हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 42 ☆ त्रिपदिक मुक्तिका ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘त्रिपदिक मुक्तिका.’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 42 ☆ 

☆  त्रिपदिक मुक्तिका ☆ 

*

निर्झर कलकल बहता

किलकिल न करो मानव

कहता, न तनिक सुनता।

*

नाहक ही सिर धुनता

सच बात न कह मानव

मिथ्या सपने बुनता।

*

जो सुन नहीं माना

सच कल ने बतलाया

जो आज नहीं गुनता।

*

जिसकी जैसी क्षमता

वह लूट खा रहा है

कह कैसे हो समता?

*

बढ़ता न कभी कमता

बिन मिल मिल रहा है

माँ का दुलार-ममता।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 41 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 41 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 41) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 41☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

वजह तो थी तुम्हें

बदनाम करने की

कसम खाई  थी

मगर चुप रहने की…

 

अश्क पलकों  में

समेट डाले  सारे

ये इंतहा थी मेरी

ज़ुर्म  सहने  की..!.

 

The motive was

to disrepute you

But, had vowed

to keep quiet…

 

Restrained all the

tears in the eyelashes

This was the limit of 

bearing the atrocities..!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

ये  जो  तुमने

खुद को बदला है…

ये  बदला   है,

या “बदला” है…!

 

The way you’ve

changed yourself…

This is a change,

Or a “revenge”…!

   ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

वैसे तो कई किरदार निभायें हैं,

इस छोटी सी जिंदगी में

लेकिन ग़मगीन होकर खुश

दिखना निहायत मुश्किल था!

 

Although played so many

Characters in this short life

The most challenging was to

Look happy while being sad

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 73 – हिंदूधर्माचरण एक संस्कारित भारतीय जीवनशैली ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष आलेख  “हिंदूधर्माचरण एक संस्कारित भारतीय जीवनशैली। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य#73 ☆ हिंदूधर्माचरण एक संस्कारित भारतीय जीवनशैली ☆

हमारा देश भारतवर्ष पौराणिक कथाओं तथा मतों के अध्ययन के अनुसार आर्यावर्त के जंबूद्वीप के एक खंड का हिस्सा है जिसे अखंडभारत के नाम से पहचाना जाता है। राजा दुष्यंत के महाप्रतापी पुत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। लेकिन हमारे अध्ययन के अनुसार देश में तीन भरत चरित्र हमारे सामने है जो सामूहिक रूप से हमारे देश हमारी संस्कृति तथा हमारे समाज  के आचार विचार व्यवहार तथा मानवीय गुणों की आदर्श तथा अद्भुतछवि विश्व फलक पर प्रस्तुत करता है।

जिसमें समस्त मानवीय मूल्यों आदर्शों की छटा समाहित है जो हमें हमारे सांस्कृतिक संस्कारों की याद दिलाता रहता है, जो इंगित करता है कि बिना संस्कारों के संरक्षण के कोई समाज उन्नति नहीं कर सकता। संस्कार विहीन समाज टूटकर बिखर जाता है और अपने मानवीय मूल्य को खो देता है। वैसे तो हर धर्म और संस्कृति के लोग अपने देश काल परिस्थिति के अनुसार अपने अपने संस्कारों के अनुसार व्यवहार करते है, किन्तु, हमारा समाज  षोडश संस्कारों की आचार संहिता से आच्छादित है। इसमें मुख्य हैं 1-गर्भाधान संस्कार 2-पुंशवन संस्कार 3-सीमंतोन्नयन संस्कार 4-जातकर्म संस्कार 5-नामकरण संस्कार 6-निष्क्रमण संस्कार 7- अन्नप्राश्न संस्कार 8-मुण्डन संस्कार 9-कर्णवेधन संस्कार 10-विद्यारंभ संस्कार 11-उपनयन संस्कार 12-वेदारंभ संस्कार 13-केशांत संस्कार 14-संवर्तन संस्कार 15-पाणिग्रहण अथवा विवाह संस्कार 16-अंतेष्टि संस्कार।

