हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 82 – गौरैया आती है…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना गौरैया आती है….। )

☆  तन्मय साहित्य  #  82 ☆ गौरैया आती है….  

रोज सबेरे खिड़की पर

गौरैया आती है

और चोंच से टिक-टिक कर

वह मुझे जगाती है।

 

उठते ही मैं उसे देख

पुलकित हो जाता हूँ

पूर्व जन्म का रिश्ता

कोई अपना पाता हूँ,

चीं चीं चीं चीं करते

जाने क्या कह जाती है……..

 

आँगन में कुछ दाने

चावल के बिखेरता हूँ

बाहर टंगे सकोरे में

पानी भर देता हूँ

रोज सुबह इस पानी से

वह खूब नहाती है………..

 

चहचहाहटें घर में

मेरे सुबह शाम रहती

इन पंखेरुओं की किलौल

सब चिंताएं हरती

साँझ, ईश वंदन, कलरव

के मन्त्र सुनाती है…………

 

मिलकर गले लगाएं

इस भोली गौरैया को

और सुरक्षा – संरक्षण

इस सोन चिरैया को

घर आँगन में जो सदैव

खुशियाँ बरसाती है…

रोज सबेरे खिड़की पर

गौरैया आती है।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आत्मकथा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

लघुकथा

☆ संजय दृष्टि – आत्मकथा ☆

बेहद गरीबी में जन्मा था वह। तरह-तरह के पैबंदों पर टिकी थी उसकी झोपड़ी। उसने कठोर परिश्रम आरम्भ किया। उसका समय बदलता चला गया। अपनी झोपड़ी से 100 गज की दूरी पर आलीशान बिल्डिंग खड़ी की उसने। अलबत्ता झोपड़ी भी ज्यों की त्यों बनाये रखी।

उसकी यात्रा अब चर्चा का विषय है। अनेक शहरों में उसे आइकॉन के तौर पर बुलाया जाता है। हर जगह वह बताता है,” कैसे मैंने परिश्रम किया, कैसे मैंने लक्ष्य को पाने के लिए अपना जीवन दिया, कैसे मेरी कठोर तपस्या रंग लाई, कैसे मैं यहाँ तक पहुँचा..!” एक बड़े प्रकाशक ने उसकी आत्मकथा प्रकाशित की। झोपड़ी और बिल्डिंग दोनों का फोटो पुस्तक के मुखपृष्ठ पर है। आत्मकथा का शीर्षक है ‘मेरे उत्थान की कहानी।’

कुछ समय बीता। वह इलाका भूकम्प का शिकार हुआ। आलीशान बिल्डिंग ढह गई। आश्चर्य झोपड़ी का बाल भी बांका नहीं हुआ। उसने फिर यात्रा शुरू की, फिर बिल्डिंग खड़ी हुई। प्रकाशक ने आत्मकथा के नए संस्करण में झोपड़ी, पुरानी बिल्डिंग का मलबा और नई बिल्डिंग की फोटो रखी। स्वीकृति के लिए पुस्तक उसके पास आई। झुकी नजर से उसने नई बिल्डिंग के फोटो पर बड़ी-सी काट मारी। अब मुखपृष्ठ पर झोपड़ी और पुरानी बिल्डिंग का मलबा था। कलम उठा कर शीर्षक में थोड़ा- सा परिवर्तन किया। ‘मेरे उत्थान की कहानी’ के स्थान पर नया शीर्षक था ‘मेरे ‘मैं’ के अवसान की कहानी।’

‘मैं’ के अवसान से आरंभ होता है सच्चा उत्थान।

©  संजय भारद्वाज

(प्रात: 6:57 बजे, 23.12.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -5 – जागेश्वर धाम या मंदिर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -5 – जागेश्वर धाम या मंदिर”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -5 – जागेश्वर धाम या मंदिर ☆

