हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 73 – हस्ताक्षर सेतु ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “ हाइबन – हस्ताक्षर सेतु। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 73☆

5 Interesting Facts To Know About Delhi's Iconic Signature Bridge

☆  हाइबन- हस्ताक्षर सेतु ☆

मनुष्य को अद्वितीय चीजों से प्यार होता है। यही कारण है कि वह एफिल टावर पर खड़े होकर शहर की खूबसूरती का नजारा देखने में आनंद का अनुभव करता है। अब यही सुखद अनुभव आप हस्ताक्षर सेतु के सबसे ऊंचे हिस्से में जाकर आप भी उठा सकते हैं। इसके लिए आप को भारत से बाहर जाने की जरूरत नहीं है।

11 साल के लंबे इंतजार के बाद उत्तरी दिल्ली को उत्तर-पूर्वी दिल्ली से जोड़ने वाला दिल्ली का सबसे ऊंची इमारतों से भी ऊंचा सेतु बनकर तैयार हो गया है । इस सेतु की 154 मीटर ऊंचाई पर स्थित दर्शक दीर्घा से आप दिल्ली के लौकिक और अलौकिक नजारे को देख सकते हैं। 15 तारों पर झूलते हुए इस सेतु में ऊंचाई पर जाने के लिए 4 लिफ्ट लगाई गई है।

350 मीटर लंबे इस सेतु की दर्शक दीर्धा से पर झूलते हुए सेतु को एक साथ 50 दर्शक यहां का खुबसूरत नजारा देख सकते हैं। इस सेतु की ऊंचाई दिल्ली के कुतुब मीनार से भी ऊंची है । इस सेतु के निर्माण ने दिल्ली के हजारों व्यक्तियों के रोजमर्रा के जीवन के 30 मिनट बचा दिए हैं। यमुना नदी पर बना अनोखा हस्ताक्षर सेतु है । इसे सिग्नेचर ब्रिज भी कहते हैं।

चांदनी रात~

सिग्नेचर की लिफ्ट

में फंसे वृद्ध।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

23-12-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 49 ☆ वायरल पोस्ट ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “किस्म किस्म के ढक्कन”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 49 – किस्म किस्म के ढक्कन ☆

भावनाओं में बह कर व्यक्ति अक्सर गलतियाँ कर जाता है। परंतु जो पूर्वाग्रह से मुक्त होकर केवल सकारात्मक ही सोचता है, वो अंधकार में भी प्रकाश की किरण ढूँढ़ ही लेता है। ऐसे लोग न केवल दूरदर्शी होते हैं वरन अपनी उन्नति के मार्ग भी प्रशस्त करते हैं। उम्मीद का दामन थामें उम्मीदवार बस भगवान को मनाते रहते हैं कि सब कुछ उनके पक्ष में हो पर होगा कैसे ?  ये तो आपका पक्षकार ही बता सकता है।

इसी तरह तत्काल जो निर्णय किए जाते हैं, वे भावनाओं से प्रभावित होते हैं किंतु कुछ समय के बाद जब हम कोई फैसला करते हैं तो वो दोनों पक्षों को ध्यान में रखकर किया जाता है। ये सही है कि उपेक्षा और अपेक्षा दोनों ही हमारे लिए घातक साबित होते हैं किंतु हम सब इनके प्रभाव से अछूते नहीं रह पाते हैं। सच कहूँ तो इनके बिना तरक्क़ी ही नहीं हो सकती है। जब तक लोभ मोह की छाया हमारे चारों ओर नहीं होगी तब तक कोई कार्य किए ही नहीं जायेंगे। लोग हाथों में हाथ धरे बैठे हुए जीवन व्यतीत कर देंगे।