इनमें से हर संस्कार का‌ मूलाधार आदर्श कर्मकांड पर टिका हुआ है। हमारे आदर्श ही हमारी संस्कृति की जमा-पूंजी है, यही तो हर भरत चरित्र हम भारतवंशियो की आचार-संहिता की चीख चीख कर दुहाई देता है जिसका आज पतन होता दीख रहा है। आज जहां भाई ही भाई के खून का प्यासा है। वहीं त्रेता युगीन भरत चरित भ्रातृप्रेम तथा स्नेह की अनूठी मिसाल प्रस्तुत करता है, तो द्वापरयुगीन भरत चरित शूर वीरता शौर्य तथा साहस की भारतीय परम्परा की गौरवगाथा की जीवंत झांकी दिखाता है।

वहीं जडभरत का चरित्र हमारी आध्यात्मिक ज्ञान की पराकाष्ठा को स्पर्श करता दीखता है ये नाम हर भारतीय से आदर्श आचार संहिता की अपेक्षा रखता है जो हमारे समाज की आन बान शान के मर्यादित आचरण की कसौटी है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.५०॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.५०॥ ☆

 

त्वय्य आदातुं जलम अवनते शार्ङ्गिणो वर्णचौरे

तस्याः सिन्धोः पृथुम अपि तनुं दूरभावात प्रवाहम

प्रेक्षिष्यन्ते गगनगतयो नूनम आवर्ज्य दृष्टिर

एकं भुक्तागुणम इव भुवः स्थूलमध्येन्द्रनीलम॥१.५०॥

नदी तीर लेने तुझे आ गये को

स्वयं श्यामघन ! विष्णु के वर्णधारी

बँधी दृष्टि से अचल अपलक नयन से

लखेंगे सभी सिद्धगण व्योमचारी

चर्मण्वती की विपुलधार जो

दूर नभ से दिखेगी सरल क्षीण धारा

उस पर पड़े तुम दिखोगे वहां

ज्यों , धरा के गले में तरल नील माला

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रेम लता ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ प्रेम लता ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆ 

सहजची भेटता तू आणि मी,

काही चमकले हृदयीच्या हृदयी!

बीज अचानक मनी पेरले

प्रीतीचे  का ते काहीतरी!

तिसऱ्या दिवशी सूर्यप्रकाशी,

बीज अंकुरे मम हृदयी!

प्रेम पाण्याचे सिंचन करिता,

अंकुर वाढे दिवसांमाशी!

मनी वाढली प्रेम न् आशा,

रोप वाढता पाचव्या दिवशी!

प्रीतफूल उमलले त्यावरी,

‘प्रपोज डे’ च्या त्या दिवशी!

फूल प्रीतीचे मिळे मला,

‘व्हॅलेंटाईन डे’ च्या दिवशी,

फूल बदलले फळात तेव्हा,

परिपक्व प्रेम मिळे हृदयी!

 

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

 

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सल ☆ श्री रवींद्र पां. कानिटकर

जीवनरंग ☆ सल ☆ श्री रवींद्र पां. कानिटकर ☆ 

करोनाची लस सरकारने सर्वांना देण्याची घोषणा केली. अडेलतट्टू  काटदरेंनी मात्र कुठल्याही परिस्थितीत ती लस टोचून घेणार नसल्याचे सांगून टाकले.  नुकतेच    एका   लग्न समारंभाला हजर राहण्याचे निमित्त झाले व लगेचच ताप येऊन धाप लागू लागल्याने त्यांना  दवाखान्यात नेले.

करोनाची लागण झाल्याने चारच दिवसात त्यांचे निधन झाले. काटदरे काकूंना मात्र काकांनी लस टोचून न घेतल्याची सल कायमची टोचत राहिली.

© श्री रवींद्र पां. कानिटकर

सांगली

≈श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ मजवरी तयाचे ‘प्रेम’ खरे ☆ श्री अमोल अनंत केळकर

श्री अमोल अनंत केळकर

 ☆ विविधा ☆ मजवरी तयाचे ‘प्रेम’ खरे ☆ श्री अमोल अनंत केळकर ☆ 

मजवरी तयाचे ‘प्रेम’ खरे ??

हॅलो  सर तुम्ही पत्रिका बघता का? असा एखाद्या मुलीचा फोन येणे (आजकाल व्हाटसप मेसेज), किंवा सर तुम्ही पत्रिका जुळवून देता का? (न जुळणारी पत्रिका) असे फोन  यायला लागले की ओळखायचे “संत प्रेम बाबा दिवस” ( १४/२)  लवकरच येत आहे.