उत्तराखंड के प्रमुख देवस्थलो में “जागेश्वर धाम या मंदिर” प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है । उत्तराखंड का यह  सबसे बड़ा मंदिर समूह ,कुमाउं मंडल के अल्मोड़ा जिले से 38 किलोमीटर की दूरी पर देवदार के जंगलो के बीच में स्थित है । जागेश्वर को उत्तराखंड का “पाँचवा धाम” भी कहा जाता है | जागेश्वर मंदिर में 125 मंदिरों का समूह है, इसमें से 108 मंदिर शिव के विभिन्न स्वरूपों, अवतारों को समर्पित हैं व शेष मंदिर अन्य देवी-देवताओं के हैं ।  अधिकाँश मंदिरों में पूजा अर्चना नहीं होती है केवल  4-5 मंदिर ही  प्रमुख है और इनमे  विधि के अनुसार पूजन-अर्चन होता है । जागेश्वर धाम मे सारे मंदिर समूह नागर   शैली से निर्मित हैं | जागेश्वर अपनी वास्तुकला के लिए काफी विख्यात है। बड़े-बड़े पत्थरों से निर्मित ये विशाल मंदिर बहुत ही सुन्दर हैं।

प्राचीन मान्यता के अनुसार जागेश्वर धाम भगवान शिव की तपस्थली है। यहाँ नव दुर्गा ,सूर्य, हमुमान जी, कालिका, कालेश्वर प्रमुख हैं। हर वर्ष श्रावण मास में पूरे महीने जागेश्वर धाम में पर्व चलता है । पूरे देश से श्रद्धालु इस धाम के दर्शन के लिए आते है। यहाँ देश विदेश से पर्यटक भी खूब आते हैं पर कोरोना संक्रमण की वजह से अभी भीड़ कम थी  । जागेश्वर धाम में तीन मंदिरों ने हमें आकर्षित किया,  पहला “शिव” के ज्योतिर्लिंग स्वरुप का जागेश्वर मंदिर, जिसके  प्रवेशद्वार के दोनों तरफ द्वारपाल, नंदी व स्कंदी की आदमकद मूर्तियाँ  स्थापित है। मंदिर के भीतर, एक मंडप से होते हुए गर्भगृह पहुंचा जाता है। मंडप परिसर में ही शिव परिवार गणेश, पार्वती की कई मूर्तियाँ स्थापित हैं। गर्भगृह में  शिवलिंग के आकर्षक स्वरुप के दर्शन होते हैं। दूसरा  विशाल मंदिर परिसर के बीचोबीच स्थित शिव के “महामृत्युंजय रूप” का है ।  मंदिर परिसर के दाहिनी ओर अंतिम छोर पर, महामृत्युंजय महादेव मंदिर के पीछे की ओर,अपेक्षाकृत छोटे से मंदिर में  पुष्टि भगवती माँ की मूर्ति स्थापित है।

मंदिर परिसर के समीप ही एक छोटा परन्तु बेहतर रखरखावयुक्त संग्रहालय है। यहाँ संग्रहित शिल्प जागेश्वर अथवा आसपास के क्षेत्रों से प्राप्त हुए है। यहाँ शिलाओं पर तराशे अनेक  भित्तिचित्रों में  नृत्य करते गणेश, इंद्र या विष्णु के रक्षक देव अष्ट वसु, खड़ी मुद्रा में सूर्य, विभिन्न मुद्राओं में उमा महेश्वर और विष्णु , शक्ति के भित्तिचित्र चामुंडा, कनकदुर्गा, महिषासुरमर्दिनी, लक्ष्मी, दुर्गा इत्यादि के रूप दर्शनीय  हैं। इस संग्रहालय की सर्वोत्तम कलाकृति है पौन राजा की आदमकद प्रतिकृति जो अष्टधातु में बनायी गयी है। यह कुमांऊ क्षेत्र की एक दुर्लभ प्रतिमा है।

