हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 77 – जीवन यह है….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  के 72 वे  जन्म दिवस के अवसर पर  ई – अभिव्यक्ति परिवार की ओर से  आपके स्वस्थ एवं दीर्घायु के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।  जीवन के बहत्तरवें वर्ष में प्रवेश पर, मंगल भावनाओं सहित आपके ही कुछ दोहे – 

☆  तन्मय साहित्य  #  77 ☆ जीवन की इस जंग में…. ☆ 

इकहत्तर    पूरे   हुए,   बहतरवें   से   भेंट।

सांस-सांस के खेल में,पल-छिन रहे समेट।।

 

हुआ  बराबर  मूलधन, बाकी है बस  ब्याज।

मन में अब चिन्ता नहीं, कल जाएं या आज।।

 

मंगल भावों के लिए, सब के  प्रति  आभार।

अपनों से मिलता रहा, अतुलनीय बहु प्यार।।

 

जीवन की इस जंग में, अगणित हैं  गुण-दोष।

जैसा, जो  प्रभु  ने  दिया,  है  मन  में  संतोष।।

 

मंगलमय नव वर्ष हो, जन-मन मंगल भाव।

पग पग करुणा, प्रेम के, जलते रहें अलाव।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

1 जनवरी 2021

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लघुकथा – तिलिस्म ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆  लघुकथा – तिलिस्म ☆

….तुम्हारे शब्द एक अलग दुनिया में ले जाते हैं। ये दुनिया खींचती है, आकर्षित करती है, मोहित करती है। लगता है जैसे तुम्हारे शब्दों में ही उतर जाऊँ। तुम्हारे शब्दों से मेरे इर्द-गिर्द सितारे रोशन हो उठते हैं। बरसों से जिन सवालों में जीवन उलझा था, वे सुलझने लगे हैं। जीने का मज़ा आ रहा है। मन का मोर नाचने लगा है। महसूस होता है जैसे आसमान मुट्ठी में आ गया है। आनंद से सराबोर हो गया है जीवन।

…सुनो, तुम आओ न एक बार। जिसके शब्दों में तिलिस्म है, उससे जी भरके बतियाना है। जिसके पास हमारी दुनिया के सवालों के जवाब हैं, उसके साथ उसकी दुनिया की सैर करनी है।

…..कितनी बार बुलाया है, बताओ न कब आओगे?

लेखक जानता था पाठक की पुतलियाँ बुन लेती हैं तिलिस्म और दृष्टिपटल उसे निरंतर निहारता है। तिलिस्म का अपना अबूझ आकर्षण है लेकिन तब तक ही जब तक वह तिलिस्म है। तिलिस्म में प्रवेश करते ही मायावी दुनिया चटकने लगती है।

लेखक जानता था कि पाठक की आँख में घर कर चुके तिलिस्म की राह उसके शब्दों से होकर गई है। उसे पता था अर्थ ‘डूबते को तिनके का सहारा’ का। उसे भान था सूखे कंठ में पड़ी एक बूँद की अमृतधारा से उपजी तृप्ति का। लेखक परिचित था अनुभूति के गहन आनंद से। वह समझता था महत्व उन सबके जीवन में आनंदानुभूति का। लेखक जानता था तिलिस्म, तिलिस्म के होने का। लेखक जानता था तिलिस्म, तिलिस्म के बने रहने का।

लेखक ने तिलिस्म को तिलिस्म रहने दिया और वह कभी नहीं गया, उन सबके पास।

# हमारे शब्द आनंद का अविरल स्रोत बनें।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ तुम्हें याद हो कि न याद हो ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी का यह संस्मरण अपने साथ कई लघुकथाएं लेकर आया है जो वर्तमान में भी उतना ही सार्थक है जो अस्सी के दशक में था। लेखक और संघर्ष का एक रिश्ता रहा है। यह संस्मरण हमें एक ऊर्जा प्रदान करता है समय और समस्याओं से संघर्ष करने के लिए। प्रस्तुत है संस्मरण – तुम्हें याद हो कि न याद हो )

☆ संस्मरण ☆ तुम्हें याद हो कि न याद हो

सन् 1984 की बात है । मैं लघु कथाकार के रूप में ज्यादा सक्रिय था और एक संग्रह तैयार किया : मस्तराम जिंदाबाद । लघुकथा सन् 1970 से नयी विधा के रूप में अपनी जगह बना रही थी और बड़े साहित्यकार इसे कभी सलाद की प्लेट तो कभी चुटकुला कह कर या अखबारों की घटना मात्र कह कर मजाक उड़ाते ।

