(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादकश्री विजय कुमार जी की लघुकथा “युक्ति”।)
☆ लघुकथा – युक्ति ☆
प्रमोद के आगे चलने वाली कार के चालक ने अपनी कार को सड़क पर एक तरफ करके रोक दिया था, परन्तु फिर भी उसकी कार का इतना हिस्सा सड़क पर ही था कि प्रमोद बड़ी मुश्किल से अपनी बाइक को बचा पाया।
पीछे बैठे उसके दोस्त ने एकदम गुस्से से प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “…अभी इसकी ऐसी की तैसी करता हूँ और गाड़ी हटवाता हूँ सड़क पर से…।”
दोस्त गया और कार वाले से बहस करने लगा, “भाई साहब, क्या आपने बीच सड़क में कार खड़ी कर दी है, अभी हमारी टक्कर हो जाती और चोट लग जाती…। गाड़ी एक तरफ नहीं कर सकते क्या, इतनी जगह पड़ी है..?”
कार वाला भी शायद लड़ने की मनोदशा में था, गुस्से से बोला, “तुम देख कर नहीं चल सकते क्या? नहीं करता एक तरफ क्या कर लोगे?”
दोस्त को एकदम से कुछ न सूझा। वह आवेश में कुछ बोलने ही वाला था कि प्रमोद ने दोस्त के कंधे को दबा कर उसे चुप रहने का संकेत देते हुए कार वाले को कहा, “बात वो नहीं है जो आप समझ रहे हैं भाई साहब. दरअसल यह चलती सड़क है, कहीं ऐसा न हो कि कोई दूसरा कार या ट्रक वाला आपकी गाड़ी को ठोक कर चला जाए और आपका खामखाह का नुकसान हो जाए। हम तो बस इसलिए…।”
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#4 – दो भाई ☆ श्री आशीष कुमार☆
दो भाई थे। परस्पर बडे़ ही स्नेह तथा सद्भावपूर्वक रहते थे। बड़े भाई कोई वस्तु लाते तो भाई तथा उसके परिवार के लिए भी अवश्य ही लाते, छोटा भाई भी सदा उनको आदर तथा सम्मान की दृष्टि से देखता।
पर एक दिन किसी बात पर दोनों में कहा सुनी हो गई। बात बढ़ गई और छोटे भाई ने बडे़ भाई के प्रति अपशब्द कह दिए। बस फिर क्या था ? दोनों के बीच दरार पड़ ही तो गई। उस दिन से ही दोनों अलग-अलग रहने लगे और कोई किसी से नहीं बोला। कई वर्ष बीत गये। मार्ग में आमने सामने भी पड़ जाते तो कतराकर दृष्टि बचा जाते, छोटे भाई की कन्या का विवाह आया। उसने सोचा बडे़ अंत में बडे़ ही हैं, जाकर मना लाना चाहिए।
वह बडे़ भाई के पास गया और पैरों में पड़कर पिछली बातों के लिए क्षमा माँगने लगा। बोला अब चलिए और विवाह कार्य संभालिए।
पर बड़ा भाई न पसीजा, चलने से साफ मना कर दिया। छोटे भाई को दुःख हुआ। अब वह इसी चिंता में रहने लगा कि कैसे भाई को मनाकर लगा जाए इधर विवाह के भी बहित ही थोडे दिन रह गये थे। संबंधी आने लगे थे।
किसी ने कहा-उसका बडा भाई एक संत के पास नित्य जाता है और उनका कहना भी मानता है। छोटा भाई उन संत के पास पहुँचा और पिछली सारी बात बताते हुए अपनी त्रुटि के लिए क्षमा याचना की तथा गहरा पश्चात्ताप व्यक्त किया और प्रार्थना की कि ”आप किसी भी प्रकार मेरे भाई को मेरे यही आने के लिए तैयार कर दे।”
दूसरे दिन जब बडा़ भाई सत्संग में गया तो संत ने पूछा क्यों तुम्हारे छोटे भाई के यहाँ कन्या का विवाह है ? तुम क्या-क्या काम संभाल रहे हो ?