माझ्या जोतिषाच्या अभ्यासात ‘ग्रहांकित ‘प्रेम’ प्रकरणांची ‘प्रमेय’ मला अनेक गोष्टी शिकवून गेली. माझी सगळ्यात जास्त भकिते जी  बरोबर आली  आहेत  ती ‘ प्रेम ‘ – प्रकरणाबाबतच. ( लगेच हुरळून जाऊन माझा नंबर घेऊ नका, पुढे वाचा. भाकिते बरोबरच आली  यात शंकाच नाही पण ती भकिते  प्रेमभंग होईल /  अपेक्षित मुलाशी -मुलीशी लग्न होणार नाही अशीच होती. आणि ती एकूण एक बरोबर आली. बाकी संपर्क करायला हरकत नाही, तुमची मर्ज्जी ? )

शास्त्राच्या अभ्यासाबरोबर मानशास्त्राचा ही अभ्यास असणे जोतिषाला गरजेचे असते असे सांगितले जाते. याची प्रचिती  ग्रहांकित ‘प्रेम प्रकरणात’ नक्की येते. म्हणजे अगदी हातात पत्रिका नसताना ही समोरचा जातक  जे बोलतो त्यावरून  हे ‘प्रेमप्रकरण’ आहे हे लगेच लक्षात येते. त्याचवेळी शुक्र – मंगल  रुलींग मध्ये असला किंवा त्यावेळी  पंचमात चंद्र वगैरे असला की या गोष्टीची १०० % खात्री समजावी. याची सुरवातीलाच दोन उदाहरणे दिली आहेत.

नुसत्या पत्रिकेचा विचार करता  पत्रिकेतील पंचम स्थानाचे ( प्रेमप्रकरण ), सप्तम स्थानाशी ( विवाह) सूत जुळले की  प्रियकर/ प्रेयसी   ‘पंचम’दांची ‘ सप्त’ सुरांतील गाणी  आळवायला सुरवात करून सप्त-पदीच्या अपेक्षापूर्ती साठी झटू लागतात. खरं म्हणजे पाचव्या पासून सप्तम स्थान फक्त २ पाय-या दूर  पण पत्रिकेतील   ‘ मंगल, राहू ‘ सारख्या व्हिलनशी  सामना करून  जे तिथं पोहोचतात  ते प्रियकर/प्रेयसी चे नवरा/बायको होतात. जे पोहचू शकत नाहीत  ते अपेक्षाभंगाचे दु:ख कायम ठेऊन राहतात. टँरो कार्डेस मध्ये “२ ऑफ कप्स” ( आनंदी जोडपं असं चित्र असलेलं  कार्ड )  हे कार्ड मला पंचम ते सप्तम स्थान या दोन पाय-या यशस्वी पणे पार करणा-यांच  प्रतीक वाटत. तर “३ ऑफ स्वाँर्ड” हे कार्ड   प्रेमभंग झालाय हे स्पष्ट सांगतं

जेव्हा जेव्हा प्रेमभंग हा शब्द ऐकतो तेव्हा तेंव्हा वपुंचं हे लेखन आठवते //

प्रेमभंग झालेल्या तमाम मित्र-मैत्रिणींनो माझ्या अशाच एका मित्राला त्याच्या प्रेयसीनं जे सांगितलं, ते सुत्र हे –

संसार हा धीरगंभीर, उदात्त रागदारीसारखा असतो. तासंतास चालणारा. केंव्हा केंव्हा फार संथ वाटणारा. आणि मध्येच तुझ्यासारख्या मित्राची आठवण, ही मोठा राग आळवून झाल्यानंतर ठुमरीसारखी असते. दहा मिनिटात संपणारी; पण सगळी मैफल गुंगत ठेवणारी, मरगळ घालवणारी. पण त्याचं काय असतं, की काही काही स्वर वर्ज्यच असतात. त्याला काय करणार? – म्हणून तुझ्या आठवणीत, सहवासात माझा नवरा बसू शकत नाही आणि एकमेकांच्या संसारात आपणा एकमेकांना स्थान नाही. वर्ज्य झालेला स्वर वाईट नसतो, वगळायचा असतो, तर एक राग उभा करायचा असतो, त्यासाठी आपण तो खुषीनं विसरायचा असतो. वाद्यातल्या तेवढ्या पट्ट्या उपटून फेकून द्यावयाच्या नसतात. त्यांना गाता – गाता, वाजवता फक्त चुकवायचं असतं

हे सूत्र तुम्हाला पेललं, तर संसाराची तुमची मैफल, रागदारीप्रमाणे बहरेल.