अब बात आती है ऐसे अजूबों की जो समझाने पर भी कुछ नहीं समझते ,समझ में नहीं आता या अनजान बनने का ढोंग करते हैं, या वास्तव में ही नासमझ होते हैं, भगवान ही जाने। खैर ये सब तो चलता  रहेगा।  दुनिया ऐसे ही भेड़चाल चलते हुए अपना विकास करती जा रही है। मजे की बात ये है कि बोतल कोई भी हो ढक्कन तो बस एक ही कार्य करते हैं। अपना बचाव करते हुए उल्लू सीधा करना। हद तो तब हो जाती है जब चमचों की बड़ी फौज बस सिर हिलाकर अपनी सहमति  देने में ही अपना सौभाग्य समझती है।

बिना ढक्कनों के डिब्बों की पूछ परख भी नहीं होती है। उन्हीं में समान रखा जा सकता है जो इनके साथ हों। सफाई करते समय डिब्बों को भले ही बाहर से साफ कर दिया जाए किन्तु ढक्कनों को धो पोंछ कर ही इस्तेमाल करते हैं क्योंकि यही तो हैं जो वस्तुओं के असली रक्षक होते हैं। डिब्बे का समान तभी सही रह सकता है जब एयरटाइट डिब्बा हो और इस एयर को टाइट करने का कार्य ये ढक्कन ही करते हैं सो ऐसे लोगों को नमन जो इसको आदर्श बना कर जीवन एक गति से जिए जा रहे हैं।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 56 ☆ राष्ट्र हित में सदा हम जिएँगे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं   “राष्ट्र हित में सदा हम जिएँगे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 56 ☆

☆ राष्ट्र हित में सदा हम जिएँगे ☆ 

राष्ट्र हित  में सदा हम  जिएँगे।

हिन्द पर प्राण अर्पित करेंगे।।

आन इसकी सदा हम रखेंगे,

शत्रु से हम न हरगिज डरेंगे ।।

 

कर्म पथ पर कदम हम बढ़ाकर।

भाग्य की रेख अपनी बना कर।।

भूल अपनी सभी हम सुधारें,

ईश का नाम हर पल पुकारें ।।

 

वक्त थोड़ा मिला हम सभी को,

व्यर्थ – बातों में क्यों कर लड़ेंगे।।

 

मान सम्मान दें गुरुजनों को।

ख़त्म कर दें सभी दुश्मनों को।।

कार्य शुभ हो शुभम कामना हो,

आँधियों से नहीं सामना हो।।

 

शूल से पथ अगर ये पटा हो।

मंजिलों को सदा हम बढ़ेंगे।।

 

आपसी बैर से जंग जारी।

तोड़ती दम मनुजता बिचारी।।

दिल मिला लें, दिलों से चलो हम,

प्यार हो क्यों धरा पर कभी कम।।

 

पौध क्यों कीकरों की उगाएँ,

हम बदी से नहीं अब डरेंगे।।

 

नित्य हँसना सभी को सिखाएँ।

स्वर्ग हम मिल धरा को बनाएँ।।

जग भलाई करें जिंदगी में।

बीत जाए उमर सादगी में।।

 

नाम हरजीत अपनी लिखा कर,

हम उड़ानें गगन की भरेंगे।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१२॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१२॥ ☆

आपृच्चस्व प्रियसखम अमुं तुङ्गम आलिङ्ग्य शैलं

वन्द्यैः पुंसां रघुपतिपदैर अङ्कितं मेखलासु

काले काले भवति भवतो यस्य संयोगम एत्य

स्नेहव्यक्तिश चिरविरहजं मुञ्चतो बाष्पमुष्णम॥१.१२॥

जगतवंद्य श्रीराम पदपद्म अंकित

उधर पूततट शैल उत्तुंग से मिल

जो वर्ष भर बाद पा फिर तुम्हें

विरह दुख से खड़ा स्नेहमय अश्रुआविल

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ शाईचा रंग ☆ श्रीओंकार कुलकर्णी

☆ कवितेचा उत्सव ☆ शाईचा रंग ☆ श्रीओंकार कुलकर्णी ☆

शाईचा रंग कोणता?

कोण आहे जाणता?

 

कुणी कापले किती

अन कुणी मारले किती

कोणास काय भीती

शाईचा रंग कोणता

कोण आहे जाणता?

