हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यावरण के बैरी बनने से बचिए ☆ श्री राजकुमार जैन राजन

श्री राजकुमार जैन राजन 

ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री राजकुमार जैन राजन जी का हार्दिक स्वागत है। आज प्रस्तुत है आपका एक सारगर्भित आलेख ‘पर्यावरण के बैरी बनने से बचिए । हम भविष्य में भी ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आपकी विशिष्ट रचनाओं को साझा करने का प्रयास करेंगे।)

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☆ आलेख ☆ पर्यावरण के बैरी बनने से बचिए ☆ श्री राजकुमार जैन राजन ☆

भारतीय संस्कृति में ऋषि-मुनियों ने पर्यावरण को स्वच्छ और वातावरण को स्वस्थ रखने के लिए अनेक व्यवहारिक पक्ष समाज को दिए हैं। धरती पर जीवन संतुलित बना रहे, आबाद रहे इसके लिए पर्यावरण संरक्षण आवश्यक है। मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, वन, पहाड़, नदी, झील आदि के महत्व को उन्होंने जाना और समझा। इसके संरक्षण हेतु अनेक मार्ग भी बताए। जब हम स्वच्छ पर्यावरण की बात करते हैं, तो यह केवल हानिकारक गैसों और रसायनों से मुक्त होने की बात नहीं होती। पर्यावरण में हमारे आस-पास का सारा माहौल शामिल है। इस माहौल को दूषित करने के अपराध सहभागी हर वह व्यक्ति है, जो कहीं भी थूक देते हैं, गुटका-पाउच, पॉलीथिन सड़कों पर कहीं भी फैंक देते हैं। अपने घर का कचरा समेटकर किसी तरह थैले में ठूंस कर कहीं भी पटक आते हैं, जला देते हैं …। क्या आपको अंदाजा है कि कचरे के प्रकार, मात्रा और उसके उचित निस्तारण के प्रति अपने उदासीन रवैये के चलते पर्यावरण को क्षतिग्रस्त करने में हम सब बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।

आधुनिक युग में वैज्ञानिक और तकनीकी विकास का एक भयानक पहलू है पर्यावरणीय असंतुलन।जिसके कारण धरती की सेहत लगातार गिरती जा रही है। धरती पर पादप जगत और जीव जगत एक दूसरे पर आश्रित हैं। यह सहजीवन जितना सहज होगा, दुनिया मे उतनी ही खुशहाली, हरियाली रहेगी। हजारों सालों से यह संतुलन बरकरार रहा, लेकिन धीरे धीरे जब इंसानी आबादी विस्तार लेने लगी और उसके अस्तित्व के लिए प्राकृतिक संसाधन कम पड़ने लगे, तो इसके लिए पेड़ -पौधों को काटा जाने लगा। नदियों को बाँधा जाने लगा और पहाड़ों को क्षरित किया जाने लगा, तो पर्यावरण संतुलन बिगड़ने लगा। परिणामतः मानव जाति के अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया। यह ठीक है कि विज्ञान ने हमको बहुत कुछ दिया है, जिससे मानव बहुत सरल व सुखी हो गया है। परंतु अपनी तृष्णाओं व अनन्त विकास-विस्तार, संवेदनहीनता, बौद्धिकता की लालसा, बेइंतहा भाग-दौड़ से मानवता का स्वभाव भी अधिक मारक व उग्र होता जा रहा है। तकनीकी के ज्यादा प्रयोग और मुनाफा कमाने के चक्कर में मानव ने जल, थल, नभ सभी कुछ को ही मथ डाला है। आज मानव विकास के मार्ग पर तेजी से बढ़ रहा है वहीं बड़े-बड़े कल-कारखानों की चिमनियों से लगातार उठने वाली जहरीली गैसें, धुआँ वायुमंडल में घुलती जा रही है। बड़ी-बड़ी मशीनों का शोर वायु प्रदूषण के साथ-साथ पर्यावरण को दूषित कर रहा है। प्राणवायु देने वाले पेड़ों को काटकर राजमार्ग बनाये जा रहे है। कॉलोनियां बसाई जा रही है। इससे धरती पर जीवनदायनी ऑक्सीजन की कमी होती जा रही है। मनुष्य के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। कई तरह की बीमारियां पनप रही है।