//

‘प्रेम ‘ म्हणलं की पाडगावकरांची ही एक कविता हटकून आठवते. हीच कविता  “ग्रहांकित प्रेमाला”   अनुसरून अशी  लिहावीशी वाटली

 

प्रेम  म्हणजे प्रेम म्हणजे प्रेम  असतं

तुमच्या आमच्या ‘पत्रिकेत’  अगदी सेम नसतं

 

काय म्हणता?

या ओळी चिल्लर वाटतात?

काव्याच्या दृष्टीने थिल्लर  वाटतात?

 

असल्या तर असू दे

फसल्या तर फ सु दे

 

तरीसुध्दा

तरीसुध्दा

 

प्रेम  म्हणजे प्रेम म्हणजे प्रेम  असतं

तुमच्या आमच्या पत्रिकेत अगदी सेम नसतं

 

पंचमातील शुक्रकडून

प्रेम करता येतं

सप्तमातील  राहू कडून

‘अंतरजातीय” होता येतं

घरचा विरोध पत्करून

गुरुजींना धरता येतं

पत्रिका न पाहता ही’

पळून जाता येतं

 

प्रेम  म्हणजे प्रेम म्हणजे प्रेम  असतं

तुमच्या आमच्या ‘पत्रिकेत’अगदी सेम नसतं

//

१४ फेब्रुवारी या ‘ संत प्रेमबाबा  दिनाच्या ‘ निमित्याने सदर लेखन  संत प्रेम बाबांना प्रेम पूर्वक  समर्पीत ?

(ग्रहांकित ‘ प्रेमी ) अमोल  ?

 

©  श्री अमोल अनंत केळकर

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, kelkaramol.blogspot.com

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ व्हॅलेन्टाइन डे…. ☆ सौ. राधिका भांडारकर

सौ. राधिका भांडारकर

 ☆ विविधा ☆ व्हॅलेन्टाइन डे…. ☆ सौ. राधिका भांडारकर ☆ 

व्हॅलेंटाईन डे ही संकल्पना पाश्चांत्यांची असली तरी,एक प्रेम दिवस म्हणून त्याचं महत्व वैश्विक आहे. प्रेम, प्रेमिक, शृंगार, प्रणय हे मानवी जीवनाचेच भाव विश्व आहे. स्त्री पुरुषांच्या नात्यातला तो एक भावपूर्ण बंध आहे. मग सहजच कवी बींच्या काव्यपंक्ती आठवतात,

।।हे विश्वाचे आंगण आम्हा दिले आहे आंदण

ऊणे करु आपण दोघे जण

जन विषयाचे कीडे यांची धाव बाह्याकडे

आपण करु शुद्ध रसपान रे…..।।

असा शुद्ध प्रेमाचा संदेश देणारा,या दृष्टीकोनांतून आपण या व्हॅलेंटाईन डे चा सोहळा करुया..

तिसर्‍या शतकाच्या सुमारास रोम मधे क्लाउडीयस नामक राजा होता. त्याने, सैन्यात भरती होणार्‍यांनी लग्न न करण्याचा आदेश काढला होता. तरीही व्हॅलेंटाईन हा पादरी (priest) सैनीकांची गुपचुप लग्न लावून द्यायचा. हे राजाला कळल्यावर त्याने व्हॅलेंटाईनला देशद्रोही म्हणून अटक केली आणि त्यास फाशीची शिक्षा ठोठावली.तेव्हांपासून तेथील प्रेमी युवक व्हँलेॅटाईन या व्यक्तीच्या नावाने हा दिवस साजरा करत आहेत.. वास्तविक हा बलीदान दिवस आहे. तारीख होती १४ फेब्रुवारी. म्हणून दर वर्षी हा दिवस १४ फेब्रुवारीलाच साजरा केला जातो. आणि या सणाच्या साजरेपणातली मूळ कल्पना ही शुद्ध प्रेमाचीच आहे.

मात्र आपल्या संस्कृती रक्षकांनी टीकेचा भडीमार या व्हॅलेंटाईन डे वर केला. त्यांच्या मते युवापीढीचे राष्ट्रांतर आणि धर्मांतर करणारा दिवस म्हणजे व्हॅलंटाईन डे! तो साजरा करणे म्हणजे नीतीहीनतेचे अनुकरण. आणि हिंदु संस्कृतीचे अवमूल्यन!!!