 

भोगत्या झाल्या माद्या

अन बाल्य पोरके झाले

घास झाला सांडता

शाईचा रंग कोणता

कोण आहे जाणता?

 

झाले तह किती ते

अन फौजा सरल्या किती त्या

ईतिहास चक्र चालते

शाईचा रंग कोणता

कोण आहे जाणता?

 

©  श्री ओंकार कुलकर्णी

20-12-2018

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवन रंग ☆ मृगजळातील हिरवळ (भाग – 4) (भावानुवाद) ☆ सुश्री सुमती जोशी

सुश्री सुमती जोशी

☆ जीवन रंग ☆ मृगजळातील हिरवळ (भाग – 4) (भावानुवाद) ☆ सुश्री सुमती जोशी ☆

सनातनचं कोणतच बोलणं अशोकच्या कानात शिरत नव्हतं. त्याच्या डोक्यात फक्त एकच नाव घुमत होतं, ‘भवेश सर.’ सनातनकडे पहात त्यानं विचारलं, “भवेश सर कसे आहेत?”

“सज्जन आहेत. इतरही शिक्षक आहेत, पण भवेश सर सांगतील, त्याप्रमाणे सगळे शिक्षक वागतात.”

“बंगाली पुस्तकांचा निर्णय ते घेतात का?”

गप्पा मारता मारता दोघेजण मोठया भिंतीची तटबंदी असलेल्या देवळापाशी येऊन पोचले. खूप विशाल देऊळ. चारी बाजूला व्हरांडा. देवळाचा दरवाजा बंद होता. अशोकनं हात जोडले.

“कोणाचं देऊळ?”

“शंकराचं. आमच्या शाळेचे संस्थापक परमेश्वर मझुमदार. ईश्वरचंद्र विद्यासागर यांचे विद्यार्थी. ते मूळचे याच गावचे, पण कोलकात्याला रहात. तेव्हा इथे एकही शाळा नव्हती. परमेश्वर मजुमदार यांनी स्वत: कमावलेल्या निधीतून वडिलांच्या नावानं देणगी दिली आणि खूप कष्ट करून ही शाळा उभी केली. ते कोलकात्याला मोठया हुद्द्यावर नोकरी करत होते. ती नोकरी सोडून त्यांनी या शाळेची जबाबदारी घेतली. तेव्हा ही शाळा अगदी छोटी होती. शिवाय त्यांनी इथे दवाखाना काढला, देऊळ बांधलं, नदीवर घाट बांधला. अनेक सामाजिक कामात लक्ष घातलं.”

“त्या काळी अशी उदार मनाची अनेक माणसं दिसत असत. आता तशी माणसं कुठायत?”

सनातनने मान डोलावली. ‘खरंच भाऊ तुम्ही बरोबर बोलताय. तेव्हा ईश्वरचंद्र विद्यासागर यांच्यासारखे आदर्श शिक्षक होते, म्हणून आदर्श विद्यार्थी तयार होत. आता शिक्षकांनी आपली सारी कर्तव्यं सोडून दिलीयत. त्यामुळे बघता बघता त्यांच्याविषयीचा आदर कमी होऊ लागलाय.”

अशोकला सनातनचं म्हणणं पटलं. शिक्षकांविषयीचा गेल्या दोन वर्षातला त्याचा अनुभवही काही खास नव्हता. सगळ्या मनाला न पटणाऱ्या गोष्टी कराव्या लागल्या होत्या. विद्यार्थ्यांना धाकदपटशा दाखवून पुस्तकं विकावी लागत. शिक्षक कमिशन घेत. इतकं करून पुस्तकं विकली गेली नाहीत, तर सकाळ संध्याकाळ मालकाची बोलणी खावी लागत. नुकतीच घडलेली एक घटना अशोकला आठवली. एका शाळेत पुस्तकविक्री झाली नाही. तरीही न रागावता त्याला मास्तरांच्या कलानं घ्यावं लागलं होतं. त्या शाळेत शेवटी मास्तरांनीच त्याला धीर दिला, ‘आज शुक्रवार. आज पुस्तकं विकली गेली नाहीत, तरी काळजी करू नकोस. उद्या शनिवार. उद्या माझा तास आहे. सोमवारपासून तुझी पुस्तकं विकली जातील.’