बड़ा भाई बोला- “मैं विवाह में सम्मिलित नही हो रहा। कुछ वर्ष पूर्व मेरे छोटे भाई ने मुझे ऐसे कड़वे वचन कहे थे, जो आज भी मेरे हृदय में काँटे की तरह खटक रहे हैं।” संत जी ने कहा जब सत्संग समाप्त हो जाए तो जरा मुझसे मिलते जाना।” सत्संग समाप्त होने पर वह संत के पास पहुँचा, उन्होंने पूछा- मैंने गत रविवार को जो प्रवचन दिया था उसमें क्या बतलाया था ?
बडा भाई मौन ? कहा कुछ याद नहीं पडता़ कौन सा विषय था ?
संत ने कहा- अच्छी तरह याद करके बताओ।
पर प्रयत्न करने पर उसे वह विषय याद न आया।
संत बोले ‘देखो! मेरी बताई हुई अच्छी बात तो तुम्हें आठ दिन भी याद न रहीं और छोटे भाई के कडवे बोल जो एक वर्ष पहले कहे गये थे, वे तुम्हें अभी तक हृदय में चुभ रहे है। जब तुम अच्छी बातों को याद ही नहीं रख सकते, तब उन्हें जीवन में कैसे उतारोगे और जब जीवन नहीं सुधारा तब सत्सग में आने का लाभ ही क्या रहा? अतः कल से यहाँ मत आया करो।”
अब बडे़ भाई की आँखें खुली। अब उसने आत्म-चिंतन किया और देखा कि मैं वास्तव में ही गलत मार्ग पर हूँ। छोटों की बुराई भूल ही जाना चाहिए। इसी में बडप्पन है।
उसने संत के चरणों में सिर नवाते हुए कहा मैं समझ गया गुरुदेव! अभी छोटे भाई के पास जाता हूँ, आज मैंने अपना गंतव्य पा लिया।”
(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गीजी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)
☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 11 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆
(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)
(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )
मेरा भरतनाट्यम नृत्य का एम.ए. का अभ्यास शुरू था। दीदी ने मुझे नृत्य का एक एक अध्याय देना शुरू किया। एम.ए. करते हुए मुझे जो जो परेशानियां आयी वह समझते हुए, उनकों याद करती हूँ। तो बहुत तकलीफ होती है और जीवन में मुझे जो परेशानियाँ आयी वह उनके सामने कुछ भी नहीं लगती। क्योंकि एम.ए जैसी उच्च पदवी हासिल करने के लिए जो कोशिश, मेहनत और मुख्य बात से एकाग्रता इनकी जरूरत होती है। जब मेरा यह कठिन अभ्यास शुरु था तब मेरे मम्मी-पापा के बढ़ती आयु, बुढ़ापे की वजह से उनके स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ रहा था, इसलिए मैं बहुत चिंतित थी।
उस वक्त मेरे भाई ने मिरज सांगली के बीच में विजय नगर क्षेत्र में मकान बनाया था। उसी वक्त मेरे माँ की आंखों का ऑपरेशन हुआ था। इसलिए हम तीनों को वह उधर लेकर गया। लेकिन मेरी क्लास मिरज में था इसलिए मुझे रोज उधर से आना पड़ता था। ज्यादातर मेरा भाई कार से मुझे वहां तक छोड़ता था, लेकिन वह जब काम में व्यस्त रहता था तो मेरे पापा मुझे शेयरिंग ऑटोसे वहां तक छोड़ते थे। उसी वक्त मेरे पापा का पार्किंसन्स की बीमारी बहुत बढ़ गयी। मैंने एम.ए. करना चाहिए यह उनकी प्रबल इच्छा थी। इसीलिए हम कोई भी परेशानी आए उसका सामना करते थे, उस से नहीं डरते थे।
जब हम ऑटो की राह देखते थे तब बहुत बार हमें ट्रैफिक से भरी हुई सड़क पार करनी पड़ती थी। इसलिए हम जान मुठ्ठी में लेकर सड़क पार करते थे। तब मुझे पापा के हाथों की थरथराहट समझती थी, पैदल चलते वक्त