जागेश्वर भगवान सदाशिव के बारह ज्योतिर्लिगो में से एक है । यह ज्योर्तिलिंग “आठवा” ज्योर्तिलिंग माना जाता है | इसे “योगेश्वर” के नाम से भी जाना जाता है। ऋगवेद में ‘नागेशं दारुकावने” के नाम से इसका उल्लेख मिलता है। महाभारत में भी इसका वर्णन है ।  द्वादश ज्योर्तिलिंगों   की उपासना हेतु निम्न वैदिक मंत्र का जाप किया जाता है । इसके अनुसार  दारुका वन के नागेशं को आठवे क्रम में  ज्योर्तिलिंग माना गया है ।

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।

उज्जयिन्यां महाकालमोंकारममलेश्वरम्॥1॥

परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम्।

सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥

वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।

हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥

एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रात: पठेन्नर:।

सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥

एक अन्य मान्यता के अनुसार द्वारका गुजरात से लगभग 20-25 किलोमीटर दूर, भगवान शिव को समर्पित नागेश्वर मंदिर, शिव जी के बारह ज्योर्तिलिंग में से एक है एवं इसे भी आठवां ज्योर्तिलिंग कहा गया है । धार्मिक मान्यताओं के अनुसार  नागेश्वर का अर्थ है नागों का ईश्वर । यह विष आदि से बचाव का सांकेतिक भी है। रूद्र संहिता  में यहाँ विराजे शिव को दारुकावने नागेशं कहा गया है। मैंने अपने इसी ज्ञान के आधार पर पुजारी से तर्क किया । पुजारी ने सहमति दर्शाते हुए अपना तर्क प्रस्तुत किया कि दारुका वन का अर्थ है देवदार का वन और देवदार के घने जंगल तो सामने जटागंगा नदी के उस पार स्थित हैं । फिर पुराणों में द्वारका का उल्लेख नहीं है अत: यही आठवां ज्योतिर्लिंग है । यह भी आश्चर्य की बात है कि अल्मोड़ा शहर से  इस स्थल तक  पहुंचने के पूर्व चीड़ के जंगल हैं पर मंदिर समूह के पास केवल देवदार के वृक्ष हैं और इसके कारण सम्पूर्ण घाटी गहरे हरे रंग से आच्छादित है ।  जागेश्वर को पुराणों में “हाटकेश्वर”  के नाम से भी जाना जाता है |

यद्दपि जनश्रुतियों के अनुसार जागेश्वर नाथ के मंदिर को पांडवों ने बनवाया था तथापि इतिहासकारों ने इस समूह को 8 वी से 10 वी शताब्दी  के दौरान कत्यूरी राजाओ और चंद शासकों  द्वारा निर्मित बताया है ।

जागेश्वर के इतिहास के अनुसार उत्तरभारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाडियों के कुमाउं क्षेत्र में कत्युरीराजा था | जागेश्वर मंदिर का निर्माण भी उसी काल में हुआ | इसी वजह से मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक दिखाई देती है | मंदिर के निर्माण की अवधि को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा तीन कालो में बाटा गया है “कत्युरीकाल , उत्तर कत्युरिकाल एवम् चंद्रकाल” | अपनी अनोखी कलाकृति से इन साहसी राजाओं ने देवदार के घने जंगल के मध्य बने जागेश्वर मंदिर का ही नहीं बल्कि अल्मोड़ा जिले में 400 सौ से अधिक मंदिरों का निर्माण किया था |जिसमे से जागेश्वर के आसपास  ही लगभग 150 छोटे-बड़े मंदिर है | मंदिरों के  निर्माण में  लकड़ी तथा चूने की जगह पर पत्थरो के स्लैब का प्रयोग किया गया है | दरवाज़े की चौखटे देवी-देवताओ की प्रतिमाओं से सुसज्जित हैं । इन प्रतिमाओं में शिव के द्वारपाल, नाग कन्याएं आदि प्रमुख हैं । कुछ मंदिरों में शिव के रूप भी उकेरे गए हैं । हमने शिव का तांडव नृत्य करते हुए एक प्रतिमा देखी । बीच में शिव नृत्य मुद्रा में एक हाथ में त्रिशूल तो दूसरे हाथ में सर्प लिए थिरक रहें हैं, उनके शेष दो हाथ नृत्य मुद्रा में हैं तो मुखमंडल में प्रसन्नता व्याप्त  है व नृत्य में लीं शिव के नेत्र बंद हैं । ऊपर की ओर शिव के दोनों पुत्र कार्तिकेय व गणेश विराजे हैं तो नीचे वाद्य यंत्रों के साथ गायन-वादन करती स्त्रियाँ हैं । एक अन्य प्रतिमा में शिव योग मुद्रा में बैठे हैं । उनके दो हाथों में से एक में दंड है तो दूसरा हाथ आशीर्वाद मुद्रा में है । ऊपर की ओर अप्सराएँ दृष्टिगोचर हो रहीं हैं तो नीचे पृथ्वी पर संतादी शिव का आराधना कर रहे  हैं । इन दोनों शिल्पों के ऊपर शिव की  त्रिमुखी प्रतिमाएं हैं ।