अशोक अवाक झाला. या सुशिक्षित लोकांना काही जादू करता येते की काय? गेल्या एकवीस दिवसात एकही पुस्तक विकलं गेलं नाही आणि आता फक्त तीन दिवसात…!

शनी, रवी, सोम यानंतर मंगळवारी संध्याकाळी पुस्तकांच्या दुकानाचा मालक प्रकाशन संस्थेच्या ऑफिसमध्ये हजर झाला, “सर्व पुस्तकं संपली, आणखी लागतील.”

“असं कसं झालं? मास्तरना जादूटोणा अवगत आहे काय?”

कुत्सितपणे हसत दुकानाचा मालक उत्तरला, “तुम्ही शुक्रवारी शाळेत गेला होतात ना? त्यांच्या प्रेस्टीजला धक्का लागला. कमिशनचे पैसे त्यांनी आधीच घेऊन ठेवले होते आणि पुस्तकांची विक्री करता आली नाही. शनिवारी वर्गात गेल्यावर पहिल्या बाकापासून शेवटच्या बाकापर्यंत प्रत्येक मुलाला वेताच्या छडीनं असं मारलं की दुसऱ्या दिवसापासून घाबरत घाबरत मुलं पुस्तकं खरेदी करू लागली.” अशोकला वाईट वाटलं. अपराधीपणाची भावना त्याच्या मनात घर करून राहिली. आज भवेश सरांना भेटताना या आठवणीने त्याच्या मनाचा थरकाप उडाला.

भावविवशतेचं जग तुम्हाला एका विचित्र वळणावर घेऊन जातं. भवेश मास्तरांकडे गेल्यावर आणखी काय करावं लागेल, कोणास ठाऊक!

आपण सरांच्या घरापाशी आलोय’, हे सनातनचे शब्द ऐकून अशोक भानावर आला. “हे भोवताली बाग असलेलं घर आहे ना, तिथेच भवेश सर राहतात. आज घरी सर एकटेच आहेत. सरांची बायको सकाळीच माहेरी गेलीय. तुम्ही खुशाल सरांच्या घरी जा. तुम्हाला काही अडचण येणार नाही. मला दुसऱ्या दिशेला जायचंय.”

रस्त्याच्या कडेला भवेश सरांचं घर. घराच्या चारी  बाजूना मोकळी जागा. घराला मोठा व्हरांडा. चहूबाजूना झाडंझुडपं आणि या सगळ्याला बांबूचं वेष्टण. लहानसं लोखंडी प्रवेशद्वार. कानोसा घेत अशोकनं घरात प्रवेश केला. माणसांची चाहूल लागेना. सगळीकडे शांतता पसरली होती. इकडेतिकडे बघितल्यावर व्हरांडयातल्या खुर्चीवर बसलेली, धोतर नेसलेली, पुस्तक वाचत असलेली एक पाठमोरी आकृती दिसली. पुस्तकामुळे चेहरा नीट दिसत नसला तरी भवेश सरांना ओळखण्यात अशोकची चूक झाली नाही. बॅग खाली ठेवून अशोक हळूहळू पुढे गेला.

क्रमश: ….

श्री चंचलकुमार घोष यांनी लिहिलेल्या ‘मरुद्यान’ या बंगाली कथेचा भावानुवाद.

अनुवाद – सुश्री सुमती जोशी

मोबाईल ९८३३२२२१०६. इ मेल आयडी [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बोध कथा – स्वामीनिष्ठा ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी

☆ जीवनरंग ☆ बोध कथा – स्वामीनिष्ठा ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी ☆ 

||कथासरिता||

(मूळ –‘कथाशतकम्’  संस्कृत कथासंग्रह)

? लघु बोध कथा?