वास्तविक हिंदु संस्कृती ही सर्वधर्म समावेशक आहे.

सर्व धर्मातल्या रीतीभातींकडे सहिष्णुतेने पाहणारी आपली संस्कृती आहे… ती इतकीही लेचीपेची नाही की केवळ अनुकरणापायी तिचा र्‍हास होईल.

वास्तविक होळी हाही एकप्रकारचा प्रेम दिवसच आहे. मनातील जळमटं, किल्मीषं, कडवटपणाला अग्नी देउन प्रेमभावनेला ऊजाळा देणाराच तो दिवस आहे.

एक रंगाचा दिवस. एकमेकांवर रंग उडवून प्रेमानंद साजरा करण्याचा दिवस. राधा कृष्णाच्या प्रेमरंगाचीच आठवण.

आता ग्लोबलायझेशन झाले. तांत्रिक विकासाने जग जवळ आले. खर्‍या अर्थाने विश्व एक कुटुंब बनले.

मग सणांची, सोहळ्यांची आनंदी संकेतांची देवाण घेवाण मुक्तपणे होण्यास संकुचीत विचारांचे अडसर कशाला?

शेवटी मर्यादा पाळणं, स्वैराचार, अनाचार टाळणं, शुद्धता राखणं, हे व्यक्तीसापेक्षच आहे.

म्हणूनच १४ फेब्रुवारीच्या, वैश्विक प्रेमाचा संदेश देणार्‍या व्हॅलेंटाईन डे चं आनंदाने स्वागत करुया…. त्याचा थोडा विस्तार करुया वाटल्यास… फक्त युवा प्रेमींपुरताच मर्यादित न ठेवता,सारीच प्रेममय नाती जपण्याचा, व्यक्त होण्याचा संकल्प करुया… देऊया, या ह्रदयीचे त्या ह्रदयाला…  सारेच करुया शुद्ध रसपान…..!!!

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ विधुर (एक आत्मचिंतन) – भाग 2 ☆ सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

☆ मनमंजुषेतून ☆ विधुर (एक आत्मचिंतन) – भाग 2 ☆ सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई ☆ 

नवरा बायकोच्या जोडी तली एकटी बायको राहिली तरी ती घरातल्या काहीना काही कामात रमू शकते. वेळ घालवू शकते. पण विधुर मात्र घरातल्या कामात लुडबूड करू शकत नाही. त्याची कुचंबणाच होते.हल्ली आम्ही जेष्ठ नागरिक असे काही मित्र कोपऱ्यावरच्या बागेत गप्पा मारायला जमतो. आणि वेळ चांगला जातो. पण अलीकडे कोणी ना कोणी गप्पा मारताना तोंड चालवायला काहीतरी आणत असतात. मी घरातल्यांना काही करायला न सांगता, बाहेरच्या बाहेर काहीतरी घेऊन जातो. आणि मग घरी जातानाही सर्वांना घेऊन जातो.

तू खरं तर किती उद्योग करत होतीस. इतकंच नाही तर पै पै करून पैसे साठवत होतीस. का तर म्हातारपणी औषध आणि दवाखान्याला किती लागतील कुणास ठाऊक?असं नेहमी म्हणायचीस. सुजय डॉक्टर  असूनही तुला अस का वाटत होतं काय माहित! सात आठ किलोमीटर अंतरावर त्याचा दवाखाना होता. मला जरा काही झालं की., तू त्याला फोन करून लगेच बोलवायचीस. एकदा त्यांनी तुला सांगितलं की “आई बारीक-सारीक साठी बोलवत जाऊ नको ग दवाखान्यात पेशंट थांबलेले असतात मग गोंधळ होतो” स्वाभिमानी होतीस तू. तब्बेतीसाठी पुन्हा नाही कधी त्याला फोन केलास तू. खरच तुला औषध, उपचार, दवाखाना, डॉक्टर कशाचीच गरज नाही कधी  लागली. झटकन सगळ्यांना सोडून निघून गेलीस. तुझे कष्टाचे पैसे आम्हालाच ठेवून गेलीस. सगळं सगळं आठवत बसतो. आणि बेचैन होतो ग! त्या पैशापेक्षा तू राहिली असतीस तर! पैशापेक्षा तुझी लाख-मोलाची किंमत आज तु नसताना मला पोखरून काढतीय. विधूर‌‌‌ म्हणून मी जीवन कंठतोय.