इस स्थान में कर्मकांड, संबंधी  जप, पार्थिव पूजन, महामृत्युंजय जाप, नवगृह जाप, काल सर्पयोग पूजन, रुद्राभिषेक आदि होते रहते है । इन आयोजनों के लिए जागेश्वर मंदिर प्रबंधन समिति के कार्यालय में संपर्क कर निर्धारित शुल्क जमा करना होता है । कोरोना संक्रमण काल में ऐसे आयोजन कम हो रहे थे और एक दिन पूर्व इसकी बुकिंग हो रही थी । लेकिन इस डिजिटल युग में विज्ञान अब आध्यात्म से मिल गया है और काउंटर पर बैठे सज्जन ने मुझे आनलाइन रुद्राभिषेक कराने की सलाह दी । मैंने तत्काल तो नहीं पर कुछ समय पश्चात विचार कर शुल्क जमा कर दिया व रसीद प्राप्त करली । आचार्य ललित भट्ट ने अपने व्हाट्स एप मोबाइल नंबर का आदान प्रदान किया और फिर मेरे भोपाल वापस आने पर संपर्क स्थापित कर आनलाइन रुद्राभिषेक का विधिवत पूजन दिनांक 04.12.2020 को करवाया । भोपाल में हम दोनों भाई, अमेरिका से भतीजा व कनाडा से पुत्र सपरिवार इस धार्मिक आयोजन में शामिल हुए । गणेश पूजन, गौरी पूजन, नवगृह पूजन के बाद आचार्य जी ने शिव का विधिवत पूजन अर्चन किया फिर जल से अभिषेक कर शिव का सुन्दर श्रृंगार किया । साथ ही हमें आनलाइन जागेश्वर नाथ के सम्पूर्ण मंदिर समूह के दर्शन कराए ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 33 ☆ जिंदगी चलती रही☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता जिंदगी चलती रही। ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 33 ☆

☆ जिंदगी चलती रही ☆

जिंदगी दोजख जीती रही,

मैं जन्नत समझ जिंदगी जीता रहा,

जिंदगी आगे दौड़ती रही,

मैं जिंदगी के पीछे चलता रहा,

जिंदगी हर पल साँस देती रही,

मैं  साँसे यूँ ही उड़ाता रहा,

जिंदगी बिना रुके चलती रही,

मैं रुक-रुक कर उसे झांसा देता रहा,

जिंदगी अच्छा बुरा सब देती रही,

मैं अच्छाई नजरअंदाज कर उसे बुरा कहता रहा,

जिंदगी सम्भलने का मौका देती रही,

मैं ठोकरें खा कर जिंदगी को भला बुरा कहता रहा,

जिंदगी उतार-चढ़ाव दिखाती रही,

मैं जिंदगी की सच्चाई से मुंह मोड़ता रहा,

यह क्या जिंदगी तो मुझे ही छोड़ कर जाने लगी,

मैं रो-रोकर जिंदगी से जिंदगी की भीख मांगता रहा ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४६॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४६॥ ☆