ऐसे में कोई प्रकाशक लघुकथा संग्रह प्रकाशित करने का जोखिम क्यों लेता ? सोच  विचार के बाद ध्यान आया  तारिका और कहानी लेखन महाविद्यालय के संचालक डाॅ महाराज कृष्ण जैन जी का । मैं उनके पास अम्बाला छावनी पहुंच गया और अपनी पांडुलिपि उनके सामने रखी ।

डाॅ जैन मुस्कुरा दिए और बोले – कमलेश जी । मैंने तो प्रकाशन छोड़ दिया । आप मेरी हालत देख रहे हो । व्हील चेयर पर हूं । पुस्तक बेचना बड़ा मुश्किल काम है ।

– आप एक काम करेंगे ?

-बताओ ?

– इस पुस्तक के संपादक बनोगे ?

– वो कैसे ?

-आप पुस्तक प्रकाशन करवाने का काम जानते हो ।

– बिल्कुल । पुस्तक सुंदर से सुंदर बना सकता हूं पर बेचने का काम टेढ़ी खीर है ।

– बस । आप संपादक बन जाइए । पांडुलिपि छोड़े जा रहा हूं । आप इसे देखिए और संपादक की तरह फैसला कीजिए कि क्या  प्रकाशन के योग्य है भी या नहीं ? यह नहीं कि पैसा लगा सकता हूं तो छपना ही चाहिए । सारा पैसा प्रकाशन का मैं लगाऊंगा । इस विधा को लोकप्रिय करना है । सारी प्रतियां भी मैं ही ले लूंगा । आपका सिर्फ प्रकाशन का पता होगा ।

डाॅ महाराज कृष्ण जैन सहर्ष तैयार हो गये । कुछ दिन बाद उनका पत्र आया कि सचमुच यह संग्रह लघुकथा विधा के क्षेत्र में चर्चित होगा । आप इसे प्रकाशित कर सकते है । मैंने सारा संग्रह  देख लिया  है ।

फिर मैंने डाॅ जैन पर ही भूमिका लिखने की जिम्मेदारी डाली । यह कह कर कि परंपरागत तौर पर मेरी सिर्फ प्रशंसा यानी वाह वाह ही न हो बल्कि लघुकथा में मैं कहां खड़ा हूं , इसका मूल्यांकन भी कीजिए । मेरी जगह भी बताइये । आठ पृष्ठ की भूमिका में डाॅ महावीर कृष्ण जैन जी  को जहां जरूरी लगा मेरी बखिया भी उधेड़ कर रख दी और आलोचना भी की । आखिरकार एक हजार प्रतियों का मेरा पहला लघुकथा संग्रह पेपरबैक संस्करण के रूप में प्रकाशित हो गया, जिसमें डाॅ जैन ने अपने अनुभव के आधार पर दो सौ प्रतियां सजिल्द भी प्रकाशित कर मुझे दे दीं । उस भले वक्त में कुल चौबीस सौ रुपए में मेरा संग्रह एक बोरी में बंद जिन्न की तरह मेरे पास था । मैं स्कूल में प्रिंसिपल था तो एक कर्मचारी को साथ लेकर अम्बाला छावनी पहुंचा और डाॅ जैन का मुंह मीठा करवा अपनी पुस्तक संपादक से ले चला ।

अब समस्या थी कि इसका वितरण कैसे करना है ? एक हजार प्रतियां । कैसे लोगों तक पहुंचाओगे ? मेरे स्कूल का क्लर्क महेंद्र घर आया । हमने दलित पिछड़े वर्ग के बच्चों की छात्रवृत्ति सरकारी खजाने से निकलवाने जाना था । वह जालंधर से रेल पर आता था । उस दिन खटकड़ कलां की बजाय सीधे नवांशहर ही उतर का सुबह सुबह मेरे घर पहुंच गया था । इसलिए उसका नाश्ता तैयार करवा रखा था ।

जैसे ही महेंद्र को नाश्ता परोसा तो सामने रखी बोरी  में बंद पुस्तकों पर उसकी नज़र गयी । पूछा कि सर , इसमें क्या है ? मैंने बताया कि इसमें पुस्तक मस्तराम जिंदाबाद है।

-फिर कैसे दे रहे हैं आप ?