मानव जीवन को भौतिक सुविधाएं तो प्राप्त हो रही है, परन्तु पृथ्वी पर मौजूदा जीवन आधारित स्त्रोत तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं । भूमि के अतिरिक्त दोहन व उत्खनन से जैव-विविधता, पशु-पक्षी, वनस्पति, जल, नदियां, तालाब, झीलें, पहाड़ धीरे-धीरे विलुप्ति के कगार पर पहुंच रहे हैं। विभिन्न प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन के साथ धरती के तापमान में लगातार बढ़ोतरी ने धरती के ऋतु चक्र को ही गड़बड़ा दिया है। युद्ध जैसी विभीषिकाओं से उत्सर्जित रासायनिक पदार्थ व गैसें हमारे प्राकृतिक संसाधन को ही नहीं, बल्कि समूचे वायुमंडल को विषाक्त कर रहे हैं। पूरी धरती का दम प्रदूषण से घुट रहा है। इस घुटन के प्परिणाम स्वरूप ही तो प्राकृतिक आपदाएं बढ़ने लगी है। भूकम्प, अतिवृष्टि, पहाड़ों के टूटना, सुनामी जैसे खतरे बढ़ने लगे गए हैं। इन बढ़ते खतरों से मानव जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ता जा रहा है। हम इस बात पर गर्वकर सकते हैं कि मोबाइल फोन, लेपटॉप, कम्प्यूटर, टी. वी., माइक्रोवेव ओवन, मेडिकल उपकरण, एयर कंडीशनर आदि की संख्या कुल आबादी से कई गुनाअधिक हो गई है।हर दिन इनमें से कई हज़ार खराब होते हैं या पुराने होने के कारण कबाड़ में डाल दिए जाते हैं। सभी इलेक्ट्रिक उपकरणों का मूल आधार ऐसे रसायन होते हैं जो जल, जमीन, वायु, मानव और समूचे पर्यावरण को इस हद तक नुकसान पहुंचाते हैं कि उबरना लगभग ना मुमकिन है। यही ई-कचरा है। यही बात प्लास्टिक व प्लास्टिक उत्पादों के बारे में कहीं जा सकती है। इनसे निकलने वाले जहरीले तत्व और गैसें मिट्टी व पानी मे मिलकर उन्हें बंजर और विषैला बना देती है।

पृथ्वी, जल, अग्नि, हवा तथा वनस्पति ये सब पंचभूत तत्व मिलकर पर्यावरण की रचना करते हैं। इन सबमें प्रकृति जन्य संतुलन बना रहना  मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक है। धरती के स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए हमें अपनी जीवन चर्या को इर तरह नियंत्रित करना चाहिए कि जिससे प्रकृति के साथ सहयोग, समन्वय और समरसता बनी रहे। उपभोगवादी संस्कृति और अति स्वार्थपूर्ण प्रवृतियों को बदलने की जरूरत है, तभी मानवता का भविष्य व पृथ्वी का अस्तित्व सुरक्षित रह सकता है। विश्व के विभिन्न देशों की सरकारों को जागरूक होकर पर्यावरण संरक्षण के लिए कारगर उपायों की तरफ शीघ्रता से चिंतन करना चाहिए। बूंद-बूंद  से घड़ा भरता है। सरकारें तो इस दिशा में कार्य करेगी है, पर धरती के आम नागरिक होने के नाते पर्यावरण संरक्षण के लिए हर व्यक्ति अपने-अपने प्रयास ईमानदारी पूर्वक करने चाहिए।  व्यक्ति अपनी सोच, अपने कर्म, अपने उद्देश्य को बदलें। सबको सही समय पर दिशा मिले, क्योंकि बिना महत्वाकांक्षी-मन को संयमित किये पर्यावरण दूषित होने से बच नहीं  सकता। कितनी विचित्र बात है कि एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो सब कुछ पाकर भी खुद को खो देने के जतन में लगा है। दूसरों की समस्याओं का समाधान ढूँढते-ढूँढते स्वयं अपनी अस्मिता और अस्तित्व खोने की ओर अग्रसर है। कहाँ गया वो आदमी, जो स्वयं को कटवाकर भी वृक्षों को कटने से रोकता था? गोचर भूमि का एक ग़ज़ टुकड़ा भी किसी को हथियाने नहीं देता था। जिसके लिए जल की एक-एक बूंद भी जीवन जितनी कीमती थी। कत्लखानों में कटती गायों की निरीह आहें जिसे बेचैन कर देती थी।जो वन्य जीवों के संरक्षण के लिए पेड़ लगाना अपना धर्म मानता था।  वातावरण को स्वच्छ करने के लिए तुलसी का पौधा हर घर -आँगन की शोभा हुआ करता था। जो आदमी धरती को माँ की तरह सम्मान देता था, अफसोस कि ऐसा आदमी दुनियावी विकास की आंधी में कहीं खो गया है। आज आदमी खुद पर्यावरण बैरी बन गया है। जब आदमी के भाव, विचार और कर्म बदलते हैं तो उसका प्रभाव बाहरी पर्यावरण पर भी पड़ता है। दूषित पर्यावरण दूषित वृत्तियों का परिफलन है। इस लिए जरूरी है कि प्रकृति-संतुलन और सुरक्षा के लिए व्यक्ति स्वयं के चरित्र को बदले। शुरुआत हमें अपने आप से करनी होगी।