 

त्वन्निष्यन्दोच्च्वसितवसुधागन्धसम्पर्करम्यः

स्रोतोरन्ध्रध्वनितसुभगं दन्तिभिः पीयमानः

नीचैर वास्यत्य उपजिगमिषोर देवपूर्वं गिरिं ते

शीतो वायुः परिणमयिता काननोदुम्बराणाम॥१.४६॥

 

जलासेक से तब मुदित, धरणि उच्छवास

मिश्रित पवन रम्य शीतल सुखारी

जिसे शुण्ड से पान करते द्विरद दल

सध्वनि , पालकी ले बढ़ेगा तुम्हारी

तुम्हें देवगिरि पास गमनाभिलाषी

वहन कर पवन मंद गति से चलेगा

कि पा इस तरह सुखद वातावरन को

वहां पर सपदि वन्य गूलर पकेगा

 

शब्दार्थ    … जलासेक = पानी की फुहार

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 85 – सत्यमेव ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 85 ☆

☆ सत्यमेव ☆

तू आहेस  माझ्या काळजाचा

एक हिस्सा!

जळी,स्थळी, काष्टी, पाषाणी

दिसावास सदासर्वदा

इतका प्रिय !

धुवाधाँर पावसात

भिजावे तुझ्यासमवेत,

एखादी चांदणरात्र

जागून काढावी

तुझ्या सहवासात,

हातात हात गुंफून

पादाक्रांत करावा

सागरी किनारा,

असे भाग्य नसेलही

लिहिले माझ्या भाळी,

पण माझ्या वर्तमानावर

लिहिलेले तुझे नाव–

ज्याने पुसून टाकला आहे,

माझा ठळक इतिहास,

त्याच तुझ्या नावाचा ध्यास

आता मंत्रचळासारखा!

भविष्याच्या रूपेरी वाटेवर

नसेलही तुझी संगत

पण माझ्या कहाणीतले

तुझे नाव

मध्यान्हीच्या सूर्यप्रकाशाइतके

प्रखर आणि

सत्यमेव!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कधी वाटे मला… ☆ सौ. मुक्ता महेश अभ्यंकर

सौ. मुक्ता महेश अभ्यंकर

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ कधी वाटे मला… ☆ सौ. मुक्ता महेश अभ्यंकर ☆ 

कधी वाटे मला………..

कधी वाटे मला गाणे होऊन जगावे

सुरांच्या धबधब्यात निरंतर न्हावे

कधी वाटे मला फुल होऊन जगावे

वारा नेइल तिथपर्यंत सुगंधरूपी दर्वळावे

कधी वाटे मला वारा  होऊन जगावे

निसर्गातील हिरवेपण शोधीत निरंतर वहावे

कधी वाटे मला वारा  होऊन जगावे

निसर्गातील हिरवेपण शोधीत निरंतर वहावे

कधी वाटे मला खऱ्या अर्थाने माणूस म्हणून जगावे

दिव्यत्वाची प्रचिती येताच कर माझे जुळावे.