कथा १४ . स्वामीनिष्ठा

विशालपूर नगरात एक राजा होता. तो शूर  राज्यकर्ता होता. धर्माचे पालन करीत  न्यायानुसार प्रजेचे व राज्याचे संरक्षण करीत होता.एकदा त्याला जिंकण्याची इच्छा करणाऱ्या  शत्रूने त्याच्या नगरावर आक्रमण केले.  युद्धात राजाला पराजित व्हावे लागले. या पराजयाचे त्याला अतोनात दुःख झाले. तो  नगराचा त्याग केलेला  व केवळ एकाच मंत्र्याची साथ लाभलेला राजा अरण्यात  आला.   तिथेसुद्धा तो शत्रूच्या भयाने कुठेही अधिक काळ थांबू शकत नव्हता.  काट्याकुट्यातून, तीक्ष्ण दगडांवरून पादत्राणे-विरहित, चालण्यास असमर्थ असलेला, तहान-भुकेने व्याकूळ झालेला, ‘पुढे काय करावे?’ या विचाराने चिंताग्रस्त झालेला तो राजा एका तलावाकाठी विश्रांतीसाठी थांबला. आपल्यावर ओढवलेल्या या घोर संकटातही आपली साथ न सोडता आपल्याबरोबर येणाऱ्या त्या मंत्र्याला पाहून राजाच्या डोळ्यांतून अश्रूधारा वाहू लागल्या व त्याला खूप वाईटही वाटले.

“हे  मंत्रिवर, माझे संपूर्ण राज्य नष्ट झाले. माझे हत्ती, घोडे, रथ, सैन्यही राहिले नाही. माझ्यावर फार मोठे संकट ओढवले आहे. आता मला जगण्याची इच्छाच राहिली नाही. पराजित होऊन अशा मरणयातना भोगण्यापेक्षा जलसमाधी घ्यावी किंवा कड्यावरून दरीत उडी घ्यावी किंवा अग्निप्रवेश करावा असे मला वाटत आहे” अशा प्रकारे विलाप करणाऱ्या राजाचे ते बोलणे ऐकून मंत्र्याचे हृदय विदीर्ण झाले.

राजाला दुःखातून बाहेर काढण्याच्या उद्देशाने मंत्री म्हणाला, “महाराज, कालवशात आपले राज्य नष्ट झाले तरी मरण पत्करणे हा त्यावर उपाय नाही. तेव्हा मरणाचे विचार मनात येऊ देऊ नका. जे आपले शत्रू आहेत तसेच ह्या शत्रूराजाचे देखील शत्रू असणारच. त्यांच्याशी मैत्री करून, युद्धाची सज्जता करून, शत्रूचा पाडाव करून पुन्हा नवे राज्य स्थापित करा. नष्ट झालेले राज्य पुनश्च प्राप्त होत नाही असे मुळीच नाही. अमावास्येच्या दिवशी चंद्राच्या सर्व कला क्षीण होतात. तोच चंद्र पुन्हा शुक्लपक्षात वृद्धिंगत होतोच ना? अशाच प्रकारे आपलाही उज्ज्वल काळ येणार व परमेश्वराच्या कृपेने आपलेही मनोरथ पूर्ण होणारच!”

मंत्र्याच्या ह्या प्रेरणादायी वचनांनी राजाचे नैराश्य एकदम दूर झाले. तो प्रफुल्लित झाला. योग्य प्रयास करून, सर्व सैन्य एकत्रित करून राजा युद्धासाठी सज्ज झाला. युद्धात शत्रूला नमवून पुन्हा राजपदी आरूढ झाला. त्या मंत्र्यासह त्याने चिरकाळ राजेपद उपभोगले.

तात्पर्य –  राजाच्या पदरी बुद्धिमान व निष्ठावान मंत्री असले तर ते ओढवलेल्या संकटांवर योग्य उपायांद्वारे मात करू शकतात.