-कहां ? मैंने तो बोरी खोली भी नहीं । किसे देने जाऊं ?

– अरे सर । आप मुझे खोलने दो । महेंद्र ने नाश्ते के बाद बोरी खोली और  उसमें में से सजिल्द बीस प्रतियां उठा लीं । हमने सरकारी खजाने से पैसे निकलवाए और स्कूल खटकड़ कलां पहुंच गये । शाम की ट्रेन से महेंद्र  जालंधर चला गया ।

कुछ दिन बाद महेंद्र ने मुझे दो सौ रुपये देते कहा कि सर,  ये आपकी बीस पुस्तकों के पैसे । मैं हैरान और पूछा कि यह तुमने कैसे किया ?

महेंद्र ने बताया कि रेल में जालंधर से  चल कर कई सरकारी स्कूलों के मेरे जैसे क्लर्क सफर करते हैं । हम इकट्ठे ताश खेल कर समय बिताते हैं । मैने उन साथियो से  कहा कि यह हमारे प्रिंसिपल साहब की लिखी पुस्तक है । इसे अपने स्कूल की लाइब्रेरी में आधे मूल्य पर लगवा दो । बीस रुपए प्रिंट है । आप दस में ही प्रति लगवा दो । बस । चार पांच स्कूलों में चार चार पांच प्रतियां ले ली गयीं । बिल मैने बना दिए और पैसे मिले तो आपको दे दिए ।

मैं महेंद्र को देखता ही रह गया । वह फिर बोला – सर । पैसे आपके लगे हैं और मैं तो सिर्फ सहयोग कर रहा हूं । आप जिन स्कूलों या काॅलेज में पढ़े हैं क्या वे संस्थाएं आपकी पुस्तक लेने से मना कर देंगी ? आप मुझे साथ ले चलिए । अरे! यह तो मेरा गुरु बन गया ।

सचमुच हम उन स्कूलों में गये जहां मैने शिक्षा पाई थी । सभी प्रिंसिपल ने चार चार  प्रतियां तुरंत लेकर पैसे दे दिए । अपने काॅलेज में भी । यहां तक कि खेल प्रतियोगिता में जब सभी प्रिंसिपल इकट्ठे हुए तब कुछेक ने उलाहना दिया कि हमारी लाइब्रेरी के लिये किताब कब देने आ रहे हो ?

फिर नवम्बर आ गया । तब डाॅ जैन ने सुझाव दिया कि कमलेश नववर्ष के कार्ड भेजने की बजाय इस बार तुम अपनी पुस्तक उपहार में भेज दो । मैंने मोहर बनवाई उपहार भेंट की और तीन सौ लिफाफे खरीद कर ले आया । बस । लग गया उपहार में लेखकों संपादकों के नाम पोस्ट करने । नये साल के आने तक अनेक दूर दराज की कुछ नयी और कुछ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं मे इसकी समीक्षा देख खुद डाॅ जैन ने मुझे बहुत सारी कतरन भेज कर लिखा कि तुमने तो मेरा बंद पड़ा प्रकाशन चला दिया । लेखक मेरे से झगड़ा रहे हैं कि मैंने प्रकाशन बंद कर रखा है और कमलेश भारतीय की पुस्तक इतनी चर्चित हो रही है । यह कैसे ? तुमने तो  मेरे सुझाव पर ऐसे चले कि गुरु को भी  पीछे छोड़ गये । मुझे बहुत खुशी है । बहुत गर्व है तुम पर ।

इस तरह पहले लघुकथा संग्रह मस्तराम जिंदाबाद से मैंने सीखा पुस्तक पेपरबैक में होनी चाहिए और प्रिंट से आधा मूल्य लिया जाए तो सस्ती पुस्तक को हर व्यक्ति खुशी खुशी खरीद लेता है। पेपरबैक पुस्तक उस जमाने में पांच ही रुपये में दी । मेरे अपने सरीन परिवार के हर घर ने पांच पांच रुपये में मस्तराम जिंदाबाद खरीद कर  मुझे प्रोत्साहित किया  और इस तरह तीन सौ पुस्तक मेरे शहर नवांशहर के ही सरीन परिवारों में आज भी सहेजी हुई है  उन्हें खुशी है कि उनका बेटा लेखक बन गया । आर्टिस्ट और आजकल ट्रिब्यून समूह के कार्टूनिस्ट संदीप  जोशी का आभार जिसने मस्तराम जिंदाबाद का आवरण बनाया और खुद  ही चंडीगढ से अम्बाला छावनी  जाकर डाॅ महाराज कृष्ण जैन को सौंप कर आया । उसका नाम प्रकाशित है । मेरे साथ ही रहेगा ।

