के कारण लोकप्रियता हासिल की है। आज भी कला, संगीत, अभिनय, नृत्य, गायन, खेल, समाज सेवा जैसे अनेक क्षेत्र हैं जिनमें दक्ष महिलायें अथवा पुरुष दोनों ही लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचकर अपने जीवन को सुखमय एवं सार्थक बनाने में सफल हो सकते हैं, फिर भी लड़कियों एवं महिलाओं में अपने रंग, रूप और सौन्दर्य को लेकर प्रतिस्पर्धा सहज ही निर्मित हो जाती है। वहीं दूसरी ओर हीन भावना भी पनपती है। यह हीन भावना उन लड़कियों में अधिक प्रभाव डालती है जो कम सुन्दर होने के साथ – साथ किसी भी अन्य क्षेत्र में निपुण नहीं होतीं। इन परिस्थितियों में स्वयं लड़कियों अथवा अभिभावकों की ज़रा सी भूल या असतर्कता उनका सारा जीवन अंधकारमय बना सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि लड़कियाँ आकर्षक अथवा सुन्दर नहीं हैं तब इसका मतलब यह कदापि नहीं होना चाहिये कि उनका तिरस्कार किया जाए। किसी न किसी बहाने अथवा मौका मिलते ही इनकी कमियों की ओर इशारा और समझाईश दी जाना चाहिए। उन लड़कियों और नवयुवतियों को भी चाहिए कि वे विवाह पूर्व इस कमी की पूर्ति हेतु अनेक कलाओं – विधाओं में दक्षता प्राप्त कर लें। यह पाया गया है कि अधिकांश लोगों का ध्यान सौन्दर्य दर्शन में ही केन्द्रित होता है और शेष गुणों की ओर अपेक्षाकृत कम प्रभावित होते हैं। यह सत्यता भी है कि सामने दिखाई देने वाले गुण प्रथम दृष्टि में ही प्रभावित कर लेते हैं, जबकि अन्य गुणों की जानकारी हेतु निकटता एवं संवाद की आवश्यकता होती है। प्राय: लड़कियों में उत्पन्न सौंदर्यबोध अभिमान का अनुभव कराने लगता है। साथ ही गैरों की टिप्पणियाँ जहाँ एक ओर आनंद की अनुभूति देती है, वहीं दूसरी ओर तनाव भी बढाती हैं, जिनसे वे लक्ष्य को पाने में आंशिक परेशानी महसूस करने लगती हैं। यहाँ कहा तो जा सकता है कि लड़कियों का दूसरा वर्ग इस तरह की परेशानियों से अछूता रहता है, फिर भी ऐसे में सुन्दरता की कमी को पूर्ण करने हेतु कोई न कोई पूरक अथवा विकल्प अत्यावश्यक होता है। यही पूरक अथवा विकल्प ही उन लड़कियों का भविष्य निश्चित करता है। उसमें कठिन परीक्षा लगन, साहस और धैर्य की आवश्यकता होती है। लगातार मेहनत और लगन उसे अच्छी गायिका, समाज सेवी, अभिनेत्री, साहित्यकार, चित्रकार अथवा किसी भी गरिमापूर्ण पद पर आसीन करा सकता है जो कि वर्तमान में आवश्यक भी है। इससे उन लड़कियों के लिए प्रतिष्ठित परिवार, सुयोग्य वर एवं सुखमय जीवन की सर्वोच्च आकांक्षा की पूर्ति के द्वार भी खुल जाते हैं।