अनुवाद – © अरुंधती अजित कुळकर्णी

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ वर्क फ्रॉम होम ☆ सौ.अंजली दिलिप गोखले

सौ.अंजली दिलिप गोखले

☆ विविधा ☆  वर्क फ्रॉम होम ☆ सौ.अंजली दिलिप गोखले ☆

वर्क फ्रॉम होम, ही कनसेप्ट आता साऱ्या जगभर दुमदुमते आहे. या बाबतीत कुणाला काही माहिती नाही असे नाही किंबहुना त्याचे महत्व ही आता सगळ्यांना पटायला लागले आहे. अर्थात हे काम इंजिनियर्स, टिचर्स. ऑफीस  वर्कर्स यांच्याच साठी अॅप्लिकेबल आहे असेच मानले जाते.

पण खरं सांगू का? शतको न शतके आपल्या संर्वांच्या घरातील महिला, गृहिणी वर्क फ्रॉम होम करतच आल्या आहेत. पण त्यांच्या कामाची, कष्टाची कोणीही दखल घेतली नाही. अन् घेतली जाणार ही नाही. घरीच असते म्हणजे घरातील कामे तिचीच असेच गृहीत धरले जाते. ती कामे करताना ती किती दमून जाते याचा कोणी विचारच करत नाही. ऑफीसचे काम घरामधून केले की निदान त्याचा रिटर्न पगाराच्या रुपामध्ये मिळतो. बँक बॅलेन्स वाढत जातो. एक प्रकारे मानसिक शांतता ‘ ऊ ब, समाधान नकीच मिळते. मात्र गृहिणी ना तेवढा आधारही नाही. पगार वाढ करा म्हणून संप करू शकत नाहीत की हौसेनं एखादी वस्तू मनात आले म्हणून घेऊ शकत नाही.

काही वर्षापूर्वी मलेशियाला जाण्याचा, तिथे रहाण्याचा मला योग आला होता. तेव्हा तिथल्या मित्रांना यांनी घरी जेवायला बोलावले होते. आपल्या पद्धती प्रमाणे मी जेवण वाढत होते. साधे मीठ वाढले, भांड्यात प्यायला पाणी घातले तरी ते प्रत्येक वेळी ‘ थँक्यू ‘ म्हणत होते. पहिल्यांदा ते थँक्यू ऐकून माझे मन भरून आले. डोळ्यात पाणी जमायचेच बाकी राहिले होते. मला आपल्या सगळ्यांच्या घरातल्या आई, आजी काकू, मावशी, आत्या सगळ्या सगळ्या आठवल्या. आयुष्यभर संसाराचा रामरगाडा ओढला तरी एकदाही तिला ऐकायला मिळाला नसेल ‘ धन्यवाद’ शब्द !

अर्थात आपल्या कडे तशी अपेक्षा नाही आणि प्रथा तर नाहीच नाही. पण घरातल्या कोणीतरी मनापासून दखल जरी घेतली तरी तिला आणखीनच काय करण्याचा उत्साह येतो. पण गृहीत धरणे हे आपल्या कडे रुटीन असल्यामुळे तिकडे कोणाचे लक्ष्य जात नाही.

असे दुर्लक्ष्य फक्त महिलांचे होते असेही नाही. पूर्वी एकत्र कुटुंब काळामध्ये मोठ्या व्यक्तिचा घरावर दरारा असायचा, दबदबा असायचा. त्याचाच लहान भाऊ किती जरी कर्तबगार असला, तरी त्याचे एका शब्दानेही कौतुक होत नसे. त्याची दखलही घेतली जायची नाही. हे कुणाच्या लक्षातही यायचे नाही.

आजच्या वर्क फ्रॉम होम मुळे निदान सर्वांना गृहिणीचे अस्तित्व, कर्तृत्व अन् महत्व समजायला लागले आहे असे आपण आनंदाने मानूया.