यही प्रयास वर्षों बाद मैंने नयी पुस्तक यादों की धरोहर के  साथ किया । हिसार में  एक एक मित्र ने मेरी प्रति  ली और बाकायदा राशि दी । दूरदराज के मित्रों ने सहयोग दिया । नवांशहर में अब भी छोटा भाई प्रमोद भारती पुस्तक पहुंचा रहा है । इस तरह एक बार फिर मेरा पहला संस्करण चार माह में सबके हाथों तक दिल्ली के पुस्तक मेले से पहले पहुंच गया । बिना किसी आर्थिक नुकसान के ।

वाह । पहली  प्रति पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती आशा हुड्डा के हाथों सौप कर दिल्ली में पंद्रह सितंबर को उनके जन्मदिन पर विमोचन करवाया और आज अंतिम  प्रति  पंचकूला  के मित्र प्रदीप राठौर  के नाम कोरियर से जा रही है । जिसे लिखा भी कि इसमें साथ ही यादों की धरोहर की यात्रा संपन्न हो रही है ।

मित्रो , आज सचमुच मैं मुक्त हूं और मेरी पत्नी नीलम पूछ रही है कि अब क्या करोगे ? इतने व्यस्त कि  रोज़ आधी रात बैठकर पैकेट बनाते थे । बेटी रश्मि गोंद लगाती थी और मेरे प्रिय मित्र  राकेश मलिक पोस्ट ऑफिस या कैरियर तक छोड़ने  जाते थे ।

मैंने कहा कि मैं आदरणीय डाॅ जैन और  अपने उस भूले बिसरे क्लर्क महेंद्र को गुरुमंत्र देने पर मन ही मन सुबह सवेरे नमन् कर रहा हूं । मुझे पुस्तक का प्रकाशक नहीं सिर्फ संपादक चाहिए ।

एक बार फिर रामदरश मिश्र जी की पंक्तियों के साथ अपनी बात रख रहा हूं :

मिला क्या न मुझको ऐ दुनिया तुम्हारी

मोहब्बत मिली है मगर धीरे-धीरे  ।

जहां आप पहुंचे छलांगें लगाकर

वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे-धीरे ।

बाॅय । यादों की धरोहर । जल्द नये संस्करण के साथ मिलेंगे । कुछ नये संस्मरण जोड़ कर । इंतजार कीजिए । फिर से आभार । आजकल नया कथा संग्रह यह आम रास्ता नहीं है, को भेज रहा हूं और दूर दराज बैठे मित्र पहले ही पेटीएम भेज कर सहयोग कर रहे हैं । सबका हार्दिक आभार ।

 

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘है’ और ‘था’… श्री संजय भरद्वाज (भावानुवाद) – ‘Is’ and ‘Was’… ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poem “’है’ और ‘था’”.  We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज 

 संजय दृष्टि   ‘है’ और ‘था’ 

‘है’ और ‘था’

देखें तो

दोनों के बीच

केवल एक पल थमा है….,

‘है’ और ‘था’

सोचें तो एक पल में

जीवन और मृत्यु का

अंतर घटा है…

 

©  संजय भारद्वाज 

☆ ‘Is’ and ‘Was’… ☆

‘Is’ and ‘Was’

If observed

Between the two

Only a moment

lies between the two,

‘Is’ and ‘Was’ ..,

two poles of life and death

If contemplated about

only a moment

defines the two…

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 28 ☆ तुम कब आओगे ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता हे राम ! तुम नहीं आये। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 28 ☆ हे राम ! तुम नहीं आये