आज हमारी फैलाई गंदगी हमारी ही सांसों में घुल रही है, भोजन-पानी मे मिल रही है। हमारा फैलाया कचरा हमें ही बीमार कर रहा है। क्या हम जानते हैं कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने में हम खुद रोज कितना योगदान देते हैं? एकबार अपनी जीवन शैली पर नज़र डालें। रोज जाने -अनजाने कितना कचरा फैलाते है हम? भारत मे सार्वजनिक स्थलों, धर्मस्थलों, बाग-बगीचों आदि जगहों पर फैली गंदगी को देखकर बाकी दुनिया को लगता है कि गंदगी फैलाना हमारा मौलिक अधिकार है। क्या आप कभी ऐसा सोचते है? हम विदेशों में जाते हैं, एयरपोर्ट या हाई प्रोफाइल मॉल में जाते हैं तो वहां चिप्स का खाली पैकेट या चॉकलेट का रैपर भी डस्टबिन नहीं दिखने पर जेब में रख लेते हैं, तो हर जगह सही काम क्यों नहीं करते? अपने आप को धार्मिक कहते हैं लेकिन धर्मस्थलों पर गंदगी फैलाने से बाज़ नहीं आते? दुनिया भर में आप अपने प्रकृति प्रेमी होने का ढिंढोरा पीटते हैं, और विकास के नाम पर सैकड़ों पेड़ कटवा देते हैं। क्या आप पर्यावरण की महत्ता, उसकी सुरक्षा का समुचित ज्ञान अपने बच्चों को देते हैं? कोई भी कार्य केवल सरकार के बूते नहीं हो सकता। पर्यावरण की स्वछता नागरिकों का भी कर्तव्य है। हम बस एक बार अपनी जीवन शैली पर नज़र डालें। किसी के प्रति नहीं, हम खुद के, अपने परिजनों और आनेवाली अपनी पीढ़ियों के प्रति जवाबदेह हैं। गंदगी केवल बीमार पर्यावरण, रुग्ण हालात, लोग और माहौल पैदा करेगी। जब समय और पीढ़ी सवाल पूछेगी, तो क्या हमारे  पास जवाब होगा? धरती की पुकार कानों में कसक पैदा कर रही है कि पर्यावरण के सुधार के लिए लग जाओ ताकि स्वच्छ हवा, पानी मनुष्य को मिलता रहे। धरती को पेड़ों से आच्छादित करदो ताकि जीवनदायिनी हवा कम न हो। मानव जीवन बचाना है तो पर्यावरण बचाना ही हमारी प्राथमिकता हो। अगर आप देश, समाज के लिए मुफ्त में कुछ करना चाहते हैं, तो गंदगी न फैलाएं। यह पाप मत कीजिये। खुद सफाई रखिये और इसके लिए आगे बढ़कर पहल कीजिये। पर्यावरण प्रदूषण के दुष्प्रभावों से बचने के लिए पेड़ों को बचाइए, गंदगी मत फैलाइये और पर्यावरण के बैरी बनने से बचिए। धरती और मानवता आपकी आभारी रहेगी।