 

© सौ. मुक्ता महेश अभ्यंकर

संपर्क –साहाय्यक प्राध्यापिका, श्रीमती काशीबाई नवले कॉलेज ऑफ फार्मसी,  पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ प्यादं….भाग -3 ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

☆ जीवनरंग ☆ प्यादं….भाग -3 ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

भारतीला मुलाला संभाळूनच अभ्यास करावा लागणार म्हटल्यावर आम्ही शिक्षकांनी दुसरे उपाय काढले. आठवड्यातले तीन दिवस इंग्रजी, गणित, सायन्सचे तास लागून होते. तेव्हढ्या तासाना भारतीने यायचं, मराठी शाळा दुपारी सुटायची. तिथल्या दोन तीन मुली बाळाला खेळवायला हौशीने तयार झाल्या. जादा तास शाळेच्या वेळाच्या बाहेर होते. तेव्हा भारतीची लहान भावंडं बाळाला संभाळणार. भारतीने दिवसभराचा अभ्यास मुलींकडून घ्यायचा, बाळ झोपलेल्या वेळेत तो करायचा. तिला ‘अपेक्षित’ ची गाईडं दिली. तिच्या कडून फक्त काठावर पासिंगची अपेक्षा ठेवली. हे सर्व प्रयत्न परिक्षार्थी होते खरे, पण त्या पास होण्यामुळेच तिचा पुढचा मार्ग खुला होणार होता.आम्ही सर्वानी चंग बांधला की भारतीला दहावीतून बाहेर काढायची. भारतीच्या वडिलांना इतका सगळा पत्ता लागू द्यायचा नव्हता. कारण त्यांना मुलींच्या शिक्षणासाठी  खटाटोप करणं मान्यच नव्हतं. ते दिवसभर घरी नसायचेच. आई आमच्या बाजूला होती. असा अभ्यास करणं भारतीला खूप अवघड होतं, पण ती प्रयत्नाला लागली होती. तिच्या घटक चाचण्या, सहामाही झाली. वर्गातल्या बऱ्याच मुलांसारखे तिला इंग्रजी, गणितलाच फक्त मार्क कमी पडले. शाळेच्या चांगल्या निकालाला भारतीच्या पासिंगचा उपयोग ग्रहीत धरून मुख्याध्यापकांनीही आम्हाला सहकार्य दिलं. फॉर्मचे पैसे सगळ्या शिक्षकांनी भरले म्हटल्यावर वडिलांनीही  फार खळखळ केली नाही.

पैसा एव्हढाच त्यांचा प्रॉब्लेम होता. तरीही त्यांना अंधारात ठेवणं बरोबर नाही असं सगळ्यांचं मत पडलं. परिक्षेच्या वेळी अडमडायला नकोत.

मी भारतीचे वडील घरी असतील अशा वेळीच तिच्याकडे गेले. म्हटलं, नीट समजावून सांगू म्हणजे ते ऐकतील. ते काही राक्षस नाहीत.

सगळं घर सामसूम होतं. वडील घरात नव्हतेच. आई होती. भारतीचे नाक डोळे रडून लाल झाले होते. चेहरा सुजला होता. मी तिच्या पाठीवर हात ठेवल्यावर तिला हुंदकाच फुटला.

‘काय झालं’मी विचारलं. तिला बोलताच येईना. आईच म्हणाली, “बाईनू, लय गुत्ता झालाय बगा. अनिताची सासू म्हनतिया, ‘भारतीला सून करून घ्येतो, म्हंजी पोराचंबी ती करील नि तुम्हास्नीबी तिच्या लगिनाचं बघाय नको.  भारतीचा बा तयार झालाय. म्हनतोय, लग्नाचा खरचं वाचला. उरावरचं  वझं उतरेल.एकदा त्यांच्या मनाने घ्येतलं की न्हाई ऐकायचा. जावयाकडून पैसं बी घ्येतलं असतील. तसंच काही तरी दिसतय्. बाईनू, तुमी ह्यात पडू नगासा. तुमास्नी फुकटचा तरास व्हील.”

भारतीच शिक्षण ही आता हाताबाहेरची गोष्ट झाली होती. अज्ञानाच्या, दारिद्रयाच्या  काळ्याकुट्ट अंधारात आपली मिणमिणती दिवली विझून जाणार हे आम्ही ओळखलं.