हे राम ! तुम नहीं आये,

यहां हर गली-मौहल्लें चौराहे पर सैकड़ों रावण प्रकट हो गए,

हर वर्ष रावण को हम जलाते,

मगर जलकर पुर्नजीवित हो जाता, रावण कभी  मरता नहीं||

हे कृष्ण ! तुम नहीं आये,

यहां हर चौराहे, हर गली- मौहल्लें में खुले आम चीरहरण होने लगे हैं,

रोकने की कोशिशे व्यर्थ जाती,

हैवानियत लोगों की बढ़ती जा रही, अब सब की इज्जत पर आ पड़ी ||

हे राम ! अब तो राम तुम आ जाओ,

यहां अब लक्ष्मण जैसा कोई भाई नहीं, यहां अब भाई-भाई दुश्मन है,

भाई-चारा वापस बढ़ाना है,

राम राज्य लाकर लक्ष्मण जैसे भाई बनने की सौगंध दिला जाओ ||

अब तो कृष्ण तुम आ जाओ,

यहां भाई-भाई कौरव हो गए हैं और घर-घर में महाभारत हो रही ,

अपने गीता के ज्ञान से,

भाई-भाई में प्यार-त्याग और सम्मान की शिक्षा का अलख जगा जाओ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.११॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.११॥ ☆

 

कर्तुं यच च प्रभवति महीम उच्चिलीन्ध्राम अवन्ध्यां

तच च्रुत्वा ते श्रवणसुभगं गर्जितं मानसोत्काः

आ कैलासाद बिसकिसलयच्चेदपाथेयवन्तः

संपत्स्यन्ते नभसि भवतो राजहंसाः सहायाः॥१.११॥

सुन कर्ण प्रिय घोष यह प्रिय तुम्हारा

जो करता धरा को हरा, पुष्पशाली

कैलाश तक साथ देते उड़ेंगे

कमल नाल ले हंस मानस प्रवासी

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 80 – नवीन वर्षा …. ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 80 ☆

☆ नवीन वर्षा …. ☆

नवीन वर्षा नवीन  आशा घेवून ये आता

मनात माझ्या सदैव श्रद्धा होवून ये आता

 

जुनाट झाल्या पहाट वेळा  सूर्यास सांगा ना

उन्हात ओल्या दवास ताज्या प्राशून ये आता

 

खुणा सुखाच्या किती विखुरल्या सांडून दुःखाला

तसाच तू ही उनाड वारा होवून ये आता

 

मलाच ठावे कशा कुणाच्या नजरा विषारी त्या

पियुष मिळावे तुझे दयाळा धावून ये आता

 

नवीन वर्षा नकोच आहे फुकटी उधारी ती

तुला हवी ती लगेच रोकड पेरून ये आता

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नगण्य ☆ डाॅ.व्यंकटेश जंबगी

☆ कवितेचा उत्सव ☆ नगण्य ☆ डाॅ.व्यंकटेश जंबगी ☆

तुझ्या एका अश्रूबिंदूने,  माझ्या हृदयात प्रलय होतो

तुझ्या एका हास्याने, तेथेच कधी स्वर्ग फुलतो.

गालावरच्या खळीने तूच खोलवर हृदयात शिरतेस

एका शब्दाने कधी कधी, तू माझे आकाश पेलतेस.

तुझ्या एका स्पर्शाने, माझ्यात अनंत सतारी वाजतात.

तुझ्या एका कटाक्षाने, हृदयात असंख्य दिवे लागतात.

 

पण….हा फक्त भासच…

 

या साऱ्या “तुझ्या” मध्ये मी कुठे असतो?

तुझ्या भोवतालच्या गर्दीमधलाच मी एक असतो.

वेड्या मनाला किती वेळा सांगितले,

तू परमाणूतलाच एक आहेस,

आकाशातल्या बिजलीसाठी उगाचच झुरतो आहेस.

“ती” कधीतरी अशीच चमकून जाईल.

ओलावल्या धरणीचे “फोटो ”

काढेल, त्या फोटोत तरी तू असशील का ?

 

आता तरी झुरायचं सोडशील का ?

 

© डाॅ.व्यंकटेश जंबगी

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवन रंग ☆ मृगजळातील हिरवळ (भाग – 3) (भावानुवाद) ☆ सुश्री सुमती जोशी

सुश्री सुमती जोशी

☆ जीवन रंग ☆ मृगजळातील हिरवळ (भाग – 3) (भावानुवाद) ☆ सुश्री सुमती जोशी ☆

अशोक निराश झाला. प्रकाशन संस्थेच्या मालकांचा – माधवरावांचा चेहरा त्याच्या नजरेसमोर तरळला. रात्री जेव्हा मी त्यांच्यासमोर उभा राहीन, तेव्हा ते उपहासानं टोचून टोचून बोलतील, ‘चार दिवसात एकाही शाळेत पुस्तकं खपवता आली नाहीत ना? तुम्ही सगळे एकजात कुचकामी. जा आता.’ असं काहीबाही सांगून बॅग खांद्यावर देऊन मला बाहेरचा रस्ता दाखवतील.

