English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 35 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 35 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 35) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 35☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

हम तो खयाल

रखेँगे अपना…

तुम हमें खयालों

में बनाये रखना…!

 

I’ll surely take

care of myself…

You just keep me

in your thoughts…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

सुकून की तलाश

तो हमेशा सब को है….

जिसे तलाश नहीं

वो ही सुकून से है…!

 

Everyone is in quest

of the eternal peace…

One who isn’t indulged in

search is already relaxed!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

तेरी  धड़कनों  में

अगर  मैं  नहीं…

तो  यकीं  कर…

मै  कहीं  नहीं…!

 

If I am not there

in your heartbeats

Then  believe  me,

I don’t exist anywhere!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

दोस्तों के नाम का एक ख़त

जेब में  रख  कर  क्या चला

क़रीब से गुज़रने वाले पूछते हैं,

यार, तेरे इत्र  का  नाम  क्या है…!!

 

When I moved with a letter

with friends names in pocket

Passerby kept asking me,

Dear, what’s the name of the

perfume you’re wearing…!!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ मेरी स्मृति के कगार पर घुमक्कड़ ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार

डॉ प्रतिभा मुदलियार


(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है । वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में  हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत।  इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –

जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ मेरी स्मृति के कगार पर घुमक्कड़ ☆

आज फिर तुमसे रुबरु हो रही हूँ। कोविड के भय से जन जीवन धीरे धीरे मुक्त हो रहा है। लोग बाग अपने अपने जीवन का रुख अपना कर आगे बढ़ रहे हैं। आखिर जीवन एक ही पटरी पर कितनी देर रुका रह सकता है ? चलना ही तो जीवन है ना। जीवन चलने का नाम!!

कल मेरी एक छात्रा की पुस्तक का लोकार्पण समारोह था। मैं उस समारोह में वक्ता के रूप में उपस्थित थी। यह पुस्तक अपने आप में घमक्कड समुदाय का इतिहास रचती है। यह समुदाय भले ही समाज से बिलकुल अलग थलग है, अलक्षित है फिर भी समाज से जुडा है। वास्तव में मेरी छात्रा, हां, नाम भी बताती हूँ… करुणालक्ष्मी ने कन्नड लेखक कुप्पे नागराज की आत्मकथा ‘आलेमारिय अंतरंग’ का हिंदी अनुवाद ‘घुमक्कड का अंतरंग’ इस नाम से किया है। यह आत्मकथा कर्नाटक के दोंबिदास अर्थात घुमक्कडों की जीवन गाथा है। पता है तुम पुछोगे कि दोंबिदास कौन है? बताती हूँ… दोंबिदास वे लोग हैं जो गाँव गाँव जाकर नाटक का प्रदर्शन करते है, इकतारा लेकर घर घर जाकर तत्वगीत गाते हैं, भविष्यवाणी करते हैं, आम लोगों की बीमारियों का ईलाज़ करते हैं, कौडी डालकर भविष्य बताते है और बैलों को सजाकर घर घर जाकर भिक्षा मांगते हैं और उस परिवार को आशीर्वाद देते हैं। ऐसे सुमदाय के लोगों को हम घुमक्कड या खानाबदोश कह सकते हैं। उनके जीवन की कथा इस आत्मकथा की वस्तु है। यह वस्तु मनुष्य जीवन की आधारभुत जरूरतों के इर्द गिर्द घुमती है..रोटी, कपडा, मकान और शिक्षा। रोटी को हम भूख और मकान को हम छत कहें तो अधिक उचित होगा। इक्कीसवीं सदी में रहते आज भी लोगों को जीवन की बेसिक नीडस् मुहय्या नहीं होती। उसके लिए भी आजीवन संघर्ष करना पडता है। कितना भयानक सच है न…..वास्तव में इस पुस्तक की जो सबसे विशेष बात मुझे लगी वह है इसका सांस्कृतिक पक्ष जिसे लेखक ने बिलुकल सहजता से व्यक्त किया है। पुस्तक में कई सारे प्रसंग हैं जो इस समुदाय की जीवनशैली, संस्कृति आदि को व्यक्त करते जाते हैं..अनायास। कल समारोह में तत्वगीत भी उन्हीं लोगों द्वारा प्रस्तुत किया गया था। जो उनकी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पक्ष है।

कल जब यह सारा देख रही थी, सुन रही थी तब मेरे बचपन के कुछ प्रसंग जो लगभग विस्मरण की कगार पर पहुँच गए थे वे एकदम से जीवित होने लगे। सोचा उन प्रसंगों को, उन क्षणों तुम्हारे साथ साझा करूँ। उन्हें शब्द रूप देकर तुम तक पहुँचाऊं। हो सकता है इसे पढकर तुम्हारी बचपन की कुछ स्मृतियाँ जग जाए और तुम्हारे नीरस जीवन में ब्रेक लग जाए।