कितीतरी गोष्टी आठवत बसतो. कितीतरी निर्णयाच्या वेळी माझा नवरेपणाचा अहंकार जागृत व्हायचा. आणि सुनांसमोर लोकांसमोरही मी तुला मापात काढायचो. महिलामंडळासारख्या ठिकाणी अलीकडे कितीतरी स्पर्धांमध्ये तू बक्षीस मिळवून दाखवलीस. अभिनंदनाचा वर्षाव झाला. अभिमान सिनेमातल्या सारखा माझ्या अस्मितेला तडा गेला. तुझ कौतुकही लोकांना सांगायचो. पण ते सांगताना त्यातही कुठतरी मीपणा असायचाच. नवरे पणाचा अहंकार होता तो! एक गोष्ट माझ्या लक्षात यायला हवी होती,  की कोणासमोर तुला मी बोलायला नको होत. तीच गोष्ट एकटं  असताना सांगता आली असती.  तुला खरं तर माणसांची आवड होती. पण तरीही स्वतंत्र संसाराचीही इच्छा होती.पण ती कधीच पूर्ण झाली नाही. हल्ली कधीतरी जवळच्या संबंधातल्या कोणाकडेतरी कार्यक्रमाला जाण्याचा प्रसंग येतो.अनेक जण जोडी जोडीने आलेले पाहिले की माझ्या डाव्या बाजूच मोकळं अस्तित्व मला सलत रहात. सगळे तुझी आठवण काढून ते कौतुक करायला लागले की आठवणींचा कढ येतो. आणि त्या बेचैनीला शब्द नसतात.

छोटा सोन्या नातू आजोबांजवळ आला. आजोबांना भूतकाळातून वर्तमानात आणल त्यांनी. आजोबाना  म्हणाला “डोळे मिटा आजोबा. गंमत दाखवतो. आजोबांनी बंडोपंतानी डोळे मिटले. दोन मिनीटात  सोन्याने आजोबांच्या डोळ्यासमोर फोटो  धरला. आणि “आता उघडा डोळे”. आजीचा आणि तुमचा फोटो!  गंमत आहे की नाही ! हा फोटो मी तुम्हाला दाखवायला आणलाय. छान आहे ना? डोळ्याला थोडे कमी दिसत होते पण तरीही ते फोटो कडे पहात राहिले. अस्ताला निघालेल्या सूर्याचा एक सोनेरी तांबूस किरण फोटोवर पडला. आणि तिन्हीसांजातही तो फोटो त्यांना छान दिसला. आजोबांच्या बंडोपंतांच्या चेहऱ्यावर एक स्मित हास्य उमटलं. फुलंल आणि खुलल.

समाप्त

©  सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

बुधगावकर मळा रस्ता, मिरज.

मो. ९४०३५७०९८७

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग-१७) – ‘नामी शक्कल’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

☆ सूर संगत (भाग-१७) – ‘नामी शक्कल’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆

चेन्नईत आल्यावर जेमतेम महिन्याभरात एक गोष्ट पहिल्यांदा पाहिली तेव्हां मला मोठा धक्का बसला होता. संध्याकाळी सहाच्या आसपासची वेळ असावी. घरापासून थोड्या दूर अंतरावर असणाऱ्या मंडईत मी भाजी आणण्यासाठी निघाले होते. अचानक ढोल-ताश्यांचा जोरजोरात आवाज येऊ लागला आणि त्या रस्त्यावरच्याच एका गल्लीतून एक मिरवणूक बाहेर येताना दिसली. पुढं लोक पायघड्या पडतील अशी भरपूर फुलं उधळत होते, पाठोपाठ आपल्याकडच्या ढोलक, ताशा, गोलाकार पण छोट्या आकाराचे ढोल अशी वाद्यं वाजवणारे लोक होते आणि त्या लोकांसोबत, आगे-मागे असलेले लोक बेभान होऊन नाचत होते, मधेच फटाक्यांची माळ ही वाजली. ह्या पुढच्या लवाजम्यापाठोपाठ एक सुंदर सजवलेली चंदेरी रथसदृश गाडीही येऊ लागली. त्या सगळ्याच प्रकाराकडं मी कुतुहलानं पाहात होतेच, मात्र तो सजलेला रथ पाहाताक्षणी वाटलं कि, थोडं पुढं जाऊन कोणत्या देवाची मिरवणूक आहे पाहावं.