समोर उभा असलेला सनातन ओरडला, “चला बाहेर. आता दरवाजा बंद करायचाय.”

जणू काही घडलंच नाही असं दाखवायचा केविलवाणा प्रयत्न केला अशोकनं. घसा अगदी कोरडा पडला होता, आता आणखी किती पायपीट करावी लागणारेय कोणास ठाऊक?

“इथे कुठे पाणी मिळेल का प्यायला?”

सनातननं निर्विकारपणे उत्तर दिलं, “तीन दिवसांपासून टयूबवेल खराब झालीय. दुरुस्त करावी लागेल.”

“टयूबवेल नाही, माझं नशिबच खराब आहे.”

“कुठून आलात तुम्ही?” काहीशा नरमाईनं सनातनने विचारलं.

“कोलकात्याहून. इथे रामनगर शाळेत आलो होतो. तिथे काम झालं नाही, पण तिथल्या शिपायानं तुमच्या शाळेचं नाव सांगितलं.”

“कसे आलात?”

“नदीच्या काठाकाठानं चालत आलो.”

किती दूरवरून चालत आलाय हा! हा विचार मनात आल्यावर सनातन वरमला.

“एवढं चालल्यावर तहान लागणारच! कळशीत थोडं पाणी शिल्लक होतं. तेही आत्ताच ओतून टाकलं. पाणी नाही, म्हणून तर शाळेला सुट्टी.”

अशोकनं काहीही उत्तर दिल नाही. बॅग घेऊन जिन्यापर्यंत आल्यावर सनातनने विचारलं, “कोणती पुस्तकं घेऊन आलायत?”

“बंगाली व्याकरण. पाचवीपासून दहावीपर्यंतची उत्तम पुस्तकं आहेत.”

कितीतरी शाळांच्या शिपायांनासुद्धा चांगली जाण असते. एकदा प्रयत्न तर करून पाहू या, असा विचार करून अशोकनं विचारलं, “तुम्ही पहाता का ही पुस्तकं?”

“मी शाळेचा शिपाई. मी पाहून काय उपयोग? भवेश सरांबरोबर बोलणी केली पाहिजेत.”

“ते बंगाली भाषा शिकवतात का?”

“हो. या शाळेतले ते सर्वात जुने शिक्षक. परवा आलात की तुम्ही त्यांना भेटा.”

“भवेश सर कुठे राहतात?”

जिन्यावरून उतरता उतरता मध्येच थांबत सनातन म्हणाला, “तुम्ही एक काम करा. इतक्या लांब आलाच आहात, तर भवेश सरांची भेट घेऊन जा. समोरच राहतात ते. आता सर घरीच असतील. मी पाठवलंय, असं सांगायची गरज नाही.”

अशोकला एक चतकोर आशा वाटू लागली. तो पटकन म्हणाला, “तसं काही असलं, तर फारच चांगलं. आज जर काही पुस्तकं देता आली तर बरं होईल. पुस्तकांची माहिती सांगायला हवी असली तर पुढच्या वेळी वर्गात जाऊन सांगीन.”

“मी त्याच वाटेनं घरी चाललोय. तुम्हाला भवेश सरांचं घर दाखवतो.”

दोघं जिन्यावरून खाली उतरले. सनातनने प्रवेशद्वाराला कुलूप घातलं. अशोक शेजारीच उभा होता. उन्हं कलली होती. दमला असला तरी अशोक उल्हासित झाला होता. त्यानं चौकशी केली, “बस स्टॉप इथून किती लांब आहे?”

“मास्तरांच्या घरापासून दहा मिनिटांच्या अंतरावर तुम्हाला रिक्षा मिळेल. चार रुपयात तो तुम्हाला कदमगाछी बस स्टँडवर नेऊन सोडेल. तिथली कितीतरी मुलं आमच्या शाळेत आहेत. वास्तविक हीच या परिसरातली सर्वात जुनी शाळा. यंदा शंभर वर्षे होतील आमच्या शाळेला. आमचे मुख्याध्यापक म्हणत होते, शाळेचा शताब्दी उत्सव मोठया प्रमाणार साजरा करायचाय.”

क्रमश: ….