इस आत्मकथा में ‘कोलबसव’ शब्द आया तो मैंने पूछ लिया था कि इसका क्या मतलब है तो करुणालक्ष्मी ने मुझे उसकी तसवीर दिखाई थी। मैंने देखा कि एक ऊँचे पुरे बैल को सुंदर ढंग से सजाया गया है और उसके ऊपर रंगविरंगी वस्त्र डाले गए है उसके गले में घंटियाँ बांधी गयी हैं और उसके सिंगों को भी सजाया गया है। वह देखते ही मेरे सामने बचपन में देखे नंदीबैल की तसवीर झलक गयी। तुम्हें तो पता है मैं गलि मोहल्ले में पलि बढी हूँ। हमारी गलि में अक्सर कुछ खानाबदोश लोग नंदीबैल लेकर आते थे। तब कभी मन में यह प्रश्न नहीं आया था कि ये लोग कौन हैं, कहाँ से आये हैं? हमारे आकर्षण का केंद्र बस वह नंदी बैल और उसके गले की किनकिन बजती वह घंटियाँ ही होती थीं। नंदीबैल को जो लोग ले आते थे उनका पहनावा भी हटकर होता था। जहाँ तक याद है वे सफेद धोती और एक लंबा कुर्ता या शर्ट पहनते थे उनके गले में हरे, लाल या पीले रंग का अंगवस्त्र होता था, गले में कौडियों की या रुद्राक्ष की माला होती थी, हाथ में इकतारा, घंटी या फिर एक प्रकार का वाद्य होता था जिसे पता नहीं क्या कहते है। उनका सिर अक्सर पगडी या टोपी से ढका रहता था। भाल पर आमतौर पर भस्म और तिलक रहता था। उनका पहनावा हम बच्चों को कुछ अजीब सा लगता था। ये लोग नंदी को लेकर घर घर जाते और भिक्षा मांगते थे। उनके कंधे पर झोला भी होता था। घर की बुजुर्ग महिलाएं और कभी कभी पुरूष भी उनके झोले में अनाज आदि डाल दते थे तो कभी कभी कुछ पैसे भी दे देते थे। बदले में वे लोगे आशीर्वाद देते। कुछ लोग तो नंदी के पैरों पर लोटाभर पानी डालकर उसके पैर पखारते उसको कुंकुम का तिलक करते अक्षत और फूल भी उस पर वार देते और उस समय घर में जो होता चाहे वह फल हो या रोटी उसे खिलाते थे। कुछ स्त्री पुरूष नंदी को कुछ घर गृहस्थी से संबंधित प्रश्न पुछते थे और वह व्यक्ति उनके प्रश्नों का उत्तर देता था। इनका वार्तालाप अधिकतर कन्नड में होता था और मेरी समझ में कुछ नहीं आता था। हम बच्चे भी गलि में नंदी बैल के आते ही उसके पीछे हो लेते और डर डर कर उसे पीछे से छू कर नमस्कार करते। कुछ बहादूर बच्चे भी होते जो नंदी के सामने जाकर उसके भाल को छूकर प्रणाम करते और उसे पूछते थे मैं पास हो जाऊँगा/जाऊँगी? और नंदी अपनी गर्दन हिलाकर हाँ या ना में उत्तर देता था। हम खुश हो जाते थे। उन दिनों यह सब हमारे मनोरंजन के साधन थे। इतने सालों में मैंने क्वचित ही नंदी बैल को देखा है।