उनको हो रही तकलीफ मैं समझती थी। लेकिन वह कोई भी शिकायत न करते हुए मेरे लिए भरी धूप में आते थे।
उनकी कोशिश, मेहनत थी इसीलिए तो सब संभव हो पाया।
नृत्य के प्रदर्शनों का मार्गदर्शन शुरू हो गया था। लेकिन अब सवाल था थिअरी का। एम.ए. के पढ़ाई में भारतीय नृत्य के अध्ययन के साथ ‘तत्वज्ञान’ जैसा कठिन विषय था।
हर साल ऐसे कुल मिलाकर ४ विषयों की पढ़ाई मुझे करनी थी। अब बड़ा सवाल था वह पढ़ने का। मुझे, मैं अंदमान से आने के बाद जिन्होंने मेरा इंटरव्यू लिया था, वह सौ. अंजली दीदी गोखले इनकी याद आयी और मैंने उनको फोन किया। उन्होंने मुझे पढ़कर बताने के लिए खुशी से हाँ कह दिया। ऐसे मेरी वह भी परेशानी दूर हो गई। दीदी ने उनके एम.ए. के कुछ नोट्स मुझे पढ़ने के लिए दिए थे। इसके अलावा खरे मंदिर पुस्तकालय से कुछ संदर्भ ग्रंथ हमें मिले थे। इस तरह एम.ए. के पढ़ाई का रूटीन अच्छा चल रहा था।
☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव के व्यंग्य संग्रह ‘खटर पटर’ व ‘धन्नो बसंती और बसन्त’ लोकार्पित ☆
विवेक जी के व्यंग्य पाठक को बांध लेने वाले होते हैं .. अलका अग्रवाल, मुंबई
जबलपुर। वरिष्ठ व्यंग्यकार विवेक रंजन श्रीवास्त के सद्य प्रकाशित व्यंग्य संग्रहखटर पटर व धन्नो बसंती और बसन्त का लोकार्पण एक सादे समारोह में कोविड प्रोटोकाल का परिपालन करते हुए, मुम्बई से आई हुई अलका अग्रवाल व नगर के सक्रिय व्यंग्यकारों के मध्य सम्पन्न हुआ। समकालीन व्यंग्यकारों
डा स्नेहलता पाठक, रायपुर कहती हैं कि – “आदमी होने की तमीज सिखाते व्यंग्य लिखते हैं विवेक रंजन, लंबी सी बातों को कम से कम शब्दों में कह देना उनकी विशेषता है। इंजीनियर होते हुये भी वे भाषा और साहित्य में गजब की पकड़ रकते हैं।“
समीक्षा तैलंग, पुणे से लिखती हैं कि “विवेक जी का व्यंग्य लेखन कोरोना जैसी अलाओ बलाओ से भी रुकता नही, वरन विसंगतियो से उनका लेखन और मुखर होता है।“
साधना बलवटे, भोपाल से कहती हैं कि “हिन्दी साहित्य के विस्तृत आकाश में व्यंजना शक्ति का सामर्थ्य परिलक्षित हो रहा है। इन्हीं सामर्थ्यवानों में एक नाम विवेक रंजन श्रीवास्तव जी का है। अपनी निरतंर व्यंग्य साधना से उन्होंने साहित्य में अपना विशेष स्थान बनाया है।“
शांतिलाल जैन, उज्जैन की नजरों मे “विवेक रंजन श्रीवास्तव के पास व्यंग्य की कोई एक्सक्लूस्सिव भाषा या मुहावरा नहीं हैं, बल्कि वे विषय के अनुकूल मुहावरे गढ़ते है और यथायोग्य भाषा को बरतते हैं। उनके व्यंग्य अभिधा में बात कहने से बचते हैं जो व्यंग्य लेखन की पहली और अनिवार्य शर्त है। विवेक व्यंग्य के उपादान सावधानी से चुनते हैं और उसे इस तरह करीने से सजाते हैं कि रचना दिलचस्प बन उठती है।“
प्रभात गोस्वामी, जयपुर के अनुसार “एक बड़े जिम्मेदार शासकीय पद पर कार्य करते हुये आस पास होते अन्याय के विरुद्ध,कटाक्ष करने का साहस कम ही रचनाकारो में दिखता है, विवेक जी पूरी संवेदनशीलता के साथ विषय की गहराई में उतरकर बड़ी चतुराई से कलम से खतर पटर करते हुये प्रहार करते हैं। उम्मीद है उनकी यह खटर पटर ऐसी अनुगूंज बनेगी जो किंचित उन तक पहुंचेगी जिन पर वे प्रहार कर रहे हैं।“