श्री चंचलकुमार घोष यांनी लिहिलेल्या ‘मरुद्यान’ या बंगाली कथेचा भावानुवाद.

अनुवाद – सुश्री सुमती जोशी

मोबाईल ९८३३२२२१०६. इ मेल आयडी [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ आयुर्वेद कोश – फोडणी ! ☆ वैद्य.अंकुर रविकांत देशपांडे

 ☆  विविधा ☆ आयुर्वेद कोश – फोडणी ! ☆ वैद्य.अंकुर रविकांत देशपांडे ☆ 

फोडणी वरती कधी लेख लिहावा लागेल असे वाटले नव्हते.. चार दिवसांपूर्वी शेवटची अपॉइंटमेंट आणि गप्पिष्ट रुग्ण असा योग जुळून आल्याने ‘खाण्यावर’ गप्पा रंगल्या होत्या. लॉकडाउन मधे अनेक निरनिराळे ‘ट्रेंड’ आले. लोकांनी फावल्या वेळात अनेक पदार्थ करून पाहिले. विविध पदार्थानी सोशल मीडिया सजला. आपण घरी जिलेबी, खारी, ब्रेड, पफ-पेटीस असे पदार्थ करू शकतो असा आत्मविश्वास अनेकांना आला. सर्वांच्या कष्टाचे आणि हौसेचे अभिनंदन! रोजच्या स्वयंपाकाचा अविभाज्य भाग फोडणी हे शास्त्र आणि कला मात्र अस्तंगत होत आहे असे सामान्य निरीक्षण आहे ! त्यावर थोडे मत प्रदर्शन.. चुकून कोणाला ठसका लागला कोणाला उचकी लागली तर जमल्यास मला माफ करावे!

हिंदुस्तानची ओळख ‘मसाल्यांचा’ देश अशी होती. आजही आहे. दक्षिणेत मसाल्याचे पदार्थ फार उत्तम पद्धतीने वापरतात. ठराविक प्रमाणात वापरतात. आपल्याकडे आताच्या पिढीला मसाल्याचे पदार्थ एकतर सगळे ठाऊक नसतात. असले तर ते कोठे, का आणि कसे वापरायचे याची माहिती नसते. खरं सांगू.. आजीबाईच्या बटव्यात कधी त्रिभुवनकीर्ती, सूतशेखर, सितोपलादी, चंद्रप्रभा नव्हतेच. तिला यांची कधी गरजच लागली नाही. जिरे, मिरे, हिंग, ओवा, ओव्याची पानं, लवंग, दालचिनी, तमालपत्र, जिरे, शहाजिरे, वेलदोडा, मोठा वेलदोडा -मसाला वेलदोडा, जायफळ, धने, जावित्री, कसुरी मेथी, सुके खोबरे, मेथी, आमचूर, बडीशेप, मोहरी, काकडी बी, भोपळा बी, आवळकाठी, लसूण, चिंच, कोकम, खसखस, सैंधव, शेंदेलोण, पादेलोण, काबाबचिनी, केशर, सुंठ, चक्र फुल, हळद, तीळ, डिंक, खडीसाखर हा आजीबाईचा बटवा आहे. आपण आपल्या सोयीसाठी त्यात औषधी कल्प घातले आणि आजीबाईच्या नावाअडून ‘बिन डिग्री फुल अधिकरी’ हातचलाख्या सुरु केल्या. असो !

आजीबाईचा बटवा आणि त्यातील शास्त्र स्वयंपाकघरात खुलतो. आम्ही अन्न हे “महा भेषज” – सर्वोत्तम औषध असे म्हणतो त्याचे मूळ फोडणीत असते. टोमॅटो प्युरी मधे नाही ! सध्या सगळेच पदार्थ टोमॅटो प्युरी मधे करायची घाणेरडी सवय रुळली आहे. हॉटेल असो किंवा घर अशा प्युरी चे डबे फ्रिज मधे तयार असतात. टोमॅटो प्युरी भाजीचा ‘बेस’ असो म्हणे ‘बेस’! अतिशय अयोग्य आणि अशास्त्रीय पद्धतीने आपल्या आरोग्याचा बेस बिघडवला आहे हे नक्की! टोमॅटो हिंदुस्तानात पोर्तुगीजांनी आणला १६ व्या शतकात. त्याच्या आधी अत्यंत चविष्ट, शास्त्रीय हिंदुस्थानी खाद्याचा ‘बेस’ काय होता ?? आजकाल कांदे पोहे मसाला पासून मिसळ मसाला याची पाकिटं मिळतात. पाकीट फोडले की विषय संपला. इन्स्टंट पदार्थ तयार… ज्या घरात फोडणी व्यवस्थित होते ते घर निरोगी आणि घरातील व्यक्ती नशीबवान !