जैसे नंदीबैल लेकर आनेवाले होते थे वैसे ही कुछ और लोग भी थे जिनका पहनावा भी इनकी तरह ही होता था। किंतु इनके साथ महिला होती थी। इनके गले में विशिष्ट प्रकार की कौडियाँ की माला होती थी। सिर पर विशेष प्रकार की टोकरी होती थी। जिसमें किसी देवी माता की तसवीर या मूर्ति होती थी। उस पर भी मालाएं चढाई होती थी। उनकी इस टोकरी की किनार पर कौडियाँ बहुत करीने से लगायी गयी होती थी। इसके साथ ही कटोरे जैसी छोटी छोटी टोकरियाँ होती थी, जिसमें हलदी, कुंकुम, भस्म, कौडियाँ आदि रखा रहता था। इनके कंधे पर भी झोला होता था। ये लोग भी घर घर जाते थे। घर में स्थित बडे बुजुर्ग उनको सम्मान से घर में बुलाते थे। दरी या चटाई बिछाकर उनको बैठने के लिए कहा जाता था। उनको गुड पानी दिया जाता। घर की औरतें और मर्द उनके इर्द गिर्द बैठते। फिर बातों ही बातों में अपनी समस्याएं प्रश्नों के माध्यम से पूछे जाते थे। वे कौडी डालते और फिर उनके सवालों का उत्तर देते थे। उनके कहने का ढंग बडा मज़ेदार होता था। बोलने में सुर, लय, ताल का बडा ही सामंजस्य होता था। उनको सुनना अच्छा लगता पर मुझे कभी अर्थबोध हुआ नहीं। ये लोग कभी कन्नड तो कभी कभी मराठी मिश्रित कन्नड बोलते थे। प्रश्नोत्तर का कार्यक्रम खतम होने के बाद उनको पुराने कपडे, अनाज आदि देकर दूर से ही नमस्कार कर उनको विदा किया जाता था। इन लोगों का घर परिवारों में सम्मान होता था।

एक और मज़ेदार याद है। अमूमन शाम का समय होता था और एक आदमी जिसके बाल बिखरे होते थे, चेहरे पर भस्म लगा होता था, आँखे लाल लाल होती थी। गले में कई सारी रुद्राक्ष की मालाए होती थीं और कुछ तो कमर पर भी लटकी होती थी। शरीर का उपरी भाग नंगा होता था, कमर पर कई तरह के वस्त्र लटकते रहते थे। हाथ में लंबी सी छडी होती और उसके ऊपर घुंघुरु लगाए होते थे और सबसे वैशिष्ट्यपूर्ण बात यानि उसके गले में एक बडा सा  घंटा होता जो उसके घुटने तक लटकता रहता था। वह आदमी पीछे की गलि में स्थित मंगाई देवी के के मंदिर से आ जाता था। जब वह चलता तो उसके गले का घंटा दोनों घुटनों से लगकर आवाज़ करता था। ऐसी वेश भूषा में वह व्यक्ति अपनी बुलंद आवाज़ में ‘अलख निरंजन’ कहता चला जाता था और कुछ ही घरों के सामने खडे होकर भिक्षा मांगता था। उसका हुलिया डरावना होता था। मैं हमारे घर के ऊपरी मंजिल पर जाकर चुपके से खिडकी से उसे देखा करती थी। कभी कभी माता पिता बच्चों को उनका डर भी दिलाते थे। कुछ तो उसके आते घर में दुबककर रह जाते उनमें मैं एक थी। किंतु कुछ शरारती और निडर भी होते थे जो उसके पीछे पीछे भागा करते थे और उसको छेडते थे। …. और मज़ेदार बात सुनो…जैसे ही पता चलता कि अलख निरंजन बाबा आ रहा है तो कुछ बच्चे दौडकर आते और कहीं किसी के घर से कोयला ले आते अलख बाबा के मार्ग पर कोयले से तीन काली रेखाएं खींच देते और दरावजे की आड में छिप जाते थे। ऐसा माना जाता था कि  अलख बाबा उन तीन रेखाओं को पार कर नहीं जाएगा। किंतु याद पडता है कि वह बाबा उन रेखाओं के पास आता कुछ पल ठिठकता, उनको घुरता और होठों की होठों में कुछ बडबडाता और रेखाएं लांघ कर चला जाता था। वह जिस दिन आता था मैं घर से बाहर ही नहीं निकलती थी। हाँ चुपके से ऊपर की खिडकी से उसे देखा करती थी। डर का एक कारण यह भी था कि हमें यह पता नहीं किसने बताया था कि ये बाबा कबरस्तान में रहता है और भूतों से बातें करता है। उस समय का बस यही याद है। लेकिन जब बडे हुए तब पठन पाठन के दौरान पता चला कि ये अलख निरंजनी बाबा नाथ पंथी हठयोगी साधू होते हैं और भिक्षाटन के लिए आते थे। बचपन में अलख निरंजन का अर्थ मन में भय निर्माण करता था। किंतु बडे होने के बाद इस शब्द का गहन अर्थ भक्ति साहित्य पढने के बाद ही समझ पायी थी। सच में हमारी भक्ति परंपरा हमारे लोक जीवन में कितनी गहरी पैठी है न!