© श्री राजकुमार जैन राजन 

सम्पर्क – चित्रा प्रकाशन , आकोला -312205 (चित्तौड़गढ़) राजस्थान

मोबाइल :  9828219919

ईमेल – [email protected]

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -3 – कौसानी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -3 – कौसानी”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -3 – कौसानी ☆

कौसानी में हम भाग्यशाली थे कि सुबह सबेरे हिमालय की पर्वत श्रंखला नंदा देवी के दर्शन हुए, जो कि भारत में कंचन चंघा के बाद दूसरी सबसे ऊँची चोटी है, व कौसानी आने का मुख्य आकर्षण भी ।

कौसानी में उस स्थान पर जाने का अवसर मिला जहाँ जून 1929 में गांधीजी  ठहरे थे। यहाँ वे अपनी थकान मिटाने दो दिन के लिये आये थे पर हिमालय की सुन्दरता से मुग्ध हो वे चौदह दिन तक रुके और इस अवसर का लाभ उन्होने गीता का अनुवाद करने में किया । इस पुस्तिका को उन्होने नाम दिया “अनासक्तियोग”। गान्धीजी को कौसानी की प्राकृतिक सुन्दरता ने मोहित किया और उन्होने इसे भारत के स्विटजरलैन्ड की उपमा दी। गांधीजी जहाँ ठहरे थे वह भवन चायबागान के मालिक का था । कालान्तर में उत्तर प्रदेश गान्धी प्रतिष्ठान ने इसे क्रय कर गान्धीजी की स्मृति में आश्रम बना दिया व नाम दिया अनासक्ति आश्रम । यहाँ एक पुस्तकालय है, गान्धीजी के जीवन पर चित्र प्रदर्शनी है, सभागार है व गान्धी साहित्य व अन्य वस्तुओं का विक्रय केन्द्र । अनासक्ति आश्रम से ही लगा हुआ एक और संस्थान है सरला बहन का आश्रम । इसे गान्धीजी की विदेशी शिष्या मिस कैथरीन हिलमैन ने 1946 के आसपास स्थापित किया था। उनके द्वारा स्थापित कस्तुरबा महिला उत्थान मंडल इस पहाडी क्षेत्र के विकास व महिला सशक्तिकरण में बिना किसी शासकीय मदद के योगदान दे रहा है और पहाड़ी क्षेत्र में कृषि व कुटीर उद्योग के लिए  औजारों का निर्माण कर रहा है  । दोनो पवित्र  स्थानों के भ्रमण से मुझे आत्मिक शान्ति मिली।

कौसानी प्रकृति गोद में बसा छोटा सा कस्बा अपने सूर्योदय-सूर्यास्त, हिमालय दर्शन व सुरम्य चाय बागानो के लिये तो प्रसिद्ध है ही साथ ही वह जन्म स्थली है प्रकृति के सुकुमार कवि , छायावादी काव्य संसार के प्रतिष्ठित ख्यातिलव्य  सृजक सुमित्रानंदन पंत की। पंतजी के निधन के बाद उनकी जन्मस्थली को संग्रहालय का स्वरुप दे दिया गया है। संग्रहालय के कार्यकर्ता ने हमें उनका जन्म स्थल कक्ष दिखाया, उनकी टेबिल कुर्सी दिखाई, पंत जी के वस्त्र और साथ ही वह तख्त और छोटा सा बक्सा भी दिखाया जिसका उपयोग पंतजी करते रहे। पंतजी के द्वारा उपयोग की सामग्री दर्शाती है कि उनका रहनसहन सादगी भरा एक आम मानव सा था। संग्रहालय में बच्चन, दिनकर, महादेवी वर्मा, नरेन्द्र शर्मा आदि कवियों के साथ पंत जी के अनेक छायाचित्र हैं। एक कक्ष में बच्चन जी के पंतजी को लिखे कुछ पत्र व बच्चन परिवार के साथ उनका चित्र प्रदर्शित है। सदी के महानायक का नाम अमिताभ रखने का श्रेय भी पंत जी को है। एक बडे हाल में पंतजी द्वारा लिखी गई पुस्तकें एक आलमारी में सुरक्षित हैं तो कम से कम बीस आलमारियों में उनके द्वारा पढी गई किताबें। दुख की बात यह है की संग्रहालय और  उसके रखरखाव पर  सरकार का ज्यादा ध्यान नहीं है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 31 ☆ फितरत ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता फितरत। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 31 ☆ फितरत