नारी का सौंदर्य ही केवल सार्थक जीवन के लिए पर्याप्त नहीं है। सुन्दरता के अतिरिक्त लड़की का एक भी अवगुण या कमी निश्चित रूप से उसका जीवन चुनौतीपूर्ण बना देती है। साथ ही उस कारण ससुराल में भी अनावश्यक कठिनाईयाँ पैदा हो सकती हैं, लेकिन लड़की यदि प्रतिभावान हो, अथवा परिवार चलाने की कला में निपुण हो, उसमें कोई उल्लेखनीय हुनर हो या फिर अच्छे ओहदे पर कार्यरत हो तो एक समझदार पति सारी जिन्दगी अपने परिवार को खुशहाल बनाए रख सकेगा और अपनी पत्नी का सदैव सम्मान भी करेगा। अत: यह बात हमारे परिवार के प्रत्येक सदस्यों को ध्यान में रखना होगी कि यदि हमारी लड़की, हमारी बहन, हमारी बहू आकर्षक अथवा सुन्दर नहीं हैं तब भी उसका तिरस्कार कदापि नहीं किया जाना चाहिए। हमें उनके अंत:करण में ऐसे बीज अंकुरित करना होंगे जो भविष्य में मीठे फलों को पैदा कर सके, जिनकी मिठास उनमें निहित कमी को भी भुला दे और परिवार के सदस्य उनकी प्रतिभा की भूरी – भूरी प्रशंसा करते रहें। यही हम सबका सार्थक प्रयास भी होना चाहिए अन्यथा महिलायें सदैव अपने भाग्य को कोसती रहेंगी, मनचाहा वर न मिलने पर स्वयं को दोषी ठहराएँगी, तब उनके लिए पश्चाताप के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं बचेगा।

आज जब नारी वर्ग शिक्षा, तकनीकि, उद्योग, अन्तरिक्ष, सैन्य सहित अन्य क्षेत्रों में अपना वर्चश्व कायम करने में सफल हो रहा है। समाज और शासन भी प्राचीन दकियानूसी बातों को नकार कर उन्हें प्रोत्साहित कर रहा है, तब बहन – बेटियों को चाहिए कि वे कोई न कोई ऐसी विशेषता, कला या गुणों में निपुण होना सुनिश्चित करें जो उनके सुखद भविष्य हेतु मील का पत्थर बने।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 80 ☆ लघुकथा – सही मार्ग ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  किशोर मनोविज्ञान पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा  “सही रास्ता। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 80 – साहित्य निकुंज ☆

 लघुकथा – सही रास्ता

उषा का आज कॉलेज में पहला दिन था। उसे कुछ अजीब सा लग रहा था और नौकरी लगने की खुशी भी बहुत थी ।

स्टाफ रूम पहुंची सभी ने उसका स्वागत किया।

विभागाध्यक्ष ने उसे टाइम टेबिल दिया । इस वर्ष उसे फाइनल की ही क्लास मिली थी।

आज जब वह क्लास लेने गई तब बच्चों ने उसका स्वागत किया। और एक छात्र सुनील ने तो उसे गुलाब का फूल लाकर दिया और बोला “हार्दिक स्वागत है मेम ।”

उषा ने …”प्यार से थैंक्स कहा।”

उषा पढ़ाने लगी। उषा कई दिन से महसूस कर रही थी  कि सुनील का पढ़ने में मन नहीं लगता और वह केवल आंखें फाड़ करके देखता ही रहता है उसे।

रोज कॉलेज छूटने पर कॉलेज के बाहर मिलता है न जाने क्या है उसके मन में ?

शायद यह उम्र ही ऐसी है।

उषा ने सोचा .. कि कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा वरना यह बच्चा अपनी पढ़ाई से हाथ धो बैठेगा।

अगले दिन जब कॉलेज के गेट पर सुनील मिला तो उसने सुनील से कहा .. “मेरे साथ घर चलोगे।”

सुनील खुशी खुशी उषा के साथ घर चला गया।

उषा ने सुनील को बैठाया और चाय नाश्ता करवाया। तब तक उषा के बच्चे भी लौट आए स्कूल से।  आपस में मिलवाया। सुनील सभी से मिलकर बहुत खुश हो गया।

बच्चों ने पूछा मम्मी यह “भैया कौन है।”

उषा ने कहा …. “इन्हें तुम मामा कह सकते हो।”

“क्यों सुनील यह रिश्ता तुम्हें मंजूर है?”