जैसे अलख निरंजन बाबा शाम के समय आते थे वैसे ही बिलकुल अल्लसुबह करीब करीब पाँच बजे के आसपास एक और साधु बाबा आया करते थे। आज भी उनकी छवि मेरी आँखों के सामने तैर जाती है। उनके हाथ में लालटेन और छत्रि होती थी और अक्सर वह छत्रि खुली रहती थी और उनके कंधे के सहारे टिकी रहती थी। वे सफेद या कभी कभी हलके गेरुएं रंग के वस्त्र धारण करते थे। कंधे पर लटकता हुआ झोला होता था और कलाइ में घंटी लटकती रहती थी। वे अत्यंत धीरे धीरे पैदल चलकर आया करते थे। जब वे चलते तब उनके हाथ में लटकती घंटी मधुर आवाज़ में बजती रहती थी। वे अपने मूँह से एक तरह की आवाज़ निकाला करते थे। वह आवाज़ किसी पक्षी की होती थी। सुबुह सुबह घंटी की वह किन किन और पक्षी की आवाज़ सुनकर बडे बुजुर्ग जाग जाते थे। माँ और पिताजी भी जाग जाते थे। वे ऊपर की खिडकी से झांककर देखते और कहते थे कि आज कई दिनों बाद ‘पिंगळा’ आया है। मैं भी कभी कभी जाग जाती थी। मेरे भाई भी जाग जाते थे, उस साधु बाबा को देखने की उत्सुकता हम सबके मन में होती थी। पौ फटने का समय और झुटपुट अंधेरे में वह छवि मन को मोह लेती थी। ये पिंगळे आमतौर पर कन्नड में ही बोलते थे। कर्नाटक का लिंगायत समुदाय शिवभक्त है। अतः ये साधु उनके घरों के सामने ही रुक जाते थे। लिंगायत परिवार के लोग उनका आदर सम्मान करते थे। उनको भिक्षा आदि देते थे। ये साधु आनेवाले दिन दिन कैसे होंगे इसकी भविष्यवाणी करते थे। जिसमें वर्षा कैसी होगी, फसल होगी या नहीं, बीमारी, गर्मी, अकाल, सूखा, किसी की मत्यु आदि की वे भविष्यवाणी वे करते थे। अगर देश पर, समाज पर कोई संकट आनेवाला है तो वे उसकी सूचना दिया करते थे। हम बच्चों को इसका अर्थ नहीं लगता था। हाँ, उसकी वह लालटेन, वह छत्रि जो काली नहीं बल्कि गेरुए रंग की होती थी और उसको झालर लगी होती थी, उसकी शांत मुद्रा अधिक आकर्षित करती थी। पापा अक्सर कहा करते थे कि ये साधुलोग पक्षियों की भाषा समझते हैं। पिंगळा भी एक पक्षी-विशेष का नाम है और उसी पक्षी की आवाज़ वो निकालते थे। इसलिए उनको पिंगळा कहा जाता है। ऐसे ही एक हेळव नाम से लोग सुबह सुबह आते थे। ये लोग हमारी वंशावली बताते थे। इनके पास कहते हैं हजारों पीढियों के वंश की जानकारी होती है। हेळव मुलतः कन्नड शब्द है जिसका अर्थ बताना होता है। अर्थात वंशावली की जानकारी बतानेवाले।

मेरे बचपन की यादों में एक और विशेष बात यानि दुर्गव्वा की है। जिन्हें मराठी में पोतराज कहा जाता है। पुरुष के सिर पर एक बडा सा पेटारा (संदुक) होता था और सुंदुक का जो खुला हुआ भाग जिसे हम किवाड कह सकते है उस पर झुलता हुआ एक परदा भी होता और अंदर माता दुर्गा की प्रतिमा या मूर्ति होती थी। उसे हलदी, कुंकुम और फूल मालाओं से सजाया होता था। यह पेटारा अमुमन पुरुष के सिर पर होता था। उसके साथ उसकी पत्नी और एक दो बच्चे होते थे। पुरुष की लंबी जटाएं होती थी। आँखें लाल लाल और शरीर के ऊपर का भाग नग्न होता था। निरंतर धूप में घुमने के कारण उसकी त्वचा काली होती थी। उसकी पुरे शरीर पर भस्म पुता होता था। उसके पैरों में घुंघरु होते थे। हाथ में चाबुक होता था। कमर पर रंगविरंगे कपडों की चिंधियाँ लटकती रहती जो स्कर्ट जैसी लगती थी। ये लोग गलि के नुक्कड या ऐसे स्थान पर अपना पेटारा उतारते जहाँ पर लोग इकट्ठा हो सके। उसकी पत्नी पेटारे के सामने बैठती जैसे ही लोग इकट्ठा हो जाते पत्नी पेटारे के किवाड का परदा ऊपर कर देती और वह पुरुष इधर से उधर करता हुआ और कुछ कुछ कहता हुआ अपने शरीर को चाबुक से मारता था। सप् सप् की वह आवाज़ और उसका चाबुक से मार लेना बडा ही भयावह और असुरी लगता था। मैं डरकर वहाँ तक जाती ही नहीं थी। किंतु मेरे कुछ दोस्त और सखियाँ वहाँ तक जाती और जानबुझकर वह परदा उठाने की कोशिश भी करती थी। कुछ लोग देवी माता की पूजा की सामग्री भी देते थे। वृत्ताकार खडे लोग वह सब देखते थे और उनके छोटे छोटे बच्चे हाथ में कटोरा लेकर लोगों के सामने खडे हो जाते और लोग कुछ पैसे उन कटोरों में डाल देते तो कुछ लोग अनाज भी देते थे। यह कार्यक्रम लगभग आधे घंटे तक चलता। फिर वह पुरुष पेटारा उठाता और किसी दूसरे नुक्कड पर जाकर पुनः कार्यक्रम चलता। इसप्रकार देवीमाता के माध्यम से उनका उदर निर्वाह चलता।