यह  मेरी  फितरत है,

जिससे धोखा खाता हूं भरोसा फिर भी उसी पर करता हूँ ||

 मेरा नसीब कुछ ऐसा है,

रोज जहां ठोकर खाता हूँ खुद को फिर वहीं पाता हूँ ||

दिल की अजीब दास्ताँ है,

जो दिल तोड़ता है  फिर भी उसे ही पाना चाहता हूँ ||

अपनों से बेतहाशा मोहब्बत है,

चाहे कोई नफरत करे फिर भी उन पर भरोसा रखता हूँ ||

अपनों का भरोसा नहीं तोड़ता,

चाहे अपने भरोसा तोड़ दे फिर भी अपनों पर विश्वास करता हूँ||

अपनों पर से कभी विश्वास ना उठे,

इसलिए सब कुछ जानते हुए भी अपनों पर यकीन रखता हूँ ||

ड़र है अजनबियों की भीड़ में कहीं,

अपनों को खो ना दूँ इसीलिए अपनों  पर एतबार करता हूँ ||

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.३२॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.३२॥ ☆

 

दीर्घीकुर्वन पटु मदकलं कूजितं सारसानां

प्रत्यूषेषु स्फुटितकमलामोदमैत्रीकषायः

यत्र स्त्रीणां हरति सुरतग्लानिम अङ्गानुकूलः

शिप्रावातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः॥१.३२॥

 

जहां सारसों का कलित नादवर्धक

सदा प्रात प्रमुदित कमल गंधवाही

कि शिप्रा समीरण सुखद, तरुणियों के

मिटाता सुरति खेद प्रिय सम सदा ही

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 83 – आरक्षण …. ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 83 ☆

☆ आरक्षण  …. ☆

आयुष्याचा प्रवास करताना

प्रत्येकालाच हवी असते

आपापली आरक्षित जागा!

धकाधकीच्या जीवनात ही

लळत लोंबत जगण्याची वेळ

कधीच न आलेल्या प्रवाशाला तर

सहनच होत नाही गर्दीतली घुसमट!

आता निवांत रमावे इथे

असे वाटत असताना,

खिडकीतल्या चिमण्यांना

हुसकावून द्यावे अंगणात

तसे माहेरवाशिणींना

वागविले जाते तेव्हा

बंद करावा माहेरचाही प्रवास!

आपले अस्तित्व नाकारणा-यांकडे

थांबू नये मुक्कामाला!

सोडू नये आपली आरक्षित हक्काची जागा,

विनाआरक्षण करू नये प्रवास कदापिही!

कारण वयाचा आणि नात्याचा मान राखून

चटकन उठून जागा देणा-यांची पिढी

संस्कारली गेली नाही आपल्याकडून!

म्हणूनच करावी तरतूद,

आपल्या आरक्षणाची

कुठल्याही प्रवासाला निघण्यापुर्वी!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हल्ली…. ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील

श्री तुकाराम दादा पाटील

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ हल्ली…. ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील ☆ 

हल्लेच श्वापदांचे झालेत खूप हल्ली

रानातले शिकारी दमलेत खूप हल्ली

 

भलतेच बदल झाले वस्तीत पाखरांच्या

राव्यात कावळे ही लपलेत खूप हल्ली

 

बाजारपेठ ज्यानी काबीज आज केली

त्यांनीच देह त्यांचे विकलेत खूप हल्ली

 

भलत्याच चोचल्यानी केली दिवाळखोरी

त्यांचे लिलाव येथे घडलेत खूप हल्ली

 

रांधून वाढणारे गेले मरून सारे

बांधावया शिदोरी आलेत खूप हल्ली

 

जे पोसले बळे ते माजूरडे निघाले

खाऊन सकस खाणे सुजलेत खूप हल्ली

 

ऐकून भामट्यांची भलती मधाळ वाणी

स्वप्नात गुंतलेले फसलेत खूप हल्ली

 

सुखरूप मार्ग नाही जगण्यास आज उरला

वाटेत खाच खळगे पडलेत खूप हल्ली

 

©  श्री तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ आनंदाश्रम भाग-2 ☆ सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