ती मिरवणूक बऱ्यापैकी टप्प्यात आली तसा माझा चेहरा उत्साहानं, आनंदानं ओसंडून वाहात असावा. कारण माझ्याकडं विचित्र नजरेनं पाहात गर्दीत माझ्या शेजारी असणारा एक मध्यमवयीन माणूस हातवारे करून मला काहीतरी सांगू लागला. तेव्हां तामिळ अजिबातच समजत नव्हतं. मात्र त्याच्या हातवाऱ्यांवरून तो मला ‘पुढं जाऊ नको’ असं सांगत असावा. दोन क्षण थांबून मी पाहिलं तर मिरवणुकीत सगळे पुरुष लोकच होते आणि म्हणून तो माणूस मला एकटीला पुढं जाऊ नको असं म्हणत असेल असं वाटलं. मग मी त्याला हिंदीत ‘भगवान का दर्शन करना है’ असं सांगत हात जोडून देवाला नमस्कार करतात तसा नमस्कारही करून दाखवला. पण त्याला ते काही कळलं नसावं. तो आणखी मोठ्या आवाजात मला परत तामिळमधे काहीतरी सांगू लागला. मग मी त्याला ‘गॉड गॉड… नमस्कारम्‌  नमस्कारम्‌’ असं म्हणून परत ती नमस्काराची ऍक्शन केली. तोवर अगदी जवळ आलेल्या मिरवणुकीला लोक आपोआप बाजूला होत वाट करून देत होते आणि मी मात्र किमान डोकावायला तरी मिळावं म्हणून जंगजंग पछाडत होते. बाजूच्या माणसानं परत काहीतरी सांगितलं आणि मी परत ‘गॉड, गॉड’ म्हणत किंचित रथाच्या दिशेनं पुढे जाताना त्या माणसानं कपाळावर हात मारून घेतल्याचं तेवढं मला दिसलं.

मी त्या रथापासून साधारण चार फूट अंतरावर असेन तेवढ्यात त्या रथासोबत चालणारा एक माणूस मी पुढं येताना पाहून वस्सकन्‌ माझ्यावर खेकसला. तसंही कानाला सवय होईपर्यंत ह्या भाषेतलं साधं बोलणं ऐकलं तरी माझ्या काळजात धडकी भरायचीच, ते वसकणं तर अजून जोरदार होतं म्हणून मी जामच घाबरले. आपसूक दोन पावलं मागं येतायेता टाचा उंचावून रथात डोकावायची संधी मात्र मी साधली… पण तिथं जे काही दिसलं त्यानं माझ्या काळजाचा ठोकाच चुकला. त्या रथात एक मृत शरीर होतं आणि ती एक अंत्ययात्रा होती. अशाप्रकारे वाजतगाजत जाणारी अंत्ययात्रा मी पहिल्यांदाच पाहिली होती म्हणून तो चांगलाच धक्का होता. आता ह्या गोष्टीची सवय होऊन गेल्यानं काहीच वाटत नाही, मात्र तेव्हां हे पचायला फारच जड गेलं होतं.

नंतर ओळखी होतील तसं आजूबाजूला तोडक्यामोडक्या हिंदी-इंग्रजीतून साधलेल्या संवादातून काही गोष्टी कळल्या. गेलेल्या माणसाला रडत निरोप न देता अशाप्रकारे निरोप दिला कि लोकांना नाचताना पाहून ते आनंदात आहेत अशा समजुतीमुळं जाणाऱ्या आत्म्याला क्लेश होत नाहीत, शेवटचा निरोप रडून-भेकून कशाला द्यायचा आनंदानं द्यावा असंही कुणी म्हणालं, कुणी म्हणालं कि लोक नाचतात तेव्हां माणूस गेल्यानं झालेलं दु:ख आत साठून न राहाता त्याचा आपोआप निचरा व्हायला मदत होते, त्या दु:खानं धक्का बसला असेल तर त्याची तीव्रता आपोआप कमी होऊन मन हलकं व्हायला मदत होते. तसे भाषेच्या अडसरामुळं सगळे संवादही वरवरचेच होते. खरं कारण काहीही असो, मात्र मला त्यावेळी ते पटायला आणि पचायला खूपच कठीण गेलं होतं.