ये लोग अधिकतर महाराष्ट्र कर्नाटक, औऱ आंध्रप्रदेश से होते। इसलिए इनकी भाषा कन्नड, मराठी और तेलुगु होती है और ये सभी हिंदु धर्म का अनुकरण करते हैं। किंतु सभी मांसाहारी होते है। शाम के समय अपना सारा काम खतम करने के बाद ये लोग दिन भर की थकान मिटाने शराब और मांसभक्षण करते हैं। यह उनके समुदाय की आम बात है।

ये धुमक्कड लोग अपने उदर भरण के लिए इसप्रकार के कर्म करते चले आ रहे हैं… पता नहीं कबसे। भिक्षाटन उनका प्रमुख व्यवसाय हो गया। हमारे समाज में कितने ही ऐसे समुदाय हैं जो भिक्षावृत्ति के द्वारा अपनी जीविका चलाते है। मुझे याद पडता इन्हीं घुमक्कडों में बंदर, भालु खेलानेवाले भी हैं। जो गली गली इनका खेल प्रदर्शन करते है। हमारी भारतीय संस्कृति में घुमक्कडों के कई रूप-रंग हैं। पर इनका सासंस्कृति पक्ष देखे या इनकी गरीबी? इनका समुदाय देखे या इनका संघर्ष। संभव है इनकी संख्या में कमी आयी हो किंतु इनका संघर्ष समाप्त नहीं हुआ है।

कल जब दोबिदासों के जीवन की परतें खोलनेवाला आत्मकथ्य पढा तो मुझे वे सारे खानाबदोश, धुमक्कड लोग याद आए, जो मैंने देखे है। उस समय ये लोग हमारे लिए बस एक मनोरंजन का साधन भर था। किंतु एक अस्पष्ट सी जिज्ञासा इनके प्रति यह कि ये कहाँ से आए हैं, इनका घरबार कहाँ है, कैसे रहते हैं आदि। घुमक्कडों का अंतरंग निश्चित ही रंगीन नहीं है.. वहाँ अभाव है, भूख है, संघर्ष है और छत का पता नहीं है। साल के आठ महीने ये लोग घुमक्कडी करते हैं और वर्षा-काल में चार महीने एक स्थान पर स्थिर रहते हैं।

तुम समझ सकते हो, जो लोग खानाबदोश है, इस कोविड में इनका क्या हाल हुआ होगा। लॉकडाउन के दौरान कितना बडा मैग्रेशन इस देश ने देखा है। ऐसे समय ये लोग जो घुमक्कडी से अपना जीवनयापन करते रहे हैं उनका जीवन कैसा रहा होगा…जब एकदम से सबकुछ थम गया होगा ? उस समय इनकी स्थिति क्या हुई होगी? हम अपने अपने घरों में सुरक्षित थे पर जिनका जीवन रोज की कमाई पर चलता है.. उनका क्या हुआ होगा…. सोचकर रोंगटे खडे होते हैं और कोविड से परेशान विश्व की सुरक्षा के लिए हृदय से प्रार्थना निकलती है।

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006

दूरभाषः कार्यालय 0821-419619 निवास- 0821- 2415498, मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 36 ☆ छंद सप्तक ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘छंद सप्तक। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 36 ☆ 

☆ छंद सप्तक ☆ 

*

शुभगति

कुछ तो कहो

चुप मत रहो

करवट बदल-

दुःख मत सहो

*

छवि

बन मनु महान

कर नित्य दान

तू हो न हीन-

निज यश बखान

*

गंग

मत भूल जाना

वादा निभाना

सीकर बहाना

गंगा नहाना

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वागत गान – नवसंवत्सर के स्वागत में …. ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है नव वर्ष पर स्वागत गान   “नवसंवत्सर के स्वागत। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  स्वागत गान – नवसंवत्सर के स्वागत में …. ☆