☆ जीवनरंग ☆ आनंदाश्रम भाग-2 ☆ सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी ☆

तुम्ही सगळ्यानी आमच्याकडे आणि निलीमाकडे येऊन रहायचे. आपण एक ठराविक रक्कम एकत्र काढायची. एक तरुण सुशिक्षित जोडपं आपलं care taker म्हणून ठेवायचं म्हणजे ती बाई आपलं चहापाणी, नाश्ता, जेवण,  खाण्या पिण्याचे बघेल. नशिबाने आमच्यात पिणारे कोणी नव्हते म्हणा. आणि त्या जोडप्यांतला पुरुष सगळी बाहेरची कामं करेल. आपण फक्त खाना पिना, मज्जा करना. आणि आपले छंद जोपासणे. बरं त्यातून कधी कोणाला मुलांकडे जावेसे वाटले तर जाऊन यायचं. स्वतःच्या घरी दोन दिवस वाटलं तर जायचं. इतकंच काय पण स्वतःचं घर भाड्याने द्यायचे असेल तरी नंतर देऊ शकता. पण एक महिना बघू या. आपण सगळे कसे adjust होतो का? बरं वैद्यकीय मदत हवी तर एक बिल्डींग सोडून आमचे जुने जाणते डाॅक्टर आणि त्यांचा त्याच्याच सारखा हुशार डाॅक्टर मुलगा आणि क्लिनीक पण आहे. आपापल्या मुलांना विचारा. विचारपूर्वक निर्णय घ्या. आणि आठ दिवसाने सांगा.

रश्मीने शुभारंभाचा नारळ फोडला. ती म्हणाली “आपल्याला ही कल्पना एकदम 100% पटली.” दोन दिवस ती पेन्शनच्या कामासाठीं नाशिकहून दिरांकडून मुंबईला आली होती. माझ्याकडेच मी ठेवून घेतली होती. 2 दिवसासाठीं या स्वतःच्या घराची झाडझूड करा. रहा. चहापाणी सगळंच. त्यापेक्षा म्हटलं माझ्याकडेच रहा. आणि तुझी बाकीची बॅकेची सोसायटीची कामं कर. तिला मुलं बाळं नसल्यामुळे पती निधनानंतर “एकटी कशी रहाणार? आम्ही सगळे नाशिकला. वेळी अवेळी काही दुखलंखुपलं तर आमच्या चार नातेवाईकांत असलेली बरी” म्हणून नणंदेनी आणि जावेनी तिला तिच्या मनाविरुद्ध नाशिकला नेली. भक्कम पेन्शन, बॅंक जमा मजबूत, मुंबईत स्वतःचा फ्लॅट. ह्या वयात कामाला पण वाघ स्वभावाने पण शांत, निरुपद्रवी. अशा माणसाला ठेवायला कोण तयार होणार नाही? पण तिच्या मनाचा विचार कोण करणार? त्यामुळे माझी ही कल्पना तिला पटली. आणि मागचा पुढचा विचार न करता तिने होकार दिला.

माधुरी म्हणते कशी “माझा प्रतिक हो म्हणेल की नाही शंकाच आहे. सूनबाई तर तयार होणारच नाही.” प्रकाश म्हणाला, “आमची जान्हवी नाहीच म्हणणार तिच्या शुभ्राला आजी आजोबाच पाहिजे”. बाकीचे मुलांना विचारुन सांगतो असे गुळमुळीत उत्तर देऊन गेले.

क्रमशः …

© सौ. शशी नाडकर्णी -नाईक

फोन नं.8425933533

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अति लघु कथा – बाळा जो जो रे ☆ श्री बिपीन कुलकर्णी

☆ जीवनरंग ☆ अति लघु कथा – बाळा जो जो रे ☆ श्री बिपीन कुलकर्णी ☆

कानावर अंगाईचे सूर पडताच मी जागा झालो आणि उठून बाहेर आलो. हातात पाळण्याची दोरी आणि चेहऱ्यावर पसरलेलं विलक्षण लोभस मातृत्व लेऊन वहिनी अंगाई गाण्यात गुंग झाली होती. डोळे विस्फारून मी आणि दादा पहात राहिलो…

समोर कुरळ्या सोनेरी केसांच्या आणि निळ्याशार डोळ्यांच्या आमच्या चिऊचा फोटो होता. आणि वहिनी… रिकामा पाळणा झुलवत होती…