मोडक्या चुलीच्या जागी नवी चूल बसवतात तशी भारती आपल्या बहिणीच्या संसारात जाऊन बसणार होती.  सोपा हिशोब होता. भारती म्हणजे एक प्यादं होतं. त्याला कुठेही, कसंही सरकवलं तरी चालणार होतं.

मी तिच्या पाठीवर हात ठेवला. म्हटलं ‘रडू नकोस. बाळाला नीट वाढव. ते मोठं झालं की तुझ्या शिक्षणाचं बघू.’

तेव्हढ्या आशेने सुध्दा भारतीचे डोळे लकाकले. जवळच पटकुरावर पडलेलं, सावळं, गुटगुटीत  बाळ मुठी चोखता चोखता हसत होतं. ते आनंदी भविष्याचं सूचक होतं का?

बऱ्याच वर्षानी भारती ए. डी. ई. आय होऊन शाळा तपासायला आली. मधल्या काळातली सगळी हकिगत तिने सांगितली. नवऱ्याला पुण्याला नोकरी मिळाली होती. बाळाला संभाळून तिने शिक्षण चालू केलं होतं. नोकरी मिळवली होती. सगळ्या वाटचालीत नवऱ्याने तिला साथ दिली होती. प्यादं पुढे पुढे सरकलं होतं. त्याने बरीच मजल मारली होती.

शाळेतले संस्कार फुकट जात नाहीत, ते टिकतात, बहरतात सुध्दा.

समाप्त.

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

मो. – 8806955070

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बालगुरु ☆ श्री रवींद्र पां. कानिटकर

 ☆ जीवनरंग ☆ बालगुरु ☆ श्री रवींद्र पां. कानिटकर ☆ 

रणरणत्या मे महिन्यात मधल्या सुट्टीत एक महत्वाचे काम असल्याने मी चालत चालत बाहेर पडलो होतो. एक दहा बारा वर्षाचा मुलगा अनवाणी पायाने चाललेला पाहून त्याला म्हटले, “चल बाळा, तुला आपण तुझ्या मापाची चप्पल किंवा स्लीपर, तुझ्या पसंतीने जवळच असलेल्या दुकानातून घेऊया.” क्षणभराचीही उसंत न घेता तो म्हणाला, “काका, नको मला चप्पल किंवा स्लिपर, पण आपुलकीने विचारल्याबद्दल आभारी आहे. मला आत्तापासून याची सवय करुन घ्यावी लागेल म्हणजे भविष्यात काहीच जड जाणार नाही.” त्याच्या उत्तराने मी अचंबित झालो, मला त्याच्या रुपात बालगुरुच भेटला.

© श्री रवींद्र पां. कानिटकर

सांगली

– श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ लोकसाहित्य – राजस बाळराजा – भाग-2 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ विविधा ☆ लोकसाहित्य – राजस बाळराजा – भाग – 2 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर☆ 

बाळ आणखी मोठं होतं. दूरवर शहरात जाऊ लागतं, तरी आईच्या दृष्टीने तो तान्हं बाळच. ‘काई गावाला ग गेलेल्याची।. वाट ग बघितो दारातून। काई ग माझा ह्यो तान्हा बाळ। हिरा ग झळकतो शहरातून।।’ आशा या बाळाचं कौतुक करताना, त्याच्या सामर्थ्याबद्दल सांगताना ती म्हणते, ‘ल्क्ष्मीबाईनं लई फैलाव मांडिला। बाळांनी माझ्या पैसा राउळी बांधिला।।’ ज्या ल्क्ष्मीचा डंका पिटला जातोय, तिचं देऊळ माझ्या बाळानं पैसे घालून बांधलय. इथे कुठे कुठे बाळाच्याऐवजी बंधुजीदेखील म्हंटलेलं दिसतं.     (म्हणणारी आपल्या भावनेनुसार मूळ ओवीत असा बादल करत जाते. लाकसाहित्य परिवर्तनशील असतं, ते असं.)  आशा आपल्या कौतुकाच्या, अपूर्वाईच्या बाळासाठी ती सूर्य नारायणाकडे औक्ष मागते.