इंजी अनूप शुक्ल, कानपुर बताते हैं कि “इंजी विवेक रंजन संस्कारधानी जबलपुर में रहते हुए विपुल लेखन करते सम्मानित साहित्यकार हैं। क्रिकेट में सिद्ध बल्लेबाज जिस तरह विकेट के चारो तरफ शॉट लगाते हैं विवेक जी उसी तरह समसामयिक विषयों पर लगातार लेखन करते हैं।“
अरुण अर्नव खरे, बेंगलोर – “विवेक रंजन जी को आज के सबसे सक्रिय व्यंग्यकारों में बताते हैं। एक इंजीनियर होने के चलते छोटी छोटी अदृश्य लगने वाली चीज़ें भी उनकी दृष्टि से बच नहीं पाती और उनको लेकर जिस तरह वह अपनी रचनाओं की बुनावट करते हैं वह कई बार चमत्कृत करता है। उनके पास विषयों का भंडार है और वह समाज से ऐसे विषयों को उठाते हैं जो समाज के प्रति उनके दायित्वबोध को दिखाता है।“
राजशेखर चौबे, रायपुर कहते हैं कि “श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी व्यंग्य के बेहतरीन खिलाड़ी हैं वे तकनीकी ज्ञान का भरपूर प्रयोग कर विज्ञान कथाएं भी लिखते है।“
कैलाश मण्डलेकर, खण्डवा के शब्दों में “विवेक जी के व्यंग्यो में सामाजिक विद्रूप के खिलाफ सहज व्यंग्य बोध है। वे इस बात की फिक्र करते दिखते हैं कि जो दिखाई दे रहा है उसके नेपथ्य में क्या चल रहा है जिसे वे निडरता से उजागर करते हैं।“
श्री अरविंद तिवारी, शांहजहांपुर के अनुसार “विवेक रंजन व्यंग्य में शिद्दत से सक्रिय हैं। वे व्यंग्य गोष्ठियां खूब करते हैं। नये नये विषयो पर लिखते हैं। उनके व्यंग्य का कलेवर बहुत बड़ा नही होता किंतु वे संदेश दायी होते हैं।“
श्री प्रभाशंकर उपाध्याय के अनुसार “विवेक जी गंभीर रचनाकार हैं। बहुत अच्छा लिख रहे हैं। मैं सुझाव देना चाहता हूं कि अखबारों के लिए लिखते समय, पहले रचना को शब्द सीमा से मुक्त होकर लिखें उस मूल रूप को अलग से सुरक्षित रखें और उसके बाद शब्द सीमा के अनुरूप संशोधित कर समाचार पत्रों-पत्रिकाओं में भेज दें। मैं ऐसा ही करता हूं।“
बुलाकी शर्मा, दिल्ली कहते हैं – “फेसबुक, सोशल मीडिया, अखबारो के संपादकीय पन्नो पर मैं विवेक रंजन जी को पढ़ता रहा हूं। साहित्य के संस्कार उन्हें परिवार से मिले हैं। वे इंजीनियर के रूप में बड़े पद के दायित्वों के साथ निरंतर साहित्य सेवा में निमग्न हैं। उनके कार्यालयीन अनुभवो का प्रतिफलन उनके लेखों में स्पष्ट दिखता है। वे गहरे तंज करने में माहिर हैं।“
श्री जय प्रकाश पाण्डे, जबलपुर ने समारोह में विमोचित कृतियों की लिखित समीक्षा पढ़ीं, उनके अनुसार “विवेक जी की रचना शैली जीवन मूल्यों के प्रति संघर्ष करना सिखाती है, विसंगतियों को पकड़ने का उनका अपना अलग अंदाज है। वे सहजता से तीखी बात कहने में माहिर हैं। बहुआयामी विषयो पर लिखते हैं। व्यंग्य के धारदार उपकरणो का सतर्कता से प्रयोग करते हैं।“
टीकाराम साहू – “विवेक रंजन श्रीवास्तव जी के व्यंग्यों की सबसे बड़ी विशेषता बताते हुए कहते है-रोचकता और धाराप्रवाह लेखन।शीर्षक बड़े मजेदार है जो व्यंग्य के प्रति उत्सुकता जगाते हैं।“