नई उमंगे नई तरंगे,

नये गीत है राग नया।

नव जीवन अंगड़ाई लेता,

नये सुरों के साज सजा।

नई सुबह का सूरज निकला,

उम्मीदों का लिए पिटारा।

आशाओं की कोंपल फूटी,

जीवन में छाया उजियारा।

नई सुहानी भोर खड़ी है,

आंखों में अनुराग लिए।

नवसंवत्सर के स्वागत में,

आशाओं के दीप जले ।।1।।

 

शीतल मन्द सुगन्ध पवन,

तन मन पावन कर जाती है।

मंदिर की घंटी की रूनझुन

व्याकुल मन को भाती है।

अमराई में बैठी कोयल,

पंचम सुर में गाती है।

बंसवारी के झुरमुट से चिड़ियां,

जीवन संगीत सुनाती हैं।

प्यार से सबको गले लगाओ,

भूल के सारे शिकवे गिले।

।। नव संवत्सर के स्वागत में …. ।।2।।

 

वन में टेशू पलाश फूले,

गेंदा गुलाब बगिया महके।

पीली पीली सरसों फूली,

घर की मुंडेर मैनां चहके।

फगुआ के सुर लय ताल सजे,

चौपालों में ढोलक झांझ बजे।

नटुआ नाचे नव स्वांग रचे,

जीवन में नव उत्साह बसे।

दुश्मन को भी मीत बना लो,

उससे भी अब मिलों गले।

।।नव संवत्सर के स्वागत में ….।।3।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.८॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१८॥ ☆

त्वाम आरूढं पवनपदवीम उद्गृहीतालकान्ताः

प्रेक्षिष्यन्ते पथिकवनिताः प्रत्ययाद आश्वसन्त्यः

कः संनद्धे विरहविधुरां त्वय्य उपेक्षेत जायां

न स्याद अन्यो ऽप्य अहम इव जनो यः पराधीनवृत्तिः॥१.८॥

 

गगन पंथ चारी , तिम्हें देख वनिता

स्वपति आगमन की लिये आश मन में

निहारेंगी फिर फिर ले विश्वास की सांस

अपने वदन से उठा रूक्ष अलकें

मुझ सम पराधीन जन के सिवा कौन

लखकर सघन घन उपस्थित गगन में

विरह दग्ध कान्ता की अवहेलना कब

करेगा कोई जन भला किस भवन में

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सरणारे वर्ष मी ☆ स्व. मंगेश केशव पाडगांवकर

स्व. मंगेश केशव पाडगांवकर

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जन्म – 10 मार्च 1929

मृत्यु – 30 डिसेंबर 2015

सलाम’ या कवितासंग्रहासाठी त्यांना इ.स. १९८० साली साहित्य अकादमी पुरस्कार देऊन गौरवण्यात आले.

मंगेश पाडगांवकरांची वर्षाच्या निरोपाची सुंदर कविता…

☆ कवितेचा उत्सव ☆ सरणारे वर्ष मी ☆ प्रा. सौ. सुमती पवार ☆ 

मी उद्या असणार नाही

असेल कोणी दुसरे

मित्रहो सदैव राहोत

चेहरे तुमचे हासरे

झाले असेल चांगले

किंवा वाईटही काही

मी माझे काम केले

नेहमीच असतो राईट मी

माना अथवा नका मानू

तुमची माझी नाळ आहे

चांगले होवो अथवा वाईट

मी फक्त ” काळ ” आहे

उपकारही नका मानू

आणि दोषही देऊ नका

निरोप माझा घेताना

गेट पर्यन्त ही येऊ नका

उगवत्याला ” नमस्कार “

हीच रीत येथली

विसरु नका ‘ एक वर्ष ‘

साथ होती आपली

धुंद असेल जग उद्या

नव वर्षाच्या स्वागताला तुम्ही मला खुशाल विसरा दोष माझा प्राक्तनाला

शिव्या ,शाप,लोभ,माया

यातले नको काही

मी माझे काम केले

बाकी दुसरे काही नाही

निघताना ” पुन्हा भेटू “

असे मी म्हणणार नाही

” वचन ” हे कसे देऊ

जे मी पाळणार नाही

मी कोण ? सांगतो

” शुभ आशीष ” देऊ द्या

” सरणारे वर्ष ” मी

आता मला जाऊ द्या।

चित्र सौजन्य – मंगेश पाडगांवकर – विकिपीडिया (wikipedia.org)

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मन पांखरू पांखरू …. ☆ प्रा. सौ. सुमती पवार

प्रा. सौ. सुमती पवार

☆ कवितेचा उत्सव ☆ मन पाखरू पाखरू….. ☆ प्रा. सौ. सुमती पवार ☆ 

मन पांखरू पांखरू डहाळीवर झुलते

वारा आला कानापाशी आणि त्याच्याशी बोलते

 

मन पांखरू पांखरू आभाळातच उडाले

गरूडाच्या पंखावर कडेकपारीत गेले..