‘सकाळी उठूनी हात मी जोडिते सूर्याला। बाळाला माझ्या औक (औक्ष) मागते हिर्‍याला।।’ कुठे कुठे बाळाऐवजी बंधूला, सख्याला किंवा चुड्याला म्हणजेच भ्रताराला असा पाठभेद आहे. कुठे कुठे भावाला औक्ष आणि चुड्याला चंद्रबळ (सामर्थ्य) असंही म्हंटलय.

मुलाप्रमाणेच मुलीचही कौतुक आईनं केलय. मुलीच्या पोटात माया असते, असं ती म्हणते. मुलगा म्हणजे दारचा मोगरा आणि मुलगी म्हणजे दारची जाई, असं ती सांगते. कुणी विचारतं, बाई तुला मुलं किती? ती उत्तरते, ‘एक गं पुतळी दोन मोती।।’ मुलगी झाली म्हणून कुणी हिणवलंच तर ती म्हणते, ‘लेकापरिस लेक कशास व्हावी उणी। एका खाणीतली रत्न दोन्ही।। बाळी खेळून आली.  तिचं कौतुकानं वर्णन करत ती म्हणते, ‘काई वाळं  नि गं साखळयांनं। माझी पायरी दणाणली। काई गं बंटुली माझी बाळ। बाळ खेळून गं आली।।’ आपली मुलगी म्हणजे नक्षत्रच. चांदणीसारखी सुंदर असेही उल्लेख अनेक ओव्यातून आलेले आहेत.

कधी कुणी मुलगी झाली, म्हणून हिरमुसली, तर तिची समजूत घालताना दुसरी एखादी म्हणते,

‘काई लेकीच्या ग आई। नको म्हणूस ग हलईकी। काई ग लेकाच्या आईला। कुणी केलीया ग पालखी।।’ तिला सुचवायचं आहे, मुलाच्या आईची स्थिती काय मुलीच्या आईपेक्षा वेगळी थोडीच आहे?

आईचे  मुलावर किती प्रेम, किती माया, त्याच्यासाठी जीवदेखील द्यायची तिची तयारी. याबद्दलची मुलाला काळीज कापून देणार्‍या आईबद्दलची लोककथा सर्वांना माहीत आहे. असंच एक व्यावहारिक मन हेलावून टाकणारं सत्य एका ओवीतून व्यक्त झालय. केळीचा घड काढताना आधी केळ तोडली जाते , ही वस्तुस्थिती. ती ओवीत आशा शब्दात प्रकट होते,

‘काई जल्मानि ग मंदी… केळी गं बाईचा जन्म न्यारा… काई पोटीच्या बाळापाई… आधी ग देती आपला गळा…’

वरील ओव्यातून आलेले ‘काई’, ‘गं’ किंवा अन्य काही ओव्यातून आलेले ‘बाळयाचा’ किंवा ‘बापयाचा’ मधील ‘या’ किंवा ‘अग’ यासारख्या शब्दांना विशिष्ट अर्थ नसतो. हे शब्द सूर धरण्यासाठी, लयीसाठी त्यात येतात.

बाळाबद्दल आई अगदी भरभरून बोलते. विशेष म्हणजे त्यात कुठेही तक्रारीचा सूर नाही की नकारात्मक भाव नाही. इतर नात्याच्या वर्णनात कधी कधी नापसंतीचा सूर दिसतो. पण इथे मात्र बाळ कसंही असलं, किरकिरं, अशक्त, रोगट, रडवं असलं,  व्रात्य, खोडकर असलं, तरी त्याचं कौतुकच केलेलं दिसतं. बाळाचं कौतुक करणार्‍या ओव्या पूर्वी बायका चढाओढीनं म्हणायच्या, हल्ली अंताक्षरी गायली जाते, तशा.

क्रमश:  पुढील लेखात हवशा भ्रातार

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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