तेल गरम झाल्यावर त्यात आधी कमी प्रमाण असलेले जिन्नस, त्यांचा अर्क तेलात उतरला की पुढील पदार्थ सर्वात शेवटी भाजी असा सामान्य क्रम आहे. स्वयंपाकाचा हात उत्तम असला की पळीभर तेलात टाकलेले चिमूटभर हिंग सुद्धा जळत नाही. आपली सवय अशी.. तेल गरम करायचे, कांदा टोमॅटो मिरची कढईत टाकायची वरून मसाला भुरभुरायचा किंवा मसाला फक्त दोन तीनदा झाऱ्याने हलवून त्यात भाजी घालायची. सोपे उदाहरण देतो.. महाराष्ट्राचे राष्ट्रीय खाद्य कांदे पोहे आपण सगळेच खातो. त्यात खुसखुशीत कढीपत्ता कोणाला कधी सापडला आहे का? दही पोहे यावर काही लोक फोडणी घालतात त्यात भरलेली मिरची घालतात.. मिरचीचे आतील सारण किती वेळा खुसखुशीत फ्राय झालेले असते? एखाद्या म्हणजे एखाद्या तरी भाजीला ”अहाहा.. जिऱ्याचा काय सुंदर वास लागलाय?’ असे होते का? हॉटेल मधे ३०० रुपयाला वाटीभर मिळणाऱ्या जिरा राईस मधे जिरा चा आस्वाद कितीसा असतो ? हे सांगायचे कारण असे.. खाद्य हे पौष्टिक होण्या पेक्षा प्रेझेंटेबल होण्याकडे कल बराच वाढला आहे.. तेलात/तुपात भाजलेला हिंग-लसूण पोटात जात नाही. ओवा लवंग तिखट लागतो म्हणून आपण वापरत नाही. कढीपत्ता बोअर असतो म्हणून पानाच्या साईड ला काढून ठेवतो. त्यामुळे पोटात अन्न भरपूर जाते शास्त्र मात्र जात नाही!

पचन संस्थेचे वाढत चालणारे आजार आणि उठसुठ होणाऱ्या एन्डोस्कोपी-कोलोनोस्कोपी याचे कारण अशास्त्रीय पद्धतीने बनवलेला – खाल्लेला आहार आहे. फोडणीत भाजलेला लसूण चावून खाणे किंवा बटाटा भाजी सारख्या पचायला जड असलेल्या भाजीच्या फोडणीत ओवा जिरे असणे हा आजीबाईचा वारसा आहे. पोट टम्म झाल्यावर इनो पिऊन बुलबुले काढणे हा ग्रॅनी चा वारसा आहे. अधोरेखित करायचा मुद्दा असा, मिरच्यांच्या धुरी आणि लालेलाल स्वयंपाक मौज म्हणून करायला हरकत नाही. फोडणी मात्र बायपास व्हायला नको… चिंच कधी आणि आमसूल कधी हे गृहिणीला बरोबर माहित असते. त्याच घरात आरोग्य असते.. कामाच्या व्यापामुळे अनेकांकडे स्वयंपाकाला बाई असते. हरकत नाही.. ऑफिस मधे जसे आपण प्रोजेकट डिझाईन करतो तसे आपला स्वयंपाक डिझाईन करून द्यायला काहीच हरकत नाही!

कोणत्याच तयार मसाल्यात काहीच ‘मॅजिक’ नसते. मॅजिक असते ते करणाऱ्याच्या हातात. केलेल्या फोडणीत.फोडणीत आपले सत्व सोडणाऱ्या मसाल्यात. केलेले अन्न आनंदाने खाणाऱ्या व्यक्तीत. वैद्य असो किंवा अन्नपूर्णा ”योजक: तत्र दुर्लभ:” हा सिद्धांत दोघांनाही लागू होतो !

 

© वैद्य.अंकुर रविकांत देशपांडे

एम डी (आयुर्वेद )

आरोग्य मंदीर, सांगली -पुणे -कणकवली

7276338585

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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