© सौ.अंजली दिलिप गोखले

मो  8482939011

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆सूर संगीत राग गायन (भाग ५) – अभंग/भजन/भावगीत गायन ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरुणा मुल्हेरकर

☆ सूर संगत ☆ सूर संगीत राग गायन (भाग ५) – अभंग/भजन/भावगीत गायन ☆ सुश्री अरुणा मुल्हेरकर☆ 

शास्त्रीय संगीतावर लिहीत असतांना भक्तीगीत गायन, भावगीत गायन ह्यावर विचार होणे आवश्यक आहे असे मला वाटते कारण रागदारी संगीताला आपण “Music of class म्हटले तर अभंग, भावगीत गायनाला Music of mass म्हणणे योग्य होईल.

संगीताची आवड नाही असा मनुष्य विरळाच! त्याला गायनाविषयी कसलीही जाण नसली तरी देव माझा विठू सांवळा सारखे एखादे भक्तीगीत किंवा शुक्रतारा सारखे भावगीत कानांवर आले की मनाला कसे प्रसन्न वाटते. श्रोताही ते नकळतपणे गुणगुणु लागतो.

ज्ञानेश्वर महाराज, नामदेव, तुकाराम आदि महाराष्ट्रांतील संत मंडळींनी असंख्य अभंगरचना करून ठेवल्या आहेत आणि त्यांतील कित्येक अभंगांना र्‍हुदयनाथ मंगेशकर, सुधीर फडके, जितेंद्र अभिषेकीसारख्या दिग्गज संगीतकारांनी स्वरबद्ध केल्यामुळे ते अभंग आपल्या ओठांवर रेंगाळत रहातात.

शास्त्रीय संगीताचा आधार असलेली ही एक स्वतंत्र गायन शैली असे आपल्याला अभंग/भजन याविषयी म्हणतां येईल. अभंग एक व्यक्ति गाऊ शकते आणि भजन हे टाळ, झांजा यांच्या गजरांत सामूहिकरित्या सादर केले जाते असा अभंग व भजनांतील फरक! दोन्हीही प्रकार पूर्णतया भक्तीरसांत भिजलेले. यमन, यमनकल्याण, भीमपलास हे अभंग~ गायनाचे अगदी खास राग! समाधी साधन। संजीवन नाम। हा श्री सुधीर फडके यांनी संगीतबद्ध केलेला व गायिलेला अभंग, किंवा माणिकबाईंची कौसल्येचा रामबाई, धननीळा लडिवाळा ही भक्तीगीते ही यमन, यमन कल्याणची उदाहरणे नमूद करता येतील, तसेच मा. कृष्णराव यांनी संगीत दिलेला अवघाची संसार सुखाचा करीन हा ज्ञानेश्वर माऊलींचा अभंग भीमपलासीच्या सुरांनी नटलेला आहे. माणिक वर्मांचे अमृताहुनी गोड हे भीमपलासांतील भक्तीगीत तर वर्षानुवर्ष्ये संगीतप्रेमी गात आहेत. याचा अर्थ असा नाही की दुसर्‍या कोणत्या रागांत भक्तिरचना नसतात. अबीर गुलाल उधळीत रंग यांत देसकारचे दर्शन घडते, ओंकार स्वरूपा या एकनाथ महाराजांच्या अभंगाला श्रीधर फडके यांनी बैरागीचा स्वरसाज चढविला आहे. आजि सोनियाचा दिनु हा ज्ञानेशांचा अभंग र्‍हुदयनाथांनी भैरवीच्या स्वरांनी भक्तीरसांत बुडविलेला आहे. कानडा राजा पंढरीचा हा तर मधूर मालकंस, भीमसेन अण्णांनी अजरामर केलेला आणि आता यूट्यूबवरून राहूल देशपांडे आणि महेश काळे ह्या द्वयीॅनी घराघरांत पोहोचविलेला. एकूण रागदारी संगीतावर आधारित हे अभंग गायन!