 

मन पांखरू पांखरू झाले हिरवे हिरवे

आणि फांद्या फांद्यावर दिमाखात ते मिरवे…

 

मन पांखरू पांखरू फुल पांखरूच झाले

गुलू गुलू हासतचं फुलांवरती डोलले …

 

मन पांखरू पांखरू झाले जास्वंदीचे पान

फुलताच पारिजात गंधाळले सारे रान…

 

मन पांखरू पांखरू झाले काटे कोरांटीच

आणि रातराणीचा हो झोका गेला पहा उंच…

 

मन पांखरू पांखरू आभाळात ..धरेवर

नाही येत चिमटीत फिरविते गरगर …

 

मन पांखरू पांखरू कधी खुपसते चोच

मग समजावे त्याला पहा लागली हो ठेच..

 

मन पांखरू पांखरू होत नाहीच शहाणे

रोज रोज गाई पहा गाणे नवेच … उखाणे..

 

मन पांखरू पांखरू रोज त्याच्या नाना कळा

असो कसे ही ..पण ..ते …

त्याचा लागतोच लळा…

 

© प्रा.सौ.सुमती पवार ,नाशिक

दि: १८/०९/२०२०,  वेळ : ११:२५ रात्री

(९७६३६०५६४२)

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पुढचं पाऊल (अनुवादीत कथा) ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ जीवनरंग ☆ पुढचं पाऊल (अनुवादीत कथा) ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

`दोन वर्ष किंवा त्यापेक्षा जास्त ज्या आमदार-खासदारांना शिक्षा झाली असेल,  त्यांचं विधानसभा वा संसदेतील सदस्यत्व आपोआप रद्द होईल. ‘ सुप्रीम कोर्टाने जाहीर केले

`राजकारणातील अपराध्यांचं वर्चस्व कमी करण्यासाठी सुप्रीम कोर्टाने हे चांगले पाऊल आहे.’ एक कार्यकर्ता दुसर्‍यायाला म्हणाला.

`हा निर्णय राजकीय पक्षांनी मानला तर ना! उमेदवारांना तिकीट देण्याची वेळ आली की ते म्हणणार, जिंकणार्‍या उमेदवारालाच तिकीट देण्याचा विचार केला जाईल. ‘

`हां! हेही खरं आहे.’

`असं कळतं, कोणत्याच गोष्टीबाबत एकमत न होणारे सर्व राजकीय एकत्र येऊन त्यांनी  बैठक घेऊन निर्णय घेतलाय की याच सत्रात सरकार सुप्रीम कोर्टाचा आदेश निष्प्रभ बनवण्यासाठी संशोधन विधेयक मांडणार आहे. त्या विधेयकाचं सर्वच राजकीय पक्षांनी समर्थन करावं. राजकीय पक्ष गुन्हेगारांच्या पकडीत आहे आणि संसद राजकीय पक्षांच्या. त्यामुळे संशोधन विधेयक पारीत होणारच!’

`तर मग संसदेच्या पुढल्या सत्रात संसद आणि विधानसभेत अपराध्यांसठी काही सीटचं आरक्षण असावं, असंही विधेयक मांडलं जाईल.’ दोघांचं बोलणं ऐकणारा सामान्य माणूस म्हणाला.

 

मूळ कथा – ‘अगला कदम’ –  मूळ लेखिका – श्री अतुल मोहन प्रसाद

अनुवाद – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ भूक ☆ सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

☆ विविधा ☆ भूक ☆ सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते ☆

माणूस आपल्या गरजा भागवण्यासाठी पूर्णतः निसर्गावर अवलंबून आहे.कारण तो परावलंबी आहे. आपल्या गरजा भागविण्यासाठी बुध्दिचा वापर करून तो कोणत्या ही थराला जावू शकतो.तो स्वार्थी आहे. गरजे पेक्षा जास्त घेण्याची आणि साठवण्याची त्याला सवय लागली आहे.ही सवय निसर्गातील कोणत्यांच सजीवात दिसत नाही. खरं तर वनस्पती सोडल्या तर कोणच स्वत:चे अन्न स्वत:करू शकत नाही.निसर्गात प्रत्येकाच्या अन्नाची सोय आहे.”जीवो जीवस्य जीवनम्”या साखळीत सजीव जगत आहे.आपले अन्न तो शोधतो मिळवण्याचा प्रयत्न करतो.याचा प्रत्यय निसर्गात पावलो पावली दिसतो.