सुनील तुरंत मैम के चरणों में झुक गया। बोला.. “आपने मुझे सही मार्ग दिखाया। आपने मेरी आंखें खोल दी।”

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 70 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 70 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

ओढ़े चादर ओस की, वसुधा तकती भोर

हो कर शीतल  शिशिर में, पवन करे झकझोर

 

रद्दी में बिकने लगा, देखो अब साहित्य

जुगनू अब यह समझता, फीका है आदित्य

 

कर आराधन देश का, रखें देश हित सोच

संकट में कुर्बान हों, बिना कोई संकोच

 

अविरल धारा प्रेम की, दिल में बहती रोज

सच्चे सेवक राम के, जिनमें रहता ओज

 

उन्नत खेती कीजिये, चलें वक्त के साथ

उपज खेत की बढ़ सके, हो दौलत भी हाथ

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४१॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४१॥ ☆

 

गच्चन्तीनां रमाणवसतिं योषितां तत्र नक्तं

रुद्धालोके नरपतिपथे सूचिभेद्यैस तमोभिः

सौदामन्या कनकनिकषस्निग्धया दर्शयोर्वीं

तोयोत्सर्गस्तनितमुहरो मा च भूर्विक्लवास्ताः॥१.४१॥

वहाँ घन तिमिर से दुरित राजपथ पर

रजनि में स्वप्रिय गृह मिलन गामिनी को

निकष स्वर्ण रेखा सदृश दामिनी से

दिखाना अभय पथ विकल कामिनी को

न हो घन ! प्रवर्षण , न हो घोर गर्जन

न हो सूर्य तर्जन , वहाँ मौन जाना

प्रणयकातरा स्वतः भयभीत जो हैं

सदय तुम उन्हें , अकथ भय से बचाना

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ माझा काळ गेला आणि तुझी वेळ गेली – कवी श्री वैभव जोशी ☆ कवितेचे रसग्रहण☆ प्रस्तुति – सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

कवी श्री वैभव जोशी

☆ कवितेचा उत्सव ☆ माझा काळ गेला आणि तुझी वेळ गेली – कवी श्री वैभव जोशी ☆ सौ. ज्योत्स्ना तानवडे

कशासाठी आता पुन्हा भेटायाचे सांग

देणे घेणे उतू गेले फिटले ना पांग

आता कशी श्वासांवर  लावायाची बोली

माझा काळ गेला आणि तुझी वेळ गेली

 

कधीकाळी होते इथे एक गर्द रान

एका बहराची ज्याने मिरवली आण

सरूपाला अरुपाची जाहली सवय

तेंव्हाचे हे भय ज्याचे झाले आता वय

एका खिळ्यासाठी कुणी जोपासावी ढोली

माझा काळ गेला आणि तुझी वेळ गेली

 

आता माझ्या प्रार्थनेत तेवढा ना पीळ

आणि तुझ्या निळाईत नाही घननीळ

मंदिराच्या मंडपात मशिदीचा पीर

जीव ऐलतीर आणि डोळे पैलतीर

कोरड्या पात्रात उभी आठवण ओली

माझा काळ गेला आणि तुझी वेळ गेली

 

– कवी श्री वैभव जोशी

चित्र – साभार फेसबुक वाल

(या कवितेचे रसग्रहण काव्यानंद मध्ये दिले आहे.)

प्रस्तुति – सौ. ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 73 – विजय साहित्य – आराधना .. . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 73 – विजय साहित्य – आराधना .. . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

आराध्याचे आराधन

हीच खरी आराधना

जाण ठेवूनी करावी

आदर्शाची जोपासना. . . !

 

आराधना करताना

नको मनी अहंकार

मनोमन चिंतलेली

होई कामना साकार. . . . !

 

प्रेम प्रितीमध्ये हवी

विश्वासाची आराधना.

जुळुनीया येई नाते

हवी मनी संवेदना. . . . !

 

कुणीतरी कुणासाठी

जीव जातो लावूनीया

आराधना अंतरीची

जाई श्वास होऊनीया . . . . !

 

आराधने मध्ये हवे

एक माथा, दोन हात

प्रार्थनेच्या आरंभाला

आराधना तेलवात.. . !

 

ध्येयपूर्ती  आराधना

प्रयत्नांची हवी जोड

ज्ञान मिळवोनी साधू

यशकिर्ती बिनतोड. . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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