साथीला एकतारी, टाळ आणि मृदुंग असले की भक्तीचे वातावरण चांगलेच तयार होते आणि पट्टीचा कलावंत समर्थपणे सूर, ताल व लय सांभाळून जेव्हा भक्तीगायनाची कला सादर करतो तेव्हा तो श्रोत्यांच्या ह्रुदयाचा ठाव घेतो.गायकाने अभंग संपवितांना विविध ढंगाने पांडुरंग पांडुरंग किंवा विठ्ठला मायबापा असा नामाचा गजर सुरू केला की आपण गाण्याच्या कुठल्या मैफिलीत नसून प्रत्यक्ष ईश्वरदरबारीच बसलो आहोत अशी मनोधारणा होते. हेच खरे भक्तीगीत/अभंग गायन!

भावगीत गायन हा गाण्याचा अगदी स्वतंत्र आणि वेगळा प्रकार! भावनांचा मेळ दर्शविणारी काव्य रचना~कविता, मग त्या मीलनाच्या असतील,  विरहाच्या असतील,प्रीतीच्या असतील अथवा निसर्गांतील रंगछटांविषयी असतील,त्या त्या भावरूपी शब्दांना चढविलेला स्वरसाज म्हणजे कवितेचे होणारे भावगीत!

शांताबाई शेळके, मंगेश पाडगांवकर,  सुरेश भट आदि काव्य रत्नांच्या कवितांना ह्रुदयनाथ मंगेशकर, यशवंत देव, श्रीनिवास खळे, अरूण दाते वगैरे संगीत कारांनी व गायकांनी कवितांचा हा अनमोल ठेवा भावगीतांच्या स्वरूपांत जनतेला,आम्हा रसिकांना दिला.ह्या भावगीत गायनांत आलापी, तानबाजी यांची जराही अपेक्षा नसते. अमूक एक रागांतच ते असले पाहीजे असेही काही बंधन नाही.मात्र शब्दांतून भावना प्रकट करतांना सुरांच्या श्रृतींवर विशेष लक्ष दिल्यास ते भावगीत श्रोत्यांच्या मनाचा ठाव घेते.

कांटा रुते कुणाला, शूर आम्ही सरदार, ऋतु हिरवा ऋतु बरवा, काय बाई सांगू कसं ग सांगू, दिवस तुझे हे फुलायचे,या जन्मावर या जगण्यावर शतदां प्रेम करावे,दिल्या घेतल्या वचनांची शपथ तुला आहे, मेंदीच्या पानावर,तरूण आहे रात्र अजुनी,श्रावणांत घननीळा बरसला ही व अशी कित्येक भावगीते अवीट गोडीची आहेत नि ती आपल्याला कायम आवडतात,आपल्या ओठांवर गुणगुणली जातात याचे कारण त्यांच्यावर चढविलेले स्वरालंकार हे बनावट नसून अस्सल बावनकशी आहेत. ही अशी गीते ऐकली की मनांत येतं, गाणं कोणतंही असो जे कानाला गोड वाटेल आणि मनांत रेंगाळत राहील तेच खरं संगीत!

क्रमशः….

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अनुरागी दोहे ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी के अनुरागी दोहे। )

☆ अनुरागी दोहे ☆ 

श्री गणेश के संग में, श्वेत वसना वीणा!

मात शारदा कर गहो, लेखनी यश देना!!

 

प्रेम प्रेम सगरें कहें, मरम न जाने कोय!

दिय-बाती सँग-सँग जलें, जग उजियारा होय

 

कान्हा की मथुरा कहें, या वृंदावन धाम!

नेह रीति दिखती नहीं, प्रेम बसे बस नाम!!

 

कान्हा की मोहे रटन, कान्हा मेरी आस!

कान्हा मेरे ह्रद बसें, राधा रुक्मिणी साथ!!

 

जड़ से भारी डार है, उससे भारी पात!

सृष्टि नेह सम्मान है, वायु बरखा ताप!!

 

महल दुमहले सर हुये, कलस कँगूरे भाल

नींव नेह पहचानिये, अटल रहे जुग काल

 

देहरी बंजारन भई, आँगन नाहीं आस

जौं लों घर में पी नहीं, पीहर ही बस आस

 

रागी अनुरागी रटें, राम नाम की तान!

राम नाम रचना रचे, ज्यों विधना की आन!!

 

© श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र 440010

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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