मध्यंतरी माझे कलीग असलेल्या चेन्नईतल्या एका सुप्रसिद्ध आणि अभ्यासू मृदंगवादकांच्या एका लेक्चरला गेले होते. तेव्हां त्यांनी ‘रिदम’ ह्या संकल्पनेविषयी बोलताना विषय अचानक ह्या गोष्टीकडं वळला. माझे कलीग लहानपणापासून अमेरिकेत वाढलेले आणि क्वचित चेन्नईत येऊन-जाऊन असे असायचे. दहा-बारा वर्षांपूर्वी ते चेन्नईला कायमचे स्थायिक झाले त्यावेळी अशी वाजतगाजत अंत्ययात्रा त्यांनीही पहिल्यांदा पाहिली. ते सांगत होते, ‘माझ्या मनात आलं कि हा रिदम आणि इतकं जोशपूर्ण वादन तर आपल्याला पटकन नाचायला प्रवृत्त करणारं आहे. मग ह्या दु:खाच्या क्षणी ह्याचा वापर का केला जात असावा? एका अगदी बुजुर्ग व्यक्तीकडं ह्या परस्परविरोधी वाटणाऱ्या गोष्टीबाबत चौकशी केली असता ती व्यक्ती सहजपणे म्हणाली कि, तो माणूस खरंच मृत झाला आहे कि अजून जिवंत आहे हे पाहाण्यासाठी असं वाद्यवादन केलं जातं!’ पुढं ते म्हणाले, ‘हे ऐकताच मी अवाक्‌ झालो. वाद्यवादनाचा/संगीताचा मन आणि शरीराशी असलेला संबंध एक वाद्यवादक म्हणून मला चांगलाच माहिती आहे. मात्र त्याचा हा असा वापर मला स्तिमित करणारा होता.’

ते ऐकून आपल्या पूर्वीच्या पिढ्यांची बुद्धीमत्ता आणि तर्कशास्त्राच्या आधारे गोष्टींचा वापर करण्याची क्षमता जाणवून त्यांच्याविषयीचा माझा आदर नव्याने कैकपटींनी वाढला. ज्या काळी वैद्यकशास्त्र ही गोष्ट अजून अस्तित्वात यायची असावी, हृदय सुरू आहे कि थांबलं आहे हे दाखवणारं मशीन अस्तित्वात यायचं होतं  त्याकाळी हुशार मानवानं माणूस मृत झालाय कि जिवंत आहे, हे पडताळून पाहाण्याची ही नामी शक्कल योजली असावी… तीही अर्थातच उपलब्ध साधनांच्या आधारे! ‘जोशपूर्ण वाद्यवादनातून निर्माण होणाऱ्या ध्वनीमुळं माणसाच्या शरीरामधे उत्पन्न होणरी उत्तेजना’ ह्या गोष्टीचा असा उपयोग खरोखरीच स्तिमित करणारा आहे.

बराचवेळ माणूस उठलं नाही, त्याच्या हृदयाचे ठोके ऐकू आले नाहीत, त्याच्या नाकासमोर धरलेलं सूत हाललं नाही तर तो मृत झाल्याचं मानण्यात येत असावं. मात्र कुठंतरी अशीही शक्यता असेल कि काही क्षणांसाठी त्या व्यक्तीची शुद्ध हरपली असेल, नाडीचे ठोके अत्यल्प असतील परंतू तो पूर्ण मृतावस्थेत गेला नसेल तर अशा जोशपूर्ण वाद्यवादनाने उत्तेजित होऊन त्याच्यात काहीतरी हालचाल जाणवेल. अशाप्रकारे तो जिवंत असल्याचं लक्षात आल्यावर त्याचा जीव वाचवण्याचे काही प्रयत्न करता येतील. संगीताचा माणसाच्या मन आणि शरीराशी असलेल्या संबंधाचा इतका सूक्ष्म अभ्यास आणि वास्तविकतेमधे ‘मृत्यूच्या खात्रीसाठी’ त्याचा असा चपखल वापर ह्याचं हे अत्यंत नेमकं उदाहरण म्हणता येईल.

क्रमश:…

© आसावरी केळकर-वाईकर

प्राध्यापिका, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  (KM College of Music & Technology, Chennai) 

मो 09003290324

ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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