 

© श्री बिपीन कुळकर्णी

मो नं. 9820074205

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ फुंकर ☆ श्री अरविंद लिमये

श्री अरविंद लिमये

☆ विविधा ☆ फुंकर ☆ श्री अरविंद लिमये☆

कोणत्याही जखमेची वेदना कमी करायला एक हळूवार फुंकरही पुरेशी असते. मग ती जखम शरीरावरची असो वा मनावरची. तत्परतेने केलेली मलमपट्टी जखम लवकर भरुन येण्यासाठी आवश्यकअसते. एरवी जखम चिघळत जाते. हे चिघळणं वेदनादायीच असतं. जखम झालेल्याइतकंच जखम करणाऱ्यासाठीही. म्हणूनच जखम झालीच तर ती चिघळू न देण्याची काळजी घेणं महत्त्वाचं ठरतं.

चिघळणं म्हणजे विकोपाला जाणं. चिघळलेल्या जखमा कालांतराने बऱ्या झाल्या, तरी जखमेचा कोरला गेलेला व्रण मात्र जखमेच्या जन्मखूणेसारखा कायम रहातो.

मनावरील जखमा बऱ्या झाल्यानंतरचे हे असे व्रण मात्र जखम बरी झाली तरी त्या जखमेच्या वेदनेसारखे दीर्घकाळ ठसठसतच रहातात. नात्यातलं आपलेपण मग हळूहळू विरु लागतं

नाती रक्ताची असोत, वा जुळलेली किंवा जोडलेली असोत, वा निखळ मैत्रीची असोत ती अलवारपणे जपणं महत्त्वाचं. जपणं म्हणजे जखमा होऊ न देणं आणि झाल्याच तर त्या चिघळू न देणं. यासाठी गरज असते ती परस्पर सामंजस्याची.

व्यक्ति तितक्या प्रकृती हे मुलभूत तत्त्व हाच कोणत्याही नात्याचा पाया असायला हवा. मग परस्पर सामंजस्य आपसूकच आकार घेईल, आणि नात्यानाही सुबक आकार येत जाईल.

परस्पर सामंजस्य म्हणजे वेगळं कांही नसतंच.  दुसऱ्यालाही आपल्यासारखंच मन असतं आणि मतही हे कधीच न विसरणं म्हणजेच परस्पर सामंजस्य. कधीकधी असूही शकतो दुसऱ्याचा दृष्टीकोन आपल्यापेक्षा पूर्णत: वेगळा तरीही कदाचित तोच बरोबरसुध्दा हे मनोमन एकदा स्विकारलं की मतभेद कायम राहिले तरी मनभेदाला तिथे थारा नसेल.  मनभेद नसले तर मनावर नकळत ओरखडे ओढलेच जाणार नाहीत.  दुखावलेपणाच्या जखमाच नसतील तर मग त्या चिघळण्याचा प्रश्नच निर्माण होणार नाही. तरीही नकळत,  अनवधानाने दुखावलं गेलंच कुणी कधी, तरीही त्या दु:खावर फक्त आपुलकीच्या स्पर्शाची एक हळूवार फुंकरही दु:ख नाहीसं व्हायला पुरेशी ठरेल.

© श्री अरविंद लिमये

सांगली

मो ९८२३७३८२८८

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ मी शाळा बोलतेय. ….! ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

 ☆ मनमंजुषेतून ☆ मी शाळा बोलतेय. ….! ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

अवघ्या विश्वावरी काळ कठीण आला

करोनाने अवचित घातला घाला

निसर्ग झालाय मुक्त

परी माणूस झाला बंदिस्त

माझ्या नशिबी आला विजनवास

मला विद्यार्थ्यांच्या भेटीची आस !!

नमस्कार मंडळी ! मला ओळखलं ना ? अहो, मी शाळा बोलतेय.  हो ! तुमची, तुमच्या मुलांची, नातवंडांची शाळा.आत्ताच्या बंदीवासाने खूप आलाय कंटाळा. खरं सांगू का,

मुलं म्हणजे माझा प्राण,

मुलं म्हणजे माझ्या वास्तूची शान,

मुलं म्हणजे माझ्या जगण्याचे भान,

मुलं म्हणजे माझ्या अस्तित्वाचा मान !!