पाखरांच्या किलकिलाटाने मी बाहेर आले.रस्त्यावर चिमण्या आनंदाने दाणे टिपत होत्या, उडत होत्या.इकडून तिकडे जात होत्या. त्या स्वछंदी होत्या.हलचाली मोहक होत्या.सकाळी सकाळी तो चिवचिवाट प्रसन्न वाटत होता.आपल्या नादात होत्या. एवढ्यात… गल्लीतली दोन तीन कुत्री तिथे आली.चिमण्यांना बघून ती हरकून गेली.त्यांच्या जिभेला पाणी सुटले.आज आपली चांगली मेजवानी होणार, या आविर्भावात ते होते. दबा धरून राहीले. हळूहळू पुढे झाले. आता ते चिमण्यावर  झडप घालणार..त्या बळी पडणार. असे मला वाटले,. त्यांना मी हाताने  उसकवणार… तेवढ्यात सगळ्या चिमण्या भूर्र…कन्…उडाल्या. कुत्री… भुंकली चरफडली.मागे फिरली.चला चिमण्या वाचल्या… म्हणून मी खुश झाले, मागे फिरले ,तो पुन्हा चिमण्यांचा थवा दाणे टिपायला  आला.चिमण्यांची चाहूल लागताच कुत्र्यांची झुंड पुन्हा मागे फिरली. पुन्हा आशा पालवल्या.पुन्हा दबा धरून राहिले. चिमण्या वर  झडप टाकणार… तेवढ्यात चिमण्या उडाल्या.आता मात्र कुत्रे मुक झाले.त्याच्या डोळ्यात आता भूक  दिसू लागली.मला त्याची कीव आली.मी पडले शाकाहारी. घरातल्या पावाचे तुकडे कुत्र्यांना टाकले.चिमण्याना  दाणे टाकले.

दोघे ही भूक भागवण्याचा आपला मार्ग सोडत नव्हते.रोजच हे हेच दृश्य बघत होते.

निसर्गत: आपलं रक्षण करण्याचे ,भूक भागवण्याचे सामर्थ्य सर्वाना बहाल केले आहे.तरी मझ्या मनात आले या कुत्र्यांना माणसांसारखी  बुध्दी असती तर….भूक भागविण्यासाठी, त्यांनी या चिमण्यांनसाठी जाळे टाकले असते.त्यात दाणे पेरले असते.अगतिक चिमण्या फसल्या असत्या,तडफडल्या असत्या.कुत्र्याची भूक भागली असती.पण एवढी बुध्दी निसर्गाने कुत्र्याला दिली नाही,हे बरेच झाले, नाही का?

© सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

मो.९६५७४९०८९२

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून☆ 2020 – 2021 – हरवलं….गवसल…. ☆ सौ. अमृता देशपांडे

सौ. अमृता देशपांडे

☆ मनमंजुषेतून ☆2020 – 2021 – हरवलं….गवसल…. ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆ 

2020….. या वर्षी हरवले: 

खूप जवळची माणसे, मनःशांती,  मुक्त वावर, मंदिरातून देवदर्शन,  प्रवास, भेटीगाठी, असं खूप खूप..

हाती राहिलं:

भीती, सावधपणा, अलिप्तता,  उदासी.

हरवलेलं मिळालं:

  • -स्वच्छतेचे, आत्मनिर्भरतेचे आणि कुटुंब व्यवस्थेवर ठाम उभ्या असलेल्या आपल्या भारतीय संस्कृतीचे आचारविचारांचे संस्कार.
  • आपल्यातलेच  हरवलेले, विसरलेले, दुर्लक्षित केलेले कलागुण .

नवीन मिळालं:

विश्वासाठी प्रार्थना करण्याची इच्छा, रक्ताच्या एका थेंबाची किंमत, एका श्वासाची किंमत, आणि आपल्या माणसाच्या अस्तित्वाची किंमत आणि अनमोल असा ई-अभिव्यक्ती चा सहवास.

सर्वांचे मनःपूर्वक धन्यवाद.  संपादक मंडळाचे आभार.

सर्व लेखक- लेखिका, कवी- कवयित्री ना 2021 च्या शुभेच्छा!

2021 सर्वांना मनसोक्त लेखनाचे, आनंदाचे, आरोग्याचे व सुरक्षिततेचे असो.  हीच सदिच्छा!!

 

© सौ अमृता देशपांडे

पर्वरी- गोवा

9822176170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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