पिलकेंद्र अरोड़ा उज्जैन– “विवेक रंजन जी विगत कई वर्षो से व्यंग्य के क्षेत्र में खटर पटर कर रहे हैं। आपके व्यंग्य विवेक पूर्ण होते हैं। पाठको का रंजन करते हैं। उनके व्यंग्य में विट और आयरनी का करंट बिना कटौती दौड़ता रहता है। इसलिये वे लगातार प्रकाशित होते हैं।“
लालित्य ललित के अनुसार “विवेक रंजन श्रीवास्तव बेहतरीन व्यंग्यकार हैं व्यंग्य तो व्यंग्य वे कविता में भी उतने ही सम्वेदनशील है जितने प्रहारक व्यंग्य में।“
परवेश जैन, लखनऊ कहते हैं कि “परसाई जी की नगरी के श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी की रचनाओं में परसाई की पारसाई झलकती हैं। वे प्रत्येक व्यंग्य में गहन चिन्तन के पश्चात विषय का सावधानी से प्रवर्तन करते हैं। व्यंग्यकार विवेक को फ्रंट कवर पर लिखवा लेना चाहिए “चैलेंज।। पूरी पढ़ने से रोक नहीं सकोगें”।“
मुकेश राठौर के अनुसार “विवेक जी बोलचाल के शब्दों के बीच उर्दू और अंग्रेजी भाषा के शब्दों को खूबसूरती से प्रयोग करते हैं उनकी भाषा सरल,प्रवाहमान है जो पाठक को बहाते लिए जाती है। रचनाओं में यत्र-तत्र तर्कपूर्ण ‘पंच’ देखे जा सकते हैं। रचनाओं के शीर्षक बरबस ध्यान खींचते हैं।“
शशांक दुबे, मुम्बई बताते हैं “विज्ञान के विद्यार्थी होने के कारण विवेक जी के पास चीजों को सूक्ष्मतापूर्वक देखने की दृष्टि भी है और बगैर लाग-लपेट के अपनी बात कहने की शैली भी।“
हरीशकुमार सिंह, उज्जैन के शब्दों में “प्रख्यात व्यंग्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव के व्यंग्य आज के भारत के आम आदमी की व्यथा हैं। उसे राजनीति ने सिर्फ दाल रोटी में उलझा दिया है और अपने व्यंग्य में वे लगभग ऐसे सभी विषयों पर कटाक्ष करते हैं।“
रमेश सैनी, जबलपुर कहते हैं कि “विवेक रंजन जी के व्यंग्य दृष्टि सम्पन्न हैं जिसमें समाज और वर्तमान समय में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार किया गया है।लेखक की नजर मात्र विसंगतियों पर नहीं वरन मानवीय प्रवृत्तियों पर भी गई है जो कहीं न कहीं पाठक को सजग करती हैं।“
राकेश सोहम, जबलपुर ने कहा कि “आदरणीय विवेक रंजन की सक्रियता व्हाट्स एप्प के समूहों से मिलती है। रचनाओं में उतरने से पता चलता है कि उनकी दृष्टी कितनी व्यापक है। एक इंजीनियर होने के नाते तकनीकी जानकारी तो है ही। अपनी पारखी दृष्टी और तकनीकी ज्ञान को बुनने का कौशल उन्हें व्यंग्य के क्षेत्र में अलग स्थान प्रदान करता है।“
श्री गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त ने संचालन व श्री ओ पी सैनी ने आभार व्यक्त किया।
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
दि. 27 फेब्रुअरी “मराठी राजभाषा गौरव दिन” व “कुसुमाग्रज जन्म दिन” आणि दि. 28 फेब्रुअरी “विज्ञान दिन” साजरा होत आहे. या अनुषंगाने आम्ही आपल्याकडून साहित्य मागवले होते.या आवाहनाला आमच्या अपेक्षेपेक्षा खूपच उत्तम प्रतिसाद आपण दिला आहेत. त्यामुळे दि. 27, 28फेब्रुवारी आणि 1 मार्च हे तीन दिवस आपल्याला मराठी भाषा व विज्ञान याविषयीचे साहित्य वाचायला मिळणार आहे. आपण त्याचा आस्वाद घ्यालच.