पण आता आम्ही एकमेकांना पारखे झालोय. कधी एकदा हे संकट दूर होतेय आणि कधी आम्ही भेटतोय असं झालंय मला.

अहो, माझी आणि मुलांची साथ-संगत कैक वर्षांपासूनची आहे. अगदी सुरूवातीला शाळा कोणाच्यातरी घरात, एखाद्या वाड्यात भरत असे. मुलांची वेगळी आणि मुलींची वेगळी शाळा होती.  कापडी पिशवीचे दप्तर, स्लेटची जडशीळ पाटी-पेन्सिल होती. शाळेचा ड्रेस एकदम साधा होता. मुली तर दोन वेण्या, साडी, दोन खांद्यावर पदर अशा वेषात असायच्या. काळाबरोबर राहणीमानात, वागण्या-बोलण्यात, जगण्यात अनेक बदल होत गेले. हळूहळू माझेही सगळे चित्र बदलत गेले.

मुला-मुलींची शाळा एकत्र झाली. भारी युनिफॉर्म, टाय-बूट आले. खेळांचे स्वरूप बदलले. आता वेगवेगळ्या स्पर्धा, परीक्षा यांची रेलचेल झाली आहे. स्नेहसंमेलनंही खूप छान आयोजली जातात. मुलांचे विविध कला-गुणदर्शन पाहून मला खूप आनंद होतो. यातूनच अनेक चांगले कलाकार पुढे नावारूपाला आले.

अनेक डॉक्टर, इंजिनीअर, शास्त्रज्ञ, संशोधक, शिक्षक, व्यापारी, खेळाडू उदयाला आले. त्यांनी उत्तम करिअर केले. त्यांनी स्वतःबरोबरच माझेही नाव मोठे केले. मला यशस्वी, कीर्तीवंत बनविले.

स्पर्धा गाजवणाऱ्या मुलांचे वक्तृत्व, गायन ऐकून माझे कान तृप्त होतात. त्यांचे खेळ, चित्रकला, नाट्यकला, नृत्यकला कौशल्य पाहून माझे डोळे तृप्त होतात. मन आनंदाने भरून येते. मी त्यांना मनोमन शुभेच्छा देते, आशीर्वाद देते. माझी ही सगळी गुणवान लेकरे देशात-परदेशात खूप नाव कमावतात. यशस्वी होतात. पण मला विसरत नाहीत.

आता तंत्रज्ञान बदलले. ह्या नव्या “स्मार्ट” युगात हे सगळे एकमेकांपासून दुरावलेले जीव पुन्हा एकत्र आले. पुन्हा गळ्यात पडून हसले-रडले-बागडले. सर्वजण मिळून मला भेटायला आले. किती किती आनंद झाला म्हणून सांगू? ते मला कोणीही विसरत नाहीत, उलट मला आणखी समृद्ध करून जातात. मन खूप भरून येतं अशावेळी.

मी मनापासून माझ्या या लेकरांना आशीर्वाद देते. त्यांच्या यशाची, कीर्तीची कामना करते. माझं आणि त्यांचं भावविश्व खूप वेगळं आहे. सदैव एकमेकांशी घट्ट जोडलेलं आहे. ते असंच राहावं आणि माझी लेकरं सुखात, आनंदात रहावीत हीच मी देवाला प्रार्थना करते.

“देवा दयाघना, लवकर हे संकट दूर कर. माझ्या मुलांची आणि माझी भेट घडव. डोळ्यात प्राण आणून मी त्यांची वाट पहाते आहे. माझे सगळे वर्ग, माझी घंटा, प्रयोगशाळा,  कलादालन, खेळाचे मैदान मूक रुदन करते आहे. मुलांची वाट पहात आहे.लवकर हा काळ संपू दे आणि पुन्हा माझा सगळा परिसर हसता खेळता होऊ दे. मुलांचे हसणे,  ओरडणे, दंगा ऐकायला मी आसुसले आहे. आता सगळे पुर्ववत होऊ दे.”

 पुन्हा घणघणू दे माझी घंटा

 धावत येतील माझी लेकरे

 प्रार्थना घुमेल माझ्या दारी

 माझ्या वर्गांची उघडू दे दारे ||

© सौ. ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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